नई धारा संवाद : प्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति
- 1 August, 2022
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- 1 August, 2022
नई धारा संवाद : प्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति
‘बुराई-अच्छाई दिखाना एक लेखक का धर्म है’
नई धारा संवाद की इस कड़ी में जो इस शृंखला की आखरी कड़ी है, इसमें आपका स्वागत है, आप सब दर्शकों का। और खास बात ये है कि इस आखरी एपिसोड में हमारे साथ हैं हिंदी के मशहूर लेखक शिवमूर्ति जी! जो उपन्यासकार हैं, कहानीकार हैं और जिनकी किताबों पर फिल्में बनी हैं, नाटकों का मंचन भी हुआ है। और मेरे लिए खास तौर पर ये एक सुखद मौका है, क्योंकि शिवमूर्ति जी लखनऊ में हैं और हम भी लखनऊ में हैं। तो मैं ये कह सकता हूँ कि शिवमूर्ति जी की पैदाइश भले ही सुलतानपुर की हो, लेकिन चूँकि वो लखनऊ में रहते हैं तो हमारे लिए, हमारे शहर के लिए एक शान की बात है। शिवमूर्ति जी की जितनी भी कहानियाँ हैं, खासतौर पर जो सबसे अनूठी बात है कि उनकी कहानियों में जिस तरह से भारतीय गाँव की जो तसवीर उभर कर आती है, वो बहुत ही यथार्थवादी, बहुत ही रीयल है। आज हमारी खुशकिस्मती है कि शिवमूर्ति जी हमारे साथ हैं इस नई धारा संवाद के आखरी एपिसोड में, और जैसा कि आप सब को पता है कि ये पूरी शृंखला कई दिनों से चल रही थी। नई धारा सत्तर साल से हिंदी की सेवा में है। एक ऐसी पत्रिका जिसने तमाम खिदमत की है, जिसकी हिंदी के लिए और खासतौर पर ये जो शृंखला थी–इसमें ये कोशिश की गई कि हिंदी के रचनाकार–कवि, लेखक–वो खुद जुड़ें और दर्शकों से, श्रोताओं से अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बात करें, और खुद अपने साहित्य के कुछ अंश को पढ़ें यानी कि ये ख्वाहिश सब के मन में होती है कि उन सारे लेखकों की वो रचनाएँ जो कि वो खुद पढ़ने के लिए हमारे बीच अब नहीं हैं, अगर वो होते, या उनकी रिकार्डिंग होती तो क्या बात होती! तो ये एक खास बात है कि इस शृंखला में लेखक आते हैं, वे अपने लेखन पर बात करते हैं और अपना साहित्य खुद अपनी आवाज़ में पढ़ते हैं। ताकि ये डिजिटल मीडियम जो हमारे सामने है, आज का जो दौर है, उसमें जो सुविधा हमारे पास है–उसका लाभ लिया जा सके! तो इसी क्रम में हमारे साथ शिवमूर्ति जी हैं, हम उनका स्वागत करते हैं!
शिवमूर्ति जी जब ये तय हुआ था कि आपसे बात होनी है, तो मुझे हमेशा से एक बहुत पुरानी ख्वाहिश मेरे मन में थी, क्योंकि आपकी कहानियाँ बहुत पढ़ी। और हमेशा से ये ख्याल आता रहा कि इन कहानियों के पीछे की क्या कहानी है। एक तो बात ये थी। दूसरी बात ये थी कि जो नए लोग लिखना शुरू करते हैं तो कहानी हो या उपन्यास हो, ये विधा बहुत चैलेंजिंग है। उन्हें ये समझ में नहीं आता कि कहाँ से शुरू करें और कहाँ तक जाएँ, या कैसे वो धीरज अपने अंदर लाएँ। तो मैं बहुत बुनियादी सवाल से शुरू करता हूँ कि किसी कहानी के बनने की, उसके रचने की प्रक्रिया क्या होती है? अगर आप बिल्कुल शुरू से शुरू कर के और आखिर तक ले जाएँ, और अगर आप अपनी किसी कहानी के उदाहरण से बता पाएँ, जैसे कि ‘कुच्ची का कानून’ कहानी है वो मेरी बहुत पसंदीदा और जबरदस्त कहानी है। अगर आप उसका उदाहरण लेकर बता पाएँ कि ऐसे ख्याल आया, तो वो हमें लगता है कि नए लोगों के लिए बड़ी कमाल की बात हो जाएगी।
अच्छी बात कही आपने। जब भी कोई कहानी लिखने की शुरुआत होती है तो लगता है कि पहली बार मैं कहानी लिखना शुरू कर रहा हूँ। कहानी का विचार मन में कब आएगा, इसका कोई ठिकाना नहीं है–रास्ता चलते हुए, नहाते हुए, खाते हुए, कोई पिक्चर देखते हुए, कोई उपन्यास पढ़ते हुए–अचानक आपके मन में कोई कहानी जन्म ले लेती है, उसका बीज पड़ जाता है। कैसे पड़ता है, मैं अपने बारे में बताऊँ तो जैसे कोई दृश्य देख लिया मैंने या गीत की कोई लाइन कहीं सुन लिया मैंने, या कोई महक आ गई, या कोई चरित्र देख लिया–तो संवाद से, चरित्र से, गीत की लाइन से, किसी दृश्य से–कहानी मेरे मन में उपजती है। और फिर उसमें धीरे…धीरे…धीरे…इजाफा होता है, और चीजें जुड़ती हैं, जैसे-माता के गर्भ में बच्चा आता है और धीरे-धीरे उसका विकास होता है। बहुत सारे उदाहरण देने से तो बात लंबी हो जाएगी–मैं एक उदाहरण देना चाहता हूँ, एक या दो–जो मैं अभी नहीं लिख पाया हूँ और मेरे दिमाग में वो है। मैं चित्रकूट में थोड़े दिनों तक था, तो सबेरे सैर के लिए जाता था। एक दिन सबेरे सैर के लिए जाने के बाद लौट रहा था तो बगल में जो गाँव था वहाँ से एक बूढ़ा साइकिल पर निकला और सड़क पर आया और वो वहाँ से चलते हुए मेरी तरफ आ रहा था, मैं इधर से जा रहा था। तो बूढ़ा सामान्य है, बहुत धीरे-धीरे साइकिल चला रहा था, बहुत ज्यादा बूढ़ा था वो, वो तो ठीक है। उसके पीछे एक छोटा बच्चा आया, बहुत छोटा तीन साल ही रहा होगा, और वो कह रहा था–हे बाबा बैठा लिया, हे बाबा बैठा लिया…यानी वो बाबा के साथ साइकिल पर बैठ करके जाना चाहता था। लेकिन बाबा बहुत निर्मोही–एकाध बार पीछे सिर करके उसको झिड़क देता था और फिर आगे चलता चला जाता था। मैंने देखा एक किलोमीटर जो मुझे आगे से दिखा, और जो मैं पीछे मुड़-मुड़ कर देखता रहा। न वो बच्चा रुका, और न वो बूढ़ा रुका–वो चलता चला गया। और बच्चा भी ‘हे बाबा बैठा लिया’ कहते हुए चलता चला गया। आँखों से…आगे सड़क मुड़ती थी तो आँखों से ओझल हो गया। अब मैं सोचता हूँ कि इस पर कोई कहानी लिखी जानी चाहिए, कि वो बूढ़ा कैसा था, और वो बच्चा कितना हिम्मतवाला था, या धैर्यवाला था कि वो रुक नहीं रहा था। तो इस तरह से दृश्य मिल जाते हैं। और उन्हीं से फिर कहानी शुरू हो जाती है। और मैं आपको बताऊँ–‘तिरिया चरित्तर’ कहानी जो है, उसमें विमली का कैरेक्टर है जो भट्ठे पर मजदूरी करती है। तो उस चरित्र के मॉडल मुझे तीन जगह से मिले–एक जगह मैं भट्ठे पर गया। मैं नौकरी के सिलसिले में, भट्ठे पर मुझे जाना पड़ता था जाँच करने के लिए। तो मैं भट्ठे पर गया–उसी समय एक ट्रक आया कोयला लेकर के, और उधर जो झोपड़ियाँ लेवर्स की बनी रहती हैं उनमें से एक लड़की निकली घाँघरा पहन कर के बिंदास! अठारह-बीस साल की। तो ट्रक धीरे-धीरे पास आया, वो लड़की निकल कर वहाँ से आई। और उसने अपना एक पैर उठाकर ट्रक के बम्पर पर रखा और कहा–उतरो साले! उस ड्राइवर को कहा हँसते हुए–उतरो। ये उसका जो बिंदासपन है, ये मेरे पकड़ में आ गया। फिर इसी तरह कोई और दृश्य कहीं और मिल गया। कोई और दृश्य कहीं और मिल गया। उन तीनों दृश्यों को मिलाकर के मैंने एक कैरेक्टर गढ़ा और उसकी कहानी लिखना शुरू किया।
अच्छा इसके थोड़े और विस्तार में जाएँ–जैसे आमतौर पर कुछ लेखक ये कहते हैं कि भई कहानी का एक बेसिक ख्याल आया, या प्लॉट आया और हमने लिखना शुरू किया तो कैरेक्टर्स खुद उँगली पकड़ कर चले गए और लिखा दी। एक तरफ कुछ लोगों का ये मानना है कि तैयारी करनी पड़ती है, बाकायदा नोट्स बनाने पड़ते हैं, डायलॉग्स लिखने पड़ते हैं, या सोचना पड़ता है, या किस्सों में किस्सा बुनना पड़ता है। तो आपकी क्या स्टाइल है, कैसे आप, कितनी तैयारी करते हैं, क्या तैयारी करते हैं, किस तरह से?
देखिए कहानी तो दिमाग में किसी समय आ जाती है। उसके बाद उसको सेना (सिकाई करना) पड़ता है, जैसे मुर्गी अंडा सेती है, जैसे माँ अपने गर्भ में बच्चे को सेती है। जो लोग कहते हैं कि मैं एक ही सीटिंग में बैठ कर के पूरी कहानी लिख डालता हूँ। निश्चित रूप से वो जीनियस होते होंगे! अन्यथा मेरे साथ ऐसा नहीं है। मेरे साथ कभी कोई संवाद आ गया, उसको मैंने नोट कर लिया। कोई और विजुअल आ गया दिमाग में, उसको मैंने नोट कर लिया। एक चरित्र का खाका आ गया, वॉडी लैग्वेज आ गई, उसको मैंने नोट कर लिया। तो इस तरह धीरे-धीरे–जैसे एक कहावत है कि ‘कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा!’ ये निगेटिव अर्थ में प्राय: लोग कहते हैं कि इससे क्या होगा। लेकिन लेखक के लिए मैं कहता हूँ कि ये बहुत पॉजिटिव अर्थ होता है।
तो जैसे अगर हम ये समझें कि ‘केसर कस्तूरी’ में, या ‘कुच्ची का कानून’ में सबसे पहले क्या थॉट आई, फिर उसको कैसे आपने डेवलप किया, तो आप कैसे बताएँगे इसको?
‘कुच्ची का कानून’ के लिए मुझे एक चरित्र मिला। ये भी वहीं मिला–चित्रकूट में। वहाँ मेला लगता है। दूर-दूर से वहाँ के, जो गाँव के लोग आते हैं, औरतें आती हैं, आदमी आते हैं। मैं भी उस मेले में घूम रहा था, तो एक लंबी-चौड़ी लड़की, साँवले रंग की, उसकी हाइट होगी कम-से-कम पाँच फीट छह इंच और चौड़ाई भी थी। और बहुत ही धाकड़ चाल से चलते हुए वह चली जा रही थी! माला भी पहन लिया था, पान भी खा लिया था, रूमाल भी लटका लिया था और उसके आगे-पीछे और तीन-चार लड़कियाँ थीं। तो मैं उसको देखने लगा–तो आई वो गोलगप्पे के दुकान पे। उसने गोलगप्पे खाएँ–ये…वो…वो! मेरा ख्याल सात-आठ पत्ते उसने खाएँ! फिर उसके बाद कहती है कि लाओ पैसा लौटाओ! तो उसने तुरंत कहा, पैसा तो तुमने अभी दिए नहीं! लाओ इतना हुआ! कहा, अरे क्या बात करते हो बीस रुपया हमने अभी दिया बाकी लौटाओ! वो विस्तार में बहुत हो जाएगा। आप ये समझिए कि उस लड़की ने दबंगई से कहा–नहीं लौटाओगे तो मैं अभी तुम्हारा ठेला उलटती हूँ और मुझे देहाती समझ लिया है क्या? और उसने पैसा भी ले लिया! तो हमने कहा कि ये तो गजब की बोल्ड! तो ये मेरे दिमाग में था। और फिर मुझे ये हुआ कि अगर कोई स्त्री, कोई लड़की, शादी नहीं करना चाहती और बच्चा चाहती है तो क्या वह नहीं कर सकती! हमारा समाज इस तरह इतने सारे बंधन लगाए हुए है। ये बंधन तो हटने चाहिए। और कुछ, ये बंधन शहरी क्षेत्रों में टूट भी रहे हैं, गाँव में ये क्यों नहीं टूट सकते हैं? गाँव के पृष्ठभूमि पे! तब मैंने अपनी ये कहानी शुरू की।
अच्छा सर, इसमें चूँकि एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो कि–जैसे आपने कहा, अपनी कोख पर अपना अधिकार चाहती है, और उसके लिए वो एसर्ट भी करती है और उसके लिए खड़ी भी होती है। तो जाहिर तौर पे जितनी स्त्री मन की जो संवेदना है वो, उसके अधिकारों की जो चेतना है वो, और तमाम चीजें हैं। तो कई बार जब ये चेतना आती है अधिकारों की, या किसी हद तक सरोकार जिन्हें हम कह सकते हैं, तो इसमें क्या होता कई बार कहानी के लाउड हो जाने का खतरा हो जाता है, इसको हमलोग शायरी के जुबान में कई बार कहते हैं कि नारेबाजी हो गई, या पोस्टरबाजी, या ज्ञान हो गया। तो इस चुनौती से कैसे बचे कोई लेखक, अगर नया लेखक है? जाहिर सी तौर पे लेखक की संवेदना आती है कहानी में, लेकिन वो बिल्कुल लाउड न हो और बिल्कुल घुली–मिली तौर पे आए तो इसके लिए क्या तरीका आप अपनाते हैं? ये तो सारी कहानियों में, या तो गाँव के अंदर जो शोषण है, चाहे वो जाति का हो, चाहे वो वर्ण व्यवस्था का हो, चाहे वो धर्म का हो, या और जितनी गाँव में जो एक विसंगतियाँ हैं, गाँव के समाज में–उनको बिल्कुल, जिस तरह से वो दिखाई देती है! तो इस चुनौती से आप कैसे डिल करते हैं?
देखिए, संवेदना अगर आप प्रबल करेंगे, संवेदना को प्रमुखता देंगे। घटनाक्रम या अपने विचार को प्रमुखता नहीं देंगे तो आप इससे उबर सकते हैं। विचारधारा रहती है कहानी में, रहनी चाहिए। लेकिन उसी तरह रहनी चाहिए जैसे पानी में आप चीनी मिला देते हैं तो वह शरबत हो जाता है, चीनी दिखाई नहीं देती है। चीनी मिठास का काम कर रही है, चीनी नहीं रहेगी पानी में तो शरबत बनेगा ही नहीं। उसकी उपस्थिति जरूरी है। तभी वो एक पोडक्ट तैयार होगा, उसमें मिठास आएगी। लेकिन अगर जब चीनी बाहर से दिखाई देती रहेगी, घुलेगी नहीं तो फिर वो शरबत नहीं बनेगा। यही स्थिति संवेदना की है। विचारधारा दिखाई नहीं पड़नी चाहिए, रहनी चाहिए, लेकिन दिखाई नहीं पड़नी चाहिए। ये है।
सर इसको ज्यादा बेहतर तरीके से समझ पाएँगे–आप कुछ हिस्सा अगर पाठ कर दें ‘कुच्ची का कानून’ से, या जो भी आपने, या जैसे आपने मार्क भी किए हैं कुछ हिस्से–जैसे आपने बताया था। पढ़के सुना देंगे तो वो और श्रोताओं पर बात खुल जाएगी कि आप किस तरफ इशारा कर रहे हैं?
हाँ विचारधारा–जैसे ‘कुच्ची का कानून’ में इस बात को कहने के लिए कि मेरे कोख पर मेरा अधिकार है। कुच्ची को लोग पंचायत में जलील करना चाहते हैं, उसको दंडित करना चाहते हैं। उस पे इल्जाम लगाना चाहते हैं कि जब तेरे पति नहीं हैं तो तेरे पेट में किसका बच्चा आया, और क्यों आया! तो उनका किस प्रकार जवाब देती है, इसका छोटा अंश मैं आपको सुनाता हूँ, बहुत छोटा अंश है, कहानी तो बहुत लंबी है–अस्सी-नब्बे पेज की कहानी है तो बिना…।
उसके संवाद बड़े मार्मिक हैं जब वो वहाँ पंचायत में बहस कर रही है।
तो देखिए वो पंचायत बैठी हुई है, और कहते हैं कि शुरू किया जाए–तो लक्ष्मण चौधरी कहते हैं कि ‘सबको पता है कि यह पंचायत बनवारी मिस्त्री ने रमेशर भगत और उनकी पतोहू कुच्ची के खिलाफ बुलाई है। दोनों फरीक वचन दें कि पंचायत जो भी फैसला करेगी मानेंगे।’
‘जरूर मानेंगे क्यों नहीं मानेंगे!’ बनवारी तुरंत उठकर कहता है। बनवारी ने ही पंचायत बुलाई है, बनवारी उस कुच्ची का जेठ है, बनवारी ही जगह-जमीन हड़पना चाहता है कुच्ची का, क्योंकि उसका पति मर चुका। ‘तुम बोलो कुच्ची’ बलई पांड़े उँगली दिखाते हैं। कुच्ची कहती है, ‘पद मानेंगे, कुपद नहीं मानेंगे।’
‘तो क्या हमलोग कुपद करने आए हैं?’ बलई नाराजगी दिखाते हैं।
‘वचन तो दे दिए बाबा कि पद मानेंगे, अगर पंच दूसरे फरीक का गुड़ खाकर कहने लगे कि कुच्ची की आँख फोड़ दो, कुच्ची के कान काट लो, तो कैसे मानेंगे?’
‘पंच इतने सस्ते हैं कि गुड़ पर बिक जाएँगे?’
‘कौन कितने सस्ते-महँगे बिकेगा यह तो बिकने वाला जाने, लेकिन हमें भी पंच की जबान चाहिए कि वो न्याय करेंगे! अन्याय नहीं करेंगे।’
‘कौन तय करेगा कि न्याय हुआ कि अन्याय?’ धनई मिश्र पूछते हैं।
‘आपका दिल तय करेगा बाबा! मेरी दादी कहती थीं कि जीभ की लगाम दिल के हाथ में रहने दीजिए तो कुपद नहीं होगा!’
बलई पांड़े कहते हैं, ‘जो भी पंचायत में बोलेगा वह बनवारी का गुड़ नहीं खाएगा। अब तो ठीक है?’
लेकिन लक्ष्मण चौधरी को कुच्ची की बात में आती बगावत की बू अच्छी नहीं लगी। वह कहते हैं, ‘जब यहाँ रमेशर भगत मौजूद हैं तो कुच्ची से पूछने का क्या मतलब? उसी की कुचाल पर तो पंचायत बैठी है, जो भी सजा-जुर्माना होना है उसी पर होना है, और भुगतना है रमेशर को, तो रमेशर भगत वचन दे।’
रमेशर अपनी जगह पर खड़े होकर हाथ जोड़ते हैं, ‘पंच तो भगवान बराबर हैं चौधरी साहब, भगवान से बाहर हम कैसे चले जाएँगे? हम पंच का मान रखेंगे। पंच अपनी लाज रखें, इसी में सब समाया हुआ है।’
‘ठीक है’ बलई बाबा कहते हैं, ‘बनवारी अब तुम अपनी उजुरदारी लगाओ।’
बनवारी कंधे पर पड़ा तौलिया हाथ में लेकर खड़ा होता है। दोनों हाथ जोड़ता है, तौलिया माथे से लगाता है और भोली सूरत बनाकर शुरू करता है–‘पंचो सबको पता है कि इस पंचायत की जरूरत क्यों पड़ी? बजरंगी मेरे लिए सगे भाई से बढ़कर था। समझो मेरा दाहिना हाथ था। बजरंगी की अकाल मौत से हम सब की कमर टूट गई, उसकी बेवा की अभी कोई उमर नहीं है। हमारे ऋषि-मुनी कह गए हैं कि जवानी अंधी होती है, उस पर किसी का जोर नहीं। इसलिए हम सभी चाहते थे कि वो दूसरा घर कर ले। काका को हम खुशी-खुशी सँभाल लेते। लेकिन इस औरत के मन में जाने क्या पक रहा था कि कहीं जाने को राजी नहीं हुई। क्यों? तो सास-ससुर की सेवा करेंगे। बड़ी अच्छी बात है भाई–लेकिन कैसी सेवा की इसने, यह तो काका जानें, लेकिन मेरे खानदान की नाक जरूर कटा दी। पता चला है कि इसे छह महीने का पेट है। यह कहाँ मिला? किसका है?–काका बतावैं या यह बतावैं! काका यह भी बतावैं कि सारा पाप जगजाहिर हो जाने के बाद भी उसे अपने घर में क्यों रखे हैं? और कब तक रखेंगे? और किसके लिए रखेंगे? पंच बतावैं कि ऐसा कलंकी मुँह देखने से गाँव वालों को कब मुक्ति मिलेगी?’ बनवारी एक बार दायें-बायें देखता है, फिर अपनी जगह बैठ जाता है। बलई पांड़े लक्ष्मण चौधरी को देखकर कहते हैं, ‘शुरू करिए।’
चौधरी इनकार में सिर हिलाते हैं–‘आप ही शुरू करिए महाराज।’ बलई पांड़े खखार कर शुरू करते हैं–‘सकल गाँव को पता है कि बजरंगी को मरे सवा दो साल से ज्यादा हो गए। कुच्ची बताए कि क्या उसके पेट में बच्चा होने की बात सही है।’
‘हाँ महाराज’ कुच्ची हाथ जोड़कर खड़ी होती है, ‘सही है।’
‘ये बच्चा कहाँ से आया?’
‘मैंने दूसरे से बीज लिया, महाराज!’
‘हे भगवान!’ दोनों कानों पर हाथ रख देते हैं बलई बाबा, ‘कलयुग में ऐसी बात भी सुनना बदा था। क्यों लिया दूसरे से बीज?’
‘कई कारण हैं महाराज!’
‘बता, सारा गाँव जानना चाहता है।’
‘मुझे जरूरत लगी महाराज! मेरा आदमी तो एक बार मर कर फुरसत पा गया, लेकिन बेसहारा समझकर हर आदमी किसी-न-किसी बहाने मुझे रोज मार रहा था। मैं मरते-मरते थक गई तो जीने के लिए अपना सहारा पैदा कर रही हूँ।’
‘तो तुझे दूसरी शादी करने से किसने रोका था?’
‘दूसरी शादी कर लेती तो मेरे सास-ससुर बेसहारा हो जाते बाबा। अपने सहारे के लिए इनको बेसहारा छोड़कर जाते नहीं बना। मेरा रिश्ता मेरे आदमी तक ही तो नहीं था।’
‘लेकिन तू बजरंगी की ब्याहता है, तेरी कोख पर सिर्फ बजरंगी का हक बनता है।’
‘मरे हुए आदमी के काम तो यह कोख आ नहीं सकती बाबा! उनके मरने के बाद किसका हक बनता है?’
‘दूसरा मर्द करेगी तो उसका हक बनेगा।’
‘दूसरा मैंने किया नहीं, तब किसका बनेगा? मेरी कोख पर मेरा हक कब बनेगा!’
‘तू बजरंगी के घर का हक हकूक भी लेगी, और हराम का बच्चा भी पैदा करेगी, ऐसा कैसे होगा?’
‘हक हकूक की बात तो मैंने कभी सोची नहीं बाबा। मैं तो सोचती हूँ कि जो जिम्मेदारी मरनेवाला मेरे ऊपर डाल गया, उसे पूरा करूँ। मेरी सास पोते का मुँह देखना चाहती थी। मेरा आदमी बेटे का मुँह देखना चाहता था। उसने तो नाम भी सोच लिया था–बालकिशन! मैं खुद बेटी चाहती थी। नाम सोच रखा था–किशनकली! इस बात पर उनसे अकसर तकरार होती थी कि पहले बालकिशन आवैं कि पहले किशनकली आवैं। लेकिन किसी के आने के पहले ही वे चले गए।’ कुच्ची की आवाज भर्रा जाती है–‘अब मैं उनकी आखरी चाहत पूरी कर रही हूँ।’
‘वाह! दूसरे से बच्चा जनमा कर अपने आदमी की चाहत पूरी कर रही है।’
‘तो क्या करती बाबा? वो तो जनमाने के लिए अब सरग से लौटकर आने से रहे और अकेले मैं जनमा नहीं सकती थी।’
‘तो तूने हराम की औलाद से बजरंगी का वंश चलाने की ठानी है। वाह!’
‘उनका चले-न-चले, मेरा तो चलेगा।’
‘अरे मूर्ख! वंश माँ से नहीं, बाप के बूँद और नाम से चलता है।’
‘ऐसा क्यों है बाबा? पेट में नौ महीने तो सेती है महतारी, बाप तो बूँद देकर किनारे हो जाता है!’
‘इतनी दूर तैरने से पार नहीं हो पाएगी लड़की। तू इस गाँव की बहू है। तूने क्यों नहीं सोचा कि तेरे इस कदम से गाँव की नाक कटती है?’
‘मेरी गोद भरने से, मुझे सहारा मिलने से गाँव की नाक कैसे कट जाएगी बाबा? क्या मेरे भूखे सोने से गाँव के पेट में कभी दर्द हुआ? जेठ की धमकी से डरकर जब हम तीनों प्राणी रातभर बारी-बारी घर के भीतर पहरेदारी करते हैं तो क्या गाँव की नींद टूटती है? जब यह बहाने बना-बनाकर मुझे और मेरे ससुर को गरियाता है, धमकाता है, मारता है तो क्या गाँव उसे रोकने आता है? जब मेरी भूख पूरे गाँव की भूख नहीं बनती, मेरा डर पूरे गाँव का डर नहीं बनता, मेरा दुख-दर्द पूरे गाँव का दुख-दर्द नहीं बनता तो मेरे किए हुए किसी काम से पूरे गाँव की नाक कैसे कट जाएगी?’
‘अरे! ये तो वकील का बाप बन रही है।’ बलई बाबा को आगे बढ़ने का रास्ता ही नहीं सूझ रहा है। ‘कोई और पंच मदद के लिए आगे क्यों नहीं आता?’ धीरे-धीरे आगे-पीछे झूमते हुए वह नया प्वाइंट निकालते हैं–‘तू क्या समझती है कि यह बच्चा बजरंगी का कानूनी वारिस हो जाएगा?’
‘पता नहीं बाबा कानून तो मैंने पढ़ा नहीं।’
‘कानून पढ़ा-बेपढ़ा नहीं देखता।’ बलई बाबा की आवाज में चिढ़ समा गई है–‘सिकंजे में पाता है तो बड़े-बड़ों को मुर्गा बना देता है। चाँपता है तो मुँह से फिचकुर निकल आता है।’
सिहर जाती है कुच्ची–कितनी मिर्च खाकर आया है यह बुड्ढा? ‘आपका मुँह बहुत बड़ा है बाबा। कुछ भी बोल सकते हैं।’
‘कुछ भी क्यों बोलूँगा? जो कानून में लिखा है वही बोल रहा हूँ। यह नाजायज संतान है–इसे बजरंगी की प्रॉपर्टी में धेला भी नहीं मिलेगा।’
‘न मिले महाराज! हम व्यापारी तो हैं नहीं कि घाटा-नफा जोड़कर सौदा करें।’ फिर तनिक रुककर पूछती है ‘कानून में चाँपने की बात भी लिखी है महाराज?’
‘अब तू मेरी जबान पकड़ेगी? इतनी सरहँग हो गई है?’
‘मर्द की जबान पकड़ना औरत के वश में कहाँ है बाबा? लेकिन यह बता देते कि कानून लिखा कहाँ जाता है, लिखता कौन है? तो चलकर उसी से फरियाद करते कि हमारे बालकिशन जैसों के जीने-खाने के लिए भी ‘दू अक्षर’ कानून लिख देते।’
कुच्ची की मूर्खता पर ठठाकर हँसते हैं बाबा, देर तक हँसते रहते हैं। इसका यह मतलब नहीं कि उन्हें सचमुच इतनी हँसी आ रही है। बस, मौका पाकर वह अपने मन में घुमड़ कर परेशान करने वाली गैस निकाल रहे हैं।
ये इसकी एकदम रीयल है कहानी। ये जो संवाद है उसका पंचायत में, कुच्ची का। और जिस कॉन्फिडेंस से वो बात को रखती है! अच्छा इससे एक चीज और समझ में आती है सर, कि आमतौर पर गाँव को जब हम शहर में बैठ कर देखते हैं तो बड़ा एक रोमांटिक तसव्वुर उसका है–गाँव बड़ा खूबसूरत है, वहाँ प्राकृतिक नज़ारे हैं, वहाँ मेल–मिलाप है, वहाँ सादगी है, ये सब चीजें आती हैं। लेकिन आप तो, ये आउटसाइडर्स अकाउंट है गाँव को लेकर। और आपकी कहानियों में जो गाँव है वो एक इनसाइडर्स अकाउंट के तौर पे आता है कि गाँव की जो उस सारी खूबसूरती के बिल्कुल गहराई में जाएँगे तो जिस तरह की समस्याएँ हैं, जिस तरह की सीमाएँ हैं, जिस तरह की विसंगतियाँ हैं, वो सारी चीजें आती हैं। तो मैं आपसे ये जानना चाह रहा था कि इसका सोर्स क्या है, ये जो आपके यहाँ डिटेलिंग गाँव की आती है, और गाँव के समाज की आती है। इसके पीछे कौन–सी चेतना काम करती है? कोई बचपन का अनुभव है, या कोई नौकरी के दौरान आपने जो, एक तरीके से जिसे ऑब्जर्वेशन हम कहते हैं, मुसाइदा कहते हैं, या इसके लिए आप अध्ययन को भी काम में लाते हैं तो वो गाँव की जो, क्योंकि ये सवाल आपसे बहुत लोग ने पूछा है बार–बार। कि इस दौर में जबकि हम 2021 में हैं और शहर एक तरीके से गालिब हो रहा है गाँव पर, तो गाँव आपके यहाँ इतने डॉमिनेन तरीके से भी आता है कहानियों में, या बिल्कुल रीयल तरीके से भी आता है तो उसके पीछे क्या विशेषता है?
देखिए लेखक को अगर रियलिटी देनी है, अनुभव लेने हैं तो उसको अपने आँख-कान खुले रखने चाहिए। हाँ, जो जगह गरहित है उसको चोर से भी दोस्ती करनी पड़ेगी और दारोगा से भी दोस्ती करनी पड़ेगी। मैंने नौकरी में रहते हुए भी अपने लिए मैटर जुटाए, गाँव में रहते हुए भी जुटाए, पहले के भी जुटे हुए हैं, वर्तमान में भी जुटे हुए हैं। ज्यादातर मेरी कहानियों के पात्र स्त्री होती है, और मेरे पास एक दर्जन स्त्रियाँ मेरी दोस्त हैं, कम-से-कम जिनसे मैं बेझिझक मैटेरियल ले सकता हूँ, और वो मुझे बेझिझक हर बात बता सकती हैं। उसमें अस्सी-पच्चासी साल बल्कि अब नब्बे की हो रही हैं। मैं जब गाँव जाता हूँ–उनसे मिलता हूँ। और अगर मैं…पता चल गया कि आए थे और नहीं मिले तो वो कहती हैं कि, संदेश भेजने हैं कि आवें, और हम जाते हैं–उनसे मिलते हैं, बहुत सारे उनसे अनुभव लेते हैं। इसी तरह गाँव के बुजुर्ग हैं, हमारी पत्नी की बड़ी बहिन हैं–वो भी अब अस्सी के करीब पहुँच रही हैं। उन्होंने कितने गीत मुझे दिए, कितनी कहानी दी। ‘कुच्ची का कानून’ जब मैं एक बार लिख चुका, तो उनसे मैंने कहा कि मैं इस तरह की एक कहानी लिख रहा हूँ जिसमें कोई लड़की–उसका पति नहीं है और वह अपना बच्चा कहती हैं कि मैं पैदा करूँगी। तो लोग क्या कहेंगे! उन्होंने हमारी श्रीमती जी से कहा कि ए हो सरिता, ये तो अपने गाँव की उनकी कहानी है, उनका नाम लेकर कहा। और उन्होंने बताया कि सन् 60 में एक महिला ने इसी तरह बच्चा पैदा किया था! क्योंकि उनकी पीढ़ी में कोई बच्चा नहीं था और नाबल्द होने जा रहा था। उन्होंने बताया कि ये तो सन् 60 में हो चुका है जो अभी आप डरते-डरते सोच रहे हैं कि इसको लिखा जाए। और फिर मैं गया उनके साथ–उन लेडी से मिला। तो जितना आप सोचते हैं, उससे ज्यादा हकीकत, वास्तव में जो यथार्थ है उससे बहुत आगे है। बस आपको आँख-कान खुले रखने होंगे। और ये भी बात है कि उन्हीं शब्दों में, उन्हीं संवेदना में उन्हीं के संवाद आपको देने पड़ेंगे। संवाद भी आपको नोट करने पड़ेंगे।
तो कभी आपका जी नहीं हुआ कि, जिसको हम कहते हैं कि गाँव में खेतों की हरियाली और बागों की पुरवाई और अमराई, नदी और नहर इस तरह के खूबसूरत नज़ारों के बारे में लिखा जाए और ये जो आप एक जिसको कहते हैं कि बिल्कुल कड़बी सच्चाई से रू–बरू करा देते हैं। इससे इतर कोई कभी ख़याल आया, या इस तरह कहानियाँ, या आप कैसे गाँव को देखते हैं?
देखिए, हम गाँव को इसकी रियलिटी में देखते हैं। गाँव! जैसे करैत साँप है, और जो बाहर से देखेगा–इतना चमकीला, चमकता हुआ, फन घुमाता हुआ चला जा रहा है–कितना अच्छा लगता है, लहरदार है! जब तक आप नहीं जानें कि अगर ये फू कर दिया, छू गया तो आपके प्राण चले जाएँगे। तो वो बाहर से देखता है, उसको सीन बहुत अच्छी लगती है, नदी बहुत अच्छी, कल…कल करती है, लेकिन जिसका बेटा नदी में डूब चुका हो तो उसको नदी अच्छी नहीं लगेगी। तो गाँव को, जब मैं अंदर से जाता हूँ, गाँव का आदमी बहुत अवसरवादी है, बहुत धोखेबाज है, बहुत बेईमान भी है, और बहुत अच्छा भी है, बहुत भोला भी है, अपने वचन को निभानेवाला भी है और बहुत अच्छा दोस्त भी है। दोनों चीजें हैं। जैसे बाकी दुनिया में दोनों चीजें हैं। तो दोनों को दिखाना एक लेखक का धर्म है। केवल अच्छाई-अच्छाई दिखाने से तो नहीं चलेगा। उसकी मुसीबत भी दिखाइए। आपका सरोकार होना चाहिए कि हमारे समाज में जो अन्याय है, उत्पीड़न है, वह सब आपकी रचनाओं में आए। एक लेखक को खड़ा होना चाहिए उत्पीड़ित के साथ, जिसके साथ अन्याय हो रहा है, जो प्रताड़ित किया जा रहा है–उसके साथ खड़ा होना चाहिए, और अन्याय के विपक्ष में खड़ा होना चाहिए। अन्याय से मुकाबले के लिए खड़ा होना चाहिए–ये अगर उसके दिमाग में होगा, तो वो वही लिखेगा जो मैं लिखता हूँ। वह वही कहानियाँ उसी ऐंगिल से देखेगा जिस ऐंगिल से मैं देखता हूँ।
अच्छा ये जो आपने जहाँ खत्म किया, बहुत अच्छी जगह खत्म किया आपने जवाब। इससे मुझे याद आया कमजोरों के हक में खड़े होने वाली बात। अभी किसान आंदोलन चल रहा है, इतना बड़ा और इतने दिन हो गए हैं, लेकिन कोई असर हमारे जो हुक्मरान हैं उन पर नहीं हो रहा है। आपका जो नोवेल है ‘आखिरी छलाँग’, उसमें आपने इस मुद्दे को, जबकि आज से बहुत पहले वो छपा था, और उसमें जिस तरह से उठाया। एक तो हम चाहेंगे कि उसका कुछ अंश भी आप पढ़ें। और फिर उस उपन्यास के हवाले से इस मुद्दे को आप कैसे देख रहे हैं ये बताएँ?
हाँ, देखिए मैंने बचपन से खेती-बारी खुद किया। मेरे पिता जी साधु हो गए थे, जब मैं दर्जा सात में था।
अच्छा तो पहले ये भी, यहाँ आइए थोड़ा–सा इसपे भी आ जाते हैं?
हाँ, तो वो चले गए घर छोड़कर। घर में मैं था, मेरी एक छोटी बहन थी और मेरी माँ थी। खेती-बारी खुद ही करना था, खुद ही जोताई करनी थी, बीज बोना था, स्कूल जाना था। तो ये सब करने से मुझे खेती का अनुभव हो गया, पूरी तरह–मैंने ग्यारह वर्ष तक। तेरह साल की उमर से लेकर चौबीस साल, जब तक मुझे नौकरी नहीं मिल गई मैंने खुद खेती अपनी की। तो मुझे खेती का पूरा अनुभव है। आज भी मैं अपनी खेती खुद ही करता हूँ। किस खेत में क्या बोया जाएगा, कब बोया जाएगा, डेट तक तय करता हूँ। यहीं बैठे-बैठे हमारे आम के बाग में, उसपे दवा कब डाली जाएगी, सरसों में माहू की दवा कब डाली जाएगी। ये भी मैं, आज भी मैं ही तय करता हूँ या हमारी श्रीमती जी तय करती हैं। तो इसलिए मुझे खेती का अनुभव है। इसीलिए मैं ये चाहता था कि किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य नहीं मिलता, यह बहुत बड़ा दुख है। तो किसानों की जिंदगी पर मैंने एक उपन्यास लिखा ‘आखिरी छलाँग’ 2007 में। जो 2008 के जनवरी में नया ज्ञानोदय में छपा था। उसमें मैंने ये माँग की थी कि किसान लोग एकजुट हों, अपना संगठन बनाएँ, धरना-प्रदर्शन करें, और अपनी बात रखें ताकि उनकी जो मुसीबतें हैं दूर हों। और इसकी वजह से अंत में मैंने कल्पना किया कि एक संगठन बन गया है। एक जगह धरना-प्रदर्शन हो रहा है। लोग उसमें बोल रहे हैं। ये मैंने तेरह साल पहले कल्पना किया था, तब ये नहीं सोचा था कि एक दिन ये चरितार्थ भी हो जाएगा! लेकिन लोग कहते हैं। लेखक के लिए लोग कहते हैं कि जो झूठ उसने बोले थे, झूठ को कल्पना मान लीजिए। जो झूठ उसने बोले वह उसके मानस के सच थे। मानस में वो सच मान रहा है, या कल्पना में वो सच मान रहा है। हकीकत में वो घटित नहीं हुआ है। लेकिन वह सच मानकर घटित कर रहा है। तो जो सच मानकर मैंने तेरह साल पहले घटित किया कि संगठन बनेगा, हड़ताल होगी, एम.एस.पी. माँगी जाएगी। उसमें एम.एस.पी. माँगते हैं, और इतना माँगते हैं कि हमें…इन्हें लागत से ज्यादा मिले–हमको। तो ये मैंने तब लिखा था, और अभी जब इस तरह का आंदोलन शुरू हुआ तो मुझे बहुत अच्छा लगा, मुझे बहुत तृप्ति मिली। और वहाँ ये कहा गया था–आवाहन किया गया था कि लोग आवें यहाँ, हमको सपोर्ट करें नए वर्ष में। और मैं यहाँ से गया था पहली तारीख को सिंधू बार्डर पर, और उन्होंने मुझे समय दिया और मैंने अपनी बात वहाँ रखी।
सर, उसको पढ़के थोड़ा–सा सुनाएँ। वो जो हिस्सा ‘आखिरी छलाँग’ का है, ताकि दर्शकों को ये भी पता चलेगा कि एक लेखक अपने समय के साथ कितना होता है, और समय से आगे उसकी क्या भूमिका होगी? वो एक समय से पीछे भी तय कर देता है।
हाँ, उपन्यास तो बड़ा है। मैं उसका दो छोटे-छोटे अंश सुना देता हूँ। एक अंश वहाँ सुनाता हूँ जहाँ वो अपने खतरे से आगाह होते हैं कि हमारी (किसानों की) बुरी दशा के लिए कौन जिम्मेदार है, और एक अंश सुनाऊँगा कि वो कैसे एकजुट हुए हैं, तब क्या सोचते हैं।
दो लोग आपस में बात कर रहे हैं।
पहलवान उसके कैरेक्टर हैं–किसान हैं, और खेलावन एक छोटी-मोटी नौकरी करते हैं, वो भी उसके गाँव में पड़ोसी हैं। अक्सर दोनों की दोस्ती है, बातचीत होती रहती है कि किसानों का दुख-दर्द कैसे दूर होगा–हमलोग का।
‘भैया खेलावन एक बात पूछें?’
पहलवान चाय का घूँट उतारने के बाद कहते हैं ‘इस इलाके में दस-पंद्रह एकड़ जमीन वाले किसान तो चार-छह गाँव में खोजने पर शायद एकाध ही मिलें! सौ में पच्चीस-तीस घर एकदम भूमिहीन हैं, और चालीस-पचास घरों के पास आधे से एक एकड़ तक की जमीन है। हमारे जैसे चार-पाँच एकड़ की जोत वाले किसानों की गिनती ही यहाँ बड़े किसानों में होती है। तो जब हम पैदा होने के दिन से मरने के दिन तक परेशान रहते हैं तो बाकी लोगों का गुजर-बसर कैसे होता है। हमारी इस विपत्ति का कारण क्या है?’
तो वो कहते हैं कि ‘हमारी इस विपत्ति का कारण कोई एक नहीं है कि झट से बता दें।’
‘इसके लिए जिम्मेदार कौन है?’
‘बाकी जो लोग जिम्मेदार हैं उनकी चर्चा तो बाद में, सबसे ज्यादा तो हम खुद जिम्मेदार हैं। पूछिए कैसे–सरकार की ओर से गाँव को बिजली देने के लिए चौदह घंटे का रोस्टर घोषित है, अखबार और रेडियो आए दिन इसकी खबर देते हैं। और जब बिजली आती भी है चार-पाँच घंटे के लिए, उसमें भी बार-बार कटती है। कितनी बार कोशिश की गई कि चार-छह गाँव के लोग ‘सब-स्टेशन’ तक चलकर अपना विरोध दर्ज कराएँ। लेकिन कई बार कोशिश की गई, बहुत कम लोग आते हैं तो इसलिए वे लोग भी समझ जाते हैं कि ये इनके किए का कुछ नहीं है। इनसे कोई खतरा नहीं है इसलिए डरते नहीं हैं। चीनी मिल के मालिक ने गन्ना ले लिया, तीन साल से भुगतान नहीं कर रहा है। एक बार सब लोग बड़े प्रयास के बाद गए प्रदर्शन के लिए, गोली चल गई तो सब लोग भूल ही गए कि उनका कोई बकाया है। बाजार का दुकानदार मिलावटी यूरिया और डाय बेचता है, सबको पता है लेकिन उसके खिलाफ रिपोर्ट लिखाने कोई अधिकारी के दफ्तर तक नहीं जाना चाहता है। इससे सब जान जाते हैं कि ये बिना रीढ़ के हैं। केचुए हैं–इनसे डरने की कोई जरूरत नहीं।’
‘बात तो आप ठीक कहते हैं, लेकिन आदमी खेती-किसानी देखे कि लड़ाई करने जाए और किससे…किससे लड़े।’
‘नहीं लड़ेगा तो मरेगा, मर तो रहा ही है और जल्दी मरेगा। देश-दुनिया के नक्शे से गायब हो जाएगा। जैसे–सरकार की, कोई रोक नहीं सकता–बहुत सारे मुद्दे हैं जिनसे लड़ना जरूरी है। जैसे–सरकार की नीतियाँ, गेहूँ पैदा करने में लागत बारह रुपये किलो आती है लेकिन गेहूँ बिकता है सात रुपये किलो।’
ये बारह-तेरह साल पहले की बात है। अब तो गेहूँ पैदा करने में लागत 25 रुपया आता है, और मिलता है 15 रुपया!
‘पिछले पैंतीस साल में जमीन सौ गुनी महँगी हो गई, सोना पचहत्तर गुना महँगा हो गया, डीजल पचास गुना महँगा हो गया। जबकि गेहूँ सिर्फ सात गुना महँगा हुआ। सारी मंदी किसानों के लिए ही है। पिछले दिनों बजट की खबर अखबार में छपी थी, उसमें जो चीजें सस्ती की गईं उसमें थीं–कार, कंप्यूटर, कोका कोला, और जो चीजें महँगी की गई थीं, उनमें थीं–माचिस, चाय, बिस्कुट, पोस्टकार्ड। बड़े पूँजीपतियों के कारखाने में बनने वाली और अमीर लोग के उपयोग में आनेवाली चीजें सस्ती हो गईं और कुटीर उद्योग में बनने वाली, या गरीब के काम में आने वाली चीजें महँगी हो गईं। ये सरकार की नीयत ऐसी गरीब विरोधी, ऐसी किसान विरोधी हो उसके खिलाफ गरीब नहीं खड़ा होगा, किसान नहीं खड़ा होगा तो कौन खड़ा होगा?’
‘खेलावन भाई हम में से कितनो को पता है कि बजट किस चिड़ियाँ का नाम है और वह कैसे हमलोग का जीवन मुहाल करता है।’
‘बात फिर घूम-फिर कर उसी जगह पहुँच रही है भैया। अरे बाजार के मिलावटी दुकानदार का तो पता है, चीनी मिल के मालिक का पता तो है, फर्जी मुकदमा लिखने वाले ‘ओवरसियर’ का पता तो है नहर विभाग के, बिना रोस्टर के बिजली काट देनेवाले इंजीनियर का पता तो है। हफ्ते में केवल एक दिन स्कूल आने वाले प्राइमरी स्कूल के मास्टर का तो पता है, उनका आप क्या उखाड़ ले रहे हैं। जगना तो पड़ेगा, लड़ना तो पड़ेगा, जिंदा रहना है तो अपने मारने वालों के सामने डटना तो पड़ेगा। वरना जैसे हजारों जातियाँ, जनजातियाँ, पशु-पक्षियों की प्रजातियाँ इस दुनिया से उच्छिन्न हो गईं, वैसे ही किसान नाम की प्रजात भी विलुप्त हो जाएगी।’
तो एक सवाल है कि नए लेखक, यहाँ कहें कि जो लिखना चाहते हैं उनको लेकर, हालाँकि टिप्स देने से लेखक बनता है–इसके बीच, लेकिन फिर भी चूँकि एक तजुरबेकार व्यक्ति और लेखक। तो क्या वो बेसिक क्वालिटीज, बुनियादी चीजें क्या हैं, जिनको एक लेखक को, नए लेखक को अपनाना ही चाहिए?
देखिए पहली चीज है कि आप संग्रह करिए, जो भी चीज देखिए अपने काम की उसको नोटबुक बनाकर लिखिए–मोबाइल में लिखिए। नए लेखक बहुत ज्यादा जागरूक हैं, बहुत ज्यादा सक्षम हैं। हमलोग पुरानी पीढ़ी के लोग उनको रास्ता नहीं दिखा सकते, नई पीढ़ी हम ही लोग को रास्ता दिखाती है। फिर भी जो मेरा अनुभव है वह मैं बता रहा हूँ–पहली चीज तो ये कि आप मैटर इकट्ठा करने में देर मत करिए। अभी कोई बात आपके मन में आ रही है, अगर आपने अभी नहीं नोट कर लिया, सोचा कल लिख लेंगे तो कल आपके दिमाग से वो भूल जाएगी, इसलिए नोटबुक हमेशा साथ रखिए, मोबाइल में लिखिए–लेकिन मैटर जहाँ आवे–जब आवे उसको तुरंत नोट कर लीजिए। एक बात तो ये संक्षेप में मैं कहना चाहूँगा। दूसरी बात मैं ये कहना चाहूँगा कि मेहनत से मत घबराइए। एक ही बार में लिख करके ये मत समझ लीजिए कि आप परफेक्ट हो गए। परफेक्शन एक ही बार में बहुत ही जीनियस लोगों को आता होगा, ऐसे लोग भी होंगे, लेकिन ज्यादातर लोग के साथ नहीं हो सकता। मैं तो तीन बार लिखता हूँ। एक लेखक हुए हैं–मार्क ट्वेन। वो कहते हैं कि सही शब्द और लगभग सही शब्द में उतना ही अंतर है जितना सूरज और जुगनू में है। कहाँ सूरज और कहाँ जुगनू! सही शब्द और लगभग सही शब्द में उतना ही अंतर है जितना सूरज और जुगनू में है। इसलिए जब तक सही शब्द न मिल जाए, लगभग से काम मत चलाइए। लगभग से काम चलाने लगेंगे तो बिना मेहनत की लिखी गई किताबें, बिना प्रयास के, बिना खुशी के पढ़ी जाती हैं–ये भी किसी ने कहा है। और आइजैक सिंगर ने ये कहा है कि कचरे का डिब्बा लेखक का सबसे बड़ा दोस्त होता है। यानी कि लिखते जाइए, फाड़ते जाइए, उसका पेट भी भरना है जो मेज के नीचे कचरा वाला डिब्बा रखा है। अगर आप उसका पेट शाम तक कुछ न कुछ नहीं भरेंगे तो वो उपवास करेगा। उसको भरना है यानी आपको लिखना है और फेंकते रहना है–सही शब्द की तलाश करते रहना है। और तीसरी चीज कि समय किसी का इंतजार नहीं करता।
एक रोमन कद हुए हैं–होरेस। उनका एक चार भागों में कविता की किताब है–ओडेस। ईसा पूर्व तेइसवीं शताब्दी में उन्होंने लिखा था, उन्होंने एक शब्द क्वाइन किया था–कारपेडाइन। कारपेडाइन माने ‘पल्ग द डे’। दिन को पकड़ लीजिए, आज को पकड़ लीजिए। यानी आज का पूरा उपयोग कर लीजिए। टुमारो पे यानी आनेवाले कल पे जितना कम-से-कम संभव हो उतना विश्वास करिए, उतना फेथ करिए, यानी कि कल के भरोसे मत रहिए। जब तक आज आप बात कर रहे हैं बहुत ज्यादा समय बीत चुका है। ये उन्होंने उस समय कहा है। ये मैं नए लेखकों के लिए जरूर इसलिए कहना चाहूँगा कि मैं भुक्तभोगी हूँ, नौकरी के चक्कर में पड़ा रह गया। अब जा करके ये सारी बातें समझ में आ रही हैं।
आपने तो इतनी सारी अच्छी कहानियाँ, जो यादगार कहानियाँ हैं–तिरिया चरित्तर है, कसाईबाड़ा है, कुच्ची का कानून है, केशव कस्तूरी है, ये सारी कहानियाँ हैं और उपन्यास आपके। एक चीज जो–मैं जल्दी–जल्दी, चूँकि इसके बाद हमें सवाल लेने हैं जो दर्शक हमें देख रहे हैं इस वक्त यू–ट्यूब से और लाइव। मैं ये जरूर जानना चाहूँगा कि अगर हम किसी हालिया घटना को, जैसे–अभी इतना कुछ हमारे इर्द–गिर्द हो रहा है तो जाहिर सी तौर पे वो सब चीजें आती हैं, अपने समय की सारी चीजें आती हैं साहित्य में। अगर हम किसी घटना को बनाते हैं साहित्य का, या कहानी का, या उपन्यास का विषय, तो उसमें क्या चीज, अगर हम यथावत रूप से किसी घटना को रख देंगे तो क्या वो बनती है कहानी, या उसमें कुछ चीजें ऊपर से डालनी, या वो क्या तरीका है जो किसी रीयल इवेंट्स को कहानी में या उपन्यास में तब्दील कर देता?
देखिए आपको एकमुश्त सारी चीजें नहीं मिलेंगी, आपको एक कोलाज! मान लीजिए आपको अपना ड्राइंग रूम सजाना है तो उधर एक पहाड़ की पेंटिंग लगाएँगे, उधर एक नदी की पेंटिंग लगाएँगे–इस तरह से। कहीं कोई फूल रहेगा, कहीं कोई जानवर रहेगा। तो उसी तरह कहानी में भी है–आपको दस पेज में एक दुनिया खड़ी कर देनी है, एक आपको गिलिम्स दे देना है एक किसी दुनिया का, किसी व्यक्ति का। तो इसलिए आपको उसमें कल्पना मिलानी पड़ेगी, बिना कल्पना के–सोना और सुहागा दोनों मिलकर के ही चमक पैदा होती है। तो कल्पना का बड़ा महत्त्व है।
हम कुछ सवाल ले लेते हैं जो हमें, हमारे दर्शकों ने इस वक्त लाइव सुन रहे हैं उन्होंने भेजी हैं। तो ये सूर्यनारायण जी का प्रश्न है–कहानी के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण क्या है, प्लॉट या बुनावट?
कहानी के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण क्या है–प्लॉट या बुनावट! प्लॉट भी अगर सही ढंग से प्रस्तुत नहीं किया जाएगा, बुना नहीं जाएगा तो वो यादगार कहानी के रूप में परिवर्तित नहीं हो सकेगा। कहानी क्राफ्ट है, तो जैसे क्राफ्ट में बहुत सारी बुनावट, बहुत सारे सौंदर्यबोध डालने होते हैं। प्लॉट तो आपके पास रहता है। प्लॉट तो समझिए चना है, एक दाना होता है चना। समझिए चना है! चना से आप कई चीजें बना सकते हैं, चना से सत्तू बना सकते हैं, चना से लड्डू बना सकते हैं, चना से और चीजें बनती हैं–वो जो आप, कढ़ी औरतें बनाती हैं चने से। आप क्या बनाना चाहते हैं, हाँ तो प्लॉट आपके पास हो गया, उसके बाद उसकी बुनावट, और आपका उद्देश्य क्या है, उस हिसाब से। तो बुनावट बहुत महत्त्वपूर्ण चीज है।
दूसरा सवाल जो सुषमा मुनीन्द्र जी का था–इन दिनों शिल्प पर बहुत जोर दिया जा रहा है, आप इसे कितना उचित मानते हैं?
शिल्प भी बहुत महत्त्वपूर्ण है, तथ्य भी महत्त्वपूर्ण है, सरोकार भी महत्त्वपूर्ण है और शिल्प भी महत्त्वपूर्ण है।
और इनका जो ‘फाइन बैलेंस’ वो एक अच्छी कहानी है।
हाँ, विचारधारा भी। तो विचारधारा और आपका प्लॉट, और आपका शिल्प। ये सारी चीजें मिला कर के एक अच्छी रचना बनेगी। उसमें आप किसी चीज को नज़रअंदाज नहीं कर सकते।
एक ये सरस्वती कुमारी जी का प्रश्न है–मेरा सवाल है कि साहित्य में भाषिक तत्त्व का क्या स्थान है? मेरा ख्याल भाषा को लेकर।
भाषा का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। भाषा तो सर्वोपर है–प्राइमरी चीज है। उसी के माध्यम से हम अपनी बात को संवेदित करते हैं, कहते हैं, व्यक्त करते हैं। तो भाषा ही तो वह उपकरा है।
जैसे आपके यहाँ मैंने देखा कि, चूँकि गाँव की पूरी पृष्ठभूमि होती है, और खासतौर पर अवध का। जो पूरा एक अंचल है, तो कई बार आप बहुत ही जो आंचलिक शब्द हैं उनको भी ले आते हैं–इस बात से बेपरवाह हो करके। ये किताब तो पूरी आपकी दुनिया में, पूरे हिंदुस्तान में पढ़ी जा रही है, तो वो चीज कभी चुनौती नहीं बनती?
हाँ, चुनौती बनती है और इसमें भी एक फाइन बैलेंस करने की जरूरत है। एक इनसफार्लिन हैं वो हमारी कहानी का आठ साल से ट्रांसलेशन ‘तिरिया चरित्तर’ का कर रही हैं। चार-पाँच बार यहाँ आईं, चार-पाँच बार पूछीं, फोन पर पूछती हैं, वाट्सएप पर पूछती हैं कि इसका क्या मतलब हुआ। डिक्शनरी में ये शब्द नहीं मिल रहा है, वो नहीं मिलता है। लेकिन मैं क्या करूँ…जब तक उस शब्द का उपयोग नहीं कर लेता हूँ, और किसी दूसरे शब्द से वो मैं व्यक्त नहीं कर पाता हूँ। लेकिन मैं ये मानता हूँ कि दोनों में बैलैंस होना चाहिए। एकाध शब्द से गाँव का फ्लेवर भी दे दीजिए, और खड़ी बोली में उसको स्पष्ट भी कर दीजिए। ताकि अगर कोई दूसरी भाषा में लेना चाहे तो उसको मुसीबत न पैदा हो।
सर, कभी ऐसा नहीं लगा कि ये चीज सिर्फ अवधी में लिखी जाए। जैसे गाँव की कोई कहानी है, कोई कैरेक्टर है तो अवधी में ही उसका संवाद दिखाया जाए?
तो उसकी व्याप्ति घट जाएगी। अब हिंदी में लिख रहे हैं तो उसकी व्याप्ति बढ़ गई। हम अँग्रेजी में लिख रहे होते और मूल चीजें यही दे रहे होते तो हो सकता है उसकी व्याप्ति और बढ़ जाती, कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन व्याप्ति का ध्यान तो रखना पड़ेगा।
एक ओरेंद्र यादव जी का प्रश्न आया है कि, मेरा सवाल है कि शोषित के साथ लेखक खड़ा जरूर होता है लेकिन उससे उबरने का मार्ग प्रशस्त नहीं करते, क्यों?
देखिए मार्ग प्रशस्त करने पर एक चीज मैं कहूँगा–बर्तोल ब्रेख्त ने कहा है–कि वे रचनाएँ महान होती हैं जो समाधान प्रस्तुत करती हैं, मार्ग प्रशस्त करती हैं, उपाय बताती हैं, तरीका बताती हैं, वे रचनाएँ महान होती हैं। लेकिन वे रचनाएँ और भी महान होती हैं जो पाठक के सामने समस्या को संवेदनशील ढंग से प्रस्तुत करके उसे संवेदित करती हैं कि सारा पाठक वर्ग उसका समाधान खोजने में लग जाए। यदि ये बात लेखक कर देता है तो अकेला वो जो सोचता, उससे मिल कर के हजार गुना लोग सोचने लगेंगे, तो जाहिर है बेहतर समाधान होगा। तो मैं बर्तोल ब्रेख्त की इस कथन से सहमत हूँ।
सर एक सवाल जो मेरे जेहन में पहले भी आया था कि चूँकि आपकी कई कहानियों पर फिल्में बनीं, नाटक भी हुए और कुछ तो ऐसे हैं कि हजारों प्रस्तुतियाँ नाटक में हुईं और बासु चटर्जी जैसे फिल्मकार ने फिल्म बनाई। चूँकि कहानी तो आप खुद ही लिखते हैं, और जो बाकी मीडियम में कहानी जब आती है–आप देखते हैं, तो आप दोनों चीज बताइए, एक तो ये कि मीडियम के चेंज होने से क्या असर आता है आपकी कहानी पर, और दूसरा कि मीडियम की इंपॉर्टेंस क्या है? यानी कहानी जब दूसरे माध्यमों में जाती है।
देखिए लिखित शब्दों से बहुत ज्यादा व्याप्त दृश्य की है, इसलिए लिखित उपन्यास से बहुत ज्यादा व्याप्ति सिनेमा की है, उसको माध्यम में कई चीजें मिल जाती हैं। गीत भी मिल जाता है–आँखें भी काम करती हैं, कान भी काम करता है, सारी इंद्रियाँ उसका रस लेती हैं। लेकिन कुछ वो सीमित भी कर देता है। जैसे हमारी ‘कुच्ची’ है। हमारी कुच्ची का एक रूप, अगर फिल्म बन जाएगी तो एक ही कुच्ची रहेगी। वही दृश्य सामने रहेगा। और कहानी पढ़ेगा आदमी तो जितने पाठक हैं उतनी तरह की कुच्ची उसके मानस में आएगी। तो इसलिए इस मामले में लेखन, किताब, शब्द ज्यादा व्याप्ति देते हैं और उस माध्यम में, दृश्य माध्यम में, एक ही दृश्य देता है लेकिन ज्यादा व्याप्ति देता है। तो दोनों के अपने-अपने, क्योंकि हर पाठक अपनी भाव-संपदा के हिसाब से कल्पना करता है। जैसे हिरामन है ‘तीसरी कसम’ का, तो वही दिखाई पढ़ेंगे, राजकपूर ही दिखाई पढ़ेंगे, या वहिदा रहमान नर्तकी के रूप में, और नहीं तो तीसरी कसम नर्तकी की लोग अपनी-अपनी कल्पना करते रहेंगे, तो दोनों बातें हैं। सिनेमा बड़ा माध्यम है, दूर तक पहुँचाता है, और ये किताब अगर पहुँच जाती है तो हजारों छवियाँ, हजारों पाठकों के दिमाग में बनाती है।
सर, आपसे बातचीत तो ऐसा मन कर रहा था कि और चले, क्योंकि बहुत सारी उपयोगी बातें हो रही थीं, बहुत सारी यादगार बातें हो रही थीं। अभी वक्त चूँकि सीमित है, तो बहुत शुक्रिया आपका कि आपने वक्त निकाला, बहुत सारी बातें न कि लेखन के बारे में बताईं, बल्कि संवेदना, सरोकार और जो अंश भी आपने पाठ किए वो भी उसी की, एक तरीके से उसको कॉम्प्लीमेंट करते थे। तो बहुत धन्यवाद आपका ‘नई धारा संवाद’ में शामिल होने के लिए।
नमस्कार! ‘नई धारा संवाद’ में मुझे शामिल करने के लिए पूरी टीम को, और आपको यहाँ हमारे साथ बातचीत करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद! मुझे बहुत अच्छा लगा, धन्यवाद!
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