नई धारा संवाद : प्रेम जनमेजय (व्यंग्यकार)

नई धारा संवाद : प्रेम जनमेजय (व्यंग्यकार)

छोड़ दिया हमने अपने ऊपर हँसना

प्रसिद्ध व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय का जन्म 18 मार्च, 1949 ई. को इलाहाबाद (प्रयागराज) में हुआ। पेशे से वे दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य के अध्यापक रहे। उन्होंने अनेक विधाओं में लेखन किया, किंतु व्यंग्य उनकी केंद्रीय विधा है। दो दर्जन से अधिक पुस्तकों की रचना उन्होंने की, जिनमें प्रमुख हैं–‘राजधानी में गँवार’, ‘बेशर्ममेव जयते’, आत्मा महाठगिनी’, ‘शर्म मुझको मगर क्यों आती’, ‘डूबते सूरज का इश्क’, ‘कौन कुटील खलकामी’, ‘ज्यों ज्यों बूड़ें श्याम रंग’ (व्यंग्य); ‘प्रसाद के नाटकों में हास्य-व्यंग्य’, ‘हिंदी व्यंग्य का समकालीन परिदृश्य’, श्रीलाल शुक्ल : विचार, विश्लेषण और जीवन’ (आलोचना) आदि। अपनी साहित्य-साधना के लिए अनेक सम्मानों से विभूषित डॉ. जनमेजय से ‘नई धारा संवाद’ के तहत बीते दिनों मनमीत नारंग ने ऑनलाईन बातचीत की, जिसका प्रमुख अंश यहाँ हम प्रकाशित कर रहे हैं।                                                                                                                                                      –संपादक

नई धारा की ओर से मैं आपका हार्दिक अभिनंदन करती हूँ और हमें बेहद खुशी है कि आज ये संवाद आपके साथ होने जा रहे है।

धन्यवाद आपका! मुझे बेहद खुशी ये है कि नई धारा व्यंग्य को एक अंतर्राष्ट्रीय मंच पर लेकर आ रहा है। व्यंग्य निरंतर उपेक्षित विधा माना जाता रहा। पर अंतर्राष्ट्रीय मंच देना और लोगों तक पहुँचाना कि व्यंग्य हमारे समय की कितनी बड़ी जरूरत है, इसके लिए मैं बहुत आभारी हूँ और बहुत अच्छा मुझे इसलिए भी लग रहा है कि ‘नई धारा’ निरंतर प्रकाशन के अपने 71वें वर्ष में है। 1950 में आरंभ हुई, लालटेनी युग की है। उस समय लालटेन का युग होता था और मैं 1949 में पैदा हुआ था इलाहाबाद में। हमलोग लगभग साथ चलने वाले लोग हैं तो मुझे भी अच्छा लग रहा है कि मेरे, मैं एक वर्ष बड़ा हूँ और नई धारा से जुड़ा हूँ। मुझे बहुत अच्छा लग रहा है कि उदय राज जी की जन्म शताब्दी है जो 5 नवंबर से शुरू हुई, उसका हिस्सा मैं बन रहा हूँ।

हमारा सौभाग्य है और हमें आपकी सराहना बहुत अच्छी लग रही है तो चलिए सवालों का सिलसिला शुरू करते हैं प्रेम जी, हम जब भी किसी लेखक से मिलते हैं तो पहला सवाल यही मन में आता है कि लेखन का यह सफर शुरू कैसे हुआ, आपके माता-पिता का क्या योगदान रहा या घर का जो माहौल था उसका आप पर क्या प्रभाव पड़ा?

अगर आप इसके माध्यम से यह कहना चाहती हैं कि मैं जन्मजात साहित्यकार हूँ तो इस भुलावे में मत रहिए। मेरा बचपन जो है आम बचपन की तरह रहा है और जिसको समय पर, जो मैंने बताया लालटेनी पीढ़ी के समय में लोग जो है गिल्ली डंडा खेला करते थे। मैं कभी पेड़ों पर चढ़ जाता। बिल्लियों के बच्चे मुझे पसंद थे। मेरा जन्म इलाहाबाद में हुआ। उस समय साहित्यिक दृष्टि से बनारस और इलाहाबाद बहुत प्रमुख केंद्र थे और इलाहाबाद में निराला भी थे। मैं विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ आरंभ से। मलतब 9वीं, 10वीं, 11वीं में विज्ञान लिया और उससे पहले मैं अँग्रेजी स्कूल में पढ़ता था, पिता जी को ये था कि पढ़ाया ज्यादा अच्छा जाय। पहले प्राइमरी स्कूल में था फिर अँग्रेजी स्कूल में आया, फिर विज्ञान में आया फिर हिंदी ऑनर्स में आ गया। तो मतलब ये बदलाव रहा और हिंदी ऑनर्स में आने का एकमात्र कारण मेरी एक कहानी थी। यह अपराध किया उस कहानी ने मेरे साथ। कहानी क्या समझ लीजिए कि गर्मी की छुट्टियों में अपनी बर्बादी नहीं करनी पड़ती थी कि भई चूहा दौड़ नहीं थी बच्चों के लिए कि आपको इस कंपिटिशन की तैयारी करनी है, उसके लिए करनी है। मैंने तो देखा कि अगले साल के लिए इसी साल से तैयारियाँ शुरू हो जाती है। मैं अपने पोते को देखता हूँ इस समय वह जो कर रहा है बारहवीं में। तो वह नहीं था, हमलोग तो आराम से थे। एक मेरे दोस्त थे वह कहानी लिखते थे, अखिलेश अभी भी दोस्त हैं तो उन्होंने कहानी लिखी। कहते तू भी लिख, मैंने लिखी। उन्हीं दिनों एक पत्रिका का पता चला कि वह छपने वाली है। हमने छपने भेज दी उसके अंतर्गत और छपकर वह कहानी आ गई। वह तब आई जब हमारा हायर सेकेंडरी का रिजल्ट आ गया। मैंने एक कॉलेज में जाकर मैथस् ऑनर्स में प्रवेश ले लिया। फिर मैंने सोचा, यह धुकधुकी हुई कि यह कहानी दिखाऊँ किसको, तो मेरे दोस्त ने बोला–किसी हिंदी के टीचर को दिखाओ, तो हिंदी के टीचर वहाँ बैठे थे। उन्होंने उनको कहानी दिखाई, देखिए कहानी बहुत अच्छी है और साथ में नरेंद्र कोहली बैठे थे, कैलाश वाजपेयी थे वहाँ पर। उन्होंने कहा नरेंद्र ये देखो कहानी लिखी। फिर मुझसे बोले कि तुम क्लास में क्यों नहीं आते हो। मैंने कहा–जी मैं क्लास में आता हूँ, सामने तो क्लास होती है। तो बोले ये तो हिंदी ऑनर्स की नहीं होती है वह तो ऊपर होती है। मैंने कहा–मैं तो मैथस् ऑनर्स का विद्यार्थी हूँ। मैं तो हिंदी ऑनर्स पढ़ता ही नहीं हूँ। तो फिर कहानी कैसे लिखी? तो फिर नरेंद्र कोहली ने देखा, समझाया उन्होंने। खैर बड़ा लंबा किस्सा है, तो वहाँ से मेरा परिवर्तन हुआ और मैंने मैथस् ऑनर्स छोड़कर हिंदी ऑनर्स लिया। फिर लगातार करते-करते हिंदी ऑनर्स में तीसरी पोजीशन आई। फिर एम.ए. किया, पी-एच.डी. किया। मेरे साहित्यिक गुरु, अभिभावक के रूप में नरेंद्र कोहली हैं, कैलाश वाजपेयी से मैंने कविता के संस्कार लिए। तो इस तरह से मतलब ये एक तरह से दुर्घटनात्मक क्रिया थी कि मैं कहानी लिखने लगा। नहीं तो हो सकता है कि अगर मैं वो कहानी नहीं दिखाता तो इस समय मैं गणित पढ़ा रहा होता या पढ़ रहा होता।

नरेंद्र कोहली जी के लिए हमें बहुत-बहुत शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उन्होंने आपकी कहानी पढ़ ली और आपको हिंदी ऑनर्स की क्लास में भेज दिया। तो आपके गुरु या आपके आईडल नरेंद्र कोहली जी रहे; लेकिन आपने अपने एक इंटरव्यू में कहा है कि कबीर का आप पर बहुत प्रभाव था और फिर परसाई जी का भी प्रभाव रहा। हमें कुछ इसके बारे में बताइए कि किस तरह से इन लोगों ने आप पे असर डाला?

क्या है, जब हिंदी ऑनर्स में मैं पढ़ रहा था तो क्या होता है कि हर आदमी अपनी रुचि के हिसाब से चलता है। अगर आप एक उपवन में, बाग में चले जाएँ तो आपको हो सकता है हर फूल पसंद न आए, कोई खास फूल पसंद आएगा। ऐसे ही व्यक्ति के साथ होता है किसी से भीड़ में मिलता है तो एक आदमी पसंद आता है कि मैं इससे बात करूँ। ऐसे ही मुझे, क्योंकि माता-पिता जो है विभाजन के मारे हुए थे और उन्होंने लगातार संस्कार जो हमलोग को दिए, उस तरह के संस्कार थे कि सत्य बोलो। इसीलिए मेरा नाम, बचपन का नाम जो है पंडित जी ने त्रिवेणी प्रसाद डाला था क्योंकि गंगा किनारे पैदा हुआ था। पिता जी ने हम तीनों भाइयों के नाम प्रेम, सत्य, शांति रखा कि ये प्रेम, सत्य, शांति का संदेश संसार को देंगे। तो ये उनके जीवनमूल्य जो हमें मिले, तो कबीर मुझे पसंद आने लगे। व्यंग्य धीरे-धीरे समझ आने लगा। प्रसाद के नाटक, आप वो मानेंगे, उसमें मैंने व्यंग्य खोजा और ‘ध्रुवस्वामिनी’ जैसा व्यंग्य नाटक कहीं आपको देखने को नहीं मिलेगा। परसाई से मैं इसलिए जुड़ा क्योंकि मुझे परसाई में कबीर की छाया दिखाई दी। कबीर सीधी बात करते हैं। अगर आप देखें उनकी साखियाँ जो हैं ‘जो तू ब्राह्मण ब्राह्मणी का जाया।’ मुझे लगा कि जीवन में जो विसंगति है उसको कहने का जो साहस है, चुनौतियों से लड़ने वाली जो बात है वो मुझे कबीर दे रहे हैं। और परसाई जब मेरा सौभाग्य, वैसे परसाई का दुर्भाग्य था कि उनकी टाँग टूट गई थी और हम नौरोजी नगर में रहते थे। 1975 में वे सफदरजंग में भर्ती हुए, हमारा घर पास था, मैं उनसे मिलने चला गया। पढ़ा तो उनको पहले था। उनसे जो साक्षात्कार लिया मुझे लगा कि सही सोच, मतलब लेखन जो है वो सिर्फ ये नहीं होना कि आपके जीवन में विचार आया और आपने कह दिया। और मन में कोई घटना घटी, एक सोच के साथ और लेखक का कार्य वही होता है जो कार्य पिता का या माता का होता है, जैसे वो बच्चों को संस्कार देते हैं। लेखक भी समाज को संस्कार देता है जैसे माँ-बाप चाहते हैं कि मेरा बेटा बेहतर से बेहतर होता चला जाए। ऐसे ही लेखक भी चाहता है कि समाज बेहतर से बेहतर होता चला जाए। और ये संस्कार मुझे परसाई से मिला मैं सबसे मिला-श्रीलाल शुक्ल जी से, रवींद्रनाथ त्यागी से, शरद जोशी से। मेरा मानना रहा कि ये सब मेरी पाठशाला हैं। आप स्कूल गईं, आप स्कूल जाती हैं, कॉलेज जाती हैं, तो जो टीचर बना हुआ है या जैसे गुरु द्रोणाचार्य थे, अगर अर्जुन चाहते कि मैं गुरु द्रोणाचार्य बन जाऊँ तो वो अर्जुन कभी नहीं बन सकते थे। मैं मानता हूँ ये मेरी पाठशाला हैं। इन्होंने मुझे एक पथ दिखा दिया। ऐसे ही व्यंग्य का पथ जब मैंने देखा, तो समझता हूँ वह राजपथ था, जिसमें परसाई भी चल रहे हैं, शरद जोशी भी चल रहे हैं, रवींद्रनाथ त्यागी भी चल रहे हैं, श्रीलाल सब चल रहे हैं। अब अगर मैं उनके पीछे-पीछे चलता, कि बड़ा राजपथ तैयार है, बड़ा खूबसूरत है, मुझे और कुछ करना ही नहीं है, मेहनत करनी नहीं है, इनके पीछे-पीछे चलते जाओ और इनकी छाया बन जाओ। मैंने ये नहीं किया, मुझे जो संस्कार मिले, परसाई से भी, शरद जोशी से भी, या कहें कि मुझे सबसे बड़ा संस्कार कबीर से मिला कि, ‘लिए मुराड़ा हाथ’–मैं तो अपना मुराड़ा साथ लेकर चल रहा हूँ। मुझे लगा कि मैं अपनी कुदाल पकड़ूँ और जिन्होंने मुझे सिखाया है कि जंगल ऐसा होता है अपना रास्ता कैसे बनता है। कुदाल ली मैंने, जंगल में उतर गया, अपनी पगडंडी बनानी शुरू की। मुझे मालूम था इसमें साँप-बिच्छू भी मिलेंगे। उनसे भी मुझे चुनौतियाँ प्राप्त करनी होंगी। तो हर व्यक्ति को, मैं लेखक की बात नहीं कह रहा हूँ, बच्चों की कह रहा हूँ, समाज की कह रहा हूँ, आपकी कह रहा हूँ। जितने लोग जुड़े हैं, जब तक आप खुद अपनी कुदाल नहीं लेंगे, जब तक आप खुद अपना मार्ग नहीं बनाएँगे, तो आप दूसरे की प्रतिछाया बनेंगे, आपका अपना व्यक्तित्व उभर के सामने नहीं आएगा। तो मैंने उस तरह से ये कोशिश की।

बहुत खूब, बहुत प्रेरित हो रही हूँ मैं आपकी इन बातों से और मुझे इस बात की झलक दिखाई दे रही है, मेरे मन में ये सवाल पहले से ही था। आपकी जब रचनाएँ पढ़ी प्रेम जी तो जिंदगी से एक बड़ी वाबस्ता है, जुड़ी हुई है जिंदगी से, ऐसा लगता है रोजमर्रा की बात हो रही है जैसे हमारी ही बात हो रही है, आप हमारे ही बारे में लिख रहे हैं। तो मुझे ऐसा लगता है कि कहीं न कहीं आपने एक मौजूदा साँचें को जोड़ा है जो सदियों से चलता आ रहा है कि इस तरह से ही लिखना चाहिए। आपने उसकी भाषा इतनी सरल कर दी, अपनी बात इतनी सहजता से कहते हैं कि आम आदमी को समझ आती है वो बात।

भाषा का जहाँ तक सवाल है और व्यंग्य के साथ तो ये होता है, व्यंग्य अगर आप, दो चीजें हैं व्यंग्य में, अगर व्यंग्य संप्रेषित नहीं हो रहा है, दूसरे तक नहीं पहुँच रहा है, तो वो व्यंग्य कारगर नहीं हो सकता। दूसरा व्यंग्य में अन्यार्थ होता है, मतलब जो आपसे कहा जा रहा है वो वस्तुतः उसका अर्थ नहीं होता, उसका अर्थ कुछ और होता है। जैसे मैं उदाहरण देता रहा हूँ, और व्यंग्य की प्रखरता, व्यंग्य की हँसी के बारे में भी बताता रहा हूँ, सब जानते हैं। आपने भी महाभारत का प्रसंग सुना होगा, जहाँ पर जो पांडव हैं वो वापस लौट आए हैं और मायामहल बनता है उनका और जिसमें कौरवों को बुलाया जाता है दिखाने के लिए और वो उनका वैभव देख कर चमत्कृत हो जाते हैं और वो वैसा है कि सामने दरवाजा है पर दरवाजा नहीं लगता है। सामने दरवाजा नहीं है पर दरवाजा जैसा लगता है। ऐसे ही एक दिखाई देता है कि यहाँ पर जल है पर जल नहीं है। तो वहाँ पे दुर्योधन जो है वो गिर जाते हैं मतलब जल समझ के जो है तो वहाँ पे ऊपर जो है द्रौपदी खड़ी हुई है। और वहाँ से वो कहती है धृतराष्ट्र पुत्र, अब धृतराष्ट्र पुत्र माने धृतराष्ट्र का पुत्र। मैं अगर किसी के लिए भी कहूँ, मेरे पिता के मैं उनका पुत्र हूँ तो ठीक है पर वो धृतराष्ट्र पुत्र कहकर बड़ी जोर से हँसती है, मतलब क्या, धृतराष्ट्र अंधे थे कि भइया तुम भी धृतराष्ट्र पुत्र तो अंधे हो। तो ये क्या है वो व्यंग्य है जो उसको चुभा कि मुझे ये कहा। और जब वो हँसी तो वो हँसी कहाँ चुभी हृदय में जा के। उस हँसी ने उस व्यंग्य को बहुत ज्यादा तीखा कर दिया, तो व्यंग्य में यही हँसी होनी चाहिए। तो ये जो व्यंग्य की भाषा है मतलब और जगह भी दिखाई देगी तो आपको एक बात वो कहनी है क्योंकि मैं इसको मानता हूँ कि व्यंग्य एक सुशिक्षित मस्तिष्क की विधा है मतलब जो व्यक्ति व्यंग्य को पकड़ सकता है, सुशिक्षित होना चाहिए। क्योंकि हास्य जो है वह किसी को भी यानी जो छोटा सा बच्चा है उसको भी आप हँसा सकते हैं, जोकर बनके चले जाइए उसको विवेक की जरूरत नहीं है, उसको बौद्धिकता की ज्यादा जरूरत नहीं है पर जो व्यंग्य की समझ है वो उसी को आएगी जो व्यंग्य को पकड़ने की ताकत रखता है। आप देखिए हास्य कब से है? आदिमानव है वो हँसता था खिलखिलाता था जब उसको पढ़ना भी नहीं आता था, जब वो व्यक्ति जो है पढ़ना क्या, छोड़िये कि भाषा भी नहीं चूज कर पाता था। तो किसी चीज को देख हँस पड़ता था, रो पड़ता था। पर व्यंग्य उसके जीवन में कब आया? जब वो बौद्धिक हुआ, सभ्य हुआ, तो ये एक सभ्य व्यक्ति का हथियार है जिसका वो उपयोग करता है।

मेरा सवाल आपसे ये था कि मैं हमेशा से मानती थी कि एक व्यंग्य लिखने के लिए हकीकत से वाकिफ होना बहुत जरूरी है। लेकिन जब आपकी व्यंग्य रचना मैंने पढ़ी तो मुझे ऐसा लगा कि हकीकत का धरातल तो चाहिए ही लेकिन कल्पना शक्ति भी उतनी ही आवश्यक है। तो आपका क्या मानना है इसके बारे में?

देखिए, प्रेम जैसे विषय पर हजारों लोगों ने लिखा है, फिल्में भी बनी हैं, उपन्यास भी लिखे गए हैं, फिर भी लिखे जा रहे हैं, वो कहाँ से आते हैं? वो मौलिकता आपकी कल्पना से आती है। व्यंग्य में भी अगर आपके पास कल्पना शक्ति नहीं है, तो वो स्टेटमेंट बन के रह जाएगा। कोई भी चीज वर्णनात्मक बन के रह जाएगी। एक लेक्चर में और एक रचना में सबसे बड़ा फर्क यही होता है कि आप अगर तथ्यों को भी वर्णित करें, तो उसको क्रिएटीव रूप में बताएँ। उसको रचनात्मक रूप में बताएँ। जो भी रचनाकार चाहे वो नाटक लिख रहा है, चाहे कविता लिखा रहा है, चाहे कहानी लिख रहा है, इसीलिए मैं व्यंग्यकारों से कहता हूँ कि कुएँ से निकलो बाहर, तुम कुएँ के अंदर कुएँ के मेंढक बने हुए हो। व्यंग्य मूलतः साहित्यिक होना है। आप साहित्यकार हो, पहले साहित्यकार तो बनो। आपके सारे सामाजिक साहित्य सारोकार वही हैं जो एक साहित्यकार के हैं, पर आप अपने आप को सीमित किए बैठे हो।

तो क्या यही कारण है कि आप अपनी व्यंग्य रचनाओं में Mythology (पौराणिक कथा) का बहुत इस्तेमाल करते हैं। आपका एक नाटक है, ‘सीता अपहरण केस’ और आपका एक व्यंग्य लेख है ‘राम वनवास का सीधा प्रसारण’। तो क्या यही कारण है कि ये भी एक क्रिएटीविटी का माध्यम है या आपकी कोई खास रुचि है Mythology (पौराणिक कथा) में या कोई मकसद है इसमें जो आप इसका इतना वर्णन करते हैं?

देखिए ऐसा है कि जो आपने सवाल किया न, ये सवाल जो है बहुत ही, एक तरह से जिस प्रयोग की आप बात कर रही हैं, और जगह प्रयोग कर लें, चाहे आप उसके आधार पर रामकथा लिख लें, जैसे हमारे गुरुदेव हैं नरेंद्र कोहली, उन्होंने रामकथा लिखी, ‘दीक्षा’ लिखी, उसके बाद ‘महासमर’ लिखा, जो उन्होंने महाभारत के आधार पर लिखा, उन्होंने पहली बार उपन्यास लिखा, तो वहाँ क्या है कि आप जैसे या ‘साकेत’ मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा, तो क्या है कि उस रामकथा को आज के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं आप। उस रामकथा का प्रयोग उस रूप में करते हैं, एक माध्यम के रूप में और मिथक को विस्तार देते हैं। जैसे ‘मृत्युंजय’ उपन्यास है आप जानते ही हैं, तो व्यंग्यकार क्या करता है कि मिथक को तोड़ता है। उसको Break (तोड़ना) करता है। इसलिए जब आप Break करते हैं न तो आपको बहुत सावधानी की आवश्यकता होती है। आप कभी उस मिथ पर, मिथक जो है उस पर आक्रमण मत करें। उसका प्रयोग आप किसके लिए करें? अपनी बात को और प्रखर करने के लिए, मैं अगर मिथक का प्रयोग कर रहा हूँ जो आप नाटक की बात कर रही हैं, तो उसमें क्या है मैं मूलतः दिखा रहा हूँ कि हमारी सामाजिक, पुलिस विभाग की राजविसंगतियाँ क्या हैं?

लेकिन मैंने ये देखा है कि व्यंग्य सुनने के बाद एक बेचैनी से होने लगती है और आपने कहीं न कहीं शायद ये कहा भी है कि व्यंग्य बेचैन करता है और हास्य जो है उस बेचैनी को कम करता है, दूर करता है। तो क्या आपकी ये प्रक्रिया रहती है कि हाँ पहले कुछ कटाक्ष किया जाए, कुछ विचारों के बाण चलाए जाएँ और फिर कुछ हास्य की पंक्तियाँ जोड़ दी जाएँ या आपके भीतर ही बेचैनी होने लगती है और ये खुद ब खुद कुछ हास्य की पंक्तियाँ निकलने लगती हैं?

जब हम व्यंग्य को हास्य व्यंग्य कहते हैं और लोग, कुछ लोग ये मानते हैं कि व्यंग्य के लिए बहुत अच्छा जरूरी है, पठनीय बनाने के लिए बहुत जरूरी है कि उसमें हास्य भी हो। मेरा मानना ये है कि रचना की अगर माँग ये है कि, जैसे मैंने आपको बताया कि पहले अभी उदाहरण भी दिया आपके सामने द्रौपदी का जिसमें वह हँसती है। तो व्यंग्य जो है उसमें हास्य उसकी बैसाखी बन के न आए। मतलब मुझे ये न हो कि बिना इस बैसाखी के हास्य की बैसाखी के मेरा व्यंग्य आगे नहीं बढ़ सकता। अगर वो उसमें से निकल रहा है, अगर वो उत्प्रेरक है, अगर आपने केमिस्ट्री में कैटलिस्ट एजेंट्स कहते हैं जो उसको बढ़ाते हैं आपका जो भी क्या कहते हैं केमिकल रिएक्शन है उसको बढ़ाते हैं। तो ऐसी ऐज ए कैटलिस्ट एजेंट अगर हास्य आ रहा है व्यंग्य में तो उसका स्वागत है। पर अगर आपका हास्य आपके व्यंग्य को कम कर रहा है, अगर आप मतलब समझ लीजिए कि आपकी बहुत अच्छी तलवार है जिससे आप प्रहार करना चाहते हैं और उसके आगे जो है वो कुंद हो जाती है तो हथियार का प्रयोग सैनिक की तरह करना चाहिए आपको न कि एक हत्यारे की तरह, तो आपका व्यंग्य जो है सिर्फ हास्य में चला गया और जो तात्कालिक रहा कि आपने सुना मजा किया, जैसे कई बार चुटकुले होते हैं कई बार आप और चीजें भी देखते हैं। उसने आपको अगर कोई सोच नहीं दी, जीवन के बारे में, समाज के बारे में, मानवीय समाज के बारे में कोई संस्कार नहीं दिया, सामाजिक सरोकारों से नहीं जोड़ा तो उस हास्य का, वो हास्य आपके व्यंग्य को कमजोर करेगा पर जो हास्य आपको as a catalyst agent आएगा तो उसको बढ़ाएगा। तो मैं ऐसे व्यंग्य को, ऐसे हास्य को चाहता हूँ कि वो जीवन में आए। मतलब हँसी हो पर उद्देश्यपूर्ण हो। आप निर्मल हास्य, वैसा हास्य लिखिए जो स्वच्छ हास्य है जिसको देखकर आपको घृणा न हो, कुछ हास्य ऐसे होते हैं जिनमें, भौंडे होते हैं जिसके बारे में परसाई ने एक बार कहा था कि ऐसा हास्य मुझे वो लगता है जैसे किसी ने मेरे ऊपर तेजाब फेंक दिया हो, इतना कष्ट होता है मुझे। जैसे मैंने अभी आपसे एक जिक्र किया था ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक का, आप पढ़िएगा उसको, ‘प्रसाद का नाटक’। उसमें उन्होंने एक दृश्य उपस्थित किया। रामगुप्त राजा है, उसकी पत्नी ध्रुवस्वामिनी है और चंद्रगुप्त से वह प्रेम करती है। पर चंद्रगुप्त में प्रेम स्वीकार करने की शक्ति नहीं है जबकि ध्रुवस्वामिनी साक्षात बोलती है। और रामगुप्त विलासी राजा है और ऐसा विलासी है जिसको इस तरह के भौंडे हास्य में आनंद आता है। वो एक कुबड़े, बौने और हिजड़े को बुलाता है। मतलब वहाँ पर एक दृश्य है, जहाँ पर वो ऊटपटाँग हरकतें, अश्लील और इस तरह की चीजें करते हैं। रामगुप्त बड़े जोर से हँस रहा था, मदिरा पी रहा है। पर ध्रुवस्वामिनी और चंद्रगुप्त वहीं हैं, उनको बहुत क्रोध आता है। और अंततः ऐसा, हिजड़ा कुछ ऐसा करता है तो चंद्रगुप्त उसको कान पकड़ कर कहता है निकलो बाहर यहाँ से। तो उस समय ध्रुवस्वामिनी व्यंग्य करती है अपने पति पे, कि चंद्रगुप्त एक वही तो नपुंसक यहाँ नहीं है और किस-किस को निकालोगे? अर्थात जो इस चीज का आनंद ले रहे हैं, वो सारे के सारे नपुंसक हैं। उनमें ये ताकत नहीं है कि इस तरह के भौंडे हास्य का विरोध कर सकें। तो मेरा मानना ये है कि वो हास्य जो आपकी सोच को भ्रष्ट करता है, जो आपकी सोच को आगे नहीं बढ़ने देना चाहता, जो आपको पीछे ले जा रहा है, जो आपको ये बताकर एक रचनात्मक सुख दे दिया उसने कि हाँ मैंने देख लिया बड़ा अच्छा लगा, अगर आप उस सोच को आगे नहीं ले जाते हैं, और ये सोच आपके साथ नहीं जाती है, तो आप वही हैं जैसे बच्चों के साथ है। आप उनसे जिंदगीभर हँसी-मजाक तो नहीं करते न, उनको एक सोच-संस्कार भी देते हैं। तो यही रचनाकार का काम है। जैसे मैंने अभी बताया अल्बर्ट कामू ने भी कहा कि सभ्यता अगर नष्ट हो रही है तो उसको बचाना है, ये जरूरी है। तो ये मेरा उस मामले में मत है जो आप बता रही हैं।

आपकी ये बात सुनकर मुझे आपकी वही बात याद आ गई, आपने कहा है खुद पर हँसना हम भूल गए। और आजकल अगर हम ट्रेंड देखें तो Stand Up Comedy, Laughter Show इस तरह का एक चलन चला हुआ है, तो आपने भी अभी कुछ देर पहले कहा था कि व्यंग्य में बौद्धिकता है और हास्य में साधारण हँसी तो आपको लगता है क्या वाकई में व्यंग्य की तरफ रुचि पैदा हो रही है या इसकी वजह से व्यंग्य की जो गंभीरता है वह कहीं खो रही है?

दोनों चीजें हैं, मतलब इसके कारण क्या हैं कि जो आपने कहा व्यंग्य और आपने बड़ी अच्छी तरह से उसको समझ भी लिया चीजों को, कि व्यंग्य और हास्य में क्या अंतर है? ये लगभग वही है कि जो आपने कहा कि रुचि कम हो रही है। ऐसे रुचि नहीं कम हो रही है, मतलब बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो सुसंस्कृत हैं, जो सभ्य हैं, जो समाज में परिवर्तन चाहते हैं और आपको ये बताऊँ कि बहुत सारे लोग वो अनुकरण करते हैं समाज में, एक व्यक्ति विचार देता है, गाँधी जी ने विचार दिया, सुभाषचंद्र बोस ने विचार दिया, बहुत सारे लोग विचार देते हैं, शहीद भगत सिंह ने एक विचार दिया, हम उस विचार को आगे ले जाते हैं कि हमें कहाँ ले जाना है। नेल्सन मंडेला अगर विचार दें तो ऐसे ही रचनाकार एक विचार देता है, तो यहाँ पर भी मेरा मानना ये है कि साहित्यकार व्यंग्यकार एक विचार देता है कि हमारे समाज में ये विसंगतियाँ हैं, ये विडंबनाएँ हैं, ये आइरनी हैं, ये आइरनी जब तक खत्म नहीं होगी हमारा मानवीय समाज बेहतर नहीं होगा। तो हम निरंतर एक मानव समाज को बेहतरी के लिए और हर व्यक्ति को मेरा मानना ये है कि समाज की बेहतरी के लिए अपने आप को बेहतर करने के लिए ही लगातार लगे हैं और किसी से प्रतियोगिता नहीं करनी चाहिए। जैसे मैं अपने बच्चों से बोलता हूँ वो जो बारहवीं में पढ़ रहा है या और लोग हैं, मैंने कहा कभी चूहा दौड़ में मत फँसो, कभी ये मत सोचो कि उसके नंबर ऐसे आएँगे, आप अपने से प्रतियोगिता करो, अपने आप को निरंतर बेहतर करते चले जाओ। ऐसे ही समाज को हम निरंतर बेहतर करने का प्रयत्न, जैसे सभ्यता को नष्ट होने से बचाना। जो आप बात कर रही हैं संस्कार की, ये व्यंग्य का संस्कार भी हमें देना है, जो हमारा बच्चा, जैसे हमलोग आजकल मान के चल रहे हैं कि जैसे टेबलेट्स हैं या चीजें या नशा हैं, ये हमलोग गाली किसको देते हैं? हम मोबाइल को गाली देते हैं, हम इंटरनेट को गाली दे रहे हैं। पर ये तो माध्यम है, मीडियम है, फिल्में मीडियम है, ये जो मैं आपसे बात कर रहा हूँ ये मीडियम है। मैं उसका सदुपयोग कर रहा हूँ या दुरुपयोग कर रहा हूँ निर्भर इसपे करता है।

तो प्रेम जी, इसी मौके पर कुछ, कोई ऐसी अपनी व्यंग्य रचना पढ़ें जो आपको लगता है कि जिसने समाज की गंदगी साफ करने का काम किया है। प्रभावित की है लोगों की सोच को।

जी-जी, जब आप कह रही थीं तो मेरे मन में आ रहा था कि मैं आपसे अनुरोध करूँ कि मैं एक रचना पढ़ लूँ। पर आपने किया ये ज्यादा अच्छा लगा। मेरा अभी नया व्यंग्य संकलन आया है, ‘हँसों-हँसों यार हँसों’। तो इसमें पहली ही रचना वो है तो मेरा ये है कि किस पर हँसना है, किस पर नहीं हँसना है। व्यंग्य की क्या जरूरत है और कैसा हास्य चाहिए और कैसा हास्य नहीं चाहिए और हमारे जीवन का दृष्टिकोण क्या है।

वे सुबह-शाम हँसते हैं, वे भाव-बे-भाव हँसते हैं। वे स-शरीर हँसते हैं, वे रो रहे हों तो भी हँसते हुए लगते हैं। हँसी उनके चेहरे पर भ्रष्टाचार की तरह स्थाई भाव से चिपक गई है। वे पार्क में हँसते हैं, वे अकेले हँसते हैं, दुकेले हँसते हैं, समूह में हँसते हैं, वे हर मौके की हँसी हँस लेते हैं। रावण की अट्टहासी हँसी से लेकर खिसियानी बिल्ली की हें हें तक, इसलिए वे निरंतर हँसने की सुअवसर की तलाश में रहते हैं। वे हमारी सोसाइटी में सचिव हैं। इसलिए वह, वह नहीं हैं, वे हैं, सम्मानित हैं। वे सचिव की कुर्सी से ऐसे ही चिपके हैं जैसे हँसी उनसे चिपकी हुई है। गजब का सकारात्मक दृष्टिकोण है उनके पास, इस दृष्टिकोण के कारण वे मान-अपमान में कोई अंतर समझते ही नहीं। पिछले दिनों क्या हुआ कि सोसाइटी के एक पीड़ित ने उनका गिरेबान गेट पर पकड़ लिया और बोला–‘साले, तू तो मुर्दे की कफन में भी पैसा बनाने वाला है, तुझे सचिव किसने बनाया? तूने श्मशान घाट को दिया जाने वाला चंदा भी खा लिया, तूने अपने भाई की विधवा को दी जाने वाली सहायता हड़प ली, तुझसे तो अच्छी डायन है, जो सात घर छोड़ती है। तुझे सचिव की कुर्सी पर बैठने का कोई अधिकार नहीं है, तुझपर थू है।’ ये कहकर उसने थूका और चल दिया। वे जोर-जोर से हँसने लगे, उनके चेहरे पर थूक भी जोर-जोर से हँसने लगा। थूक उनके चेहरे की वैसे ही शोभा बढ़ा रहा था जैसे कीचड़ सूअर की बढ़ाता है। मैंने कहा, ‘अरे-अरे उसने आपके मुँह पर थूक दिया, वो आपकी बेइज्जती करके जा रहा है, पकड़िये।’ ये सुनकर वे बड़ी जोर से हँसे, मुँह से थूक साफ किया और बोले–‘उसने थूक दिया तो क्या, सोसाइटी का सचिव तो मैं अभी भी हूँ।’ मित्रो, वह उन लोगों में हैं जिनके मुँह पर कोई थूक भी दे तो इस संतोष के साथ थूक साफ करके हँसने लगते हैं कि थूक उनके आँख में जाने से बच गया। मैंने कहा–‘उसने आप पर थूक दिया और आप हँस रहे हैं।’ वे बोले–‘हँसो प्यारे, हँसो, हँसना हर तरह के स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है। जो जितना हँसता है उतना ही समृद्ध होता है। तुम तो हर समय गुस्साए रहते हो। कभी महँगाई पर गुस्साते हो, कभी किसी के बलात्कार पर गुस्साते हो, कभी किसान के आत्महत्या पर गुस्साते हो। तुमको मैंने कभी हँसते नहीं देखा, हँसो यार हँसो। बलात्कार हुआ है तो कानून देखेगा, पुलिस देखेगी। किसान ने आत्महत्या की है तो सरकार की सरदर्दी है। तुम क्यों इतने उदास हो?’ वे सोसाइटी के सचिव हैं इसलिए मुझ बुजुर्ग को वे तुम कह सकते थे और मुझे उनको आप कहना था। कई बार आप व्यक्त की मजबूरी बन जाती है, बोले–‘हँसो-हँसो यार हँसो।’ मैंने कहा–‘हँसता तो हूँ।’ बोले–‘तुम खाक हँसते हो, तुम्हारी हँसी तो सूई चुभोती है। तुम जैसे लोग तो हँसना भूल गए हो। हर समय टेंसीयाए रहते हो।’ मैंने कहा–‘हाँ ठीक कहा, हमलोग हँसना भूल गए हैं, हम अपने पर हँसना भूल गए हैं।’ मैंने पूछा–‘कभी आप अपने पर हँसे हैं?’ वे बोले–‘हँह, अपने पर? अपने पर हँसने का कभी टाइम ही नहीं मिला। और वैसे भी जब तुम्हारे जैसे लोग हों, तो अपने पर हँस कर टाइम क्यों वेस्ट करें? प्यारे हम सुबह पार्क में हँसते हैं, फिर अखबार में चुटकुले पढ़कर हँसते हैं, और आजकल तो टीवी की न्यूज भी हँसाती है। इतने कॉमेडी चैनल हैं, चौबीसों घंटे हँसाते रहते हैं। जब दूसरों पर हँसने का बाजार गर्म हो, तो अपने पर हँस कर नुकसान क्यों उठाया जाए?’ मैंने कहा–‘कॉमेडी चैनल में आपको हँसी आती है? औरत का सरेआम मजाक उड़ाया जाए, कोई पैंट के ऊपर लंगोंट पहनकर आ जाए या किसी का कच्छा उतर जाए, आपको हँसी आती है।’ उस युवा पीढ़ी ने मुझ बुजुर्ग के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा–‘यार कच्छा दूसरे का उतरता है हमारा तो नहीं।’ और ये कहकर वे जोर से हँसे और बोले जानते हो? एक कवि ने कहा है कि गैंडे को कितनी गुदगुदी कर लो, वो हँसता नहीं। मैंने कहा–‘पर मैंने संसद के गलियारों में अनेक गैंडों को अट्टहास करते देखा है।’

‘संतन को का सिख का, हमें क्या लेना संसद में कोई क्या करता है। हमारी संसद तो टीवी का कॉमेडी शो है, शो का टाइम हो गया मैं जाता हूँ।’ वह चले गये, पर मुझे जिस मोड़ पर छोड़ कर गए, मैं हतप्रभ था। ना मालूम मुझे समय में कबीर और गालिब बहुत याद आते हैं। मंदिर से फरसा निकले या मस्जिद से तलवार, ये कभी भी याद आते हैं। प्यार करने वाला सरे बाजार पीटता है, तो गालिब याद आते हैं। लगने लगता है कि इश्क नहीं आसान। इस कारण पहले आती थी हाले दिल पे हँसी, अब किसी बात पे नहीं आती। डरा आदमी हँस भी कैसे सकता है। इसके बावजूद वो मुझसे कहते हैं कि हँसों, मैं आत्महत्या करते किसानों का हाल पूछता हूँ, तो वो देश के अमीरों की फोटो दिखाकर कहते हैं–‘देश का विकास हो रहा है, हँसों।’ मैं लूटी-पीटी औरत की इज्जत ढाँकता हूँ, तो वो कहते हैं कि बार-बालाओं के साथ नाचो, गाओ और हँसो। मोटा आदमी हाँफ-हाँफ कर चलता है, मुझे दया आती है। पर वो कहते हैं–‘इस मोटे आदमी पर हँसों।’ मित्रो, आजकल का समय मुझे हँसने नहीं दे रहा है। हँसता हूँ तो लगता है जैसे कोई अपराध कर रहा हूँ, पर मुझे हँसना पड़ेगा। क्योंकि रघुवीर सहाय कह रहे हैं–‘हँसों-हँसों, जल्दी हँसों, हँसों कि तुम पर निगाह रखी जा रही है।’

प्रेम जी मुझे उम्मीद है कि, दर्शकों जिन्होंने ये सुना है आपका व्यंग्य और आगे भी मुझे उम्मीद है कि लोग पढ़ेंगे और इस बात से उनकी आँखें खुलेंगी कि जिन लोगों में कमी है उन पर नहीं हँसना है हमें। वो हास्य का माध्यम नहीं है हमारे लिये। तो आपने जो बात कही कि एक लेखक का दायित्व है, वो एक पिता के समान समाज को सही संस्कार देता है। मुझे उम्मीद है कि इस व्यंग्य से उनको संस्कार मिलेंगे। वक्त हमारे पास नहीं है लेकिन एक सवाल दर्शकों में से मैं ले लेती हूँ। तो प्रेम जी ये अतुल अरोड़ा हैं, इन्होंने आपसे पूछा है, क्या उर्दू साहित्य में दास्तान्गोई के समांतर हिंदी व्यंग्य में वाचिक परंपरा है? स्टैंड अप कॉमेडी तो शायद इसका जवाब नहीं है।

नहीं, वाचिक परंपरा है। और मैं आपको बताऊँ कि व्यंग्य में भी और ये लगभग शरद जोशी जैसे पढ़ते थे वाचिक परंपरा के व्यक्ति थे। और बहुत सारे ऐसे लोग मतलब जैसे मैं मान रहा हूँ सारा मंच जो है, मैं तो कह रहा हूँ मंच माध्यम है, मंच खराब नहीं है। जैसे अशोक चक्रधर को अगर आप सुनिए, तो उनमें जो करुणा दिखाई देती है वो कभी चुटकुलेबाजी नहीं करते हैं। इसी तरह से बहुत सारे लोग जो, हमारे दिनकर सोनवलकर नाम के एक कवि हुए, बहुत अच्छे कवि थे, व्यंग्य लिखते थे। तो हुआ क्या कि जब हमारे यहाँ मंच जो है वो लिफाफे के लिए जाना जाने लगा और जहाँ आपको एक-एक रात के बहुत सारे पैसे मिलने लगे, वो व्यवसायिकता आ गई उसके बाद से बंद। नहीं तो इसी मंच पे भवानी प्रसाद मिश्र भी पढ़ते थे, बच्चन भी पढ़ा करते थे, नीरज बाद तक पढ़ते, पर नीरज ने अपने आप को कभी भ्रष्ट नहीं होने दिया। तो ये मंच माध्यम है। और इसमें वाचिक परंपरा बहुत अच्छी परंपरा है, जिससे आप हजारों लाखों लोगों से जुड़ते हैं और आराम से सहज शैली में अपनी बात कह सकते हैं। तो मैं वाचिक परंपरा का स्वागत करता हूँ। और इस तरह के जो, पर मंच का सदुपयोग हो, दुरुपयोग न हो।

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कथा लेखिका–सूर्यबाला से बातचीत                     https://youtu.be/OlWd_OxBfCY