हिंदी गजल के मिज़ाज में प्रहार और गुस्सा है
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- 1 April, 2022
हिंदी गजल के मिज़ाज में प्रहार और गुस्सा है
आप अपने जन्मस्थान, आरंभिक शिक्षा तथा परिवार के बारे में बताइए?
मेरा जन्म ग्राम उमरी (काँठ के पास), ज़िला मुरादाबाद (उ.प्र.) में 1 जुलाई 1942 को हुआ। मैं दो माह का ही था कि पिता जी का निधन हो गया। उसके बाद दो साल की उम्र में मैं अपनी बहन (प्रेमवती) और जीजा (जंगबहादुर सक्सेना) के घर जो चंदौसी के पास के गाँव सिसरका में था, वहाँ चला गया। गाँव में स्कूल न होने के कारण हम चंदौसी आ गए। मेरी सारी शिक्षा-दीक्षा चंदौसी में ही हुई। मैंने बी.कॉम की परीक्षा 1961 तथा एम.कॉम की परीक्षा 1963 में पास की। इसके बाद मैंने एम.ए. हिंदी, आगरा विश्वविद्यालय से किया। 1965 में मैं प्रथम श्रेणी में एम.ए. हिंदी में पास हुआ। 1975 में मैंने गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय से पीएचडी की है। मैंने डॉ. जयचंद्र राय के निर्देशन में ‘प्रेमचंदोत्तर कथा साहित्य में व्यंग्य’ विषय पर शोध-कार्य किया है। 1965 से 2002 तक मैंने एम.एम.एच. पी.जी. कॉलेज गाजियाबाद के हिंदी विभाग में अध्यापन कार्य किया तथा हिंदी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत हुआ।
जहाँ तक परिवार की बात है, मेरे परिवार में पत्नी संतोष कुँअर, पुत्री वंदना कुँअर तथा पुत्र प्रगीत कुँअर है। बेटी का विवाह हो चुका है। वह कविताएँ लिखती है तथा मंचों से भी जुड़ी है। बेटा आस्ट्रेलिया (सिडनी) में अपनी पत्नी के साथ रहता है। वह चार्टड अकाउंटेंट के पद पर है तथा कविताएँ भी लिखता है। मेरी पत्नी की दो पुस्तकें, पुत्र का एक दोहा संग्रह तथा पुत्रवधू की सात किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। इस तरह से मेरा परिवार एक तरह से साहित्यिक परिवार है।
आपके लेखन की शुरुआत कब और कैसे हुई?
मैंने नौंवी कक्षा में चंदौसी के बारहसैनी हाई स्कूल (जो अब चंदौसी इंटर कॉलेज के नाम से प्रसिद्ध है) में प्रवेश लिया। उन दिनों मैं तुकबंदी करने लगा था। एक दिन कक्षा में घोषणा हुई कि जो बच्चे पत्रिका के लिए अपनी कविता, कहानी आदि देना चाहते हैं, वे अपनी रचना ले आएँ। मेरे कक्षा अध्यापक महेश्वरदयाल शर्मा थे जो अच्छे गीतकार थे। अगले दिन जब मैंने उन्हें अपनी कविता दी, तो उन्होंने संदेह की दृष्टि से देखते हुए कहा, ‘यह कविता कहाँ से उड़ा लाए हो? तो मैंने डरी-सहमी आवाज़ में उत्तर दिया, ‘गुरु जी, यह कविता मैंने खुद लिखी है।’ मेरी परीक्षा लेने के लिए गुरु जी ने मुझे तुलसीदास पर कविता लिखने का आदेश दिया। दो घंटे बीत जाने के बाद भी मैं कविता न लिख पाया। मेरी आँखों में आँसू आ गए और मैं वैसे ही कक्षा में चला गया। मैंने अपने गुरु जी को कहा, ‘मैं कविता नहीं लिख पा रहा हूँ परंतु यह सच है कि वह कविता मैंने लिखी है।’ गुरु जी ने रजिस्टर से एक कोरा कागज निकाल कर मुझे दिया और कहा, ‘फिर से लिखने की कोशिश करो।’ मैं विद्यालय के लॉन में गया और तुलसीदास की जीवनी मन ही मन दोहराने लगा। उस समय जो मैंने लिखा, वह पंक्तियाँ थीं–
संवत् पंद्रह सौ चउअन में उत्पन्न हुए थे तुम तुलसी
श्री आत्माराम थे पिता तुम्हारे, माता का नाम था हुलसी।
वहीं से मेरी काव्य-यात्रा का सफर शुरू हुआ। मैं दो वर्ष उस स्कूल में रहा। 1957 से निरंतर आज तक मैं अपना लेखन-कार्य कर रहा हूँ।
हिंदी गजल की ओर आपका झुकाव कैसे हुआ?
मैं मूलतः गीतकार हूँ। गीतों से मेरी यात्रा शुरू हुई है। 1957 में मैं हाई स्कूल पास हुआ। उस समय तक मैं गीत, रुबाई, मुक्तक आदि सुनता और लिखता था। हाई स्कूल के दौरान ही मेरे घर (चंदौसी) के सामने एक लाला जी (गंगाराम) रहते थे जिनके यहाँ मेरा काफी आना-जाना होता था। उन्होंने ही मुझे उर्दू सीखने को कहा। उन्होंने 15 दिन मुझे उर्दू सिखाई। परंतु छुट्टियाँ होने के कारण मैं वहाँ से मौसी के घर चला गया। 1957 में उर्दू सीखने की यात्रा 15 दिन तक ही सिमट गई। जब मैं एस.एम. डिग्री कॉलेज चंदौसी का विद्यार्थी बना तो वहाँ गीतकार के रूप में प्रसिद्ध हुआ। यहाँ मैं एक बात बताना चाहूँगा कि दुष्यंत जो हिंदी गजल के सम्राट हैं वह भी उसी कॉलेज से पढ़े थे। उस समय दुष्यंत, दुष्यंत कुमार परदेसी के नाम से गीत लिखते थे। जैसा कि हम सब जानते हैं कि आपातकालीन दौर में उनके शे’र जगत-प्रसिद्ध हो गए। उस समय गीतकारों पर भी इसका प्रभाव पड़ा और वह गजलें लिखने लगे। शुरुआत में मैंने जो गजलें कही उन पर गीतों का प्रभाव रहा। अपनी एक गजल मैं आपको सुनाता हूँ–
‘अपने मन में ही अचानक यूँ तरल हो जाएँगे
क्या खबर थी आप से मिलकर ग़ज़ल हो जाएँगे
भोर की पहली किरण बन कर ज़रा छू दीजिए
आप की सौंगध हम खिलकर कमल हो जाएँगे।’
आप देखेंगे कि इसमें रंग गीत का है परंतु यह गजल है। 1978 के बाद मैं निरंतर गीत, गजल, कविता, उपन्यास, दोहे आदि लेखन कार्य करता रहा हूँ।
मेरा पहला गजल-संग्रह ‘शामियाने काँच के’ जो 1983 में प्रकाशित हुआ। इसमें प्रगतिशील विचारधारा की गजलें हैं। 1983 में ही मेरा एक और गजल-संग्रह ‘महावर इंतजारों का’ छपा जिसमें प्रेमपरक गजलें हैं। इसके बाद निरंतर मेरे गजल संग्रह छपते चले गए। मेरे 15 गजल-संग्रह तथा 9 गीत-संग्रह हैं। मैंने हर प्रकार की गजलें कही। मेरी गजल का एक शेर देखें–
‘प्रश्न-पत्रों की तरह मिलने लगी है जिंदगी,
आपकी नजरें उठें सब प्रश्न हल हो जाएँगे।’
ऊपरी स्तर पर देखने से तो यह प्रेम का शे’र लग रहा है किंतु पूजा-स्थल पर यह प्रार्थना का रूप धारण कर लेगा। यदि क्रांतिकारी नेता जनता के लिए ये पंक्तियाँ कहे तो ये क्रांति की पंक्तियाँ बन जाती हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि स्थान बदलने से शे’र का अर्थ बदल गया।
हिंदी गजल को काव्य–विधा के रूप में स्थापित करने का श्रेय किसे जाता है?
देखिए, हिंदी के पहले शायर अमीर खुसरो जी हैं। हिंदी गजल को प्रसिद्ध करने का कार्य दुष्यंत ने किया। यूँ तो दुष्यंत से पहले भी गजलें लिखीं जाती रहीं परंतु दुष्यंत के बाद हिंदी गजल को मुख्य रूप से पहचान मिली, यह सच है।
हिंदी गजल ने उर्दू की रूमानियत को कहाँ तक प्रभावित किया?
गजल का जो परंपरागत रूप रहा है, वह प्रेम का है। उर्दू गजल में भी हम इस परंपरागत रूप को देखते हैं। परंतु गजल के परंपरागत रूप के स्वर को हिंदी गजल ने बदला। संरचना वही रही परंतु विषय बदल गया। दुष्यंत प्रगतिशील विचारधारा के कवि थे। जब उन्होंने गजल कही तो प्रगतिशील विचारधारा का प्रभाव उनकी गजल पर भी पड़ा। उन्होंने समाज में हो रहे अन्याय को गजल का विषय बनाया। उन्होंने गजल का जो स्वर बदला धीरे-धीरे उसका असर अन्य लेखकों पर भी पड़ने लगा। न केवल हिंदी बल्कि उर्दू के गजलकारों पर भी उनका प्रभाव पड़ा। गजलकारों को भी महसूस हुआ कि गजल का रंग, शब्दावली, बिंब, प्रतीक, विषय आदि बदला जाना चाहिए। इस प्रकार हिंदी गजल ने वास्तव में उर्दू गजल की रूमानियत को प्रभावित किया।
हिंदी गजल को विदेशी विधा कहना कहाँ तक उचित है?
हिंदी गजल को विदेशी विधा कहना उचित नहीं है। विदेश में अरबी और फारसी गजल थी, हिंदी गजल नहीं थी। हिंदी गजल तथा उर्दू गजल का जन्म तो हिंदुस्तान में ही हुआ है।
आपके अनुसार क्या अब हिंदी गजल, हिंदी कविता के समानांतर खड़ी हो पाई है?
अतुकांत कविता जो हिंदी कविता के क्षेत्र में कुछ दिनों के लिए मुख्यधारा में आ गई थी अब ओझल होती दिखाई दे रही है। हम फिर से काव्य की छंदबद्ध रचनाएँ, जैसे गजल, दोहा, गीत आदि की ओर मुड़े हैं। कुछ समालोचकों ने छंदबद्ध कविता को दोयम दर्जे का कहकर नकार दिया था। उनका मानना था कि छंद तथा तुकांत के बंधन के कारण भावाभिव्यक्ति पूर्ण रूप से नहीं हो पाती है। लेकिन वास्तविकता यह है कि जब कवि कविता को अपने अंदर धारण कर लेता है तो फिर उसके सामने ऐसी समस्या नहीं आती। लय जब भीतर बस जाती है तो शब्द अपने आप उसके अनुरूप आ जाते हैं।
हिंदी गजल को आप आम आदमी के कितना नजदीक पाते हैं?
असल में, हिंदी गजल आम आदमी के काफी नजदीक है। पहले गजल केवल प्रेम की गजल होती थी परंतु आज हिंदी गजल ने समाज के प्रत्येक विषय को अपने भीतर समाहित किया है। मेरी ही एक गजल के कुछ शेर देखिए, जिसमें सामाजिक सरोकार साफ दिखाई देता है–
फूल को ख़ार बनाने पे तुली है दुनिया
सबको अंगार बनाने पे तुली है दुनिया
मैं महकती हुई मिट्टी हूँ किसी आँगन की
मुझको दीवार बनाने पे तुली है दुनिया
हमने लोहे को गलाकर जो खिलौने ढाले
उनको हथियार बनाने पे तुली है दुनिया।
इस प्रकार, हिंदी गजल आज सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हुई गजल है। वह समाज के दुःख-सुख से भली-भाँति परिचित है। प्रेम के अतिरिक्त उसमें आम-आदमी की समस्याएँ, भ्रष्ट व्यवस्था के प्रति विद्रोह, आर्थिक चुनौतियाँ, धार्मिक उन्माद आदि विषय भी देखने को मिलते हैं।
हिंदी गजल का मिज़ाज उर्दू गजल के मिज़ाज से किस तरह भिन्न है?
उर्दू गजल में शायर बहुत नरमाहट तथा मिठास में बात करते हैं। व्यंग्य भी करते तो उसमें भी मिठास का साथ होता है। असल में गजल का मिज़ाज गजलकार के मिज़ाज के अनुकूल होगा। अगर मैं गजल कहता हूँ, तो मेरा जो मिज़ाज है वह गजल में आ जाएगा। जैसा कि हम जानते हैं कि उर्दू की भाषा नफासत की भाषा है, मर्यादित लहजे में बात कही जाती है। इसलिए उर्दू गजल का मिज़ाज नर्म है। हिंदी गजल इन दिनों खड़ी बोली में लिखी जा रही है और खड़ी बोली का मिज़ाज अक्खड़ है। लेकिन हिंदी की जो बोलियाँ हैं जैसे ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी आदि उनका मिज़ाज नर्म है। उस मिज़ाज को हिंदी गजलकारों ने अख्तियार करने की कोशिश की है। दुष्यंत से पहले जो गजलें कही गई, उनका मिज़ाज नर्म था। दुष्यंत का गजल संग्रह ‘साये में धूप’ आक्रोश और व्यंग्य का स्वर लिए हुए आया। उस समय जनता के भीतर व्यवस्था के प्रति आक्रोश था। इसलिए जिस गजलकार को हिंदी गजलकारों ने आदर्श बनाया उसकी भाषा में वह नर्मी नहीं थी जो उर्दू की गजल में थी। आज जिसे हम हिंदी गजल कहते हैं उसका मिज़ाज उग्र है। उग्र मतलब जिसमें व्यंग्य है, आक्रोश है। जबकि उर्दू गजल के मिज़ाज में अगर आक्रोश का स्वर था/है तो वह छिपा हुआ था/है। जहाँ तक मिज़ाज की बात है, जिस धर्म के अनुयायियों में हम जन्म लेते हैं उसके अपने संस्कार होते हैं। जैसे मुस्लिम परिवारों में चौदहवीं के चाँद को बहुत महत्त्व दिया जाता है तो हिंदू घरों में पूर्णिमा के चाँद को महत्त्व दिया जाता है। इसलिए जो मुस्लिम शायर हैं उनकी शायरी में चौदहवीं के चाँद का जिक्र होगा। जैसे–
‘चौदहवीं का चाँद हो, या आफ़ताब हो
जो भी हो तुम खुदा कि क़सम, लाजवाब हो।’
जब मैं गजल कहूँगा तो उसमें पूर्णिमा का चाँद आएगा, जैसे–
‘जिस रात पूर्णिमा में नहा लेगी चाँदनी,
पानी को सागरों से उछालेगी चाँदनी।’
क्योंकि मैं हिंदू परिवार से जुड़ा हूँ, तो इसमें स्वभाविक रूप से पूर्णिमा का चाँद आएगा, न कि सांप्रदायिक भाव के कारण। हमारे होंठों पर वही लफ्ज आएगा जो कि हम बचपन से देखते सुनते आ रहे हैं। उर्दू गजल का मिज़ाज कोमल है। हिंदी गजल का मिज़ाज कोमल नहीं है उसमें प्रहार है, गुस्सा है।
हिंदी ग़ज़ल को आप आज किस मुकाम पर पाते हैं?
गजल कहते-कहते मैं इस निष्कर्ष पर आया कि हिंदी गजल में अब ठेठ हिंदी वाली संस्कृतनिष्ठ हिंदी नहीं रही और न तत्सम शब्दों वाली हिंदी, इसलिए मैं हिंदुस्तानी शब्द इस्तेमाल कर रहा हूँ। सारे संसार में गजल नाम की विधा को सम्मान मिल रहा है। गजल हर जगह छाई है। इस वक्त हिंदी गजल का स्थान सर्वोच्च है। दोहा, हिंदी गजल और गीत यह तीनों विधाएँ समानांतर चल रही हैं, एक ही छत पर बैठी हैं।
हिंदी गजल को प्रगतिशील कविता के अगले चरण के रूप में आप कहाँ तक समर्थ पाते हैं?
जैसा कि मैंने पहले ही कहा, खासतौर से जो हिंदी गजल में बदलाव आया वह दुष्यंत के गजल संग्रह ‘साये में धूप’ के कारण आया। जैसे मैंने अभी बताया कि दुष्यंत पहले मूलतः तो गीतकार थे। बाद में जब वह इलाहाबाद गए तो वहाँ उनकी विचारधारा में अंतर आ गया। उनके विचार प्रगतिशील हो गए। वही प्रगतिशील विचारधारा उनकी गजलों में प्रकट हुई। इसी वजह से सारे प्रतीक बदले, बिंब बदले, भाषा का तेवर बदला, विषय कहने का ढंग बदला। मैं यह मानता हूँ कि कोई भी कवि क्यों न हो हमेशा शोषित वर्ग का हिमायती ही होता है।
गजल जब प्रेम के विषय से थोड़ा हटकर सामाजिक सरोकारों से जुड़ती है तो हिंदी गजल आज की प्रगतिशील विचारधारा की, यानी जो शोषित वर्ग है उसकी बात कर रही होती है। उसकी तकलीफ की बात करती है चाहे वह आर्थिक दृष्टि से शोषित हो, चाहे सामाजिक दृष्टि से या सांप्रदायिक दंगों से परेशान हो। आम आदमी की हर तकलीफ को हिंदी गजल विषय बना रही है और विषय बनाकर अपनी भाषा में, अपने तरीके से उस तकलीफ को अभिव्यक्त भी कर रही है। हिंदी गजलकारों के दो रूप देखने में आ रहे हैं। एक वे हैं जो साम्यवादी विचारधारा के हैं, दूसरे वे जो किसी विचारधारा से तो नहीं जुड़े किंतु शोषित वर्ग से जुड़े हैं और वह ऑन पेपर कम्युनिस्ट नहीं हैं। लेकिन वे चाहते हैं कि समाज में ऊँच-नीच का भेदभाव समाप्त हो जो मार्क्सवादी विचारधारा का मूल सिद्धांत है। दूसरी ओर जो प्रतिबद्ध हैं वे दूसरी किसी भी बात को नापसंद करते हैं। अगर किसी ने प्रेम की बात कह दी तो वह शे’र उनके लिए बड़ा शेर नहीं होगा, उनकी निगाह में वही शे’र बड़ा होगा जो साम्यवादी विचारधारा से जुड़ा हो।
मैं यह मानता हूँ गजल का जो अगला स्वरूप आएगा वह थोड़ा-थोड़ा प्रेम की भी बात कहेगा, थोड़ा-थोड़ा अध्यात्म की भी कहेगा, लेकिन हिंदी गजल सामाजिक सरोकारों से जुड़ी, सामाजिक समस्याओं पर प्रहार करने वाली गजल ही बनी रहेगी।
साहित्य, खासकर हिंदी गजल में खेमेबाजी को हिंदी गजल के लिए कितना घातक मानते हैं?
मैं गजल के लिए ही नहीं कह रहा, पूरे साहित्य के बारे में कह रहा हूँ, चाहे वह गीत हो, गजल हो, अतुकांत कविता हो या कोई भी विधा। खेमेबाजी तो हमेशा नुकसान ही पैदा करती है। खेमेबाज़ी हिंदी गजल में भी नुकसान कर रही है और आगे भी करेगी। साहित्यकारों में जब खे़मेबाज़ी होती है तो निश्चित रूप से एक वर्ग प्रताड़ित होता है। जैसे एक वर्ग हिंदी गजल के क्षेत्र में प्रतिबद्ध गजलकारों का है जो विशेष विचारधारा से जुड़ा है। दूसरा वह वर्ग है जो प्रतिबद्ध नहीं है। वे प्रेम की ग़ज़लें कह रहे हैं, आम आदमी की पीड़ा की और प्रगतिशील विचारधारा की भी। यहाँ मैं यह बात कहना चाहता हूँ कि खेमेबाज़ी जब समालोचना के क्षेत्र पहुँच जाती है तो अच्छे से अच्छे कवि भी तिरस्कृत होने लगते हैं।
ऐसा माना जाने लगा है कि साहित्यकार सत्ता की छतरी थाम कर आगे बढ़ रहे हैं। इस विषय पर आप क्या कहना चाहेंगे?
ऐसा है कि, यह हर ज़माने में थोड़ा-थोड़ा रहा है। कुछ लोग जो राजनीति में सक्रिय भाग ले रहे हैं उनकी अवधारणा राजनीतिक की छतरी के नीचे आने की हो सकती है, किंतु जो सामान्य लेखक हैं वह किसी खेमेबाज़ी से नहीं जुड़ा और उसको किसी राजनीतिक छतरी की जरूरत नहीं होती है। वह तो अपना काम कर रहा होता है। राजनीतिक लोग उनको सम्मानित करें तो यह उनका काम है। अधिकतर लेखक इस बात से दूर हैं कि उन्हें सत्ता से कुछ मिले इसलिए वे उनके लिए लिखें और फिर पुरस्कृत हों।
गजल के साथ हिंदी या उर्दू विशेषण लगाना कहाँ तक उचित है?
मैं यह कहना चाहता हूँ कि मेरी दृष्टि से अब इन दोनों विशेषणों की आवश्यकता नहीं है। हाँ, प्रारंभ में आवश्यकता होती है। आज उर्दू वालों ने फ़ारसीपन छोड़ दिया है और हिंदी वालों ने ठेठ हिंदी में गजलें कहना छोड़ दी हैं। एक बात मैं यहाँ स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि जब किसी भी एक भाषा की कोई विधा दूसरी भाषा के साहित्य में जाती है तो उसके साथ भाषा का विशेषण लग जाता है। मैं गीत विधा के माध्यम से इस बात को स्पष्ट करना चाहूँगा। जैसे कि बंगाली गीत से पहले बंगाली विशेषण लगा है, उसी तरह मराठी गीत, गुजराती गीत आदि। यह सब विशेषण भाषा के विशेषण हैं। साहित्यिक आवश्यकता के कारण यह किया जाता है। उर्दू और हिंदी शब्द का प्रयोग भाषा के लिए है लेकिन जब भाषा एक सी हो गई तो फिर हिंदी गजल और उर्दू गजल में अंतर नहीं बचा, जिसे हम हिंदुस्तानी कह रहे हैं। माना जहाँ हिंदी गजल की बात है वहाँ छंद विधान की समस्या आ सकती है। परंतु अगर छंद विधान को ध्यान से देखें और उसकी गहराई में जाएँ तो वह अंतर भी समाप्त हो जाता है। मैंने अपनी किताब ‘गजल का व्याकरण’ में हिंदी के छंदों का, संस्कृत के छंदों का तथा उर्दू की बहर, इनका एक पुल बनाने की कोशिश की है और यह समझाने की कोशिश की है कि दोनों में नाम का अंतर है परंतु छंद विधान एक जैसा ही है। जैसे बहरे रमल का रुकन फाइलातुन है और उसका अर्कान अर्थात सूत्र यह बनता है–
उर्दू छंद का रुकन :
फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन
(फा+इला+तुन) (फा+इला+तुन) (फा+इला+तुन) (फा+इला+तुन)
यही अर्कान अर्थात सूत्र हिंदी में इस प्रकार बन जाता है–
हिंदी छंद का पद :
राजभागा राजभागा राजभागा राजभागा
(रा+जभा+गा) (रा+जभा+गा) (रा+जभा+गा) (रा+जभा+गा)
आप देखेंगे कि दोनों में एक सा वजन है।
आप वर्तमान दौर में सबसे बड़ा गजलकार किसे मानते हैं?
वर्तमान दौर में हम किसी एक को नहीं कह सकते। इस समय सब लोग दुष्यंत को बड़ा मानते हैं। उर्दू गजलकार भले ही उनसे नाराज हों लेकिन उनके अंदर भी जो परिवर्तन आया वह दुष्यंत की वजह से ही आया। दुष्यंत से पहले बालस्वरूप राही, बलबीर सिंह रंग एवं रूपनारायण त्रिपाठी ने अच्छी गजलें कही हैं। इन दिनों विज्ञान व्रत की छोटे मीटर की गजलें बहुत अच्छी हैं। चंद्रसेन विराट ने शुद्ध हिंदी में गजलें कहीं। अगर इस दृष्टि से बात करें तो यह भी आज के बड़े गजलकार हैं। मैं अपने बारे में कुछ नहीं कहता। वर्तमान गजलकारों में किसी एक का नाम नहीं लिया जा सकता। शायद कोई नहीं बता पाए कि एक बड़ा गजलकार कौन है।
ऐसा माना जाता है कि आपकी गजलों पर गीतों का प्रभाव है? इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?
इसमें कोई शक नहीं कि मूलतः मैं गीतकार ही हूँ। गजल कहने की शुरुआत 1978 में हुई। मैं बचपन से ही गाता हूँ, तो मूलतः जो मेरा स्वर है वह गेयता का है। गीतकार की जो भाषा होती है वह मेरी प्रारंभिक गजलों में आई। मूल बात यह है कि पूरे गीत का एक ही भाव बिंदु–विचार बिंदु होता है जैसे कि आप कहीं बैठी हैं, अचानक कोई पानी की बूँद छलक कर मेज़ पर गिर गई और आपके हाथ में कोई तिनका या पेन है। बात करते-करते आपने पानी की बूँद की लकीर बना दी। जहाँ तक पानी पहुँचा आपने लकीर खींच दी। ऐसा है कि गीत को शुरू से अंत तक एक ही भाव भूमि में रहना पड़ता है। परंतु गजल का शे’र स्वतंत्र होता है। एक गजल में आप राजनीति का शे’र भी कह सकते हैं, धर्म का भी और प्रेम का भी। मैं ऐसी गज़लें भी कहता हूँ जिनका रूप गीत जैसा है और ऐसी भी जिनके हर शे’र का विषय अलग-अलग है।
नई पीढ़ी के ग़ज़लकारों को आप क्या कहना चाहेंगे?
नई पीढ़ी के गजलकारों को कहूँगा कि अच्छी पुस्तकें पढ़ें और शास्त्र ज्ञान भी हो। मूर्तिकार अपनी मिट्टी तैयार कर ले और मूर्ति बनाना न आए तो, वह कला अधूरी रह जाती है। इसलिए भाव पक्ष की प्रबलता के साथ-साथ कला पक्ष का ज्ञान भी आवश्यक है। एक बात मैं हमेशा कहता हूँ कि सफलता का कोई शॉट कट नहीं होता है। आज की युवा पीढ़ी तुरंत बड़ा होना चाहती है। पहले वह यह जाने कि वह क्या लिखना चाहता है। अगर अतुकांत कविता लिखने वाला कवि जल्दी से गजल लिखना चाहे, तो कैसे आएगी? पहले वह गजल की किताब पढ़े, छंद क्या है, बहर क्या है, उसके गुण-दोष क्या हैं, कैसे दोषों को हटाया जाए, गुरु के संपर्क में आए आदि। मैं अपनी बात बता रहा हूँ कि जब मेरी बहुत सी किताबें निकल चुकी थीं तो मुझे भी तलाश थी कि मेरा कोई गुरु हो। सौभाग्य से कृष्ण बिहारी नूर साहब मेरे गुरु बने। नए गजलकारों को अच्छे उस्ताद ढूँढ़ने चाहिए और विनम्रता से सीखना चाहिए। ऑनलाइन कितनी भी पढ़ाई हो जाए लेकिन क्लास की पढ़ाई क्लास की पढ़ाई होती है।