हिंदी में अच्छे नाटकों की कमी नहीं

हिंदी में अच्छे नाटकों की कमी नहीं

डॉ. सिद्धनाथ कुमार ने ‘नाटक’ के शास्त्र-व्यवहार को समझने-समझाने में अपनी पूरी जिंदगी लगा दी, और इस संदर्भ की अनेक पुस्तकों से साहित्य जगत को समृद्ध किया। वे इतने सहज और सरल थे कि उनसे बातचीत करने के प्रस्ताव पर उनकी ओर से ‘नहीं’ का कोई प्रश्न ही नहीं था। उनके जीवनकाल के अंतिम दिनों एक शाम मैं उनके आवास पर पहुँच ही गया। देखा, अपने कंप्यूटर पर बैठे कुछ लिख रहे हैं। उस समय नाटक की भाषा पर कुछ लिख रहे थे। मैंने तत्काल प्रश्न किया, ‘सामने कोई लिखित सामग्री नहीं है, आप विचारों को सीधे टाइप कर लेते हैं?’ उनका उत्तर था, ‘आदत हो गई है। 1954 में जब मैं रेडियो में था, तभी से टाइपराइटर पर सीधे लिख रहा हूँ–नाटक, आलोचना, सब कुछ, केवल कविता को छोड़कर। स्क्रिप्ट-राइटिंग में इतना समय नहीं था कि रफ लिखूँ, फिर फेयर करूँ। सो, एक ही बार में फेयर लिखने की आदत हो गई। टाइपराइटर के अक्षर घिस गए, तो अब कंप्यूटर पर लिखने लगा हूँ। इसमें सुविधाएँ भी बहुत हैं।’ उनकी लेखन-पद्धति पर विस्तार से बात करने का मन था, पर मैंने अपने को मुख्यतः नाटक पर केंद्रित रखना उचित समझा। नाश्ता-चाय की औपचारिकता के बाद बातचीत शुरू हुई थी। डॉ. सिद्धनाथ कुमार के जीवनकाल में ही यह बातचीत ‘छायानट’-112 में छपी थी, जिसे ‘नई धारा’ के अनुरोध पर पुनः यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।

इससे पहले कि मैं आपके लेखन पर बात करूँ, आपके जीवन के बारे में जानना चाहता हूँ।

बिहार के भोजपुर क्षेत्र में बक्सर में जन्मा, और घूमता-फिरता छोटा नागपुर में आ गया, जो अब झारखंड में है।

सुना है, आपका प्रारंभिक जीवन संघर्षपूर्ण रहा है। उसके बारे में कुछ बतलायेंगे?

अपने जीवन के पचहत्तर वर्ष पूरे हुए, तो मैंने कुछ पंक्तियाँ लिखी थीं, वही सुन लीजिए–‘यात्रा सुबह शुरू होती है, मेरी शुरू हुई थी दोपहर,/सूरज जलता रहा शीश पर, पंथी चलाता रहा राह पर/कठिन रास्ते पीछे छूटे, अब उनको क्या याद करूँ मैं?’

यह बात तो संकेतों में हुई, कुछ स्पष्ट कहिएगा?

स्पष्ट क्या कहना है? बस यही समझिए कि मैं एक-डेढ़ साल का था, तभी पिता जी चले गए। कठिनाइयाँ बहुत हुईं। बहुतों को होती हैं। उनकी गाथा क्या गाऊँ? आप चाहें, तो उन पंक्तियों को उद्धृत कर दूँ जिन्हें श्रद्धेय बेनीपुरी जी ने सन् 1954 में ‘सृष्टि की साँझ और अन्य काव्य-नाटक’ की प्रस्तावना में लिखी थी–‘सिद्धनाथ ने अपने को आप ही बनाया है। गरीब घर का लड़का–दरिद्रता क्या है, अनाहार क्या है, वस्त्राभाव क्या है, इनकी अनुमति के लिए सिद्धनाथ को अपना दिमाग खरोचना नहीं पड़ता है। एक नए समाज की स्थापना के लिए, जिसमें समता हो, सुख हो, शांति हो–उसकी नस-नस से पुकार उठती है, वह उसकी अपनी माँग है। सिर्फ युग की माँग पर उसे माँग का स्वाँग नहीं करना पड़ता है।’ मैं समझता हूँ, यह परिचय पर्याप्त है। अच्छा हो, अब हम साहित्य पर बात करें।

तो, सबसे पहले आप यही बतलाइए कि आपने लिखना कब शुरू किया? किस विधा में? पहली रचना कौन-सी थी?

लिखना तो शुरू किया, जब मैं बक्सर हाईस्कूल में दसवीं कक्षा का छात्र था। कविताएँ बहुत लिखीं, पर पहली प्रकाशित कविता थी–‘समझा था सुख मिलता जग में’, जो पटना की ‘किशोर’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी, सन् 1940 तक लगभग हर सप्ताह कविताएँ छपती रहीं, कभी-कभी इलाहाबाद के ‘संगम’ में भी।

तो, आपने कविता से प्रारंभ किया, तब आप नाटक के क्षेत्र में कैसे आए?

नाटक में आया पटना में आकाशवाणी, जिसे उस समय ऑल इंडिया रेडियो कहा जाता था, के नए स्टेशन की स्थापना के समय से। नए केंद्र की स्थापना हुई 26 जनवरी, 1948 को, सिर्फ चार दिन बाद ही राष्ट्रपिता बापू की हत्या हुई। उसके एक सप्ताह के अंदर ही मैंने कविता प्रसारित की–‘देवता धरा का चला गया, पूजो पाषाणों को जाकर।’ आपको बताऊँ कि ‘संसार’ ने इस पंक्ति को बैनर हेड लाईन बनाकर यह कविता प्रकाशित की थी। खैर, कविता के माध्यम से रेडियो से जुड़ा, तो फिर रेडियो नाटक से जुड़ने का मौका मिला। उसकी कहानी अलग है।

उसकी भी चर्चा कर दें, तो अच्छा हो।

जैसा मैंने पहले कहा, बात सन् 1948 की है। उस समय मैं एम.ए. (हिंदी) का छात्र था। मेरे एक अध्यापक थे प्रो. नवलकिशोर गौड़, जिनसे मैंने बहुत कुछ सीखा। उनका मुझ पर स्नेह था। मैंने उनसे निवेदन किया कि कुछ ट्यूशन की व्यवस्था करा दें, अन्यथा मुझे पढ़ाई छोड़कर फिर घर चले जाना पड़ेगा। इसके पहले एक वर्ष के लिए मुझे पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी थी। उन्होंने कहा, ट्यूशन छोड़ो, रेडियो नाटक लिखो–तीस दिनों के परिश्रम में तुम्हें जितना मिलेगा, उससे अधिक तीन दिनों की मेहनत में मिल जाएगा। उन्होंने एक पुस्तक दी, ‘हाऊ टु राइट फॉर रेडियो।’ फिर क्या था? मेरा रेडियो नाटक-लेखन प्रारंभ हो गया। एक तिमाही में कई-कई छोटे-बड़े नाटक लिखने लगा। रेडियो नाटक मेरी जीविका का साधन बन गया।

पहला नाटक कौन-सा था?

पहला नाटक था ‘मनुज भगवान’, जो पटना स्टेशन से 2 मार्च, 1948 को प्रसारित हुआ था। वह श्रीकृष्ण की मृत्यु पर लिखा गया था, जिसमें दिखलाया गया था कि भूख-प्यास किस प्रकार अनास्था को जन्म देती है–अभावग्रस्त विक्षुब्ध व्याघ्र ने श्रीकृष्ण के पैरों को हिरण समझकर बाण चलाया था। उसका आलेख तो मेरे पास नहीं है, पर अंत में श्रीकृष्ण द्वारा कही गई पंक्तियाँ आज भी मन में गूँजती हैं–‘तूने नहीं मारा मुझे/तेरी क्षुधा ने बाण बन/है वध किया भगवान का।’ उन्होंने यह भी कहा, मैं तो जा रहा हूँ, अब तुम सब स्वयं भगवान हो। मैंने नाटक का नाम दिया था ‘भगवान की मृत्यु’ पर प्रोड्यूसर ने उसे ‘मनुज भगवान’ कर दिया था।

डॉक्टर साहब, एक प्रश्न मेरे मन में आ रहा है। आपकी अनेक समीक्षात्मक टिप्पणियाँ और लेख मैंने पढ़े हैं। आप कहते हैं कि आकाशवाणी शासन की वाणी है, वह वातानुकूलित शीशमहल है, जिसमें जनजीवन का कर्म-कोलाहल नहीं पहुँच पाता। आप-जैसे सामाजिक चेतना के रचनाकार को कभी किसी तरह की परेशानी का अनुभव नहीं हुआ?

नहीं, परेशानी का अनुभव नहीं हुआ। मैं कहूँ आपसे अशोक जी कि मैंने सामंजस्य बनाए रखना सीखा है, जीवन और साहित्य दोनों में। आपके प्रश्न से कई बातें हुई हैं–रचनाकार की स्वाधीन चेतना की अभिव्यक्ति, किन्हीं विशेष नीतियों से निर्दिष्ट होकर लेखन, कार्यालय से बंधनों में बंध कर साहित्य-सृजन। इन सब पर एक ही साथ, संक्षेप में, अपने विचार रख रहा हूँ। मैंने अपने लेखन को शुरू से ही दो भागों में बाँटकर देखा है–आवश्यकता का लेखन और अनिवार्यता का लेखन। जो भौतिक आवश्यकताओं से निर्दिष्ट होकर लिखा जाता है, वह सबका सब साहित्य नहीं होता–अख़बारों में इतना सारा लिखा जा रहा है, सब साहित्य है? रेडियो के लिए अपने वैसे लेखन को मैंने महत्त्व नहीं दिया, यह बात दूसरी है कि उसमें से कुछ अपने मन के मेल में होने के कारण साहित्य हो गया है। अनिवार्यता का लेखन मैं उसे कहता हूँ, जो मेरी विवशता है। नहीं चाहूँ, तब भी मुझे उसे लिखना ही है। कविता, व्यंग्य, समीक्षा सभी विधाओं के लिए यह बात सही है। एक उदाहरण दूँ आपको। ‘हिंदी एकांकी की शिल्पविधि का विकास’ मैंने पी-एच.डी. उपाधि के लिए लिखा–वह मेरी आवश्यकता का लेखन था। मैं प्रसाद के नाटकों पर दशकों से जो अपने ढंग से सोचता आ रहा था, उसे लिखना मेरी विवशता थी–मैंने ‘प्रसाद के नाटकों का पुनर्मूल्यांकन’ लिखा। यह बात अलग है कि उस पर डिग्री भी मिल गई। हाल ही में प्रकाशित ‘नाटकालोचन के सिद्धांत’ मेरा अनिवार्यता का लेखन है। ‘कवि’, ‘सृष्टि की साँझ’, ‘लौहदेवता’ और मेरे बहुत सारे नाटक मेरे सहज लेखन की रचनाएँ हैं। रही शासकीय नीतियों की बात–तो वहाँ के लेखन में मैंने उनका ध्यान रखा, पर उसकी सीमाओं में रहकर मुझे जो कहना था, कहा। भ्रष्टाचार पर लिखते समय आप मंत्रियों पर तो नहीं लिख सकते, पर नेताओं, व्यावसायियों और सामान्य अधिकारियों पर तो लिख ही सकते हैं। उदात्त मूल्यों का जो ह्रास हुआ है और हो रहा है, उसके लिए तो किसी को आधार बनाया जा सकता है, इन बातों के लिए मेरे नाटक ‘मुर्दे जियेंगे’, ‘एक बेचैन आवाज़’ जैसे नाटक देखे जा सकते हैं। जिस समाज में व्यक्तियों को अपने सहज गुणों के विकास का अवसर नहीं मिलता, उसकी विसंगति को रेखांकित करने के लिए यह तो कहा ही जा सकता है कि यह ‘विकलांगों का देश’ है। और, अंतिम बात यह, कि जब वहाँ की सीमाओं, मुख्यतः समय की सीमा का अनुभव हुआ, तो उससे अलग हो गया। मैंने रेडियो की नौकरी दो बार छोड़ी। सन् 1958 में मैं कॉलेज में चला गया।

आपने अपने काव्य-नाटकों की चर्चा की, जिसे आप पद्य-नाटक भी कहते हैं। आपने काव्य-नाटक से ही नाटक-लेखन का प्रारंभ किया। इसकी प्रेरणा कैसे मिली?

कई बातों ने मुझे इसकी ओर प्रेरित किया। मेरी मुख्य प्रवृत्ति कविता की रही है, आज भी है। मैं तो मानता हूँ कि कोई भी विधा हो, उसके रचनाकार में काव्य-चेतना आवश्यक है। मैंने यह भी देखा कि इस क्षेत्र में प्रतियोगिता नहीं है–उस समय उदयशंकर भट्ट, भगवतीचरण वर्मा, जैसे इने-गिने प्रसिद्ध लेखक ही इस क्षेत्र में थे। दूसरी बात रेडियो में रहने से अनुभव में आया कि मात्र ध्वनि का माध्यम ही काव्य-नाटक के सर्वाधिक उपयुक्त है। अध्ययन-क्रम में मैंने जान लिया था कि पश्चिम में बीसवीं सदी के प्रारंभ में रेडियो ने ही काव्य-नाटक को लोकप्रिय बनाया। इस संदर्भ में मैंने ‘कवि’, ‘सृष्टि की साँझ’ आदि नाटक लिखे, जो उस समय प्रसारित हुए, प्रशंसित हुए। आप जानते हैं कि धर्मवीर भारती का ‘अंधायुग’ मंचित तो बहुत बाद में हुआ, रेडियो से पहले प्रसारित हुआ था। भारती ने कहा कि ‘अंधायुग’ का प्रसारण बहुत प्रभावशाली रहा। यह समय वही रहा, सन् 1950-55 के लगभग।

उसके बाद आपने काव्य-नाटक क्यों नहीं लिखे?

कुछ नाटक लिखे। ‘वातायन खोलो’ आकाशवाणी के दिल्ली केंद्र से प्रसारित हुआ था, आकाशवाणी के ‘रेडियो नाट्य-संग्रह’ में संकलित है। अब नहीं लिखता, क्योंकि अब रेडियो में ऐसा माहौल नहीं लगता कि काव्य-नाटक प्रसारित हो।

आपका लेखन रेडियो नाटक के शिल्प पर भी है, उसकी प्रेरणा के संबंध में कुछ कहिएगा?

मैं तो कहूँगा कि मेरा अधिकांश समीक्षात्मक लेखन शिल्प पर ही है। मुझे प्रारंभ से ही लगता रहा है कि सृजनात्मक लेखन में शिल्प का बहुत महत्त्व है, पर अपने यहाँ उस पर उतना ध्यान नहीं दिया गया है। बस इसी बात को देखिए न कि नाटक लिखने की कला पर अँग्रेजी में बहुत पुस्तकें हैं, पर हिंदी में नहीं के बराबर हैं। मेरे पास अनेक लेखक अपने नाटक के आलेख लेकर आते हैं, तो पूछना पड़ता है कि उन्होंने नाटक की कला पर कहीं कुछ पढ़ा है? अनेक प्रकाशित नाटकों को पढ़ने पर उनकी शिल्पगत दुर्बलताएँ खटकती हैं। हिंदी के लेखक अपनी प्रतिभा पर विशेष विश्वास करते हैं, यह अच्छी बात है, पर साहित्य की विधाएँ, नाटक विशेष रूप से, केवल प्रतिभा से रूप नहीं ग्रहण करतीं, शिल्पगत कौशल की भी अपेक्षा रखती हैं। ख़ैर, जब मैंने लिखना शुरू किया, तो रेडियो नाटक का ज्ञान अँग्रेजी पुस्तकों से प्राप्त किया। नये लेखकों को सुविधा हो, इसलिए मैंने ‘रेडियो-नाट्य-शिल्प’ लिखा, फिर बाद में ‘रेडियो नाटक की कला’।

डॉक्टर साहब, आपने इतने रेडियो नाटक लिखे, उसके शिल्प पर लिखा, आप रंग-नाटक पढ़ते रहे हैं, देखते रहे हैं, फिर आपने रंगमंच के लिए नाटक क्यों नहीं लिखे?

अशोक जी, आप हिंदी रंगमंच की स्थिति देख रहे हैं। कहाँ नियमित रूप से नाटक हो रहे हैं? राँची एक नए राज्य की राजधानी है, पर यहाँ आपने पिछले एक-दो साल में कितने नाटक देखे हैं? तब किसके लिए नाटक लिखूँ? फिर, नाटक लिखकर निर्देशक कहाँ खोजता फिरूँ? और, नाटक कहीं मंचित भी हो जाए, तो मुझे तात्कालिक लाभ क्या होगा? मैं नहीं जानता, हिंदी के कितने नाटककार अपने नाटकों के प्रदर्शन की रायल्टी से कितने लाभान्वित होते हैं। रेडियो से इतना तो है कि मुझे निर्देशक खोजने नहीं जाना पड़ता, निर्देशक ही मुझे खोजता है और श्रम का पुरस्कार तत्काल मिल जाता है। आप जानते हैं, मेरी प्रवृत्ति शौकिया जीने की, पढ़ने-लिखने की नहीं है।

तब क्या मान लिया जाए कि रंग-नाटक में आपकी रुचि नहीं है?

नहीं, रंग-नाटक में मेरी रुचि है, और बहुत है। बचपन में जब रामलीला देखता था, या कुछ पारसी रंगमंच के नाटक देखे थे, तभी से है। जीवंत दृश्य-काव्य को मैं नाटक का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रूप मानता हूँ–रेडियो नाटक तो उसका मात्र श्रव्य रूप है, टीवी आदि के नाटक उसके मात्र यांत्रिक रूप हैं। रंग-नाटक ही नाटक का मूल रूप है, जिस पर आचार्य भरत ने इतना बड़ा नाट्यशास्त्र लिखा।

इतने महत्त्वपूर्ण रंगकर्म की जो स्थिति हिंदी में है, उसके बारे में आप क्या सोचते हैं?

हिंदी में रंगमंच के अस्तित्व और महत्त्व में कोई संदेह नहीं है, पर वह कुछ विशेष नगरों में सीमित है, व्यापक हिंदी क्षेत्रों में नहीं। संभवतः हमेशा ही ऐसा रहता आया है। लोकनाटक तो लोकजीवन से निकला, उससे संपृक्त रहा, फलतः वह लगातार बना रहा, उसके क्षेत्र की व्यापकता भी बनी रही, पर वह भी तो अब शहरी संस्कृति से आक्रांत हो गया है।

हिंदी रंगमंच बहुत सक्रिय नहीं है, इसका कारण आप क्या मानते हैं?

व्यापक रूप से इसके सक्रिय नहीं रहने के कई कारण हैं। मुख्य कारण तो यह है कि यह एक व्यय-साध्य कला है। हर क्षेत्र का रंगकर्मी इसका अनुभव करता है। रंगकर्मी मिलते हैं, तो कहते हैं, नियमित रिहर्सल की जगह नहीं मिलती। शो के लिए कम खर्च में हॉल नहीं मिलता, प्रदर्शन में प्रकाश, संगीत आदि की व्यवस्था सस्ते में नहीं हो पाती, कलाकारों को नौकरी या अपने व्यवसाय से समय से फुर्सत नहीं मिलती। मेरे एक मित्र छह महीने से एक नाटक करने की कोशिश में लगे हुए हैं, पर अभी तक कोई उम्मीद नहीं दिखती। और हाँ, वे एक प्रायोजक खोज रहे हैं, जो मिल नहीं रहा है। ऐसी स्थिति में रंगमंच सक्रिय होगा? मैं कहता हूँ कि आज की व्यावसायिकता जैसे जीवन के सभी उदात्त मूल्यों की हत्या कर रही है, वैसी ही नाटक और रंगमंच की भी। यदि ऐसी बात नहीं होती, तो कलाकार रंगकला का प्रशिक्षण लेकर टीवी सीरियलों और फिल्मों की ओर भागते? मैं मानता हूँ कि रंगमंच जीवन के अन्य महत् मूल्यों में से एक है।

फिर भी हिंदी में नाटक लिखे जा रहे हैं, कुछ प्रदर्शित भी होते हैं। निर्देशक कहते हैं कि करने को अच्छे नाटक नहीं मिलते। आप क्या कहते हैं?

मैं कहता हूँ कि हिंदी में अच्छे नाटकों की कमी नहीं, यों यह अलग बात है कि अधिकांशतः वे समाख्यानात्मक हैं, चरित्र-प्रधान नहीं है, पर नाटक हैं इसमें संदेह नहीं। निर्देशकों को कुछ पुराने नाटकों के प्रदर्शनों में जो सफलता मिली, वे नए नाटक करने का ख़तरा नहीं उठाना चाहते। वे अधिकांशतः अपनी सफलता को दुहराना चाहते हैं, इससे भिन्न कुछ करना हुआ, तो हिंदीतर भाषाओं के सफलतापूर्वक प्रदर्शित नाटकों को हाथ में लेते हैं। छोटे नगरों के निर्देशक सोचते हैं कि जब दिल्ली के निर्देशक अमुक नाटक करते हैं, तो हम क्यों नहीं कर सकते? और, वे अपने शहर में ‘आषाढ़ का एक दिन’ करते हैं, ‘अंधा युग’ करते हैं, ‘बेबी’ और ‘सखाराम बाइंडर’ करते हैं।

इसमें आपको आपत्ति क्या है?

आपत्ति है कि जिस स्थान पर, कहिए परिवेश में, ये नाटक खेले जाते हैं, वहाँ के लोगों के जीवन से उनका संबंध नहीं होता। मैं मानता हूँ कि दर्शक नाटक का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सहयोगी है, नाटक दर्शक के लिए होना चाहिए–ऐसा नाटक जिसमें दर्शकों का जीवन हो, उनके प्रश्न हों, उनकी आशा-आकांक्षाएँ हों। मैंने जब रेडियो के लिए नाटक लिखना शुरू किया, तो सोचा, मेरे नाटक के श्रोता कौन होंगे? उस समय समाज के निचले वर्ग के लोगों के पास रेडियो सेट नहीं थे, उच्च वर्ग के लोगों को नाटकों में क्या रुचि होती है? मैंने मान लिया कि मेरे श्रोता मध्यम वर्ग के लोग होंगे। मैं स्वयं उस वर्ग का था। मैंने मध्यम वर्ग के जीवन को ही आधार बनाकर नाटक लिखे। तभी से मैं नाटक के उस वर्ग को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानता हूँ, जिसको नाटक संप्रेषित होता है, जिसे दर्शक कहते हैं। इटली के सार्सी का विचार अक्षरशः सही है कि दर्शक नहीं, तो नाटक भी नहीं। अभी कुछ समय पहले मुझे प्रसिद्ध निर्देशक राजिंदर नाथ का यह विचार पढ़ने को मिला–‘कोई खास दर्शक वर्ग हमारा लक्ष्य नहीं होता। हमारा लक्ष्य नाटक होता है।’ मुझे लगता है, यह नाट्य का निषेध है। नाटक दर्शक-सापेक्ष होना चाहिए, विशेष दर्शक वर्ग के लिए होना चाहिए।

बहुत बार लोगों को यह कहते हुए सुनता हूँ कि हिंदी रंगमंच आज निर्देशक का रंगमंच है। आपको क्या लगता है?

जब निर्देशक दर्शक की नहीं, नाटक की चिंता करता है, तब इस विचार को सही ही मानना चाहिए। निर्देशक भी एक सर्जनात्मक रचनाकार है, और उसे अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का अवसर मिलना चाहिए। आज निर्देशक प्रशिक्षित है, सजग है, यांत्रिक साधनों से संपन्न है। इसलिए आज वह तरह-तरह के प्रयोग कर रहा है–कहानी का मंचन, कविता का मंचन, आदि।

आपने स्वयं चर्चा कर दी, मैं इस संबंध में सोच ही रहा था।

ये प्रयोग यदि दर्शकों को ध्यान में रखकर किए जाते हैं, तो निश्चित रूप से प्रशंसनीय हैं। पर विधा के वैशिष्ट्य को ध्यान में रखना आवश्यक है। कविता सुनना अलग बात है, पर कविता देखना अलग बात है। जब कोई अभिनेता किसी चरित्र की भूमिका में आकर उसकी अनुभूतियों को व्यक्त करता है, तब वह व्यक्ति नहीं रह जाता, भाव-विशेष बन जाता है, एक कविता हो जाता है।

डॉक्टर साहब, आपने साहित्य की कई विधाओं में काम किया और सबको एक-एक कर छोड़ते गए। ऐसा क्यों?

मेरी प्रतिभा सीमित है, शक्ति सीमित है, समय कम है। किसी विचारक ने कहीं कहा है, भगवान हर व्यक्ति को किसी न किसी विशेष रूप से भेजता है–व्यक्ति को चाहिए, कि वह उस काम का पता लगाए और उसे करे। मुझे लगता है, मुझे अपने काम का पता चल गया है। इसी से मैं नाटक की आलोचना के क्षेत्र में आ गया हूँ।

आलोचना की वर्तमान स्थिति से आप संतुष्ट हैं?

संतुष्ट ही रहता, तो इसमें आता ही क्यों?

कौन-कौन काम हैं इस क्षेत्र में?

कई काम हैं। उनकी तैयारी वर्षों से करता रहा हूँ, पर अभी उनकी चर्चा नहीं करूँगा।


Image : Scrolling Floral Vines 2013.343.b Cleveland Museum of Art (cropped)
Source : Wikimedia Commons
Artist : Fayzullah
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