मैं कहानी लेखन में बौद्धिकता का पक्षधर नहीं हूँ–तेजेंद्र शर्मा

मैं कहानी लेखन में बौद्धिकता का पक्षधर नहीं हूँ–तेजेंद्र शर्मा

आपका साहित्यकार होना महज एक संयोग है या फिर सोचा समझा कदम या जीविका का साधन, कृपया बताएँ?

जया, हिंदी लेखन जीविका का साधन केवल गुलशन नंदा, ओम प्रकाश शर्मा या फिर फिल्म और टेलिविजन से जुड़े लेखकों के लिये हो सकता है। साहित्यिक हिंदी लेखन किसी भी लेखक की आजीविका उपार्जन नहीं कर सकता। यहाँ खा कर लिखा जाता है, लिख कर नहीं खाया जाता। मेरे पिता उर्दू और पंजाबी में लिखा करते थे। इसलिए कहना अनुचित न होगा कि लेखन मुझे विरासत में मिला। शुरुआती लेखन अँग्रेजी में हुआ। बायरन और कीट्स पर दो किताबें लिखीं। मगर हिंदी में विधिवत लेखन शुरू हुआ विवाह के बाद क्योंकि पत्नी इंदु ने अपनी पीएचडी की थीसिस उपन्यासों पर शुरू की। उन उपन्यासों को पढ़ कर मैंने हिंदी में लिखने का प्रयास किया। इंदु ने मेरी व्याकरण की गलतियाँ और मात्रा की अशुद्धियों को ठीक करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। रचनाएँ छपती चली गईं। हाँ, एक बात है, मैं केवल स्वांत:सुखाय के लिये नहीं लिखता। समाज में जब कभी कुछ ऐसा घटित होता है जिससे मैं भीतर से आंदोलित होता हूँ तभी मेरी कलम चलती है। समाज से उठाए हुए चरित्र पन्नों पर मेरी लड़ाई लड़ते हैं।

…तो क्या आप सृजन को अंतर्मन की आवाज  मानते हैं या कुछ और?

सृजन कभी सीखा नहीं जा सकता। उसे केवल माँझा जा सकता है। सृजन की आवाज अंतर्मन से ही उठती है–एक विचार के तौर पर। इसलिए मैं सृजन के लिये विचार को महत्त्वपूर्ण मानता हूँ, विचारधारा को नहीं। राजनीतिक विचारधारा के दबाव में पैंफलेट तो लिखा जा सकता है साहित्य नहीं। जब जब हमारी कलम आम आदमी के कष्ट और दुःख के लिये उठेगी वो स्वयं ही बेहतरीन साहित्य की रचना करेगी। मैं जीतने वाले के साथ जश्न नहीं मना पाता। हारे हुए का दर्द मेरी कलम को अधिक छू पाता है। आज की कविता के साथ भी यही समस्या है कि वह अंतर्मन से नहीं निकल रही बल्कि शब्दों का मायाजाल बनती जा रही है। कविता में से spontaneity कहीं गायब हुए जा रही है।

वह कौन सा क्षण है जब आपने अपनी पहली रचना लिखी और वह क्या थी कविता या कहानी?

कविता की तरह कहानी किसी एक पल की उपज नहीं होती…उसके पीछे गहरी सोच होती है…मेरी पहली रचना अँग्रेजी में थी और वो भी कहानी ही थी–‘दि यूनिवर्सल लॉफ्टर’। दिल्ली विश्वविद्यालय की पत्रिका ‘ईवन-टाइड’ के लिये लिखी थी। उस पत्रिका का संपादक भी मैं ही था। हिंदी में पहला प्रयास भी कहानी ही था। जब 1975 से 1980 के बीच के उपन्यास पढ़ रहा था तो उनमें अमृतलाल नागर, हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिमांशु जोशी, शानी, शैलेश मटियानी, नरेंद्र कोहली, मृदुला गर्ग, पानु खोलिया आदि के उपन्यास पढ़े। उन्हीं के माध्यम से अपनी पत्नी इंदु से हिंदी में लिखने की प्रेरणा मिली। जाहिर है कि पहली कहानी इनसान किसी ऐसे व्यक्ति या हादसे के बारे में लिखता है जिसने उसके जीवन को सर्वाधिक प्रभावित किया हो। मेरे साहित्यिक जीवन पर मेरे अँग्रेजी के प्राध्यापक श्री श्याममोहन जुत्शी का खासा असर था। इसलिए मैंने अपनी पहली कहानी ‘प्रतिबिंब’ के लिये उनके जीवन को आधार बनाया। कहानी लिखी गई, इंदु ने उसमें सुधार किया और नरेंद्र कोहली ने उसका संपादन किया…तब जा कर पच्चीस पृष्ठों की कहानी करीब आठ या नौ पृष्ठों में सिमट पाई। यह कहानी नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुई।

आपकी बातों से स्पष्ट है कि आप अपनी सहधर्मिणी इंदु जी से प्रभावित हैं। उनके साथ बिताया कोई अविस्मरणीय पल साझा करना चाहेंगे?

इंदु एक अद्भुत व्यक्तित्व की स्वामिनी थी। यदि आप उसके पास तीस मिनट बैठ जातीं तो आप अपनी हर निजी बात उसको बता देती और अगर आपसे कोई पूछता कि इंदु जी के व्यक्तित्व के बारे में कुछ बताइये, तो आप लगभग हकला जातीं क्योंकि उस पूरे समय में आपको उनके व्यक्तित्व की उष्मा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं पता चलता। वह सकारात्मक थी। अपने भीतर बातों को समेट लेती थीं। मेरे मित्रों की पत्नियाँ अपने अपने पतियों की ना जाने कितनी बुराइयाँ कर लेती थीं मगर इंदु केवल सुन लेती थी। मुझे आदमी से इनसान बनाने वाली इंदु ही थी। उसके साथ बिताए सत्रह सालों के एक एक दिन उसने कुछ ना कुछ ऐसा किया जो मुझे आज भी जीने के लिये प्रेरित करता है। वह जन्मदिन मनाने के बहुत खिलाफ थी। उसका कहना था कि जो लोग रजे-पुजे हैं उन्हें घर बुला कर क्यों और खिलाया जाए। जब कभी किसी बच्चे का जन्मदिन होता या हमारी विवाह की वर्षगाँठ, वह ग्यारह पैकेट अरहर की दाल और ग्यारह पैकेट चावल बनवाती और जा कर झुग्गी झोंपड़ी वालों को बाँट आती। इसी में खुशी पा लेती। वह जब तक जीवित रही जिंदा रही…मरने से पहले नहीं मरी।

आप भारत से यू.के. कब गए? आपकी रचनाओं में भारत आज भी झलकता है इसका कारण?

इंदु जी की मृत्यु के बाद मेरे लिये एअरलाइन की नौकरी जारी रख पाना कठिन होता जा रहा था। बेटी दीप्ति ने दसवीं पास की थी और पुत्र मयंक ने शायद पाँचवीं। भारत में एअर इण्डिया की नौकरी छोड़ कर दूसरी नौकरी कर नहीं सकता था। बस, ऐसे में निर्णय लिया कि विदेश में सेटल हुआ जाए और हम लंदन आ गए। हमें लंदन आए करीब सोलह साल हो गए हैं। अब तुम्हारे सवाल का दूसरा भाग…मेरे साहित्य में भारत का मौजूद होना। बात यह है कि पश्चिमी देशों के तमाम हिंदी लेखक पहली पीढ़ी के प्रवासी हैं। जाहिर है कि उनका लगाव और जुड़ाव अपनी जन्मभूमि से होगा ही। भला कोई भी इनसान अपने बचपन और जवानी को कैसे भूल सकता है। और फिर मेरे तो तीन कहानी संग्रह प्रवासी होने से पहले ही प्रकाशित हो चुके थे। यह उन कहानियों की बदकिस्मती है कि मेरे प्रवासी होते ही वो कहानियाँ भी प्रवासी हो गईं। मेरे भीतर भारत भी उतना ही जीवित है जितना कि मेरा अपनाया हुआ देश यानी कि ब्रिटेन। अपने लेखन के माध्यम से मैं दोनों देशों के कल्चर के बीच एक पुल बनाने का प्रयास करता हूँ।

आप किन विधाओं में सृजन करते हैं? मूल रूप से आप एक कहानीकार हैं, इस विधा से जुड़ने की कोई खास वजह?

जया, आपने बिलकुल सही कहा कि मैं मूल रूप से कहानीकार ही हूँ। इस विधा को अपने बहुत करीब पाता हूँ। मेरा मानना है कि कहानी हर विधा की माँ होती है। साहित्यकार कलम इसीलिए उठाता है क्योंकि वह कुछ कहना चाहता है…और वह जो कहना चाहता है, वही उसकी कहानी है। वैसे लिखने को मैंने गजलें भी लिखी हैं और कविताएँ भी। कविता संकलन प्रकाशित भी हुए हैं और एक कविता संग्रह अँग्रेजी में अनूदित भी हुआ है, मगर मैं एक शायर या कवि की तरह सोच नहीं पाता। मेरी कविताएँ एक कहानीकार की कविताएँ ही कही जा सकती हैं। वैसे भी मैं कविता में केवल विचार या विचारधारा का समर्थक नहीं हूँ। मुझे लगता है कि गद्य से अलग दिखने के लिये जरूरी है कि कविता में एक अंदरूनी लय हो, संगीत हो। बिना लय के कविता मुझे खराब गद्य ही लगती है, क्योंकि जो कविता के नाम पर परोसा जाता है उन विषयों की अभिव्यक्ति एक लेख में बेहतर रूप से की जा सकती है।

कहानी विधा ने एक बहुत लंबी यात्रा तय की है। एक जमाना किस्सागोई का था तो वहीं कभी नई कहानी ने जोर पकड़ा। बीच बीच में और भी बहुत से आंदोलन हुए और अकहानी तक पहुँच गए। कहानी पर विचारधारा का बुखार चढ़ा और एक समय ऐसा भी आया कि लगभग एक सी कहानियाँ लिखी जाने लगीं। मगर आज भी कहानी में कहानीपन जिंदा है। कहानी हर बार हमें हैरान करती है कि अभी तक कितने विषय एकदम अछूते हैं जिन पर लिखा जाना बाकी है। मुझे जो कुछ कहना होता है उसे कहानी के माध्यम से आसानी से कह जाता हूँ। मुझे जीवन को एक खिड़की में से देखना अच्छा लगता है…जीवन के पलों को चुनना और उन्हें कहानी में गूँथ लेना। मैं अपने चरित्रों की लड़ाई अपनी कलम से कहानी के पन्नों पर लड़ता हूँ। अपने आपको हारे हुए इनसान के अधिक निकट पाता हूँ।

आपकी रचनाओं में संवेदना का इतना प्रवाह कैसे आ पाता है?

बात कुछ यों है जया कि रचना लिखने से पहले मैं दिमाग से उसके बारे में सोचता हूँ, विषय पर रिसर्च करता हूँ और विषय को अपने सिस्टम में अच्छी तरह सेटल होने देता हूँ। जब एक बार रॉ-मैटीरियल मेरे सिस्टम में सेट हो जाता है तो मैं दिमाग को थोड़ा विश्राम देता हूँ और दिल से लिखना शुरू करता हूँ। मैं कहानी लेखन में बौद्धिकता का पक्षधर नहीं हूँ। उसके लिये लेख और अन्य विधाएँ मौजूद हैं। क्योंकि कहानी के माध्यम से मैं किसी राजनीतिक पार्टी की विचारधारा का प्रचार नहीं कर रहा होता इसलिए दिल से लिखता हूँ ताकि मेरी बात दिल तक पहुँचे। जब तक मैं अपने चरित्रों की समस्याओं को अपनी समस्या नहीं बना लेता तब तक मैं उनके साथ अपने आप को आइडेंटीफाई नहीं कर पाता। मैं उनकी मुश्किलें अपनी बनाता हूँ…फिर थोड़ा सा अपना, बिलकुल अपना जोड़ता हूँ…इस तरह दूसरे का दर्द मेरा अपना दर्द बन जाता है। उसकी संवेदनाएँ मेरी अपनी संवेदनाएँ बन जाती हैं…जाहिर है कि जब दिल में दर्द जाग जाएगा तो संवेदनाओं का प्रवाह तो पैदा होगा ही।

आपकी सबसे प्रिय रचना?

जहाँ तक अपने लेखन का सवाल है, मुझे लगता है कि मुझे अपनी सबसे प्रिय रचना अभी लिखनी है। हाँ, दर्शकों की प्रतिक्रियाएँ बताती रहती हैं कि उन्हें मेरी कौन कौन सी रचना प्रिय लगी हैं। वैसे मैं तो अपनी हर रचना के साथ एक सी मेहनत करता हूँ मगर कुछ कहानियाँ ऐसी हैं जो पाठक के साथ एक रिश्ता बना लेती हैं जबकि कुछ ऐसी रचनाएँ होती हैं जो शायद पढ़ी ही नहीं जातीं। मुझे अपनी वो रचनाएँ प्रिय लगती हैं जो अपने पैरों पर स्वयं नहीं खड़ी हो पाईं। जो सबको प्रिय हैं, वे तो अपने आप में सक्षम हैं। फिर भी कुछ कहानियाँ ऐसी हैं जिन्हें मेरे पाठकों एवं आलोचकों ने बहुत सराहा है। उनमें ‘कब्र का मुनाफा’, ‘देह की कीमत’, ‘ढिबरी टाईट’, ‘काला सागर’, ‘एक ही रंग’, ‘कैंसर’, ‘मुझे मार डाल बेटा’, ‘कल फिर आना’ जैसी कहानियाँ शामिल हैं।

हाँ, मुझे अन्य लेखकों की बहुत सी रचनाएँ प्रिय हैं। उपन्यासों, कहानियों एवं कविताओं व गजलों की एक लंबी सूची है। फिर भी मैं यहाँ केवल तीन पुस्तकों के नाम लूँगा। अँग्रेजी में मेरा सबसे प्रिय उपन्यास है एमिली ब्रॉण्टे का ‘दि वदरिंग हाइट्स’। हिंदी में मेरी सबसे प्रिय कृतियाँ हैं जगदंबा प्रसाद दीक्षित की ‘मुरदाघर’ और श्रीलाल शुक्ल की ‘राग दरबारी’। मैं इन तीन कृतियों को बीसियों बार पढ़ सकता हूँ और हर बार इनके नये अर्थ मुझे मिलते हैं। इसके अतिरिक्त भी बहुत सी कहानियाँ और कविताएँ व उपन्यास हैं जो मुझे बहुत प्रिय हैं।

एक रचनाकार और रचना की सफलता के पीछे क्या होता है?

अनुभव से कह रहा हूँ। लेखक अपनी हर रचना के लिये पूरी मेहनत करता है। नये विषयों को तलाशता है, अपनी लेखनी को सँवारता है मगर फिर भी हर कहानी को एक सी सफलता नहीं मिल पाती। प्रेमचंद की तीन सौ कहानियों में से किसी को भी ‘कफन’ की तरह सफलता नहीं मिली। रचना का सही समय पर लिखा जाना, फिर सही पत्रिका में सही समय पर प्रकाशित होना और फिर सही लोगों द्वारा सही समय पर पढ़ा जाना। मैं क्योंकि कभी भी किसी गुट विशेष या राजनीतिक विचारधारा से नहीं जुड़ा इसलिए ऊपरे बैठे लोग मुझे पढ़ते ही नहीं थे। ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’ और ‘हंस’ में प्रकाशित होने के बावजूद कभी मेरी कहानियों पर बात नहीं होती थी। हमारी पीढ़ी ने अपने आलोचक पैदा नहीं किये। हम आलोचना के लिये उन लोगों की तरफ देखते रहे जिन्हें हमारे विचारों और विषयों से कुछ लेना देना नहीं था।

मुझे याद पड़ता है कि मेरी एक पुस्तक का दिल्ली में लोकार्पण था। कृष्णा सोबती और राजेंद्र यादव के साथ हिंदी आलोचना के शीर्ष पुरुष वहाँ मंच पर मौजूद थे। उन्हें 20 दिन पहले पुस्तक पहुँचा दी गई थी। मगर मंच पर आकर उन्होंने राजेंद्र यादव से पूछा, ‘इसकी सबसे अच्छी कहानी कौन सी है?’ यादव जी ने जवाब दिया–‘कब्र का मुनाफा’। शिखर पुरुष ने वहीं बैठे बैठे मेरी कहानी के पन्ने पलटे और माइक पर बोलने चले गए। वे 2 मिनट कहानी पर बोले और बाकी समय शब्द फेंकते रहे। मेरे लिये ‘कब्र का मुनाफा’ जैसे एक ब्रांड नेम बन गया है। हिंदी साहित्य में पाठक, लेखक और समीक्षक सब एक ही हैं। इस कारण गुणवत्ता के अतिरिक्त भी बहुत से साहित्येतर कारण किसी रचनाकार को सफल बना देते हैं। फिर भी एक बात जरूर कहना चाहूँगा कि अगर रचना दमदार नहीं होगी तो सारी की सारी कलाबाजियाँ बेकार जाएँगी।

वे कौन सी घटनाएँ हैं जो आपको लिखने के लिए प्रेरित करती हैं? क्या ताजा घटनाएँ भी उसी तरह कथा उपजाती हैं जैसे पुरानी घटनाएँ?

कहानी के लिये जरूरी है कि घटना घटित हुए कुछ समय बीत जाए। क्योंकि ताजा घटना पर तुरत-फुरत कहानी लिखने से डर रहता है कि कहीं रिपोर्ताज बन कर न रह जाए। घटना में कुछ ऐसा जरूर होना चाहिए जो आम आदमी के दर्द से जुड़ी हो। कथाकार के लिये घटना से एक निश्चित दूरी बनाना बहुत जरूरी होता है। वड्रर्सवर्थ जो बात कविता के लिये कहते हैं वो कहानी पर भी लागू होती है–‘रिक्लेकटिड इन ट्रेंक्विलिटी…’ यानी कि कथाकार के लिए आवश्यक है कि पहले घटना को वाइन की तरह मैच्योर होने दें। उसमें अपनी कल्पनाशक्ति का तड़का लगाएँ और अपना उद्देश्य तय करें कि यह घटना कहानी बनने लायक क्यों है? याद रहे कि घटना कहानी नहीं होती। घटना कहानी का रॉ-मैटीरियल होती है। घटना के पीछे की जो स्थितियाँ हैं जिनमें दुःख, सुख, गम, संघर्ष सब शामिल हैं…वो कहानी बनाते हैं। मुझे याद है कि ‘देह की कीमत’ कहानी की घटना से मैं परिचित नहीं था। मेरा एक मित्र नवराज सिंह भारतीय उच्चायोग, टोकियो में काम करता था। वह फ्लाइट में मेरे साथ टोकियो से दिल्ली आ रहा था। उसने तीन पंक्तियों की एक घटना मुझे सुनाई जो मुझे भीतर तक झिंझोड़ गई। अब मैं उस घटना के किसी भी चरित्र से परिचित नहीं था। मुझे करीब पाँच महीने लग गए उस घटना के लिये अपने जीवन में से चरित्र ढूँढ़ने में। उन चरित्रों के पहनावे से लेकर बोलने का अंदाज और सोच तक को कहानी में डालने का प्रयास किया। कहानी ‘वर्तमान साहित्य’ के विशेषांक में प्रकाशित हुई और मेरी सफल कहानियों में से एक बनी।… यानी कि घटना का आपसे जुड़ा होना आवश्यक नहीं। कथाकार के लिये आवश्यक है कि वह दूसरों के चेहरे के दर्द को अपना गम बना सके और दूसरों के चेहरे की मुस्कुराहट को अपनी हँसी।

कहा जाता है पुरस्कार एवं आयोजन सब फिक्सिंग होते हैं। इस बारे में आपके विचार?

सम्मानों और पुरस्कारों को लेकर लोगों के दिलों में विचित्र सी प्रतिक्रियाएँ पैदा होती रहती हैं। फेसबुक जैसे सोशल साईट हों या निजी बातचीत–हर जगह एक ही बात सुनने को मिलती है–‘यार ये सारे के सारे पुरस्कार फिक्स्ड होते हैं।’ मगर एक मजेदार स्थिति तब पैदा होती है जब उन्हीं आलोचकों में से किसी एक को वही सम्मान या पुरस्कार घोषित हो जाता है तो वही आलोचक कहने लगता है कि अमुक सम्मान पूरी तरह से पारदर्शी है। इसलिए कहूँगा कि किसी किसी मामले में तो अंगूर खट्टे हैं वाली स्थिति है।

सबसे अधिक उँगलियाँ साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ सम्मान पर उठाई जाती हैं। फिर बारी आती है राज्यों की अकादमियों की। बिरला और अन्य मल्टीनेशनल संस्थाओं के सम्मान उसके बाद आते हैं। आखिर में आती हैं छोटी और निजी संस्थाएँ। सरकारी सम्मानों में पारदर्शिता की कमी संभव है क्योंकि अधिकांश पुरस्कारों के निर्णायक वही पाँच छह वरिष्ठ नाम होते हैं। जहाँ जहाँ तुलनात्मक रूप से युवा निर्णायकों को सम्मानों का जिम्मा दिया जाता है वहाँ वहाँ विवाद भी कम होते हैं। ‘पहल’ पत्रिका के सम्मानों को मैं साहित्य की राजनीति मानता हूँ। अन्य पुरस्कार जो कि आपकी राजनीतिक विचारधारा के कारण आपको मिलते हों, उन पर भी मैं कोई आस्था नहीं रखता। जो पुरस्कार या सम्मान रचना पर दिये जाते हैं उनमें गड़बड़ी के कम मौके बनते हैं। जहाँ लेखक को सम्मानित किया जाता है वहाँ निजी राय, दोस्ती और सिफारिश काम कर जाती है। मुझे केवल कथा यू.के. के सम्मानों की भीतरी गतिविधियों की जानकारी है।

हमारे सम्मानित कथाकारों की सूची में शामिल बीस नामों पर यदि आप गौर करें तो आपके लिये उँगली उठाना मुश्किल हो जाएगा। यहाँ हरनोट भी हैं और असगर वजाहत भी, भगवानदास मोरवाल भी हैं और चित्रा मुद्गल भी, संजीव हैं तो ज्ञान चतुर्वेदी भी, विभूतिनारायण राय हैं तो पंकज सुबीर भी। आप किसी एक रचना पर यह उँगली नहीं उठा सकते कि रचना कमजोर है। मुझे निजी तौर पर आजतक जितने सम्मान मिले हैं, वहाँ मेरा तो कोई गॉडफादर है नहीं। और ना ही मैं किसी गुट में शामिल हूँ। यानी कि स्थिति उतनी खराब नहीं है जितनी बताई जाती है।

डायरी और आत्मकथा का प्रचलन आधुनिक साहित्य की माँग है। क्या आप भी ऐसा ही सोचते हैं?

बात कुछ ऐसी है जया कि हर कहानीकार अपना टुकड़ा-टुकड़ा जीवन तो अपनी रचनाओं में डालता ही रहता है। गैरों के अनुभवों को अपना बना कर भी पेश करता रहता है मगर साहित्य में कभी लेखक सीधे सीधे अपना नाम ले कर कुछ नहीं लिख पाता। रचनाकार शायद अपने संघर्ष अपने पाठकों के साथ साझा करना चाहता है। अँग्रेजी में ‘बॉस्वैल्स लाइफ ऑफ डॉ. जॉन्सन’ के बाद अँग्रेजी साहित्य में तो आत्मकथा की परंपरा स्थापित हो गई थी। मगर हिंदी में इस विधा की शुरुआत होने में काफी देर लगी। आत्मकथा पर हमेशा एक शक का दायरा बना रहता है कि कितना सच बोला और कितना झूठ। फिर संबंधों को लेकर भी उहापोह बनी रहती है। जवानी में यदि किसी महिला या महिलाओं से संबंध रहे हों तो क्या उनको आत्मकथा में शामिल किया जाए अथवा नहीं। जाहिर है कि हर इनसान हमारे जीवन पर अपने प्रभावचिह्न तो छोड़ कर जाएगा ही। क्या हम उसके बारे में बात करके उसके विवाहित जीवन को परेशानी में डालने का हक रखते हैं? फिर यदि कोई महिला अपनी जीवनी लिखती है तो वह कितना सच लिखने का साहस कर सकती है।… आपको याद होगा कि मैत्रेयी जी की जीवनी को लेकर कितना विवाद उठ खड़ा हुआ था।

हम अपने माँ-बाप, भाई-बहनों के बारे में कितना सच बोल सकते हैं…इसलिए आत्मकथा भी जीवन के चुनिंदा हिस्सों के बारे में ही लिखी जा सकती है। संघर्ष मेरे जीवन में भी खासा रहा है…देखा जाए तो अभी तक चल रहा है। इसी संघर्ष को मैंने रचनात्मक साहित्य के साथ जोड़ा है। जब मैं निर्णय लूँगा कि अब मुझे अपना संघर्ष अपने चरित्रों के माध्यम से नहीं दिखाना है बल्कि सीधा अपने पाठकों से साझा करना है तो अवश्य ही जीवनी लिखनी होगी। मेरे जीवन में बहुत से मित्रों और रिश्तेदारों का योगदान है। यदि हर किरदार पर एक एक चैप्टर लिखा जाए तो खासा कुछ शेयर करने को मिल जाएगा।

पाठकों से हमारी कलमों को जीवन मिलता है। हमारे लेखन के सबसे अच्छे गवाह  पाठक ही हैं। किसी विशेष पाठक को लेकर कोई खास अनुभव?

जया, जबसे साहित्य बायें हाथ से लिखा जाने लगा और लेखन का उद्देश्य कुछ नामवर आलोचकों को प्रभावित करना हो गया, तबसे साहित्य और पाठक के बीच की दूरी बहुत बढ़ गई है। आज की स्थिति यह है कि लेखक ही पाठक हैं और पाठक ही लेखक। विडंबना यह है कि इनमें से भी अधिकतर पाठक अपने अपने मित्रों या गुट के सदस्यों की रचनाएँ ही पढ़ते हैं। हाँ, एक जमाना था जब ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ या ‘कादम्बिनी’ में कहानियाँ छपती थीं तो पाठकों की चिट्ठियाँ आया करती थीं। मुझे अच्छी तरह याद है कि ‘सारिका’ में एक कहानी ‘रेत के शिखर’ प्रकाशित हुई थी। कहानी का थीम विश्वविद्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर था जिसमें नायिका अपनी पीएच.डी. पूरी नहीं कर पाती क्योंकि उसका गाईड डिग्री के एवज में उसका दैहिक शोषण करना चाहता है।

कहानी पर करीब सैंतीस अड़तीस पत्र आए थे। मगर एक महिला पाठक ने 24-परगना पश्चिम बंगाल से जो दो पन्नों की लंबी सी चिट्ठी लिखी वो आज तक सुकून देती है। उस महिला ने लिखा कि मैंने उसके जीवन की सच्ची कहानी लिख दी है। फर्क सिर्फ इतना है कि कहानी में शरीर की माँग एक पुरुष एक महिला से करता है, जबकि असल जिंदगी में उस महिला के पति के साथ एक महिला गाईड वही खेल खेल रही थी। मेरी पाठक ने लिखा था, ‘जब रात को मेरे पति वापिस आते हैं तो कहते हैं–‘पता नहीं डिग्री कब मिलेगी मगर अभी तो यही लगता है कि गड्ढे में गिरता जा रहा हूँ।’ हमेशा कहा जाता है कि ‘Fact is stranger than fiction’–मेरी इस कहानी ने इस कहावत को सच कर दिखाया था।…उस महिला ने मुझे अपने जीवन के सबसे अहम राज का भागीदार बना लिया था। इक वो भी जमाना था…

यह सच है कि लिखने से पहले कई गुना पढ़ना पड़ता है। आप क्या पढ़ना पसंद करते हैं? किसे और कितना?

जया मैं टी. एस. ईलियट के ‘Tradition & Individual Talent’ के सिद्धांत को सही मानता हूँ। मेरा मानना है कि अपने साहित्य की परंपरा को जाने बिना लिखना दिशाहीन लेखन कहलाएगा। मुझ से पहले कौन कौन क्या लिख गया, यह जानना बहुत आवश्यक है। मेरा प्रिय विषय कहानी है मगर मैं कहानी के साथ साथ उपन्यास यानी कि पूरी कथा विधा को समझने का प्रयास करता हूँ।… फिर ‘कथा यू.के.’ का महासचिव होने के कारण मुझे समकालीन उपन्यास और कहानियाँ तो पढ़नी ही पड़ती हैं। मगर जब जब समय मिलता है तो बार बार डिकन्स, डी.एच. लॉरेंस, जगदंबा प्रसाद दीक्षित, श्रीलाल शुक्ल, भीष्म साहनी आदि के लेखन को दोहरा लेता हूँ।

मुझे युवा पीढ़ी का लेखन आकर्षित करता है। मैं समझना चाहता हूँ कि आखिर इस पीढ़ी की सोच क्या है। बहुत से युवा लेखक भाषा की ओर अधिक ध्यान दे रहे हैं। कुछ पहले से तय खानों में रचना रच रहे हैं। मगर कुछ ऐसे भी हैं जो अपने समय के अपने लेखन में नई व्याख्या कर रहे हैं। आजकल कवि उपन्यास लिख रहे हैं और कहानीकार अपनी कहानियों में कवितामयी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं। यह एक विशेष समय है…रचनाकार अपने आपको नये समय के हिसाब से पहचानने का प्रयास कर रहे हैं। वामपंथी दबाव का समय अब पीछे छूट रहा है। आज का लेखक किसी विचारधारा के दबाव में नहीं लिख रहा। इस पीढ़ी के मूल्य पुरानी पीढ़ी से अलग हैं और मैं इनमें नये अर्थ तलाशने का प्रयास करता हूँ।

बहुत बड़ी संख्या में पत्र-पत्रिकाएँ, ब्लॉग और वेबसाइट आकार ले रही हैं। इनका प्रभाव आपकी नजर में?

जया, हिंदी की साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का होना या ना होना हिंदी के पाठकों पर कोई असर नहीं करता।… वैसे देखा जाए तो लेखकों को भी केवल प्रकाशित हो लेने भर का सुख देता है। इन साहित्यिक पत्रिकाओं का ई-मेल आता है, ‘हम फलां फलां विशेषांक प्रकाशित करने जा रहे हैं। अपनी अप्रकाशित रचना इसमें शामिल करने के लिये भेजें।’ मैं संपादक महोदय से पूछना चाहूँगा कि भाई इस अप्रकाशित रचना लिखने में मैं जिस श्रम और दर्द से गुजरा हूँ उसके एवज में आप मुझे क्या देने वाले हैं। मानदेय देना तो आपके बूते की बात है नहीं। उस पर तुर्रा यह कि आपकी पत्रिका की शायद पाँच सौ प्रतियाँ भी मुश्किल से प्रकाशित होती होंगी। आप मुझे कितने पाठक मुहय्या करवा सकते हैं। हिंदी साहित्य का खेला वही पाँच सात सौ लोगों का लगता है। वही लेखक हैं और वही पाठक। मेरे हिसाब से ये साहित्यिक पत्रिका के संपादक एक हिसाब से प्रकाशकों के मुकाबले लेखक का अधिक शोषण करते हैं। ये पत्रिकाएँ जंगल में मोर की तरह नाचती हैं। अधिकतर तो इतनी हिम्मत भी नहीं रखतीं कि हमारी रचना प्रकाशित होने के बाद उसकी एक प्रति हमें लंदन में डाक द्वारा भेज सकें। ब्लॉग और वेबसाइट भी वन-मैन-शो होते हैं। जब तक उस बंदे में हिम्मत है तब तक ब्लॉग चलता रहेगा। जैसे ही उसके उत्साह में कमी हुई साइट बंद। मैंने बहुत सी वेबजीनें और ब्लॉगों को शुरू और बंद होते देखा है। उनमें लगी हमारी रचनाएँ और साक्षात्कार सभी गायब हो गए हैं। फिर भी अभिव्यक्ति, हिंदी समय, लेखनी, जानकी पुल, समालोचन, शब्दांकन आदि कुछ महत्त्वपूर्ण ब्लॉग और वेबजीन हैं। दरअसल कुछ लेखक अपने ब्लॉग पर केवल अपनी रचनाएँ प्रकाशित करते हैं। कुछ वेबजीन संपूर्ण पत्रिकाएँ हैं। तो वहीं कुछ ब्लॉग ऐसे भी हैं जहाँ बड़े नामों की चमचागीरी की जाती है। फिर भी यह तो मानना होगा कि ब्लॉग और वेबजीन एक अलग किस्म की संतुष्टि लेखक को प्रदान करते हैं।

साहित्य से इतर आपकी रुचि का विषय क्या है?

साहित्य के अलावा मुझे स्पोर्ट्स विशेष तौर पर क्रिकेट, टेनिस और बैडमिंटन में है। अब खेल तो नहीं पाता मगर देखना, पढ़ना और सुनना तो हो ही जाता है। इसके अतिरिक्त मुख्यधारा के सिनेमा में मेरी खासी रुचि है। एक विचित्र बात यह है कि मुख्यधारा का हिंदी साहित्य वो है जिसे पाठक नहीं मिलते, जबकि मुख्यधारा का सिनेमा वो है जो कि आम आदमी से जुड़ा है। मुझे खास तौर पर 1949 से 1972 के बीच का सिनेमा बहुत पसंद है। उन तेईस वर्षों को मैं हिंदी सिनेमा का स्वर्णयुग कहता हूँ। हिंदी सिनेमा का बेहतरीन काम ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों में हुआ है। गुरुदत्त, राजकपूर, बी.आर. चोपड़ा, व्ही. शान्ताराम, बिमल रॉय, ऋषिकेश मुखर्जी, महबूब खान, के. आसिफ, कमाल अमरोही जैसे कुछ अद्भुत फिल्मकार इस पीरियड में अविस्मरणीय फिल्में बना गए। इसी काल में दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनंद, शम्मी कपूर, राज कुमार, राजेंद्र कुमार, धर्मेंद्र, शशि कपूर, किशोर कुमार, महमूद, बलराज साहनी, जयंत, नर्गिस, वहीदा रहमान, मधुबाला, मीना कुमारी, नूतन, आशा पारेख जैसे लीजेंड कलाकार अपनी अदाकारी के जौहर दिखा रहे थे। मुझे इस काल के फिल्मी गीत आज की मुख्यधारा की कविता के मुकाबले कई कई गुना बेहतर लगते हैं। शैलेंद्र, भरत व्यास, साहिर लुधियानवी, शकील बदायुनी, कैफी आजमी, मजरूह सुल्तानपुरी, आनंद बख्शी, इंदीवर आदि कुछ ऐसे गीतकार हुए जिन्होंने सरल शब्दों में जीवन की व्याख्या फिल्मी गीतों के माध्यम से की। मैं इन गीतों को गंभीरता से पढ़ता हूँ और लंदन में इन गीतकारों पर दो दो घंटे का पावर-प्वाइंट प्रेजेंटेशन प्रस्तुत करता हूँ। ये गीत आम आदमी को हिंदी भाषा से जोड़ने का सामर्थ रखते हैं। हम आज की मुख्यधारा के कवियों के कंधों पर हिंदी भाषा की कश्ती का बोझ नहीं रख सकते जबकि ये फिल्मी गीतकार एक तरफ ‘गीत बनाके जहाँ को सुनाते हैं’ और ‘कोई ना मिले तो अकेले में गाते हैं।’

लेखन और अनुवाद में चोली-दामन का साथ रहा है। यह प्रतिदिन विस्तार पा रहा है। आप क्या सोचते हैं?

अनुवाद साहित्य का एक अनिवार्य अंग है। विश्वभर में रूसी कथाकारों की रचनाएँ अनुवाद के माध्यम से ही पढ़ी गई हैं। वर्ना पूरा विश्व टॉल्सटॉय, गोर्की, दोस्तोवोस्की, चेखव, पूश्किन आदि के साहित्य से वंचित रह जाता। अनुवाद की पहली शर्त है कि अनुवादक को दोनों भाषाओं का गहरा ज्ञान हो और साहित्यिक अनुवाद का अनुभव भी। एक बात और, जब हिंदी से दूसरी भाषाओं में साहित्य का अनुवाद किया जाए तो इस बात का ख्याल रखा जाए कि उसका प्रकाशन भी सही जगह से हो। यदि आप हिंदी से अँग्रेजी में अनूदित पुस्तक किसी ऐसे प्रकाशक से प्रकाशित करवा लेते हैं जो 300 प्रतियाँ छापने का आदी है तो आपकी पुस्तक अँग्रेजी के पाठकों तक नहीं पहुँच पाएगी। उसके लिये अँग्रेजी भाषा के प्रकाशक ढूँढ़ने होंगे। यानी कि जिस भाषा में अनुवाद हुआ है उसका प्रकाशक भी स्तरीय होना चाहिए जिसकी पाठकों तक पहुँच हो। तसलीमा नसरीन को ‘वाणी’ जैसा प्रकाशक मिला तो उनकी किताबें पाठकों तक पहुँची।

आज की कहानियों से किस्सागोई गायब होती जा रही है। कहानी है या लेख फर्क करना मुश्किल है। आप क्या कहेंगे?

मैं आपकी बात से सहमत नहीं हो पा रहा हूँ। मुझे लगता है कि हिंदी कहानी में किस्सागोई एक बार फिर वापिस आ रही है। युवा पीढ़ी ने महसूस किया है कि किस्सागोई कहानी के लिये आवश्यक तत्त्व है। हमारी अपनी पीढ़ी ने किस्सागोई और मनोविज्ञान का खूबसूरत मिश्रण करते हुए कहानियाँ लिखीं। मेरा मानना है कि कहन किसी भी कहानी का मूल तत्त्व है। यदि आप किसी को अपनी कहानी संक्षेप में सुनाते हैं तो वो किस्सा ही सुनाते हैं। कारीगरी पढ़ी जाती है सुनाई नहीं जाती। किस्सागोई वाली कहानियाँ सदा से पसंद की जाती रही हैं और की जाती रहेंगी। किस्सागोई का इस्तेमाल करते हुए हिंदी और उर्दू में तमाम लेखकों ने पाठकों को बेहतरीन कहानियाँ दी हैं। पठनीयता किसी भी रचना की गुणवत्ता को जाँचने की पहली कसौटी है। पठनीयता किस्से से ही बनती है।

तेजिंदर जी, भविष्य की आपकी क्या योजना है?

जिस स्नेह से आपने तेजिंदर जी कहा मजा आ गया। पंजाब में सभी तेजिंदर ही कहते थे। वही नाम पासपोर्ट में भी है। मगर साहित्य के लिये नाम तेजेंद्र हो गया। भविष्य के लिये बहुत सी योजनाएँ हैं…जीवन को लेकर भी और साहित्य को लेकर भी। अब सोचता हूँ कि रह लिया जितना विदेश में रहना था। अब वापिस दिल्ली चला जाए। या कम से कम रिटायर होने के बाद भारत में कुछ अधिक रहा जाए। शहर शहर जा कर कहानी पर बातचीत की जाए। एक दिल यह भी चाहता है कि अपनी बेटी दीप्ति के साथ मुंबई (अपनी साहित्यिक कर्मभूमि) वापिस चला जाए। और जहाँ तक साहित्य का सवाल है एक उपन्यास शुरू किया हुआ है ‘विल्जडन जंक्शन…’ उसे पूरा करना है। इस उपन्यास में जीवन की दो पटरियाँ हैं…एक रेलवे की और दूसरे जीवन की…उम्मीद है कि हिंदी साहित्य को कुछ नया दे पाऊँगा।


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जय शर्मा द्वारा भी