मौलाना अबुल कलाम आज़ाद
- 1 June, 1950
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- 1 June, 1950
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद
होश सम्हालने के बाद उर्दू-साहित्य में हमें दो ‘आज़ादों’ की प्रसिद्धि वातावरण में बरसती-सी दिखाई पड़ी। एक की आवाज उत्तर से बढ़ते-बढ़ते तमाम भारतवर्ष की साहित्यिक दुनिया में फैल गई थी और दूसरे की पूरब से आँधी की तरह चलकर सारे देश में गूँज रही थी। एक मुहम्मद हुसेन ‘आज़ाद’ की आवाज़ थी दूसरी अबुल कलाम ‘आज़ाद’ की। एक लाहौर से उठी थी, दूसरी कलकत्ते से।
मुहम्मद हुसेन आज़ाद की आवाज में गंगा की रवानी और पानी का मज़ा था। सफाई, नरमी और लोच ज्यादा थी। अबुल कलाम आज़ाद की आवाज में झेलम के पानी की तरह ज़ोर-शोर और बेपनाह बहाव था। ऐसा मालूम होता था कि हर चीज बही जा रही है। जैसे झेलम में बड़े-बड़े शहतीर और पत्थर के टुकड़े बहते हुए चले जाते हैं, उसी तरह विरोधी विचारधारा कितनी ही भारी-भरकम क्यों न हो, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की रचना के बहाव में सभी तरह बहते नजर आते थे। ऐसा मालूम होता था कि जैसे हम पाँव जमा कर कुछ कहना चाहते हों, मगर नदी की तेज धारा पाँव उखाड़ रही हो।
मेरे बचपन में मुहम्मद हुसेन आज़ाद की आवाज और उसका असर कुछ कम हो चला था। अबुल कलाम आज़ाद की आवाज बढ़ती जा रही थी। उनकी रचनाओं को उनके भाषण का भी सहारा मिल रहा था। मुहम्मद हुसेन आज़ाद अब मर चुके थे। उनके यहाँ रचनाओं का अब कोई बढ़ाव नहीं हो रहा था।
अबुल कलाम आज़ाद अपने काम के द्वारा प्रसिद्धि के क्षेत्र में दिन रात बढ़ते जा रहे थे। उनका समाचार पत्र-‘अलहिलाल’ अपनी विशेषताओं के कारण शिक्षित समुदाय के दिलों में घर करता जाता था। उनके लिखने का ढंग इतना अच्छा था कि पढ़ने वाले अनुभव करते कि जैसे वे खुद आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा ले रहे हों–युद्ध क्षेत्र में खड़े हुए, फौजी बाजे की आवाज़ से, आगे बढ़ने के लिए कदम उठा रहे हों। यह सभी दृश्य बचपन में मेरे सामने थे और सोने में सुगंध यह कि कभी-कभी अबुल कलाम आज़ाद के भाषण सुनने में आ जाते थे। उनको सुनकर तो मालूम होता था कि कोई व्यक्ति जादू कर रहा है। पूरी भीड़ उनके एक-एक शब्द को ज्यादा से ज्यादा हिफाजत के साथ दिल व दिमाग़ में सँजो-सँजो कर रख रही थी और चाहती थी कि मौलाना बोलते ही जाएँ और जहाँ तक संभव हो वह आवाज़ सुनती ही जाय। यानी ये सब खूबियाँ थीं, जिन्होंने हमारी साहित्यिक रुचि और राजनीतिक चेतना को अबुल कलाम आज़ाद का प्रेमी बना दिया था। उस समय के राजनीतिक नेताओं में उर्दू के कई मशहूर लिखने वाले थे, मगर आज़ाद से अधिक मुझे कोई पसंद न था। इसी कारण उनसे मिलने की इच्छा प्रतिपल प्रबल होती जाती थी। परंतु कोई सूरत मुलाकात की न निकलती थी। मौलाना आज़ाद प्रसिद्धि के पहाड़ की चोटी पर थे। मैं अपनी रुचि को लिए हुए ज़मीन पर नीचे खड़ा था। मिलना तो अलग रहा, इसकी भी हिम्मत न थी कि किसी के सामने अपनी इस इच्छा को प्रकट भी कर सकूँ।
राष्ट्र में क्रांति की लहरें उठती रहीं। हलचल होती रही। आज़ाद गिरफ्तार होते रहे, कुरबानियाँ देते रहे। ‘अलहिलाल’ बंद हो-हो कर निकलता रहा। उनसे मिलने को मेरी इच्छा भी हिचकोले खाती रही। कभी कम हो जाती थी, कभी ज्यादा। आखिरकार किसी तरह मिलने का अवसर आ ही गया। शाम का समय था, शायद अक्टूबर का महीना। चाय की एक छोटी-सी दावत, छोटे से एक कमरे में, एक मित्र ने दी थी, जिनको कोई बड़ा आदमी नहीं समझता था परंतु वे खुद अपने को बड़ा आदमी समझते रहे हैं। पता नहीं यह युग की ग़लती है या उनकी अपनी भूल। इसका फैसला शायद व्यक्ति के जीवन में न हो सके। फिर भी, उनका कृतज्ञ हूँ कि इस चाय की दावत में उन्होंने हमें भी याद किया था और इस तरह बरसों की इच्छा पूरी हुई।
मौलाना से मिलने का पहला मौका था। मैं पास जाकर बैठा तो एक अजब-सी भावना मन में उठी। कुछ रोब, कुछ आदर, कुछ बात करने का शौक़, गरज की बहुत सी भावनाओं ने दिल की धड़कन का रूप धारण कर लिया। जहाँ तक याद है, इस दावत में छ: आदमी से अधिक न थे। क्योंकि उस समय सरकार कांग्रेस की शत्रु थी और सरकार की त्योरी पर बल देखकर लोग राष्ट्र के नेताओं से मिलने पर भी घबड़ाते थे, इसलिए मेहमानों की संख्या सीमित थी। हमारे मेज़बान ने हमारा परिचय कराया। मैं पास जाकर बैठ गया। कुछ देर तक तो शिष्टाचार की रस्मी बातें हुईं; फिर मौलाना आज़ाद ने खुद ही कहा–“आपकी ‘तारीखे अदब-उर्दू’ के बारे में सुना है। वह मिलती कहाँ है!” मैं अपनी किताब भेंट करने को साथ ही ले गया था। फौरन सामने रख दी। मौलाना ने हिम्मत बढ़ाने के लिए कहा–“आपने बड़ा काम किया। उर्दू-साहित्य के इतिहास की बड़ी ज़रूरत थी। एक कमी पूरी हो गई।”
किताब मौलाना के हाथ में थी। खोलते ही सवाल किया–“संक्षिप्त इतिहास इसका नाम क्यों रखा?”
“वृहत लिखने की फुरसत न थी, न मुझ में योग्यता है।” अभी मेरा वाक्य पूरा भी न हुआ था कि निजी योग्यता और नालायकी की बहस को छोड़ कर मौलाना ने फौरन सवाल कर लिया–
“इतिहास लिखने के लिए आप किस किस्म का आदमी चाहते हैं?”
मैंने जो कहा, ठीक तो याद नहीं पर मतलब यह था–
उर्दू भाषा के प्रारंभिक इतिहास को लिखा ही नहीं गया। क्योंकि यह बहुत कठिन काम है। इसका प्रारंभ मालूम करने के लिए एक ऐसे आदमी की जरूरत है जो फारसी, अरबी का विद्वान हो। संस्कृत, हिंदी व पंजाबी का भी पंडित हो। और सब से अधिक भारतीय इतिहास और भाषा विज्ञान से भी उसका परिचय हो। और स्पष्ट है कि ऐसे व्यक्ति का मिलना आसान नहीं, इसलिए एक के अलावा कई लोग हों, तो कुछ काम हो सकता है।
मौलाना के चेहरे पर एक खास क़िस्म की गंभीरता आ गई और माथे पर एक-दो शिकन भी। उन्होंने उभरकर साँस ली और कहा–
“बात बहुत हद तक माकूल (ठीक ) है। लेकिन विदेशी हुकूमत से क्या उम्मीद की जा सकती है? वह समय आएगा जब हिंदुस्तान हिंदुस्तान होगा। उस समय यह काम हो सकता है।”–यह कहकर वे चुप-से हो गए।
मैंने भी बात का रुख बदलने के लिए कहा–“अगर फुरसत मिल जाए तो आप मेरी इस किताब पर एक नज़र डाल कर इसकी खराबियों से मुझे आगाह कर दें। लेकिन आजकल आप को समय कहाँ? इसलिए मैं उम्मीद नहीं करता कि आप इस किताब को देखने का समय पा सकें।”
यह वाक्य समाप्त न हुआ था कि मौलाना के तेवर पर बल आ गया। चेहरे का रंग किसी क़दर अधिक लाल हो गया। कहने लगे–“वक्त निकालने से निकल आता है। पढ़ना-लिखना भी मैं जरूरी काम समझता हूँ। चौबीस घंटे में अगर चौबीस पन्ने न सही, तो बारह पन्ने जरूर पढ़ने की कोशिश करता हूँ। यह किताब मैं आज ही रेलगाड़ी में पढ़ डालूँगा और आपको अपनी राय लिख भेजूँगा।”
इसके बाद मैंने एक बेतुकी-सी बात मौलाना से पूछी–“क्या आपको विश्वास है कि अँग्रेजी सरकार इस देश से समाप्त हो जाएगी?”
मौलाना ने इसके जवाब के लिए मुझसे ही एक सवाल कर लिया, “क्या आपको यक़ीन है कि अँग्रेजी हुकूमत इस मुल्क में और रहेगी?” फिर निहायत नम्रता के स्वर में बोले, “भाई मेरे, किसी इंसान का दूसरे इंसान पर हुकूमत करना असंभव है। अँग्रेजी हुकूमत को यहाँ से जाना ही है और जल्दी ही।”
बात का सिलसिला यहाँ तक पहुँचा ही था कि मेजबान ने बेसब्री से बीच में शुरू कर दिया, “मौलाना की विद्वता का आदमी इस देश में दूसरा नहीं। आपकी कुरबानियाँ, आपकी सूझबूझ बेमिसाल है।” इस प्रकार के कई वाक्य मेज़बान ने जल्दी-जल्दी वातावरण पर बरसा दिए, क्योंकि यह मेज़बान मुँह पर हर एक की तारीफ़ करने में अपना जवाब नहीं रखता। मगर मौलाना की काबिलियत का अंदाज़ा उस समय भी हुआ जब अपनी तारीफ़ सुनकर उन्होंने मुँह बनाया और फौरन बात काट कर बोले–
“भाई मेरे, इन बेकार बातों में क्या रखा है? मैं क़ुरबानी क्या कर रहा हूँ? एक सिपाही अगर अपना फर्ज़ अदा कर रहा है तो क्या खास बात! यह तो उसे करना ही चाहिए।”
यह बैठक कोई आध घंटे रही। मौलाना ने भिन्न-भिन्न विषयों पर बातें कीं। ज्यादातर हल्की-फुल्की बातें होती रहीं। मगर बीच-बीच में बड़े काम की बातें कर जाते थे। इस छोटी सी भेंट में जो बातें हुईं उनसे मुझे अनुभव हो रहा था कि आज मैं ऐसे व्यक्ति से मिला कि मालूम होता है कि मैं अतीत और वर्तमान के संगम पर खड़ा कर दिया गया था। आचरण, सभ्यता, स्पष्टता और बड़प्पन के साथ-साथ अपनापन, विचारों की आज़ादी, और मानवता का मिलाव जो मौलाना के व्यक्तित्व में मिला वह अपनी जगह पर खुद एक संगम था।
इस भेंट के बाद दो-तीन साल बीत गए। कभी इस इतमिनान के साथ मौलाना से मिलने का अवसर ना मिला। एक दिन आनंदभवन में मौलाना से मिलने का फिर मौक़ा मिला। किसी राजनीतिक गोष्ठी के सिलसिले में वे इलाहाबाद आए थे। मैं भी भेंट के लिए गया। सैकड़ों आदमी घेरे थे। कई एक नेता आए थे, जो मोती की तरह इधर-उधर बिखरे थे। जब मैं पहुँचा, कोई मीटिंग नहीं हो रही थी बल्कि लोग इधर-उधर मिल रहे थे। कुछ कमरे में थे, कुछ बरामदे में, कुछ बाहर मैदान में। मौलाना बाहर ही टहल-टहल कर लोगों से बातें कर रहे थे। मैं भी किसी तरह उनके पास पहुँच गया। मालूम नहीं, मौलाना ने पहचाना भी, परंतु पुराने परिचितों की तरह इस तरह इस भाव से मेरे सलाम का जवाब दिया कि मुझे अनुभव हुआ कि मौलाना ने मुझे पहचान लिया। मैंने बढ़ कर हाल पूछा। मौलाना ने जवाब में फारसी का एक शेर पढ़ा।
मैंने जल्दी से कहा–“अब तो बड़ा अँधेरे हो रहा है। अंग्रेजी हुकूमत रोज-व-रोज कड़ाई करती जा रही है। कुछ समझ में नहीं आता कि क्या होगा?”
मौलाना ने बहुत इतमिनान के साथ मुस्कुरा कर कहा–“भाई मेरे, अँधेरे के बाद ही उजाला आता है! यह अँधेरा आँख की रोशनी नहीं कम करता बल्कि दिल की रोशनी बढ़ाता है। जिसे आप लोग सख्ती समझ रहे हैं वह ऐतिहासिक आवश्यकता है। यह तो होना ही था। आज़ादी के लिए खंजर कि धार पर चलना ही पड़ता है। जो इससे घबराता है उसे हमारे साथ नहीं चलना चाहिए।”
मैंने कहा–“आप लोग सरकार से पूछते क्यों नहीं कि आखिर यह हिमाकत क्यों कर रही है?”
मौलाना ने कहा–“गालिब का यह शेर याद है।
वह अपनी खून छोड़ेंगे
हम अपनी वज़ा क्यों छोड़ें?
सुबुक सर बन कर क्या पूछें,
कि हमसे सरगराँ क्यों हो?”
मैंने कहा–“जी हाँ, याद है।”
मौलाना ने बात का रुख बदल कर कहा–“ग़ालिब बहुत बड़ा शायर था।”
मैंने भी कहा–“जी हाँ, बहुत बड़ा शायर था।”
मौलाना ने कहा–“और आदमी भी बड़ा था।”
मैंने कहा–“कोई बड़ा आदमी हुए बगैर बड़ा शायर हो भी तो नहीं सकता।”
मौलाना मुस्कुरा कर बोले–“हाँ बिल्कुल ठीक है। मगर बगैर बड़ेपन के शायद कोई भी कलाकार कुछ नहीं होता। साहित्य में ही क्या किसी भी क्षेत्र में नाम नहीं पैदा कर सकता।”
मैंने कहा–“माफ कीजिएगा, आप जितनी नम्र भाषा यों हर समय बोलते हैं वह भाषण के समय क्यों इतना बदल जाती है?”
मुझे ग़ौर से देख कर पूछा–“क्या मेरी ज़बान भाषण के समय बिल्कुल बदल जाती है। मुझे खुद तो ज्यादा फर्क नहीं मालूम होता। मगर हाँ, यह जरूर है कि भाषण देते समय मेरा दिल अंदर से जोश भरता है। विचार खुद-ब-खुद उमड़ आते हैं। उनको जिस तरह मेरी जुबान से निकलना होता है, बहते चले आते हैं। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि अपनी तरफ से मैं उन्हें उस वक्त सँवारने की कोशिश नहीं करता। मैं लिख कर तो बोलता नहीं कि शब्दों की काँट-छाँट में कलम चलाता रहूँ! कभी-कभी तो यह भी सोचने का अवसर नहीं मिलता कि मुझे क्या कहना है। सोचने के पहले ही भाषण शुरू कर देना पड़ता है।”
मैंने पूछा–“आजकल आप कुछ लिख रहे हैं।”
यह सुनकर वे हँस पड़े, कहा, “हाथ से तो नहीं लिख रहा, दिलो-दिमाग से जो काम कर रहा हूँ उसे अगर लिखना कह सकें तो कह लीजिए। मगर मुझे फुरसत नहीं तो आप लोग क्यों नहीं लिखते?”
इतनी बातें हो पाई थीं कि बहुत से आदमी एकदम से आ गए। बात का सिलसिला कट गया और मौलाना किसी खास मशविरे के लिए एक कमरे की तरफ चले गए।
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