वह साहित्यिक तपस्वी : मृत्युशय्या पर!!
- 1 May, 1953
शेयर करे close
शेयर करे close
शेयर करे close
- 1 May, 1953
वह साहित्यिक तपस्वी : मृत्युशय्या पर!!
हाँ यदि हमने तुरंत ही ध्यान नहीं दिया, उनके यथोचित उपचार के लिए, दवादारू के लिए, किसी स्वास्थ्यप्रद स्थान में शीघ्रातिशीघ्र उन्हें भेजने के लिए, तो आज पटना के टी.बी. अस्पताल के जिस बिस्तरे पर हिंदी-साहित्य के हमारे महान तपस्वी, बिहार के हिंदी लेखकों की पिछली पुस्त के स्रष्टा, ऋषियों के जीवन की परंपरा के अंतिम प्रतीक, आचार्य शिवपूजन सहाय जी रखे गए हैं, वह उनके लिए मृत्युशय्या सिद्ध हो सकता है, यह कहते हुए हमें अपार पीड़ा हो रही है, किंतु यथार्थ बात यही है! वस्तुस्थिति से, शुतुरमुर्ग की तरह, आँखें मूँदने से काम नहीं चला करता है! हमने दुख के साथ यह देखा है, श्रद्धेय शिवजी के साथ, ऐसा ही किया गया है–हमारे द्वारा, उनके मित्रों के द्वारा, उनके कुटुंबियों के द्वारा और सरकार के द्वारा भी जिसके जीवन में अंतिम दिनों में, कर्मचारी बनने का अपमान, केवल हिंदी-सेवा को दृष्टि में रख कर, उन्होंने स्वीकार किया था! हाँ, उनका अपमान उसी दिन किया गया था जब उन्हें शिक्षा-विभाग के ‘क्लास वन’ में नहीं रख कर, ‘क्लास टू’ में रखा गया था और जिस पद के लिए एक बाहरी सज्जन को सात सौ रुपए पर बुलाया जा रहा था, उस पद पर उन्हें पाँच सौ रुपए पर ही रखा गया था! यही नहीं, बार-बार इसकी ओर ध्यान दिलाए जाने पर भी, इस ओर ध्यान तो नहीं ही दिया गया, उनसे वैसे कामएलिये जाते रहे, जिनके कारण उनका स्वास्थ्य इस प्रकार अचानक टूट गया! आज बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद जो कुछ है, उसका सारा श्रेय शिवजी को है, जिन्होंने अपने रक्त की एक-एक बूँद देकर इसे सींचा है, पनपाया है, बढ़ाया है! घोर गर्मी में, जलती दुपहरिया में, फाइलों का बंडल दबाए कभी शिक्षा-सचिव, तो कभी शिक्षा-मंत्री के दरबार में दस्तक लगाते फिरना, फिर स्वयं प्रेस-प्रेस में दौड़कर पुस्तकों की छपाई का प्रबंध करना और किसी अच्छे प्रूफ-रीडर के अभाव में, आँखों में मोतियाबिंद हो जाने पर भी, स्वयं प्रूफ तक देखना, यही नहीं, समय-समय पर परिषद के सदस्यों के पास दौड़ेते चलना–और जहाँ ऑफिस का समय सात घंटे है, वहाँ प्रतिदिन, लगातार दो वर्षों तक, चौदह-चौदह घंटे तक काम करना–यह किसी भी आदमी का स्वास्थ्य चौपट कर दे सकता था, शिवजी ऐसे, साठ वर्ष के दुर्बल, वृद्ध व्यक्ति की क्या बात? वह घुलते रहे, गलते रहे, जर्जर होते रहे, उनके मित्र, उनके हितू, देखा किए, देखा ही नहीं किए, उन पर नए-नए बोझ लादते गए ! और इन सबका जो स्वाभाविक परिणाम हो सकता था, वही हुआ। वह बीमार पड़े और होते-होते बात यहाँ आई है कि उनका एक फेफड़ा जर्जर हो चुका है, दूसरे में भी कीटाणुओं ने धावा शुरू कर दिया है और अब उनका जीवन सर्वथा संकटापन्न है!
हिंदी-साहित्य का यह अनुपम व्यक्तित्व!
चाहे जिस कारण से हो, जिसके कारण से हो, यह विवाद का समय नहीं है। इस समय देखना सिर्फ यह है कि इस आखरी वक्त में भी हम शिवजी को बचाने के लिए कुछ कर सकते हैं या नहीं! शिवजी साहित्यिक तपस्वी रहे हैं, मूक, मौन सेवा ही उनका धर्म रहा है। राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद जी से लेकर हममें से शायद ही कोई छोटा-से-छोटा आदमी हो, जिसकी कृतियों को सजाने-सँवारने या जिसे उत्साहित करने और बढ़ाने में, शिवजी का हाथ नहीं रहा हो। शिवजी की अपने नाम से बहुत कम कृतियाँ प्रकाशित हुईं, क्योंकि उन्होंने सदा अपने को गुमनाम रखने, चुपचाप हिंदी सेवा करते रहने और अपनी आभा से दूसरों की चीजों को चमकाने का ही व्रत ले रखा था! हम यह दावे के साथ कह सकते हैं कि जितने लेखकों को प्रकाश में लाने का श्रेय शिवजी को है, उतना पं. महावीर प्रसाद द्विवेदीजी को भी नहीं प्राप्त हुआ था! फर्क सिर्फ यह है कि द्विवेदीजी का व्यक्तित्व इतना तगड़ा था कि उनसे प्रोत्साहन पाकर कोई उसे छिपाने की हिम्मत भी नहीं कर सकता था, किंतु शिवजी का शील-स्वभाव ठीक इसके प्रतिकूल रहा! यहाँ तो यदि किसी ने आभार स्वीकार करना चाहा, तो उसे भी रोकते रहे! बिहार की इस पुश्त पर जो उनकी देन है, उसे कभी भुलाई नहीं जा सकती। यही नहीं, शिवजी के आचार्य्यत्व का सिक्का अन्य हिंदी-प्रांत के गण्यमान्य ही नहीं, अहम्मन्य साहित्यिक तक भई स्वीकार करते रहे। यदि हिंदी-संसार में किसी को अजातशत्रु कहा जा सकता है, तो शिवजी हैं! जो की भी उनके संसर्ग में आया, वह सदा के लिए उनका हो रहा। वह जहाँ कहीं भी रहे, ज्योति बिखेरते रहे। शिव नाम की पूरी सार्थकता उनके जीवन ने दिखलाई है। संसार के लिए अमृत बाँट कर स्वयं उन्होंने हलाहल-पान कर लिया। जिंदगी भर, घूँट-घूँट कर, पिया गया वह हलाहल ही, इस दुष्ट बीमारी के रूप में, उनकी वृद्धावस्था में, प्रगट हुआ है! आज भी उनके मन में किसी के प्रति शिकायत नहीं है, कहीं, जरा भी, कटुता नहीं है। आज भी उनकी क्षीण वाणी आशीर्वादों की ही वर्षा करती है और आज भी उनकी यही आकांक्षा होगी कि उन्हें इसी प्रकार घुल-घुल कर, घुँट-घुँट कर, चुपचाप, चल बसने की आज्ञा दी जाए! ‘उग्र’ ने एक बार कहा था, शिवजी देवता हैं–धरती माता हैं! क्षमा करते जाना उनका प्राकृतिक गुण है, वरदान दिए जाना उनका स्वाभाविक धर्म है! कुछ दुष्टों ने इससे नाजायज़ फायदे भी उठाए। आज जब वह इस स्थिति में हैं, तब भई उन भले-मानसों के हृदय में पश्चाताप जगा होगा कि नहीं, कौन बताए। यदि उन लोगों में यह भाव जगा होता, तो फिर शिवजी के लिए किसी को कुछ करना-धरना नहीं होता! किंतु, उनका स्वभाव भी नहीं बदल सकता, जिस तरह शिवजी का स्वभाव नहीं बदला–ऋषि और बिच्छू की कहानी प्रसिद्ध है न?
हिंदी के सपूतो, दौड़ो, बचाओ!
जन्म और मृत्यु पर किसी का वश नहीं–विधाता के विधान में कोई व्यवधान नहीं डाला जा सकता। किंतु, यह कल्पना भी असह्य लगती है कि हिंदी का यह महान तपस्वी हमारी आँखों के सामने से इस तरह चल बसे! शिवजी को डब्ल्यू.एच.ओ. के टी.बी. सेंटर के पेईंग बार्ड में रखा गया है। किंतु जरा दुपहरिया में जाकर देखिए, वह वार्ड किस तरह आवाँ बन जाता है और किस तरह उसके अंदर शिवजी झुलसते होते हैं! क्या शिवजी को किसी अच्छे पहाड़ी सेनिटोरियम में नहीं भेजा जा सकता है? क्या उनकी चिकित्सा का इससे अच्छा प्रबंध नहीं किया जा सकता है? प्रश्न पैसे का है, फिर क्या नहीं किया जा सकता है? अपने काजी नजरुल इस्लाम के लिए बंगाल ने क्या नहीं किया–हिंदोस्तानी और पाकिस्तानी दोनों बंगाल ने! उन्हें हाल ही विलायत ले जाया गया है, उनकी पत्नी के साथ! पाँच करोड़ लोगों की भाषा ने अपने सपूत के लिए इतना किया और बीस करोड़ लोगों की भाषा के सपूत अपने इस मूक साधक के लिए क्या करने जा रहे हैं? चार करोड़ लोगों का यह बिहार ही क्या करने जा रहा है? यदि हम जुट जाएँ तो क्या दस दिनों के अंदर दस हजार रुपए नहीं इकट्ठे कर सकते?
चंद दिनों के अंदर दस हजार रुपए!
हाँ यदि शिवजी के लिए कुछ करना है, तो चंद दिनों के अंदर दस हजार रुपए हमें इकट्ठा कर देना है! यह कोई बड़ी रकम है? एक पटना में ही इतने हिंदी-प्रेमी हैं कि यदि वे अपनी कमाई के दस दिनों का हिस्सा ही दे दें, तो इतनी रकम बात की बात में इकट्ठी हो जाए! पटना आगे बढ़े, तो फिर बिहार आगे बढ़ेगा और बिहार के आगे बढ़ते ही हिंदी संसार पीछे नहीं रहेगा! शिवजी की यह बीमारी हमारे लिए चुनौती के रूप में आई है ! हमें दिखा देना है, अब इस युग में आचार्य शिवपूजन सहाय ऐसे सरस्वती के अनन्य सेवक को हम रुपए के अभाव में मरने नहीं देंगे! यह सिर्फ शिवजी की ही बात नहीं है; हममें से कितने ऐसे सौभाग्यशाली हैं, जो इस प्रकार किसी बड़ी बीमारी के चक्कर में पड़ जाने पर स्वयं उससे दूर हो जाने का आर्थिक बोझ उठा सकें? हम शिवजी की सेवा के द्वारा उनसे भी जो अशक्त और असमर्थ लोग हैं, उनके लिए रास्ता बना रहे हैं। हर सभ्य देश में ऐसा होता है। यह हमारा दुर्भाग्य रहा है कि अब तक हमने इस ओर ध्यान नहीं दिया। शिवजी को बचाकर हम अपने को बचाएंगे और यदि हम प्राणपण से उन्हें बचाने की कोशिश करेंगे, उन्हें बचा ही लेंगे। शिवजी को अभी बहुत कुछ देना रहा गया है–माँ-हिंदी की सेवा को अधूरा छोड़कर वह नहीं जाएँगे! शिवपूजन जी अमर हों!
शिवपूजन-चिकित्सा-कोष
हमें इस बात की प्रसन्नता है कि मित्रों में इसकी चर्चा करते ही शिवजी के चिकित्सा-कोष के लिए लगभग एक हजार रुपए प्राप्त हो चुके हैं। अगले अंक में, हम आशा करते हैं, दस हजार रुपए की पूरी रक़म के दाताओं के नाम छाप सकेंगे।
Image: Untitled
Image Source: WikiArt
Artist: Eugene Bidau
Image in Public Domain