औरत को खुद आगे बढ़ना होगा

औरत को खुद आगे बढ़ना होगा

प्रवासी लेखिका सुषम बेदी से अंतरंग बातचीत

समकालीन प्रवासी भारतीय लेखिका सुषम बेदी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। वे न्यूयार्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय में ‘मिडिल ईस्टर्न और एशियन लैंग्वेजेज और लिटरेचर’ विभाग में हिंदी भाषा और साहित्य की प्रोफेसर रही हैं, विदेश की धरती पर रहते हुए भी अपनी भाषा और साहित्य के प्रति उनका लगाव यथावत बना हुआ है। प्रगतिशील जीवन मूल्यों में आस्था रखनेवाली प्रो. बेदी ने अनवरत अपने सृजनात्मक लेखन के जरिये साहित्य और भाषा के प्रति अपने लगाव को व्यक्त किया है। ‘हवन’ से अपनी सृजनात्मक यात्रा शुरू कर ‘मैंने नाता तोड़ा’, ‘गाथा अमरबेल की’, ‘इतर’, ‘मोर्चे’, ‘नवभूमि की रस कथा’, ‘चिड़िया और चील’ (कहानी संकलन), ‘कतरा-दर-कतरा’, ‘लौटना’ आदि अभी भी जारी है। वर्ष 2006 में काव्य संकलन ‘शब्दों की खिड़कियाँ’ शीर्षक से भी आया। साहित्य की प्रायः सभी विधाएँ चाहे वह कविता हो, कहानी हो, उपन्यास हो, नाटक हो या निबंध या आलोचना या आत्मकथा उनकी कलम से अछूता नहीं रहा। आज भी लेखन में उनकी सक्रियता बनी हुई है। हाल ही में उनकी आत्मकथा ‘आरोह और अवरोह’ तथा ‘हिंदी भाषा का भूमंडलीकरण’ (निबंध संकलन, 2012) प्रकाशित हुई है। एक कहानी संग्रह ‘तीसरी आँख’ 2015 में छपी। तो जीवन और लेखन दोनों में उनकी सक्रियता बनी हुई है। उनके गंभीर लेखन और कार्य को देखते हुए ही उनकी रचनाएँ अँग्रेजी, डच, फ्रेंच सहित दूसरी भाषाओं में अनूदित की जा चुकी हैं। हिंदी भाषा और साहित्य में योगदान के लिए वर्ष 2007 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की ओर से भी वे पुरस्कृत हो चुकी हैं और 2007 में दिल्ली की साहित्य अकादमी सम्मान से भी सम्मानित हो चुकी हैं। इसी वर्ष उन्हें केंद्रीय हिंदी संस्थान के ‘पद्मभूषण सत्यनारायण मोटुरी’ सम्मान प्राप्ति का गौरव भी मिला है।

यह एक सुखद संयोग रहा है कि अप्रैल में आई.आई.टी., खड़गपुर के टीचिंग असाइनमेंट के सिलसिले में आई हुई प्रो. सुषम बेदी जी से अचानक मुलाकात हुई। पहली मुलाकात में ही उनके स्नेहिल व्यक्तित्व ने आकर्षित किया और बातचीत का सिलसिला चल निकला। उनके लेखन से मेरा बहुत करीबी रिश्ता नहीं रहा है लेकिन जिस चीज ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया, वह है उनका बहुआयामी, समृद्ध, विशाल व्यक्तित्व और साहित्य, स्त्री, राजनीति और धर्म पर उनकी प्रगतिशील सोच। दो भिन्न संस्कृतियों को जीते और देखते हुए उन्हें अपनी रचना का हिस्सा बनाना कम बड़ी बात नहीं है। प्रस्तुत है ‘नई धारा’ के पाठकों के लिए प्रो. सुषम बेदी से मेरी लंबी बातचीत के कुछ अंश।

मैम, हिंदी में आत्मकथाएँ बहुत देर से आई जबकि दूसरी भारतीय भाषाओं में जैसे मराठी वगैरह में यह बहुत पहले शुरू हो गई थी। आपके विचार में इसके क्या कारण हो सकते हैं कि हिंदी में महिलाओं ने आत्मकथा बहुत बाद में लिखना शुरू किया?

हिंदी में लेखिकाओं ने लिखना ही बहुत देर से शुरू किया, जहाँ तक आत्मकथा की बात है, जो महिलाएँ हैं, उनके लिए लेखन सहज काम नहीं था। आपको भारतीय महिला का अंदाज तो है ही, जहाँ से भारतीय महिलाएँ अपने आपको अभिव्यक्ति नहीं देतीं और परिवार में जो उनका स्थान होता है, जो उनकी स्थिति होती है, उसमें आत्माभिव्यक्ति की गुंजाइश भी बहुत कम होती है। इसलिए ज्यादातर महिलाओं को जब कहानियों और कविताओं का माध्यम मिला तो वही उनके लिखने के लिए बहुत था, जिसके माध्यम से वे आत्माभिव्यक्ति करती रहीं और सीधे से यह कहना, ‘यह मेरी कहानी है’, यह हिम्मत लोगों में नहीं थी। हमारी महिलाओं में, जिस तरह के समाज में वे पलती हैं, जिस तरह की परवरिश उनकी होती है, उसमें अपनी भावनाओं को छुपाकर रखना उनका स्वभाव बन जाता है। इसलिए मैं सोचती हूँ कि आत्मकथा जो है वह तब लिखी गई, जब हमारा नारी आंदोलन काफी आगे बढ़ा और फिर आजादी का सैलाब आया तब उन्हें हिम्मत हुई, वरना अपनी कहानी कहने की हिम्मत हमारी महिलाओं में नहीं थी।

हिंदी की पहली आत्मकथा सीमंतनी उपदेशमानी जाती है। इस पुस्तक की लेखिका ने अपना नाम गुप्त रखा था, आपके विचार में इसके क्या कारण हो सकते हैं?

गुम इसलिए रखना पड़ा क्योंकि हमारी भारतीय समाज व्यवस्था की जो परतें हैं, उसका जो काम करने का सिस्टम है, जो तरीका है, उससे हम सभी परिचित हैं। यह कहने की बात नहीं है और उसमें जो औरतें हैं, वे अपने नाम से अपनी बात कहने से घबराती हैं क्योंकि वे परिवार पर आश्रित होती हैं। परिवार वाले की क्या सोच है, वे क्या कहेंगे ये सब बातें बड़ी महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। मुन्नी, आपने अपने यहाँ आयोजित कार्यक्रम में उस दिन (विद्यासागर विश्वविद्यालय के हिंदी और सोशियोलॉजी विभाग द्वारा आयोजित कार्यक्रम में प्रो. सुषम बेदी द्वारा विशेष व्याख्यान के बाद छात्राओं ने उनके समक्ष अपनी समस्याएँ रखीं) देखा तो आपकी एक वहाँ की छात्रा ने कहा, ‘घर से बाहर निकलने पर कैसे लोग बातें सुनाते हैं, छींटाकशी कसते हैं’, तो लापरवाह होना और परवाह न करना यह हमारी महिलाओं के स्वभाव में नहीं रहा। ज्यादातर परिवार उन पर हावी रहा है तो उसी का ध्यान रखते ही वे अपने आपको बाँध लेती हैं कि उनको कोई लज्जित न करें, गुस्सा न दिलाये। मैं तो यह मानती हूँ कि औरतों में अपने आपको सीधे अभिव्यक्त करने की हिम्मत बहुत कम है। जो मैंने अपना उपन्यास लिखा है ‘गाथा अमरबेल की’, उसमें स्थिति यही है कि औरत जो है, उसे इतना दबाया गया है कि वे अपने सरवाईवल के लिए कई तरह की चालाकियाँ करना सीख गई हैं। सास बहू के किस्से हमारे यहाँ ज्यादा होते हैं, देखा जाए तो ऐसा क्यों है कि जो औरत है वही औरत पर जुल्म करती है। एक तो उसमें औरत को जिस तरह से उसे बचपन से पाला जाता है, तो उसे बार-बार औरत होने का एहसास कराया जाता है। पुरुष को प्रधान बना दिया जाता है और औरत को…वह ईर्ष्या की चीज बन जाती है। चाहे वह सौत के रूप में हो या एक पर महिला के रूप में। हमेशा आपके जीवन में औरत का इस तरीके का रूप रहता है, सौत हमेशा होती थीं तो उसके प्रति ईर्ष्या का भाव तो होगा ही। तो इसी तरह जो माँ है, जो सास बनती है, वह भी पति पर अपना अधिकार रखना चाहती है तो महिला, महिला में एक ईर्ष्या का भाव रहता है क्योंकि औरत को पुरुष से इतना कम मिलता है कि अगर कोई और औरत उसमें शेयर करने के लिए आ जाती है, तो वह औरत को ही, उस दूसरी औरत को ही खत्म करना चाहती है तो यह स्थितियाँ हमारे समाज में, परवरिश में, हमारी सामाजिक स्थितियों में बहुत ही महत्त्वपूर्ण रही है। यही वजह है कि औरत नहीं कर पाती है।

स्त्री आत्मकथा की सैद्धांतिकी की बात आजकल बहुत की जाती है, आपकी दृष्टि में क्या आत्मकथा की कोई सैद्धांतिकी होनी चाहिए?

बात यह है कि सैद्धांतिकी तो बाद में आती है, कोई हमें प्रेस्कराइब थोड़े न करता है कि ऐसे लिखो, उपन्यास वगैरह भी जो हैं क्योंकि वे बहुत पहले से लिखे जाने लगे थे इसलिए उनकी सैद्धांतिकी भी बन गई और कहा गया कि उसमें आगे ये ये चीजें होनी चाहिए। लेकिन आत्मकथा तो नयी बात है तो अभी उसकी सैद्धांतिकी कैसे तय की जा सकती है? उनकी एक मुख्य शर्त यह है कि वह जीवन को, एक जीवन को खोलती चले और उसमें अभी ये तो होगा कि एक वह जिसे कहते हैं आर्गेनाईजेशन, किताब का आर्गेनाईजेशन, एक संगठन होगा, उसमें चैप्टर्स होंगे लेकिन अलग-अलग। लोगों ने अलग-अलग ढंग से अब जैसे बच्चन वगैरह की जो आत्मकथा है, कितने-कितने भागों में लिखी गई और उसमें लगातार वे अपनी बात बताते चले हैं और फिर हर वॉल्यूम में उनका एक बड़ा हिस्सा एक तरह से कवर हो जाता है तो वैसे मैंने जो लिखा है, वह अलग-अलग ‘एस्सेज’ के रूप में लिखा है। अपनी कथा को अलग-अलग चैप्टर की शक्ल दी है। दरअसल वे इंडिपेंडेंस से हैं लेकिन जरूरी नहीं कि ‘इंडिपेंडेंट लोग आत्मकथा इस तरह भी लिखते हैं कि हर चैप्टर की कॉट्युनिटी बनी रहती है। जो बात कह रहे हैं, उसी की कॉट्युनिटी से आगे चलते हैं। यह बिना चैप्टर्स के भी होते हैं तो जिस तरीके से दूसरी विधाओं में एक स्वतंत्रता होती है रूप गढ़ने की, उसी तरह की आत्मकथा में बंधन भी है कि आपको ‘आर्गेनाईज’ ढंग से लिखना है, जिससे कि उसका अपना एक आंतरिक संगठन होगा, स्वरूप होगा लेकिन उसमें आजादी भी है, जैसे हर सृजनात्मक लेखन में आजादी होती है कि आप किस तरह से उसका रूप गढ़ते हैं, आपको जो कहना है, जो अभिव्यक्त करना है, उसके अनुरूप आप उसे रूप देते हैं।

इधर जो स्त्री आत्मकथाएँ आई हैं, क्या आपने पढ़ी हैं?

नहीं, बहुत कम पढ़ी है। मन्नू भंडारी जी की पढ़ी है। ‘अन्या से अनन्या’ पढ़ना चाह रही हूँ पर किसी कारणवश पढ़ना संभव नहीं हो पाया है। उनके बेटे से कहने वाली हूँ कि वह इधर न्यूयार्क आनेवाला है तो लेता आए।

तो मन्नू भंडारी जी की आत्मकथा पर आपके अपने विचार क्या हैं?

मन्नू भंडारी की आत्मकथा पढ़ी पर उसमें ज्यादा कुछ नहीं बस सफाई पेशी है। उससे पहले राजेंद्र यादव की आत्मकथा निकल चुकी थी और उसमें कई चीजों के आरोप उन पर लगे थे तो एक तरह से उन आरोपों का उत्तर देती हुई मन्नू जी नजर आई कि मेरा पति ऐसा है। मुझे लगा कि असल में बात क्या थी कि ‘एक कहानी यह भी’ मन्नू की तरफ से उन सारी बातों का उसमें खुलासा ही है। वह उसमें अपने पूरे जीवन को नहीं समेट रही थी। वह सिर्फ उनके उन घटनाओं को जो राजेंद्र यादव के साथ उनके जीवन में घटनाएँ घटीं, उन्हें जो तकलीफें हुईं, जो शिकायतें हुईं वह सब उनके बारे में हैं, वह मजा आया पढ़ने में, चूँकि इन दोनों के बारे में हम जानते हैं और उनके उपन्यास और कहानियों के बारे जानते हैं, तो पढ़कर मजा आता है। लेकिन मुझे लगा कि ठीक है कि कहानी की तरह पढ़ लो लेकिन उसमें आत्मकथा जैसी कोई बात नहीं थी।

आत्मकथाओं के विषय में एक बात कही जाती है कि उसमें सच्चाई और ईमानदारी का होना बहुत जरूरी है, बिना उसके आत्मकथा, आत्मकथा नहीं मानी जा सकती है, उसके बगैर वह एक तरह से उपन्यास और जीवन की घटनाओं का लेखा-जोखा है। इधर जो आत्मकथाएँ देखी गई हैं, आपको लगता है कि जो स्त्रियाँ आत्मकथाएँ लिख रही हैं, वे जीवन की सत्यता का इस ढंग से खुलासा करती हैं अपनी आत्मकथाओं के माध्यम से। जैसे प्रभा खेतान के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवन की घटनाओं को बड़ी दबंगई के साथ कहा, दुनिया-जमाना उसके बारे में क्या कहेगा इसकी परवाह किए बगैर उन्होंने कहा। लेकिन इस तरह की चुनौतियों के खतरे भी अनेक होंगे स्त्री के लिए। जहाँ बोलने की आजादी नहीं थी वहाँ इस तरह लिखकर अपने जीवन का पन्ना-दर-पन्ना खोलकर रख देना तो इसमें बड़े खतरे भी हैं तो आप क्या सोचती हैं, बाकी आत्मकथाएँ आ रही हैं, क्या उसमें सत्यता का निरुपण क्या उस ढंग से हो पाता है?

बात यह है कि मुझे लगता है जब एक औरत की आत्मकथा सामने आती है तो लोगों की रुचि उसके पढ़ने में तभी होती है जब उसमें उसकी सेक्सुअल लाइफ भी होती है, उसकी बातें होती हैं और ‘अपहुदरी’ में भी यह स्थिति है। सेक्सुअल लाइफ का खुले तौर पर चर्चा है तो लोगों को उसमें बहुत दिलचस्पी लगती है और मुझे लगता है कि सेक्स की बात न भी हो तो और औरत में सच्चाई और ईमानदारी से अपनी कहानी कहने का माद्दा हो वह भी सही चीज है लेकिन सबकी सेक्सुअल जिंदगी कोई बहुत दिलचस्प भी नहीं होती और कोई कहने की बहुत बातें नहीं होती पर अगर ईमानदारी से जो कुछ भी बताना चाहे और बता दे अगर तो आपकी दूसरी चीजें न मिले तो हो सकता है कि आपको इतनी रुचि न हो पढ़ने में तो आपको लग सकता है कि व्यक्ति झूठ बोल रहा है या छिपा रहा है पर देखा जाय तो मुझे लगता है कि यह एक ट्रेंड चल पड़ा है। ‘अन्य से अनन्या’ के बाद खास तौर से सेक्सुअलिटी के बारे में बात की जाय तो वह एक मानदंड नहीं होना चाहिए आत्मकथा का। आत्मकथा में जैसे दलित आत्मकथाएँ भी आ रही हैं तो उसमें भी कई तरह के संघर्ष हैं, जो जीवन के हर रूप को लेकर के आत्मकथा अपनी बात कह सकती है। सिर्फ सेक्सुअलिटी की बात कहना जरूरी नहीं है।

आपने भी तो अपनी आत्मकथा लिखी हैं आरोह-अवरोह। इस पर आपकी अपनी क्या राय है? आप अपनी दृष्टि से आत्मकथा का क्या वैशिष्ट्य मानती हैं? आपने अपनी इस आत्मकथा में जीवन के किन-किन पक्षों का खुलासा किया है?

मुझे लगता है कि मेरा जीवन विचार प्रधान रहा है और उसमें मेरी सोच, मेरा जीवन और उसमें किस तरह से मेरी सोच बनी है, मैं बनी हूँ वह मेरे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है। मतलब मैं क्या हूँ और वह मैं कैसे बनी हूँ। जैसे कि नेहरू के जमाने में मेरा बड़ा होना। मैं किस तरह के ख्यालातों में बड़ी हुई। मतलब मैं एक उदाहरण दे रही हूँ कि मैं किस-किस तरह के ख्यालातों में बड़ी हुई और किस तरह के ख्यालातों को अपने जीवन में ढाला, हमेशा जिंदा रखा। एक तरह से उन सारी चीजों को अपने में धारण की हुई हूँ तो उसमें जीवन के कई तरह की व्यक्तिगत घटनाएँ और अनुभव और जिन लोगों ने मेरे जीवन को प्रभावित किया वे सब लोग भी हैं और जिन परिस्थितियों और जिस माहौल में पली-बढ़ी उससे मेरी जो भी विचारधारा बनी, सोच बनी, मेरी सोच भी मेरी कथा में है। मैंने ज्यादा पढ़ी भी नहीं आत्मकथाएँ। मेरी आत्मकथा जो भी मुझे सही लगा वह है और बाकी जो सैद्धांतिकी बनाने या उसकी बात करने वाले लोग हैं, वे देखेंगे कि इसमें क्या दीखता है, क्या लगता है, अच्छी लगती है, बुरी लगती है, सही लगती है, क्या लगती है।

सैद्धांतिकी बनानेवाले जो लोग हैं, वे भी तो पितृसत्तात्मक सोच से ग्रसित हैं। आत्मकथा सैद्धांतिकी की बात करते समय वे तो अपने हिसाब से तय करते हैं क्या होना चाहिए और कैसे होना चाहिए? तो क्या आपको लगता है कि स्त्री आत्मकथा की सैद्धांतिकी होनी चाहिए और वह पुरुषों द्वारा न होकर स्त्री ही तय करे तो बेहतर होगा?

नहीं, उसे स्त्री आत्मकथा तक सीमित नहीं रखना चाहिए। आत्मकथा अपने आप में एक विधा है। उसमें पुरुषों की भी आत्मकथाएँ आएँगी, स्त्रियों की भी। जरूरी नहीं कि स्त्रियों की कोई अलग विधा हो, पुरुषों की अलग।

स्त्री लेखन और पुरुष लेखन दोनों को क्या अलग-अलग केटेगरी में बाँट कर लेखक को देखना चाहिए?

मैं यह नहीं मानती हूँ कि स्त्री-पुरुष को अलग बाँटकर देखा जाय, जो कला है, जो लेखन है, वह स्त्री-पुरुष से ऊपर उठा हुआ है। यह है कि उनकी अपनी विशेषता हो जाए तो यह अलग बात है, जो कला है, उसे आप स्त्री-पुरुष के खाँचे में मत बाँटिये, हो सकता है देखने के नजरिये में फर्क होगा, वह तो हर कलाकार के नजरिये में फर्क होता है, तो कलाकार तो एक जैसे होते नहीं हैं तो मैं इस बँटवारे में नहीं पड़ती कि उनको अलग देखा जाय और उनको अलग। आत्मकथा क्या है वह चाहे पुरुष की हो या चाहे स्त्री की–आप उसे अलग से देखना चाहें तो जरूर देख सकते हैं लेकिन कोई भी विधा है, जो साहित्य है उसका कोई जेंडर नहीं होता, उसका कोई लिंग नहीं होता, वह कला ही होती है, वह साहित्य ही होता है। कहानी है तो कहानी है, उपन्यास है तो उपन्यास, उसका कोई लिंग नहीं होता और अपने आपको ऊपर करके कला को देखना जरूरी है।

मैडम, हम स्त्री विमर्श की बात करते हैं, इन दिनों जो ये 21वीं सदी में स्त्री विमर्श के लिए बहुत सारे शब्द चल पड़े हैं…स्त्री विमर्श, स्त्रीवादी लेखन, नारीवादी लेखन तो क्या इन शब्दों में कोई अंतर है? क्या उसका मतलब सिर्फ स्त्री विमर्श से है या आप इसमें कुछ सूक्ष्म अंतर देखती हैं?

नहीं, बात यह है कि समय के साथ जो है बहुत सारे शब्द चल पड़े हैं, पहले नारीवादी होना शब्द चले और फिर विमर्श का शब्द आ गया तो फिर एक तरह से जो सोच है वह नारी पर ही केंद्रित होने की है लेकिन समय के साथ जो भाषा बदलती है और भाषा में जो लोक उपयुक्तता के शब्द लाना चाहते हैं, उस चक्कर में शब्द तो बदलते रहते हैं और थोड़ा-बहुत उनमें अर्थ भी बढ़ सकता है और ज्यादा विशिष्ट हो सकता है पर मूल जो भाव है वह स्त्री से जुड़ने के बाद वही है और विमर्श जो है एक तरह से उसको ज्यादा स्पेशिफिक न कर खास-खास चीजें ही देखी जाती हैं, मेरा मतलब जो समसामयिक लेखन है वह किस तरह से जेंडरर्ड हो गया है, लिंगात्मक हो गया है, वह विमर्श में ज्यादा प्रधान हो जाती है, पितृवादी सत्तात्मक समाज की वजह से और बाकी जो नारीवादी था उसका उद्देश्य भी वही है। विमर्श में जो बात है  वह खुलती जाती है, उसके आयाम खुलते जाते हैं।

आमतौर पर कहा जाता है कि हम स्त्रीवादी सोच से ग्रस्त नहीं हैं तो उसका अर्थ पकड़ते हैं कि मतलब ऐसी दृष्टि, सोच जो केवल इस समाज व्यवस्था में विश्वास रखता है, जहाँ स्त्री-पुरुष से काटकर अपनी दुनिया बनाती है तो क्या इस तरह का अर्थ स्त्रीवादी चिंतन के तहत आता है, उसे क्या हम स्त्रीवादी चिंतन कहेंगे या नारीवादी चिंतन कहेंगे?

मेरे विचार से स्त्रीवादी चिंतन से आशय है कि आप अपने चिंतन में, सोच में स्त्री को शामिल करती हैं और स्त्री की दृष्टि से अपनी सोच रखती हैं। स्त्री के नजरिये से चीजों को देखती हैं, जैसे पुरुषों से एक्स्पेक्ट करें कि स्त्रियों की नजर से देखें तो चीजें अलग दिखेंगी।

आप भारत की स्त्रियों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों से परिचित हैं और भारत से बाहर यानी तीसरी दुनिया के अन्य देशों की स्त्रियों के जीवन को देखने-समझने का मौका भी आपको मिला है तो समस्याओं की दृष्टि से भी आप भारत की स्त्री जीवन और तीसरी दुनिया के अन्य देशों के स्त्री जीवन में क्या समानता और फर्क देखती हैं?

देखो बहुत फर्क है, भारत की जो स्त्री है वह कहीं ज्यादा पिछड़ी है। आपको मालूम है कि यूरोप और अमेरिका में स्त्री आंदोलन पहले हुए थे। हमारे यहाँ जो स्त्री आंदोलन हुआ है वह पश्चिम के ही असर और प्रभाव से है और चूँकि जब हमारा देश परतंत्र था, ब्रिटिश यहाँ आए तो उनके माध्यम से जो पश्चिम का नारी आंदोलन है वह हम तक पहुँचा है, तो पश्चिम का आंदोलन तो कई गुणा आगे बढ़ चुका है। सेक्स जैसी समस्या वहाँ नहीं है पर, खुला है, बस लोगों को अपने आप अपना ध्यान रखना पड़ता है। जब से एड्स जैसी बीमारी हो गई तो लोगों को अपना ध्यान रखना पड़ता है। खुले तौर पर लोग इस बात के प्रति बहुत सजग हो गए हैं कि या तो वे निरोध का इस्तेमाल करें वरना बीमारियों के शिकार हो सकते हैं। तो इस तरह बीमारी के डर ने लोगों को खुले सेक्स से रोका है, लेकिन जो भी उन्हें पसंद आता है वे ध्यान से एक से ज्यादा सेक्सुअल संबंध रखते हैं लेकिन कई तरह के इमोशनल होते हैं, पता लगता है कि ये लड़की फलाँ के साथ भी संबंध रख रही है तो जेलसी तो होगी न, तो इस तरह के जो भी भावात्मक संघर्ष है, टकराहट है, चलती रहती है लेकिन इसमें कुछ गलत नहीं माना जाता कि आप एक से अधिक पुरुष से संबंध रखती हैं तो वह साधारण और नार्मल माना जाता है। इस क्षेत्र में स्त्रियों ने विजय प्राप्त की है, ये और बात है कि जो औरत की विजय है, वह विजय पूरी तरह से हो नहीं पाती क्योंकि औरत है, जो गर्भवती होती है। आदमी को तो कोई फर्क पड़ता नहीं है और औरत जब प्रेगनेंट होती है तो उसके लिए बहुत बड़ा सवाल उठता है और उसके सामने यह प्रश्न उठता है कि वह बच्चे को रखे, न रखे, फिर जैसा कि मैंने कहा कि वहाँ पर वैसे तो लोग बहुत स्वतंत्र हैं, आजाद ख्यालात के हैं, लेकिन जो कैथोलिक धर्म है, धर्म तो वहाँ भी उतना ही प्रबल है, जैसे भारत में है। जो कैथोलिक लोग हैं खास तौर से अमेरिका में वे भ्रूण हत्या की इजाजत वहाँ नहीं देते हैं तो इसलिए वहाँ की जो औरते हैं, जो कम उम्र में माँ बन जाती हैं तो बच्चे को तो रखती है लेकिन वे एबॉर्शन के पैसे नहीं दे सकतीं और बच्चा पैदा हो जाता है तो सरकार उसका ध्यान रखती है और जो भी सोशल वेलफेयर होता है, उसमें वे बच्चे आ जाते हैं। बच्चे के बाद अकेली माँ है तो उसको भी सरकारी मदद मिल जाती है, लेकिन एबॉर्शन करवाने की मदद नहीं मिलती तो इस तरह की जो चीजें हैं, वह वहाँ भी है। फिर औरत-आदमी की तनख्वाह में फर्क होता है, औरत को कम तनख्वाह मिलती है और आदमी को ज्यादा, खास तौर से प्राइवेट सेक्टर में क्योंकि सरकार ने तो बराबर कर दिया है लेकिन प्राइवेट सेक्टर में ज्यादा बराबरी नहीं है तो इस तरह के जो मसले हैं, वह वहाँ जरूर हैं जो यहाँ नहीं है। हर क्षेत्र में औरत वहाँ ज्यादा आगे बढ़ी हुई है। शिक्षा के क्षेत्र में देख लें तो, नौकरियों के क्षेत्र में देख लें वहाँ की हर लड़की कुछ न कुछ करती है, जो शादीशुदा हैं, उनकी अपनी चॉइस है कि वे बच्चे पालना चाहती हैं तो बच्चे पाले या काम करना चाहती हैं तो काम करे और जैसा कि मैंने कहा, जो पुरुष हैं, वे भी वहाँ ज्यादा समझदार होते हैं, वह औरत की आजादी में भाग लेता है, मतलब अपना साथ देता है, जबकि भारत का पुरुष तो अपने पुरुषपन को नहीं छोड़ना चाहता, नहीं चाहता कि हमारे समाज में बदलाव आए और औरत आजाद हो। तुम्हारी तरह और अगर वह सुंदर लड़की है तो बस देख भर लिया, कोई कुछ कमेंट नहीं करता अमेरिका में, पर यहाँ पर करते हैं। छेड़खानी करना, ताना कसना यहाँ ये सब होता है, वहाँ ये सब नहीं होता। सभी लड़कियाँ रात-रातभर घूमती हैं तो कोई ऐसी बड़ी डरने वाली बात नहीं है। ट्रेन में लड़के भी आते हैं तो लड़कियाँ भी। तो कोई खतरे की बात नहीं होती। ठीक है कई बार अपराधी दुष्ट भी होते हैं, जो रेप कर देते हैं पर आमतौर पर ऐसा नहीं होता, आमतौर पर लड़कियाँ भी रातभर आ, जा सकती है। जैसे लड़का जाता है तो वह अपने ढंग से जी सकती है, अकेले रह सकती है, रह सकती है क्या रहती है और थोड़ी बड़ी हो जाती है तो अकेले ही रहती है और यहाँ पर तो औरत अकेली रहती है तो लोग कहेंगे कि अरे यह तो बदचलन औरत है, अकेली कमरा लेकर रहती है, भारतीय समाज व्यवस्था में तो अकेली स्त्री की कल्पना भी नहीं है, मनुवादी सोच ही है स्त्री को लेकर कि उसे या तो पिता, भाई, पति और पुत्र पर ही निर्भर रहना है तो वहाँ पर ऐसी स्थिति नहीं है, स्त्री वहाँ अकेली रह सकती है और माँ बाप भी उसे अकेले रहने की पूरी आजादी देते हैं और समाज भी उसे इंडिपेंडेंट रहने में पूरा साथ देता है।

मैम, सिमोन द बोउआर का मानना था कि स्त्री बनती नहीं है, बनाई जाती है तो क्या यह कहना आज भी भारतीय समाज व्यवस्था के संदर्भ में प्रासंगिक लगता है?

हाँ, यह तो सही है। यहाँ तो औरत आज भी बनाई ही जाती है, वहाँ भी यह स्थिति है पर वहाँ ऐसी मनःस्थिति वाले लोग हैं कि वे रह नहीं पातीं, जैसे कि एक बार हाबर्ड में किसी ने कह दिया कि जो लड़कियाँ है, वे मैथमेटिक्स और साइंस में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पातीं, तो लोगों ने पकड़ लिया कि यह तो ये मानना हुआ कि औरतों का दिमाग साइंस और मैथमेटिक्स का नहीं है और इस पर सबने ऑब्जेक्ट किया। इस पर तो उनको अपनी नौकरी से रिजाइन करना पड़ा कि उन्होंने ऐसा कैसे कह दिया कि औरतों के पास योग्यता कम है, वहाँ अब ये नहीं चलता। वहाँ पर महिलाओं की आवाज बहुत बुलंद है, मजबूत है। भारत में भी सुधार हो रहा है धीरे-धीरे।

निश्चित रूप से स्त्री विमर्श और दलित विमर्श का समकालीन साहित्य में महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप है लेकिन दलित समाज जिन सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक दासता से मुक्ति का प्रश्न उठा रहा है, उन प्रश्नों को दलित समाज की स्त्रियों से जोड़कर देखें तो अन्य समाजों के स्त्री जीवन और दलित समाज के स्त्री जीवन में कोई फर्क है या एक जैसी स्थिति है?

नहीं-नहीं, दलित का तो दोहरा-तिहरा शोषण हो रहा है क्योंकि एक तो वह बहुत गरीब हैं और दूसरा, वह औरत है। लोग उसे चीज समझते हैं। ऊपर की जात के लोग उसे चीज ही समझते हैं, उसका अपहरण कहते हैं। उसके साथ बलात्कार जैसी नृशंस कृत्य को अंजाम दिया जाता है, उसकी तो कोई कीमत ही नहीं है। अव्वल उसको तो औरत ही नहीं समझा जाता है। मनुष्य ही नहीं समझा जाता, उसे तो बस उपभोग की वस्तु समझते हैं। पुरुष समाज का तो दलित औरतों के प्रति बहुत ही बुरा रवैया है, बहुत ही घृणित रवैया रहा है हमेशा। उसका दोहरा-तिहरा शोषण हुआ है। स्त्री अगर दलित हो तो  उसकी प्रताड़ना अनेक स्तर पर होती है। एक तो उसे सामाजिक जीवन में उपेक्षा सहन करनी पड़ती है तो दूसरा पारिवारिक जीवन में शूद्र नहीं जाना जाने वाली जातियों ने भी अपनी स्त्रियों के साथ उसी तरह का व्यवहार किया जैसा कि ब्राह्मणों ने दलितों के साथ किया। दलित स्त्रियों की आत्मकथाएँ इस बात की पुष्टि भी करती हैं। मैंने शिवमूर्ति की एक बड़ी कहानी पढ़ी थी, जिसमें जो औरत है उसका पति बाहर रहता है, काम करता है। कभी-कभी आता है और फिर यह स्थिति होती है कि पति मारा जाता है, फिर जो उसका ससुर है, वह उसका रेप करने की कोशिश करता है। रहती तो वह घर में ही न, तो उसका ससुर उसका रेप करता है। पहले तो वह ससुर को भगाती है, तो उसका ससुर नशे की दवा पिला देता है और इस तरह नींद में वह उसका रेप कर देता है तो वह प्रेग्रेंट हो जाती है, तो जब वह न्याय माँगती है तो उसको न्याय नहीं मिलता। उसको क्या मिलता है वहाँ की न्यायायिक प्रक्रिया से, आखिर समाज व्यवस्था तो पुरुषों की ही है। वहाँ भी फैसला लेने वाले पुरुष कहते हैं कि यह तो बदचलन औरत है और जिसने रेप किया वह बच जाता है और औरत को सजा मिलती है और उसको निकाल दिया जाता है तो जो दलित औरत है उसका बहुत बुरा हाल है। उसका जीवन शोषण से भरा है।


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Artist : Camille Corot
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मुन्नी गुप्ता द्वारा भी