नई धारा संवाद : उपन्यासकार ममता कालिया

नई धारा संवाद : उपन्यासकार ममता कालिया

स्त्री विमर्श में हमने पश्चिम का अनुसरण किया

मस्कार, मैं हूँ हिमांशु वाजपेयी। नई धारा संवाद जैसा कि आप सब जानते हैं, इस संवाद में हम हिंदी के कुछ सुप्रसिद्ध साहित्यकारों से बात करते हैं, उनके मुँह से, उनकी जबानी उनकी रचनाएँ सुनते हैं। और तमाम जो साहित्य की बाते हैं, उनके रचनाकर्म से जुड़ी हुई, परिवेश से जुड़ी हुई वो करते हैं। तो इस कड़ी में आज के एपिसोड में हमारे साथ हैं हिंदी की सुप्रसिद्ध लेखिका ममता कालिया जी। ममता कालिया जी, जो उनका लेखन है बहुमुखी है, उपन्यासकार के तौर पर उनकी प्रसिद्धि है। कहानियाँ उनकी बहुत मशहूर हुईं। उन्होंने कुछ नाटक भी लिखे, और तमाम जो विधाएँ हो सकती हैं एक रचनात्मक सफर में, सब में जो मुख्य विधाएँ हैं उनमें उन्होंने अपनी आजमाइस की और बहुत सशक्त उपस्थिति अपनी हिंदी जगत में दर्ज कराई है। एक ऐसी लेखिका, जिनके उपन्यास ‘बेघर’ को इस वर्ष पचास साल पूरे हो जाएँगे, और उनकी जो लेखन की यात्रा है वो तो पचास साल से भी ज्यादा की है। जाहिर तौर पर जब इतने अनुभवी किसी लिखने वाले से हम बात करते हैं तो मेरे लिए ये खुशी की बात है, मैं स्वागत करता हूँ ममता जी का आज की इस ‘नई धारा संवाद’ की कड़ी में! 

ममता जी आपका बहुत-बहुत स्वागत है, और मेरे लिए बहुत खुशी का मौका है कि मैं नई धारा संवाद के बहाने से आपसे बात कर पा रहा हूँ।

बहुत-बहुत धन्यावाद हिमांशु जी। मुझे सबसे पहले नई धारा पत्रिका और नई धारा के आयोजन से जुड़े समस्त साथियों का शुक्रिया अदा करना है, कि आपने मुझे ये मौका दिया, कि मैं एक मशहूर कलाकार किस्सागो से बात कर रही हूँ। 

अरे! 

वो कोई कम मशहूर नहीं है, उनको न जाने कितनी बार हम स्टेज पर देख चुके हैं और कितनी बार उनके मुँह से कहानियाँ ऐसी सुनी हैं कि लगता है अभी एक और सुन ली। ये देखा जाए तो वो ये कहानीकार बैठे हैं, और हम सब देखा जाए तो स्टोरी टेलर्स हैं। हम उसे कलम से लिखते हैं, आप उसे जुबान से बोलते हैं और जिंदा कर देते हैं। तो मुझे बहुत अच्छा लग रहा है कि इसी बहाने हिमांशु से बात होगी, क्योंकि हमेशा इनको किस्सागो के कपड़ों में और मंच पर ही देखा है मैंने।

मुझे तो ये बातचीत इसलिए पसंद है कि मैं, जो आपके मुँह से कोई बात ऐसी सुन लूँगा जो मैं फिर आगे अपने आस-पास लोगों को बताऊँगा कि भई ऐसा है, ममता जी ने ये कहा था। तो मेरे लिए वो बड़ा एक स्पेशल मूवमेंट होता है। तो मैं ममता जी शुरू करता हूँ बातचीत, और एक बहुत बुनियादी सवाल जो मैं, आप जैसा व्यक्ति जब होता है साथ में जो कि तमाम विधाओं में अपना दखल रखता है। तो मैं शुरुआत यहीं से करना चाहता हूँ कि उपन्यासकार की एक आइडेंटिटी है, कविताएँ आप लिखती हैं और कहानियाँ तो खैर बहुत ही मशहूर हैं। तो इन सारी पहचानों में सबसे सहज आप किस पहचान के साथ हैं और सबसे करीब या सबसे डॉमिनेंट कौन सी पहचान है, बुनियादी तौर पर आप क्या हैं?

देखिए पहचान तो उपन्यासकार के रूप में बन गई मेरी। लेकिन मैंने शुरुआत कविता से की थी और आज भी कविता मेरे दिल के सबसे करीब है, ये मैं कहूँगी। या तो कह लीजिए कविता लिखने में सबसे कम समय लगता है। या आप ये कह लीजिए कि कविता आपकी बात इतनी प्रत्यक्ष रूप से कह देती है। उसमें आपको एक वितान नहीं खड़ा करना पड़ता है, एक शामियाना नहीं बनाना पड़ता है। कहानी में आपको अपनी बात कहने के लिए इतने और किरदार डालने पड़ते हैं। और आपको सबके अंदर थोड़ी-थोड़ी तो ऑक्सीजन डालनी पड़ती है, क्योंकि हर पात्र का एक जीवंत आपको दिखाना है। उपन्यास में ये काम और भी ज्यादा श्रमसाध्य होता है। क्योंकि आपको उस जीवन को अंत तक ले जाना है। आपने देखा होगा कई बार जासूसी कहानियों में–जिस पात्र का समझ में नहीं आता है कि क्या करें, उसको वह जासूसी लेखक मार डालता है, और जैसे उसका कत्ल हो गया। हमलोग यह नहीं कर सकते हैं। हमलोग जो एक तर्क के अंतर्गत कहानियाँ लिखते हैं, हम ऐसा नहीं कर सकते हैं कि अपने पात्र को कहीं भी बेवजह मार दें। बल्कि मैं नए लेखकों को, एक लेखक ने मुझे अपना उपन्यास भेजा है। उसमें दो-तीन मौते हुईं, तो मैंने उससे कहा, देखो अब और किसी को मत मारना। मैंने उसे यही समझाया, हिम्मत बाँधें उपन्यास लिखने में। बहुत सुंदर उपन्यास लिख रहे हैं। तो मैंने उन्हें यही समझाया कि भई अब मत मारना। कहने लगे कि यह आखरी मौत थी।

तो देखिए हमलोग अपना दिल लगाते हैं। और हिमांशु आप जानते होंगे–आप कलाकार हैं, आप जानते होंगे कि कई बार एक ही विधा में लिखने से थोड़ा आदमी अपने को रिपीट करने लगता है। या थोड़ा-सा बोर भी हो जाता है। क्योंकि लेखन मेरे लिए एक मनोरंजन का साधन है। और तो मेरा कोई साधन नहीं है। अब मैं इतना ज्यादा घूम भी नहीं सकती हूँ, मैं इतना ज्यादा, समझिए कि–कई लोग होते हैं कि भई नृत्य करने लगते हैं, कई लोग के लिए योगाभ्यास बड़ा एंटरटेनमेंट और रिलीफ होता है। मेरे जीवन में लिखना-पढ़ना, बस ये दो ही मनोरंजन के साधन हैं। आप इसे मनोरंजन कह लीजिए, या इसको साधना कह लीजिए, साधना कहना pretenses (दिखावा) लगता है मुझे, ये क्या मतलब है, हम कोई योगी थोड़े ही हैं, हम कोई साधना-वाधना कुछ नहीं करते हैं, लेकिन हम अपना मन लगाते हैं–एक अगली कहानी शुरू कर दी।

और देखिए कविता क्या है, कविता लिखने में मन लग रहा था, लेकिन वो ज़माना था अकविता का। जब मैं लिखती थी, सब चीजों में ‘अ’ बहुत प्रबल था। अ-कविता, अ-कहानी, अ-नाटक, और जीवन ही लोग ऐसा जीते थे कि लगता था–‘अ-प्रेम’, ये हालत थी। तो ऐसे समय में अ-कविता जो थी वो धीरे-धीरे देहवादी हो गई, थोड़ी जघन्य भी हो गई, और उसके अंदर मुझे ये लगा कि विचार से ज्यादा देह आ गई। मैं विदेह नहीं चाहती कविता को। उस दौर में, अ-कविता के दौर में, मैंने भी लिखी, दिमाग से लिखी थी कविता, मैं जानती भी नहीं थी उन शब्दों का मतलब, प्यार शब्द घिसते-घिसते चपटा हो गया है। अब हमारी समझ में सहवास आता है, तब सहवास का मतलब भी नहीं जानती थी, क्योंकि हमलोग बंबई में रहते थे। बंबई में सहवास शब्द का वो अर्थ नहीं है जो हिंदी में है। वहाँ तो सहवास कॉलोनी होती है, सहवास सोसायटी होती है। वहाँ सहवास का मतलब कोऑपरेटिव, कोऑपरेटिव लिविंग। और हिंदी में सहवास शब्द का बिल्कुल अलग अर्थ है–लिविंग-टूगेदर, टू-किपिंग लिविंग-टूगेदर। तो अ-कविता जो थी वो मैंने पाई, और जब बड़ा इसका हंगामा मचा 60 में, जब मैंने ये कविता लिखी थी। जब इसका बहुत हंगामा मचा तब मुझे समझ में आया कि ये तो मैंने बड़ा गलत काम कर दिया। और अ-कविता की देहवादिता, वह नकली ओढ़ी हुई अक्रामकता से मैं वहाँ अप्रोज में आ गई। अप्रोज में मैं इसलिए भी आ गई कि रवीन्द्र कालिया मिले–उन्होंने मुझे कहा कि अरे कविता का क्या है, मैं तो बस में भी चढ़ते-चढ़ते लिख दूँ दस कविताएँ! कोई सवाल नहीं है कि, इस विधा को इतनी कैजुअली लोग लेते हैं–इसका मतलब। तो कुछ कर के दिखाना चाहिए! कहानीकार थे तो मैंने सोचा, ठीक है अब कहानी लिख के बताया जाय। मैं कहानी पहले लिखा करती थी, जैसे कि होता है कि जब हम स्टूडेंट थे तो ‘लहर’ पत्रिका से चिट्ठी आ जाती थी, कि इस पर कहानी लिख कर भेजो। हमने कहानी लिख कर भेज दी। ‘ज्ञानोदय’ है, कलकत्ते से निकलता था उस समय। ज्ञानोदय वाले कह रहे थे कि आप कहानी लिख कर भेजिए इस पर, हम कविता की जगह कहानी चाहते हैं। तो धीरे-धीरे संपादकों ने, प्रकाशकों ने, साथियों ने, और प्रेमी ने–सबने मिल कर कहानी की ओर धकेल दिया मुझे। तो अब मैं कैसे बताऊँ आपको कि मैं कौन-सी विधा में सहज हूँ, क्योंकि ये साइकिल चलाने जैसा है–लिखना, आपने एक बार सीख लिया, थोड़े-बहुत घुटने छिले। लेकिन उसके बाद जब एक बार सीख लिया चलाना तो चलाते गए। 

अच्छा ये बड़ी अच्छी बात आपने कही–देखिए कविता का तो हमारे यहाँ ये माना जाता है कि जो दिल के भाव हैं वो फ्लो जब स्पोंटनेस (अविरल) फ्लो होता है तो कविता हो जाती है। चूँकि उसमें वक्त भी जैसा आपने कहा कि कम लगता है, श्रम भी शायद उतना, जितना उपन्यास में लगता है वो नहीं लगता। लेकिन कहानी और उपन्यास, वो तो जैसा आपने कहा कि साइकिल चलाने की तरह सीखना पड़ता है, घुटने छिलते हैं तो वो क्या ट्रेनिंग आपकी कैसे हुई कहानी में, यानी शुरू से तो कहानी को आपने समझा होगा कि कैसे कहानी लिखी जाती है, उसके क्या बुनियादी एलिमेंट्स हैं, कैसे उसको साथ में रखना है। तो कैसे उसका एक सिलसिला बना कर रखना है, तो ये ट्रेनिंग की क्या प्रोसेस थी, ये मैं जानना चाहता हूँ?

देखिए बिना किसी तैयारी के हम उसमें कूद गए। दो तरीके होते हैं लिखने के–एक तरीका होता है कि आप पहले सैद्धांतिकी पढ़िए, फिर आप काम कीजिए। और दूसरा तरीका ये होता है कि सीधे आपको वर्कशॉप में छोड़ दिया। तो हम वो थे कि हमें सीधे वर्कशॉप में छोड़ दिया गया। और जिंदगी के वर्कशॉप में हमने इतनी गलतियाँ कीं, इतने गलत पेंच लगाए, इतनी बार पेंच ढिले हुए कि हम बड़ी आसानी से लिखने लगे। अब मुझे याद है कि जब मैंने अपनी पहली कहानी लिखी ‘छुटकारा’। मेरी ‘छुटकारा’ कहानी संग्रह को तो 52 साल हो गए छपे हुए, 69 में छपा था वो। आपलोग तो तब पैदा-वैदा हुए होंगे, या नहीं हुए होंगे, बाद में हुए होंगे। तो आप ये देखिए कि मैंने ‘छुटकारा’ कहानी सबसे पहले लिखी। वो एम.ए. में मेरे साथ एक ठिगना-सा लड़का पढ़ता था जो मेरा दोस्त था। मैंने उसका नाम भी नहीं बदला, मैंने नाम भी बत्रा का बत्रा ही लिख दिया। और सब मुझे कहने लगे कि अरे बत्रा नाम का तो कोई पढ़ता था! मैंने कहा–पढ़ता होगा कोई, गई, वो बात गई। आप ये देखिए कि कहानी लिखने में मुझे बिल्कुल मेहनत नहीं पड़ी, क्योंकि मैं एक ऐसे प्रसंग पर लिख रही थी जिसको मैं भली-भाँति जानती थी। वहाँ उस समय वेंडर्स-कैफे भी था यूनिवर्सिटी में, दिल्ली यूनिवर्सिटी में, और वहाँ लाइब्रेरी भी थी। और उसी माहौल में हमलोग घूमा करते थे। उसी माहौल में दोस्ती हुई, उसी माहौल में दोस्ती टूटी, तो ये सारी घटनाएँ जो हैं और जो किसी भी 22 साल की लड़की के जीवन में आती है ये सारी घटनाएँ, तो ये बहुत आसान थी मेरे लिए, और इनको रीकॉल करना–तो जब मैंने ये कहानी लिखी, और इसी तरह से मैं आगे बढ़ती चली गई। फिर हमलोग कलकत्ते गए जब हमारी शादी हो गई, तो वहाँ एक लड़का मुझे मिला क्लब में, आप ही की उमर का था छोटा-सा, और वो कहने लगा कि, मैंने ये कैंडिल खरीद ली है, और कैंडिल खरीदने का मतलब है कि आपको किसी के साथ डॉन्स करना है। क्लब में ये नियम था। तो वो कहने लगा कि मेरे पास कोई पार्टनर नहीं है, सब लड़कियाँ ऑक्यूपाइड है। आप प्लीज मेरे साथ डॉन्स कीजिए। तो मुझे इतना, इसमें मेरा मनोरंजन हुआ इस बात पे–मैंने कहा, मैं उससे कह रही हूँ एक बहिन जी की तरह, वैसे देखो मेरी शादी हुई है अभी दो-तीन दिन पहले, तो मैं डॉन्स भी नहीं जानती हूँ, और तुम मेरे साथ क्यों डॉन्स करना चाहते हो, कहते हो और कोई पार्टनर नहीं है यहाँ पर। तो मेरे साथ हमेशा ये हुआ है, जीवन में इतनी दिलचस्प और इतनी तकलीफदेह सिचुएशन्स मेरे ही साथ होती रहती है। अच्छा फिर मैं जब थोड़ा आगे बढ़कर देखती हूँ, औरों को देखती हूँ, तो मैं देखती हूँ कि औरों के साथ भी ऐसी बेढब बहुत सी समस्याएँ होती हैं। और रवि के साथ तो जीवन में इतने मेडल्स होते थे कि मैं आपको क्या बताऊँ, अभी बहुत से मेडल्स मैंने लिखे ही नहीं हैं। मतलब अभी मेरे पास इतना मसाला है लिखने के लिए कि कई उपन्यास, कई कहानियाँ उसमें हो सकती हैं। और ये दिल्ली, बंबई दोनों ने, और ये कई शहरों ने मिलके हमको रगड़ दी। हमारी भाषा को भी रगड़ दी, हमारे अनुभवों को भी रगड़ दी। अगर वो सब बताऊँ तो आप सोचिए कि एक और किस्सा हो जाय।

हालाँकि ये सवाल जो अब मैं पूछने वाला हूँ, ये मैंने बाद के लिए रखा था ‘रविकथा’ पर जब हम आते। लेकिन चूँकि ये प्रसंग आ गया है इसलिए–आमतौर पर ये बहुत सारे लोग ऐसा मानते हैं कि जब आप बहुत किसी करीबी व्यक्ति के बारे में लिखते हैं, या एक आत्मीय व्यक्ति, ऐसा व्यक्ति जो आपके बिल्कुल, जिसे उर्दू में कहते हैं–‘हमनफस’ वैसा है, तो वो बड़ा मुश्किल काम भी होता है। क्योंकि आपको बहुत सारी मेमोरी को रीविजिट करना होता है और उसमें बहुत, एक चैलेंजिंग भी हो जाता है। जब आप ये ‘रविकथा’ लिख रही थीं तो इसमें क्या चैलेंजेज थे? मतलब किस तरह आप इन अनुभवों को दुबारा से जीना?

इसमें मैंने केवल एक चीज का ध्यान रखा, मैं कोई बहुत आँसुछाप कहानी नहीं लिखना चाहती थी। क्योंकि रवि बहुत मस्तमौला इनसान थे। उनका जीवन ऐसा था–वो कुर्सी समेत हँसते थे। कोई आ जाए तो बच्चे कहा करते थे हमारे कि मेहमान से ज्यादा तो मेज़बान खुश हो जाता है। हमारे घर का वो माहौल था! हँसते-हँसते कई बार तो मूढ़ा टूट जाता था। वो रिमझिम आदमी थे!

उनकी किताब मैंने पढ़ी है–‘ग़ालिब छूटी शराब’, वो बहुत, मतलब इतना आनंद आया उसपे!

बस आप सोच सकते हैं। उन्होंने अपने बारे में कुछ नहीं छिपाया, उन्होंने अपनी मट्टी पलीत भी की थी उसमें, आपने देखा होगा, ग़ालिब छूटी शराबे। मेरे पास ये था कि सबसे बड़ा जो मेरे पास प्लस प्वाइंट था, अक्सर ये होता है। स्त्रियाँ जब लिखती हैं और मान लीजिए अपने जीवन-साथी के बारे में लिखती हैं तो वो ये सोचती हैं कि कहीं कोई बुरा न मान जाय। ऐसा एक मन में भय रहता है कि बुरा न माने, अच्छी-अच्छी बातें रखें, मीठी-मीठी बातें रखें। मुझे खट्टी बातों से कोई परहेज नहीं है क्योंकि वो मेरे बारे में भी काफी खट्टी लिख चुके हैं। और हमलोग दोनों के जीवन में इतना खट्ट-मीठ शामिल था, और उसमें कोई तीखापन भी कोई कम नहीं था। ये सारे, षटरस जीवन था हमारा एकदम से। तो हमें कोई दिक्कत नहीं हुई उसमें। और मुझे बिल्कुल दिक्कत नहीं हुई, मैं केवल ये चाहती थी कि एक तो ये करुण कथा न लगे। और दूसरी मैं ये चाहती थी कि मैं रवि को कहीं पर भी बहुत आदर्श की तरह प्रस्तुत न करूँ। ऐसा नहीं कि मैं कहूँ लोगों से कि आपको रवीन्द्र कालिया जैसा जीवन जीना चाहिए। मैं कहूँगी खबरदार जो रवीन्द्र कालिया जैसा जीवन जिया! क्योंकि ये जीवन बहुत एक्सपेरिमेंटल था–रवीन्द्र कालिया का। वो कदम-कदम पे था, और वो अपनी बीमारी के साथ गई है, जब सन् 2011 में उनको कैंसर डिटेक्ट हुआ तो एक बार जब वो समझ गए, उनकी एक बार सर्जरी हो गई, उसके बाद एक बार वो अपोलो हॉस्पिटल से आ गए, अब उन्होंने कहा–अब मैं अपना इलाज खुद करूँगा। अब जब मैं कह रही हूँ उनसे कि आप एल.एफ.टी. टेस्ट करा लीजिए, एस.यू.पी.टी. करा लीजिए, उनके जो भी टेस्ट थे। वो कह रहे हैं–नहीं। वो अपना होमियोपैथी का डब्बा, उन्होंने होमियोपैथी का इतना भंडार, हमारे घर का एक कमरा होमियोपैथी की दवाओं से भरा हुआ है। क्योंकि वो क्या करते थे कि हर एलोपैथिक दवा का होमियोपैथी विकल्प ढूँढ़ लेते थे। तो वो अपना इलाज ही नहीं करते थे, उस कॉलोनी में सारे लोग ही उनके मरीज थे। इलाहाबाद में भी उसी तरह करते थे, जितने वो सब्जी वाले होते थे वो सारे उनके मरीज होते थे। जितनी पुताई करनेवाले, घड़ी बनाने वाले, कलई करनेवाले, सब उनके मरीज होते थे, क्योंकि वे पकड़-पकड़ के लोगों को उनकी बीमारी पूछ कर किया करते थे इलाज। तो वो अपना ज्यादा समय, नौकरी-चाकरी में नहीं बिताते थे, नौकरी तो वो ठोकर पर रखते थे। वो सोचते थे कोई कुछ कहे तो सही मुझसे–मैं नौकरी छोड़ दूँ। मेरा ख्याल है कि जीवन में जितनी नौकरियाँ कालिया ने छोड़ी होगी किसी ने नहीं छोड़ी होगी। और इस तरह से जीवन जीना बड़ा कठिन काम है। वो तो ठीक है मैं नौकरी करती थी, छोटे-मोटे तो उससे घर चल गया। लेकिन वो अपने-आप कभी कोशिश नहीं करते थे इन चीजों की। और मैंने ये कोशिश की कि रवि को मैं आदर्श न बनाऊँ, और जो दोनों की बेवकूफियाँ हैं, मेरी भी उसमें बहुत बेवकूफियाँ हैं–‘रवि कथा’ में। क्योंकि देखा जाय तो मैं एक बहुत खराब पत्नी थी, क्योंकि मैंने उनको सँभाला नहीं। अक्सर लोग अपने घर को सुधार घर बना देते हैं। पत्नियाँ अपने पति को इतना आज्ञाकारी बना लेती हैं–वो नौ बजे खाना खा लेता है, दस बजे तक टी.वी. देखता है और सो जाता है। और मैं कभी नहीं सिखा पाई रवि को ये। अगर कभी मैंने कोशिश की, कभी मैंने रवि से रिक्वेस्ट की, कि देखो मुझे सुबह उठना पड़ता है, बच्चों को टिफिन देना पड़ता है, खुद कॉलेज जाना पड़ता है। तो रवि कहते–तुम किसी लल्लु प्रसाद से शादी कर लेती, तो वो तुम्हारे कहने के अनुसार 9 बजे खाना खा लेता और सो जाता। कहने लगे–मैं तो ये नहीं कर सकता। वो अपना खाना 11-12 बजे खाते थे। तो उनकी जो आदतें थीं–वो इतनी बेढव, बौडम, विचित्र, इतनी थी अलबेली कि उनके साथ रहना, तो अभी कई वॉल्यूम्स लिखे जा सकते हैं मतलब इस किताब की। मैं बोली नहीं, डरी नहीं, शेष कथा इतनी ज्यादा अभी रह गई है उनके बारे में, क्योंकि वो तो मैं समझती हूँ कि बस जब वे वेंटिलेटर पर गए हैं तब उनका एक्सपेरिमेंट बंद हुआ है, अस्पताल में। उसके पहले तक उन्होंने अपने जीवन को हाइली एक्सपेरिमेंटल लेवल पर जिया। और मैं एक ऐसे अलबेले आदमी के साथ रहती–तो मुझे आदत पड़ गई। मैं जब अपने भी घर जाया करती थी, या अपने दोस्तों के बीच में बैठती थी तो मैं सोचती थी कि इतने डल आदमियों के साथ ये लड़कियाँ कैसे अपना जीवन बीता रही हैं। हमारे घर में तो मौलिकता, हमारे घर में मौलिकता कूट-कूट कर भरी हुई थी।

रवीन्द्र जी ऐसे लेखक थे जो बहुत–जिनकी दमदारी थी साहित्य जगत में। तब मुझे ये बताएँ कि रवीन्द्र कालिया का हमसफर होने का कितना फायदा था और कितना नुकसान था, जब आप खुद एक लेखिका थीं और लिख रही थीं?

अरे, ये समझिए फायदा तो ये था कि उनकी बातों से मेरी कल्पना-शक्ति को चिंगारी मिलती थी। कभी वो मुझे इतना गुस्सा दिला देते थे अपनी किसी बात से, और कभी वो मुझे इतना आह्लादित कर देते थे अपनी बातों से कि पूरी कहानी एक धड़ल्ले में लिख ली जाती थी। जैसे कि बंदूक से गोली निकलती है, इस तरह से मेरे जेहन में से कहानी निकलती थी। वो एक कहानी, जो है–भारत सरकार नहाने आई है। ‘लड़के’ कहानी मेरी है। वो कहानी इसी तरह से है कि हम गए वहाँ संगम पर, संगम पर नहीं रसूलाबाद घाट पर गए। वहाँ मैंने देखा सरकारी गाड़ियाँ खड़ी हुई हैं, और सारी सरकारी गाड़ियाँ जो हैं, उनके ड्राइवर वहाँ बोर हो कर ऐसे ही खड़े हैं। और रवि ने तभी, एक मिनट में हमदोनों के मुँह से एक साथ निकला, ‘भारत सरकार नहाने आई है’। तो सब अफसर अपनी-अपनी गाड़ी का दुरुपयोग करते हैं। तो जब मैं घर आई हूँ लौटकर, हमारा घर पास ही था गंगा के, इलाहाबाद में। जब लौट कर आई तो रवि आ कर आराम से लेट गए। तो मैंने रवि से कहा, ‘रवि ये बताओ, ये भारत सरकार नहाने आई है, तुम इस जुमले के ऊपर कहानी लिखोगे।’ रवि ने कहा, ‘मुझे सोने दो, बोर न करो, मैं बिल्कुल कहानी नहीं लिखने वाला।’ हमलोग आपस में तय कर लेते थे तो संघर्ष का बिंदु कभी नहीं होता था। जैसे कभी ये नहीं हुआ आज तक कि रवि ने कहा होगा कि तुमने मेरी थीम चुरा ली, या मैंने कहा कि रवि ने मेरी थीम चुराई। नहीं, कभी नहीं हुआ हमारा झगड़ा। जबकि हम दोनों लेखक थे। वो इसलिए, क्योंकि हमारी स्पार्किंग प्वाइंट अलग-अलग थे। हमारा इंजन जो था न वो अलग तरीके से स्पार्क करता था। यही एकमात्र कहानी है जिसमें वो वाक्य हम दोनों के मुँह से निकली। और मैंने वो कहानी लिखी जो बहुत पढ़ी गई और बहुत जगह पढ़ाई गई, वह कहानी ‘लड़के’ उसका शीर्षक है। तो जो कह रहे हो कि उनकी खूबी थी, खूबी तो उनमें बहुत थी, क्योंकि वो कभी-कभी ऐसी बात कर देते, जैसे एक बार देखिए, मैं बता रही हूँ आपको कि एक प्रकाशक थे, वे लोकभारती प्रकाशन के मालिक थे–दिनेश ग्रोवर, इलाहाबाद में। उन्होंने एक दिन बड़ी प्राउडली बताया जब हमलोग वहाँ गए। हम रोज ही जाते थे शाम को। और कॉफी हाउस की जगह उनकी दुकान पर बैठते थे–लोकभारती में। तो उन्होंने एक दिन कहा कि मेरा एक वर्कर बीमार था, और मैंने उसको ब्लड दिया, मेरा ब्लड मैच कर गया। मैं अभी ब्लड डोनेट करके आया हूँ अस्पताल में। तो रवि ने कहा कि दिनेश जी आप बहुत अच्छे हैं, आप पहले वर्कर का खून पीते हैं, और उसके बाद उसे वापस भी कर देते हैं। मैंने कहा, क्या गजब की बात है, और कितनी सुध-बुध। और वो दिनेश जी हक्का-बक्का चुपचाप देख रहे हैं कि ये क्या कह रहा है। तो वो (रवि) डरते नहीं थे, किसी से कभी संकोच नहीं करते थे जरा भी। एक बार जब वो काम कर रहे थे, राजीव गाँधी के चुनाव में, राजीव गाँधी जीत गए, उन्हें जीतना ही था, क्योंकि इंदिरा गाँधी की हत्या हो गई थी। राजीव गाँधी जीते तो उनके एक खासमखास मित्र, जो बाद में शायद रक्षा मंत्री भी बने थे–अरुण सिंह। तो उन्होंने अमेठी में बड़ी-सी एक सभा की, बड़े अनौपचारिक थे वो, रवि के साथ दोस्ती के संबंध थे। तो उन्होंने कहा कि कालिया हम आपके लिए क्या कर सकते हैं? और रवि को ये गवारा नहीं कि कोई ये पूछे कि हम आपके लिए क्या कर सकते हैं। तो रवि ने कहा कि फिलहाल तो आप ये बताइए कि मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ। इन बातों का रवि को खामियाजा भी भुगतना पड़ता था। क्योंकि जब रवि, कितने लोग हैं, जिन्होंने उस समय ताबड़तोड़ गोवा काँग्रेस से, और काँग्रेस से, किसी ने पेट्रोल पंप माँग लिया, किसी ने गैस की एजेंसी माँग ली, किसी ने कुछ माँग लिया। और हमलोग तो बस अनुभव बटोर कर आ गए। और रवि को कोई मलाल नहीं था इस बात का। जब मैं कहती थी कि तुमने अपने आठ साल जो है, राजनीति में जाया कर दिए। अपना बिजनेस भी चौपट कर लिया उन्होंने, जो प्रिंटिंग प्रेस चलाते थे। क्योंकि मैं तो नहीं सँभाल सकती थी, कि नौकरी और प्रिंटिंग प्रेस दोनों सँभालूँ, मेरे लिए संभव नहीं था। बच्चे छोटे थे। लेकिन रवि कहते, कोई बात नहीं ये अनुभव काम आएगा। और उन्होंने उपन्यास शुरू किया था, काँग्रेस कल्चर के ऊपर लिखना। उसके 40-50 पन्ने लिखे भी हैं, उनके डायरी में पड़े हैं। लेकिन वो उसे पूरा नहीं कर पाए। और उनके रहने से मुझे, खामियाजा मेरा ये था कि उनकी जो फ्रैंक्लिस थी, उसको मैं धीरे-धीरे माइल्ड करती जाती थी, जब कहीं पर जाकर वो, कोई तमाशा खड़ा कर देते थे। या किसी से ऐसी बात बोल देते थे जो, मैं लीपा-पोती करती रहती थी हमेशा। वो कई बार ऐसे काम करते थे कि…।

वही हमने कहा कि मेरा दूसरा हिस्सा सवाल का वही था कि उनके साथ होने का लिटरेरी (साहित्यिक) तौर पर भी कितना वो चुनौतीपूर्ण रहा होगा क्योंकि दोनों लोग…?

अरे बहुत चुनौतीपूर्ण था। आप समझिए कि कपड़े खरीदने हैं तो कपड़े नहीं खरीदेंगे और वो रीकार्ड खरीद कर ले आते थे, एलपी रीकार्ड ले आते थे। उस जमाने के हिसाब से और हमारी आमदनी के हिसाब से वो भी बहुत महँगे पड़ते थे, अब सेट आ गया पूरा का पूरा मान लीजिए, ग़ालिब का पूरा सेट आ गया, मिर्जा ग़ालिब का। तो उनको तो खरीदना ही खरीदना है। एक बार बेगम अख्तर का तो खरीदते समय, एक्चुअली ये बात हुई जो मैंने कहीं लिखी भी है इसमें–कि बेगम अख्तर में पाँच एलपीज का सेट आया था, मेरा खयाल है वो 200 रुपये का था। तो रवि के सब कुरते फटे हुए थे, तो मैंने कहा, रवि ऐसा करते हैं एक कुरता खरीद लेते हैं, एक एल.पी. खरीद लेते हैं। ऐसा करके तुम्हें धीरे-धीरे एल.पी. सब आ जाएँगे घर में, और कुरता खरीद लो तुम, सब कुरते फट रहे हैं। रवि कहते हैं मुझे कि मैं नंगे बैठ कर बेगम अख्तर सुन लूँगा। तो आदमी सोचे कि उनका इरशाद बिल्कुल अलग था। वो जीवन को जीते थे जिस तरह से, अरे वो खाना बनाने किसी दिन अगर चले जाते थे किचन में। बीच में उनके शौक बदलते रहते थे। अब किचन का उन्हें कुकिंग का शौक लगा। अच्छा वो इसलिए होता है कि मैं कामकाजी थी, तो मैं तो सुबह सारे काम-काज छोड़ के बीच में…। और एक सेविका थी हमारे यहाँ, लेकिन सेविका तो एक रुटीन किस्म का काम करती थी। लेकिन रवि को कभी सामिष भोजन खाना है, वो तो छूती भी नहीं थी नॉनवेज, तो रवि बाजार से लाएँगे, बनाएँगे, क्योंकि बच्चे बहुत पसंद करते थे। अच्छा मुझे भी नहीं आता है बनाना सामिष वगैरह, मेरा इंटरेस्ट भी नहीं है उसे खाने में। तो रवि जो है एक एक चीज ध्यान से रखते थे। इंग्लिश कमजोर थी, तो किताब अगर इंग्लिश में है, कुक-उक। तो वो एक एक चीज को खाते थे, फिर डिक्शनरी लेते थे हाथ में। डिक्शनरी से उसका मतलब देखते थे, हिंदी में क्या है मतलब। फिर वाई को दौड़ाते थे बाजार कि जाओ ये सामान लेकर आओ, ये मसाला लेकर आओ। तो आप सोचिए कि रवि ऐसे जीवन को जीते थे न जैसे कि ‘इट्स अ बिग होलीडे।’

अच्छा एक जगह आपने लिखा है, अपनी कहानी की रचना प्रक्रिया के बारे में कि मैं तो बहुत व्यवस्थित माहौल में कहानी लिख ही नहीं पाती हूँ, मेरे लिए जब तक बेतरतीब नहीं है, थोड़ा…। मुझसे कहानी नहीं आती है। तो आप उसकी वजह, शायद ये जो कालिया जी ने स्तरीय…।

रवि ने मुझे केऑस (अव्यवस्था) की ऐसी आदत डाल दी कि आज भी मेरा आधा बिस्तर जो है किताबों से भरा रहता है। कॉपी, किताब, कागज–सब मुड़ते रहते हैं यहाँ से वहाँ। क्योंकि मैं बहुत व्यवस्था में नहीं जी सकती, और रवि भी नहीं जी सकते। मैं और लोगों के ड्राइंग रूम देखती हूँ, स्टडी रूम देखती हूँ, अरे क्या तैयारी होती है उनकी। और कितनी व्यवस्थित जीवन से जीते हैं। और मुझे लगता है कि मुझे अगर कोई ऐसे में रख देगा तो मुझे लगेगा कि मैं कोल्डस्टोरेज में पड़ी हूँ।

लेकिन ये बड़ा इंपिरेशनल (प्रभावी) है कि हमारे जैसे जो लोग जिनको लगता है कि माहौल नहीं बन रहा है लिखने का, तो उनके लिए बड़ा इंपिरेशनल है कि अगर आपमें लिखने का हुनर है तो आप किसी भी माहौल में अपनी कहानी को…।

मैं तो किचेन में भी लिख लेती हूँ। जब मेरा मन आ जाए अगर, और मुझे किसी बात पर कभी, कोई बात मुझे क्लिक कर जाए या गुस्सा आ जाए किसी बात पे तो मैं तुरंत पूरा उपन्यास लिख दूँ उसी समय। मन में तो यही रहता और रात को बिजली बंद करने के बाद तो इतने आइडियाज आते हैं कि क्या बताएँ।

अच्छा ममता जी मुझे ये बताएँ कि ‘बेघर’ के इस साल पचास साल हो गए। पचास साल, मतलब इतना बड़ा वक्त है वो कि उस उपन्यास पर मुझे अलग से बात करनी थी, लेकिन मुझे ये बताएँ कि जब आप शुरू कर रही होंगी उपन्यासों को लिखना, या कहानियाँ लिखना, और फिर एक वक्त आता है जब आपको ये यकीन अपने अंदर हो जाता है कि हाँ अब ये काम सध गया है और अब ये काम आगे करना है। तो क्या तब ये सोचा था कि पचास साल तक ये सफर जाएगा और…।

बिल्कुल नहीं, और देखिए ‘बेघर’ लिखने के पीछे तो बिल्कुल प्लानिंग नहीं थी मेरी, जरा भी। ये तो खाली, मैं वहाँ हॉस्टल में रहती थी बॉम्बे में एस.एन.डी.टी. यूनिवर्सिटी के, और रवि इलाहाबाद में संघर्ष कर रहे थे। और रवि एस.टी.डी. कॉल किया करते थे, जो बहुत महँगी होती थी–कभी-कभी करते थे। तो एक बार इन्होंने मुझे कॉल किया, कहा–क्या कर रही हो, कैसी हो। तो मैंने कहा–मेरा मन नहीं लगता बिल्कुल भी। और कहानी लिखती हूँ तो वो एक घंटे में पूरी हो जाती है। तो मैं क्या करूँ। तो उन्होंने कहा–तुम नॉवेल लिखो। उन्होंने ये बला टालने के लिए कहा कि भई नॉवेल लिखो ताकि ये थोड़ा बिजी हो जाए। मैंने नॉवेल शुरू कर दिया ‘बेघर’ लिखना। तब मुझे कोई आयडिया नहीं था कि मैं क्या लिखूँ, मैं तो अपने मनोरंजन के लिए काम कर रही थी। अपना टाइम बीता रही थी मैं। और धीरे-धीरे, जो कैरेक्टर है, जो किरदार है–उसमें परमजीत का। वो परमजीत जो है वो कई इनसानों से मिल के बना है। उसमें थोड़ा सा कालिया है, उसमें थोड़ा सा एक हमारे मिस्टर डैनसन नाम के मित्र थे, जिनकी अचानक मौत हो गई थी। वो पान मसाला खा रहे थे, पान-मसाला मुँह में डाला और तकिये पर लेटे, और उनके गले में फँस गया और वे मर गए। तो परमजीत की जो मृत्यु मैंने दिखाई है अंत में, आकस्मिक एकदम मृत्यु दिखाई है। वो इसीलिए दिखाई है क्योंकि हमलोग के सामने घटित हुई बात है। उन दिनों में रवि भी आए हुए थे वहाँ पर, बंबई आए हुए थे। तो हमलोग उनके घर में थे। हमलोग सब खाना खा के निकले हैं। हमें जाना था गोरेगाँव तो हम चले गए। और पीछे से थोड़ी देर बाद, ये समझिए कि खबर आई कि मिस्टर डैनसन तो मर गए, खत्म हो गए! हमने कहा, क्या हुआ? पता चला, गले में उनके अटक गया, मेन पाइप में अटक गया था पान मसाला! मैं तो बहुत डर गई। और वो मेरे दिमाग में तब कई कैरेक्टर्स मिल गए, और उसमें जो प्रेमी रूप है, मैं एक्चुअली वो रवि का है, जीवन में एक ही प्रेमी मिला है मुझे और वो रवीन्द्र कालिया थे। तो जितने भी प्रेम के प्रसंग उसमें आते हैं, वो आते हैं। लेकिन माइंड सेट है, पुरुष का जो माइंड सेट दिखाया है ‘बेघर’। ये शायद जीवित रवि के भी पचास साल, इसीलिए है…क्योंकि इन पचास सालों में भी पुरुषों का, या युवकों का माइंड सेट नहीं बदला है। चिता के बारे में आज भी उनका वही संदर्भ है, और आज भी उनका वही रोड़ा है उनके जीवन का। वो ये महसूस करते हैं कि लड़की उन्हें जब भी मिले, जिससे उनकी शादी हो, वो लड़की ‘असूर्यम् पश्या हो’। मतलब वो चाहते हैं–एम.ए. हो, पी-एच.डी. हो, नौकरी करती हो, स्मार्ट हो, उनके साथ कहीं जाए तो, कंधे-से-कंधा मिला कर काम करे। जिम्मेदारी पूरी उठाती हो। लेकिन साथ-ही-साथ वो, उसने जीवन में कभी किसी पुरुष को देखा भी न हो, छुआ भी न हो। ये जो यौवन शुचिता का हर्डल है, और जो स्त्री के जीवन का भी बहुत बड़ा हर्डल है कि हर समय अपने को जताना, बताना और पवित्रता को लेकर इतना कठोर मानडंड, ये जो बना हुआ है। और अंतत: ये एक मिथक साबित होता है। क्योंकि जो लड़की आपको टेक्निकली बहुत शुचि मिलेगी, जो पवित्र मिलेगी–वो हो सकता है कि जीवन में, आपकी यात्रा में, आपके सफर में वो बिल्कुल हमसफर न बन पाए। अब रमा से जब शादी उसकी होती है, रमा इतना ठस दिमाग औरत है, वो कुछ भी नहीं समझती। जब के.के. और परमजीत बात करे और वो बीच में जाकर बैठ जाती। वो इतनी फूहड़, वो शक करती है कि, ये इसका पेइंग गेस्ट रहता था तो जरूर इसके साथ कोई इनवॉलमेंट होगा। वो, जब वेटर को टिप करता है उसका पति तो टिप में से पैसे उठा लेती कि ये ज्यादा टिप कर रहा है।

तो आप देखिए कि कितनी ऐसी बातें हैं जिनमें एक पत्नी आपको फेल करती है, अगर आपने खाली टेक्नोलॉजी देखी।

मैम मुझे एक चीज बताइए कि जो ये स्त्रियों से जुड़े हुए प्रश्न हैं, या जो स्त्रियों की स्थिति है हमारे समाज में रही है उसमें तब्दीली चाहने की इच्छा के साथ जो एक्सप्रेशन होता है, कुछ लेखन होता है, खासतौर पर जिसे हम स्त्री विमर्श के तौर पर जानते हैं। अब तो काफी वक्त हो चुका है, जैसे बेघर ही है–पचास साल तो बेघर को हो गए, उससे पहले से एक रिवायत तो शुरू हो गई थी। हम महादेवी वर्मा को देखें, उर्दू में अगर इस्मत, और तमाम जो लिखा गया उस तरह का साहित्य। लेकिन अब तक 2021 तक साहित्य जगत जो है वो सहज क्यों नहीं हो पाया इन प्रश्नों को लेकर, या स्त्री विमर्श संबंधी लेखन को लेकर, या जिस तरह से…। मतलब अभी तक उसको हम एक अलग तरीके के लेखन के तौर पर ही देखते हैं, जबकि होना तो ये चाहिए था कि, चूँकि अब इतना वक्त हो गया और ये सवाल बहुत मजबूती से उठाए जाते रहे, बहुत संवेदना के साथ उठाए जाते रहे तो अब तक तो बिल्कुल ये मेन स्ट्रीम हो जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा क्यों हुआ कि अभी भी बहुत एक बड़ा तबका है जो असहज हो जाता है, जैसे ये ऑफिनिजम की बात करें या स्त्री विमर्श की बात करें तो आप इसे कैसे देखती हैं, इस पूरी स्थिति को?

अब देखिए ये मेरी, काफी चिंता का ये विषय है लेकिन साथ ही साथ बदलाव आ रहा है। अब, जैसे शुरू में आप देखिए ये होता था कि जहाँ भी हम जाते थे वहाँ पर पुरुष-ही-पुरुष नजर आते थे, काम करने वाले। और दफ्तरों में, कॉलेजों में इक्का-दुक्का महिला प्रोफेसर होती थी, या महिला कर्मचारी होती थी। आज कई बार आप जाइए बैंक में, तो आपको लगता है ये महिला शाखा है, इतनी महिलाएँ काम करती हैं वहाँ। हालत ये है कि जिस पैथोलॉजिस्ट के पास मैं जाती हूँ वो भी महिला है, जिस आँख की डॉक्टर के पास मैं जाती हूँ वो भी महिला है, और पोस्ट ऑफिस में जाती हूँ, वहाँ जो मेरा स्पीड पोस्ट करती है वो भी महिला है। आज महिलाओं को कामकाजी जगत में ज्यादा स्पेस मिली है। तो ये जरूर कहेंगे हम कि थोड़ा सा माहौल बदला है पहले से। और पहले जिन क्षेत्रों में, कार्यक्षेत्रों में महिलाएँ नहीं आती थीं आगे, उन सब में आने लगी हैं। अब तो हवाई जहाज भी उड़ाने लगीं। अब तो फाइटर प्लेन में भी जाना चाहती हैं, काम करना चाहती हैं। तो यो देखा जाए तो कामकाजी जगत में स्त्रियों का कोटा बढ़ा है। और वो आपको नजर आ रही हैं, ‘दे आर विजवल।’

वो जो लेखन में भी, जिस तरह से एक बहुत बड़ा वर्ग है जो इस बात को सहजता से समझ ही नहीं पाता है कि अगर स्त्रियाँ अपने issues(मुद्दे) को लिख रही हैं, या अपनी बात कह रही हैं तो इसका स्वागत होना चाहिए। या इसको उसी तरह से, संजीदगी से देखा-समझा जाना चाहिए जिस तरह से और दूसरी तरह के लेखन को हम देखते हैं, तो वो साहित्य का जो पूरा मामला था जिसमें…बहुत सारे लोग स्त्री विमर्श सुनते ही किसी तरह से असहज हो जाते हैं तो उसमें किस चीज…?

देखिए थोड़ा सा गलत काम ये हुआ है, कि हमारे यहाँ स्त्री विमर्श को भी हमलोग ने पश्चिम की तरफ से आयातित करने की कोशिश की है। जब तक स्त्री विमर्श वैचारिक था, सुभद्रा कुमारी चौहान और महादेवी वर्मा जैसी लेखिकाओं के बीच में और उनके विचारों के बीच में जब तक स्त्री विमर्श था, उन्होंने तो भई 1942 में कह दिया था कि स्त्री को शिक्षित होना चाहिए, और बिना आर्थिक स्वतंत्रता के स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं होता। तो आप ये देखिए कि जब इतनी पहले हमने ये संघर्ष शुरू किया था, और हम उसे पश्चिम की तरफ ले गए, हम उसे कपड़ों से सोचने लगे, संबद्ध करने लगे विमर्श को। हम उसको अपने जीवन-शैली से करने लगे, हम उसको यौन स्वातंत्र्य से करने लगे। ये सारी चीजें मुझे लगता है कि हमारे समाज के लिए थोड़ी सी अपरिचित चीजें हैं। इनको स्वीकार कर लेने में स्त्री की ही दुर्गति ज्यादा है। और कई पत्रिकाओं ने ये काम किया कि उन्होंने अपने सर्कुलेशन को बढ़ाने के लिए स्त्री को बताया कि तुम और स्वतंत्र हो कर कहानी लिखो। अपनी देह का इस्तेमाल करना सीखो, और तुम अपने आप को बिल्कुल ये समझो कि तुम निर्द्वंद्व हो, तुम्हारे ऊपर किसी भी किस्म की बाधा नहीं है। और देखिए उसमें क्या होता है, ये जो बेचारी भोली-भाली लेखिका हैं वो उसमें फँस गईं। हमलोग कभी नहीं फँसे उस चीज में। और वो लेखिका, कई लेखिकाएँ ऐसी हैं, और कई लोगों को ये है कि ये एक बड़ा अच्छा बाजार का फार्मूला मिल गया। तो स्त्री विमर्श के नाम से अब िबदकते हैं लोग। वो इसलिए बिदकते हैं, क्योंकि स्त्री विमर्श को थोड़ा तो बाजार ने ऑक्यूपाय कर लिया और थोड़ा कुछ चालाक लेखिकाओं और लेखकों ने ऑक्यूपाय कर लिया।

मुझे एक चीज याद आई कि बात हमने, आखिर के कुछ मिनट बचे हैं लेकिन वो आपके गद्य से तो हम परिचित हुए, कविता पर बात हुई, लेकिन अगर कविता नहीं सुनी गई तो बात मुक्कमल होगी नहीं। मुझे एक तो मेरी प्रिय कविता जो मैंने आपसे कहा था ‘अपरिचित से प्रेम’, वो अगर आप सुना सकें, कुछ कविताएँ और भी अगर आप सुना सकें?

देखिए कविता से रिलीफ मिलता है सुनने वाले को, ‘अपरिचित से प्रेम’ कविता मैं सुनाऊँगी–

‘सबसे पहले तो बताओ अपना नाम
फिर मोहल्ला, कहाँ रहते तो, क्या करते हो
रोज सबेरे इकत्तीस नबंर की बस से
कहाँ जाते हो
और अक्सर चाय की
उस रद्दी सी दुकान पर
क्यों खड़े रहते हो
तुम्हारे बारे में
बहुत कुछ जानने की इच्छा है
तुम्हें शहर की
कौन सी सड़कें पसंद हैं
क्या वो जो अक्सर वीरान रहती हैं
या वो जहाँ भीड़-भाड़ रहती है
तुम कौन सा अखबार पढ़ते हो
कौन सी पत्रिकाएँ
खाली समय में क्या पसंद करते हो
सोना, उदास रहना या ठहाके लगाना
तुम कौन सी सिगरेट पीते हो
किस साबुन से नहाते हो
अपने बाल इतने अस्त-व्यस्त और रूखे
जानबूझकर रखते हो
या तुमसे सँभलते नहीं
तुम्हें कौन सा नेता पसंद है
और कौन सा अभिनेता
अभिनेत्रियों के बारे में
तुम्हारी क्या राय है
बोर दूर्दरशन से
बचने का तुम्हारे पास क्या उपाय है
प्रेमचंद के अलावा
कौन रचनाकार तुम्हें अच्छा लगता है
क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता
समकालीन लेखन में
बेहद एक रास्ता है
इसके अलावा तुम्हारे बारे में
कितना कुछ जानना चाहती हूँ
अभी तुम मेरे लिए मात्र जिज्ञासा हो
अकंठ जिज्ञासा
फिर तुम आश्चर्य में बदल जाओगे
सातवाँ, आठवाँ या दसवाँ नहीं
मेरे लिए मेरा पहला पावन आश्चर्य
न जाने क्यों मुझे लगता है
तुम्हारी और मेरी रुचियाँ
जरूर मिलती होंगी
तुम्हें भी, आपसी तालुक्क में
बहुत जल्द खरोच लगती होगी
तुम्हें भी छोटी-छोटी बातें
बेवजह खुशी देती होंगी
और उससे भी छोटी-छोटी बातों पर
तुम तुनक जाते होगे
तुम भी अकेले में अपने से
खूब बोलते होगे
लेकिन भीड़ भाड़ में
बाहर का रास्ता टटोलते होगे
पता नहीं क्यों मुझे लगता है
तुम मेरे अनुमानों से भी ज्यादा
अच्छे हो!’

वाह, वाह क्या बात है, क्या बात है, और भी कोई कविता अगर आप सुनाना चाहें, और एक प्रश्न भी ऑडियंस की तरफ से आया है वो भी मैं पूछ लूँगा आपसे?

किसी भी कविता लिखने के मेरे पास दो मोमेंट्स होते हैं, एक आकर्षण का मोमेंट होता है–प्रेम, आकर्षण और कोमल भावनाओं का। और एक मोमेंट होता है–तल्खी का, तेवर का, असंतोष का। तो मैं दोनों को ही बता देना चाहती हूँ। ये तो प्रेम कविता हो गई। एक कविता मैं आपको बताना चाहती हूँ जो, कविता का शीर्षक ही है–‘गुस्सा’।

‘उसने हैरानी से मुझे देखा
मैं तो मजाक कर रहा था
तुम इतनी नाराज क्यों हो गई
मैं उसे कैसे बताती
ये गुस्सा आज और अभी का नहीं
इसमें बहुतों पुराना गुस्सा भी शामिल है
एक सन् 83 का, एक 93 का
एक दो हजार दो का
और एक ये आज का।’

वाह, क्या बात है, मैम ये एक सवाल आया है–ऑडियंस की तरफ से, ये पूर्णिमा शर्मा जी का सवाल है कि आज कल आप क्या लिख रही हैं?

वो, आज कल तो मैं बहुत काम कर रही हूँ। अभी मैंने दो कहानियाँ लिखी हैं, और आज कल मैं बताऊँ हिमांशु क्या है–आज कल मेरा दिमाग, मैंने कभी नहीं लिखा इसके बारे में। आज कल मेरा दिमाग जा रहा है अपनी माँ के तरफ वाली, जीवन और समस्याओं की तरफ जा रहा है। मेरी माँ एबटाबाद की थीं, अब वो पाकिस्तान में है। वो नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर वेस्ट में उनका जन्म हुआ था, वहीं वो रही हैं। और वो तो शादी हो गई, मथुरा आ गईं वो, मेरे पापा से उनकी शादी जब हुई। चरखेतो अग्रवाल मेरे नाना जो थे वो मिलिट्री कॉन्ट्रेक्टर थे। तो वहाँ रहते थे एबटाबाद में, छावनी है एबटाबाद में। तो वो मेरे दिमाग में आज कल बहुत सारी ऐसी बातें आ रही हैं, और हो सकता है कि मैं एक उपन्यास लिख दूँ। और उपन्यास, मैं…नेचुरली बाद में तो अन्य बातें आएँगी, क्योंकि मेरे पापा भी बड़े अलबेले किस्म के व्यक्ति थे। मैं दो अलबेले लोगों के साथ रही हूँ। मतलब एकतरफ पापा, उसके बाद रवि। तो दोनों ही मुझे अलबेले लोग मिले एकदम। तो पापा भी बड़े विलक्ल थे, और वो चीजों को ये था कि किताबों से उन्होंने हमें जीवन दिखाया है, लोग ये होता है कि जीवन से किताबों की ओर जाते हैं, पापा किताबों से जीवन की ओर जाते थे। वो बिल्कुल एक अलग किस्म का जीवन था हमारा। तो मैं थोड़ा सा एबटाबाद वाला जीवन और उसके बाद मथुरा में कैसे सेटल हुए हमारे माँ के परिवार के लोग आकर, क्योंकि बिल्कुल अलग था, वहाँ तो ये समझिए कि वे लोग चिलगोजे खाया करते थे, सेब खाया करते थे और फलों एवं मेवों के संसार में जीते थे और मथुरा में आए, तो कचौड़ी, जलेबी और पेड़े–ये सब यहाँ पर है। तो उनका जीवन एकदम बदल गया, और वो च्वाइस कोई नहीं थी, क्योंकि पार्टीशन हो गया था तो वहाँ का सारा मकान-दुकान छोड़कर आना पड़ा यहाँ पर। तो ये सारी भी दिमाग में आज कल, क्योंकि उनके लिए भी उस जीवन में सफलता पाना बहुत आसान काम नहीं था। लेकिन जीवन में सफल होना भी एक चुनौती होता है। और उस चुनौती को कई लोग जो है न बीच में फेल कर जाते हैं। ड्रॉप आउट हो जाते हैं। और कई लोग मंजिल तक जाते हैं। और उसी सफर में कई बार हमलोग इतने थक जाते हैं कि दम तोड़ देते हैं।

बहुत शुक्रिया मैम! बहुत मजा आया और इतनी सहज तरह से आप बात कर रही थीं कि मन करता है और बात करूँ!

मेरा ‘नई धारा’ को, शिवनारायण जी को, सबको नमस्कार!

मैम बहुत शुक्रिया और फिर आपसे बात करेंगे कभी, आज आपने वक्त निकाला, नई धारा संवाद में शामिल हुईं, आपका बहुत-बहुत शुक्रिया!

नमस्ते, शुक्रिया! 


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