नई धारा संवाद : साहित्यालोचक नंदकिशोर आचार्य से बातचीत

नई धारा संवाद : साहित्यालोचक नंदकिशोर आचार्य से बातचीत

मनुष्य श्रेष्ठ तो दायित्व भी श्रेष्ठ हों

मारे साथ हैं प्रसिद्ध साहित्यालोचक नंदकिशोर आचार्य जी! नंदकिशोर आचार्य जी की प्रतिभा जो है बहुमुखी और आज उनकी जो पहचान है वो एक सर्वाधिक विविधतापूर्ण लेखक के बतौर भी है। उन्होंने बहुत सारी विधाओं में लेखन किया है। 1945 में उनका जन्म हुआ और तमाम…नाटक में, आलोचना में, कविता में, अनुवाद में, चिंतन में, तमाम क्षेत्रों में लेखन में वे अपना दख़ल रखते हैं। तमाम पुरस्कारों में, साहित्य अकादमी पुरस्कार है, मीरा पुरस्कार, बिहारी पुरस्कार, भुवनेश्वर पुरस्कार और तमाम महत्वपूर्ण लेख उनके द्वारा लिखे जा चुके हैं। और वो उन लेखकों में से हैं जो बहुत जबरदस्त लेखन, बड़े ही व्यवस्थित ढंग से और लगातार लगन के साथ करते हैं और हमारी खुशकिस्मती ये है कि नंदकिशोर आचार्य जी से बात करने का मौका आज ‘नई धारा संवाद’ के जरिये से हमें मिल रहा है! तो आचार्य जी आपका बहुत स्वागत है इस बातचीत में, ‘नई धारा संवाद’ की इस कड़ी में।

आचार्य जी, मैं चूँकि जब से आपको पढ़ता रहा, या आपके बारे में सुनता रहा और आपके इंट्रड्यूज़ से गुजरने का जब मौका मिला, तो मेरे मन में एक बात तो हमेशा से थी कि आपने ग़ालिब का बहुत सम्मान किया है, अपनी बातचीत में, अपने लेक्चर्स। मैं ये जानना चाह रहा था कि ग़ालिब ने आपको किस तरह से अपने असर में रखा और वो असर आपके लेखन में कहीं कैसे आया? 

ग़ालिब पहले कवि हैं, जिन्होंने मुझे, मेरे विद्यार्थी काल में प्रभावित किया। मैं जब फर्स्ट ईयर में पढ़ रहा था, उस समय हिंद पॉकेट बुक से एक सीरीज़ निकला करती थी, ‘शायरों की’ तो उसमें दीवाने ग़ालिब भी था। तो मैं खरीद के लाया उसको और शौक से ही पढ़ने लगा, पढ़ने लगा तो बहुत ज्यादा मुझे अपने अंदर डुबाने लगे वो। और मैं ये मानता हूँ कि उसके बाद…अभी भी मैं ये नहीं कह सकता हूँ कि मैंने उनको पूरा समझ लिया, या कि…अब भी जब कभी पढ़ता हूँ तो कुछ नयापन दिखाई दे जाता है! ये चीज़ पहले समझ में नहीं आई थी, अब आ गई है। लेकिन ये जरूर है कि मेरे लेखन पर जिन लोगों का प्रभाव पड़ा होगा…मुझे लगता है उनमें ग़ालिब शायद सर्वप्रमुख हैं। ये नहीं कि उन्होंने जो लिखा उसका प्रभाव पड़ा। क्योंकि मैं तो उर्दू में लिखता नहीं और…शुरू में कुछ लिखा था शौकिया, लेकिन हिंदी का ही लेखक हूँ। लेकिन मुझे ये लगता है कि भाषा को कैसे बरतना चाहिए। एक-एक शब्द का क्या महत्व हो सकता है, उसके विन्यास में कहाँ, किस शब्द को, उसके…थोड़ा आगे-पीछे करते ही कैसे सब चीज़ें बदल जाती हैं। तो इसलिए शब्द की जो महिमा है, शब्द की जो गरिमा है, शब्द की जो अर्थ-गर्भिता है और सही-सही स्थान पर उसका विनियोग जो है। मुझे लगता है कि शायद मैंने ये ग़ालिब की ग़ज़लों से सीखा। ग़ज़ल आप देखें…शेर एक ऐसी विधा है जिसमें एक दो पंक्तियों में आप, पता नहीं कितनी-कितनी चीज़ें महसूस करवा सकते हैं, और कर सकते हैं, और कह सकते हैं, समझ सकते हैं। तो वो तब संभव होता है जब आप शब्द की सारी, मतलब उसके अर्थान्वेषण में जाएँ, और वो ग़ालिब करते हैं। दूसरी बात मुझे ये लगती है ग़ालिब के बारे में वो शायद केवल उर्दू के ही नहीं, और शायद केवल भारतीय भाषाओं के ही नहीं। ये…बहुत से मेरे मित्र उसको कहते हैं तुम अतिरिक्तपूर्ण बात करते हो। पर मुझे वो विश्व कविता में आधुनिक किस्म के। किस्म इसलिए कह रहा हूँ कि जो आधुनिकता का कॉन्सेप्ट वग़ैरह तो बाद में डेवलप होता है। लेकिन उसके बीज अगर मुझे दिखाई देते हैं उस कविता में तो वो ग़ालिब में दिखाई देता है। आप देखिए आत्मव्यंग्य, जो ग़ालिब में दिखाई देता है आपको…आत्म गौरव तो उर्दू में एक कॉमन चीज़ है, वो तो सब कवियों में दिखाई देता है, बाकी कवियों में भी दिखाई देता होगा। लेकिन आत्मव्यंग्य जो दिखाई देता है और उसके साथ में एक आस्था-अनास्था का द्वंद्व, जो ग़ालिब में दिखाई देता है, जो मैं समझता हूँ कि किसी भी आधुनिक लेखक में मिलेगा आपको…किसी बड़े पोस्ट पर, क्योंकि उनमें से हर लेखक को गुजरना होता है। ख़ासतौर से जो कुछ हो रहा है दुनिया में, और रोज नई खोजें हो रही हैं। मनुष्य के अस्तित्व के जो नये सवाल उठ रहे हैं, उन सब के संदर्भ में मुझे ये लगता है कि ग़ालिब…उसके इतिहास में मैं जाने की कोशिश करूँ, इतिहास में नहीं कहना चाहिए, उसकी परंपरा में जाने की कोशिश करूँ, तो ग़ालिब मुझे प्रारंभिक कवियों में एक बहुत ही महत्वपूर्ण कवि लगते हैं।

अज्ञेय का भी आप पर असर रहा! बल्कि एक जगह तो मैंने आपको ये भी कहते सुना कि आप अब तक उनके असर में हैं। तो, अज्ञेय जी तो हिंदी के ही लेखक थे और उनके करीब रहने का आपको बड़ा अवसर मिला, तो वहाँ हमें लगता है कि आप स्पष्टतया रेखांकित भी कर पाएँगे कि आपके लेखन में अज्ञेय का असर कहाँ दिखता है या है, तो अगर उस पर कुछ बात करना चाहें तो बड़ा अच्छा हो जाएगा कि अज्ञेय जी से आपने किस तरह से रचनात्मक प्रभाव हासिल किया?

अज्ञेय के विचारों का भी थोड़ा बहुत प्रभाव पड़ा होगा मुझपे, अभी भी रहता ही होगा। लेकिन फिर मैं एक कवि के रूप में और एक सर्जक के रूप में, भाषा के एक सर्जक के रूप में। शब्द के एक महान शिल्पी हैं वो, और आप ये देखेंगे कि जो बात मैं ग़ालिब के बारे में कह रहा हूँ, शायद उतने बड़े लेवल पर नहीं लेकिन एक दूसरे लेवल पर वो बात मैं अज्ञेय के बारे में भी कह सकता हूँ। उनसे जो मैंने सीखा है वो…वहीं शब्द को कैसे बरतना, शब्द के अंदर कैसे प्रवेश करना। देखिए कविता केवल आसपास जो हम देखते हैं उसी से नहीं बनती है, वो तो बनती ही है, लेकिन स्वयं शब्द भी कविता का स्रोत होता है। एक शब्द में कितनी अनुभूतियाँ समाई हुई होती हैं, उस शब्द की कितनी अर्थ छायाएँ होती हैं, उस शब्द की अपनी परंपरा होती है। आप जब उस शब्द में प्रवेश करते हैं तो कई चीज़ें आपके सामने स्पष्ट होती हैं–अपने आत्म के बारे में। हमारी परंपरा में साहित्य के कई अर्थ निकाले गए–साहित्य का इसके साथ, उसके साथ, ये और वो सहित। लेकिन मैं ये मानता हूँ कि आत्म और शब्द का सहित होना साहित्य है।

ये बताएँ कि जब आप पहली बार उनसे मिले तो जो एक छाया आपके ज़हन में थी कि भई ये ठीक से बात नहीं करते, थोड़े सख्त हैं, कड़क हैं। वो फिर कैसे बदली या वो पहली मुलाकात का एक्सप्लेशन कैसा रहा?

वो पहली मुलाकात में ही उलट गई। मतलब मुझे लगा क्या-क्या लोग बोलते हैं, क्या-क्या करते हैं। ये ठीक है वो बोलते थोड़ा कम थे–मतलब स्वभाव उनका था। लेकिन इतना स्नेह यंगर जनरेशन को देते थे, इतना प्रेम से बात करते थे। हँसी-मज़ाक भी करते थे, मेरे पास तो उनके विनोद के बहुत से किस्से हैं जो लोगों को…शायद आश्चर्य होगा, एक-आध लिखे भी हैं मैंने कहीं पर।

एक कुछ सुना भी दें, अगर आपने वो किस्सा कोई!

हाँ, बिल्कुल मैं सुना देता हूँ। अब आप देखिए जोधपुर में एक कार्यक्रम हो रहा था उनका। उनका तेहत्तरवाँ जन्मदिन था, तो निज़ाम साहब हमारे मित्र हैं, उर्दू के बड़े शायर हैं। तो वो भी उनके बड़े प्रशंसक हैं। तो उन्होंने कहा कि कार्यक्रम करते हैं। तो ठीक है, उनका कविता-पाठ रखा गया था। क्योंकि जन्मदिन था उस दिन पहली शाम को कविता-पाठ रखा गया। दूसरे दिन जहाँ वो ठहरे हुए थे–हमलोग थोड़ा लेट पहुँचे। उससे पहले पता नहीं किस व्यक्ति ने उनके पैरों का माप कैसे लिया होगा! और रातों-रात…जोधपुरी जुती जो होती है, वो बड़ी प्रसिद्ध होती है, आप जानते होंगे। बनवा कर के बढ़िया चमड़े की और बड़ी सॉफ्ट…और सुबह-सुबह उनको भेंट दिया गया, गिफ्ट किया गया, मतलब जन्मदिन के अवसर पर। अब हमलोग वहाँ पहुँचे तो निज़ाम साहब ने कहा कि कल तो बहुत अच्छा रहा कार्यक्रम, लोगों को पसंद आया। तो आप देखिए उनका विनोद, तो उन्होंने उन जुतियों की तरफ इशारा किया, ‘तभी तो ये मिली हैं।’

और उनकी क्या प्रसिद्धि थी या क्या उनकी लोकप्रियता थी, इसका भी अंदाज़ा लगता है कि एक उनका कोई प्रशंसक आया और…!

नहीं वो बहुत थी, लोगों को पता नहीं…मैं समझता हूँ कि करीब आठ सौ-नौ सौ लोग होंगे उस हॉल में। और करीब घंटे भर से ऊपर उनका कविता-पाठ हुआ और ‘असाध्य वीणा’ पूरी सुनाई थी उन्होंने…और लोग बड़ी शांति से, धैर्य से सुन रहे थे।

आपने इतनी विधाओं में लिखा है, अभी पिछले दिनों मतलब पिछला काम, ‘अहिंसा विश्वकोश’ जिसकी बड़ी चर्चा हुई और वो एक ऐसा काम है कि हैरानी के साथ, मतलब उसे कोई भी पढ़ने वाला देखता है कि जिस तरह से आपने जो मेहनत की है! मैं ये जानना चाह रहा था कि किस विधा में आप सर्वाधिक सहज होते हैं और हर विधा की मोटिवेशन क्या आपके लिए अलग होती है या एक कॉमन मोटिवेशन है रचनात्मक कर्म की, क्रिएटिव राइटिंग की वो है अलग-अलग विधाओं के लिए? 

एक तो कि जिस समय जिस विधा में लिख रहा होता हूँ, उस समय मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ विधा वही होती है। उस समय बाकी सारे लेखन का कहीं असर रहता ही है, क्योंकि व्यक्तित्व एक ही है, लेकिन उस समय पूरी तरह से उसी में मैं कॉन्सनट्रेट रहता हूँ, और इसलिए ये कहना कि मैं…वैसे इच्छा मेरी होती है कि मैं ये कहूँ कि मैं अपने को पहले कवि मानता हूँ। और वो जो एक संवेदना है कविता की वो शायद सब जगह मौजूद है। मतलब ऐसा नहीं चिंतन में भी। उसकी भाषा चाहे संवेदनात्मक न हो। पर कहीं वो मूल संवेदन वहाँ पर भी उपस्थित रहता है। और बाकी मैं मानता हूँ कि मेरी जो तलाश है, ओवर ऑल–क्योंकि जीवन की तलाश आप किसी एक विधा में पूरी नहीं कर सकते! इतना वैविध्यपूर्ण जीवन है, गहराई के इतने आयाम हैं उसके अंदर, अपने जीवन में, समाज के जीवन में, जो कुछ हमारा और सारा परिवेश है उसमें, उसको किसी एक विधा में, किसी एक कविता में, किसी एक नाटक में, किसी एक उपन्यास में ला पाना–वो तो कोई महाभारत जैसा ग्रंथ लिखा जाए, तभी संभव होगा। रामायण भी नहीं कह रहा हूँ, महाभारत जैसा ग्रंथ! अन्यथा वो संभव नहीं है। तो शायद उतना मैं समर्थ नहीं हूँ कि वैसा ग्रंथ लिख सकूँ–वो तो व्यास ही लिख सकते थे। मैं रासो का दामाद तो हूँ, पर आचार्य हूँ, वो काम नहीं कर सकता। लेकिन मैं ये कह रहा हूँ कि वो…लेकिन मुझे लगता है कि जैसे महात्मा गाँधी कहते हैं कि सत्य के अनंत रूप हैं। तो जीवन में जो सत्य व्यंजित होता है उसके भी उतने ही अनंत रूप हैं। और उन अनंत रूपों की पहचान के लिए, उनके एहसास के लिए, आपको कई तरह से उसको घेरना पड़ता है, उसकी अर्थ छायाएँ, उसके विभिन्न रूप, उसके आयाम अलग-अलग तरीके से दिखाई देते हैं। तो इसलिए हर विधा का महत्व…औचित्य सी बात में है। विधाएँ क्यों बनीं अलग-अलग, क्या जरूरत है! सभी तो क्रिएटिव हैं। इसलिए बनी है, क्योंकि कुछ चीज़ें ऐसी हैं जो आप सिर्फ उसी तरह पा सकते हैं, कुछ चीज़ें ऐसी हैं जो आप दूसरी तरह से पा सकते हैं। कुछ चीज़ें ऐसी हैं जो उनको मिला-जुला कर पा सकते हैं।

तो आपने ट्राई किया, दुबारा उपन्यास की विधा में!

वो बात मेरे मन में बहुत है हिमांशु जी, लेकिन एक तो समय का बड़ा अभाव है। दूसरा मुझे लगता है जो लिखा ही जा रहा है वो जिस तरह की कथाओं को लेकर लिख गया अब क्या फायदा उसको लिखने से। जब तक मेरा अपना अनुभव उसमें न उस तरह से आए। खैर तो बाकी सब…कहानी, उपन्यास दोनों में मान लीजिए। कहानियाँ भी नहीं बनी, एक-दो लिखी थी शुरू में, लेकिन नाटक जरूर लिखे। वो नाटक, कहानी-उपन्यास दोनों के ही सम्मिलित रूप मान लीजिए एक तरह से, उसमें कथा भी होती है, उसमें और…लेकिन मैं कह रहा हूँ कि ये कविता को, आप उसका नाट्य रूप भी कर सकते हैं, और वो बिल्कुल अलग होगा। फिर एक नाटक हो रहा है किसी बड़े हॉल में और आप उसको आगे बैठकर देख रहे हैं, बीच में बैठ कर के। और उसी नाटक को उसके दूसरे छोर में बैठकर देखिए तो ठीक है नाटक वही है, अभिनेता वही है, लगभग सब कुछ वही है। फिर भी उन दोनों को देखने का अनुभव अलग है। क्योंकि आपका ऐन्गिल बदल गया है देखने का। तो ये जो आपका ऐन्गिल बदलता है वो अलग-अलग विधाओं के बीच अपने ऐन्गिल होते हैं चीज़ों को देखने के, समझने के। चिंतन में भी यही लगता है मुझे, चिंतन भी एक तरह से आखिर क्या करता है, दर्शन क्या करता है। वो भी तो वही जानने की कोशिश करता है, उसका तरीका भिन्न है। तो मुझे ये लगता है कि जितने विषयों में मेरी रुचि रही है, और थोड़ा-बहुत जितना जान पाया हूँ, मतलब समझिए कि वो जैसे जैक ऑफ ऑल ट्रेड्स कहते हैं कुछ वैसा मामला हो जाता है, मास्टर ऑफ नन मैं हूँ, मास्टर…का नहीं। लेकिन वो चीज़ें जानने की कोशिश अलग-अलग तरीके से करता हूँ, तो उस कारण से लिखा जाता है। तो इसलिए जब मैं उस काम को कर रहा होता हूँ तो उस समय मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ काम वही है। मैं उसको सकेंडरी काम नहीं मानता।

आपने इतना महत्वपूर्ण काम किया–हिंसा विश्वकोश का, अभी आप जो काम कर रहे हैं उसके बारे में भी हम आपसे जानना चाहेंगे, वो भी बहुत महत्वपूर्ण काम है। लेकिन इससे पहले मैं ये जानना चाहता हूँ, जिस दुनिया में सिर्फ हिंदुस्तान में नहीं, दुनिया भर में एक अलग किस्म की आक्रामकता, चाहे वो विचारों की हों, चाहे व्यवहार की हो, चाहे अलग तरह से राजनैतिक चीज़ों की हों, वो आ रही है या बढ़ रही है या नहीं भी, अगर उसको हम यथास्थिति के तौर पर भी देखें तब भी वो विद्यमान है। उस स्थिति में इतना महत्वपूर्ण काम जिसमें इतना वक्त आपने दिया होगा, उसको करते वक्त आप किस तरह से दुनिया को देख रहे थे? आपको क्या लगता है कि…?

देखिए मैं कई बार मित्रों से बातचीत में और मित्र भी अपनी बातचीत में, और लोगों में भी मैंने ये उदाहरण दिया है कि बीमारी अगर है कोई तो उसके लिए प्रासंगिक क्या है–बीमार बने रहना, या उसका उपचार ढूँढ़ना। मैं मानता हूँ कि दुनिया में बहुत हिंसा है, हो रही है, और हिंसा खाली कोई मारपीट ही नहीं होती है। हिंसा के बहुत आयाम हैं, हमारे सारे समाज की संरचना में हिंसा है, हमारे बिलीव सिस्टम में हिस्सा है, कुछ हिंसाओं को हम उचित मानते हैं, बिलीव सिस्टम में वो कहता है कि हाँ ये तो ठीक है इसमें क्या बुरा है। तो ये जो…वो सांस्कृतिक हिंसा है। कुछ हिंसा प्रत्यक्ष है, कुछ हिंसा अप्रत्यक्ष है, तो ये सब जगह–परिवार तक में है, परिवार के ढाँचे तक में होती है। तो सवाल इस बात का उठता है कि अगर ये…एक तरह की बीमारी है न, हिंसा एक मनोरोग है। अगर कोई मनोरोग ग्रस्त व्यक्ति है तो आप क्या करेंगे? उसका इलाज करने का, उसका उपचार करवाने का प्रयत्न करेंगे, उसके उपाय सुझाने की कोशिश करेंगे या उसको बढ़ाने…भई अब ऐसा हुआ तब कुछ नहीं हो सकता। तो मैं ये मानता हूँ कि हिंसक हो रहे समाज में उसके उपचार की तलाश ही सबसे अधिक प्रासंगिक है। केवल हिंसा का जिक्र करने से प्रासंगिक नहीं होता है, वो भी करना पड़ता है, एनालिसिस करना पड़ता है किस कारणों से। लेकिन जब तक आप उन कारणों को मिटाते नहीं हैं या उसका रास्ता नहीं सुझाते हैं। जैसे बुद्ध सुझाते हैं–कभी दुख है तो उसको मिटाने का रास्ता ये है। उसको मिटाओगे तो दुख मिट जाएगा, कारण रहेगा तो नहीं मिटेगा। तो कारण का निवारण करना जरूरी है। तो ये जो हिंसक मानसिकता है, जो समाज की अलग-अलग रूपों में हमें दिखाई देती है–अर्थव्यवस्था में, राजनैतिक व्यवस्था में, पारिवारिक-सामाजिक व्यवस्था में, नक्सलवाद में, टेररिज्म में, युद्ध में–ये जो दिखाई देती है सारी हिंसा, ये है तो एक हिंसक मानसिकता की पैदाइश, उसके विविध रूप हैं। और वो मानसिकता कहीं मनुष्य के मन में विकसित हो रही है। तो उसका विश्लेषण करना और उसके उपचार की बात करना! तो हिंसा का उपचार क्या हो सकता है–प्रेम, अहिंसा!

आपकी ये बात उनलोगों के लिए बहुत उम्मीद की किरण है, जो मायूस हो चुके हैं या मायूस होने लगते हैं। ये सवाल मैंने आपसे इसलिए भी पूछा था कि मैं खुद ये सोच रहा था कि जिस दौर में इतनी हिंसा है, उसमें इतना बड़ा काम करने की क्या मोटिवेशन रही होगी कि मतलब…?

ये तलाश नहीं, और दूसरा मैं बाताऊँ आपको–मैं ये भी नहीं मानता हूँ कि, अगर मैं इतिहास को देखूँ तो कम-से-कम अब ये समय आ गया है कि विश्व-जनमत जो है वो हिंसा के पक्ष में नहीं हैं। मैं एक उदाहरण दे दूँ आपको–अभी भी युद्ध होते हैं, अभी देखा भी, जो कुछ हुआ भी, सब जगह होते हैं। लेकिन अब कोई ये नहीं कहता है कि मैं ताकतवर हूँ इसलिए युद्ध करूँ। किसी जमाने में बादशाह लोग, सम्राट लोग युद्ध करते थे–नहीं हम ताकतवर हैं, बल है तो तुम हमारे अधीन आओ, और नहीं तो हम जबरदस्ती लेंगे तुम्हें अपने अधीन। सारे साम्राज्य वैसे ही बने, इसी मानसिकता से बने। आज दुनिया का सबसे ताकतवर देश भी ये नहीं कहता, करता वही है पर वही कहने की हिम्मत नहीं–वो कहता है कि ये रक्षात्मक है, ये हमारा दोष नहीं है, ये उसका दोष है। उसकी गलती से हुआ है, हमारी इसमें कोई गलती नहीं है, क्यों कह रहा है भई! क्योंकि विश्व जनमत हिंसा के पक्ष में नहीं है। तो उसको भी इसका ध्यान रखना होता है, तो इस तरीके से धीमे-धीमे-धीमे मनुष्य के मन में एक आकर्षण अहिंसा का भी पैदा हुआ है। उसका महत्व भी उसकी समझ में आया है, चाहे उसके रूपों को अभी नहीं समझ पाया। लेकिन मैं अगर इतिहास की व्याख्या करूँ–न्याय में देखिए आप–किसी समय में आँख के बदले आँख, दाँत के बदले दाँत होता था, यही न्याय था। 

आज हम बात ही नहीं करते उसकी! आज हम जेल को सुधार-गृह कहने लगे। करते नहीं हैं, जेल में वही होता है अभी भी। लेकिन अब हम, हमारे शोषण नहीं, ये करो, वो करो, ये ऐसा नहीं करना चाहिए। तो एक प्रकार से ये जो मानसिकता में परिवर्तन है ये इतिहास की पूरी प्रक्रिया में से निकल कर आता है। क्योंकि एक-दो लोगों में नहीं हुआ है ये। वो तो मेरे बुद्ध और महावीर…सब ने किया ही था, इशा ने भी। अब ये धीमे-धीमे सब जगह लोगों के मन में आ रहा है। वो पुष्ट हो, वह जो उनकी मानसिकता है, जो उनके विचार की प्रवृत्ति है ये पुष्ट हो और उसको एक वैज्ञानिक आधार मिले। क्योंकि हमारे यहाँ हिंसा को वैज्ञानिक मान लेते हैं, दुर्भाग्य से। तो मेरी कोशिश ये रहती है कि अहिंसा जो है वो केवल नैतिक उपदेश नहीं है–वो जीवन का नियम है, लॉ ऑफ लाइफ है, जैसे लॉ ऑफ नेचर होता है न वैसे ही लॉ ऑफ लाइफ है, क्योंकि उसके बिना जिंदगी नहीं चल सकती है। और अगर वो लॉ ऑफ लाइफ है तो वैसे एक लॉ ऑफ हेल्थ होता है, आपको स्वस्थ रहना है तो आपको इन नियमों का पालन करना है, करते नहीं हैं, हम सभी उल्लंघन करते हैं उनका। पर हम ये नहीं कह सकते कि स्वास्थ का नियम ये है हम इनका उल्लंघन करें। नियम तो वही है, कोशिश करें कि उसी को फॉलो करें। उसी तरह से जीवन को स्वस्थ रखने का, जीवन के एकत्व का, जीवन मात्र का नियम–मतलब गाँधी जी उसको अहिंसा कहते हैं, कुछ लोग उसको प्रेम कहते हैं।

अफगानिस्तान में कुछ हो रहा है, हम क्यों चिंतित हो रहे हैं। कहीं तूफान आ गया, कहीं महामारी हो गई, कहीं कुछ हो गया तो सामान्य आदमी चिंतित होता है न्यूज देख कर के भी। क्या-क्या हो रहा है, वहाँ देखो कितना बुरा हो रहा है। तो ये क्यों हो रहा है, उससे कोई लेना-देना…उससे कोई रिश्ता ही नहीं है! रिश्ता है, क्योंकि वो भी मनुष्य है और वहाँ जो हो रहा है वो भी मनुष्य के साथ हो रहा है। वो भी जीवन का एक रूप है, और वहाँ जो कुछ हो रहा है वो जीवन के साथ हो रहा है! पशु-पक्षियों तक के लिए हम कहते हैं। टाइगर्स कम नहीं होने चाहिए, उनको बचाओ! क्यों भाई! खाएगा वो तो आपको? पर नहीं, जीवन का एक रूप है। तो इसलिए जीवन के जितने रूप हैं उनकी सुरक्षा…आजकल बड़ी चिंता होती है, आप देखते हैं जीवन वैविध्य की। वैविध्य कम हो रहा है, जीव मर रहे हैं, ये पूरी-की-पूरी प्रजातियाँ जीवों की नष्ट हो रही है। क्यों चिंता करें हम–कबूतर नष्ट होगा तो आपका क्या गया? पर नहीं, वो जीवन का रूप है और मनुष्य भी जीवन का रूप है। और मनुष्य क्योंकि…हम अगर ये मानते हैं कि मनुष्य जीवन का सर्वश्रेष्ठ रूप है तो उसका उत्तरदायित्व भी सबसे अधिक है। उसका अधिकार नहीं! दुर्भाग्य से ये हो रहा है कि मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है इसलिए इसको दूसरों को शोषण करने का, दमन करने का, उनको इस्तेमाल करने का अधिकार है, जबकि होना ये चाहिए कि मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है इसलिए वह सबसे अधिक उत्तरदायी है, वह सबसे अधिक विचारशील है इसलिए वह सबसे अधिक उत्तरदायी है। तो ये उत्तरदायित्व का बोध पैदा हो, क्योंकि यही इलाज है।

चूँकि गाँधी जी की बात आई थी और गाँधी जी हमारे यहाँ नोटों पर भी हैं, उनके नाम पर कई संस्थान भी हैं, हम गाँधी जयंती मनाते हैं, लेकिन जो हमारे समाज की, जैसे कि बात पहले भी हुई–हिंसा जिस तरह से बढ़ी। तो आपको क्या लगता है कि गाँधी के विचारों को हम समझा पाए क्या इतने सालों में? क्या वो जो गाँधी जी की दृष्टि थी, कहीं जा पाई समाज में वो संवेदना, या आप एक चिंतक के तौर पर गाँधी की उपस्थिति को कैसे देखते हैं इस समाज में? 

देखिए एक तो है गाँधी का व्यक्तित्व–जो उन्होंने काम किया, जो इतिहास में उनकी भूमिका है, जो प्रभाव था उनका, वो उनका व्यक्तित्व है। लेकिन विचार तो हमेशा जिंदा रहते हैं, और गाँधी के विचारों को मैं ये मानता हूँ कि आज सबसे अधिक प्रासंगिक अगर कोई है–विचार कॉम, तो वो गाँधी हैं। लिखा भी हमने…बहुत लंबा विषय हो जाएगा मैं बोलूँगा तो घंटे भर का व्याख्यान हो जाएगा। इसलिए मैं उसमें नहीं जा रहा हूँ। लेकिन मैंने बहुत लिखा है उनके बारे में भी और ‘अहिंसा प्रेम’ में जो मेरा काम है वो गाँधी से प्रभावित होकर ही है, शुरुआत तो वहीं से हुई है। बचपन से मैं उनसे भी प्रभावित रहा हूँ, मतलब जिन कवियों से, लेखकों से रहा हूँ उनके अलावा जिन लोगों से रहा हूँ उनमें गाँधी सबसे प्रमुख हैं। तो एक प्रकार से…लेकिन मुझे ये लगता है कि हमें गाँधी को आधुनिक मुहावरे में भी समझाने की आवश्यकता है। वो काम मैं करने की कोशिश करता हूँ। वो ‘अहिंसा-कोश’ में भी की है, अभी जो काम कर रहा हूँ उसपे भी कर रहा हूँ। अभी मैं एक ग्रंथमाला संपादित कर रहा हूँ, उसका नाम है ‘अहिंसा शांतिग्रंथ माला’, जो प्राकृत भारतीय अकेदमी, जयपुर की संस्था है, उनके लिए कर रहा हूँ वो काम। उन्हीं के लिए ‘अहिंसा कोश’ भी तैयार किया था, और उसमें हमारी योजना ये है कि अहिंसा के, और हिंसा के भी जो विभिन्न रूप हैं–उनको एनालाइसिस किया जाय। जैसे अभी जो किताबें हमने निकाली है उनमें सांस्कृतिक हिंसा पर भी किताब निकाली है कि ये कैसे होती है, क्या होती है! इसी प्रकार से प्रेम क्या होता है–इस पर भी निकाली है। इसी प्रकार से गाँधी के विश्व…जो दूसरे चिंतक हैं उनके साथ उनका कंपरैटिव स्टडी है। पंद्रह-सोलह किताबें आ गईं इस तरह की। कुछ अनुवाद भी किए हैं, जो मैंने ही किए हैं ज्यादातर वो तो। और उसमें अब ये अनुवाद मैंने किया है जिसका जिक्र मैं जरूर करना चाहूँगा यहाँ पर।  

16वीं शताब्दी में फ्रांस के एक विचारक हुए–बोइसी। बोइसी ने एक किताब लिखी ‘डिस्कोर्स ऑन वोलेंट्री सर्विट्यूड’। स्वैच्छिक दासता पर एक निबंध और उन्होंने भी उसमें अहिंसक प्रतिरोध की बात की है। उनका असर टॉल्सटाय पर था, सोरोकिन पर था, उनका असर गाँधी पर, नाम नहीं लिया गाँधी का, मगर टॉल्सटाय से प्रभावित हैं वो, थौरो से प्रभावित हैं। इमर्सन ने बोइसी पर कविता लिखी है। उनका मैंने अनुवाद किया है–‘स्वैच्छिक दास्ताँ’ के नाम से, जो प्रेस में है, दो-चार महीने में आ जाएगा शायद, और एक लंबी भूमिका भी उसपे लिखी है। तो मैं ये कह रहा हूँ कि इस तरह की किताबें हम इस समय प्रकाशित कर रहे हैं। कुछ हो गई हैं, कुछ हो रही हैं और मेरा ख्याल है कि इस महीने के आखिर तक लगभग पच्चीस किताबें तैयार हो चुकी होंगी, अगर प्रेस निकाल देता है उनको तो। और अभी योजना 50 किताबों की है, कितनी कर पाता हूँ! तीन साल के लिए मैंने काम एकसेप्ट किया था, उसमें कितना कर पाता हूँ। 

इतना श्रमसाध्य काम कैसे कर पाते हैं? कैसी दिनचर्या रहती है आपकी? 

मैं तो सुबह पाँच-साढ़े पाँच बजे उठ जाता हूँ। आध-पौन घंटे वॉक के लिए जाता हूँ, फिर आकर के चाय-वाय पीता हूँ। चाय-वाय पीते हुए पढ़ता रहता हूँ, कभी कुछ सुनता रहता हूँ, म्यूजिक वग़ैरह भी सुनता हूँ कभी-कभी। कभी टीवी वग़ैरह देख लेता हूँ, न्यूज-यूज में। लेकिन पढ़ता जरूर रहता हूँ कोई-न-कोई किताब, और उस पर सोचता रहता हूँ। फिर ऑफिस में जाता हूँ, वहाँ पर बैठकर ये अहिंसा का शांतिग्रंथ माला का काम आया तो वेट करता हूँ, अपना कुछ अनुवाद-वग़ैरह करता हूँ। शाम को भी घूमने जाता हूँ, फिर अपने कमरे में हूँ। कोई मित्र आ गए या फिर मैं चला गया थोड़ी देर के लिए तो गप-शप हो गई। अब यहाँ जयपुर में तो ज्यादा मित्र हैं नहीं, दो-चार हैं तो वे कभी-कभी मिल जाते हैं, या कोई बाहर से आ गया तो, एक शाम उसके साथ गुजर जाती है। इसके अलावा मैंने कुछ नहीं किया, मुझे और कुछ आता नहीं। तो फिर काम हो जाता है, और जैसा कि मैंने आपसे कहा, जब काम कर रहा होता हूँ तो उसी में लगा, मतलब ये भी आपको आश्चर्य होगा कि मैं एक नाटक लिखने और चिंतन का काम साथ-साथ कर पाता हूँ, क्योंकि जब वो कर रहा होता हूँ…दिमाग की एक ऐसी ट्रेनिंग हो गई है। नहीं-नहीं…डिस्ट्रैक्शन्स नहीं, जब रहता हूँ उसी में रहता हूँ। और आपको आश्चर्य होगा ये जानकर कि सारे नाटक मैंने तीन-चार दिनों में लिखे हैं। हर नाटक को लिखने में, सोचने में समय लगता होगा लेकिन लिखने में उसका जो रूप आता है तीन-चार दिनों में आ जाता है। सारे नाटक। क्योंकि इतना कॉन्सनट्रेशन हो जाता है। आप जब तक उसमें एक-मेक नहीं हो गए, तब तक नहीं निकलती चीज़। वो चिंतन हो, कविता हो, चाहे कुछ भी हो, नाटक हो।

मैं ऑडियंस के सवाल आपसे एक-एक करके पूछूँगा! एक सवाल, महेश कुनेठा जी का है–वो कह रहे हैं, हमारी शिक्षा व्यवस्था में एक ओर बात में प्रतियोगिता और पुरस्कार का उल्लेख होता है, दूसरी ओर सहयोग और सामाजिकता के मूल्य की आकांक्षा की जाती है। क्या आपको यह अंतर्विरोधी बातें नहीं लगतीं? 

है ही अंतर्विरोध, यह तो स्पष्ट अंतर्विरोध है। समाज सहकार पर चलता है, प्रतियोगिता पर नहीं। प्रतियोगिता में पछाड़ने का सुख होता है–आपने किसी को पछाड़ा और आपने सफलता प्राप्त की। तो ये एक तरह की हिंसक संरचना है, जिसमें आप अन्य से अपने को श्रेष्ठ साबित करते हैं। जबकि समाज में सहकार ही सहयोगी, पूरे समाज के विकास का आधार रहा है। ये प्रतियोगिता जो है–पूँजीवादी व्यवस्था, सामंतवादी व्यवस्था में होती थी। ये कहीं-न-कहीं सामान्य लोगों से कुछ लोगों को अलग करने की, समझिए कि परियोजना है। उसके कारण से तो मैं श्रमित हूँ इस बात से। मैं तो हमेशा…मैंने अपनी हर किताब में ये बात लिखी है कि समाज से, और गाँधी का यही कहना है कि पूरा इतिहास-दर्शन मनुष्य के सहयोग का इतिहास है। उसमें जब बाधा पैदा होती है, तब हम उसको इतिहास कह देते हैं। जहाँ वो सहयोग टूटता है और संघर्ष पैदा होता है, तब हम कह देते हैं कि ये इतिहास है। वास्तव में इतिहास वो नहीं है। क्योंकि अगर दुनिया सहयोग पर नहीं होती तो, नष्ट हो गई होती! 

उत्कर्ष अग्निहोत्री जी का सवाल है–कविता रचते समय बहुत से उपादान उसमें रचनाकार के भी जुड़ते हैं, लेकिन उसमें क्या ऐसा रह जाता है जो उसे कविता बना देता है और स्मरणीय भी, क्या चीज़ है जो कविता को कविता बना देती है? 

कविता को कविता बनाती है शब्द की मार्मिकता में प्रवेश। मैं ये मानता हूँ कि हर कलाकृति में एक मार्मिकता होती है, होनी चाहिए–और वही उस कविता को स्मरणीय बनाती है, वही उस कविता को पढ़ने लायक बनाती है, और वही उस कविता को संप्रेषणीय बनाती है, और ये मार्मिकता कथन में नहीं होती है। ये अनुभूति के संप्रेषण में होती है। उसको कथन की तरह से, विचार की तरह से प्रस्तुत करने में नहीं होती है। उसको आप एक अनुभूति की तरह प्रस्तुत करते हैं तो वो छूती है–आपके पाठक के मन को, और आप भी उस अनुभूति में से स्वयं गुजरे होते हैं तभी वैसा लिख पाते हैं। नहीं तो फिर विचारों को कविता के ढाँचे में प्रस्तुत करते रहते हैं या जो सामने दिखाई देता है उसको ‘ऐज इट इज’ प्रस्तुत कर देते हैं। आपको प्रत्येक चीज़ के मर्म में प्रवेश करना होता है–हर कलाकृति में, कविता में ही नहीं। जैसे संगीत में भी आप, सुरों के मर्म में प्रवेश करते हैं तब संगीत बनता है। केवल उनके संयोजन से नहीं बन जाता है, वो तो कोई भी कर सकता है। एक बड़े संगीतकार में, गायक में, या वादक में और एक सामान्य जो स्कूलों में पढ़ाते-लिखाते-सिखाते हैं। वो भी संगीत तो जानती हैं, व्याकरण सब जानते हैं संगीत का। पर वो क्यों नहीं करके…क्योंकि उनके, वो उसके ट्रेनिंग तो ले सकते हैं, पर उसके मर्म में प्रवेश करने की, समझिए कि आकांक्षा, सामर्थ्य तो बाद में, प्रखरता है, आकांक्षा तो होनी चाहिए न। हम तो ये मानते हैं कि शब्द तो हमारे…ये एक प्रकार का औजार हैं, वो तो उपकरण हैं हमारे। मैं ये मानता हूँ कि शब्द हमारे उपकरण नहीं हैं, हम उनके उपकरण हैं। जो अनुभूति उनमें है, उसको बाहर निकालने के इंस्ट्रूमेंट हैं हम, कवि जो है।

 आपकी एक कविता है ‘आत्मकथा’, जिसके बारे में आपने कहा कि आपने उसे जिया नहीं है। मैं चाहता हूँ कि आप इसको थोड़ा सा खोलेंगे, जीवन जीने के बाद भी आत्म को न जीने की ये जो अनुभूति है, ये कहाँ से आती है, क्या है ये आत्म को न जीना? 

हर आदमी अगर अपने बारे में सोचेगा, तो ये पा सकता है। सबके बारे में तो नहीं कहता, लेकिन अधिकांश लोग पा सकते हैं कि वे जो जीते रहे हैं अपने को खोकर जीते रहे हैं। अपने होकर नहीं जिए हैं। यानी कभी धंधे के लिए जिए हैं, कभी सामान्य ऐन्द्रिक सुखों के लिए जिए हैं, तो इन सब रूप में जीना है। आप देखिए हम आजकल अपने साथ अकेले रहने के आदी नहीं रह गए। अगर कुछ देर के लिए अकेले हो जाते हैं तो बेचैन हो जाते हैं। क्योंकि अकेले में आदमी को अपने से थोड़ा साक्षात्कार होता है, करना पड़ जाता है, उसका खतरा रहता है। उस खतरे में हम जाना नहीं चाहते हैं, इसलिए लगातार कुछ-न-कुछ करते रहना चाहते हैं। चाहे मनोरंजन के लिए टीवी देख लो, फिल्म देख लो, ये कर लो, वो कर लो, कहीं बैठ लो। मतलब कुछ अपने से, अपने अंदर न जाना पड़े। अपने अंदर जाए बिना आत्म नहीं जिया जाता, और अपने अंदर अन्य को लिए बिना भी आत्म नहीं जिया जाता। मैंने एक जगह पर सत्याग्रह के बारे में लिखा है, ‘सत्याग्रह की संस्कृति’ नामक पुस्तक की भूमिका में; कि सत्याग्रह जो है, वास्तव में, उसकी जो प्रक्रिया है वो केवल कहीं माँग को मनवाने वग़ैरह तक तो ठीक है, वो तो बहुत उसूल चीज़ें हैं उसके पीछे। मूल जो प्रक्रिया है, उसका एक बहुत महत्वपूर्ण परिणाम होता है–अन्य रूपी आत्म और स्वरूपी आत्म–में अद्वैत्व स्थापित करना। अन्य रूपी आत्म और स्वरूपी आत्म ये अलग-अलग नहीं है। अन्य में भी आत्म है, वो मेरा ही आत्म है। उसका एक रूप दूसरा है। अन्य दिखाई देता है, और मेरा स्व में जो आत्म है वो तो है ही है। तो ये…जब तक मैं इस चीज़ को महसूस नहीं करता हूँ, तब तक मैं आत्म को कहाँ जी रहा हूँ? तब तक मैं बहुत सीमित आत्म को जी रहा हूँ, और उस आत्म को जी रहा हूँ जो केवल स्थूल चीज़ों से लिपटा हुआ है। अगर वैसा ही जीवन…हमलोग सब वैसा ही जीवन जी रहे हैं। केवल आनन्ददायक जीवन जी रहे हैं। हर्बर्ट मार्क्युज़ ने एक बहुत अच्छी बात कही थी। उसने कहा, ‘हमलोग एक समृद्धि के नरक में रह रहे हैं’। (पश्चिम के बारे में कह रहे हैं।) हमलोग समृद्धि के नरक में रह रहे हैं। क्यों रह रहे हैं, क्योंकि हमने अपनी आत्मा के, चेतना के क्रांतिकारी आयाम खो दिए। अब हम केवल ऐन्द्रिक अस्तित्व हो कर रह गए।

तो, अगर मनुष्य केवल ऐन्द्रिक अस्तित्व है तो उसमें और एक अन्य पशु में क्या फ़र्क़ है? वो भी एक होमो साइपिंग जाति का पशु है। अलग तरह का मतलब पशु हो गया। वो उसकी चेतना, उसकी संवेदना–यही तो उसका आत्म है। एक बहुत…अंत में एक शेर सुना देता हूँ जिगर मुरादाबादी का–जो इस बात को थोड़ा-सा उस पर भी कहता है। ‘वरना क्या था सिर्फ़ तरतीबे अनासिर के सिवा।’ पंचभूतों को मिलन के दौरान…ठीक है मिल गया, जीवन पैदा हो गया। चकबस्त ने कहा कि ‘जिंदगी क्या है अनासिर में ज़ुहूर-ए-तरतीब, मौत क्या है इन्हीं अज्जा का परेशान होना’…तत्वों का एकत्रित होना जिंदगी है और उन्हीं का बिखर जाना मृत्यु। लेकिन मैं, वो तो एक दार्शनिक किस्म का शेर हो गया। फिर पोएट्रिक शेर है जो जिगर का है। ‘वर्ना क्या था सिर्फ़ तरतीबे अनासिर के सिवा, ख़ास कुछ बेताबियों का नाम इनसान हो गया।’ तो ये तो बेताबी है न, किस बात की बेताबी। 

और वो जो आत्म को जीने की छटपटाहट, शायद उसी के लिए ग़ालिब ने लिखा था कि–‘आप रहिए ऐसी जगह चलकर, जहाँ कोई न हो।’

यही बेताबी है, वो आत्म जीने की छटपटाहट ही वास्तविक बेताबी होती है।

बहुत शुक्रिया! बातचीत करते हुए ये एहसास लगातार बना रहा कि एक किस्म की समृद्धि खुद के अंदर महसूस होती रही और ऐसा बहुत कम बार होता है। वरना इंटरव्यू लेते हुए इंटरव्यू पर ज्यादा ध्यान रहता है, लेकिन यहाँ इंटरव्यू को भूल-भालकर जो आप कह रहे थे उसके असर में खुद को उतारने की प्रक्रिया एक सूत्रधार के बतौर मेरी भी थी, और मुझे लगता है कि जो लोग आपको सुन रहे थे उन्होंने भी ये महसूस किया होगा! तो बहुत शुक्रिया! 

बहुत अच्छा लगा आपसे बात करके और आपने अपना समय निकाला मेरे लिए, और मित्रों के सामने मैं अपनी बात कह पाया, बहुत से मित्रों ने सुनी होगी और बहुत लोगों ने सुनी होगी। और मैं चाहूँगा कि अगर उनको कुछ और, सवाल उनके हों तो कभी लिख कर भी मुझसे पूछ सकते हैं।


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