बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे
- 1 April, 2022
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बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे
सतानवे पार प्रसिद्ध कवि गजलकार डॉ. रामदरश मिश्र बाजार को निकले हैं लोग, ‘हँसी होंठ पर आँखें नम है’, ‘तू ही बता ऐ जिंदगी’, ‘हवाएँ साथ हैं’, ‘दूर घर नहीं हुआ’ जैसे अनगिन गजल–संग्रह हैं। साहित्य की विभिन्न विधाओं में पचासों पुस्तकों के रचयिता डॉ. मिश्र से ‘नई धारा’ के इस गजल अंक के लिए खास बातचीत की है युवा कवि डॉ. वेद मित्र ने, जिसे यहाँ अविकल प्रकाशित की जा रही है। –संपादक
‘बाजार को निकले हैं लोग’ (1986) आपका पहला गजल–संग्रह है। इसके बाद ‘हँसी ओंठ पर आँखें नम है’, ‘तू ही बता ऐ जिंदगी’, ‘हवाएँ साथ हैं’, ‘सपना सदा पलता रहा’, ‘दूर घर नहीं हुआ’ आदि गजल–संग्रह आए। प्रथम गजल–संग्रह से बहुत पहले ही सन् 1954 से आपने गजल कहना प्रारंभ कर दिया था। कृपया गजलों के साथ तय हुई अपनी यात्रा के बारे में बताएँ।
मेरा पहला गजल-संग्रह ‘बाजार को निकले हैं लोग’ है जो सन् 1986 में प्रकाशित हुआ। दूसरा संग्रह है ‘हँसी ओंठ पर आँखें नम है’ इसमें ‘बाजार को निकले हैं लोग’ की गजलें समाहित हैं। इसके बाद तो चार संग्रह आए। दरअसल मैंने जो कुछ लिखा है अपने भीतर की आवाज से प्रेरित होकर लिखा है। किसी से प्रभावित होकर या देखा-देखी नहीं लिखा है। यह सही है कि दुष्यंत के पश्चात हिंदी में गजल-लेखन की धारा-सी बह चली और मैं भी अनेक विधाओं में केंद्रीय लेखन करने के साथ गजल की ओर भी उन्मुख हो गया और गजलें मेरे भीतर से फूटने लगीं, किंतु मैंने छठे दशक में भी स्वेच्छा से कई गजलें लिखी थीं मसलन : ‘ये आवारा बादल जो छाये हुए हैं, न मालूम किसके बुलाए हुए हैं’ (1954)। इसी तरह ‘जो ख्वाब-ख्वाब बेजुबाँ होगा, कोई बताए हमें इस सफर का क्या होगा’ (1954)/‘दर्द दुनिया भर का सीने में लिए जाते हैं हम, जिंदगी जीने की मजबूरी जिए जाते हैं हम’ (1954)/‘कोई आया न, कोई खत, न तार ही आया, लौट आखिर को मेरा इंतजार ही आया’ (1954)/‘दूर ही दूर से बुलाता है, कौन है पास नहीं आता है’ (1955)/‘तूने न कुछ कहा-सुना, जैसे टली बला कोई, देता है अपनो को विदा ऐसे भी प्रिय भला कोई’ (1955)/‘तुमने फेंका मुझे ज्यों डर कोई, मिल गया राह में शिखर कोई’ (1955)/‘चाँद को आज रात भर देखा, तेरा क्या-क्या नहीं असर देखा’ (1957)। फिर आठवें और नौवें दशक में कई गजलें लिखी। उसके बाद गजलें स्वतः ही रूप लेती गईं।
आपने हिंदी गजलों के सफर को दुष्यंत से पहले और उनके बाद भी नजदीक से देखा और समझा है। ऐसे में समकालीन हिंदी गजल की दशा एवं दिशा को लेकर पाठक आपकी राय जानना चाहेंगे।
गजल हिंदी की केंद्रीय कविता शैली नहीं रही है। कवियों ने हिंदी की मुख्यधारा में लेखन करने के साथ कुछ गजलें भी लिख दी हैं, लेकिन उनकी पहचान गजलों से नहीं बनी है। उनकी पहचान हिंदी के प्रचलित छंदों में लिखी गई उनकी कविताओं से बनी है। दुष्यंत की गजलों के प्रशंसित होने के बाद गजल लिखने वालों की भीड़ उमड़ आई। दुष्यंत की गजलों ने स्वयं को सामाजिक यथार्थ के विविध आयामों से जोड़ा और इस तरह गजल के कथ्य को एक नयापन दिया। दुष्यंत की परंपरा से अपने को जोड़ने वाले गजलकारों ने अपने-अपने ढंग से अपनी गजलों को सामाजिक यथार्थ से जोड़ा। एक बात ध्यान देने की है कि दुष्यंत ने अपने मन की प्रेरणा से ऐसी गजलें लिखीं। इसलिए इनमें अनुभूति की नवीनता है, प्रभविष्णुता है और पहचान की निजता है। उनकी देखा-देखी लिखी जाने वाली गजलों में न तो निजी पहचान का सौंदर्य है न जीवन के विविध अनुभवों की प्रतीति। हाँ, अनेक गजलकार ऐसे भी हैं जिनकी गजलों में जीवनानुभव के अनेक आयाम हैं और लगता है कि गजल लिखने के लिए गजल नहीं लिख रहे हैं उनके भीतर की आवाज उनसे गजल लिखवा रही है। अदम गोंडवी तथा उन जैसे गजलकारों की लाउड गजलें तो गजल को एकांगी बनाकर छोड़ देंगी। कविता की शैली कोई भी हो उसे काव्यात्मक ढंग से जीवन की अनेक छवियों को रूपायित करना होता है।
हिंदी गजल का स्वयं एक विद्यार्थी होने के नाते मैं पाता हूँ कि आपकी गजलों को न तो छायावादी गजलों के दौर की, न तो दुष्यंत की धारा की और न ही किसी खास खेमे या वाद की गजलें कही जा सकती हैं, बल्कि मानवीय मूल्यों, संवेदनाओं आदि पर अधिक जोर देती हुई गजलें कही जा सकती हैं। यह कैसे संभव हो पाया? दूसरे शब्दों में, आप अपनी गजलों को हिंदी गजल–संसार में कहाँ पाते हैं?
मैंने गजलें लिखी हैं किंतु वह मेरी केंद्रीय काव्य-शैली नहीं है। मेरी यात्रा गीत से शुरु हुई। प्रारंभ में तो मैंने गीत लिखे ही बाद में भी कभी-कभी लिखता रहा, लेकिन बाद में, मुक्त छंद और गद्य छंद में लिखी जाने वाली मेरी कविताएँ ही मेरी केंद्रीय कविताएँ बन गईं। कविता के साथ कथा साहित्य भी मेरा केंद्रीय लेखन बन गया। केंद्रीय लेखन के साथ अन्य कई विधाओं में मेरी आवाजाही हुई है। यह सब कुछ योजनाबद्ध रूप से नहीं, सहज भाव से हुआ। तो गजल भी सहज ही मेरे भीतर से फूटी। मेरी गजलों में सहज भाव से प्रकृति भी आई, प्यार भी आया, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक विसंगतियों के प्रति प्रतिकार भाव भी आया, मेरी जीवन-यात्रा के अनेक प्रसंग भी आए। मेरा प्रयास रहा कि इनकी अंतरंगता बनी रहे। नवें, दसवें और इक्कीसवीं शताब्दी के पहले-दूसरे दशक में भी बहुत सी गजलें लिखीं, किंतु मेरा प्रयास रहा कि वे मेरी अपनी सी होकर ही रूपायित हों। फिर भी मैंने अपने संग्रहों में बार-बार कहा है कि मैं गजल के क्षेत्र में अपना कोई विशेष होना नहीं मानता। मैं गजल शास्त्र का अध्येता भी नहीं रहा हूँ। मैंने तो गजल लिखने में भी अपने छंद-ज्ञान का सहारा लिया है। हाँ, आपने सही कहा है कि मैं किसी वाद का लेखक नहीं रहा। अतः मेरी गजलें भी किसी खाने में नहीं डाली जा सकतीं।
हिंदी गजल में ईमानदार आलोचकीय संकट से जुड़ा एक प्रश्न है। दुष्यंत के समय से हिंदी गजल 40 वर्ष से अधिक का सफर तय करते हुए आगे बढ़ रही है। क्या सच में दुष्यंत की धारा के अतिरिक्त या उसके आधार पर कुछ भी नया और महत्त्वपूर्ण नहीं रचा जा रहा है? क्या कहीं अंधानुकरण तो नहीं है? हिंदी गजलों के विषय में आलोचना के नये प्रतिमान या टूल्स तलाशने या विकसित करने के प्रति क्या हमारे आलोचक सजग हैं?
नवगीतकारों की भाँति गजलकारों को भी शिकायत है कि हिंदी के आलोचक हिंदी गजल को महत्त्व नहीं दे रहे हैं। गजलकार स्वेच्छा से गजलें लिख रहे हैं, उन्हें यह काव्य-शैली पसंद है तो आलोचक की मुखापेक्षिता ही क्यों की जाए? आलोचकों को यदि यह शैली महत्त्वपूर्ण नहीं लगती तो नहीं लगती। वैसे गजलकार स्वयं आलोचक बनकर गजल के बारे में बहुत कुछ कह रहे हैं और आठ-दस गजलकारों के शेरों की चर्चा करते रहते हैं। वे किसी गजल के समग्र काव्य सौंदर्य की समीक्षा करने के स्थान पर उनके शेर उद्धृत करते रहते हैं। वैसे भी आज का पूरा आलोचना-जगत वादों से आबद्ध है। गजल की बात तो छोड़िए, गद्य छंद में जो कुछ लिखा जा रहा है उसकी समीक्षा भी वादों में बैठी हुई है। विशेष विचार दल से आलोचकों को वे ही कविताएँ दिखाई पड़ती हैं जो उनके दल के कवियों द्वारा लिखी गई हैं। यही स्थिति थोड़ी बहुत कथा के क्षेत्र में भी है।
छियानबे पार की वय में भी आपकी रचनाशीलता हम सबके लिए प्रेरणास्पद है। आपका नवीनतम कविता संग्रह ‘समवेत’ शीर्षक से शीघ्र ही अमन प्रकाशन से आ रहा है। हाल ही में एक महत्त्वपूर्ण पत्रिका में हम पाठकों को कोरोना काल से जुड़ी आपकी कुछ गजलें पढ़ने को मिली थीं। क्या वे भी इनमें संग्रहीत हैं? कृपया ‘समवेत’ की रचना प्रक्रिया के बारे में भी बताएँ।
हाँ, ‘समवेत’ में इधर लिखी गई मेरी गजलें भी सम्मिलित हैं। ‘समवेत’ तो गद्य छंद की कविताओं, गजलों और मुक्तकों का संग्रह है। हाँ, इसमें भोजपुरी के भी कुछ गीत सम्मिलित हैं। ‘समवेत’ के होने की भी एक कथा है। दरअसल मैंने 2017 में छोटी-छोटी 34 कविताएँ लिखी थीं। सन् 18 में भी दो कविताएँ लिखीं। उसके पश्चात काव्य रचना का कार्य ठप हो गया। मन के भीतर से कविता का स्वर फूटता ही नहीं था। मुझे चिंता हुई कि ये कविताएँ बिखरे-बिखरे रूप में रहेंगी। यद्यपि ये पत्रिकाओं में छप चुकी हैं फिर भी इनका समवेत रूप नहीं आ सकेगा।
सन् 2021 में लॉकडाउन के समय बेटी स्मिता अपने कुंडली स्थित आवास पर मुझे ले गई। वहाँ सहज ही मन के भीतर से कुछ मुक्तक फूट पड़े। फिर तो उनका ताँता लग गया। उनके माध्यम से मेरी सर्जनात्मकता जाग पड़ी और कई गजलों की भी रचना हो गई। दो गद्य छंद की कविताओं और एक गीत ने भी जन्म ले लिया। मुझे अब लगा कि एक कविता संग्रह बन सकता है। एक सज्जन मेरे उपन्यास ‘जल टूटता हुआ’ पर भोजपुरी फिल्म बना रहे हैं। उसके लिए मैंने भोजपुरी में कुछ गीत लिखे थे। उन गीतों ने कहा कि हमें भी उन कविताओं के साथ ले लो। मुझे लगा कि इस संग्रह का ‘समवेत’ नाम अधिक सार्थक होगा।
कृपया समवेत से कोई एक गजल हमारे पाठकों को सुनाइएगा।
जिगर से अधिक जिस्म प्यारा न होता,
तो जग में हमारा-तुम्हारा न होता
खुदा तूने दी होती रहमत सभी को
तो कोई मुसीबत का मारा न होता
शिला बन गया होता मैं ओ दिशाओं
सफर हेतु तुमने पुकारा न होता
बड़ी से बड़ी मिल गई होती मंजिल
अगर राही तू खुद से हारा न होता
गया होता गिर व्यक्ति अंधे कुएँ में
दिलों को दिलों का सहारा न होता
न कोसो निशा को अगर वह न होती
तो सुंदर सुबह का नजारा न होता
अगर दर्द दुनिया का बनता न मेरा
मेरा गीत इतना आवारा न होता।
धन्यवाद! गजल पर केंद्रित आज की बातचीत को यहीं पर विराम दें इससे पहले आपकी अत्यंत लोकप्रिय गजल ‘बनाया है मैंने ये घर धीरे–धीरे’ का पाठ करते हुए इस गजल की लोकप्रियता पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है जानना चाहूँगा।
बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे
खुले मेरे ख्वाबों के पर धीरे-धीरे
किसी को गिराया न खुद को उछाला
कटा जिंदगी का सफर धीरे-धीरे
जहाँ आप पहुँचे छलाँगें लगाकर
वहाँ मैं भी पहुँचा मगर धीरे-धीरे
पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी
उठाता गया यों ही सर धीरे-धीरे
गिरा मैं कहीं तो अकेले में रोया
गया दर्द से घाव भर धीरे-धीरे
जमीं खेत की साथ लेकर चला था
उगा उसमें कोई शहर धीरे-धीरे
न रोकर, न हँसकर किसी में उड़ेला
पिया खुद ही अपना जहर धीरे-धीरे
मिला क्या न मुझको, ऐ दुनिया तुम्हारी
मुहब्बत मिली है अगर धीरे-धीरे।
‘बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे’ गजल इतनी लोकप्रिय हो जाएगी इसकी प्रतीति मुझे नहीं थी, लेकिन ‘धीरे-धीरे’ वाली यह गजल धीरे-धीरे लोकप्रिय होती गई। यहाँ-वहाँ मुझसे उसके पाठ के लिए फरमाइश होने लगी। उसके कुछ शेर यहाँ-वहाँ उद्धृत किए जाने लगे। सहज भाव से लिखी गई यह गजल अपनी लोकप्रियता के कारण मुझे बहुत आश्वस्ति प्रदान कर रही है।