नई धारा संवाद : रामदरश मिश्र (प्रसिद्ध साहित्यकार)

नई धारा संवाद : रामदरश मिश्र (प्रसिद्ध साहित्यकार)

‘कटा जिंदगी का सफर धीरे-धीरे’

नमस्कार, स्वागत है आप सभी का नई धारा संवाद की इस कड़ी में, जैसा कि आप सभी जानते हैं कि नई धारा संवाद में हम बात करते हैं हिंदी के अलग-अलग साहित्यकारों से, और उनसे बातचीत तो करते ही हैं, उनकी रचनाएँ उनके स्वर में सुनते हैं।

तो आज इस कड़ी में हमारे साथ हैं हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार, बल्कि मैं कहूँ कि अभी के वरिष्ठतम साहित्यकार रामदरश मिश्र जी। रामदरश मिश्र जी का जन्म 15 अगस्त 1924 को गोरखपुर के डुमरी गाँव में हुआ। उसके बाद उन्होंने अलग-अलग विश्वविद्यालयों में पढ़ाया, बड़ौदा विश्वविद्यालय में, उसके बाद गुजरात विश्वविद्यालय में और उसके बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में। और इस पूरी साहित्यिक यात्रा के दौरान उन्होंने कई कृतियाँ अलग-अलग विधाओं में लिखीं। तो उनके पास उपन्यास भी है, कहानी संग्रह भी है, कविता संग्रह भी है, संस्मरण भी है, आत्मकथा भी है और एक लंबा साहित्यिक सफर उनका है। उनकी प्रमुख किताबों में ‘पानी के प्राचीर’, ‘टूटता हुआ जल’, ‘बीच का समय’, ‘सूखता हुआ तालाब’, ‘खाली घर’, ‘एक वह दिनचर्या’, ‘पथ के गीत’, ‘पक गई है धूप’ और तमाम ऐसी किताबें हैं जिन्हें इस लंबे सफर के दौरान पाठकों का बहुत प्रेम, बहुत सम्मान मिलता रहा है। उन्हें कई पुरस्कारों से नवाजा गया है जिनमें से व्यास सम्मान, साहित्य अकादमी पुरस्कार सम्मान प्रमुख है। हमारे लिए ये ऊर्जा ही नहीं एक प्रेरणा का विषय है कि सतानवे पार की उम्र में रामदरश मिश्र जी आज भी ऊर्जावान हैं और साहित्य सर्जना में लीन हैं इस बातचीत को शुरू करने से पहले हम ‘नई धारा’ संवाद की तरफ से स्वागत करते हैं बहुत गर्व के साथ नई धारा की इस कड़ी में रामदरश मिश्र जी का।

सर, बहुत स्वागत है आपका।

धन्यवाद-धन्यवाद।

सर, आप कैसे हैं, ठीक हैं आप?

हाँ, मैं ठीक हूँ, वैसे तो 98 साल की उम्र जो होती है उसका अपना असर तो होता ही है, लेकिन उसके बावजूद मैं काफी अच्छा हूँ, ठीक हूँ। अभी मैं चल लेता हूँ, मेरी यादाश्त, होशो-हवाश ठीक-ठाक है। मुझे लैपटॉप पर लिखना नहीं आता है लेकिन मेरे हाथों में अभी भी बल है, मैं हाथों से ही लिखता हूँ। कान सुन लेते हैं, आँखें देख लेती हैं, तो बहुत अच्छा लग रहा है और परिवार में बेटे हैं, बेटी है, बहू है, पत्नी है तो सब का जो सानिध्य है मुझे अपने सुख से भरता रहता है।

सर, मुझे ये बताएँ कि 97 पार की उम्र में अब इस वक्त जब आप अपने बचपन को याद करते हैं, अगर याद करते हैं तो कैसे याद करते हैं?

ये बड़ा अच्छा सवाल है। मैं बचपन को याद ही नहीं करता हूँ, स्वयं लगता है मैं बच्चा हूँ। मेरा बचपन मुझसे भूलता नहीं है और बचपन केवल यादाश्त की बात नहीं है। बचपन का जो सुख है, बचपन की जो सादगी है, बचपन का जो एक खिलिंदरपन है वह अभी भी मुझ में है। बल्कि कुछ लोग पूछते हैं कि अरे आप बूढ़े हुए, इतने बच्चों की तरह ठठाकर हँसते हैं, ये करते हैं, वो करते हैं; मैं ये कहता हूँ कि ये मेरा सौभाग्य है कि मैं अभी बच्चा हूँ, बना हुआ हूँ। अभी बच्चों पर केंद्रित एक कहानी संग्रह मेरा आया है, ‘सपनो भरे दिन’। मेरी कविताओं में बचपन भरा हुआ है और जैसे बूढ़े लोग बहुत रिजर्व होते हैं, मुँह लटकाए बैठे होते हैं, और कहते हैं कि मैं बूढ़ा हूँ। हमारे जानने वाले ये जानते हैं कि जब मेरे पास आते हैं तो लगता है कि आदमी बूढ़ा नहीं हुआ है और बड़ी सादगी के साथ, बड़ी आत्मीयता के साथ, बड़े एक प्रेम के साथ हम सबके साथ बैठता है और हम जैसा हो जाता है। तो मुझे अच्छा लगता है बचपन को याद करना। और बचपन पर मेरी कविताएँ भी हैं, कहानियाँ भी हैं, उपन्यास भी हैं, बहुत कुछ है।

सर, कुछ सुनाना चाहें तो सुना दें, अगर आप इसी मौजूं पर या बचपन पर कुछ।

मैं पहले अपना एक गजल सुना दे रहा हूँ, वह बहुत मशहूर गजल है मेरी।

‘बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे,/खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे/किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला,/कटा जिंदगी का सफर धीरे-धीरे/जहाँ आप पहुँचे छलांगे लगाकर,/वहाँ मैं भी पहुँचा, मगर धीरे-धीरे/पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी,/उठाता गया यों ही सर धीरे-धीरे/गिरा मैं कहीं तो अकेले में रोया,/गया दर्द से घाव भर धीरे-धीरे/न हँस कर न रोकर किसी में उड़ेला,/पिया खुद ही अपना जहर धीरे-धीरे/जमीं खेत की साथ लेकर चला था,/उगा उसमें कोई शहर धीरे-धीरे/मिला क्या न मुझको ए दुनिया तुम्हारी,/मोहब्बत मिली है, मगर धीरे-धीरे।’

आपने बहुत सारी विधाओं में लेखन किया है, ये गजलों की प्रेरणा कहाँ से आई थी आपकी, गजलों की तरफ आप कैसे आए?

गजलों का सिलसिला तो अब शुरू हुआ है, लेकिन मैं समझता हूँ कि सन् 60 के आसपास उसके इर्द-गिर्द भी मैंने कई गजलें लिखी थीं। एक स्वतः मन से लिखी थी, देखा-देखी नहीं। गजलें पढ़ता था, उर्दू की, हिंदी की। तो अपने आप में गजलें निकल आईं मुझमें। और मेरा ख्याल है कि शुरू की तीन-चार गजलें बड़ी अच्छी हैं। लेकिन जब दुष्यंत कुमार की गजलों के बाद धारा बही तो शायद मुझे भी लगा कि गजल चलती रहनी चाहिए, और एक के बाद एक गजल लिखने लगा और अभी भी कुछ गजलें निकल आती हैं।

कोरोना के संदर्भ में जब दिल्ली में लॉकडाउन था तो बेटी का मकान है यहाँ सोनीपत में, वहाँ ले गई थी, और वहाँ तीन-चार गजलें बहुत दिनों बाद निकलीं। कुछ मुक्तक निकले, कुछ कविताएँ निकलीं। हुआ ऐसा कि अब कविता का क्रम बहुत शिथिल हो गया है। इधर मैंने बीस-एक कविताएँ लिखीं फिर लिखना बंद कर दिया और सोचता रहा कि क्या करूँगा, बीस कविताओं से तो कोई संग्रह बनेगा नहीं। और मैं इधर कविताएँ लिख नहीं रहा हूँ। पता नहीं क्या हुआ, वहाँ सोनीपत जा करके मन में कुछ उफान आया तो कुछ गजलें बन गईं, कुछ मुक्तक बन गए, कुछ कविताएँ बन गईं। तो सोचा कि अब एक संग्रह बन सकता है। ‘संवेत’ नाम से एक संग्रह तैयार किया है जिसमें भोजपुरी के भी तीन-चार गीत हैं। वो छप कर आएगा तो उसका अपना सुख होगा।

मुझे ये बताएँ कि जैसे आपकी गजलों में भी जीवन आता है बार-बार, अब आप जीवन को किस तरह से समझते हैं जब 97 पार के आप हैं। जीवन का निचोड़ क्या आप समझते हैं, क्या है जीवन?

देखिए बचपन मिला, बीता गरीबी में, पूरा गाँव ही गरीब था, बाढ़ आती थी, फसलें बह जाती थीं, पूरा गाँव। मेरा घर भी अभावग्रस्त रहा। तो बचपन को मैंने काटा अभावों में, लेकिन एक मेरी गजल है, ‘पेट खाली था मगर दिल था भरा त्योहार से/अब भरा है पेट, दिल कंगाल जैसा हो गया।’

तो बचपन में पेट खाली था लेकिन त्योहारों से मन भरा हुआ था। मुझे लगता है कि मेरे भीतर जीवन का एक उत्साह शुरू से ही रहा है। देखिए साहित्य लिखना, कविता लिखना, ये कोई डॉक्टर का नुस्खा तो है नहीं। ये अपने भीतर की एक ताकत है, भीतर का एक सुख है, भीतर का रस है। तो वह रस है ही नहीं बल्कि जीवन के वैल्यूज, जीवन के मूल्य बचपन से हमारे मन में समाये हुए थे। और जब मैं दर्जा दो-तीन में था तो पता नहीं क्या बात थी कि जब कोई लोकगीत सुनता था, पाठ्यक्रम में कोई कविता पढ़ता था, मन ने ज्यौं-ज्यौं वगैरह की, तो लगा काश मैं भी ऐसा लिखता। यानी किसी ने कुछ करने की, भीतर जो है एक बात थी, भीतर जो है एक ऊर्जा थी, सर्जना थी, वह अपने वैल्यूज के साथ, अपनी गहराई के साथ मेरे भीतर थी वह निकलना चाहती थी। लेकिन दर्जा दो-तीन-चार में कोई कविता क्या बनती। बल्कि मेरे कुछ मित्रों ने कहा कि देखिए किसी पेड़ के नीचे, एकांत में बैठकर सोचिए तो कविता आ जाएगी। वो भी किया, लेकिन दर्जा छह में जब मैं गया तो मेरे एक सहपाठी ने कहा, मेरे गाँव का एक लड़का पढ़ता है गोरखपुर में वह कविताएँ लिखता है। तो पता नहीं क्या हुआ कि इसको सुनते ही मेरे भीतर जो कुछ जमा था, वो उबल पड़ा, मैंने कहा कि मैं भी लिखूँगा! तो उसी दिन स्कूल के पास काँग्रेस की सभा हो रही थी। मैंने पहली कविता उस पर लिखी। तो कविता मेरे साथ रही है हमेशा से। कविता का साथ होना जो होता है एक अच्छे जीवन का साथ होना होता है। कविता में जो अपना ही नहीं, अपने आस-पास का दर्द होता है, दुनिया का दर्द होता है, दुनिया का सुख-दु:ख होता है। और दुनिया के सुखों-दुखों के प्रति मन में एक पीड़ा होती है, और दुनिया कैसी बननी चाहिए, कैसे बन सकती है, इसके लिए एक मूल्य होता है। तो इसके साथ यानी इससे भरी हुई जो कविताएँ थीं, उपन्यास थे, कहानियाँ थीं उनके साथ मैं चलता रहा। तो लोग अब भी कहते हैं कि मेरी सदी में सादगी है। ये सादगी मैंने गाँव से पाई है, कविता तो पाई ही और गाँव से सादगी भी पाई। गरीबी ने मुझे सादगी दे दी, औरों के प्रति एक संवेदना, सहानुभूति दे दी। तो मैं तमाम विषमताओं के बीच, तमाम जो तकलीफें थीं, अभाव के बीच इसी कविता के साथ और कविता के स्व के साथ जीता रहा हूँ। इससे मेरे जीवन में ये है कि औरों का दर्द मेरा दर्द बन जाता है। चाहता हूँ और लोग भी इस गरीबी से निजात पाएँ। देखता हूँ किसी कबाड़ी के बच्चे को घूमते हुए तो लगता है कि ये भी बचपन है, क्या देश है? तो मेरी जिंदगी सादगी से भरी हुई बीती, और सादगी में हमेशा गाँव का जीवन, गाँव का मूल्य रहा है और लोग मेरी सादगी को, मेरे व्यक्तित्व को प्यार करते हैं। ये बहुत बड़ी बात है।

वाह क्या बात है! सर, ये बताएँ कि जैसे-जैसे आपके साहित्य में जो चेंजेज आए, जो बदलाव आते रहे समय-समय पर, जब आपकी इतनी लंबी साहित्यिक यात्रा रही तो उन बदलावों के साथ आपने तालमेल कैसे बिठाया, चाहे भाषा के लेवल पर हो, चाहे राजनीति के लेवल पर हो। तो उन चेंजेज के साथ कैसे तालमेल बिठाते हैं?

जब मैंने कविता शुरू की दर्जा छह में तो गाँव का स्कूल था। कविता क्या होती है, कविता का प्रदेश क्या है, ये मुझे पता नहीं था। केवल मैं अपने को व्यक्त कर रहा था और मुझे याद नहीं है कि उन कविताओं में क्या था, क्या नहीं था। लेकिन मैं छंद सीख रहा था और छंद में जो कुछ गाँव की बातें थीं, गाँव के हालात थे, खेत-बाड़ी थे, राष्ट्रीय चेतना जागृत थी। राष्ट्रीय चेतना भी मेरी कविताओं में आ रही थी। तब मैं विसारत और साहित्य करने के लिए ‘वरहज’ गया। वरहज एक बड़ा कस्बा है। तब कोर्स में पंत जी थे, प्रसाद जी थे, महादेवी आती थीं। तो मुझे लगा छायावाद की जो भाषा है, बड़ी अच्छी भाषा है तो उस भाषा के अनुसार मैं अपनी भाषा को बदलने लगा। खासकर के जब मैं बनारस गया तो मुझे महसूस हुआ कि वास्तव में कौन-कौन कवि हैं, कविता आजकल कैसे लिखी जा रही है, साहित्य में क्या हो रहा है। तो मेरे लिए प्रसाद जी वास्तव में एक आदर्श कवि थे। तो उनकी ऐसी भाषा लिखने का प्रयास कर रहा था। जो पहला मेरा संग्रह है, ‘पथ के गीत’, उसमें तमाम ललित भाषा में कविताएँ संग्रहीत हैं, प्रेम की या प्यार की कविताएँ जो हैं।

बनारस में जब मैं बीएचयू में गया तो नये-नये साथी मिले। उनमें एक थे त्रिलोचन, जानते हैं आप न। तो त्रिलोचन ने मुझसे कहा कि मिश्रा जी आपकी भाषा तो बड़ी ललित है लेकिन ये भाषा जा चुकी है। छायावाद जा चुका है। तो शुरू में मुझे लगा कि मैं इतनी अच्छी भाषा लिख रहा हूँ और ये आदमी मेरी भाषा की कद्र नहीं कर रहा है, लेकिन मन में आया कि मैं अपने आप सीखता हूँ तो अच्छा लगता है। कोई सिखाता है तो उसकी बात मन में पड़ी तो होती है, लेकिन मैं उससे सीखता भी हूँ तो सहज भाव से, धीरे-धीरे सीखता हूँ।

शुरू में तो मेरी नाराजगी हुई लेकिन बाद में मुझे लगा कि इस भाषा को छोड़ना चाहिए। सन् 50 में मैं मार्क्सवादी भी बना और मार्क्सवाद के मूल्य ने, सिद्धांत ने और हमारे मित्रों के संसर्ग ने मुझे एक नई भाषा में लिखने की प्रेरणा दी। अब देखें कि मेरा दूसरा संग्रह है, ‘बैरंग-बेनाम चिट्ठियाँ’ उसकी कविताएँ एकदम अलग हैं। और मैं ये बार-बार कहता हूँ कि हमारा हर संग्रह जो आया वो मेरे अनजाने ही कुछ नया लेकर आया। वजह क्या थी, वजह ये थी कि मैं समय के साथ चलता रहा हूँ। बिना किसी हल्ला-गुल्ला के, बिना किसी गुवार में मिले हुए समय के साथ चलता रहा हूँ। तो समय अपने आप अपनी चेतना को मेरी भाषा में, मेरी कविताओं में भरता रहता है, तो कविता में बदलाव आता रहता है। मूल भी होता है और नया बदलाव भी आता है। मेरा एक संग्रह है, ‘आम के पत्ते’ जिसमें मुझको ‘व्यास’ सम्मान मिला था। वो तो एकदम अलग सा विषय बन गया। हुआ ऐसा कि सहज भाव से मैंने ‘मेज’ पर एक कविता लिखी, मेज पर। लगा मेज तो है लेकिन काठ का होकर भी इसकी कितनी उपयोगिता है, इस पर कितना-कितना कुछ होता है। तो वो बहुत अच्छी कविताएँ हैं मेज की, बहुत प्यारी कविता है। उसके बाद तो जितनी भी निर्जीव वस्तुएँ थीं सब पुकारने लगी कि मैं भी तो हूँ, मैं भी हूँ। सुई भी है, नदी भी है, हवा भी है, पंखा भी है और तमाम चीजें पुकारने लगीं कि मैं भी तो हूँ। तो मैंने तमाम निर्जीव वस्तुओं पर कविताएँ लिखीं तो एकदम अलग संग्रह हो गया। उसके बाद जो संग्रह आए वो अपना रंग लेकर आए। इसकी वजह यही है कि मैं समय पर सचेत हूँ, और समय जो देता है, उसे सहज भाव से लेता चलता हूँ। मैं सहज भाव से ही उसको ‘फील’ करता हूँ, अनुभव करता हूँ, इसलिए मेरी कविताओं में क्रमशः नयापन आता रहा है। और जो मेरा मूल है वो तो होता है, लेकिन निरंतर कुछ न कुछ नया आता रहता है। अब जो नया संग्रह आया ‘राह सपने में’ तो बड़ी छोटी-छोटी कविताएँ हैं। उनका अपना रंग है।

आम तौर पर जैसे एक उम्र के बाद हमारे बुजुर्गों में मायूसी भी आ जाती है, वो थोड़ा निराशा से भी भर जाते हैं, कई बार मृत्यु से डरने लगते हैं लेकिन उसके बरक्स आप उमंग से भरे हुए हैं। लगातार आपकी किताबें भी आ रही हैं। आप सुनाते भी बड़ी आत्मीयता से हैं, सहजता से हैं तो ये जो आपकी उमंग है, जैसे आपने कहा अपने बचपन को भी अभी तक जी रहे हैं, इस उमंग को कैसे देखते हैं आप जब खुद इसके बारे में विचार करते हैं तो क्या सोचते हैं?

देखिए मैं, एक कविता अगर मिल जाती है तो उसके माध्यम से बात करता हूँ मैं आपसे। ‘कच्चे टूटे मकान में कठोर हकीकतें फैली हुई थीं/कभी भूख-प्यास बनकर, कभी तन का नंगापन बनकर/टूटे-कच्चे मकान में कठोर हकीकतें फैली हुई थीं/इन्हीं के बीच उसका बचपन चलता रहा नंगे पाँव/पाँव में काँटें चुभे, पत्थर टकराये, घोर शीत ने गलाया/प्रचंड ग्रीष्म ने जलाया, लेकिन उसके भीतर सदा एक सपना पलता रहा/जिससे वह हकीकतों में होकर भी,/उनके पार देखा करता था।/बचपन में सब था लेकिन फिर भी मेरे मन में वो था जो समकालीन रूप में नहीं था/भूख-प्यास लगी होती थी तो चला जाता था खेतों की ओर/और डाल देता था अपने को फसलों के रंग-प्रवाह में/हमलोग नंगे पाँव, यानी बनारस जाने में, पहले हमलोग नंगे पाँव रहे, पाँव में जूता पहना ही नहीं।/ग्रीष्म में जब पाँव जलते थे/तब उसका मन उतार लेता था/पेड़ों की छाह अपने ऊपर/और लगता था बादल आने वाले हैं।/जब शीत अभाव लगे नंगे तन पर/जब काँटें-सी चुभन लिये पसरा होता था/तब मन पतझड़-से होता हुआ/बसंत की ओर चला जाता था।/ठंढे सन्नाटे में फूल खिलखिलाने लगते थे/कोकिल गाने लगता था/गाँव में शिक्षा की एक छोटी सी मंजिल थी/यानी मिडिल स्कूल/उसका मन हमेशा उसके पार कुछ देखता रहता था/स्कूल में था भी लेकिन स्कूल के बाहर भी देखता था/कोई स्पष्ट तो नहीं था पर था जरूर/कभी-कभी लगता था कि वह खो गया है/नंगी हकीकतों के विकल विस्तार में/लेकिन तभी कोई भीतर गुनगुनाने लगता था/धीरे-धीरे ज्ञात हुआ वो कविता थी/ऐसे ही चलती रही उसकी जीवन यात्रा/गाँव के सहयात्री रुकते चले गए/कोई यहाँ रुका, कोई वहाँ रुका/लेकिन उसके भीतर एक सपना था/जो उसे आगे-आगे ठेलता गया/हकीकत के भीतर किसी और हकीकत की तलाश में वह यहाँ तक आ गया/आज लगता है कठोर हकीकतें तो/गुम हो गईं लेकिन उसका सपना/एक हकीकत बनकर व्याप्त है/यहाँ से वहाँ तक।’

वाह क्या बात है, ये कविता ही अपने आप में सब कुछ कह गई। इस यात्रा में सर कौन-कौन से ऐसे लोग रहे जिससे आप मिले हों और जिनसे मिलना अभी भी आपको एक गौरव की अनुभूति देता हो, जो बड़े लोग साहित्यकार जिनसे आप मिले हों और बड़े गर्व से मिले हों?

वैसे तो अपने पिता बड़े होते हैं, माँ बड़ी होती हैं। हमारे बड़े भाई साहब जो मिडिल पास करके दर-दर घूमते रहे नौकरी के लिए, उनकी जब नौकरी लगी, उन्होंने मुझे पढ़ाया, उनके पैसे से मैंने एम.ए. किया।

जहाँ तक सवाल शिक्षा जगत का है तो खासकर तीन व्यक्ति मेरे सामने आते हैं। मिडिल स्कूल में एक थे–बिकाउ पंडित। बड़े प्रबुद्ध रहे वे। वे कविताएँ पढ़ाते थे तो गा कर पढ़ाते थे। स्वयं गाते भी थे। अच्छे वक्ता भी थे और हमलोग को प्यार भी करते थे। मेरा ख्याल है कि तमाम शिक्षकों के बीच में वो शिक्षक जो है एक अकेली ज्योत की तरह से ज्योतित था। जब मैंने कविता लिखनी शुरू की तो अपने गाँव के पास के एक कवि (मदनेश जी) के पास गया दिखाने के लिए तो वो स्नेही स्कूल के कवि थे। उन्होंने मुझे बहुत प्रोत्साहन दिया और स्नेही जी का जो बड़प्पन है वह मेरे मन में भरने लगे तो मैं समझा कि स्नेही जी सबसे बड़े कवि हैं। तो मैंने बिकाउ पंडित से पूछा, पंडित जी स्नेही जी बड़े कवि हैं? छूटते ही बोले, नहीं रे, टैगोर सबसे बड़े कवि हैं। मुझे लगा देखिए दर्जा छह में पढ़ाने वाला आदमी टैगोर को जानता है। साथ पढ़ते थे। तो उनका जो इमेज है, बिंब है मेरे मन में धसा हुआ है। उसके बाद जब मैं गया विश्वविद्यालय पढ़ने के लिए तो एक रामगोपाल शुक्ल थे। वह भी पढ़ाते थे, अपना स्कूल खोल रखा था, बिलकुल एक आश्रम था। अँग्रेजी भी पढ़ रहे हैं, मैथ भी। मतलब इंट्रेंस पास करने के बाद भी वो इंट्रेंस की परीक्षाएँ तैयार करा रहे हैं। सर्टेन पास करने के बाद भी हमलोग को हिंदी पढ़ा रहे हैं और वहाँ बैडमिंटन भी हो रहा है, बॉलीवाल भी हो रहा है, कुश्ती भी हो रही है। लगता है जैसे एक आश्रम है। उनका जो व्यक्तित्व था वो मेरे लिए बहुत मूल्यवान सिद्ध हुआ, और मैंने उन पर बहुत लंबा संस्मरण लिखा है। बिकाउ पंडित पर भी बड़ा संस्मरण लिखा है और तीसरे व्यक्ति हैं हजारी प्रसाद द्विवेदी। वो भी एक घटना है।

जब मैंने बी.ए. पास कर लिया तो केशव प्रसाद मिश्र जो बी.एच.यू. में हिंदी के अध्यक्ष थे, बड़े पंडित थे। मैंने कहा न उन्होंने मुझे ‘लज्जा सर्ग’ पढ़ाया था ‘कमायनी’ का। और वह आज तक ध्वनि मेरे भीतर गूँज रही है। इतने अच्छे विद्वान थे तो वे रिटायर्ड हो गए। मैंने कहा कि अब यहाँ क्या रखा है चलते हैं इलाहाबाद। तो कई मित्रों के साथ इलाहाबाद गए हिंदी एम.ए. करने। नाम तो लिखा लिया फिर लौटे तो इतिहास के एक बड़े विद्वान थे राजबली पांडेय, वो गोरखपुर के ही थे। पूछा–नाम लिखा लिया। मैंने कहा–हाँ नाम लिखा लिया, इलाहाबाद। बहुत जोर से डाटा। वहाँ क्या करने गए हो। यहाँ तुमको सब जानते हैं, तुम्हें सुविधा मिलती है और यहाँ हजारी प्रसाद द्विवेदी आ रहे हैं।

उनका नाम सुनते ही जाकर मैंने बनारस में नाम लिखाया और वो पढ़ाने लगे। हालाँकि मैं सबसे आगे बैठता था, लेकिन मेरा स्वभाव है कि मैं किसी से मिलता नहीं हूँ जा-जा कर के। इतने बड़े-बड़े लोग हुए मैं किसी के घर मिलने नहीं गया, कभी चला गया तो चला गया। अब नामवर सिंह तो पंडित जी के बहुत निकट हो गए थे। हुआ एक दिन क्या कि काशी विद्यापीठ में एक कवि गोष्ठी हुई, उसमें द्विवेदी जी आए हुए थे तो हमने एक गीत पढ़ा–‘उमड़ रही पूरवइया/कुंतल जान से लहर रहे अंबर में/काले-काले बदरा’। देखा द्विवेदी जी झूम रहे हैं। उनको देख कर मैं उत्साह में आ गया। जब कविता खतम की तो कहे–वाह बहुत अच्छा, क्या करते हो? मैंने कहा–मैं आपका शिष्य हूँ, मैं आपके आगे बैठता हूँ। उसी दिन से मैं उनका परम शिष्य हो गया। जहाँ तक उनका पांडित्य है अपनी जगह है। ‘वाणभट्ट की आत्मकथा’ और भी कई उपन्यास हैं जो उनकी उच्च कोटि के हैं, उनके निबंध उच्च कोटि के हैं। लेकिन सबसे बड़ी बात है कि सबसे उच्च कोटि के मनुष्य थे वे, उच्च कोटि के मानव थे वे। और हम कुछ शिष्यों को इतना प्यार करते थे। और कभी यानी आप अनजान आदमी हैं उनसे मिलने गए तो आपको यह महसूस नहीं होगा कि मैं एक अनजान आदमी से मिल रहा हूँ। वो स्वयं आपको लपेट लेते थे बातचीत में। तो ये तीन व्यक्ति और माता-पिता, भाई ये हमारे लिए चिरस्मरणीय हैं। इनके लिए हमारे मन में अपार श्रद्धा भरी हुई है, अपार भाव भरा हुआ है।

साहित्य लेखन के लिए किसी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध होना कितना जरूरी मानते हैं आप?

इसका जवाब है कि स्वयं मार्क्सवादी हुआ था मैं, मार्क्सवादी होने के बाद 2-4 महीना मैं मार्क्सवादी रहा भी, लेकिन मुझे लगा कि जो कविताएँ मैंने मार्क्सवाद के दबाव में लिखी थी वे बहुत सहज नहीं हैं। तो मेरे संग्रहों में वह नहीं है। मेरा खयाल है कि, जैनेंद्र जी ने कहा था कि ‘रचना आदमी करता है वाद नहीं करता है। विचारधारा नहीं करती है। विचारधारा आपको दृश्य देती है, आपको मूल्यबोध देती है, आपको दुनिया को देखने की एक निगाह देती है। लेकिन आप उसमें फँस जाइए, यह आवश्यक नहीं है। तो मैं मानता हूँ कि मैं खुद भी वाद से परे हूँ तो उनका जवाब यही होगा कि वादग्रस्त होना सर्जना के लिए आवश्यक नहीं है।

एक सवाल और है कि नितांत एकांत के क्षणों में आप क्या पढ़ना पसंद करते हैं या किन महत्त्वपूर्ण लेखकों के साहित्य को उलटते-पलटते हैं?

देखिए, अब तो मेरा पढ़ना हो नहीं पा रहा है अब मैं थक जाता हूँ पढ़ते-पढ़ते। कुछ पत्रिकाओं की कहानियाँ पढ़ता हूँ। अच्छी हुई तो उन्हें पढ़ लिया। लंबी कहानियाँ भी पढ़ने का उत्साह नहीं होता है, लेकिन जब मैं युवक था, जब मैं शिक्षक था, जब मैं इतना बूढ़ा नहीं हुआ था तो मैं बहुतों को पढ़ता था। ऐसा होता है कि कोई कब या कोई रचनाकार महत्त्व का नहीं होता है, महत्त्व की होती है उसकी रचनाएँ। अब निराला इतने बड़े कवि हैं तो आवश्यक नहीं कि उनकी सारी कविताएँ जो हैं अच्छी हों और पढ़ी जाएँ। ‘राम की शक्ति पूजा’ है, ‘सरोज स्मृति’ है या कोई अच्छे गीत हैं, ये पढ़े जाते हैं, हम भी पढ़ते हैं। इसी तरह से प्रेमचंद हैं तो उनकी जो अच्छी कहानियाँ हैं वो हम पढ़ते हैं, पढ़ते रहे हैं। लेकिन उन्होंने बहुत सी कहानियाँ ऐसी लिखी हैं जो सामने भी नहीं है और पढ़ना जरूरी भी नहीं है। तो हर लेखक के पास, हर अच्छे लेखक के पास कुछ अच्छी रचनाएँ होती हैं, चुनी हुई होती हैं। मैं उनको पढ़ता हूँ चाहे किसी की भी हों और जो रचनाएँ क्लिष्ट होती हैं, दुरूह होती हैं, चाहे उनका कितना भी नाम क्यों न हो तो उनको पढ़ने में वैसा रस नहीं आता है।

सर, नई धारा परिवार से जो आपका जुड़ाव रहा है इतना लंबा, उसके बारे में अगर कुछ बताना चाहें तो बिलकुल बता दें और ये अंतिम सवाल है।

क्या बात है। देखिए सन् 50 या 51 में मैंने एक कविता लिखी थी–‘मैं अषाढ़ का पहला बादल मेरी राह न बाँधो’। ये कविता चर्चित भी हुई थी, तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के पास रामवृक्ष बेनीपुरी आए थे। बेनीपुरी ‘नई धारा’ के संपादक थे। तो गुरुदेव के पास मैं बैठा हुआ था, जब भी कोई आता था तो परीत देते थे कि ये कवि है, कुछ सुनाओ। तो मैंने रामवृक्ष बेनीपुरी जी को यही कविता सुनाई तो वे उछल पड़े–दो दो, मुझे दो। मैं छापूँगा नई धारा में। उन्होंने जा कर के बड़े सम्मान से उसे छापा और ‘नई धारा’ के साथ ये मेरा पहला साबका था, मेरा पहला संबंध था जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, बहुत मूल्यवान है।

उदय राज सिंह जब संपादक हुए तो लगातार मुझे छापते रहे। लगातार मुझसे माँगते रहे। लगातार मुझे प्यार करते रहे। सम्मान देते रहे और लगातार मेरा जुड़ाव बना रहा उनसे एक लेखक की हैसियत से। उदय राज जी भी दिवंगत हो गए। उन पर एक पुरस्कार घोषित हुआ। शिवनारायण जी संपादक बने। शिवनारायण जी के आने से ‘नई धारा’ में एक नई जान आ गई। नई प्राणमत्ता आ गई। जो नया लिखा जा रहा है, अच्छा लिखा जा रहा है उसके संपर्क में आए, उन्होंने लेखकों से माँगना शुरू किया, अच्छे लेखकों से माँगना शुरू किया और ‘नई धारा’ में छापना शुरू किया तो ‘नई धारा’ का एक अलग-सा व्यक्तित्व बना और ये भी बड़े हर्ष की बात है और मेरे लिए गौरव की बात है कि उदय राज सिंह के नाम पर जो एक लाख का पुरस्कार घोषित हुआ तो शिवनारायण जी ने मुझे इसके योग्य समझा और मुझे पटना बुलाया। उनके परिवार ने मुझे बहुत सम्मान दिया। उदय राज जी की पत्नी ने मुझे बहुत प्यार दिया और पूरे पटना के कवियों ने मुझे सम्मान दिया। मेरे साथ जुड़े, तो ‘नई धारा’ के साथ मेरा लगातार संबंध बना हुआ है। अभी भी मैं अपनी कविताएँ भेजता हूँ, गजलें भेजता हूँ, समीक्षाएँ भेजता हूँ। समीक्षाएँ छपती रहती हैं। शिवनारायण जी खुद मेरे बहुत आत्मीय हैं। वो यहाँ दिल्ली आते हैं तो मेरे यहाँ अवश्य आते हैं और मुझसे माँगते रहते हैं। मैं उनके लिखे को, खासकर संपादकीय को बहुत पसंद करता हूँ और कहता भी हूँ उनसे कि आपका संपादकीय बहुत पांडित्यपूर्ण है। उनकी गजलों का संग्रह आया था अभी बीते दिनों तो सबसे पहले मुझे उन्होंने भेजा देखने के लिए, कहा आप देख लीजिए। देखा तो अच्छी गजलें पढ़कर मेरा मन प्रफुल्लित हो उठा। शिवनारायण जी एक गजलकार के रूप में आज देश भर में जाने जाते हैं। उनका अलोचक और कवि रूप मुझे बहुत पसंद है। वे मनुष्य बहुत ही अच्छे हैं। तो ‘नई धारा’ के साथ मेरा संबंध बहुत अच्छा रहा, लंबा संबंध रहा, बना रहेगा जब तक मैं जिंदा हूँ।


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