स्त्री का अपना स्वभाव ही उसका सबसे बड़ा बंधन है
- 1 August, 2016
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- 1 August, 2016
स्त्री का अपना स्वभाव ही उसका सबसे बड़ा बंधन है
पद्मश्री उषाकिरण खान का लंबे समय तक बिहार के साहित्यिक क्षितिज पर स्त्री रचनाकार के तौर पर एकाधिपत्य रहा है। उनकी पहली कहानी का प्रकाशन सन् 1978 में हुआ। तब से अब तक उनकी 13 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें आठ कहानी संग्रह और पाँच उपन्यास हैं। मिथिला की धरती इनकी कहानियों का प्राण-तत्त्व है। मिथिला के संस्कार से इनका व्यक्तित्व अभिसिंचित रहा है। उषा जी की कहानियाँ अपनी सहजता और संवेदनशीलता के लिए जानी जाती हैं। आज के स्त्री विमर्श के ढाँचे में उनकी कहानियाँ भले ही फिट न बैठती हों पर अपने इसी भिन्न तेवर के कारण उनकी कहानियाँ स्त्री लेखन में अपनी अलग पहचान बनाती हैं। उषाकिरण खान की रचनाएँ स्त्री लेखन में अपनी अलग पहचान बनाती हैं इस रूप में कि यहाँ स्त्री, स्त्री के रूप में नहीं, व्यक्ति के रूप में उपस्थित है। उनकी रचनाओं को स्त्री विमर्श के सीमित खाँचे में नहीं रखा जा सकता, पर वे स्त्री हैं और इसलिए उनकी रचनाओं की मुख्य पात्र के रूप में स्त्री आती रही है। यहाँ जो स्त्री है वह आँसू बहाती या नारे लगाती स्त्री नहीं है, पर आप उसे नकार नहीं सकते। वह वहाँ है अपने होने के एहसास से भरी-पूरी, अपनी अस्मिता के प्रति सजग पर हवा-पानी की तरह अवश्यंभावी और स्वाभाविक।
उषा जी की कहानियों में लोक जीवन की जो गंध है, वह स्त्री लेखन में उन्हें अलग खड़ा करती है। लोक रंगों के विविध गंधों से सुवासित ये कहानियाँ स्त्री लेखन का वह क्षितिज है जो आमतौर पर स्त्री लेखन से छूटा रहा है। आगे चलकर मैत्रेयी पुष्पा बुंदेलखंडी संस्कृति के साथ हिंदी कथा जगत में आती हैं और इस कमी को पूरा करती हैं। ‘दूबधान’ जैसी कहानियों में सादगी से भरा लोक जीवन साकार हो उठा है। कोसी अंचल की बंजर पड़ी धरती और वहाँ के लोक जीवन को कथाशिल्पी रेणु ने कहानियों, उपन्यासों और रिपोर्ताजों में साकार किया है। उसी कोसी से संबंधित बिहार का एक और अंचल है मिथिला का जिसकी बाढ़ की विभीषिका को उषा जी ने अपनी एक कहानी में उभारा है। कहानियों के अलावा उषाकिरण खान ने सामाजिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के उपन्यास भी लिखे। वे प्राचीन इतिहास की अध्यापिका रही हैं। ऐतिहासिक उपन्यासों के अगम क्षेत्र में प्रवेश करने वाली चित्रा चतुर्वेदी के अलावा वे दूसरी स्त्री रचनाकार हैं। इन्होंने बिहार की विभूतियों को अपने उपन्यासों का आधार बनाया। ‘सिरजनहार’ विद्यापति के जीवन पर केंद्रित है जिसे उन्होंने ऐतिहासिक साक्ष्यों, लोकजीवन में प्रचलित मान्यताओं और स्वयं विद्यापति की कविताओं के आलोक में बड़ी लगन और तन्मयता के साथ गढ़ा है। ‘अगनहिंडोला’ उषाकिरण खान का एक और ऐतिहासिक उपन्यास है जो बिहार के लोकप्रिय शासक शेरशाह सूरी के जीवन पर आधारित है। भारतीय इतिहास में शेरशाह सूरी अपनी बहुत कम अवधि में अपनी जनसेवा के कार्यों के लिए अविस्मरणीय हैं जो उनकी प्रशासकीय क्षमता और मानवीय सरोकारों को व्यक्त करते हैं। शेरशाह के व्यक्तित्व में धर्मनिरपेक्षता की भावना तथा स्त्रियों और आम जन के प्रति जो गहरी संवेदनशीलता और आदर भाव है, वह आज के समय में उनकी प्रासंगिकता को बढ़ा देता है। अपने ‘रतनारे नयन’ उपन्यास में वे बिहार के राजनीतिक उद्देश्य को बड़ी बेबाकी से सामने लाती हैं। इसमें पटना की अधिष्ठात्री देवी पटन देवी के अहर्निश जगने से रतनारे रक्तिम हो गए नेत्रों के द्वारा पटना में विभिन्न संस्कृतियों और समुदायों के बसने की कथा का वर्णन कर उसे सामयिक राजनीतिक उद्देश्य से जोड़ती हैं। इसमें सन् 2000 के विधानसभा चुनावों की पूर्व संध्या तक की कथा वर्णित है।
उषाकिरण खान की आँखों से पटना के पुराने परिदृश्यों से परिचित होने के क्रम में मैं उनके पास पहुँची। कहना न होगा कि एक साहित्यकार की नजरें समाज में काफी गहरे धँसकर अनुभवों के मोती को बिंबों के रूप में सहेज लाती हैं और इस प्रकार वे दृश्य अपनी सूक्ष्मता और जीवंतता में सजीव हो उठते हैं। उषा जी से मेरी मुलाकात उनके घर पर हुई। सबसे पहले मैंने उनके पारिवारिक, शैक्षणिक संस्कारों के साथ यह जानना चाहा कि साहित्य में उनकी अभिरुचि कैसे पैदा हुई और विरासत के रूप में उन्हें क्या मिला। बातचीत शुरू होते ही मैंने पहला सवाल किया, कि साहित्य में आपका पदार्पण कब हुआ? उस समय पटना या कहें बिहार के साहित्य जगत में कौन-कौन सक्रिय थे? बिहार के साहित्य जगत से विरासत के रूप में आपको क्या मिला?
उषाकिरण जी ने सहज भाव से जवाब दिया–‘मेरा जन्म दरभंगा के मैथिल ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पिता जगदीश चौधरी स्वतंत्रता सेनानी थे। वह आजादी के लिए संघर्ष का दौर था। तब साहित्य और राजनीति में गहरा संबंध हुआ करता था। पिता के घर पर दिनकर, आरसी प्रसाद सिंह, रामवृक्ष बेनीपुरी, शिवपूजन सहाय, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि साहित्यकारों का आना जाना लगा रहता था। साहित्य का संस्कार और परिवेश मुझे घर से ही विरासत में मिला। होश सँभाला तभी से लोक-कथाएँ, बोध कथाएँ आदि ध्यान से सुना करती थीं। मिथिला की संस्कृति ने मेरे साहित्य को सँवारा।
पटना से बहुत पुराना नाता रहा। सात वर्ष की उम्र में पढ़ाई के लिए पटना आना हुआ और लोदीपुर के एंजेल्स गर्ल्स स्कूल में एडमिशन हुआ। पटना में ही एक हॉस्टल था जो आदिवासी क्रिश्चियन लड़कियों के लिए था। पामेला खालको नामक एक ईसाई शिक्षिका के सहयोग से वहाँ रहने की व्यवस्था हुई। पिता ने दो दलित लड़कियों को भी साथ में पढ़ने के लिए भेजा। यहाँ सातवीं तक पढ़ाई की। आगे की पढ़ाई लहेरियासराय में हुई। आठवीं कक्षा में थी जब पिता का निधन हुआ। दसवीं कक्षा में विवाह हो गया। इंटर और उससे आगे की पढ़ाई विवाह के बाद हुई। पटना में पति और मैं अलग-अलग होस्टल में रहकर पढ़ते थे। सन् 1964 में पहली बेटी का जन्म हुआ। सन् 1980 में अध्यापन में आई। एल.आर. गर्ल्स स्कूल में जब मैं पढ़ती थी तो उस समय वहाँ की प्राध्यापिका श्रीमती चिन्मय दासगुप्ता थीं। वे पटना के एक बंगाली परिवार से थीं। इन्होंने स्कूल में एक नया प्रयोग किया था। स्कूल में एक पर्दा लगा होता था जिस पर प्रति हफ्ते एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म तथा महीने में एक बार कोई एक फीचर फिल्म दिखलाई जाती थी। बच्चों से उनका रिव्यू लिखवाया जाता था। उन समीक्षाओं के आधार पर साल में किसी एक बच्ची को पुरस्कृत किया जाता था। आज मैं स्वीकार कर सकती हूँ कि मेरे साहित्यिक संस्कारों को विकसित करने में संभवतः इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही हो। उन्हीं दिनों कविता लिखने की आदत पड़ी।’
यह जानकर आश्चर्य हुआ कि साहित्य में उनका प्रवेश कविता के माध्यम से हुआ। उनकी सुनाई पंक्तियाँ मुझे याद हैं जो इस प्रकार थीं–‘गाछ से गिरे पात/आँसू ढरक गए बिन कहे बिन बात/ऋतुराज आए।’ मैंने पूछ लिया–‘तो साहित्य में आपका प्रवेश कविता के द्वारा हुआ?’ उन्होंने सहज भाव से जवाब दिया–‘हाँ, पहले मैं ऑल इंडिया रेडियो पर कविताएँ सुनाया करती थी। नागार्जुन के साथ मैं कवि सम्मेलनों में भी भाग लेती थी और मंच पर कविताएँ सुनाती थी।’
‘उस समय पटना का साहित्यिक माहौल क्या था? विशेषकर स्त्री लेखन में कौन-कौन सक्रिय थीं?’ मेरे इस सवाल पर उन्होंने कहा–‘दिनकर मेरे पिता के मित्र थे। पटना में उस समय रामदयाल पांडेय, नकेनवाद वाले केसरी कुमार और नरेश जी, लक्ष्मी नारायण सुधांशु–ये विधान सभा में थे, हंस कुमार तिवारी, हिंदी के प्रचारक बाबू गंगाशरण सिंह जिन्होंने दक्षिण में हिंदी प्रचार का दायित्व लिया था, आदि साहित्य में सक्रिय थे। प्रगतिशील लेखक संघ भी चल रहा था। हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थिति भी तब बहुत अच्छी थी।’ ‘जनशक्ति’ का प्रकाशन भी हो रहा था। खगेंद्र ठाकुर का भी साहित्य में पदार्पण हो चुका था। उन्होंने अपनी ‘उत्तरशती’ में मेरी एक कहानी भी प्रकाशित की थी। स्त्री रचनाकारों में उस समय बिन्दु सिन्हा थीं जो कहानियाँ लिख रही थीं। प्रकाशवती नारायण भी थोड़ा बहुत लिखती थीं। राँची में ऋता शुक्ला थीं जिन्होंने मेरे साथ ही लिखना शुरू किया था। कविता में शांति सुमन, शांति जैन थीं। रमणिका गुप्ता थी जो उस समय कविताएँ लिखा करती थीं। शंकर दयाल सिंह थे तो राजनीति के, पर साहित्य में भी गहरी रुचि लेते थे। उनके ब्याज से साहित्यिक गोष्ठियाँ हुआ करती थीं जिसमें देश के बड़े-बड़े साहित्यकार भाग लेने आते थे। जैनेंद्र, अज्ञेय, पं. विद्यानिवास मिश्र, गिरिराज किशोर जैसे साहित्यकार तब पटना आते रहते थे। उन दिनों सबसे बड़ी बात यह होती कि इस तरह का आयोजन नागरिक समाज मिलकर करता था। कॉफी हाउस बंद हो चुका था। डाकबंगला पर पारिजात प्रकाशन हुआ करता था, वहाँ प्रतिदिन साहित्यकारों का जमावड़ा होता था। तब बिहार साहित्य सम्मेलन की भी गरिमा थी। सब साथ मिलकर उठते बैठते थे। राजनीति और साहित्य में तब नजदीकी थी। तब के समय को याद करती हूँ तो एक महत्त्वपूर्ण घटना की ओर मेरा ध्यान जाता है। सन् 1965 में चरखा समिति की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर प्रभावती जी ने कवयित्रियों का एक सम्मेलन करवाया था जिसमें मुख्य अतिथि के तौर पर श्रीमती इंदिरा गाँधी आई थीं। इसमें रमणिका गुप्ता, शांता सिन्हा, अलका सहाय, प्रेमा श्रीवास्तव आदि कवयित्रियों ने भाग लिया था। कथाकार बिन्दु सिन्हा भी उपस्थित थीं। बिहार के परिप्रेक्ष्य में यह एक अनूठा आयोजन था।’ इतना कह वह चुप हुई ही थीं, कि मैंने पूछ लिया–‘फिर कविता से नाता कैसे छूट गया और गद्य के साथ गठबंधन कैसे हो गया?’ वह मुस्कुराने लगीं। फिर कहा–‘जो भाव मन में आते थे उनमें अनेक को कविता में अभिव्यक्त करना असंभव लगा। तब गद्य की ओर उन्मुख हुई। मन में आता था कि मेरे क्षेत्र के लोगों की बात काश कोई लिख पाता। तब कहानी अपने आप जन्म लेने लगी। शरतचंद्र, प्रेमचंद, रेणु आदि की कहानियाँ प्रेरणा बनीं। नागार्जुन की शैली को मैंने अपनाने की कोशिश की।’
अब उनके कथन में कहानियों की चर्चा होने लगी, तो मैंने पूछ लिया–‘कहानी लिखना आपने कब शुरू किया?’ उषा जी का जवाब था–‘सन् 1978 में मेरी एक कहानी ‘आँखें स्निग्ध तरल’ श्रीपत राय की पत्रिका ‘कहानी’ में प्रकाशित हुई। तब ‘कहानी’ में छपना कथाकारों का सपना हुआ करता था। इसके बाद ‘धर्मयुग’ में ‘विवश विक्रमादित्य’ का प्रकाशन हुआ। वह धर्मवीर भारती जी की पसंद थी। वे मेरी कहानियों के बड़े प्रशंसक थे जबकि मेरी उनसे कभी मुलाकात नहीं हुई थी। यह वह समय था जब अकहानी आंदोलन अपने अंतिम दौर में था। अकहानी के परिपार्श्व में मैं संवेदनाओं और सरोकारों वाली कहानियाँ लेकर आई और कहानी को स्थापित किया। आमतौर पर मेरी कहानियाँ मिथिलांचल की हैं, पर दो कहानियाँ मगध क्षेत्र पर भी हैं–‘हँसि हँसि पनवा खिलवले रे बईमनवा’ तथा ‘सत्यापन’। यह कहानी नक्सलवाद और जातीय संघर्ष से ओतप्रोत है।’ वे बोल ही रही थीं, कि मेरे मुँह से निकल पड़ा–‘और बीच के दस-बारह वर्ष?’ कुछ देर की चुप्पी के बाद उन्होंने कहा–‘परिवार में जब बच्चे और बुजुर्ग हों तो उन्हें ध्यान देना पड़ता है।’ उनके इस संक्षिप्त जवाब में बहुत कुछ अनकहा भी समा गया। स्त्रियों का अपना सच! मैंने पूछा–‘तो कहीं कोई छटपटाहट, पीड़ा?’
‘नहीं। रचनात्मक स्तर पर भले ही ये वर्ष शून्य रहे हों, पर अनप्रोडक्टिव नहीं कहे जा सकते, इस समय मैं खूब पढ़ा करती थी। पढ़ना मेरे दोनों परिवारों का व्यसन था।’ उनके जवाब से मुझे आश्वस्ति मिली, लेकिन फिर भी मैंने पूछ लिया–‘तो ये वर्ष आपके निर्माण के रहें?’ उनका फिर वही संक्षिप्त जवाब–‘हाँ, कह सकती हैं।’ मैंने बातचीत की दिशा बदलनी चाही–‘तब के समय में और आज के समय में आप क्या गुणीभूत अंतर पाती हैं?’
‘बहुत कुछ बदला है। सबसे पहले तो अस्पृश्यता की बात लें। अस्पृश्यता जैसी चीज तो स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान खत्म होने लगी थी। सामंतवाद और जातिवाद की जड़ें भी टूटी हैं। बिहार में तीन संस्कृतियाँ रही हैं। पहली तो मिथिला संस्कृति। यह साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टि से संपन्न रही है तथा शिक्षा की दृष्टि से भी समर्थ है। यह संस्कृति स्वभावतया कोमल रही है। यहाँ के गाँवों में बड़े सामंतों और आमजनों की दुनिया अपनी अपनी रही है। यहाँ जातिवाद की उपस्थिति भी निर्मम रूप में नहीं रहीं। मतदान का समय निकट आता है तो ध्रुवीकरण जैसी स्थितियाँ हो जाती हैं। इसके लिए गाँवों के जातीय समीकरण से अधिक नेतागण जिम्मेदार हैं। दूसरी तरफ भोजपुर की संस्कृति है। वह अपनी उग्रता के लिए जानी जाती है। तीसरी तरफ पटना मगध की संस्कृति है। यह सम्राटों की धरती है। स्वाभाविक है कि यहाँ सम्राटों की मनोवृत्ति है और सामंतवाद का प्रभाव है।’ मैंने बीच में ही उन्हें टोका–‘और स्त्रियों के जीवन में?’ उन्होंने कहा–‘स्त्रियों के जीवन में बहुत बड़ा बदलाव आया है। पहले कम उम्र में शादियाँ हुआ करती थीं। अब ऐसा नहीं है। गाँवों की लड़कियाँ भी पढ़ाई कर पा रही हैं। हमारे समय में मेडिकल और अध्यापन–ये दो क्षेत्र ही लड़कियों के लिए माने जाते थे। अब ऐसी बात नहीं है। जीवन का हर क्षेत्र उनके लिए खुला है। किसी भी समाज की प्रगति उसकी महिलाओं द्वारा आँकी जाती है। जब स्त्री जीवन में बदलाव आता है तो समाज में भी बदलाव आता है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि स्त्रियों के जीवन में आए इन बदलावों ने उनमें निर्णय लेने की क्षमता विकसित की हैं।’
मैंने फिर एक बार बातचीत की दिशा बदलनी चाही–‘साहित्य जगत में आपके प्रेरक व्यक्तित्व कौन-कौन हैं?’ उनका जवाब था–‘नागार्जुन का मेरे साहित्यिक जीवन पर गहरा प्रभाव रहा। वे मेरे गाँव के थे। पिता बहुत छोटी अवस्था में गुजर गए। पिता के गुजरने के बाद वे ही अभिभावक की तरह रहे। पटना आकर जब मैंने कॉलेज में आगे की पढ़ाई शुरू की तो नागार्जुन ही मेरे स्थानीय अभिभावक रहे। उन्हीं की प्रेरणा से मैं पटना आकाशवाणी, जो उस समय ऑल इंडिया रेडियो हुआ करता था, पर मैं कविताएँ सुनाती थी। बाद में उनके साथ मैं कवि सम्मेलनों में भी जाने लगी। नागार्जुन कहा करते थे कि हिंदी को हिंदी की तरह लिखना चाहिए, क्लिष्ट नहीं! ऐसी कि पंजाब, राजस्थान के लोग भी समझ सकें। मैथिली का वही शब्द लो, जो हिंदी में घुल जाएँ। मैथिली की मिठास से हिंदी को समृद्ध करो।’
मेरा अगला सवाल था–‘आपके विपुल साहित्य में आपका अपना प्रिय पात्र कौन है?’ उनका जवाब था– ‘दूबधान’ की सबुझनी जैसी पात्र मेरी प्रिय रही हैं। इसे अपने गाँव घर से बहुत प्यार है। वह मुस्लिम है पर गाँव के योगक्षेम के लिए समर्पित है। ‘दूबधान’ कहानी ने मुझे यश भी बहुत दिलाया। अढ़ऊल मेरी एक महत्त्वपूर्ण पात्र है जो निम्न वर्ग की स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती है। निम्न वर्ग में स्त्री-शुचिता जैसा कोई बंधन नहीं है। जितनी निश्छलता से वह संबंध बनाती है, उतनी ही प्रतिबद्धता से वह अपने पति के साथ चली जाती है। शरीर की जरूरत पति के प्रति निष्ठा में आड़े नहीं आती। वैसे भी वेदों में माना गया है कि रजस्वला के बाद स्त्री पुनः शुद्ध हो जाती है।’ अपने प्रिय पात्रों में जब उन्होंने अपने स्त्री-पात्रों के ही नाम लिए, तो स्वभावतः मैंने पूछ लिया–‘एक स्त्री के रूप में आपके जीवनानुभव क्या रहे हैं? वे कौन से बिंदु हैं जिन्होंने स्त्री होने के कारण आपकी गति पर अंकुश लगाये?’ उन्होंने सहज भाव में उत्तर दिया–‘मेरे पिता के घर में तो माहौल साहित्यिक था ही, ससुराल में भी साहित्य के प्रति गहन अभिरुचि थी। पति स्वयं बड़े अध्ययनशील हैं। इसलिए बाधा कहीं नहीं हुई। मेरी अधिकतर पढ़ाई शादी के बाद ही हुई। मैं तो यही मानती हूँ कि घर और स्त्री का अपना स्वभाव ही उसका सबसे बड़ा बंधन है।’
बातचीत लंबी हो चली थी, जिसे समेटने के लिहाज से पूछ लिया–‘आपकी प्रिय रचनाकार?’ उनका जवाब मिला–‘किरण सिंह की कहानियाँ मुझे बहुत प्रिय हैं। ‘हंस’ के नवंबर अंक में प्रकाशित उनकी कहानी ‘द्रौपदी पिक’ एक बड़ी अच्छी कहानी है। चंद्रकला त्रिपाठी, जयश्री राय, उर्मिला शिरीष, रीता सिन्हा आदि की कहानियाँ मुझे पसंद हैं। इसके अतिरिक्त भी बहुत से नाम हैं जैसे–मीनाक्षी, अल्पना, गीताश्री, कविता, वंदना राग–ये सभी उत्तरोत्तर विशिष्टता की ओर बढ़ रही हैं।’ अपने प्रिय रचनाकारों में भी उन्होंने सभी स्त्री रचनाकारों के ही नाम लिए, तो मैंने पूछ लिया–‘आज के स्त्री-विमर्श पर आपकी क्या टिप्पणी है?’ उन्होंने बेबाकी से कहा–‘आज का स्त्री विमर्श सिर्फ बीस प्रतिशत स्त्रियों का विमर्श है। ये वे स्त्रियाँ हैं, जिन्हें धरातल की कोई समझ नहीं है। यह फैशन पर चल रहा है। यह भारतीय चिंता नहीं है। यह अस्सी प्रतिशत से दूर है। यह महानगर का विमर्श है, नगर और ग्राम से दूर।’ मेरा अंतिम सवाल था–‘साहित्य की नई पीढ़ी, विशेषकर स्त्री रचनाकारों के लिए आपका संदेश।’ उन्होंने गंभीरतापूर्वक जवाब दिया–‘स्त्री संगठित रूप में खड़ी हो। एक स्त्री के पीछे कई स्त्रियाँ हों। आने वाला समय स्त्रियों का है। मेरे उपन्यास ‘रतनारे नयन’ की समाप्ति स्त्री शक्ति के उदय के साथ होती है। यह सन् 2000 के विधानसभा चुनावों पर जाकर खत्म होता है। इक्कीसवीं सदी स्त्रियों की है। इस पर मैं एक उपन्यास भी लिखने वाली हूँ।’
Image: Brooklyn Museum Gauri Ragini Page from a Dispersed Ragamala Series
Source: Wikimedia Commons Image in Public Domain