शिवपूजन जी को सरकारी अनुदान
- 1 July, 1953
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- 1 July, 1953
शिवपूजन जी को सरकारी अनुदान
हमें यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई है कि आचार्य शिवपूजन सहाय जी को बिहार सरकार ने उनकी चिकित्सा के लिए पाँच हज़ार रुपए का अनुदान दिया है और भारत-सरकार ने उनके बाल-बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के लिए, एक वर्ष के लिए, डेढ़ सौ रुपए महीने अनुदान देने का निश्चय किया है। यह भी सूचित किया गया है कि शिव जी जिस सम्मलित वार्ड में रखे गए हैं, उन्हें वहाँ से हटा कर ऐसे वार्ड में उन्हें ले जाया जाएगा, जहाँ वह अकेले निश्चित रह सकें ? बिहार सरकार ने उनके पथ्य के लिए भी विशेष प्रबंध किया है और डॉक्टरों की एक समिति बना दी है जो उनके स्वास्थ्य के बारे में सरकार को सम्मति देगी। बिहार-सरकार और भारत-सरकार ने इन अनुदानों और प्रबंधों के द्वारा हिंदी संसार का हृदय जीत लिया है, इसमें संदेह नहीं। ‘नई धारा’ ने शिव जी के गिरते हुए स्वास्थ्य के बारे में हिंदी-संसार का ध्यान सबसे पहले आकृष्ट किया था ! हिंदी-संसार ने जैसी तत्परता दिखलाई थी, वह तो प्रशंसनीय थी ही, अब इन सरकारों ने जो किया है, उसके लिए भी हिंदी संसार उनका चिरकृतज्ञ रहेगा। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद ने, जिसके वह मंत्री हैं और जिसकी उन्नति और विकास में उनका बहुत बड़ा हाथ है, यों कहिए, जिसके लिए किए गए अथक परिश्रम के कारण ही उनका स्वास्थ्य इस द्रुतगति से खराब हुआ, यह तय किया है कि वह उनकी सारी रचनाओं को ग्रंथाकार प्रकाशित करेगी और इसके लिए बिहार-सरकार से उसने विशेष अनुदान की माँग की है। हमें पूरा विश्वास है, बिहार-सरकार इस कार्य में भी वैसा ही उत्साह दिखा कर असीम यश का भाजन बनेगी।
राजकमल बनाम शिवदान सिंह
‘नई धारा’ के पिछले अंक में हमने इस प्रसंग पर जो कुछ लिखा; उसे कई तरह से लिया गया; यह स्वाभाविक भी है। कुछ मित्र तो ऐसे नाराज़ हुए, कि उन्होंने हमसे संबंध-विच्छेद करना ही उचित समझा। कई मित्रों ने खबर भेजी, इस विवाद को बंद भी करो ! राजकमल वालों ने 12 छपे हुए लंबे पृष्ठों के वक्तव्य के साथ, दो पृष्ठों का एक पत्र भेज कर हम पर आरोप लगाया है कि हमने “एकदम असत्य और क्षतिकारक प्रचार में सहयोग दिया है।” “संपादकीय उत्तरदायित्व को नहीं निभाया है”, “आपत्तिजनक आक्रोश और आवेश का प्रदर्शन किया है” और इस प्रकार की “छींटा-कशी करके हमारे प्रति और हमारे सहयोगियों के सम्मान को गहरी चोट पहुँचाई है, उसका किंचित् मात्र प्रतिकार करें” ! उनसे गलती यह हो गई कि इस 12 पृष्ठों के वक्तव्य में चार पूरे पृष्ठों के और चार अवतरणों को जो लंबे-चौड़े ब्लाक हैं, उन्हें नहीं भेजा; अत: हम यदि चाहते भी, तो किस तरह इसे छाप पाते ! और, इन ब्लाकों में ऐसी एक भी बात नहीं है, जो शिवदान सिंह के ‘परिपत्र’ की बात कहीं भी काटती हो। चार पृष्ठों के प्रारंभ के ब्लाक और अंतिम ब्लाक तो निस्संदेह इसलिए छापे गए हैं कि चौहान जी और उनके सहकारी नामवर सिंह अपने साथियों में बदनाम किए जाएँ ! यदि राजकमल ने कभी हिंदी लेखकों की पाँत में फूट डालने की कोशिश नहीं भी की हो, तो इन ब्लाकों को छाप कर तो उसने ऐसा अवश्य किया है। असल में छापने थे तो उन अंशों के ब्लाक जिनका शर्तों के साथ संबंध होता, किंतु वहाँ तो ‘शर्तों का रूपांतर संक्षेप से’ देकर ही संतोष कर लिया गया है ! लेकिन, प्रारंभ से ही हमने जो रुख लिया है, उसमें इन शर्तों का कोई महत्त्व नहीं है। हमने देखा है, भारतीय किसानों और मजदूरों की बेबसी से फायदा उठाकर किस प्रकार विदेशी और देशी प्लांटरों, निहले साहबों, जमींदारों और पूँजीपतियों ने ऐसी शर्तें लिखवाईं जिनसे उनकी जमीन-जायदाद पर ही नहीं, उनके शरीर पर भी उनका कब्जा हुआ। हमने, गाँधी जी ने, बड़े नेताओं ने उसके खिलाफ लड़ाइयाँ लड़ीं और वे शर्तें हवा हो गईं ! साहित्य क्षेत्र में वही लड़ाई लेखकों और प्रकाशकों के बीच, संपादकों और पत्र-पत्रिकाओं के मालिकों के बीच जारी है और हम चाहते हैं, आशा करते हैं कि सभी लेखक और संपादक इस लड़ाई में एक कतार में खड़े रहेंगे। जो कोई लेखक या संपादक जाने या अनजाने इस कतार को तोड़ता है, हम उसे भातृद्रोही मानते हैं और हमारा विश्वास है, वह साहित्य की वृद्धि और समृद्धि में हानि पहुँचाता है और यों अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मारता है। शिवदान सिंह क्या थे, क्या हैं, उन्होंने ‘आलोचना’ के संपादन में उस निष्पक्षता का परिचय दिया या नहीं जो एक साहित्यिक, विशेषत: एक आलोचक से अपेक्षित है, किसी मतवाद से उनका क्या संबंध रहा और आज क्या है–प्रश्न ये नहीं हैं। मौलिक प्रश्न यह है कि किसी पत्र-पत्रिका के संचालक को क्या यह अधिकार होना चाहिए कि वह जब चाहे किसी संपादक को हटा दे, खासकर उस संपादक को जिसकी प्रतिभा और सूझ का ही परिणाम वह पत्र या पत्रिका हो ? राजकमल ने जो वक्तव्य भेजा है, उससे भी यही सिद्ध होता है कि ‘आलोचना’ के प्रकाशन में मूल हाथ शिवदानसिंह का था, राजकमल ने सिर्फ पैसे लगाए थे ! किसी ज़मींदार के पास जंगल था, किसी किसान ने जंगल काटा, उसे जोता, जरखेज बनाया, खेती की। अब जमींदार उसे हटाना चाहता है। जमीन पर जमींदार की मिलकियत है, कानून उसके ही पक्ष में हो सकता है; किंतु नैतिकता क्या है ? जो लोग श्रमिकों के हामी हैं, उनका कर्त्तव्य क्या है या उस किसान की ही तरह जो स्वयं श्रमिक हैं, उनका कर्त्तव्य क्या है ? क्या वे उस खेत पर स्वयं अपने को जा बिठलाएँ और लगी लगाई खेत का सुखपूर्वक उपभोग करें ? या जमींदार और उसके कारिंदे को दूसरे की मेहनत पर मौज मारने दें और स्वयं टुकुर-टुकुर देखते रहें ? राजकमल के पक्ष में कानून हो सकता है, यों कहिए कि है ! तभी तो बेचारे शिवदान को दिल्ली छोड़ कर शिमला भागना पड़ा ! किंतु, हम कहेंगे, उनके साथ घोर अन्याय हुआ है और हम लड़ेंगे, सभी मिलजुल कर लड़ेंगे, जब तक दम में दम है। लेखकों और प्रकाशकों तथा संपादकों और संचालकों की लड़ाई उतनी तेज नहीं हुई है, किंतु आग धीरे-धीरे सुलग रही है और जिस तरह वर्षों या युगों से बेदखल किए गए किसान अपनी जमीन के मालिक बन रहे हैं, उसी प्रकार कभी ठगे गए, लूटे गये या निकाले गए लेखक और संपादक भी अपनी पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं का पूर्ण स्वामित्व हासिल करके रहेंगे। राजकमल से हमारा झगड़ा नहीं है, हम क्यों चाहेंगे कि उनकी क्षति हो, उन्हें बदनाम करने की इच्छा भी हमारे मन में क्यों होगी ? वह तो इस समय संयोगवश एक निमित्त-मात्र हो गए हैं, उन्होंने वही किया है, जो उनके भाईबंद करते आ रहे हैं। पिछले अंक में बिहार के ही कई उदाहरण हमने दिए थे। हमारी लड़ाई एक सिद्धांत की है और हमने इस नए उदाहरण के माध्यम से अपने सहकर्मियों–लेखकों और संपादकों–का ध्यान इस प्रश्न की ओर आकृष्ट किया है। हमें दुख है कि हमारे कुछ सहकर्मियों ने इसे दूसरे रूप में लिया और कुछ ने इस पर मतवाद का जामा ओढ़ाने की भी कोशिश की है। हम उनसे फिर आग्रह करेंगे, जरा अपने को, अपने मतवाद को, दूर रह कर इस मौलिक प्रश्न पर विचार करें और सदा याद रखें जिसके दाढ़ में खून लग जाता है, वह कब किस पर झपट्टा मार देगा, इसका ठिकाना नहीं है। राजकमल ने हम पर जो आरोप लगाए हैं, हमें उसका उत्तर नहीं देना है। हमें क्रोध हुआ हम स्वीकार करते हैं। यदि इस घटना से क्रोध नहीं होता, तो हम अपने को हिजड़ा मान लेते। हम इसकी प्रतीक्षा कर नहीं सकते थे कि राजकमल का क्या वक्तव्य होता है, हमें मालूम था, ये प्रकाशक क्या कहते हैं, क्या करते हैं। हमने छींटाकशी नहीं की है, अपने भाई पर चलाई तलवार के सामने अपने को ढाल के रूप में खड़ा करना चाहा है, यह जानते हुए भी कि इसका वार हम पर भी आ गिर सकता है। संपादकीय उत्तरदायित्व का पाठ अब इस उम्र में हम उससे नहीं सीख सकते, वह उन्हें सिखाए, जिन्हें उसने अपने आसपास इकट्ठा किया है। अंत में एक निवेदन हम राजकमल से करेंगे–वह सीधा लड़े, अपने ‘सहयोगियों’ के नाम पर, हमारे ही किन्हीं भाई को, शिखंडी बना कर आगे खड़ा नहीं करे !
सरस्वती सहकार की एक उपयोगी योजना
जब हिंदी राष्ट्रभाषा हो चुकी, तो यह आवश्यक है कि इस भाषा द्वारा अन्य भारतीय और विदेशी भाषाओं के साहित्य का ज्ञान प्राप्त करने की सुविधा भी की जाए। यह काम बहुत बड़ा है और यदि हिंदी साहित्य सम्मेलन या नागरी प्रचारिणी सभा ऐसी संस्थाओं द्वारा इसे संपन्न कराया जाता, तो और भी अच्छा होता। किंतु, आजकल इन संस्थाओं में तू-तू मैं-मैं का बाजार गर्म है। सम्मेलन का काम ठप्प पड़ा है और सभा के पदाधिकारियों का निर्णय करने के लिए पंचायत बैठती है ! लेकिन, इतना आवश्यक कार्य नहीं किया जाए, यह भी हिंदी के लिए कलंक की बात होती। अत: यह प्रसन्नता की बात है कि दिल्ली में स्थापित एक नवीन संस्था–सरस्वती सहकार ने इसका बीड़ा उठाया है कि भारत की पच्चीस भाषाओं पर वह अधिकारी विद्वानों द्वारा पुस्तकें लिखवा कर प्रकाशित करे। इन पुस्तकों में प्रत्येक लगभग सवा सौ पृष्ठों की होगी, और हमें विश्वास है, इनका मूल्य भी सुलभ ही रखा जाएगा। इन पुस्तकों के लेखकों और भूमिका लेखकों के नामों से इसके संचालकों की सूझबूझ और तत्परता का परिचय मिलता है। हाँ, पालि के लिए यदि नालंदा-पालि इंस्टिट्यूट के आचार्य भिक्षु जगदीश काश्यप से सहायता ली जाती, तो बहुत ही उत्तम होता। काश्यप जी हिंदी के नामी लेखक हैं और इस विषय पर उनसे बढ़ कर कोई अधिकारी विद्वान हिंदी-संसार में है भी नहीं। आशा है, सहकार के संचालक इस सुझाव पर विचार करेंगे।
स्वर्गीय पं. लक्ष्मीधर वाजपेयी !
पं. लक्ष्मीधर वाजपेयी को नई पीढ़ी के लोग उतना नहीं जानते, किंतु जिन्हें वर्तमान हिंदी के प्रारंभिक विकास-युग को देखा-सुना है, वह वाजपेयी जी की साहित्य सेवा को भुला नहीं सकते। वाजपेयी जी संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। उन्होंने मेघदूत का हिंदी में समश्लोकी अनुवाद प्रस्तुत कर लोगों को चकित कर दिया था। यही नहीं, उन्होंने कितनी ही उपयोगी पुस्तकें उस युग में प्रस्तुत कीं, जब हिंदी का साहित्य भंडार एकदम सूना था। हिंदी साहित्य सम्मेलन की नींव को पुष्ट करनेवालों में उनकी गिनती थी। वाजपेयी जी में तेजस्विता कूट-कूट कर भरी थी और वह नख से शिख तक राष्ट्रीय थे। पत्रकारिता में भी उनके तेजस्वी व्यक्तित्व ने कमाल दिखलाए थे। हमारे प्राचीन साहित्य-महारथी एक-एक कर हमें छोड़ कर जा रहे हैं, यह हमारे लिए बड़ा ही शोक का विषय है; किंतु, उन्हें जाते हुए भी यह आनंद होता होगा कि जिस बिरवा को उन्होंने अपने खून और पसीने से सींचा, वह इतना विशाल वृक्ष बनकर फूल-फल रहा है। हम वाजपेयी जी की स्वर्गीय आत्मा के प्रति सादर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
Original Image: Brooklyn Museum-Border Drawings and Pag froma Manuscript of Yusuf and Zulaykha by Jami d 1492 Mahmud ibn-Ish
Image Source: Wikimedia Commons
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