‘लोग अंततः किताबों की ओर लौटेंगे’

‘लोग अंततः किताबों की ओर लौटेंगे’

दामोदर खड़से से बातचीत

आठवें दशक के कथाकारों में अग्रणी बहुआयामी प्रतिभा के धनी कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, अनुवादक डॉ. दामोदर खड़से का जन्म 11 नवंबर 1948 को हुआ। उनकी माता जी सावित्री विष्णु खड़से गृहणी तथा पिता जी विष्णु उदयभानु खड़से प्रधानाध्यापक बाद में खादी ग्रामोद्योग आयोग से निरीक्षक के पद से सेवानिवृत्त हुए। वे तीन भाई तथा एक बहन हैं। उनके भरे-पूरे परिवार में उनकी पत्नी सुमित्रा तथा दो पुत्र राहुल तथा कुणाल हैं। पुत्र राहुल ‘बैंक ऑफ न्यूयार्क’ में वाइस प्रेसिडेंट के रूप में कार्यरत तथा छोटा बेटा कुणाल ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में चीफ करसपांडेंट के रूप में कार्यरत हैं। वे सन् 2011 से 2015 तक महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, महाराष्ट्र सरकार, मुबंई में कार्यकारी अध्यक्ष रहे। इसके अलावा सन् 2010 से सन् 2017 तक केंद्रीय हिंदी समिति (अध्यक्ष-प्रधानमंत्री, भारत) में सदस्य रहे। सितंबर 2000 से 2015 तक बोर्ड ऑफ स्टडीज, एस.एन.डी.टी. विश्वविद्यालय, मुबंई; सन् 2005 से सन् 2010 तक बोर्ड ऑफ स्टडीज, पुणे विश्वविद्यालय, पुणे; सन् 2018 से बोर्ड ऑफ स्टडीज, सोलापुर विश्वविद्यालय, सोलापुर; सन् 2006 से बोर्ड ऑफ स्टडीज, यशवंतराव चव्हाण मुक्त विश्वविद्यालय, नासिक; सन् 2005 से नवंबर 2008 तक भारतीय रिजर्व बैंक के कार्यालयीन मुबंई-शब्दावली समिति; ‘भाषा’ पत्रिका केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली के परामर्श मंडल में; सन् 2019 में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की प्रकाशन-परामर्श समिति, सन् 2015 से अंतरिक्ष विभाग व परमाणु ऊर्जा विभाग की हिंदी सलाहकार समिति (अध्यक्ष-प्रधानमंत्री) में सदस्य के रूप में विराजमान रहे। सन् 2016 में महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में राइटर-इन-रेजिडेंस के रूप में नियुक्त हुए।

डॉ. दामोदर खड़से हिंदी साहित्य की अक्षय विभूति हैं। उनका गहरा अध्ययन तथा उन्मुक्त भाव साहित्य सेवा के व्रत ने हिंदी साहित्य को समृद्धि और गौरव प्रदान किया है। वे कुशल अध्यापक तथा बैंक अधिकारी थे। साथ ही एक कर्मठ और समर्थ साहित्य सेवक भी हैं। उनका साहित्य मानव कल्याण और शाश्वत जीवन मूल्यों की भूमिका पर आधारित है। इनके कहने का ढंग सहज और सरल है। डॉ. दामोदर खड़से ने जिस रचना संसार और सर्जक समाज का संपादन किया है, उसने उनके व्यक्तित्व को नई ऊँचाई के साथ ही एक गहराई भी दी है। उन्होंने शब्द से शब्द ही नहीं जोड़ा बल्कि व्यक्ति से व्यक्ति को जोड़ते हुए उनके संबंधों तथा संस्कारों की भी रचना की है। उनके अब तक ग्यारह कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। भटकते कोलंबस, पार्टनर, आखिर वह एक नदी थी, जन्मांतर गाथा, इस जंगल में, निखडलेली चाक (मराठी संस्करण), उत्तरायण (मराठी संस्करण), संपूर्ण कहानियाँ, यादगारी कहानियाँ, गौरेया को तो गुस्सा नहीं आता, चुनी हुई कहानियाँ। उन्होंने तेरह कविता संग्रहों को प्रकाशित किया। अब वहाँ घोंसले हैं, जीना चाहता है मेरा समय, सन्नाटें में रोशनी, तुम लिखो कविता, अतीत नहीं होती नदी, प्रकाश पेरताना (मराठी संस्करण), रात, नदी कभी नहीं सूखती, पेड़ को सब याद है, तू लिही कविता (मराठी संस्करण), नदीची रात्र मराठी अनुवाद, लौटती आवाजें, लौट आओ तुम। उनकी कविताएँ सदा ही मुक्तछंद की होती हैं। उनका मानना है कि कविता का लक्ष्य जीवन की ऐसी सुंदरता है, जहाँ देवत्व विराजमान है।

डॉ. दामोदर खड़से को अपने सृजनात्मक लेखन और अनुवाद के लिए भारत सरकार तथा विविध राज्यों की साहित्य अकादमियों एवं स्वायत्त संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया। वर्ष 1992 में ‘काला सूरज’ उपन्यास के लिए राष्ट्रपति भवन में आयोजित एक विशेष समारोह में महामहिम राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा के कर कमलों द्वारा केंद्रीय हिंदी संस्थान का ‘राष्ट्रीय साहित्य पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया, तो जून 2012 में राष्ट्रपति भवन में आयोजित भव्य समारोह में महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल के कर कमलों द्वारा केंद्रीय हिंदी संस्थान का ‘गंगाशरण सिंह पुरस्कार’ प्रदान किया गया। इसके अलावा हिंदी के प्रति की गई सेवाओं के फलस्वरूप उन्हें दर्जनाधिक सम्मानों से सम्मानित किया गया। जैसे–सन् 2015 में केंद्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा मराठी उपन्यास ‘बारोमास’ के हिंदी अनुवाद के लिए साहित्य अकादमी सम्मान अनुवाद पुरस्कार प्राप्त हुआ। सन् 2016 में महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, मुंबई द्वारा महाराष्ट्र भारती अखिल भारतीय हिंदी सेवा सम्मान प्राप्त हुआ। साथ ही केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली; विश्व हिंदी न्यास, न्यूयार्क; मुक्तिबोध सम्मान–महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी; गुरुकुल रचना सम्मान, पुणे; आचार्य रामचंद्र शुक्ल सम्मान–मध्य प्रदेश, साहित्य परिषद्, भोपाल; आचार्य आनंद ऋषि सम्मान, हैदराबाद; हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग; सौहार्द सम्मान–उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ; गंगाशरण सिंह पुरस्कार–केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा; प्रियदर्शिनी सम्मान, मुबंई; अपनी भाषा सम्मान, कोलकाता; नई धारा सम्मान, पटना; हिंदी सेवी सम्मान, महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा; हिंदी भूषण सम्मान, पुणे; कमलेश्वर स्मृति कथा सम्मान, मुंबई तथा लाइफ टाइम अचिवमेंट अवार्ड, एशियाड लिटरेचर फेस्टिवल, पुणे; साथ ही, विभिन्न साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संस्थाओं द्वारा चालीस से अधिक सम्मान प्राप्त हुए। अपनी जमीन से जुड़े रहकर ही उन्होंने समाज, साहित्य तथा संस्कृति पर लेखनी चलाई। वे हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। यहाँ हम डॉ. खड़से से ‘नई धारा’ के लिए डॉ. उपेन्द्रनाथ रैना द्वारा की गई बातचीत के प्रमुख अंश प्रकाशित कर रहे हैं–संपादक।

आपका जन्म स्थान कहाँ है और आपकी पैदाइश कब हुई है?

वैसे तो मेरा जन्म स्थान छत्तीसगढ़ में सरगुजा नाम का एक जिला है और वहाँ एक बहुत छोटा कस्बा है पटना। वह बिहार वाला पटना नहीं है। ये छत्तीसगढ़ का पटना है और वहीं मेरा जन्म हुआ और प्राथमिक शिक्षा वहाँ से करीबन चार-पाँच कि.मी. दूर रामपुर नाम की एक जगह है, वहाँ मेरी प्राथमिक शिक्षा हुई। क्योंकि पिता जी वहाँ हेडमास्टर थे। तो उनके साथ ही वहाँ रहे। बाद में उन्होंने भी नौकरी बदली पूरे मध्य प्रदेश में उनके तबादले होते रहे।

आपने बी.एड. भी किया है और बाद में डाक्टरेट भी की। अच्छा आपके डाक्टरेट का विषय क्या था?

‘प्रेम चंदोत्तर हिंदी उपन्यासों में प्रेम तत्व’ इस तरह का एक विषय था और प्रेमचंद के बाद जितने भी उपन्यास रहे, उन उपन्यासों में प्रेम की क्या संकल्पना रही है, ये मुख्य विषय था। डॉ. विकास गौतम के निर्देशन में मेरी पी-एच.डी. नागपुर विश्वविद्यालय से पूरी हुई।

अच्छा अब हम आपके लेखक व्यक्तित्व के ऊपर बात करना चाहेंगे। थोड़ा-सा खुलेपन से, तो आपको लेखक बनने की कैसे प्रेरणा मिली, क्योंकि आप बैंक में थे? क्या आपने कहानी से ही शुरू किया? क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि आपकी तो बहुत सारी किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उपन्यास भी आपके सात हैं। कहानी संग्रह भी आपके ग्यारह छपे। शुरुआत कहाँ से हुई आपकी कोई ऐसी रचना आपको याद है जो सबसे पहले आपने लिखी और फिर वह प्रकाशित हुई?

ये याद करना बड़ा मुश्किल है लेकिन लेखन की शुरुआत मेरी कविता से ही हुई और मुझे लगता है जो भी रचनाकार हैं तो उनकी शुरुआत भी कविता से ही हुई होगी।

उसके बाद आपने उस समय क्या सोचा कि आप कवि के ही रूप में अपनी पहचान बनाएँगे। और बाद में कहानी भी लिखते रहेंगे। तो उस समय आपने अपनी दिशा कैसे पकड़ ली? कैसे लगा आपको कि कवि रहेंगे या आप कथाकार बनेंगे?

ऐसा कुछ तय नहीं किया था मैंने, लेकिन कालांतर में कहानियाँ भी आती गई और ऐसा लगता है कि ये विषय कहानी के लायक है और ये विषय कविता के लायक है। कविता, कहानी दोनों साथ-साथ चलती रही। बाद में मुझे ऐसा लगा कि मैं ज्यादातर कहानी और उपन्यास की ओर झुक गया और धीरे-धीरे स्थिति ऐसी बनी कि कहानियाँ ही ज्यादा निकली और कविता कहीं ठहर गई, कहीं थम गई।

कहानी लेखन के बाद कहानी संग्रह ही छपते रहे, तो उपन्यासों का लेखन कब शुरू किया?

कहानी संग्रह तो आते गए। एक के बाद एक। मेरा पहला उपन्यास 80 में छपा। ‘काला सूरज’ उसका शीर्षक है और उस काले सूरज में यह देखने की कोशिश की गई है कि जो पत्रकार हैं, आज या उस समय, वे बहुत सारे मिशन और उद्देश्य लेकर सामने आते हैं। हमारे देश में मीडिया का जो केंद्र है वह उच्चवर्ग के हाथों में है और पूँजीपतियों के हाथों में हैं और वहाँ तक पहुँचने के लिए ये युवा ऊर्जावान पत्रकार जो कुछ सोचते हैं, उस सोच को पूरी तरह से कार्यान्वित नहीं कर पाते। उपन्यास, कहानी या रिपोर्टिंग में लाने के लिए बहुत सारी बंदिशें हैं और उस बंदिश के कारण वह बहुत कुछ करने के लिए सोचने के बावजूद वह व्यक्ति बहुत आगे बढ़ नहीं पाता और एक मोड़ ऐसा आता है कि उस मोड़ पर वह स्थितियों के हाथों यों कहें कि बिक जाता है और आर्थिक स्थिति को लेकर वो इस नए दौर में बहुत बड़ा व्यक्ति तो बन जाता है, लेकिन उसके भीतर जो पत्रकार था, उसके भीतर का जो मिशन था, उसके भीतर कुछ कहने की एक मंशा थी, वह कहीं-न-कहीं थोड़ी-सी रुक जाती है और इसलिए सूरज तो था, लेकिन कालांतर में वह काला हो गया। यह पूरा उपन्यास पत्रकार के संघर्ष और जिजीविषा पर आधारित है।

अच्छा डॉ. साहब, आप तो बैंक में कार्यरत थे और बैंक का काम भी बहुत आसान नहीं होता है। बहुत, बहुत व्यस्तता का कार्य होता है। एक तो बैंक में आप जहाँ पर साहित्य नहीं है। केवल अंक हैं, आकड़े हैं। और इधर आपकी साहित्यिक यात्रा भी चलती रही है। दोनों में कैसे सामंजस्य बैठा पाए? आप कैसे समय निकाल पाए? उसके लिए एकांत और एकाग्रता भी चाहिए, समय भी चाहिए। तो किस तरह से समन्वय हो पाया दोनों के बीच?

मैं बैंक में जरूर था, लेकिन मैं राजभाषा विभाग में रहा। राजभाषा विभाग में होने की वजह से सीधे ग्राहकों से इस तरह से संपर्क नहीं आता था। प्रशासनिक कार्यालयों में ही मैं ज्यादातर रहा और कालांतर में भी लगभग 22 वर्ष तक विभागाध्यक्ष रहा। तो इस प्रकार प्रशासनिक काम में ज्यादा रहा लेकिन आप जो कहते हैं, ये बात सही है। प्रशासन में होने के बावजूद जिस प्रकार तात्कालिकताएँ वहाँ होती हैं, उसके आधार पर बहुत मुश्किल आती हैं, इस समय को अपने-अपने खाँचे में ढालना। तो कई बार लोगों ने मुझे यह पूछा था कि इसको आप कैसे संतुलित करते हैं, तो मैंने एक बात कही थी। जब मैं बैंक के मुख्य द्वार पर प्रवेश करता हूँ, तब उस समय मैं अपने लेखक को बाहर बैठा कर आता हूँ। उस समय मैं केवल अधिकारी होता हूँ और जब बैंक से जाना होता है, उस व्यक्ति को उस लेखक को जिसको मैं छोड़कर आया था, उसको अपने साथ ले जाता हूँ।

आप दिल्ली में भी केंद्रीय हिंदी निदेशालय की भाषापत्रिका के साथ जुड़े रहे। उसके बारे में थोड़ा बहुत बताइए?

भाषा पत्रिका के परामर्श मंडल में रहने का मुझे अच्छा अवसर मिला। उस समय रवीन्द्र कालिया भी थे, अखिलेश थे। उन लोगों के साथ बहुत सारे अनुभव  हैं। बहुत कुछ सीखने की बात वहाँ संभव हो सकी। कुछ विशेषांक भी जो वार्षिकी के जो सभी भाषाओं का एक सर्वे तैयार होता है, ये सब करने में और इस तरह से आर्टिकल या लेखों के चयन का सीधा संबंध हमारा नहीं था। लेकिन उसके नीति-निर्धारण में अवश्य कुछ भागीदारी थी। तो वह करने का मौका मुझे मिला।

डॉ. साहब, आपका संपादन कार्य भी बहुत पर्याप्त रहा है। तो इस क्षेत्र में किस-किस विधा के साथ आप जुड़े रहे और क्या कार्य रहा आपका?

पहला संपादन रहा मराठी की कहानियों को हिंदी में अनुवाद करना। पहली जो कृति है मेरे संपादन की वह मराठी की विशिष्ट कहानियाँ जो आधार प्रकाशन ने बाद में प्रकाशित की। तो इसमें इस प्रकार के पुराने लेखकों के, कथाकारों के और बिल्कुल नये कथाकारों के, महिला कथाकारों के, दलित कथाकारों के, राजनीति से जुड़े कथाकारों के–इन सारे कथाकारों की कहानियों का समावेश किया। ये मेरे संपादन की पहली पुस्तक थी। बाद में दो पत्रिकाओं का संपादन करने का अवसर मुझे मिला। मुझे महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में निवासी लेखक के रूप में आमंत्रित किया गया था। वहाँ रहने के बाद मैं एक उपन्यास और तत्कालीन उनके जो वाइस चासंलर रहे, उन्होंने अपना सुझाव दिया कि आप एक मराठी कवि विशेषांक, ‘बहुवचन’ पत्रिका वहाँ से निकलती है, उस पत्रिका का संपादन आप करें। तो उसमें भी मैंने कोशिश की लगभग 350-375 पन्नों का और उसमें यह कोशिश की गई कि मराठी के प्राचीन कवियों से लेकर अभी नये कवियों को, उसी प्रकार प्राचीन कथाकारों से लेकर अभी तक के लोगों को, हिंदी पाठकों को इसकी जानकारी हो, जिसमें नाटक विधा भी आए। उसमें भालचंद्र निवारे ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त लेखक का एक साक्षात्कार भी है। इस प्रकार सारी चीजें उसमें समेटने की कोशिश की गई। ताकि हिंदी पाठकों को मराठी का अभी क्या चल रहा है, उसके पहले क्या था, ये दोनों चीजें एक साथ दिखाई पड़े। इसी प्रकार ‘आधारशिला’ पत्रिका में भी एक विशिष्ट अंक का संपादन किया।

आपका अनुवाद कार्य भी बहुत सारा है। कृपया अपने अनुवाद के बारे में एक अनुभव बता देंगे कि किस भाषा से किस भाषा में पुस्तकें अनूदित की हैं? जो आपकी कृतियाँ आ गई हैं?

जी, मूल रूप से मैंने मराठी से हिंदी में ही अनुवाद ज्यादातर किया है। केवल एक ही पुस्तक अँग्रेजी से हिंदी है। बाकी सारी पुस्तकें मराठी से हिंदी हैं। इन पुस्तकों में मैंने ये कोशिश की या मेरी रुचि रही कि मराठी में आत्मकथाएँ बहुत प्रामाणिक रूप में लिखी गई और उन आत्मकथाओं में जो सामाजिक स्थितियाँ हैं, उन सामाजिक स्थितियों को बहुत अच्छी तरह रेखांकित किया गया है और दया पवार नामक एक दलित साहित्यकार रहे, जिन्होंने बहुत कम लिखा। लेकिन वे अपनी आत्मकथा के कारण मराठी में बहुत चर्चित हुए और कमलेश्वर के आग्रह पर मैंने उसका अनुवाद हिंदी में किया। राधाकृष्ण ने उसे प्रकाशित किया और वह अनुवाद के पुस्तक रूप में मेरी पहली कृति है। तो इस प्रकार वहाँ से मेरी अनुवाद की यात्रा शुरू हुई। फिर एक डॉ. गाँधी हैं, पेशे से डॉक्टर हैं और बहुत बड़े शल्य चिकित्सक हैं पुणा के। उनकी जो आत्मकथा है कि गरीबी को किस प्रकार पार करते हुए उन्होंने अपना एक मुकाम बनाया जीवन का और उनकी वह पुस्तक एक वर्ष में छह संस्करण निकले और उसको यह तय किया गया कि हर स्कूल में, हर पाठशाला में, हर महाविद्यालय में ये पुस्तक जानी चाहिए। ताकि लोगों में जो उम्मीद है, लोगों में जो उत्साह निर्माण करने के लिए यह पुस्तक सबसे उपयोगी हो सकती है, तो उसका अनुवाद भी मैंने कालांतर में किया और फिर अनुवाद में पुस्तकें मैंने कई की। एक अनाथ बच्चा था, जिसकी माँ अचानक चली गई और पिता उसकी शिक्षा-दीक्षा नहीं कर पा रहे हैं। ऐसी स्थिति में उन्होंने अपने दो बच्चों को अनाथ आश्रम में डाला विवश होकर और वह बच्चा अनाथ आश्रम में पला-बढ़ा और ऐसा करते हुए उसमें साहित्य और पत्रकारिता की रुचि विकसित हुई। वह पुणा जैसे बड़े शहर के प्रतिष्ठित अखबार का संपादक बना और उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी। उस आत्मकथा का अनुवाद करने में मेरी रुचि थी। इसके बाद नाटकों को लेकर मेरे मन में बहुत आकर्षण रहा, क्योंकि मैं जीवन में नाटक कभी नहीं लिख पाया। तो इसलिए मुझे लगा है कि कुछ नाटक मुझे अनुवाद करने चाहिए। वह भी शिवाजी सावंत जैसे लेखक, जयवंत दलवी, अभिराम भड़कमकर और अभी जो नया नाटक आया वह विजय तेन्दुलकर का है। ऐसे चार नाटक मैंने हिंदी में अनुवाद किए। ये तो नाटकों का था। कुछ उपन्यास आने को हैं। एक उपन्यास में मराठी आया ‘बारोमास’। आज से 15 वर्ष पूर्व कोई नहीं जानता था कि विदर्भ में किसान आत्महत्याएँ क्यों कर रहे हैं। लेकिन उस गाँव में बैठा हुआ एक लेखक बहुत करीब से इन सब चीजों को देख रहा था कि ये किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? कौन-कौन से ऐसे फैक्टर हैं। नियति के अलावा सामाजिक रूप में, राजनीतिक रूप में, आर्थिक रूप में कौन-से ऐसे विशेष प्रकार के दबाव हैं, जिसकी वजह से वह ऐसा कर रहा है। उस लेखक ने 2004 में अपना यह उपन्यास प्रकाशित किया। उसका नाम है ‘बारोमास’। उस उपन्यास को अगले वर्ष साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। उसका अनुवाद करने के लिए वह उपन्यास मेरे पास आया। मैंने उसका अनुवाद किया। तमाम तरह की कठिनाइयों के बावजूद जो भी उसमें खेती-किसानी से जुड़े हुए सारे शब्द हैं, सारे व्यवहार हैं, सारे वाक्यांश हैं, तो उनसे वास्ता पड़ा। तब काफी परेशानी हुई। लेकिन वह अनुवाद मैंने किया। प्रकाशित हुआ और संयोग से उसके अनुवाद को भी साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। तो इस प्रकार अनुवाद का एक लंबा सिलसिला रहा।

आपने अनुवाद की बात की है, तो एक प्रश्न करने का साहस कर रहा हूँ कि मौलिक लेखन भी आपने किया है। अनुवाद कार्य भी आपका पर्याप्त है। तो आपको दोनों में, मौलिक लेखन और अनुवाद कार्य उनमें कठिन कौन-सा कार्य लगा?

ईमानदारी से बात कहूँ, तो मुझे अनुवाद में ज्यादा कठिनाई आई। अनुवाद में चाहे वह कविता हो, नाटक हो, आत्मकथा हो, कहानी हो, उपन्यास हो, इन सारी विधाओं के अनुवाद मैंने किए हैं। तो उसमें उस लेखक के मनोभाव में प्रवेश करके और उस भाषा को अपना कर फिर एक नई भाषा को आपको जन्म देना होता है। मौलिक लेखन में जो कुछ भी है, आपकी अपनी कल्पनाएँ हैं। आपकी अपनी उड़ान है। तो इसमें आपको किसी प्रकार की बंदिश नहीं है। कठिनाई तो कभी आएगी ही नहीं। अपने लेखन में एक प्रकार धारा प्रवाह के रूप में वह चीज निरंतर बहती रहती है, लेकिन जब अनुवाद करते हैं–उस अनुवाद करने में, उस लेखक के कहने, उसकी शैली, क्योंकि उसकी शैली का भी ध्यान रखना है, एक अनुवाद किया, जिसके हास्य माध्यम से समाज का दर्द उकेरा गया है। बात हास्य से शुरू होती है। लेकिन उसकी अंतिम परिणिति दर्द में होती है। तो ऐसी चीजों का अनुवाद करने का काम बहुत चुनौती भरा होता है।

आपने अनगिनत यात्राएँ भी की हैं। बहुत-सी विदेश यात्राएँ भी की, मुझे लग रहा है कि स्वाभाविक भी है कि साहित्य से संबंधित यात्रा ही होगी। कुछ उसके बारे में भी बताइए?

जी, यह सही है कि मैंने साहित्य को लेकर कई यात्राएँ की। देश-विदेश दोनों की। बीते दिनों अमेरिका की यात्रा साहित्यिक यात्रा रही। वहाँ अनिवासी भारतीय हैं। उन अनिवासी भारतीयों की एक संस्था है–‘विश्व हिंदी न्यास’। उस विश्व हिंदी न्यास में भाग लेने के लिए उन्होंने मुझे आमंत्रित किया था और बहुत अच्छे ढंग से वहाँ कथावाचन भी हुआ, कविता पाठ भी हुआ और तमाम तरह के उनके कार्यक्रम को देखने का अवसर भी मिला। हाँ, वहाँ संयोग रहा कि अमेरिका भर के अलग-अलग हिस्सों से न्यूयार्क के पास ‘पुपेस्की’ नाम की जगह में सब लोग एकत्रित हुए और मुझे अपने-अपने शहरों में भी आमंत्रित करने लगे और मैं गया भी तो था इसी काम के लिए। लगभग डेढ़ महीने तक मुझे वहाँ प्रवास करने का मौका मिला। वाशिंगटन भी जाना हुआ। वहाँ भी भारतीय लोगों से मिलना हुआ। वाइस ऑफ अमेरिका में भी कुछ कविता पढ़ने का मौका मिला। सियाटल गया वहाँ से वहाँ के रेडियो पर कुछ बातचीत कहने की गुंजाइश हुई। न्यूयार्क में कोलंबियाई यूनिवर्सिटी में भी व्याख्यान देने का अवसर मिला। वहाँ सुषम बेदी नाम की मशहूर हिंदी की उपन्यासकार, कथाकार वहाँ मुखिया के रूप में थीं, जिनसे कहानी पर बात करने का मौका मिला। अंजना संधीर से भी मुलाकात हुई। वह वहाँ प्रोफेसर रही। वह भी अच्छा लिखती हैं। इस प्रकार जो अनिवासी लेखक हैं, वहाँ उन लेखकों से रू-ब-रू होने का और उनसे बातचीत करने का एक बड़ा अच्छा सिलसिला हुआ। और लौटकर जो मैंने संस्मरण लिखे, वह संस्मरण ‘एक सागर और’ शीर्षक से उसमें है। इसके लिए सबसे अधिक मदद जो मुझे की गई और जो वहाँ मुझे सुविधा मिली, वह उषादेवी विजय कोल्हाटकर–उनके कारण मुझे वहाँ घूमने-फिरने की बड़ी अच्छी सुविधा उपलब्ध हो सकी। वहाँ से मुझे काफी कुछ सीखने को भी मिला। वहाँ के लोगों से जनजीवन जानने-समझने का भी अवसर मिला। विश्व की जो आर्थिक राजधानी है, उस राजधानी के जीवनयापन पूरे जीवन शैली को जानने का मौका मिला। इसके बाद पिछले दिनों मैं स्कॉटलैंड में था। वहाँ भी मुझे तीन-चार महीने रहने का मौका मिला। वहाँ सबसे बड़ी उपलब्धि जो रही साहित्यिक रूप से उसका मैं विशेष रूप से यहाँ मैं जिक्र करना चाहूँगा। वहाँ जो कॉन्सुलेट जनरल है अंजु रंजन, वह बहुत अच्छी कवयित्री है और उनकी कविताएँ बहुत भावुक और बहुत सटीक कविताएँ हैं। उनसे परिचय होने के बाद जब मैं लंदन में था, वहाँ तेजेन्द्र शर्मा और माथुर इन लोगों से बातचीत करते-करते और बहुत सारे लेखकों से बातचीत हुई और उनका संदर्भ मिला। मैं वहाँ गया। वहाँ उषाराजे सक्सेना से  बात हुई। उन लोगों ने मुझे अंजु रंजन का संदर्भ दिया। वहाँ मुलाकात हुई। वह मुझे दूरदराज में स्कॉटिश लेखक, जो 300 साल पहले जिन्होंने अपनी रचनाएँ लिखी थी, उनके स्मारक पर लेकर गई। वह स्मारक 10 एकड़ की जमीन पर फैला हुआ है। वह लेखक ने 38 वर्ष की उम्र पाई। इस 38 वर्ष के उम्र में इतना लिखा। आज भी पूरे स्कॉटलैंड में रॉबर्ट के नाम से जिस प्रकार जाने जाते हैं, उनके साहित्य को जिस तरह लोग रुचि लेकर पढ़ते हैं, वह अपने आप में बहुत गजब का मुझे अनुभव देता रहा और यह बहुत अच्छा लगा कि वहाँ के लोग, लगभग सैकड़ों लोग स्मारक को रोज भेंट देते हैं और वहाँ किताबों की खरीद होती है। रॉबर्ट बन्स उनका पूरा नाम है। इस प्रकार ये अंजु रंजन जो हैं, उन्होंने स्कॉटिश सीखी। स्कॉटिश और अँग्रेजी के माध्यम से उन्होंने हिंदी में उसका अनुवाद किया। वह जो अनुभव मुझे साहित्य के रूप में वहाँ मिला और साहित्यकार को जिस प्रकार का सम्मान वह देश देता है, वह अपने आप में बड़ी सुखद अनुभूति मेरे लिए रही।

पूरा दिन हमने उस स्मारक में बिताया और तमाम तरह की 300 वर्ष पहले का उस कवि का मकान जिसमें उसका जन्म हुआ, वह बचपन खेला, कुछ लिखा, वह 300 साल पुराना मकान जैसा का तैसा जतन करके उन्होंने रखा हुआ है। उसमें कोई फेरबदल नहीं किया। शिवाय पूरा अंदर से ए.सी. गद्दियाँ हैं। वही दीखती है। दिखता नहीं है कि ए.सी. कहाँ लगा है, बाहर का रंग-रूप बिल्कुल वैसा का वैसा है। 300 वर्ष पुराना तो ये जो वहाँ के समाज कहिए, वहाँ की सरकार की कहिए। इस प्रकार के लेखकों, कवियों, साहित्यकारों के बारे में जिस प्रकार का आदर इस स्मारक के माध्यम से व्यक्त किया गया है, वह बड़ा ही प्रभावित करने वाला था। तो ऐसी कुछ बातें रहीं।

अंत में आपसे एक चीज जरूर जानना चाहेंगे। आजकल जो बहुत परेशानियाँ चल रही हैं कोरोना की वजह से, तो लोग अपने घरों से बाहर निकल नहीं पा रहे हैं। स्वाभाविक है कि वहाँ पुणे में आप भी घर से बाहर नहीं निकल पा रहे होंगे। तो आपको बहुत पर्याप्त समय मिला–मार्च से लेकर अब तक 8-9 महीने हो गए। तो क्या-क्या उपलब्धि रही? लेखन के क्षेत्र में आपने क्या-क्या लिखा?

जी, एक-दो अनुवाद मेरे पूरे हुए। विदेश मंत्रालय में एक सचिव रहे, ज्ञानेश्वर मुळे, उनकी आत्मकथा का अनुवाद मैंने किया। वह एक अच्छी संतुष्टि रही। महाराष्ट्र के एक बहुत बड़े लेखक रहे गोविंद तलवलकर बहुत माने हुए इतिहासकार और लेखक रहे हैं। मराठी के और महाराष्ट्र टाइम्स के संपादक भी थे। उन्होंने गाँधी जी के गुरु रहे गोपालकृष्ण गोखले की पूरी जीवनी लिखी है। वह है आठ सौ पन्नों की। उस जीवनी में हमारे देश के मुगलों का और अँग्रेजों का जो इतिहास रहा है और इसके बाद जो स्वतंत्रता की लड़ाई रही, ये तीनों बातें वह एक पुस्तक में आई है। बड़ी प्रामाणिकता के साथ आई है। उन्होंने जो-जो संदर्भ दिए हैं, उन पुस्तकों के नाम भी शामिल किए हैं। ये दो महत्वपूर्ण काम अनुवाद पर किया है। इसके अलावा मैंने कोरोना पर कुछ कहानियाँ लिखीं। मनुष्य पर किस प्रकार असर हो रहा है। मनोवैज्ञानिक, सामाजिक रूप से, आर्थिक रूप से मनुष्य किस तरह उसकी चपेट में आया। एक कहानी है–जो पलायन हुआ, उस पर है। उसका शीर्षक मैंने दिया ‘बर्फ होते सपने’ वह जो सपने हैं, वह ठिठुर गए और दूसरी कहानी है। ये जो डर है, इस डर की वजह से मनुष्य के आचरण में, कहीं व्यवहार में, मेल-मुलाकात तो अभी होती नहीं। लेकिन वैसे कितना सिकुड़ता जा रहा है। सोशल डिस्टेंसिंग शब्दार्थ जो है, वह पूरी तरह से भावार्थ में प्रवेश कर गए। हम एक-दूसरे से दूर हो गए। फिजिकल डिस्टेंसिंग के अलावा अब सोशल डिस्टेंसिंग हो गया। तो इसको लेकर मैंने एक कहानी लिखी ‘अजनबी’। यह एक मनोवैज्ञानिक कहानी है। इस प्रकार कुछ कहानियाँ आई और ये दो बड़े अनुवाद आ सके।

चलते-चलते आप मेरी एक और जिज्ञासा शांत कीजिए। ये बताइए कि आजकल जो साहित्यकार लोग पुस्तकें तो काफी लिखते हैं, लेकिन जो सोशल मीडिया का जोर इतना पकड़ गया है, सोशल मीडिया पर इतना साहित्य आ रहा है, तो आपको पुस्तकों का भविष्य क्या लग रहा है? क्या पाठक मिलेंगे? या लोग केवल सोशल मीडिया के माध्यम से ही साहित्य को पढ़ते रहेंगे!

चुनौती तो है। लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि ये जो मीडिया भी नया आया है, कुछ दिन के बाद इसकी भी उम्र होगी। पुस्तकें अमर हैं, पुस्तकें कभी समाप्त होने वाली नहीं और पुस्तकें पढ़ने के बाद आप इक्विटी लाईंस जो अपने आप को महसूस करते हैं, वो सोशल मीडिया में शायद तात्कालिकता ज्यादा होती है। हालाँकि उसका भी अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता। अभी भी है उसका अस्तित्व। मैं उसका छोटा-सा एक और वाकया बताना चाहूँगा।

महाराष्ट्र में पंचगनी और महाबलेश्वर के बीच में एक गाँव है। उस गाँव को पुस्तकों का गाँव घोषित किया गया और उसमें तीस मकान अभी निर्धारित किए गए। आप पुस्तकों की बात कर रहे हैं इसलिए यह वाकया मुझे याद आ रहा है कि पुस्तकें कभी समाप्त नहीं होंगी। एक तात्कालिकता है, जो चिरंतन नहीं हैं। लोग लौटेंगे, पुस्तकों की ओर लौटेंगे। उस गाँव में सारे घर पक्के हैं। कोई कच्चा मकान उस गाँव में नहीं है और सब लोगों ने अपनी ओर से एक-एक कमरा सरकार को दिया है। उस कमरे में पच्चीस हजार की किताब अभी रखी गई है और अलग-अलग कमरों में अलग-अलग विधाओं की किताब, कहानी एक घर में, कविता एक घर में, उपन्यास, समीक्षा, स्त्री विषयक, विद्रोही साहित्य, अनुवाद, इतिहास, भूगोल और तमाम तरह की दूसरी लेकिन साहित्य से जुड़ी इतनी सारी किताबें हैं। पत्रिकाएँ हैं, अखबार भी हैं। विशेषांक भी हैं। इस प्रकार तीस घरों में ये व्यवस्था की गई है। हर घर को दो अलमारी, चार कुर्सियाँ, एक टेबल, एक टीप, दो आराम कुर्सियाँ ऐसी दी गई हैं और एक रजिस्टर रखा गया है। उस रजिस्टर में कौन-सी किताबें अच्छी लगी, उसकी उसमें प्रविष्टि उनमें करते हैं। उसके साथ ही कोई नई पुस्तक यदि किसी की समीक्षा उन्होंने पढ़ी हो और वे चाहते हैं कि वह पुस्तक लाइब्रेरी में हो, तो वह उसमें दर्ज करें और वो पुस्तक मँगवायी जा सकती हैं। तो इस प्रकार वाचन की पठन-पाठन की एक नई शुरुआत उस गाँव में की गई है। उस गाँव का नाम ‘भिलारे’ है, वह पूरा गाँव स्ट्राबेरी की खेती करता है। इसलिए सभी संपन्न लोग हैं। और वह संपन्न लोग इन किताबों का रखरखाव करते हैं। यदि किताब फट रही है, खराब हो रही है, तो वहाँ एक कमरे में ऑफिस रखा गया है, जिसमें एक अधिकारी और एक लिपिक बैठते हैं। वो उस किताब की बाइंडिंग करवाने की और उसको सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेता है। इस प्रकार उस किताब को अच्छी तरह से रखने की जो बात है, वह भी सुनिश्चित की जाती है। इस तरह आप जो कह रहे हैं, वह बात अपनी जगह सही है। मुझे ऐसा लगता है कि यह विज्ञान ने जो चीज हमारे सामने परोसी, उसमें फिलहाल तो हमलोग पूरी तरह से उलझ गए हैं या उससे लाभ भी मिल रहा है। इंटरनेट के माध्यम से बहुत सारी चीजें हमलोग पढ़ रहे हैं, लेकिन गुलजार ने जिस प्रकार कहा है, किताब पढ़ने का जो सुख है वह कागज पलटने का, कागज पलटते समय, पलटने की आवाज सुनने का है। ये सारी चीजें केवल भावुकता नहीं, कभी-न-कभी हमलोग उस दिशा में लौटेंगे। ऐसा मुझे लगता है।


Image : An Enthralling Novel
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Artist : Julius LeBlanc Stewart
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उपेन्द्र रैना द्वारा भी