भाषा विवाद कूपमंडूक मस्तिष्क की देन है

भाषा विवाद कूपमंडूक मस्तिष्क की देन है

कवि शमशेर बहादुर सिंह से बातचीत

बात 1983-1984 की है। कवि व गद्यकार शमशेर बहादुर सिंह का अकसरहाँ लखनऊ आना होता था। वे आते और यहाँ महीने रुकते। अजय सिंह का भीकमपुर कॉलोनी का निवास उनका घर हुआ करता था। हमारे लिए ही नहीं, लखनऊ के साहित्यकारों के लिए भी उनसे मिलने, बतियाने, साहित्य पर चर्चा करने का अच्छा अवसर था। लखनऊ से निकलने वाले अखबार ‘अमृत प्रभात’ का दफ्तर हमारे मिलने-जुलने का उन दिनों केंद्र था। अमीनाबाद का कंचना, कैसरबाग का जनता कॉफी हाउस और हजरतगंज का इंडियन कॉफी हाउस की बनिस्पत ‘अमृत प्रभात’ में मिलना हमें ज्यादा जीवंत लगता था। किसी से मिलना हो तो हम कहते कि अमुक समय ‘अमृत प्रभात’ आ जाओ। ‘अमृत प्रभात’ के दफ्तर में घुसते ही एक बड़ा हॉल मिलता जहाँ सोफा पड़ा होता। यह बाहर से आने वालों के लिए मिलने और बैठने का स्थान था। यहीं हम मिलते, बतियाते और आगे का कार्यक्रम आदि तय करते। यहाँ आने-जाने वालों को लगने लगा था कि हम भी इसी अखबार के हिस्सा हैं। ऐसा ही माहौल था। यहीं तय हुआ कि शमशेर जी से बातचीत की जाय और वह अलग-अलग, टुकड़ों में या फुटकर बातचीत की जगह व्यवस्थित तरीके से हो। फिर इसे लेकर प्रोग्राम बना, टेपरिकार्डर खरीदा गया, अपने दफ्तरों से हमने छुट्टियाँ लीं और सवालों की एक लंबी-चौड़ी सूची तैयार की गई। वैसे शमशेर जी को सवालों में बाँधना संभव भी नहीं था। फिर भी हमारी कोशिश थी कि शमशेर जी से जो वार्ता हो, वह व्यवस्थित हो और वे विषय हमारे सामने रहें जिन पर हमें वार्ता करनी है। और यह बातचीत करीब दो दिनों तक चली।

शमशेर जी से हमारी बातचीत वैसे तो कविता से शुरू हुई, पर हिंदी-उर्दू विवाद पर भी चर्चा हुई। उन दिनों उत्तर प्रदेश में वीरबहादुर सिंह की सरकार थी और उसने प्रदेश में उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाए जाने की घोषणा की थी। सरकार द्वारा यह मात्र घोषणा थी। इस पर अमल दूर की बात थी, लेकिन इस घोषणा पर ही प्रदेश में उर्दू विरोधी माहौल बन गया था। इस विवाद को सांप्रदायिक हवा दी जा रही थी। हमने इस विवाद के संबंध में शमशेर जी से भी बातचीत की और बड़े ही बेबाक तरीके से भाषा विवाद के संबंध में उन्होंने जो विचार रखे, वह आज तकरीबन तीन दशक से अधिक का समय बीत जाने के बाद भी मौजूँ है और इसे समझने में सहायक हैं। यहाँ प्रस्तुत है उस बातचीत के प्रमुख अंश।

हिंदी-उर्दू का जो विवाद है, इस पर आप क्या सोचते-समझते हैं?

इस विवाद की शुरुआत सर सैयद खाँ के जमाने से, राजा शिवप्रसाद गुप्त ‘सितारे हिन्द’ के जमाने से हो गई थी। राजा शिवप्रसाद गुप्त उर्दू के शब्द लाने लगे थे तथा दूसरे लोगों ने इस पर अँगुली उठाई थी और कहा था कि ये हिंदी बिगाड़ रहे हैं। तभी से इस विवाद की शुरुआत हो गई थी। वैसे यह विवाद अत्यंत खोखला, निरर्थक तथा मिस लिडिंग है।

आपने कहा कि यह विवाद ‘सितारे हिन्द’ के जमाने से शुरू हुआ। तो क्या आपको नहीं लगता कि यह ब्रिटिश राज की देन है?

निश्चय ही। इसमें ब्रिटिश राज का बहुत बड़ा हाथ है। ब्रिटिश के जमाने से ही या कहिए फोर्ट विलियम के जमाने से ही दो विभाग बना दिए गए थे। एक जगह लल्लू लालजी को बिठा दिया गया था और दूसरी जगह मीर अम्मन को। लल्लू लालजी ने जो लिखा, वह कथावाचक शैली में है, वहीं मीर अम्मन की दास्तानगोई में, जो काफी सरल उर्दू में है।

शमशेर जी, जिस तरह ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने भाषा और धर्म के क्षेत्र में विवाद व उन्माद पैदा कर सांप्रदायिक आधार पर भारतीय जनता को विभाजित किया था, उसी तरह आज भाषा व धर्म के आधार पर जो विवाद या उन्माद पैदा किया जा रहा है, उसके पीछे वर्तमान सरकार की क्या वही नीति नहीं है?

सरकार करा रही है और पूरी जनता उसके प्रभाव में आ रही है, मेरे सामने तस्वीर इस रूप में नहीं है। बल्कि बाहर भी जो दल हैं, जो सरकार में नहीं हैं, जो जन विरोधी हैं साथ ही पूँजीपति, उनके अखबार, तमाम सांप्रदायिक संस्थाएँ तथा उनके द्वारा जो प्रचार होता है–ये तमाम चीजें क्या कम सद्भाव बिगाड़ रही हैं?
लेकिन वे भी तो शासक वर्ग का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। बेशक वे सरकार के बाहर हैं।

यह सच है कि इस विवाद के पीछे शासक वर्ग का बहुत बड़ा हाथ है और वह हमारी वास्तविक सांस्कृतिक दुनिया को क्षतिग्रस्त कर रहा है। आज हिंदी को सर्वोपरि करने की कोशिश की जा रही है। उर्दू की परंपरा, हिंदी के बनने में उसकी भूमिका आदि सबको ताक पर रखकर भाषाई आधार पर लोगों को लड़ाने की बड़ी सुनियोजित व सूक्ष्म कोशिश की जा रही है। पंजाब में सिखों से यह लिखाया जाता है कि उनकी मातृभाषा हिंदी है। यही कोशिश मुसलमानों से भी प्रकारांतर से की जा रही है। मुसलमानों से उर्दू दूर होती जा रही है। यह भी कहा जा रहा है कि उर्दू देवनागरी लिपि में क्यों न लिखी जाय। हिंदी-उर्दू विवाद के बीज तो काफी पहले पड़े थे, अब उसके पौधे फूट रहे हैं।

शमशेर जी, आप यह बताइए कि उर्दू के विरोध में यह माहौल क्यों बना है? कुछ सेक्शन में इसे देश विभाजन के लिए जिम्मेदार क्यों ठहराया जाता है? यही नहीं, इसे एक विशेष संप्रदाय से जोड़कर देखा जाता है।

इस संबंध में मेरी जो बेसिक अण्डर स्टैंडिंग है, उसे बताना चाहता हूँ। भाषा का जो जीवंत स्वरूप है, उसे मैं महत्त्व देता हूँ। हिंदी-उर्दू का जीवंत स्वरूप खड़ी बोली है, अर्थात जो भाषा हम आप बोल रहे हैं। कोई यहाँ उर्दू का लेखक होगा या उर्दू माहौल से आया होगा, वह दो-चार शब्दों के हेर-फेर से यही भाषा ‘खड़ी बोली’ इस्तेमाल करेगा। हिंदी का जो स्वरूप हम पत्र-पत्रिकाओं में देखते हैं, वह जीवंत नहीं है। उस रूप में जीवंत नहीं है, जिस रूप में हम बातें कर रहे हैं क्योंकि जिस रूप में हम बातें कर रहे हैं, उस रूप में हिंदी को नहीं लिखा जाता। विश्लेषण किया जाय तो पाएँगे कि यह हिंदी अँग्रेजी का अनुवाद है, अनकांशस। भाषा की रचना, वाक्यों के स्ट्रक्चर सभी अँग्रेजी के पैटर्न पर है। जहाँ जीवंत भाषा लाई जाएगी, वहाँ हिंदी-उर्दू के झगड़े कम होंगे। कहानियों के क्षेत्र में आप देखें। उर्दू की कहानियाँ धड़ाधड़ छप रही हैं, क्योंकि पाठक जीवंत भाषा को जल्दी ग्रहण करता है। पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में कहानियों की भाषा बहुत बदल गई है। इस अर्थ में हिंदी ही नहीं रह गई है। हिंदी-उर्दू का भेद ही खत्म हो गया है। कविता के क्षेत्र में आइए तो देखेंगे कि हिंदी में ग़ज़ल हावी हो रही है।

हिंदी-उर्दू दो अलग-अलग भाषाएँ हैं या जैसा कि लोग कहते हैं कि उर्दू हिंदी की ही एक शैली है, आप इसे किस रूप में देखते हैं?

मैं हिंदी और उर्दू को खड़ी बोली के दो रूप में देखता हूँ जिसमें उर्दू आमतौर पर जीवंत भाषा के ज्यादा निकट है, अपेक्षाकृत हिंदी के जो आज पत्र-पत्रिकाओं में लिखी जा रही है।

लेकिन इसमें लिपि का झगड़ा भी तो शामिल है?

लिपि का झगड़ा इतना बेहूदा झगड़ा है जो केवल भारत में ही संभव है।

तो उर्दू की अलग लिपि रहनी चाहिए या नहीं?

मैं इस बात को अपनी पाठ्यमाला में दिखा चुका हूँ कि लिपि सीखना कितना आसान है। अगर हम केवल दुराग्रहों के कारण लिपि नहीं सीखते हैं तो यह लिपि का दोष नहीं है। भारत के बाहर तमाम देशों के अंदर जो एक प्रवृत्ति है ‘स्कूलों, कालेजों, विश्वविद्यालयों व आमतौर से नागरिकों में’ जापान, चीन, पोलैंड, फ्रांस आदि देशों में लिपियाँ सीखने की होड़ है। हमारे यहाँ लिपि ही ऐसा बड़ा पहाड़ है, जो हिमालय से भी ज्यादा ऊँचा है, जहाँ सारे काफिले ठोकर खाकर गिर पड़ते हैं। यह सिर्फ पूर्वाग्रह के कारण है, अंधविरोध के कारण। नहीं तो आप देखें कि दोनों लिपियाँ एक दूसरे के दर्पण हैं। इसके पीछे हमारी यह इच्छा नहीं है कि हम अपनी संस्कृति के व्यापक रूप को समझें, जो आज लेखक के लिए ज्यादा जरूरी हो गया है, क्योंकि हमारी संस्कृति को समझने वाले केवल विदेशी रह गए हैं और हम केवल उन पुस्तकों का अनुवाद करके अपना काम चला रहे हैं। सारा शोध कार्य विदेशों में हो रहा है। कारण यह है कि उनके यहाँ लिपि की दीवार नहीं है। हमारे यहाँ दक्षिण की भाषा इसलिए कोई नहीं सीख रहा क्योंकि लिपि का झगड़ा है।

इसका अर्थ यह हुआ कि हिंदी-उर्दू दोनों खड़ी बोली हैं। खड़ी बोली को चाहे आप हिंदी में लिखें या उर्दू में, भाषा खड़ी बोली ही है, क्योंकि हिंदुस्तान के किसी भी गाँव में न तो हिंदी बोली जाती है और न उर्दू, तो ये ऐसे ही बेमानी हो जाती है।

इसीलिए हमें खड़ी बोली सीखनी चाहिए न कि हिंदी-उर्दू, बल्कि हमें खड़ी बोली के दोनों रूप सीखना चाहिए।
लेकिन शमशेर जी दिक्कत यह है कि जो हिंदी के पक्षपाती हैं, वे इसमें दो संस्कृतियों का टकराव देखते हैं तथा इसी आधार पर उनकी राजनीति बनती है, तो इसकी ऐतिहासिक जड़ें क्या हैं तथा हमें भाषा के सवाल को किस तरह देखना चाहिए?

हमें इन्हें वैज्ञानिक आधार पर देखना चाहिए। हमें भाषा का, लिपियों का वैज्ञानिक इतिहास जानना होगा। लिपियाँ हमें किसलिए सीखनी हैं ‘ज्ञान प्राप्त करने के लिए न। लिपि एक माध्यम है। दुनिया का कोई व्यक्ति इससे इनकार नहीं करता कि नागरी लिपि सबसे वैज्ञानिक लिपि है। इससे यह नतीजा नहीं निकलता कि दुनिया के सभी देश अपने-अपने साहित्य, अपने-अपने वाङ्मय को नागरी लिपि में छापना शुरू कर दें। अगर आप जरूरत समझते हैं कि दूसरे देशों के बारे में जानकारी प्राप्त हो तो इसके लिए उन देशों की भाषा व लिपि सीखकर उन ग्रंथों को पढ़िए तथा जानकारी प्राप्त कीजिए। वास्तव में, हिंदी-उर्दू विवाद घोर रूप से कूपमंडूक प्रकार के मस्तिष्क की देन है’ अवैज्ञानिक, अनप्रैक्टिकल केवल लड़ाई कराने वाली है। इससे केवल दंगे फैल सकते हैं। यह अंध मुस्लिम विरोध, अंध हिंदू विरोध को पनपाने के लिए है। यह इच्छा बिल्कुल नहीं है कि अपने देश व संस्कृति को समझें, अपने पड़ोसियों को जानें। भाषा प्रेम फैलाने का माध्यम है। अगर हम चाहते हैं कि हिंदुस्तान के बारे में, यहाँ की संस्कृति और इतिहास के बारे में दुनिया को बताएँ तो हमें दुराग्रह छोड़ने पड़ेंगे। दक्षिण, जो हिंदी का विरोधी हो गया है, एक जमाने में राजा जी, के.एम. मुंशी, मौलवी अब्दुल हक, सुरेन्द्र कुमार चटर्जी आदि हिंदी के बड़े भारी समर्थक थे, लेकिन बाद में ये ही लोग, इतिहास साक्षी है, हिंदी के प्रबल विरोधी हो गए। आप देखें, प्रेमचंद की नीति कितनी साफ-सुथरी थी। उन्होंने ‘हंस’ के जो अंक 33-34-35 के आसपास निकाले हैं, उन दिनों इसके परामर्श मंडल में राजा जी, के.एम. मुंशी, मौलवी अब्दुल हक आदि हुआ करते थे। उन अंकों को उठाकर आप देखें, लगता था कि जैसे वह पूरे भारत का सांस्कृतिक पत्र है। हिंदी का एक पत्र पूरे भारत का सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व कर रहा है। आज हिंदी में कोई ऐसी पत्रिका नहीं है, जिसे दक्षिण वाले कहें कि यह हमारी भी पत्रिका है। बल्कि दक्षिण में दिनोंदिन हिंदी का विरोध बढ़ता जा रहा है। उर्दू का विरोध दक्षिण में कहीं नहीं है, बल्कि इस उर्दू विरोध ने दक्षिण में उर्दू के प्रति हमदर्दी पैदा कर दी है।
उर्दू-हिंदी का जो मसला है, उसका निदान किस प्रकार संभव है? अर्थात भाषा के प्रति हमारा रुख क्या हो?

भाषा के बारे में अगर हम कोई नीति रखते हैं और जनता के बीच कहने जाते हैं तो उस नीति पर हम खुद चलें। प्रगतिशील आंदोलन की यह सबसे बड़ी कमजोरी है, जिसमें हिंदी और उर्दू दोनों के लेखक शामिल रहे हैं। लेकिन हिंदी लेखकों ने दिल से यानी योजनाबद्ध तरीके से कभी कोशिश नहीं की कि उर्दू साहित्य से, उसकी पृष्ठभूमि से अपने को परिचित कराएँ। उसी तरह उर्दू लेखकों ने भी कोशिश नहीं की कि हिंदी के पीछे जो सांस्कृतिक पृष्ठभूमि है, उसको समझें। इस देश में सबसे पहले जो दायित्व था, वह इन्हीं का था क्योंकि ये नई संस्कृति का झंडा लेकर निकले थे। प्रेमचंद और केवल प्रेमचंद यह कार्य कर रहे थे और इसके अलावा मैं केवल गाँधी जी को कहूँगा, जिन्होंने कहा कि दोनों लिपियाँ जारी कीजिए और बोलचाल की भाषा में लिखिए। कितनी पक्की और जनवादी बात थी यह।
लेकिन प्रेमचंद तो उर्दू भी जानते थे?

इसका मतलब तो यही निकला कि हमें उर्दू और हिंदी दोनों ही भाषाएँ जाननी चाहिए।

लेकिन बहुसंख्यक के नाते हिंदी वालों का दायित्व भी ज्यादा बढ़ जाता है।

दोनों का दायित्व बढ़ जाता है। आज जनवादी पार्टियों को, जो जनवादी आंदोलन चला रहे हैं, उन्हें भाषा के बारे में वह काम करना चाहिए, जो इस समय हमारे स्कूल नहीं कर रहे, यानी उन्हें अपनी राजनीति को जनता के बीच ले जाते समय उन्हें शिक्षित करने के लिए आम बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए। पूरे देश का इतिहास आप जनता को जबानी पढ़ा सकते हैं।

शमशेर जी, उत्तर प्रदेश में उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाने की घोषणा की गई, जो सिर्फ नाटक था, क्योंकि यह सरकार मानती है कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है और वह इस तरह के सारे कदम वोट के आधार पर उठाती है। घोषणा के बाद हिंदी वालों का इस सवाल पर जबरदस्त विरोध हुआ।

(काटते हुए) इस तरह के जो कानून बनेंगे, उर्दू का फैसला उससे नहीं हो सकता। यह सद्भावना से हो सकता है। मैं हिंदी लेखक का दायित्व मानता हूँ कि वे नियमित रूप से उर्दू पढ़ें, सीखें, उर्दू वाङ्मय, उर्दू साहित्य व उसकी पृष्ठभूमि को जानें। अपनी रचना को और अधिक समृद्ध करने, उसमें वजन लाने तथा उसकी जमीन को और अधिक पुख्ता करने के लिए यह जरूरी है। होना तो यह चाहिए कि वह दक्षिण की भी एक भाषा सीखें। इसे मैं हिंदी लेखक का निजी कर्तव्य मानता हूँ। यह घोषणा का नहीं, लेखकों के अहसास का सवाल है। सन् 33-34 की बात है। बिजनौर के पंडित पद्यसिंह शर्मा ‘हिंदी के समीक्षक तथा ललित निबंधकार’ का इलाहाबाद के हिंदुस्तानी एकेडमी में प्रसिद्ध भाषण हुआ था : उर्दू, हिंदी व हिंदुस्तानी। अपने भाषण के आरंभ में वे अकबर इलाहाबादी की एक रुबाई सुनातें है :

‘उर्दू में जो सब शरीक होने के नहीं,
इस मुल्क के काम ठीक होने के नहीं,

मुमकिन नहीं कि शेख इमरु कैद बने
और पंडित जी वाल्मीकि होने के नहीं।’

यह ध्यान में रखिए कि उर्दू का अर्थ कैंप या छावनी भी होता है। इस छावनी में देश के विभिन्न हिस्सों से फ़ौजी आते थे और एक बाजार-सा लग जाता था तथा आपस में लेन-देन करते थे। मिलजुल कर यहाँ जो भाषा बनी, एक-आध सदी होते-हवाते, उसे उर्दू कहा जाने लगा। इसलिए दोनों अतियों को दूर करके जो उर्दू है, बाजार की जो भाषा है, वहाँ आकर इकट्ठे हों। अगर ऐसा नहीं होगा तो इस मुल्क का काम ठीक नहीं हो सकता। मुल्ला आज न इमरु कैद की शैली में लिखकर ख्यात हो सकता है (इमरु कैद अरबी का बहुत बड़ा कवि था, जैसे हमारे यहाँ वाल्मीकि,) न पंडित जी वाल्मीकि का दर्जा पा सकते हैं, चाहे कितनी भी संस्कृत छाँटें। इस भाषा विवाद ने हमारी वास्तविक संस्कृति को खतरे में डाल दिया है। आप पिछले बीस वर्षों का ही इतिहास देखें, भाषा के नाम पर लोग किस तरह विभाजित हुए हैं और किस प्रकार हिंदूवाद सिर उठा रहा है।

इस विवाद से पैदा होने वाली गलत प्रवृत्ति के शिकार क्या हमारे लेखक बंधु नहीं हैं?

(जोर देकर) हैं। हमारे लेखकों के एक बड़े वर्ग में कहीं गहरे हिंदूवाद पड़ा है और यह गंभीर स्थिति है जो रचना को क्षतिग्रस्त करती है। आज लेखकों को इस प्रवृत्ति के विरुद्ध लड़ना चाहिए। इसका पर्दाफाश करना चाहिए। आप खुद सोचिए यह स्थिति और लड़ाई कितनी कठिन है और इस लड़ाई के लिए आपको कितने अध्ययन, एकता और लगातार काम करने की जरूरत है।

शमशेर जी, वर्तमान परिस्थितियों में लेखकों-संस्कृतिकर्मियों की क्या भूमिका होनी चाहिए?

उनका सबसे बड़ा काम है पूरी सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों का गहराई से अध्ययन व विश्लेषण। उसके बाद उन्हें विश्लेषणपरक रचनाएँ करनी चाहिए और उन्हें जनता के व्यापक हिस्सों तक ले जाना चाहिए। आज मनुष्य ‘हिंदू, सिख, मुसलमान, गरीब आदि’ में जिस प्रकार विभाजित हो गया है, उसे एक करने का व्यापक रचनात्मक प्रयास करना चाहिए। मन की कटुता दूर होगी तभी तो राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी। यह एक सांस्कृतिक काम है।