मेरे सृजन का एकमात्र सरोकार है मनुष्य (उपन्यासकार राजेंद्रमोहन भटनागर से बातचीत)

मेरे सृजन का एकमात्र सरोकार है मनुष्य (उपन्यासकार राजेंद्रमोहन भटनागर से बातचीत)

उपन्यासकार राजेंद्रमोहन भटनागर अद्भुत सर्जनात्मक ऊर्जा के पर्याय हैं। आधुनिक हिंदी साहित्य के मूर्धन्य कथा-शिल्पी डॉ. भटनागर की अब तक कथा, नाटक, कविता, समालोचना, जीवनी आदि विधाओं में देश के प्रतिष्ठित प्रकाशकों द्वारा लगभग 255 पुस्तकें प्रकाशित की जा चुकी हैं। देश की विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं तथा राजस्थान साहित्य अकादमी के सर्वोच्च मीरा पुरस्कार व विशिष्ट साहित्यकार सम्मान से समादृत कथाशिल्पी डॉ. राजेंद्रमोहन भटनागर की कृतियों में प्राणवाही जीवंतता के पीछे उनके वैज्ञानिक विश्लेषण, यायावरी, अनुसंधान और मन की सूक्ष्म तरंगों से तादात्म्यीकरण का मनोवैज्ञानिक प्रभामंडल है। इतना सब होने पर भी स्वयं को अकिंचन मानने की विनम्रता उनकी विशिष्ट पहचान बनाती है। पिछले दिनों साक्षात्कार के लिए उनकी सुदीर्घ साहित्य साधना और रचनाधर्मिता पर हुई बातचीत यहाँ प्रस्तुत है।

आपको लेखन की प्रेरणा कहाँ से मिली और आपकी पहली रचना कब और कहाँ से छपी है?

मेरा बचपन आगरा में बीता था। पिता श्री ब्रजमोहनलाल भटनागर रोहतक में जमींदार थे तथा चाचा जी श्री ब्रजबिहारीलाल सुभाषचंद्र बोस के पक्के भक्त, अनुयायी थे। मेरी शिक्षा भी आगरा के सेंट-जॉन्स में हुई। मैं बैडमिंटन और क्रिकेट का खिलाड़ी था। कैप्टन भी रहा। कुल मिलाकर कहा जाए तो हमारे घर में कोई साहित्यिक वातावरण नहीं था। लेकिन जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ता था तब मैंने अपने मित्र के घर भगवतीचरण वर्मा का उपन्यास ‘चित्रलेखा’ देखा। मैं अपने मित्र से ‘चित्रलेखा’ पढ़ने के लिए माँग लाया। यही वह पहला उपन्यास था जिसे मैंने पढ़ा था और पाप-पुण्य के संघर्ष में डूबते-उतराते अनायास ही मैंने अपनी कल्पना शक्ति से कल्पित कहानी लिखना शुरू किया। वह कोई दैवी-प्रतिभा थी जिसमें रचना रची गई और इस तरह मैंने पहली कहानी ‘समाज फाँसी पर’ लिखी, जिसमें नायिका की मृत्यु का कारण पूरा समाज था। कहानी लिखकर रख दी। पड़ी रही। उन दिनों अविनाशचंद्र गौड़ जो आगरा से ‘आँसू’ नाम की पत्रिका निकालते थे, वे दैनिक ‘नव संदेश’ व कई अन्य अखबारों के संपादक रहे थे। अविनाश जी क्रिकेट खेलने के शौकीन थे। वे हमारा खेल देखने अक्सर आते थे। एक दिन मैंने उन्हें यह कहानी दिखाई। उन्हें कहानी बहुत पसंद आई और उन्होंने कहानी ‘आँसू’ में छाप दी।

इतना विपुल समृद्ध साहित्य सृजन आपसे कैसे हुआ?

मेरी पत्नी जब से शादी हुई तब से लगभग बीमार रहीं इसलिए मुझे अस्पताल में बहुत रहना पड़ा। कमरा लेकर रहे। उन परिस्थितियों ने मुझमें एक भय पैदा किया कि मैं इलाज के लिए पैसे कहाँ से लाऊँगा और खाली समय कैसे बिताऊँगा। पढ़ने का कोई साधन नहीं था। मैं हिंदी का विद्यार्थी नहीं हूँ फिर भी मैं लिखने लगा। मुझे पता नहीं चला कि मैं क्या और क्यों लिख रहा हूँ। पूरी रात जागना! अजब विचारों का जन्म! गहरा सन्नाटा! पता नहीं कौन मुझे जगाता था और इस प्रकार के विचार और भाव मन में जन्म लेते थे कि मैं उन्हें लिखे बिना नहीं रह सकता था और इसी बहाने कई पुस्तकें तैयार हो गईं।

आपने अपने उपन्यासों में आमतौर पर जीवनियों को ही आधार बनाया। ऐसा क्यों?

मैंने जीवनियाँ बहुत पढ़ीं और पढ़ने में आनंद भी आया। प्राय: जीवनियाँ पढ़ते हुए मुझे लगा और बराबर लग रहा है कि कुछ न कुछ जीवनी में छुपाया गया है। छुपाना जरूरी भी था क्योंकि उनसे जो प्रश्न बनते उनका उत्तर देना शायद उनका मन उचित नहीं मानता; तो मैंने सोचा कि जीवनी का जो पक्ष उन्होंने छुपाया है उसी को सामने लाने के लिए मैं कुछ करूँ। राजपाल प्रकाशन के संस्थापक विश्वनाथ जी ने मेरे एक उपन्यास को ‘जीवनीपरक’ उपन्यास की संज्ञा दी। मैं सोचता रहा और इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मैंने जिन रहस्यों को सामने लाने का प्रयत्न किया है वे जीवनी के अंग तो हो नहीं सकते क्योंकि लेखक ने उन पर प्रकाश नहीं डाला। वे मेरी कल्पना के परिणाम हैं और उपन्यास को मैं लेखक की कल्पना का समाज मानता हूँ और इसलिए मैं जीवनीपरक उपन्यासों पर काम करने लगा।

फिर आप अपने ऐसे जीवनीपरक ऐतिहासिक उपन्यासों के संदर्भ में क्या कहना चाहेंगे?

आज भी मेरे मन में ये द्वैत है कि ऐतिहासिक उपन्यास को जीवनीपरक क्यों कहा जाता है? इसका उत्तर मैं बड़ी ही विनम्रता से देना चाहूँगा कि उपन्यासकार इतिहास नहीं लिखता; इतिहास में हुई भ्रूणहत्याओं को प्राणदान देकर जीवित बनाता है। इतिहास में झूठ-सच हो सकता है। ये विवाद का प्रश्न है, लेकिन उपन्यास में–वह केवल सच होता है। साहित्य रस चाहता है और वो जीवन से जुड़ा होता है। इस कारण उपन्यास अतीत को पुनर्जीवित कर वर्तमान की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उन अछूते प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयत्न करता है जिनसे वर्तमान को नया रास्ता मिलने की संभावनाएँ जन्म लेती हैं। ऐतिहासिक उपन्यासों के सामने से इतिहास हटा दें तो जो शेष रहता है वह समाज होता है। उस समाज की प्रस्तुति उपन्यास को एक नये समाज को प्रस्तुत करने का हौसला प्रदान करती है।

आपने अपने उपन्यासों में राजनीति को अत्यधिक महत्त्व दिया है और उसकी रूपरेखा पर प्रकाश डाला है। तत्कालीन राजनीति और आज की राजनीति के बारे में आपके क्या विचार हैं?

मैंने राजनीति से हटकर उन परिस्थितियों पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है जिनसे राजनीति दुरभिसंधियों का शिकार बनती है। सबसे पहली बात तो यह है कि मैंने उन पर पहली बार प्रकाश डाला है जिनके संबंध में इससे पूर्व ऐसा कुछ लिखा नहीं मिलता। वह सब पात्र के गुण-दोषों अंतर्द्वंद्वों के लिए निर्णयों इत्यादि को ध्यान में रखकर मेरी जीवंत कल्पना की सक्रियता के परिणाम हैं। ‘सरदार’ और ‘परछाइयाँ’ इसके उदाहरण हैं। जब मैंने जीवनीपरक उपन्यास लिखे, उस समय की राजनीति में–मुझे लगता है कि मानवीय-गुणों पर, संवेदना पर, सच्चाई के निकट रहने की संभावना पर अधिक ध्यान दिया जाता रहा। गाँधी उसी राजनीति की पैदाइश हैं। सरदार पटेल और नेहरू भी उसी राजनीति के प्रतिफल हैं। वह समय गुलामी का था और सबके सामने एक ही लक्ष्य था–‘देश को आजाद कराना है।’ तब राजनेताओं में परस्पर मतभेद रहते थे जैसे नेहरू, सुभाष और गाँधी के बीच में, अंबेडकर और पटेल के बीच में, जिन्ना और नेहरू के बीच में…लेकिन व्यक्तिगत आक्षेप का स्तर गिरावट की सीमा को पार नहीं करता था, जिसको आज की राजनीति में देखा जाता है। तुलनात्मक दृष्टि से इसका उत्तर तलाश करना इसलिए भी कोई अर्थ नहीं रखता कि राजनीति अपने समय का, परिस्थितियों का परिणाम है।

आपने ‘कायदे-आजम’ उपन्यास में जिन्ना के व्यक्तिगत जीवन के बारे में अत्यंत गहनता से लिखा है। आप इन तथ्यों को किस आधार पर प्रस्तुत कर पाए?

प्राय: मैं जिस व्यक्ति का जीवन उठाता हूँ उससे जुड़ी दृश्य और अदृश्य घटनाओं पर विचार कर तत्कालीन संदर्भों में उसके साथ न्याय करने का प्रयत्न करता हूँ। जिन्ना का जीवन एक ईमानदार शख्सियत के रूप में सदैव मुझे प्रिय रहा। जिन्ना राजनीति का कम ‘जीवन-नीति’ का अधिक पक्षधर था। तभी उन्हें ‘दूसरा गोखले’ के नाम से भी पुकारा गया। मेरे उपन्यास में जिन्ना का वह पक्ष सदैव संघर्ष करता रहा जिसे वह चाहता नहीं था, परिस्थितियों से आक्रांत उन्हें वह करना पड़ा।

आप भारतीय इतिहास को कितना सक्षम मानते हैं?

भारतीय इतिहास में दो भाग हैं। उसका प्रमाणित इतिहास तो महात्मा बुद्ध से प्रारंभ होता है। उससे पूर्व का इतिहास जिसे पुराण के नाम से जानते हैं, क्योंकि उसके प्रमाण मिलते नहीं हैं और बिना प्रमाण के इतिहास नहीं बनता। उनके संबंध में हम जिन प्रमाणों की बात करते हैं, वे पुरातत्ववेत्ताओं की दृष्टि से संदिग्ध हैं। मैं मानता हूँ कि भारतीय इतिहास का पौराणिक भाग जीवन को जितना ‘उद्वेलन’ और ‘अवदान’ देता रहा है, शायद ही विश्व में कोई इतिहास इस भूमिका को निभा पाया है।

आज के जीवन को भारतीय इतिहास कितना प्रभावित करता है तथा भारतीय इतिहास ने साहित्य को कितना प्रभावित किया है?

जब-जब समाज पर संकट आया है तब-तब साहित्यकार का ध्यान गया है और उसने उस संकट के लिए वहाँ समाधान तलाशने का प्रयत्न किया है। उसका मेरा यह विपुल साहित्य उसी धरोहर का परिणाम है।

आपात्-काल की स्थिति में इंदिरा गाँधी की भूमिका को आप कितना सही मानते हैं?

आपात्-काल की स्थिति नि:संदेह देश को डाँवाडोल बना रही थी। बाजार में से जरूरत की चीजें लुप्त हो रही थीं। अकेली इंदिरा गाँधी अपने भविष्य के साथ सोच रही थी कि उनके परिवार के सदस्य और राजनैतिक साथी भी यह चाहते थे कि ‘कब हम आएँ’। वे उन्हें सलाह दे रहे थे कि आप हमें सत्ता सौप दें और निश्चिंत हो जाएँ। मोरारजी देसाई और बाबू जगजीवनराम इसमें सबसे आगे थे। मुझे लगा कि इंदिरा गाँधी अपने लिए नहीं अपने देश के लिए सोच रही थीं। यदि शक्ति ऐसे समय में उन लोगों के हाथ में चली जाए जो पहले से ही मंसूबे बनाए हुए थे और सत्ता का उपयोग करना चाहते थे। हो सकता है ऐसे में विदेशी ताकत देश को हानि पहुँचा सकती थी। इंदिरा गाँधी सत्ता से हटीं, चुनाव हारीं लेकिन जीतने वाले ढाई वर्ष से अधिक उस सत्ता को नहीं संभाल सके और इंदिरा गाँधी की पुन: जबरदस्त विजय भी इस बात का प्रमाण है कि देश को इंदिरा गाँधी पर विश्वास था। क्यों न हो? वह राजमहिषी देश के स्वाभिमान को बनाए रखने के लिए गलत ताकतों को सबक सिखाती रही। आज भी जब देश में प्रधान-मंत्रियों का मूल्यांकन किया जाता है तो उस सूची में इंदिरा गाँधी का सबसे प्रमुख नाम होता है।

स्वामी विवेकानंद से आप कितने प्रभावित हुए?

स्वामी विवेकानंद मेरे मार्गदर्शक हैं। हर समय जब मैं कठिनाई में होता हूँ, तो उनका स्मरण हो आता है और कठिनाई स्वयं ही छूमंतर हो जाती है यानी मुझे ये विश्वास हो जाता है कि कठिनाई कृत्रिम है और इससे बिगड़ने वाला कुछ नहीं और ऐसा ही मेरे जीवन में हुआ। स्वामी विवेकानंद जीवन और समाज के अभूतपूर्व विश्लेषक थे।

डॉ. अंबेडकर और सुभाषचंद्र बोस के दृष्टिकोण से आप गाँधी जी की विचाराधारा को कितना सार्थक मानते हैं?

गाँधी ने अपने में सत्य को जीने का प्रयत्न किया। अंबेडकर ने समाज से संघर्ष करते हुए जीवन में उसी सत्य का अनुभव किया और उसके उपाय ढूँढ़े व राजनैतिक समानता को सर्वाधिक महत्त्व दिया। उनकी मान्यता थी कि सत्ता में भागीदारी जब तक नहीं बनेगी तब तक समानता की बात करना, उठाना, पहल करना किसी ठोस परिणाम को सामने नहीं ला सकता। सुभाष न केवल भारत के बल्कि विश्व के तमाम पराजित देशों के ख़ैरख़्वाह थे और उन सबको साथ लेकर एक ऐसे लोकतंत्र की स्थापना करना चाहते थे जिससे समूचे एशिया का विकास एक धरातल पर सबके साथ सर्वहित में संभव हो सके। गाँधी की विचारधारा से मैं बहुत प्रभावित रहा हूँ। आज भी हूँ। परंतु जब अपने देश की समस्या के समाधान की दिशा में सोचता हूँ तब मुझे लगता है कि गाँधी जी से कुछ ऐसी भूलें हुई कि कुछ अवसरों पर जहाँ वे चुप रहते तो देश अधिक सबल और मुखर होकर आता।

मेरा अगला प्रश्न भी गाँधी जी से संदर्भित है। मैं जानना चाहती हूँ कि गाँधी पर ‘कुली-बैरिस्टर’, ‘अंतिम सत्याग्रही’ जैसे उपन्यास लिखने के बाद भी 23 वर्ष पूर्व शुरू किया आपका उपन्यास ‘अर्द्धनग्न फकीर’ पूरा क्यों नहीं हो पा रहा? गाँधी का वो कौन-सा तत्त्व है जो आपकी पकड़ में नहीं आ रहा?

आपके प्रश्न में प्रच्छन्न जितना कौतूहल और विस्मय व्यक्त करता है रजनी जी, इस संदर्भ में उतनी ही अद्भूत मेरी रचनाधर्मिता की मन:स्थिति हो जाती है। मैं जब भी ‘अर्द्धनग्न फकीर’ लिखने बैठता हूँ मुझे लगता है कि मेरी चारों ओर प्रकाश फैलता जा रहा है किंतु फिर आगे गाँधी जहाँ से मेरे हाथ से छूट जाता है, वहाँ से मुझे लगता है कि गाँधी के हाथ से लाठी छूट गई है, चश्मा गिर गया है। अँधेरा है। लाईट नहीं है। ऐसे में गाँधी कैसे आगे बढ़ेगा? कैसे संभालेगा? क्या गाँधी के सामने अहिंसा आकर खड़ी नहीं हो गई है और वर्तमान के अनागत को जानकर’…कहीं जानबूझ कर तो गाँधी ने लाठी और चश्मा अपने से दूर नहीं किया है?…

आपकी कथाकृतियों की यही रहस्याकुल मोहकता पाठक को एक अजब आकर्षण में बाँधती प्रतीत होती है। दूसरी ओर तथ्य संग्रह के लिए आपके ‘लेखक’ का यायावरी स्वभाव! एक लिक्खाड़ लेखक के रूप में सर्वत्र आपकी पहचान! मैं जानना चाहती हूँ कि आपके इस लेखन का, साहित्य का सर्वोपरि प्रथम सरोकार क्या है?

मनुष्य! मानवीय संवेदनाओं और उसके मान-मूल्यों से बना समाज! यही मेरे लेखन सृजन का एकमात्र सरोकार है।

आपने अनेक विधाओं में लिखा है। हिंदी से इतर इतिहास, शिक्षा, राजनीति इत्यादि में विपुल साहित्य सृजन किया है। आपकी अनेक कृतियों के प्रथम संस्करण की एक से सवा लाख प्रतियाँ बिक कर बेस्ट-सेलर में शुमार हुई हैं। आपकी लगभग 255 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। आपके व्यक्तित्व कृतित्व पर सत्ताईस पीएचडी हो चुकी है, हो रही हैं, न केवल इतना ही वरन् आपकी कृतियों का अँग्रेजी, फ्रेंच, कन्नड़, गुजराती, मलयालम, सिंधी, मराठी आदि में अनुवाद भी हुआ है। अपनी इस बहुमुखी प्रतिभा के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?

विनम्रता से इतना भर निवेदन करना चाहूँगा कि मैं अपने को हमेशा सामान्य बुद्धि का और अकिंचन मानता हूँ किंतु सीखने की मुझमें बराबर जिज्ञासा बनी रहती है। फिर भी यदि लोगों को मुझमें कुछ नजर आता है तो मैं ये मानता हूँ कि ये प्रभु का आशीर्वाद है। मेरा कुछ नहीं!


Image: Mahatma Gandhi Laughing
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