नई धारा संवाद : अलका सरावगी से बातचीत

नई धारा संवाद : अलका सरावगी से बातचीत

हमने हिंदी की बहुत काँट-छाँट की

अलका सरावगी का जन्म 1960 में कलकत्ता में हुआ। कलकत्ता विश्वविद्यालय से ही उन्होंने हिंदी में पीएच.डी. की, जो कि रघुवीर सहाय की एक कृति पर थी। उनके कहानी संग्रह की बात करें तो ‘कहानी की तलाश’ 1996 में आई और ‘दूसरी कहानी’ शीर्षक से उनका दूसरा कहानी संग्रह 2000 में आया। लेकिन सबसे बड़ी उपलब्धि मिली उन्हें अपने पहले उपन्यास ‘कलि-कथा वाया बाइपास’ से, जो कि 1998 में आई थी, और जिसे 2001 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिला। यही नहीं ‘कलि-कथा वाया बाइपास’ अनेक भारतीय भाषाओं के अलावा–इटालियन, फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश भाषाओं में भी अनूदित की गई। इसके अलावा ‘शेष कादम्बरी’ जिसे के.के. बिरला फाउंडेशन का बिहारी सम्मान प्राप्त हुआ। यह भी बाँग्ला, अँग्रेजी के अलावा इटालियन में अनूदित हुई।

‘एक ब्रेक के बाद’, ‘जानकीदास तेजपाल मैनशन’, ‘एक सच्ची-झूठी गाथा’, ‘कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए’ (जिसे कलिंगा लिट फेस्ट का बुक ऑफ द इयर अवार्ड मिला और 2021 में ही उसे वैली ऑफ व्याइस, देहरादून का अवार्ड मिला।) जैसी कृतियाँ भी प्रकाशित हुई।

अलका जी ने वेनिस विश्वविद्यालय में एक कोर्स का अध्यापन भी किया है, और भारत और विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में ‘कलि-कथा वाया बाइपास’ कोर्स में शामिल की गई है। इटली की सरकार द्वारा इन्हें ऑर्डर ऑफ स्टार ऑफ इटली कैवेलियर का सम्मान भी प्राप्त हुआ है। यहाँ हम ‘नई धारा’ के लिए अलका सरावगी से चन्द्र प्रभा द्वारा की गई बातचीत के अंश प्रकाशित कर रहे हैं। –संपादक

‘कलि-कथा वाया बाइपास’ से आपके उपन्यास की जो शुरुआत हुई, उससे पहले मेरा जो प्रश्न रहेगा वो यही है कि ये जो लेखनी की शुरुआत है, ये लेखन में जो रुचि है, ये आपकी कब से शुरू हुई?

देखिए, एकदम बचपन से बात शुरू करूँ तो शब्दों के प्रति मेरा बहुत आकर्षण था। मुझे कुछ भी मिल जाता, वो चाहे मेरी उम्र के लायक हो, न हो…मैं उसको पढ़ती रहती और कुछ न मिलता तो डिक्शनरी बैठकर पढ़ती रहती थी। तो एक शब्दों के प्रति जो एक लगाव और आकर्षण था, मेरे ख्याल से जो स्कूल की मैगजीन में जैसे हम छोटे-मोटे आर्टिकल्स लिखते हैं। पर सच पूछिए तो मैंने कभी ऐसा नहीं सोचा था कि मेरे अंदर एक लेखक है। ऐसा कभी मेरी कल्पना में बिल्कुल नहीं था। लेकिन जीवन में शायद बहुत सारे संयोग ऐसे होते हैं जो आपको आपके मुकाम पर धीरे-धीरे उस ओर ले जाते रहते हैं। तो मैंने बच्चों की एक डिक्शनरी में काम शुरू किया, संयोग ही था कि मुझे एक महिला मिलीं और उन्होंने कहा कि तुम तो स्कूल में बड़ी अच्छी विद्यार्थी थी…हम एक डिक्शनरी में काम कर रहे हैं तुम आ जाओ। तब तक मेरे दो बच्चे हो चुके थे और इस तरह की…घर के बाहर निकल कर के कोई भी काम, चाहे वो साहित्यिक काम ही क्यों न हो, ऐसा कभी किसी ने किया नहीं था–न मेरे ससुराल में, न पीहर में। लेकिन मैं वहाँ पर अशोक सेकसरिया से मिली जो कि मेरे गुरु हैं और जिनके कारण मुझे लगता है कि मुझे ये समझ में आया कि मेरे अंदर में एक लेखक है। अशोक जी से बहुत सारी बातें होतीं–बचपन की, इधर की, उधर की–और अशोक जी कहते कि आप इसको लिख डालिए। तो मैं सोचती थी कि इसमें इतनी साधारण बातों में लिखने जैसा क्या है? पर खैर इसी तरह मैंने छोटे-छोटे फीचर्स लिखे, फिर नवभारत टाइम्स के अखबारों में मैंने आठवाँ कॉलम करके कुछ फीचर्स उसमें भी लिखे। और फिर कलकत्ते के बाहर एक बार हम परिवार के साथ घूमने गए थे और जब लौट कर आए तब किसी एक शख्स जिससे हम मिले थे…तो वो एक ऐसा शख्स था जिसने मुझे बहुत दिनों तक…वो मुझे हॉन्ट करता रहा। और फिर एक दिन मैंने उठकर उस पर एक छोटी-सी कहानी लिखी और उसका नाम रखा ‘आपकी हँसी’। अब ये शख्स जो था वो बात-बेबात हँसता रहता था और ये समझ में नहीं आता था कि वो घर का नौकर है या घर के मालिक का रिश्तेदार है। यानी कि उसकी अस्मिता जो थी वो बिल्कुल साफ नहीं, और उसका ये जो हँसना है बात-बेबात पर, और लोग उसको लगभग एक पागल की तरह ट्रीट करते थे। जब हम लौट रहे थे तो मैंने देखा कि वो रो रहा था यानी कि उसको बहुत दु:ख हो रहा था कि हम छोड़कर जा रहे हैं। तो मैंने उस पर एक कहानी लिखी और फिर वो कहानी वर्तमान…आपने बताया ही अभी कि महाविशेषांक में छपी। मैं शायद फर्स्ट टाइम लक्की हूँ कि, मतलब उस कहानी की चर्चा के कारण, उसके उत्साह में मैंने फिर और बहुत सारी कहानियाँ लिखनी शुरू की, और धीरे-धीरे मुझे ये समझ में आया कि मेरे अंदर एक लेखक है जो बहुत बेचैन है कि वो अपने आसपास जो जीवन देख रहा है…जो समझ रहा है उसको वो, उन कहानियों के जरिये दुनिया के सामने रखे। तो इस तरह फिर कहानियाँ लिखती चली गई।

एक संयुक्त परिवार में जो बहुत सारे रोल होते हैं, बहुत सारे भूमिकाएँ होती हैं–माँ की, बहू की, पत्नी की। तो मेरे लिए कहानियाँ लिखने का भी समय निकालना काफी मुश्किल से जुटता था। मैंने जब पीएच.डी. की अपनी थीसिस जमा की तो अशोक जी ने कहा कि आपको एक उपन्यास लिखना चाहिए। तो तुरंत मैंने कहा कि उपन्यास मैं कैसे लिख सकती हूँ! उसके लिए मेरे पास कहाँ से समय निकलेगा। और सच पूछिए तो ‘कलि-कथा वाया बाइपास’ मैंने कहानी के तौर पर ही लिखना शुरू किया। उसका जो सेकेंड चैप्टर है ‘बीच वाला कमरा कहाँ है’ वो शीर्षक लगा कर मैंने एक कहानी लिखनी शुरू की, और वो कहानी मुझे एक ऐसे मुकाम पर ले आई जहाँ इतने सारे रास्ते खुलते थे, इतनी सारी बातों, इतने सारे प्रश्न मेरे अंदर से उठ रहे थे, और अब तक का सारा जिया जीवन सिर्फ मेरा ही नहीं, बल्कि मेरे पुरखों का…पिछले डेढ़ सौ साल तक का जीवन, सब मुझे…लग रहा था कि मुझे सब को जानना है, और उसके साथ-साथ देश में, इतिहास में, समाज में जो घटनाएँ घट रही थीं, तो यानी वो धीरे-धीरे इस तरह का रूप लेता गया कि जिसको आप एक उपन्यास ही कह सकते हैं।

जी, जब मैं ‘कलि-कथा वाया बाइपास’ उपन्यास पढ़ रही थी, तो मैंने महसूस किया कि इतिहास की कई परतों को समेटती हुई ये तात्कालिक भारत को हम इसमें देखते हैं। लेकिन खासतौर पर कलकत्ता का जीवन, वहाँ की संस्कृति, भाषा, इन सब का महीन ताना-बाना है–जो पाठक महसूस करता है। तो जैसा कि आपने अभी कहा भी कि ये जो विचार था, ये कहानी से होते हुए उपन्यास की तरफ रहा, लेकिन उपन्यास में सब कुछ हम देखते हैं, तो इसके पीछे क्या कारण रहा, क्या विचार था कि कहानी वहाँ तक पहुँची?

देखिए, जब मैंने कहा कि किशोर बाबू की पत्नी ने पूछा, ‘हार्ट के बाइपास’ के बाद में कि आप क्या बीच वाले कमरे में चाय लेंगी तो उन्होंने कहा, ‘बीच वाला कमरा कहाँ है, दो ही तो कमरे हैं–एक बड़ा कमरा और एक छोटा कमरा।’ और मेरी कहानी यहीं रुक गई, क्योंकि मुझे तब ये जानना था कि जब वो बीच वाला कमरा नहीं था तब जीवन क्या था, कैसा था, कलकत्ते के किस मोहल्ले में था, वहाँ नीचे से कौन-सी आवाजें आती थीं, वहाँ आसपास के लोग क्या सपने देख रहे थे, किन बातों से वे डरे हुए थे, वे कहाँ से आए थे और क्यों आए थे? और ये जो आजादी की लड़ाई का आंदोलन चल रहा था, किस तरह की उनकी हिस्सेदारी थी, या किस तरह की उनकी हिस्सेदारी न होने का उनका अपना कष्ट और दु:ख था। उनकी जो मारवाड़ियत थी, उसको लेकर के उनके मन में कितने तरह-तरह के सवाल थे। कितनी सारी दुविधाएँ थीं, कितनी सारी ऐसी बातें थीं जो उलझे थे जिनको वे सुलझा नहीं पा रहे थे। तो ये देखिए कि धीरे-धीरे…और ये शहर, खासकर के इस शहर की एक-एक गली…एक-एक जहाँ पर ये सारी घटनाएँ घट रही थीं। तो वो शहर मेरे लिए एक बड़ा जीवंत होता गया, और जब मुझे लगता है कि आपके अंदर एक इस तरह की खोज शुरू होती है तो अपने आप आपके पास ऐसे संसाधन जुट जाते हैं, ऐसे लोग आपके जीवन में आ जाते हैं जिनके पास में उनकी जानी हुई कहानियाँ होती हैं। तो इस तरह कहानियों की जैसे परत-पर-परत चढ़ती चली गई, मतलब इतनी हैरान थी कि इन सारी कहानियों को मैं किस तरह इकट्ठा करके, एक उसमें…उसका क्या रूप मैं बना सकती हूँ। यानी कि, देखिए कि बहुत बार…मतलब मैंने एम.ए. कर लिया था, पीएच.डी. कर ली थी तो जाहिर है कि मैंने हिंदी के बहुत सारे उपन्यास पढ़े थे–नए-पुराने सभी तरह के। पर मुझे ये लग रहा था कि ये जो कथाएँ इतने लोग मुझे सुना रहे हैं, और जो इतनी सारी किताबों में, इतनी सारी बातों में जो कथाएँ मेरे पास…दिन-रात माने जैसे कथाओं का एक बिल्कुल पहाड़ हो गया है। तो ये कथाएँ किस तरह से एक कहानी के तौर पर कैसे किसी पाठक को बताई जा सकती हैं। …आप सच पूछिए तो उन लोगों में कोई भी आज जिंदा नहीं है, जिनकी कहानियाँ…बहुत सारी कहानियाँ जो ‘कलि-कथा वाया बाइपास’ में आईं! तो मुझे लगता है कि शायद वो समय का ऐसा दौर था और मेरी जो ट्रेनिंग हुई थी वो देखिए एक तरह की बहुत पॉलिटिकल ट्रेनिंग हुई थी, क्योंकि जैसा कि आपने बताया भी कि रघुवीर सहाय पर मैं रिसर्च कर रही थी। और रघुवीर सहाय…1967 की उनकी कविता है

‘बीस बरस हो गए घर में उपदेश में
एक पीढ़ी पली-पुशी कलेश में
बेगानी हो गई अपने ही देश में…।’

तो ये जो बेगानी हो गई पीढ़ी थी, ये कौन थीं, कैसी थीं, क्या उसकी परेशानियाँ थीं और वो जो आजादी के सपने देखते हुए जो एक आदर्श का रूप था…वो अब हम जब 50…1997 में मैं जब उपन्यास लिख रही थी तब हम अपनी आजादी के 50वीं वर्षगाँठ मना रहे थे और मैं ये देख रही थी कि ये जो 50वीं वर्षगाँठ है ये इतनी भुखमरी के बीच में…क्योंकि हम पढ़ते हैं कि इतने लोग आज भी (poverty line) गरीबी रेखा के नीचे हैं, इतने भ्रष्टाचार के बीच में…और ये जो विलायती गाड़ियाँ थीं–फोर्ड वगैरह, ये तिरंगे झंडों से…तीन गाड़ियाँ निकाल करके आजादी का, हमारी आजादी का जश्न मना रही थीं। तो ये सब कुछ जो इतना विद्रूप था, इतना एबसर्ट था कि मतलब मुझे और शायद कोई बड़ी कंपनी–को-को कोला–की पचास फूट की बोतल पार्लियामेंट के शायद बाहर में लगाने वाली थी। तो ये सब कुछ मतलब ये ऐसा लगता था कि जैसे कि कोई बहुत हास्यास्पद सा नाटक हो या बड़ा ही एक विडंबनापूर्ण नाटक हो!

तो मुझे लगता है कि ये जो…मैं जिस तरह इन चीज़ों को देख पा रही थी…अशोक जी के यहाँ बहुत सारे समाजवादी आंदोलन के लोग आते थे, बहुत सारे वैचारिक चिंतक आते थे–किशन पटनायक थे, जिन्होंने वैकल्पिक राजनीति की बात की है, सचिदानन्द सिन्हा थे; तो ये बहुत सारे विचारों के बहुत सारे स्ट्रैंड्स मेरे सामने आते जा रहे थे और मुझे लग रहा था कि ये जो आजादी को लेकर जो एक नॉस्टेलजिया है, पर इसके साथ-साथ इतने सारे लोगों के मन में कितने सारे अफसोस हैं, कितना सारा उसके पीछे, बल्कि एक तरह का गुस्सा भी है; तो ये सब कुछ मिल करके उन सारी कथाओं के बीच में गुँथते हुए एक मारवाड़ी जाति का इतिहास, फिर शहर का इतिहास, आजादी का इतिहास…तो ये सारे इतिहास जो आपने ‘ताना-बाना’ शब्द इस्तेमाल किया, तो ये सचमुच में एक तरह का ऐसा ताना-बाना था जिसको बुनना आसान नहीं था, क्योंकि मेरी जो फितरत है वो, एक तो समय की कमी के कारण और एक परिवार के दबाव के कारण हमेशा…मैं हड़बड़ी में चीजें करती हूँ और हमेशा बहुत ही जल्दीबाजी में सब काम कर लेना चाहती हूँ, फिर लगता है कि कर नहीं पाऊँगी…! तो ये सारी कहानियाँ हमारे आसपास बिल्कुल मौजूद थीं, लेकिन वो हमारे…पता नहीं क्यों, तो मुझे ये समझ में आया कि शायद हमने अपने को जानबूझ कर के एक तरह के…एमनीशिया जिसको कहते हैं न स्मृति विभ्रम में हमने डाल दिया था कि हमको ये सारी बातें करनी नहीं हैं। ये सारी बातें इम्पॉर्टेंट नहीं है, क्योंकि हमने आजादी की लड़ाई के आदर्शों को भी छोड़ दिया था और इसलिए ये कथाएँ भी हमारे जीवन से पूरी तरह गुम थीं; तो इस तरह ये…जो कुछ मने खुलता गया, जो एक पूरा सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक–जो इस तरह की इतनी सारी कहानियाँ खुलती गईं तो उनके कारण उपन्यास अपने आप ही उस तरह का…कहानी बढ़ती गई और उसका वो रूप बनता चला गया!

जैसा कि अभी आपने कहा भी खुद कि बहुत सारी कहानियाँ आपके आसपास थीं, फिर ताने-बाने को आपने बुना, एक जो महसूस होता है और काफी सारे पाठकों ने इस बात को महसूस किया है कि आपके लेखन में एक नए को खोजने की अकुलाहट रहती है और शायद अभी आपने कहा भी कि एक हड़बड़ाहट होती है सब चीज को समेटने की; शायद हम इससे उसको जोड़ सकते हैं, ये पाठक तक भी पहुँचती है, जो कि एक बहुत सकारात्मक रूप से पहुँचती है क्योंकि एक लेखन के स्तर पर वो पाठक के अंदर भी आता है, वो खोजने की अकुलाहट पाठक में भी आती है! यहाँ तक कि अगर हम बात करें तो क्रमबद्धता भी, जो सीक्वेंसिंग है वो भी टूटती नज़र आती है और जैसे अगर ‘कलि-कथा’ का हम उदाहरण ले लें या ‘एक सची-झूठी गाथा’ का उदाहरण ले लें–इन सारे उपन्यासों में एक क्रमबद्धता है जो टूट रही है, जो परंपरा है कि हम पुराने से नए की तरफ नहीं जाएँगे…हो सकता है पुराना भी बीच में आए, लेकिन नए को हमें बताने के लिए पुराने के पास आना पड़ेगा। तो ये जो क्रमबद्धता है…ये टूटती हुई नजर आई। तो इसके पीछे क्या सोच थी आपकी?

देखिए, मुझे लगता है कि हम…जैसा हमारा जीवन होता है यानी कि हम एक जीवन जीते हैं पर हमारी स्मृतियों में जो जीवन होता है, ऐसा नहीं होता कि वो कोई बहुत क्रमबद्ध रूप में होता है। आप कभी अपने-आपको अचानक कोई…कहीं जाते-आते आपको अपनी बचपन की कोई बात याद आ जाएगी, कभी आपको बिल्कुल अभी की कोई बात भूल जाएँगी उस बात को और फिर उसके बाद में…जैसे ‘शेष कादम्बरी’ में मैंने एक बिंब का इस्तेमाल किया कि हमारे दिमाग की नसों में वो बातें जैसे दौड़ती रहती हैं और कभी मतलब कौन-कौन सी चलनिओं में छन-छन कर के वो बातें गायब हो जाती हैं और फिर अचानक वो बातें प्रकट हो जाती हैं। तो मुझे लगता है कि…बल्कि हम जब किसी कहानी को लिखते हैं तो उसकी जो क्रमबद्धता है, मेरे ख्याल से मेरे अंदर वो एक बोरियत भी पैदा करती हैं तो शायद ये भी एक कारण है कि…मतलब कि मैं जिस चीज़ को जब सोच रही होती हूँ और मुझे जब इच्छा होती है उसके बारे में लिखने की, तब मैं शायद उस बात को वहीं पर ले करके आ जाती हूँ। और मेरे ख्याल से पाठक भी उसमें कुछ ऐसा महसूस नहीं करता है, क्योंकि वो मेरे लिए बहुत नेचुरल होता है कि वहाँ से वहाँ…अचानक किसी मोड़ से किसी दूसरे मोड़ पर पहुँच जाना! क्योंकि हम सभी जानते हैं कि हमारी स्मृतियों में इस तरह की कोई क्रमबद्धता नहीं होती है और मेरे ख्याल से…जो फिर से मैं कहूँ कि…एक जो, एक बहुत बारीक जो विडंबनाओं को पकड़ने के लिए बहुत बारीक दृष्टि होती है। अब जैसे देखिए…मैं फिर आपको एक रघुवीर साहय की कविता थोड़ी सी बताती हूँ–एक बिंब है रघुवीर सहाय का, कविता की पंक्तियाँ इधर-उधर हो सकती हैं–कि,

‘ये भारत एक महागद्दा है प्रेम का,
जिसमें सदानन्द महिम धोती पहने पसरा हुआ है।’

तो ये देखिए कि ये जो विडंबनाएँ हैं वो किस तरह से बिल्कुल, मतलब अलग अनोखे रूप में आती हैं। एक तरह का कौतुक भी उसमें रहता है, एक तरह का मजाक, एक तरह का अंडर स्टेट्मेंट, इस तरह का उसके अंदर जो एक बुनावा रहता है, जो उसके अंदर प्रवाहित होता है और एक जो…जो पाठक, मतलब उसको पकड़ लेता है उस अंडर करेंट को, तो उसके लिए एक बहुत ही आनंद का कारण होता है। आप-हम कोई भी अगर किताब पढ़ते हैं और उसके अंडर करेंट को हम पकड़ लेते हैं तो आप देखें कि हम भी आनन्द के साथ उसको पढ़ पाते हैं। तो ये सारी बातें हैं जो साथ-साथ चलती रहती हैं। क्रमबद्धता जो है कोई ऐसी चीज नहीं है, क्योंकि देखिए एक तो ये भी है कि, जैसे शुरुआत में मुझे ये लगा कि एक अपनी मौज में कहानी कही जाय। क्योंकि देखिए अब इतने सारे दबावों के बीच में जब आप लिख रहे हैं, आपके लिए वो लिखना तो बहुत प्लेजर होना चाहिए न, आप किसी खाँचे में या किसी उसमें बंद कर अगर आप कोई भी काम करते हैं, तो आप देखिए कि उसमें आपके लिए प्लेजर नहीं होता है और अगर आप इस बात से मुक्त हो जाएँ कि चलो हम जो लिख रहे हैं–कोई को पसंद आए-न-आए, तो फिर शायद आप वो लिख सकते हैं। तो अगर वो मौज पाठक उसको पकड़ लेता है या उसको अपने अंदर ले लेता है उस मौज को, तब फिर वो भी उसी मौज के साथ में उस रचना को पढ़ पाता है। इसलिए क्रमबद्धता कोई खास बात नहीं है।

आपने अभी स्वतंत्रता की बात की, कि स्वतंत्रता जो है वो स्वतंत्र…एक लेखक को भी अपनी सोच पे स्वतंत्र होना चाहिए, ताकि पाठकों से जो जुड़ाव है उसका वो उस रूप से बने! आपकी कहानियों को पढ़कर कई बार ऐसा लगा जैसे स्वतंत्रता और प्रेम दोनों सामने हैं, लेकिन उनमें एक विरोधाभास है या शुरुआत से अंत तक वो बना हुआ है। शायद आप छोड़ना चाहती हैं पाठकों पर, जैसे कई सारी कहानियाँ ऐसी हैं जिन्हें हम जब पढ़ रहे होते हैं, पाठक के रूप में पढ़ रहे होते हैं तो ऐसा लगता है कि ये पाठकों पर छोड़ दिया गया है कि अब आप इसे समझें, क्योंकि ये तो दृष्टि है। इस दृष्टि को आपको समझना है, आपको अपने अनुसार उसको देखना है। यही नहीं, आपकी रचनाएँ जो हैं स्वतंत्रता के अर्थ को अलग-अलग रूप में गढ़ रही होती हैं, अलग-अलग परिवेश में गढ़ रही होती हैं। जैसे देश की स्वतंत्रता की बात अलग है, समाज की स्वतंत्रता, बाजार, रिश्ते, राजनीति–सभी को एक साथ बाँधती रहती हैं, लेकिन अलग-अलग हिस्सों में। स्वतंत्रता है, लेकिन सब अपने-आप में माँग करते नज़र आते हैं, स्वतंत्र होने की माँग करते नज़र आते हैं। तो इसके बारे में आपका क्या विचार है?

देखिए, एक मारवाड़ी परिवार में मेरा जन्म हुआ, जहाँ मेरे पर बहुत सारे बंधन थे, एक जो नेचुरल सेंस ऑफ जस्टिस बच्चों में होता है, तो उसके कारण ये लगता है कि ये सब किसलिए हैं? हमारे ऊपर में इतने सारे बंधन क्यों हैं? तो बचपन से ही उस तरह की एक विद्रोहीपन मेरे अंदर था और एक स्वतंत्रता की बहुत-बहुत…बड़ी इच्छा। तो मेरे ख्याल से वो एक स्त्री होने का अनुभव है, जहाँ पर एक स्वतंत्रता की बहुत इच्छा होती है कि हम अपनी तरह से अपना सब कुछ कर सकें। तो मेरा ख्याल है कि हम इस बात की प्रतीति करने के साथ-साथ ही बड़े होते हैं, आपकी स्वतंत्रता की इच्छा जो है वो कहीं-न-कहीं…उसका अगर आपको मूल्य देना होगा तो वो प्रेम ही आपके हाथ से निकल आएगा, यानी कि अगर आप अपने माता-पिता की कोई बात न माने तो वो आपसे नाराज होंगे, आपको उनके प्रेम से वंचित हो जाना पड़ेगा। तो मेरे ख्याल से ये जो एक एक्सप्लोरेशन है कि यह जो प्रेम और स्वतंत्रता का द्वंद्व है कि हमको दोनों एक साथ कैसे मिल सकते हैं, यानी हम स्वतंत्र भी हों लेकिन हमसे प्रेम भी न छूटे! तो ये मुझे लगता है कि एक स्त्री होने का एक विशेष इस तरह का अनुभव है। हो सकता है कि पुरुषों का भी इस तरह का अनुभव रहा हो, ऐसा तो नहीं कहना चाहिए कि किसी पुरुष का ऐसा अनुभव नहीं हो सकता है। लेकिन मुझे लगता है कि मेरा अपना पर्टिकुलर अनुभव इस तरह का बहुत रहा, और मुझे लगता है कि एक हमेशा, जो एक…मतलब हमारे अंदर एक तरह का समझौतावाद बचपन से ही पैदा किया जाता है कि बहुत सारी बातें आपको न भी पसंद हों तो भी आप उनके साथ में काम चला लीजिए। तो…फिर रघुवीर सहाय मुझे याद आते हैं, वो कहते हैं कि

‘हम तो लेंगे सारा-का-सारा जीवन
कम-से-कम वाली बात न हमसे कहिए।’

मुझे लगता है कि ये सारी बातें जो थीं, बचपन के साथ ही स्वतंत्रता और प्रेम के बीच का जो एक डायलेटिक्स था, ये मुझे समझ में आता रहा और ये हमेशा मेरी रचनाओं में भी…इसीलिए कुछ खास करके जो मेरी शुरू में लिखी कहानियाँ हैं, उनमें आप देखेंगे कि ये बंद काफ़ी आता है, जो बाद में चल करके जो आप कह रही हैं कि एक राजनीति में, समाज में, परिवार में, देश में–वो सारी बातें फिर वो एक विस्तार लेती हैं और उस स्वतंत्रता का अर्थ मैं बार-बार एक्सप्लोर करती रहती हूँ बहुत-बहुत तरीकों से। मेरी एक कहानी है ‘लाल मिट्टी की सड़क’, तो उसमें…अच्छा देखिए कई बार ऐसा होता है कि आप चूँकि स्त्री हैं तो, आपको ये माना जाता है कि आप स्त्री-विमर्श, यानी स्त्री की आजादी की जो लड़ाई है उसमें आप शामिल हो रही हैं और आप उसी तरह लिख रही हैं। पर मुझे लगता है कि मेरे साथ हमेशा ये रहा कि एक तरह का होलसम, जिसको कहते हैं कि एक व्यू मेरा रहा कि अगर पुरुष जो है, अगर वो स्त्री को आजादी नहीं दे रहा है, एक पति अगर पत्नी को आजादी नहीं दे रहा है। कहीं उसके अंदर में डर है कि कहीं उसके साथ कोई हादसा न हो जाए। क्योंकि समाज की संरचना ऐसी है कि जिसमें बहुत सारी आजादियाँ जो हैं वो अंतत: आपको बहुत सारी परेशानियों में भी ले जा सकती हैं। तो यानी कि ये जो एक ग्राउंड रियलिटी है, मुझे लगता है कि उसका एहसास मेरे साथ हमेशा रहा और इसका इसलिए भी बहुत सारे जो exploration (खोज) हैं वो कहीं-न-कहीं इसके चारों तरफ निकलते हैं। इसलिए वो कहीं एक बड़ी तोड़-फोड़ की बात या जिसको हम कहते हैं कि एक बिल्कुल उससे अलग निकल जाने की बात, वैसी बातें आमतौर पर स्वतंत्रता का अर्थ खोजते हुए मुझे लगता नहीं कि मैं कर पाती हूँ। क्योंकि मुझे लगता है कि अंतत: एक संवेदनशील समाज को बनाने की ज़रूरत है, जिसमें कोई भी व्यक्ति स्त्री हो या पुरुष हो; दरअसल स्वतंत्रता का अनुभव करते हुए जी सकता है।

और, अभी मेरा जो अगला सवाल था वो इसी पर था, क्योंकि जिस दौर में आपने लेखन का कार्य शुरू किया था, उस दौर में कई स्त्री-विमर्श लेखिकाएँ हमारे सामने थीं जिन्होंने मुखर रूप से स्त्री के अलग-अलग पक्षों को उजागर किया, लेकिन जब हम आपके साहित्य या आपकी रचनाओं को पढ़ते हैं तो उसमें ऐसा महसूस होता है कि स्त्री सम पर है, जैसा आपने कहा भी। लेकिन मेरा सवाल ये है कि जिन आम स्त्रियों की कहानी या जिन आम घरों से उपजी मानसिक मन:स्थिति वाली स्त्रियाँ थीं उनकी कहानी को जब आपने लिखा, जो आपने अपने आसपास देखा या महसूस किया; उनको ये जो…और मैं कह रही हूँ आम जो रोजमर्रा के जीवन में, हमारे जीवन में जिन चरित्रों को आपने गढ़ा है; आपके जीवन में, आपके लेखन में वो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं, लेकिन जिसमें आम परिवार है, जीवन है या व्यक्ति है–वहाँ तक वो साहित्य कैसे पहुँचे, वहाँ तक उस आम व्यक्ति की जो समस्या है, जिसका समाधान या जिसके बारे में आपने विचार किया है, उस तक, उस व्यक्ति को साहित्य, आपका साहित्य कैसे पहुँचे? उसे कैसे मालूम हो?

ऐसा है कि जब हम प्लस टू में पढ़ रहे थे तो हमारे सिलेबस में सारा आकाश शामिल था, और वो एकदम जो सत्रह-अठारह साल की उम्र होती है। और हर समय हम…उसमें प्रभा जो एक कैरेक्टर थी, जिसकी शादी होती है और घरवाले…वो घड़ी पहन कर खाना बनाती है तो उसको इतने सारे व्यंग्य झेलने पड़ते हैं, पति का अपना वो रुख है, उसको लगता है कि पत्नी जो है उससे वो संबंध न बनाए और वो कितनी तरह के कष्टों को झेलती है। तो पता नहीं, कहीं-न-कहीं हमारे अंदर वो बहुत विद्रोह पैदा करती थी…मेरी दो बड़ी बहनें थीं, उनकी शादी हो चुकी थीं और मुझे कहीं-न-कहीं ये दिखता था कि मुझे भी उसी पैटर्न का एक जीवन जीना है और मुझे प्रभा जैसा ही, मतलब कहीं-न-कहीं मेरा जीवन होगा–ये बात सोच करके मेरे अंदर में बहुत विद्रोह की भावना होती थी। तो मुझे लगता है कि देखिए, मतलब स्त्री-विमर्श जो है तो स्त्री की तकलीफें तो जरूर हैं और आजाद होने के लिए बहुत सारी कीमतें चुकानी पड़ती हैं, जो बहुत सी स्त्रियाँ नहीं चुका पाती हैं और इससे अंतत: समझौते कर उसी तरह की जिंदगियाँ काटती रहती हैं। लेकिन मुझे लगता है कि जब हम साहित्य की बात करें, तो साहित्य…मतलब एक कोई मैनिफेस्टो या इस तरह की चीज़ तो नहीं है जो आप एक एजेंडा ले करके एक साहित्य लिखें और उसी से आप एक क्रांति पैदा कर दें! तो मुझे लगता है कि इस तरह की जो बात है वो एक काफी, मतलब एक…पता नहीं मुझे नहीं लगता है कि इस बात में कोई आनी-जानी है। और मेरे साथ ये हुआ कि देखिए जब ‘कलि-कथा’ पर इतनी सारी बातें हुईं, जब श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार लेने मैं दिल्ली गई तो…ये 1998 की ही बात है जिस साल ‘कलि-कथा’ छपा था, तो कई लोगों ने मुझे प्रश्न किया कि किशोर बाबू की पत्नी बोलती नहीं है, किशोर बाबू की भाभी का ऐसा जीवन है…तो आप ऐसी स्त्रियों का चित्रांकन क्यों कर रही हैं! ये तो आप यस्थास्थितिवाद का पोषण कर रही हैं। तो देखिए, मेरी जो साहित्यिक धारणा थी वो ये थी कि आप एक झूठा विद्रोह दिखाकर एक सच्चा विद्रोह पैदा नहीं कर सकते हैं। हो सकता है कि रघुवीर साहय के कारण ही ये धारणा बनी हो; क्योंकि मुझे ये लगता था कि आप एक जो हिस्टोरिकल रियलिटी है, आप उसके अंदर से ही तो आज…हमारी माँ की जो रियलिटी थी उससे मैं पैदा हुई हूँ, तो वो कहीं-न-कहीं तो वो विद्रोह जो है वो एक सच्चाई को जानते हुए भी विद्रोह होता है, वो एक मैन्युफैक्चर्ड विद्रोह नहीं हो सकता है। तो इसलिए एक तो मेरी ये दृष्टि थी, और कई बार कई लोगों ने ये भी कहा कि किशोर बाबू जैसे पात्र को ले कर के अलका सरागवी उपन्यास लिख रही हैं तो ये तो डीफेमिनाइजेशन है! मतलब कि एक स्त्री अपने स्त्रीत्व को नकार कर एक पुरुष पात्र को लेकर एक कहानी लिख रही है। तो मुझे लगा कि भई आप मुझे क्यों बता रहे हैं कि हम क्या लिखें, क्या न लिखें। अब आप कह रहे हैं कि आप स्त्री हैं तो स्त्री-विमर्श ही लिखिए, आप स्त्री के लिए लिखिए, स्त्री जैसा लिखिए! तो ये एक तरह का आपको स्त्री के घेरों में बंद करना हुआ, और ये आप स्त्री की आजादी के नाम पर कर रहे हैं! तो मुझे लगता था कि ये कितनी विरोधाभाष की बात है कि आप कह रहे हैं कि स्त्री अपनी तरह से अपना अनुभव लिखे, लेकिन आप कह रहे हैं कि ये ऐसा क्यों लिखे! तो वो राजनीति की बात न करे, वो समाज की बात न करे, वो एक बड़ा व्यापक कैनवास लेकर के न लिखे! तो कहीं आप उसको ये कह रहे हैं। तो मुझे ये सारी बातें…मुझे लगता था कि जो परिवारों में, जीवन में जिन बातों को हम झेलते हुए आए, अब लो ये साहित्य में भी सब हमको ये बताने लगे हैं कि ये करो, ये मत करो, ऐसे करो तो ऐसे क्यों करो, वो करो तो वैसे करो! तो मुझे समझ में नहीं आती थी ये बातें। और मुझे लगता था कि मैं क्यों नहीं लिख सकती, मैं वी.एस. नायपॉल जैसा क्यों नहीं लिख सकती! मैं सलमान रुश्दी जैसा क्यों न लिख सकती! मैं स्त्री हूँ तो मुझे स्त्री के जैसा ही क्यों लिखना चाहिए! या स्त्री के दायरे में जो चीजें आती हैं वही चीजें लिखना चाहिए। मैं पुरुष पात्र क्यों न लिख सकती! शरत चंद्र ने सारे स्त्री पात्र को ले कर कथाएँ लिखीं तो उन्होंने क्यों लिखीं वो कथाएँ? उनको क्या पता था स्त्री होना क्या होता है। तो मतलब कि ये एक जो आप लगातार कैटेगराइजेशन करते रहते हैं न, मतलब आप जेंडर के आधार पर, या आप विषयों के आधार पर या सोच के आधार पर, मतलब आप हमेशा एक कैटेगराइजेशन करते रहते हैं, और आपको लगता है कि सबको इस कैटोगरी में फिट कर दें तो बढ़िया रहेगा! तो मुझे तो लगता है कि, मेरी तो यही तमन्ना है कि मुझे किसी कैटेगरी में फिट न किया जा सके।

जब मैं आपकी किताबों को पढ़ रही थी, और जब मैंने कवर पेज, वो अकसर पीले रंग का होता है, चाहे ‘कलि-कथा वाया बाइपास’ हो, ‘कहानियों की तलाश’ हो, ‘कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए’ हो, इनमें मैंने इस रंग के चुनाव को बहुत ज्यादा देखा! और अगर मैं एक-दो और आपके ‘शेष कादम्बरी’ जो है, उसको भी कहूँ तो उसमें एक पीलापन जो है वो रहता है। इस रंग को हम देख सकते हैं! तो क्या इसके पीछे कोई ऐसा खास चुनाव है? या ये रंग आखिर आपके हर कवर के ऊपर, इस रंग को देखती हूँ!

देखिए, ‘कलि-कथा’ का कवर चुनने की बात कहूँ तो मेरी एक मित्र थी जिसको नया-नया फोटोग्राफी का शौक़ हुआ था तो उसको लेकर हम कलकत्ते में गंगा नदी के किनारे-किनारे घूमे। क्योंकि उसमें एक कथा आती है न कि कलकत्ते में गंगा नदी के पानी से सड़कें धोयी जाती थीं, और इसलिए किशोर बाबू के जो पूर्वज थे उन्होंने कहा कि हम तो…ये शहर इतना पवित्र है, इसमें गंगा के पानी से धुलाई होती है तो इसी में हम रहेंगे, कभी छोड़ेंगे नहीं कलकत्ते को। तो खोजते-खोजते…मतलब हम एक ऐसे मॉनीमेंट (स्मारक) पर पहुँचे जिसको जेम्स म्युनिसिव घाट का मॉनीमेंट कहते हैं। तो ये मॉनीमेंट बचपन से मेरा देखा हुआ था, लेकिन अभी वो जो नया ब्रिज बन रहा था, सेतु गंगा नदी पर…विद्यासागर सेतु, उसके लिए पूरा टेंट से ढका हुआ था वर्षों से। तो एक टेंट गिर गई और हम उसके अंदर घुस गए…मैंने अपने मित्र को कहा कि बस यही कवर रहेगा! तो इसकी फोटो खींचो। तो वो पूरा एक…आप देखिए ये जैसे पूरा एक ओवर-ग्रोन जैसे, ये है न पीले रंग की…इमारतें होती थीं। देखिए इसका पीला रंग है। और ये चारों तरफ एक जंगल से जैसे पूरा एकदम ढका हुआ। मतलब कि चारों तरफ…यहाँ पर अगर आप गौर से देखेंगे तो आपको जेम्स में से पलक दिख जाएगा। तो मुझे लगता है कि मतलब ये जो इतिहास हम भूल गए, हमने छोड़ दिया और उसके चारों तरफ एक जंगल उग आया। माने उस इतिहास की जैसे ये कथा और उसके पीछे बहुत सी कथाएँ थीं कि गंगा नदी के किनारे पर बना हुआ था, अँग्रेज और किसके स्वागत के लिए बना था। जब कोई बड़ा अँग्रेज (राजकुमार) आया था तो उसके स्वागत के लिए ये दरवाजा बनाया गया था कि वो यहाँ से आएगा।

एक और मेरा प्रश्न है अलका जी कि आप जब कहानी लेखन करती हैं या कहानी कर्म के साथ-साथ आप पाठकों के लिए भी कुछ छोड़ जाती हैं, उनका काम भी…आप कहती हैं कि मैंने आपको कहानी सुनाई, अब आपका काम है आपको सोचने का, चाहे वो अनुमान लगाना हो, या कल्पना करना हो–वो कहानी के अंतिम में हमेशा ऐसा लगता है कि पाठक या तो गहरी सोच में रहता है, या जो लेखक है वो उसपे छोड़ के चला जाता है कि अब आप सोचिए या आप विचार कीजिए कि आगे क्या होगा; तो इसके पीछे क्या है? क्योंकि कई सारी कहानियों में मैंने ये महसूस किया कि आप पाठकों पर उनका ये कार्य छोड़ देती हैं कि अब आप सोचिए कि आपको क्या करना है, आपको सोचना है!

देखिए, इसके पीछे भी मुझे लगता है कि एक तो…अशोक जी की एक बात मुझे याद आती है, अशोक सेकसरिया जो मेरे गुरु थे, वो कहते थे कि कहानी कोई ऐसे लॉकेट नहीं होती कि उसको बंद कर के लास्ट में उसको बंद कर दें। तो ये बात मुझे आपके कहने से उनकी कही हुई ये बात याद आ गई, और दूसरा मुझे लगता है कि जो नई कहानी की कला थी, जिसके अशोक जी भी एक कहानीकार के रूप में हस्ताक्षर थे। मतलब अंत पर ले जाकर, हम अपनी बातों को कहीं थोप न दें उसके ऊपर। मतलब हम पाठकों के ऊपर कहीं-न-कहीं हम अपने अंत को बता दें कि भई अब यही अंत है और तुमको इसी अंत को ही अपना, मतलब बस ऐसे ही कहानी को पढ़ के यहीं तक रह जाना है। तो मेरा ख्याल है कि ये भी जो एक मानसिकता थी न कि…फिर रघुवीर जी की एक कविता याद आती है कि ‘मैं ताकत से नहीं, मैं उम्मीद से बोला कि मैं सही हूँ।’ तो मतलब ये देखिए कि एक जो रचनाकार है, कहीं-न-कहीं पाठक को अपनी रचना प्रक्रिया में शामिल कर लेना चाहता है। मतलब एक तरह का ये सचेत क्रिया है कि आप एक कहानी बुन रहे हैं। ऐसा भी आप देखेंगे कि बार-बार मेरी कहानियों में या उपन्यासों में भी आप देखेंगे कि चीज आपको मिलेगी। क्योंकि मुझे लगता है कि हम जो लिख रहे हैं, उसमें पाठक भी अपनी एक पैरेलल (समानांतर) कहानी लिखता है, कहीं-न-कहीं। मतलब कि उसके दिमाग में भी अपने पढ़े हुए, सुने हुए, या अपना जो जीवन जीता है उसके भी कुछ टुकड़े याद आते हैं उसको। तो मुझे लगता है कि पाठक के लिए वो स्पेस अगर हम छोड़ सकें तो वो पाठक उसमें एक तरह की मुक्ति महसूस करता है। तो देखिए कहीं-न-कहीं लेखक के साथ पाठक जो है वो एक अपना भी टेक्स्ट गढ़ लेता है।

और यही उसके जुड़ने का कारण होता है, जो बहुत आसानी से लेखकों के साथ या लेखिकाओं के साथ जुड़ता है। इसी से मुझे आपकी एक कहानी याद आती है–‘हरसें बदलती हैं’, जो आपने अपनी कहानी संग्रह में लिखा था। उसमें एक जगह पर जो नायिका है, जो पात्र है, जो चरित्र है वो कहता है कि आपकी कहानी पढ़के अच्छा लगा, तो वो शब्द अब मुझे लगता है कि इससे ज्यादा अब वो क्या कहेगा। अच्छा ही कहेगा, इससे आगे तो…मुझे उसकी उतनी खुशी नहीं मिलती है। और जो अंश मुझे समझ में आया वो ये कि हम धीरे-धीरे शब्दों के अर्थ को खोते जा रहे हैं, हम हर चीज के लिए या तो कुछ ऐसे गिने हुए शब्द या चुने हुए शब्दों का प्रयोग करते हैं। और जब मैंने उस कहानी को पढ़ा तो लगा कि हाँ, शायद मुझ जैसे बहुत से पाठक या जो आपको पढ़ रहे हों या वो भी शायद ऐसा ही महसूस करते हों। तो ये जो विचार था, ये 90 के दशक में…ये सोच कहाँ तक प्रभावित हुआ कि आज हम सोशल मीडिया के जमाने में इस पर बात करते हैं कि एक ही शब्द का प्रयोग बार-बार कर रहे हैं। इसके अर्थ को हम खोते जा रहे हैं। तो आप क्या सोचती हैं इसको लेकर के?

देखिए, वो कहानी मेरी काफी पसंदीदा कहानियों में थी। क्योंकि वो एक बिल्कुल जीवन से जुड़ती हुई कहानी थी, है न। मतलब हर शय बदलती है, आप किसी बात में फँस गए हैं और आप उससे निकल नहीं पा रहे हैं, लेकिन आप ये मानते हैं कि नहीं सब कुछ बदलता है और ये भी बदल जाएगा। तो ये एक तरह का…जैसे एक विचार होता है न, जो जीवन को लेकर एक दर्शन होता है जिसकी आपको जरूरत होती है उस समय। तो मेरे ख्याल से ये जो एक जीवन दर्शन था वो उसमें आता है, और इसीलिए वो आती हैं बातें, कि जो जीवन से आती हैं कि आप एक कहानी लिखते हैं, और आपको लगता है कि लोगों का उस कहानी पर क्या विचार है। तो वो कहेंगे कि हाँ, अच्छी लगी। तो मतलब कि शब्द जो…देखिए अब ये कविता है न, अज्ञेय की कि ‘ये उपमान मैले हो गए हैं’। तो मतलब कि ये सारे शब्द इतने घिस जाते हैं, और लोग इतनी घिसी-पिटी असल में जिंदगियाँ जीते हैं कि वो ज्यादा पढ़ते नहीं हैं, ज्यादा सोचते नहीं हैं। तो वो मतलब, जो अभी भी आप देख रहे हैं कि अब हमारा जो सोशल मीडिया का…आपने बिल्कुल सही प्वाइंट आउट किया कि बहुत सारे, मतलब सीमित शब्दों में, जैसे हमारे सारे एक्सप्रेशन्स जो हैं वो बस आ जाते हैं। या मतलब उनसे बहुत सारे ऑप्शन, देखिए आप कहीं टाइप कर रहे हों तो नीचे आपको बहुत सारा दे देता है आपका फोन या कंप्यूटर आपको बता देता है। ‘Thank you, So much या Wow. इस तरह की, मतलब एक्प्रेशन्स आपको प्रोवाइड कर रहा है।

आपको उपन्यास पढ़ना ज्यादा पसंद है या कहानियाँ?

देखिए, पसंद तो ज्यादा उपन्यास पढ़ना ही है पर असल में उपन्यास उतने नहीं पढ़े जाते हैं जब तक कि वो…जैसे अब ‘रेत समाधि’ पर रिव्यू लिखना था, तब तो वो पढ़ा ही गया पर उतने पढ़े नहीं जाते हैं उपन्यास। कई तो लाइंडअप हैं जिनको पढ़ना है–वंदना राव का उपन्यास मँगवा रखा है। कई उपन्यास हैं जिनको पढ़ने की इच्छा भी है, लेकिन वो अभी पढ़े नहीं जा रहे हैं, क्योंकि उनके लिए आपको ज्यादा समझ चाहिए। मेरा बेटा अँग्रेजी के उपन्यास बहुत पढ़ता है, वो हमेशा हर महीने एक किताब दे देता है कि ये लो इसको पढ़ लो। पर मैं देखती हूँ कि पढ़ नहीं पाती हूँ, क्योंकि अभी…मेरे ख्याल से अपने लिखने का जो चक्कर है न उसमें दूसरों का पढ़ना कम हो जाता है। इसीलिए मैंने कहा कि जो पेसबुक पर कोई किसी कहानी की चर्चा होती है तो वो लेखक को ही कहते हैं कि हमको भेजो, लिंक भेज दो हम पढ़ लेते हैं। तो इस तरह कई…अनुकृति उपाध्याय की मैंने कई कहानियाँ पढ़ डाली। अनुकृति उपाध्याय एक लेखिका हैं, बहुत अच्छा लिखती हैं, तो उनकी कहानियाँ पहले मैंने पढ़ी, वो बड़ी मुझे अद्भुत लगी। कई…ममता जी भी काफी पढ़ती हैं, वो कई कहानियों का जिक्र करती हैं। तो वो पढ़ी जाती हैं कहानियाँ, उपन्यास पढ़ने के लिए आपको ज्यादा एप्लीकेशन, ज्यादा समय चाहिए।

आपको बहुत-बहुत शुक्रिया, आप आईं और…!

मुझे भी बहुत अच्छा लगा आपके प्रश्न बहुत अच्छे थे और आपसे बात करके मुझे भी बहुत अच्छा लगा। ‘नई धारा’ के प्रति मेरी बहुत शुभकामनाएँ हैं। बहुत-बहुत धन्यवाद!

प्रस्तुति : अभिरंजन प्रियदर्शी


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