नई धारा संवाद : प्रसिद्ध कथाकार गीतांजलि श्री

नई धारा संवाद : प्रसिद्ध कथाकार गीतांजलि श्री

साहित्य में कोई मानक प्रकार नहीं होता

हिंदी की चर्चित लेखिका गीतांजलि श्री के पाँच उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें पहला उपन्यास थामाई’, ‘तिरोहित’, ‘खाली जगहऔर उनका सबसे नया उपन्यास, जो बहुत चर्चित भी हो रहा है। और जिसके अनुवाद को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला, ‘रेत समाधि इसके अलावा उनके पाँच कहानी संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। यहाँ हम गीतांजलि श्री से युवा लेखक मिहिर पंड्या की बातचीत के प्रमुख अंश प्रकाशित कर रहे हैं। संपादक

बातचीत की शुरुआत करें उससे पहले मैं आपके उस स्पीच को याद करना चाहता हूँ जो आपने बुकर सम्मान के सम्मेलन में दी थी, और मुझे एक बात उसमें बहुत ख़ास लगी जिसको मुझे लगता है–हमको, सभी लोगों को बार-बार रेखांकित करना चाहिए। आपने कहा कि ये केवल हिंदी का सम्मान नहीं है, ये तमाम भारतीय भाषाओं का सम्मान है। वो जमीन केवल हिंदी भाषा की नहीं है, वो जमीन तमाम भारतीय भाषाओं से, उसकी संस्कृति से, उसके इतिहास से मिलकर बनी है। तो जब आप एक रचनाकार के तौर पर लिखना शुरू कर रही थीं या मैं थोड़ा सा पीछे जाऊँ तो शायद एक रचनाकार अपनी जमीन, अपनी भाषा चुन रहा था, तो कैसे एक…आपने हिंदी भाषा चुनी! और उस हिंदी भाषा के अंदर जो बाकी भाषाओं की, बाकी संस्कृतियों की हिस्सेदारी है, वो कैसे बनती है? अगर यहाँ की बात शुरू की जाए? 

आपने बिल्कुल सही बात कही कि ये पल अकेले मेरा नहीं है, कभी नहीं, पहले दिन से, पहले पल से मैं जानती हूँ कि ये पल अकेले मेरा नहीं है। ये हम सबका मिलकर पल बना है और मैं ही बहुत सी चीज़ें मिली हैं तभी बन पाई हूँ। मेरा जो समृद्ध साहित्य संसार मेरे चारों ओर है वह है तभी मेरी भी कृति वहाँ पर उठ पाई है। तो इसको मैं बिल्कुल…ये एक ऋण है, जो मैं किसी भी तरह से इसको भूल नहीं सकती हूँ। ये खुशनसीबी मेरी कि मैं इसका निमित्त बनी, लेकिन मैं जानती हूँ कि ये बहुतों का किया हुआ, बहुतों का बनाया हुआ पल है। मैं इसमें बीच में चमकी, लेकिन हम सब को साथ-साथ इसमें अपनी शिरकत माननी चाहिए और इसमें मुझे ये बात…दोहराना चाहती हूँ। मैंने पहले कही है–जो साउथ अमेरिका के गेब्रियल गार्सिया मार्ख़ेस के साथ हुआ। आप याद करिए कि जब उन्हें नोबेल प्राइस मिला था तो एकदम से दुनिया की नज़र गई कि अच्छा साउथ अमेरिका के एक लेखक को ये इनाम मिला है, पुरस्कार मिला है। और उसके बाद सबको समझ में आया कि एक पूरा, बहुत विशाल, वहाँ बहुत से देश हैं जहाँ का साहित्य किसी को ठीक से पता ही नहीं है, कि एक पूरा संसार है जो अब उनके सामने खुला है। और अगले दिनों में यही हुआ कि लोगों ने दक्षिण अमरीकी साहित्य को जाना और उसको बहुत शोहरत मिली, और समझ में आया दुनिया को कि वहाँ कितनी कमाल की चीज़ें हो रही हैं। और लोगों ने कहा कि हमने तो एक गार्सिया मार्ख़ेस के बारे में सुना, यहाँ तो गार्सिया मार्ख़ेस भरे पड़े हैं! तो मुझे लगता है कि ये उसी तरह की एक बात है और मैं उम्मीद करूँगी कि जब हमारा ये संसार खुला है बाकी दुनिया के आगे तो बाकी दुनिया को भी मौका मिलेगा ये जानने का कि यहाँ क्या-क्या नहीं है। 

ये हमारी आज़ादी का 75वाँ साल है और आज़ादी का उत्सव मनाते हुए हमें हमेशा ये भी याद रखना चाहिए कि आज़ादी के साथ में एक और चीज़ है जिसके 75 साल पूरे हो रहे हैं वो है भारत का बँटवारा। और उस बँटवारे को हमारे समाज में, हमारी सभ्यता में या हमारी पूरे साहित्य में, साहित्य से बाहर अन्य कलाओं में भी, जिस तरह से अलग-अलग तरह से अभिव्यक्ति में देखा गया है, ‘रेत समाधि’ भी, मुझे लगता है उस परंपरा में उसे रख कर देखा जाना चाहिए या देखा जा रहा है। और बँटवारे पर जिस तरह से लिखा गया, अगर मैं हिंदी साहित्य तक अपनी बात सीमित रखूँ। ये एक आरोप हिंदी साहित्य के ऊपर लगाया गया, मुझे पता नहीं कितना ठीक है या नहीं कि बँटवारे के फौरन बाद हिंदी साहित्य ने शायद उसकी भीषणता को उस तरह से संबोधित नहीं किया, जिस तरह से शायद पंजाबी साहित्य ने किया, या जिस तरह से शायद बांग्ला ने या उर्दू ने किया। और शायद इसकी वजह भी रही होगी कि हिंदी साहित्य सीधे बँटवारे से उस तरह प्रभावित नहीं हुआ जिस तरह पंजाब या बंगाल प्रभावित हुए। लेकिन बँटवारे के ऊपर लिखी गई रचनाओं का एक पूरा लंबा ज़खीरा हमारे पास में है। उसमें ‘तमस’ जैसी रचनाएँ शामिल है, उसमें ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ जैसी रचनाएँ शामिल है। ‘रेत समाधि’ को अगर आप देखें और अगर मैं ‘रेत समाधि’ के बारे में ये कहूँ कि ये भी बँटवारे को देखने की एक कोशिश है, लेकिन बँटवारे को देखने की एक ऐसी कोशिश है जिसको हम स्त्री नज़र से देखी गई कोशिश कह सकते हैं। और ये बँटवारे तक सीमित नहीं रहती है, बँटवारे के पीछे के उन कारणों के ऊपर भी सवाल उठाती है जो शायद उस पूरी राष्ट्रराज की परियोजना से जुड़ते हैं। जो राष्ट्रराज की परियोजना पिछले दो सौ-ढाई सौ सालों में एक मुख्यधारा की परियोजना बन गई है, तो मैं ‘रेत समाधि’ के ही उल्लेख से अगर जिक्र करूँ, ‘रेत समाधि’ में एक बहुत दिलचस्प किस्सा है–जहाँ पर वाघा बॉर्डर के ऊपर वो एक प्रदर्शनकारी किस्म का आदान-प्रदान हो रहा है और वहाँ पर आप बहुत सारे लेखकों को, बहुत सारे कलाकारों को उस दृश्य में प्लेस करती हैं। उसमें कई काल्पनिक किरदार भी हैं, मतलब फिक्शनल किरदार जैसे टोबा टेक सिंह। उसमें कई लेखक खुद मौजूद हैं, जिन्होंने बँटवारे को भोगा भी और उसके ऊपर लिखा भी! तो ये जो पूरी कल्पना है, और इसको अगर मैं इस तरह पढ़ूँ कि ये उस पूरे बँटवारे के ऊपर लिखे गए साहित्य की परंपरा से, कलाओं में बँटवारा किस तरह से आता है और किस तरह से हमारे समाज का जो ये पिछला 75 साल है उसमें मैं केवल भारत का नहीं पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के 75 साल, उन पर बँटवारे की छाया कैसे पड़ती है। उसको कहीं ये उपन्यास…समझने की कोशिश कर रहा हूँ या उसको कहीं उपन्यास अपनी तरह से बखान करने की कोशिश कर रहा है। तो इसको आप, इस टिप्पणी पर आप क्या कहेंगी, इसे आप कैसे देखेंगी? 

आप बहुत ज्यादा चीज़ें एक साथ जोड़ रहे हैं तो उससे मैं भी कहीं-न-कहीं खो जाती हूँ। कुछ चीज़ें रह जाती हैं, मैं फिर भी कोशिश करूँगी कि इनमें से कुछ बातें उठाऊँ, उनका जिक्र करूँ।

देखिए पहली बात जो आपने कहा कि कहा जाता है कि हिंदी में बँटवारे को लेकर चीज़ें उस तरह से नहीं आईं जैसे पंजाबी में आईं या आपने शायद कहा कि उर्दू में आईं। एक तो उर्दू को आपने उस तरह से अलग किया मुझे तो उसी से ऐतराज है। दूसरी बात ये है इनको आप, पंजाबी को भी आप अलग नहीं कर सकते! आप, जो बात समझने वाली है वो है कि साहित्य कोई फौरी चीज़ नहीं है। तो आप ऐसी कोई माँग और अपेक्षा उससे नहीं कर सकते हैं कि अभी कुछ हुआ और फौरन वो साहित्य में उतर आए! वो तरह-तरह से साहित्य में उतरेगा और वो अपनी अवधि चुनेगा, और वो लंबे काल तक उसमें उतरता रहेगा। तो बहुत सी चीज़ें…आपने भीष्म साहनी का तो जिक्र किया, आपने राही मासूम रज़ा का नहीं किया, वो तो उनके पहले थे! आपने इंतिज़ार हुसैन, आपने उनको तो उर्दू में डाल दिया पर वो भी…वो सब एक मिली-जुली सभ्यता का ही हिस्सा है। तो मिला-जुला अनुभव है ये पूरे क्षेत्र का। और आप पाएँगे, यशपाल हैं उसमें, तो आप…हम ये नहीं कह सकते हैं कि यहाँ पर तो देर में हुआ–वहाँ पर तो जल्दी हुआ। कोई और अपने दुख में चुप बैठे, और फिर धीरे-धीरे बात निकली, उनकी चीज़ शायद थोड़ी देर में निकली। तो मुझे लगता है कि इस तरह की तुलना शायद हमें गलत रास्ते पर ले जाएगी और हम कुछ गलतफहमियाँ ही पैदा कर देंगे। मुझे नहीं लगता कि हिंदी में इसको लेकर कम कुछ कहा गया है। बहुत ही बढ़िया चीज़ें लिखी गई हैं, संवेदनशील चीज़ें लिखी गई हैं। कृष्ण बलदेव वैद भी मुझे याद आ रहे हैं, बहुत लोग हैं–हमारे वक्त तक आते-आते तो बहुत ही लोग हैं, लेकिन देखिए ये इतनी बड़ी त्रासदी थी कि ये समझना, कि फौरन इसके बारे में लिखा भी जा सकता है–यही गलत है। आपको इसको अपने भीतर कहीं पर आत्मसात करना पड़ता है, उसके संग रहना पड़ता है। शायद आप बहुत दिनों तक उसमें से बहुत सी चीज़ों को से रू-बरू नहीं हो पाते हैं, होते-होते होते हैं, होते-होते उस लायक बन पाते हैं कि आप कुछ चीज़ें कहें, तो ये सब अलग-अलग स्तर पर चलेगा और अलग-अलग साहित्यिक कृतियाँ आएँगी और आती रही हैं। 

और आप ‘रेत समाधि’ की बात करें, तो एक तो मैं कहना चाहूँगी कि इसको उस तरह का पार्टिशन नॉवेल मत बताइए। मेरे हिसाब से ये हिंदुस्तान-पाकिस्तान बँटवारे का नॉवेल नहीं है या अकेले उसका नहीं है। ये नॉवेल बनते-बनते बँटवारों का नॉवेल तो जरूर हो गया है–तरह-तरह के बँटवारों का। इस नॉवेल में तरह-तरह के जो दरार पड़ रहे हैं हमारी विचारधारा में, लोगों के बीच, प्रकृति और हमारे बीच इत्यादि, वो तरह-तरह की जो बँटवारे आप बोलिए आ रहे हैं, सरहदें जो खींच रही हैं, दरार जो पड़ रहे हैं उनके बारे में ये नॉवेल बनता चला गया है, और जहाँ तक हिंदुस्तान-पाकिस्तान की बात है–हिंदुस्तान-पाकिस्तान की बात, 1947 और 1948 में खतम नहीं हुई, असल में तो ये चल ही रही है, हम सब जानते हैं। और नए-नए रास्तों से जिनमें कि कुछ बहुत ही दुखदाई हैं, नए-नए हिंसक रास्तों से, जुझारूपन के साथ वो चीज़ें हम सब में जिंदा हैं। जैसे मुझसे लोग बहुत बार बोलते हैं कि आपने इस पर लिखा तो क्या आपका कोई सीधा, आपका या आपके परिवार में किसी का ऐसा कोई सीधा अनुभव था बँटवारे को लेकर! असल बात है कि मेरे परिवार में किसी का ये अनुभव नहीं है और मेरा तो नहीं ही है। फिर भी मैं कहूँगी कि इसके जो तरह-तरह के अनुभव हैं बँटवारे को लेकर, वो उसके संग हम उत्तर भारत में जीते रहे हैं। जिनका खुद वैयक्तिक स्तर पर उनका न रहा हो अनुभव, वो भी उसके संग जिए हैं। और एक तरह से दूसरे की जो स्मृतियाँ हैं, वो हमें भी गई हैं और वो स्मृति हमारी भी बन गई है। एक सामूहिक स्मृति बनी है। तो इसलिए बँटवारा हमारे लिए जो तब हुआ था वो भी बिल्कुल असल है और जो वो चलता रहा है, और जिसमें वो तरह-तरह की और बातें और राजनीति और दुखदाई क्षण बनते चले गए हैं–वो भी हमारे अनुभव क्षेत्र का हिस्सा आज तक है। उसका ‘रेत समाधि’ में आना जरा भी मेरे लिए हैरतअंगेज बात नहीं है। क्योंकि ये तो बिल्कुल आज का अनुभव है। 

बिल्कुल, आपने मुझे ठीक किया और सही ठीक किया कि ये केवल भारत-पाकिस्तान के बँटवारे के बारे में नहीं, ये उपन्यास हर तरह के बँटवारे के बारे में है। स्वयं प्रकाश की कहानी याद आ रही है, ‘पार्टीशन’ नाम से, लेकिन वो भी एक ऐसे पार्टीशन के बारे में जो हमारे समाज में रोज घट रहा है, अलग-अलग तरह से घट रहा है। और मैं अगर ‘रेत समाधि’ से बाहर निकलूँ तो आपकी पुरानी रचनाओं में भी, शुरुआती रचनाओं से ही अगर मैं देख रहा हूँ, तो ये जो एक…बीच में खींची जाने वाली रेखा, जो us versus they, हम और वे, इस या उस–पहचान में लोगों को बाँटती है, वो रेखा किसी भी चीज़ की हो सकती है, वो रेखा धर्म की हो सकती है! कई बार वो रेखा नए और पुराने के बीच हो सकती है। कई बार वो रेखा आधुनिकता और पुरातन के बीच हो सकती है, कई बार जैसे आपने कहा–प्रकृति और इनसान के बीच हो सकती है। ये मैं आपकी कहानी पढ़ रहा था–वहाँ हाथी रहते हैं, जिसकी शुरुआत इसी से होती है कि शहर के दो हिस्से थे। हम, और जो ये हैं वो उनको सोचकर डरते थे और जो वो हैं इनको सोचते रहते थे। और बहुत, शायद बहुत सोच-समझकर आपने वहाँ पर कोई आईडेंटिटीज का नाम नहीं लिया है। आप इसी भाषा में बात कर रही हैं–ये और वो। तो ये जो पूरा सोचने का तरीका है, जो कि हमारे समाज में शायद बढ़ता जा रहा है। इसमें हम, हम और वे में चीज़ों को बाँट कर देखने लगे हैं। क्या आप साहित्य में…या, केवल आप ही नहीं मतलब पूरा साहित्य, कहीं इस रेखा खींचे जाने के खिलाफ खड़ा आपको दिखता है या साहित्य की एक ये भी भूमिका है कि वो इन रेखाओं की तरफ इशारा करे, शायद लोगों का ध्यान दिलाए कि ये रेखाएँ जो लगातार खींचीं जा रही हैं इनके ऊपर सवाल खड़ा करे! 

देखिए, साहित्य वो तो कर ही रहा है, लेकिन ये समझना कि वो किसी विचारधारा के तहत इसको कर रहा है और इसका कोई अस्तित्व नहीं है या इसकी कोई सार्थकता नहीं–ये बात गलत होगी। ये तो हमारे, हम जिस जमीन पर खड़े हैं वहाँ पर अभी इसी तरह की मिली-जुली संस्कृति है। हम और अन्य तो हमने बनाया है, वे और हम–इसमें कुछ भी नैचुरल नहीं है, ये स्वाभाविक नहीं है कि ये तो है ही ऐसा। बल्कि मेरे बचपन से लेकर आज तक चीज़ें बदली हैं, मेरे बचपन में जो हिंदुस्तान-पाकिस्तान बँटवारे के फौरन बाद का है। उस समय इतने हम और वे वाली स्थिति नहीं थी, जितनी कि आज हो गई है! तो ये चीज़ बिल्कुल हमारे जीवन का हिस्सा है, और साहित्यकार जो है हम सब लोग हैं। साहित्यकार कोई अलग जीव नहीं है, वो वही इनसान है जो इस समाज में रहते हैं! बस फरक ये है कि साहित्यकार अपने अनुभव को शब्दों में डाल कर दूसरों के आगे, पाठक के आगे रखते हैं। तो जाहिर है कि वो जो उनके लिए बिल्कुल स्वाभाविक है, जिसमें कि बँटवारा नहीं है! वो बात है, वो जाहिर है उसको सामने रखेंगे तो आप पाएँगे कि साहित्यकारों ने बहुत ही सहज-सरल तरह से इस बात को सामने किया है और स्वीकारा है। उनके लिए इस तरह के बँटवारे नहीं हैं अभी तक! 

असल बात है कि ये किसी विचारधारा के तहत कोई नारेबाजी के लिए नहीं हो रहा है। हम देख रहे हैं–मैं भाषा में देखती हूँ, लोग कहते हैं कि नहीं ये भाषा इधर की, ये भाषा उधर की। लेकिन आप लोगों को सुनिए और आमजन को सुनिए तो भाषा बिल्कुल मिली-जुली है। और साहित्य में वो मिली-जुली भाषा चलती है, हम सब उसे…वही है हमारी अभिव्यक्ति का तरीका और हम उसको उसी में अपने को व्यक्त करते हैं। 

‘रेत समाधि’ की भाषा की बहुत चर्चा हुई! मैं उपन्यास पढ़ते हुए ये महसूस कर रहा था कि आप एक तरह से आप भाषा को जैसे चाहती हैं वैसे इस्तेमाल करा ले रही हैं। मतलब जो आपकी अभिव्यक्ति है उसके अनुसार भाषा को किसी भी तरह से तोड़ा या मरोड़ा जा सकता है, और इसमें कई बहुत दिलचस्प प्रयोग निकल कर आते हैं। जैसे अँग्रेज़ी, हिंदी, उर्दू, कई क्षेत्रीय बोलियाँ जो हिंदी का हिस्सा है। उन सब में चीज़ें ऐसे आगे बढ़ रही हैं कि वो उनके बीच में रेखा खींचना बहुत मुश्किल है। तो जब एक रचनाकार अपनी भाषा चुनता है, अपनी रचना की भाषा चुनता है या आप जब ‘रेत समाधि’ की भाषा चुन रही थीं, तो ये कथा के किरदारों के साथ में भाषा बनती है, या उपन्यासकार उसके अंदर अपनी अभिव्यक्ति को कैसे सामने ला रहा है, उससे भाषा चुनता है या कई बार थोड़ा सा खेल भी होता है जिसको उपन्यासकार भाषा के साथ में करता है, मुझे थोड़ा सा इस प्रक्रिया के बारे में बताइए? 

देखिए, तीनों बातें हैं इसमें। आपने खेल कहा, आपने कहा कि ऐसी घुली-मिली होती हैं भाषाएँ और तीसरी बात है आज का जो संसार है; तो ये तीनों बातें यहाँ पर हैं कि आज का संसार बहुत खुल गया है, हमारा देश भी बहुत खुल गया है, हमारे आपस में भले ही दरारें भी बढ़ी हों लेकिन आदान-प्रदान भी कहीं पहले से ज्यादा है। जो लोग अपने-अपने खेमों में और कोणों में छिपे बैठे थे वो भी निकल कर आए हैं, औरतें निकलकर आई हैं, तथाकथित आदिवासी निकल कर आए हैं, दलित लोग निकल कर आए हैं, अलग-अलग क्षेत्रों से लोग निकले हैं! तो सब अपनी बोलियाँ और भाषा लेकर आए हैं, उसके जितने अलग-अलग अंदाज़ हैं और तेवर है उसको लाए हैं। तो ये सब एक साहित्यकार को मिलता है, ये उसके लिए एक उपलब्धि है कि वो ये सब सुन पाए और इनको इस्तेमाल कर पाए! और सच ये है कि देखिए भाषा का कोई…साहित्य में तो ख़ासकर कोई मानक प्रकार नहीं होता है कि ये जो है इस भाषा में होना है। तो हम तो उस भाषा में लिख रहे हैं जो कि हर तरफ पनप रही है और हमारे भीतर पनप रही है, और आपने खेल की बात कही तो मैं समझती हूँ ये बहुत आपने एक…जिसको मैं कहूँगी ये बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है, कि लोग भूल जाते हैं कि कला और साहित्य में खेल भी होता है। और खेल का मतलब किसी भी तरह का तिरस्कार नहीं होता है। अगर एक शिल्पकार को मूर्ति बनानी होती है तो मिट्टी से उसको खेलना पड़ता है, तो मिट्टी से वो खेलने में तरह-तरह से उसको बना सकते हैं, वो जो मिट्टी का लचीलापन उससे वो उसका आनंद लेते हैं और उसमें जितनी गुंजाइश है उसको वो आजमाते हैं। तो आप ये समझिए कि साहित्यकार के लिए शब्द और भाषा मिट्टी है। वो वाली मिट्टी है जिसको वो बहुत ही भक्ति से, बहुत ही प्यार से लेकिन थोड़ा उसमें एक क्रीड़ा भी होती है। वो आनंद ले-लेकर उससे कुछ बनाते हैं, वो एक भाषा की इमारत खड़ी करते हैं और उसका जो लचीलापन है उनको ये रास्ते देता है कि उससे वो तरह-तरह की…इमारत में तरह-तरह के अंदाज़, तरह-तरह के गुंबद और खंभे…और जो भी चीज़ें हैं वो बना पाए। मैं समझती हूँ कि ये तो भाषा का कमाल है जो साहित्यकार समझता है या समझती हैं! ये साहित्यकार का कमाल नहीं है, ये भाषा में ही ये कमाल है, भाषा ही आपके सामने इतनी बड़ी, इतनी विशाल और विस्तृत और प्रभावशाली है कि आप खुद, आप उससे खेलते-खेलते वो खुद आपको तरह-तरह के खेल सुझा देती है! शायद आपसे खेलती है और रास्ते निकालती है, और एक जोरदार भाषा शायद क़ायम हो पाती है। 

आपने खेल की बात की और आपने कहा कि बिल्कुल वो एक बहुत आनंददायक प्रक्रिया है जो कि एक लेखक…जिसमें अपनी, एक तरह से अपनी भक्ति भी प्रकट कर रहा है उस रचना प्रक्रिया के प्रति। आपकी रचनाओं में अगर देखें, या मैं शुरुआती कहानियाँ पढ़ रहा था, या इवन ‘माई’ से आप ‘रेत समाधि’ तक की जो यात्रा है। भाषा का ये खेल, मुझे लगता है थोड़ा सा बढ़ता गया है, और मैं इसको ऐसे देखना चाहूँगा कि शायद…आप मुझे बताइए कि मैं ठीक हूँ या नहीं हूँ; आप अपने पाठक के प्रति या जो भी एक संभावित पाठक हो सकता है…पता नहीं वो लिखते हुए निगाह में होता है या नहीं, आप और ज्यादा कॉन्फिडेंट होती गई हैं, मतलब लेखक जो है वो, उस पर विश्वास…उसका अपने पाठक पर जो विश्वास बढ़ता जाता है तो वो और ज्यादा खेल कर सकता है। तो मुझे ऐसा लगता है कि आप अपने पाठक के प्रति और विश्वास से भरती गईं और इस वजह से वो रचनाओं के अंदर एक…जिसको खेल हम कह रहे हैं। वो ‘रेत समाधि’ में शायद ‘माई’ के मुकाबले थोड़ा बढ़ के दिखता है और अपने पूरे, समूचे रंग-रूप में सामने आता है या आप बहुत ज्यादा कॉन्फिडेंट महसूस करती हैं अपने आपको! कि मैं कर रही हूँ, मेरा पाठक समझ लेगा! तो कहीं इस उपन्यास को लिखते हुए मन में भाव था कि ये करके देखते हैं। पढ़ने वाला कोई होगा जो समझ लेगा। या ये डर था कि ये प्रयोग इस लाइन से आगे न जाएँ, पता नहीं कोई समझेगा या नहीं! 

देखिए रचना-प्रक्रिया की एक मूल बात है जो आपलोगों को किसी को नहीं भूलनी चाहिए कि जिस समय हम रचना कर रहे हैं, रचना की कोशिश में लगे हुए हैं, उस समय हम बिलकुल अकेले होते हैं, और उस समय कोई और पाठक हमारे सामने नहीं होता है, क्योंकि कोई और पाठक होगा तो वो हमको तरह-तरह से हमारे हाथ को रोकेगा और हमें बताएगा कि हाँ इसको बोलो, इसको न बोलो–इसको ऐसे लिखो, इसको वैसे लिखो। अरे ये हो रहा है, वो हो रहा है, तो पाठक…हमें खुद अपना पाठक बनना पड़ता है उस समय। तो उस समय तो बस मैं हूँ और मेरा, जो भी मेरी कोशिश है वो है और हम दोनों के बीच में संवाद है। 

आत्मविश्वास का मतलब ये नहीं होता है कि आपको जरा भी संदेह नहीं रहा कि हम असफल हो सकते हैं, ये नहीं है। आत्मविश्वास का ये मतलब नहीं है, आत्मविश्वास का मतलब शायद अपनी सच्चाई और अपनी निष्ठा पर विश्वास है! तो मुझे ये मालूम है कि मैं जो कोशिश कर रही हूँ वो बहुत ईमानदारी से कर रही हूँ। मैं एक साहित्यिक संवेदना के साथ कर रही हूँ। ये आत्मविश्वास मुझमें है। और इसलिए मैं आगे बढ़ पाती हूँ बिना ये सोचे या बिना इस चिंता के कि ये कृति सफल होने जा रही है या असफल! किन-किन मायनो में। वो चिंता मुझे नहीं होती है उस वक्त। ये जो कृति पूरी हो जाती है तब दूसरे पाठकों का खयाल आएगा और तब मुझे यकीन है–मैं काफ़ी दिनों से लिख रही हूँ, अब कल की लेखिका नहीं रही। बल्कि कल की, पुराने कल की लेखिका हूँ मैं तो अब। तो अब मुझे ये मालूम है कि भले ही बहुत बड़ा पाठक संसार मुझे न मिले। अब ये बुकर की वजह से इस समय मिल गया, वरना उतना बड़ा ना भी था तो भी मुझे मालूम है कि ऐसे पाठक हैं, जो चाहते हैं कि वो धैर्य से मुश्किल दिखती चीज़ों में भी उतरें और मुझे ये भी मालूम है कि उनमें से बहुतों को आनंद आता है। वो बहुत हैं जो उसके अलग-अलग आयाम खोलते हैं और मुझे भी दिखाते हैं कि इसमें तो ये हुआ है। 

तो इसलिए आत्मविश्वास की जो आप बात कह रहे हैं वो इस माने में जरूर आया है, और इस मायने में भी है। पाठक में भी है कि पाठक मुझे मिलते रहे हैं हमेशा! कम ज्यादा वो अलग बात है। देर-सवेर वो अलग बात है, लेकिन बहुत अच्छे पाठक, बहुत पारखी पाठक, और जाहिर है कि मुझे ये बात लगी है कि मैं ऐसा नहीं है कि बिल्कुल अकेले, वीराने में कुछ बक रही हूँ और किसी के लिए कोई मतलब इसका नहीं है। मैं देख रही हूँ कि लोगों के लिए उसका मतलब बन रहा है और ये मेरे लिए बहुत बड़ी बात है! और बहुत ही खुशी की बात है। पर मैं आपसे फिर वही कहूँगी, एक बार और इस बात को दोहऊँगी कि मुझे ये आत्मविश्वास इस बात से नहीं मिला है कि मैं बड़ा अच्छा लिखती हूँ, मुझे आत्मविश्वास इस बात से मिलता है कि मैं जानती हूँ, कोई एक कोशिश मैं कर रही हूँ पूरे ईमानदारी के साथ, अब उसमें सच्ची तरह से डूबकर–एक साधना ही है वो मेरे लिए, मेरा आत्मविश्वास यहाँ से निकलता है बस! 

मैं आपको बता सकता हूँ, मेरी शायद पंद्रह-सोलह साल की उम्र थी और तब मैंने कॉलेज में एडमिशन लिया था। तब मैंने आपका उपन्यास ‘हमारा शहर’ उस समय पढ़ा था। मेरे ख्याल से करीब नब्बे के दशक के आखिरी हिस्से की या 2000 के आसपास की बात है। और मेरे ऊपर उस उपन्यास ने ऐसा असर डाला, और शायद हमारे आसपास का समय भी ऐसा था। मैं एक छोटी जगह से एक शहर में पहली बार रहने के लिए आया था। अब वो शहर की संस्कृति…मैं शायद समझने की प्रक्रिया में उस उपन्यास का भी इस्तेमाल कर रहा था। न सिर्फ मैंने पढ़ा, मैंने अपने कई साथी, दोस्तों को पढ़वाया और वो उपन्यास मेरा आपके लेखन से परिचय था। तो आप बिल्कुल ठीक कह रही हैं कि ऐसा पाठक हमेशा कहीं होगा जो आपकी उस कोशिश को पढ़ने के लिए मौजूद होगा, शायद उस टाइम जोन में न हो, उस ज्योग्राफिक एरिया में न हो, लेकिन बिल्कुल मौजूद रहेगा। 

और इसी विषय में ये भी मैं जोड़ दूँ, देखिए कि जो लेखक है वो भगवान नहीं है कि वो आपको बिल्कुल कोई पूरी चीज़ और कोई पूरा जवाब दे दे। भई लेखक भी उसी तलाश में है, जिस तलाश में आप हैं। लेखक भी उसी तरह अपने समाज और अपने संसार को समझने की कोशिश कर रही है और जो कुछ भी उसमें है उससे जूझ रही है, अपने वक्त से जूझ रही है, अपने आसपास से जूझ रही है। तो अगर, मैं अकेली तो नहीं हूँ इस समाज में ना, तो अगर ये मुझे उद्वेलित कर रहा है और मैं उसकी परतें अलग करने की कोशिश कर रही हूँ तो जाहिर है मेरे चारों ओर भी लोग वही हैं जो उस समाज से उलझ रहे हैं और उसको सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं। कहीं-न-कहीं तो हमारा तार साथ होने ही वाला है, जुड़ने ही वाला है। 

मैं अगले सवाल पर आऊँगा–‘रेत समाधि’ के अंदर एक और बहुत दिलचस्प प्रयोग है जो कि टेक्स्ट में भी दिखता है और वो कथा की शैली में भी दिखता है। वो है कि आपने, बीच-बीच में कुछ हिस्से इटैलिक में आते हैं उसके अंदर। जो कभी ऐसा लगता है कि वो कोई सूक्त वाक्य जैसे हैं। कभी ऐसा लगता है कि कथा का कोई सार उनमें है। कभी ऐसा लगता है कथा की चाबी उनमें छुपी हुई है। कभी ऐसा लगता है…लग सकता है, मुझे नहीं मतलब किसी पाठक को लग सकता है कि वो कथा से असंगत हिस्से हैं जिनका कथा से कोई लेना-देना नहीं है। तो ये प्रयोग, आपकी इसके पीछे क्या दृष्टि थी? और जैसा आपने कहा, हर पाठक उसको अपनी तरह से पढ़ सकता है, बिल्कुल! और सारे पाठ जायज़ हैं, लेकिन एक लेखक के तौर पर जब आप ये उपयोग कर रही थीं और वो टेक्स्ट के अंदर भी आपने उसको अलग तरह से दिखाया और वाकायदा वो रचना की जो एक शृंखला है उसको तोड़ने का भी काम कर रहे हैं। तो ये प्रयोग कैसे आया? 

देखिए, प्रयोग शब्द पर मुझे थोड़ा-थोड़ा ऐतराज है। क्योंकि मैं प्रयोग करने को कोई प्रयोग नहीं कर रही थी। कोई भी चीज़ आप शुरू करते हैं, अपनी रचना आप शुरू करते हैं तो वो रचना जैसे-जैसे अपना रूप धारण करने लगती है, तय करती है कि उसमें कौन-कौन से रास्ते वो अपनाने वाली है। तो ये चीज़ें उसके आगे बढ़ने में ही तय होते रहते हैं, न कि मैं पहले से कोई एक डायग्राम बना के और एक फार्मूला बना के बैठती हूँ कि इसमें तो मैं ऐसे करूँगी, अब ऐसे करूँगी। चूँकि ये रचना बनते-बनते इतनी ज्यादा…और मैं कह रही हूँ आपसे कि मैंने ये पहले से, इस तरह से सोचा नहीं था, लेकिन ये रचना क्योंकि बार-बार सरहद पे पहुँचती, तरह-तरह की सरहदों पर पहुँचती और कभी इसके किरदार, कभी इसकी जो शैली थी, इसका शिल्प–उस सरहद पर पहुँच के उनको ये तय करना होता था कि वो यहाँ से पीछे हटें या इसको लाँघें, सरहद को तोड़ें, क्या करें–तो वो सरहद पर पुल बन जाता था। तो ये चीज़ मेरे शिल्प और शैली में भी आने लगा कि उपन्यास…अच्छा कहानी को क्या लगातार कहानी के तौर पर चलना है! और हमलोग कहते हैं हमेशा कि साहित्य जो है वो जीवन का, समाज का प्रतिबिंब होता है, तो जीवन ही कौन-सा ऐसे चलता है कि लगातार एक कहानी बिल्कुल सधे-सुथरे रूप में यहाँ से शुरू होकर वहाँ खतम होती हो। ऐसे नहीं चलता है! कभी-कभी कहानियाँ बीच में बिल्कुल बे-मौके खत्म हो जाती हैं–दुख देते हुए या बेकार हो जाती हैं। कभी वो कोई और दिशा पकड़ लेती हैं। तो ये जो जीवन और समाज का…आप समझिए कि दर्पण, ये बनता चला गया! तो इसलिए कहानी कभी रुक जाती है कि अब यहाँ तो…आगे इससे नहीं बढ़ा जा सकता। अब शुरू क्या यहीं करना है या यहीं से इसको आगे बढ़ाना है इसे जोड़कर या कोई और तरह की शुरुआत हो सकती है। तो वो कभी तय करती है कि नहीं वो किसी और तरह की शुरुआत होगी। तो इसलिए वो जो आर्टेलीसाइज्ड हिस्से हैं वो इसमें आने शुरू हो गए। और मुझे लगा, बतौर पाठक…जैसे-जैसे वो बना रही थी उसको, जैसे-जैसे वो लिखा जा रहा था और मेरे किरदार मेरे संग चल रहे थे। मैं उन किरदारों के साथ चल रही थी, उस कहानी के साथ चल रही थी। मुझे लगा कि ये ठीक है, इससे बात का प्रभाव कम नहीं हो रहा है। तो मैंने उसको वैसे फिर चलने दिया कि वो रुक के, टूट के, दिशा बदल के, कहीं अधूरी छूट के, कहीं आगे फिर से जुड़ के चल ले रही हूँ। तो इस तरह से इसका, आप समझिए कि फॉर्म बनता चला गया। 

अनुवाद की प्रक्रिया के बारे में भी बात करना चाहूँगा–आपकी रचनाओं का दूसरी भाषाओं में अनुवाद होता रहा है और केवल अँग्रेज़ी में नहीं, फ्रेंच, जर्मन में भी अनुवाद हुए। अनुवाद की प्रक्रिया के बारे में ये कहा जाता है कि अनुवाद एक नई रचना की तरह होता है और उसमें बहुत कुछ छूटता भी है और कई बार नई चीज़ें हासिल भी होती हैं। ‘रेत समाधि’ जैसा उपन्यास ही अगर आप लें जिसमें ऐसे अनगिनत संदर्भ हैं जो अगर अपनी जमीन से काट दिए जाएँ तो उन संदर्भों को समझना बड़ा मुश्किल होगा। जब ये किसी दूसरी भाषा में जाता है, किसी दूसरी संस्कृति में जाता है, तो क्या ऐसी चीज़ें हैं जो आपको लगता है छूट जाती हैं, क्या ऐसी चीज़ें हैं जो आपको लगता है कि शायद कुछ अतिरिक्त हासिल होता है। इस प्रक्रिया के बारे में आप और ख़ासतौर पर ‘रेत समाधि’ के अनुवाद की प्रक्रिया, डेज़ी रॉकवेल ने जिस तरह से उसका एक बहुत ही संवादपरक प्रक्रिया के साथ में अनुवाद किया। तो ये प्रक्रिया कैसी रही? 

पहले मैं आपको बता दूँ, बहुत लोगों को ये बात मालूम नहीं है कि डेज़ी रॉकवेल से पहले इसका तर्जुमा, मेरी फ्रेंच अनुवादक आनी मॉन्तो ने किया। लेकिन चूँकि फ्रेंच का वो रुतबा नहीं है दुनिया में जो अँग्रेज़ी का है और दूसरा खैर इसको बुकर मिल गया तो इसलिए अँग्रेज़ी वाले तर्जुमे को तो बहुत शोहरत मिल गई। ये जो आप कह रहे हैं कि अनुवाद में कुछ बदलता है, कुछ छूटता है, कुछ जुड़ता है, क्या ऐसा है! मैं समझती हूँ कि किसी भी चीज़ को एक बार से दूसरी बार कहने में, एक व्यक्ति के कहने में और दूसरे के सुनने में और फिर उसके कहने में बात तर्जुमे की तरह ही थोड़ी बदलती और बढ़ती रहती हैं। उसमें कुछ हो सकता है लगे कि उसी तरह से है, कुछ लगे कि ये तो कुछ और भी हो गया। तो बात हमेशा ही, मतलब ये जीवंत एक क्रिया है। तो मुझे लगता है इसको लेकर कोई बहुत परेशानी नहीं होनी चाहिए, ये एक तरह से संप्रेषण और बात को आगे बढ़ाने का तरीका है। मुझको तर्जुमे के इस आयाम को लेकर कोई बहुत परेशानी नहीं होती है। जरूर ऐसी चीज़ें उसमें होंगी, ये बात मैं आपसे साझा करना चाहती हूँ कि मेरा अभी तक…बहुत ज्यादा अनुवाद नहीं हुआ है। आप कह रहे हैं कि बहुत भाषाओं में मेरे हुए हैं, इतने ज्यादा अनुवाद नहीं हुए हैं अभी, लेकिन जिनके संग हुए हैं, जहाँ-जहाँ हुए हैं–कुछ ऐसा इत्तेफाक रहा है कि उन अनुवादकों से मैं काफ़ी…होते-होते उनके काफ़ी, दोस्ताने संबंध हमारे बने। हमलोग बहुत साथ-साथ और लंबे अरसे तक उस पर बातचीत कर पाते थे, बहस कर पाते थे, जहाँ मुझे लगता है कि नहीं मैंने शायद ये कोशिश की है–मैं बताती। और उन्हें लगता कि हमने इस तरह से पढ़ा है ऐसे होना चाहिए, तो वो बताते। तो हमलोग इस तरह से आगे बढ़े! मेरे लिए जो सबसे अहम बात इस सब में बनी वो थी कि कहीं हमलोगों की संवेदना कुछ एक सी होनी चाहिए। हमलोग एक, जिसको कहते हैं कि आप एक ही जमीन पर हैं, एक मिट्टी पर हैं खड़े–तब ठीक है। उसके बाद जो मतभेद होंगे उनको आप सुलझा लेंगे, लेकिन अगर आप…ये जमीन ही आपकी अलग-अलग है तो फिर नहीं हो पाएगा अनुवाद ठीक! तो अब डेज़ी हैं जैसे–अब मान लीजिए डेज़ी में स्त्री के प्रति मेरी जो नज़र है या बँटवारे के प्रति मेरे अंदर जो दुख है और इच्छा है कि ऐसे बँटवारे न हों। अगर डेज़ी उस बात से एकमत न होती तो फिर हमारे बीच जरूर दिक्कत होती।

अच्छा आपने खेल की बात की, इस उपन्यास और मेरे और भी लेखन में खिलंदड़ेपन की एक बात की। मान लीजिए किसी में ये वाली, इस खिलंदड़ेपन का माद्दा न होता, उसका मज़ा लेने का उसमें जज्बा न होता, तो वो तो इस किताब को कितनी भी अच्छी अँग्रेज़ी जानते एकदम तबाह कर देते। तो मेरे लिए ये जरूरी था कि…उनके अंदर भी ये मज़ा था कि हम भी भाषा के संग खेलेंगे। हम भी दुख वाली बातों को भी मज़ा लेकर बोलेंगे, तो उन्होंने अगर उसको थोड़ा बहुत अँग्रेज़ी परिवेश में डालकर भी किया तो मुझे कोई परेशानी नहीं है। जहाँ तक दोनों को अगल-बगल, मतलब एक दूसरे के बरक्स रख के देखूँ कि यहाँ क्या गया, यहाँ क्या जुड़ा–वो मैं करती नहीं हूँ। मैं करना ही नहीं चाहती। क्योंकि मुझे मालूम है कि…देखिए मैं अपने, जो मैंने लिखा है उसके प्रति मैं जिस तरह से जुड़ी हुई हूँ वो तो मेरा हिस्सा एक तरह से है। तो जरूर कुछ ध्वनियाँ अलग उसमें लगेंगी और मुझे थोड़ी वो अजीब लगेंगे, लेकिन मैं अपने को इसका सही जज भी नहीं मानती हूँ कि मैं जज कर सकती हूँ कि क्या बेहतर हुआ! तो मुझे तो जब जिन लोगों का मैं आदर करती हूँ, जब वे लोग बताते हैं कि भई अँग्रेज़ी का तर्जुमा बहुत अच्छा है, हमको बहुत मज़ा आया इस किताब को पढ़ के। 

हमको अजीब नहीं लगा, आपने जो बात की कि दूसरी सांस्कृतिक जमीन है, तो देखिए मुझे लगता है सांस्कृतिक जमीन अलग हो सकती है–कुछ उपमाएँ, मुहावरे। कुछ जो उसके…जिसको क्या बोले! एक पूरा वो जो सांस्कृतिक संदर्भ अलग हो सकते हैं। वो अलग आपको दिखेंगे लेकिन अंतत ये कहानियाँ वही होंगी जो दुनिया में कहीं भी हो सकती हैं। और बँटवारे का ही हमलोगों ने आज इतनी बात की, कि बँटवारे तरह-तरह से इस दुनिया भर में फैले हुए हैं। ये कोई हमारे ही समाज का हिस्सा और सच्चाई नहीं है। तो दुनिया भर में वो चीज़ें मायने रखती हैं और इसलिए कोई परेशानी नहीं है कि आपका जो लिबास है या कुछ बातें कहने का रंग-ढंग कुछ अलग है, कुछ हिंदुस्तानी है या उत्तर भारतीय है या उत्तर प्रदेशीय है, मैं नहीं जानती क्या-क्या है वो। लेकिन उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, उसके बावजूद अगर कृति अच्छी है, उसमें साहित्यिक संवेदना और मज़ा है और कुछ उसके अंदर दर्द है, और सार है और इनसानियत है तो वो दुनिया भर में हर कोने में उसके मायने समझे जाएँगे! और इसीलिए मैं अपने ‘रेत समाधि’ की क्यों बात करूँ, विश्व-साहित्य की बात करिए, हमलोग कितना विश्व साहित्य पढ़ते हैं, उसमें कितने अलग सांस्कृतिक संदर्भ हैं! लेकिन फिर भी हमको कभी ऐसा नहीं लगा कि नहीं हम…टॉल्स्टॉय और दोस्तोयेव्स्की, इनका…मज़ा नहीं आ रहा। हमने ख़ूब उनसे सीखा…यूनिवर्सिटी में हम रूसी साहित्य कितना पढ़ते थे! और हमारे लिए वे जबर्दस्त आदर्श थे, तरह-तरह से हम उनसे प्रेरित हुए हैं। तो मुझे अनुवाद में, इसलिए मैंने अनुवाद पर अपने कुछ पल बिताए! इस तरह से जाहिर की है। 

आखरी सवाल–आपकी ट्रेनिंग इतिहासकार की है, और जब आप एक साहित्यकार के तौर पर उपन्यास लिख रही हैं। आपके उपन्यास में इतिहास कई अलग-अलग तरह से, कई अलग-अलग सूरत में, कई अलग-अलग रूप लेकर आता है, तो एक इतिहासकार गीताजंलि श्री, एक इतिहास की अध्येता गीतांजलि श्री और एक साहित्यकार गीताजंलि श्री। ये दोनों एक दूसरे से क्या लेती हैं? और क्या एक इतिहासकार गीतांजलि श्री को भी एक साहित्यकार गीतांजलि श्री कोई नई दृष्टि देती है? इतिहास को पढ़ने की एक नई दृष्टि एक साहित्य के नजरिये से मिल सकती है? अगर इसको पलट कर देखें तो? 

नहीं, मैं तो अपने को इतिहासकार तो मानती ही नहीं हूँ, तो इसलिए मैं क्या कहूँ आपसे कि इतिहासकार को क्या मिलता है, मैं नहीं जानती हूँ, लेकिन आपने कहा कि साहित्यकार गीतांजलि श्री को इतिहासकार से क्या मिला। इतिहासकार गीतांजलि श्री से मैं नहीं जानती कि उसको क्या मिला, लेकिन इतिहास पढ़ने की वजह से, इतिहास की छात्रा होने की वजह से जरूर कुछ…जाहिर है वो सिर्फ तथ्य ही नहीं, एक समाज का और अपने अतीत का विश्लेषण करने का तरीका, अभ्यास–कुछ तो मिला होगा तो वो जाहिर है मेरे साहित्यकार होने में भी आया। लेकिन मैं फिर कहूँगी कि मैंने दो-चार साल इतिहास क्या कर लिया, इतिहास की छात्रा क्या हो ली कि आपने मुझे इतिहासकार तो कह दिया! मैं बचपन से बहुत सी चीज़ों की कार मानी जा सकती हूँ, और आज मैं कहूँगी कि चलिए मैं अम्मागिरी भी करती हूँ तो मुझे वो अम्मागिरी से भी बहुत कुछ मिलता है। तो वो हम जितने भी क्षेत्रों में कारगर हैं, वहाँ से हमको, हमारी संवेदना वहाँ से बन रही है, संवेदना में चीज़ें जुड़ रही हैं और उम्मीद है कि कुछ बेहतर हो रही है। तो इतिहास को ही मत लाइए जो एक फॉर्मल एजुकेशन वाली बात से ही तो नहीं हम सीखते हैं न, हम तो शुरू से ही सीख रहे हैं और उम्मीद है कि सीख रहे हैं कि छात्र हैं ठीक-ठाक और सीख रहे हैं जो कुछ हो रहा है उससे, लोगों को देखकर, आसपास को देखकर, तो इन सब चीज़ों से हमारे…उम्मीद है साहित्यकार को कुछ बल मिलता है, कुछ रास्ते मिलते हैं और, और लिखने का जज्बा मिलता है।

बहुत, बहुत शुक्रिया गीताजंलि श्री! हमारे लिए समय निकालने के लिए, उनके सवालों का जवाब देने के लिए, मेरी बहुत सारी उत्सुकताओं को शांत करने के लिए भी और नई उत्सुकताएँ जगाने के लिए भी, दोनों के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया! आपका समय देने के लिए भी और हमसे बात करने के लिए। मैं ‘नई धारा’ परिवार की ओर से आपका शुक्रिया अदा करता हूँ, बहुत-बहुत धन्यवाद!


 

मिहिर पंडया द्वारा भी