श्री विष्णु प्रभाकर

श्री विष्णु प्रभाकर

जब मैं श्री विष्णु प्रभाकर से मिला, तो मेरा प्रश्न था–“आपके नाम के साथ लगे ‘प्रभाकर’ शब्द का क्या अर्थ है? यह परीक्षा है या आपका कोई गोत्र है?”

उन्होंने कहा–“माता-पिता ने मेरा नाम ‘विष्णु’ रखा था। प्राइमरी स्कूल में मास्टर साहब ने उसमें दयाल जोड़ दिया। लेकिन जब मैं अपनी माता के साथ पंजाब गया, तो वहाँ मेरा नाम विष्णु गुप्त हो गया। मामा जी आर्यसमाजी थे इसलिए उन्होंने मेरा यह नाम रख दिया। यह मेरे वर्ण का द्योतक है। दसवें दर्जे तक मैं विष्णु गुप्त ही रहा। लेकिन जब परिस्थितिवश मुझे हिसार की सरकारी गौशाला में कार्य करने के लिए क्लर्क बनना पड़ा तो दफ्तर में एक और गुप्त होने के कारण गड़बड़ होगी, इस आशंका से ‘विष्णु गुप्त’ से मैं ‘विष्णुदत्त’ बन गया। यह सब अनायास ही होता चला गया। मैंने किसी नाम को पसंद नहीं किया। इसलिए जब मैंने ‘प्रभाकर’ परीक्षा पास की, तो निश्चय किया कि अब ‘प्रभाकर’ को अपने नाम का अंश बना लूँगा। उस समय से मेरा दफ्तर का नाम तो विष्णुदत्त रहा पर वैसे मैं विष्णु प्रभाकर हो गया। अब तो मैं इसे अपने गोत्र की भाँति ही लिखता हूँ। इस संबंध में एक बड़ी मजेदार बात यह है कि लोग कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, प्रभाकर माचवे और विष्णु प्रभाकर को, कई बार एक ही व्यक्ति मान लेते हैं। विशेषकर प्रभाकर माचवे और मुझे तो अक्सर एक माना जाता है। एक बार तो श्री प्रभाकर माचवे के पास, जब वे उज्जैन में थे, एक पत्र पहुँचा था, जिस पर पता लिखा था–‘श्री विष्णु प्रभाकर माचवे उज्जैन।’ इस प्रभाकर के कारण कुछ लोग मुझे महाराष्ट्रीय समझते हैं। इसी कारण गाँधी हत्याकांड के सिलसिले में मेरे ऊपर खुफिया पुलिस की निगरानी बहुत दिन तक रही। उस षड्यंत्र का संबंध महाराष्ट्र से था और मैं ‘प्रभाकर’ नाम के कारण अधिकारियों की शंका का शिकार बन गया। इससे पूर्व पंजाब में भी अनेक बार, सरकारी नौकर होते हुए भी, मैं क्रांतिकारी होने की शंका में पुलिस की कोपदृष्टि का शिकार बना हूँ।

दुबले-पतले तेजस्वी व्यक्तित्व रखने वाले इस साधक का जीवन अवश्य रहस्यमय है, यह मुझे उसके इतने से कथन से ही पता चल गया। मैंने यह भी सोचा कि यह जो मानव जीवन की गहराइयों में उतरने का प्रयत्न करता हुआ कथा और नाटक-साहित्य की गति को प्राण दे रहा है, तो इसीलिए कि उसके जीवन में भी अद्भुत गांभीर्य है। मेरी जिज्ञासा उनकी बातचीत की कला से और बढ़ गई और मैंने पूछा–“आपका बाल्यकाल किन परिस्थितियों में बीता और उन्होंने आपके कलाकार के निर्माण में कहाँ तक सहायता पहुँचाई?”

वे बोले–“मैं नहीं जानता कि मैं कलाकार हूँ या नहीं पर…मेरे बचपन ने ही मुझे वह कुछ बनाया है जो मैं आज हूँ। मेरा बचपन गाँव में बीता। ग्यारह-बारह वर्ष की अवस्था तक मैं वहीं रहा। लेकिन उतने ही जीवन में मुझे कई प्रकार के अनुभव हुए। हमारा परिवार धनी और सम्मिलित था। पिता जी कर्मकांडी हैं। वे प्रात: 3 बजे से 10 बजे तक पूजा-पाठ करते थे। तमाखू की दुकान थी। शुरू में उन्होंने बहीखाते की भाषा पढ़ी थी पर जब उनका विवाह हुआ, तो उन्हें पता लगा कि मेरी माँ हिंदी, उर्दू जानती हैं। पिता जी उसी दिन पंडित के पास पहुँचे और सात दिन में हिंदी सीख कर दम लिया। फिर तो पिता जी की दुकान में तमाखू से भरे टोकरों के साथ एक टोकरा भरी किताबों का भी रहता था। उसी टोकरे के पास बैठ कर मैंने अपना पुस्तक ज्ञान बढ़ाया। भावुक था ही, उन्हीं के संपर्क से नौ-दस वर्ष की अवस्था में मैं विष्णु की पूजा करने लगा। रोज जो दो पैसे मिलते थे उनमें से एक मूर्ति पर चढ़ाता था। पढ़ने में इतना तेज था कि गणित तो मास्टर साहब तक को बताता था। एक बार ऐसा हुआ कि मेरे एक साथी के पिता ने, जो ज्योतिषी थे, मुझे बताया कि इस बार तुम फेल हो जाओगे। पास होने के लिए तुम्हें देवी की पूजा करनी चाहिए। उनकी आज्ञानुसार मैं देवी पर जलेबी चढ़ाने लगा। मैंने देखा कि उन जलेबियों को पुजारी का लड़का खा जाता है। मुझे बड़ा अजीब-सा लगा। एक दिन मैंने भी साहस करके देवी पर चढ़ा हुआ पेड़ा खा लिया और साथ ही चढ़ावा चढ़ाना छोड़ दिया। इतना होने पर भी मैं क्लास में फर्स्ट आया। तभी से मुझे मूर्ति पूजा से अरुचि होने लगी। मामा जी के आर्यसमाजी होने ने भी इस विषय में मेरी सहायता की। और मैं बारह वर्ष की अवस्था में पक्का आर्यसमाजी बन गया।”

इतना कह कर वे कुछ झिझके, जैसे आगे जो कुछ कहने जा रहे हों उसे वे न कहना चाहते हों। परंतु फिर कुछ संकोच के साथ संतुलित वाणी में उन्होंने कहा–“इसके साथ और भी एक तत्व है, जिसने मेरे बचपन से लेकर आज तक मुझे विचित्र स्थिति में रखा है। वह यह है कि 11-12 साल की उम्र तक तो मैं बड़े लाड़-प्यार से पला परंतु जब मामा जी के पास गया तब मुझे माँ का स्नेह नहीं मिला। मिल भी नहीं सकता था। पर मेरे भावुक हृदय ने उस अभाव का तीक्ष्णता से अनुभव किया। उसके कारण मैं दैनिक जीवन की स्फूर्ति से वंचित रह गया। मैं उस स्थिति को समझा नहीं सकता। समझाना भी नहीं चाहता। हाँ उस स्थिति ने मुझे अंतर्मुखी, अभाव के मूल्य को समझनेवाला तथा एकांतप्रिय बना दिया। ऊपर से मैं प्राय: शांत रहता था और धीरे-धीरे पढ़ाई में भी मैं आगे बढ़ रहा था। पर मेरी सामाजिकता जो छूटी वह आज तक नहीं लौटी। बहुत छोटी अवस्था में संघर्ष का अनुभव होने से परिपक्वावस्था भी शीघ्र आ गई। मैंने डायरी लिखना शुरू किया। आठवें दर्जे में मैंने परिश्रम करके ‘स्कालरशिप’ प्राप्त किया। मैं तब स्कूल की आम सभा में व्याख्यान भी देता था। मेरी प्रत्येक गतिविधि में मेरे मामा जी की प्रेरणा अवश्य रहती थी, वे मेरी भावनाओं का ख्याल भी रखते थे। लिखने की कहते रहते थे। पर वे माँ नहीं बन सकते थे, कोई बन भी नहीं सकता। इस प्रकार मेरे बाल्य संस्कारों के निर्माण में एक ओर आर्यसमाज का, यद्यपि आज तो वह मुझ से बहुत दूर हो गया है, ऋण है तो दूसरी ओर स्नेह के अभाव का। इसीलिए मेरे साहित्य में एक गहरी व्यथा आज तक व्याप्त मिलती है।”

“लेकिन आपका साहित्य सृजन कब और कैसे आरंभ हुआ और उसके लिए आपको प्रेरणा कहाँ से मिली?” मैंने आगे प्रश्न किया।

उन्होंने बताया–“स्कूल में ‘बालसखा’ आया करता था। उसमें बच्चों के पत्र भी छपते थे। पढ़ने का शौक होने के कारण मैं उन्हें पढ़ा करता था। एक दिन मैंने भी सोचा कि क्यों न मैं भी एक पत्र लिख कर ‘बालसखा’ में छपाऊँ। इस विचार का आना था कि मैंने एक पत्र लिखा, जो ‘बालसखा’ में छप गया। जब वह आया तो मुझे ऐसी प्रसन्नता हुई जैसी कि शायद किसी को ‘नोबेल प्राइज’ मिलने पर हो सकती है। आगे चलकर जब मैं आर्य समाज की सभा में व्याख्यान देने लगा, तो उन्हें भी लिख कर छपने भेजने लगा। वे छपे। शुरू में मुझे कविता का भी शौक था। गद्यकाव्य भी मैंने लिखे, जिनमें से कुछ ‘हंस’ में छपे थे। लेख तो लिखता ही था। जहाँ तक कहानी का संबंध है मेरी पहली कहानी सन् 1931 के अंत में छपी। मेरी प्रारंभिक कहानियाँ आर्यसमाज द्वारा प्राप्त सुधारवाद की प्रेरणा को लेकर चलती थी। अछूतोद्धार और जातिपाँति के बखेड़ों को लेकर मैंने कुछ कहानियाँ लिखी थीं। इन दिनों मेरे बड़े भाई साहब भी लिखते थे। मेरी भाषा की वे प्रशंसा करते थे और खूब प्रोत्साहन देते थे। पर इन दिनों मैं बहुत ही कम लिखता था। बारह घंटे दफ्तर में बिताना, किसी न किसी परीक्षा की तैयारी करना, नगर के सामाजिक कामों में भाग लेना, नाटक कंपनी में मंत्री से लेकर एक्टर तक का काम करना, उसके बाद समय बचता ही कहाँ था, पर सन् 34 में श्री चंद्रगुप्त विद्यालंकार ने मुझे अप्रत्याशित रूप से उत्साहित किया। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं कहानी में मनोवैज्ञानिक आधार प्रस्तुत करूँ। उस समय मैंने चार कहानियाँ भेजी थीं, जिनमें से दो कहानियाँ उन्होंने ‘अलंकार’ में छापी थीं। फिर पत्र बंद हो गया। उन्हीं में एक कहानी ‘स्नेह’ थी, जो शैली की दृष्टि से आज भी मेरी सुंदर कहानियों में है। दूसरा प्रोत्साहन मुझे ‘आर्यमित्र’ संपादक पं. हरिशंकर शर्मा से मिला। ‘प्रेमबंधु’ के नाम से मैंने ‘आर्यमित्र’ में कितने ही लेख लिखे थे। इन दोनों महानुभावों के प्रति मेरे मन में बहुत स्नेह और आदर है। बहरहाल सन् 34-35 तक मेरा यही हाल रहा।

सन् 36 में मैंने ‘संघर्ष के बाद’ शीर्षक कहानी लिखी, जो ‘माधुरी’ में भेजी गई थी पर छपी बाद को हंस में। जिस दिन इसकी स्वीकृति आई उस दिन मेरा जन्मदिन था। उस दिन से ही मेरा साहित्यिक जीवन भी वास्तविक रूप में आरंभ हुआ। इस बात को पंद्रह वर्ष बीत गए। मेरे बड़े भाई का मुझे आगे लाने और बढ़ाने में बड़ा हाथ है। उनके सहारे का ही यह फल है कि मैं स्वतंत्र साहित्यिक का जीवन बिता रहा हूँ। मेरे जीवन में किसी भी कारण से ही एक और महत्त्वपूर्ण बात रही है। मैंने आज तक कभी नौकरी के लिए प्रार्थना-पत्र नहीं भेजा। यदि कहीं काम किया है, तो स्वयं बुलाने पर ही कहीं गया हूँ। इस स्वाभिमान की रक्षा का श्रेय भाई साहब और मामा जी को है। जहाँ तक पत्रों का संबंध है मुझे आगे लाने में ‘हंस’ का बहुत बड़ा हाथ है। उन दिनों की स्मृति मेरे लिए आज भी प्रेरणादायक है। आलोचकों में बा. गुलाबराय ही ऐसे थे जिन्होंने मुझे अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहित किया।”

इतने में हिंदी के प्रसिद्ध कहानी लेखक और विष्णु जी के अभिन्न मित्र श्री रामचंद्र तिवारी आ गए। वे रेडियो के लिए फीचर लिख रहे थे और कुतुबमीनार की सीढ़ियों की सही संख्या मालूम करने आए थे। रविवार का दिन था। विष्णु जी के बड़े भाई साहब भी वहीं आ गए और वन-महोत्सव से बात शुरू होते-होते गंभीर राजनीति तक पहुँच गई। उस समय विष्णु जी के बड़े भाई साहब राजनीति, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान और समाजशास्त्र का बौद्धिक विवेचन जिस योग्यता से कर रहे थे उसे देखकर मैं दंग हो रहा था। विष्णु जी भी शांत थे। उस समय मुझे यह अनुभव हुआ कि अभी-अभी विष्णु जी ने अपने निर्माण में जिस व्यक्ति का उल्लेख किया था वह निस्संदेह एक बड़े ‘इंटलैक्च्युअल’ हैं। वे विष्णु जी के लिए नवीन दृष्टिकोण देने वाले ही नहीं, उनके लिए संदर्भ ग्रंथ भी हैं और पुस्तकों के इतने बड़े शौकीन हैं कि नई पुस्तकें वे खरीदकर लाते ही रहते हैं। यही कारण है कि विष्णु जी के पास ऐसी अच्छी लाइब्रेरी है, जैसी हिंदी के बहुत कम लेखकों के पास होगी।

इसी बीच मुझे विष्णु जी के स्वभाव का भी परिचय मिला। मैं उनका इंटरव्यू ले रहा था और तिवारी जी बीच में ही आ गए थे। आते ही जो बातें चलीं, तो एक घंटा हो गया। और कोई होता तो सारी स्थिति से परिचित कराता और तिवारी जी संभवत: बहस में न पड़ते परंतु विष्णु जी ने आभास तक नहीं होने दिया कि वे कोई जरूरी काम कर रहे हैं। इतने अच्छे और साहित्य से जीविकोपार्जन करने वाले लेखक में यह संकोच और दूसरों का ख्याल रखने की वृत्ति देख कर मुझे आश्चर्य भी हुआ और उनके प्रति आदर का भाव भी मेरे मन में जगा।

जब तिवारी जी चले गए तब मैंने अपनी पेंसिल उठाई और प्रश्न किया–“वे देशी-विदेशी लेखक कौन से हैं, जिनको आप विशेष पसंद करते हैं और जिनका आपके जीवन में अपरिहार्य स्थान है?”

उन्होंने उत्तर दिया–“बंगला के कलाकारों में से बंकिम, शरत और टैगोर को मैंने पढ़ा है। मैं इन तीनों में प्रभावित यदि हूँ तो शरत से। उनकी करुणा मेरे जीवनव्यापी विषाद से बहुत मेल खाती है। उनका मेरे ऊपर इतना प्रभाव है कि सन् 38 में एक बार मेरे बारे में किसी ने लिखा था कि ‘विष्णु जी की कहानी पढ़ते हुए शरत की याद आती है।’ शरत के बाद दूसरा विशेष प्रभाव मेरे ऊपर प्रेमचंद का पड़ा। वैसे अज्ञेय को मैं विशेष प्रेम करता हूँ और मैं कहूँ, मैं सबसे अधिक उनका ही प्रशंसक हूँ। जैनेंद्र की आध्यात्मिकता मेरे मन के बहुत पास है। उनका मैं कई प्रकार से आभारी हूँ। सन् 38-39 में लोग विष्णु को जैनेंद्र समझने लगे थे। अश्क और अज्ञेय तक मुझ ‘छोटे जैनेंद्र’ या ‘अपरिपक्व जैनेंद्र’ कहते थे। है भी यह आश्चर्यजनक बात! मेरी ‘फोटोग्राफर’ आदि कुछ कहानियाँ जैनेंद्र जी की कला से बहुत मिलती-जुलती हैं। बहरहाल आगे मैंने इस बात का खयाल रखा।

रूसी कलाकारों में टाल्सटाय और चेखव मुझे प्रिय हैं। टाल्सटाय मेरे स्वाभाव के विशेष अनुकूल पड़ते हैं। चेखव से प्रभावित तो हूँ, पर उनमें मेरी वह श्रद्धा नहीं जो टाल्सटाय में है। उनसे अधिक श्रद्धा है मुझे गोर्की में। वे मुझे बहुत ही प्रिय हैं। फ्रांसीसी कलाकारों में मोपासाँ, विक्टर ह्यूगो और अनातोले फ्रांस को अधिक पसंद करता हूँ। मोपासाँ शब्दों का मास्टर है। अँग्रेजी कवियों में वर्ड्सवर्थ और शेली दोनों मुझे अच्छे लगे हैं। थॉमस हार्डी के ‘टैंस’ की याद आते ही मेरी आँखें भर आती हैं। मेरे ऊपर कृति का प्रभाव पड़ता है पर मुझे न तो उसके लेखक का नाम याद रहता है और न पुस्तक का। इसलिए और नाम भी हैं पर मुझे इस समय याद नहीं आ रहे हैं। पर एक बात मैं कहूँगा, संसार के प्रत्येक साहित्यकार की कृति में मैंने एक ही मानव-आत्मा के दर्शन किए हैं।”

यहीं मैंने उनसे प्रश्न किया–“सृजन के पूर्व, सृजन के समय और सृजन के पश्चात् आपकी मन:स्थिति क्या होती है? यह भी बतलाइए कि कैसे आप लिखने का मसाला जुटाते और कैसे उसे लिखते हैं?”

वे बोले–“होता यह है कि कोई विचार सहसा सूझ जाता है। वह दिमाग में घूमता रहता है। कुछ कहानियाँ तो सालों घूमती हैं। लिखना शुरू करने में कष्ट होता है पर जब एक पैरा लिख लेता हूँ तब फिर ‘लिंक’ (क्रम) नहीं टूटता। रचना मानो पूर्ण हो जाती है। वैसे मैं एक सिटिंग (बैठक) में कहानी या कोई भी रचना कम ही पूरी कर पाया हूँ। पर जो एक सिटिंग में लिख जाती हैं वे भी सुंदर होती हैं। कभी-कभी तो बहुत सुंदर होती है। मेरी कहानियाँ 90 प्रतिशत सच्ची घटनाओं पर आधारित होती हैं। घर में कभी भाई ने बातचीत में किसी घटना का जिक्र किया या मैंने बाजार में एक बुढ़िया को सायकिल से धक्का खाकर गिरते देखा या अखबार में कोई रोमांचकारी समाचार छपा है, ऐसे ही मुझे मेरी कहानियों के प्लाट मिल जाते हैं। ‘बच्चा किसका है’ यह कहानी घर से स्टेशन जाते समय ताँगे में ताँगेवाले की बात सुन कर लिखी थी। ट्रेन के सफर ने, विशेष कर उत्तराखंड जैसी यात्राओं ने मुझे बहुत कहानियाँ दी हैं। न जाने कितने हमराहियों ने मुझे अपनी जीवनगाथा सुनाई है। घूमने का मुझे शौक है। यात्रा में मुझे बहुत प्लाट मिल जाते हैं। इस प्रकार मेरी कहानियों में मेरे और मेरे मित्रों के जीवन की सच्ची घटनाएँ ही रहती हैं। मैं अपने पात्रों में ‘लिव’ (जीवनयापन) करता हूँ।

शुरू में मैं कॉपी में लिखता और नकल करके भेजता था। इधर 5-6 साल से मैं मेहनत और भी अधिक कर रहा हूँ। मेहनत से कहानी अच्छी बनती है और कला मँजती है। कुछ कहानियों का पुनर्लेखन भी हुआ है पर बहुत कम का ही। डायरी मैं रोज लिखता हूँ। कहानियों के प्लाट और विचार भी मैं लिखता हूँ। अब भी अनेक कहानियों के प्लाट और विचार लिख रखे हैं।

मेरी कहानियों का उद्देश्य ‘मानवता’ है। ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धांत को मैं हृदय से मानता हूँ। गाँधी जी की अहिंसा में मुझे विश्वास है। मेरी सम्मति में मारने से अधिक मरने में वीरता है। लेकिन एक अहिंसक में हृदय और शरीर की शक्ति अवश्य होनी चाहिए। कहानी लिखने के पश्चात मुझे निश्चय ही शांति और संतोष प्राप्त होता है। हाँ, पहले जो मोह बना रहता था अब नहीं रह गया है।”

“क्या आप अपनी दिनचर्या के विषय में भी कुछ कहने की कृपा करेंगे”–मैंने पूछा।

उन्होंने कहा–“मेरे जीवन में ‘प्लानिंग’ (योजनाबद्धता) रही है। मामा जी का इसके लिए ऋणि हूँ। 4-4 बजे तक प्रात:काल मैं उठ जाता हूँ और नित्यकर्म से निवृत्त होकर घूमने चला जाता हूँ। 6-6 बजे घूमकर लौटता हूँ, तो डायरी और चिट्ठियाँ लिखता हूँ। उसके पश्चात लिखना आरंभ करता हूँ और साढ़े बारह बजे तक लिखता हूँ। उसके पश्चात भोजन करता हूँ। तब ऑफिस जाता हूँ। शाम को मीटिंग रहती हैं। पढ़ने का काम रात को (जब संभव हो) 10 बजे तक (शनिवार को 11 बजे तक) करता हूँ। खाने के बाद। इधर कम पढ़ता हूँ। उपन्यास कम पढ़ता हूँ। प्रेमचंद के ही उपन्यास मैंने पूरे नहीं पढ़े। ‘रंगभूमि’ रेडियो–रूपक के लिए पढ़ा। कविताएँ भी कम पढ़ी हैं। मुझे इतिहास और मनोविज्ञान विशेष प्रिय हैं। फिर भी मनोविज्ञान का नियमित अध्ययन कहाँ कर पाया हूँ।”

मेरा अगला प्रश्न था–“आपको किस कृति को लिख कर अधिक संतोष हुआ है?”

उन्होंने बताया–“इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन है। ठीक उत्तर देना तो और भी कठिन है। माँ को सभी बच्चे प्रिय होते हैं। पर चूँकि यह प्रश्न बहुत पूछा गया है इसलिए कुछ कृतियों के नाम याद हो गए हैं। हंस में छपी ‘आश्रिता’ कहानी को मैं अपनी सुंदर कृति मानता हूँ। उसे लिख कर मुझे संतोष हुआ है। उसके संबंध में श्री जैनेंद्र ने कहा था–‘हिंदी में ऐसी कहानी नहीं है। इसे देख कर हमें तुमसे ईर्ष्या होती है।’ अन्य कहानियों में ‘रहमान का बेटा’, ‘भाई साहब’, ‘छाती के भीतर’, ‘वे दोनों’, ‘बच्चा किसका’, ‘अभाव’, ‘मृत्युंजय’, ‘मेरा बेटा’, ‘धरोहर’, ‘कितना झूठ?’, ‘अधूरी कहानी’, आदि कहानियाँ ऐसी हैं जिनसे मैं संतुष्ट हूँ। इधर मैं कहानी कम, नाटक और स्केच अधिक लिख रहा हूँ। उनके साथ भी यही बात है। मैंने आलोचनात्मक लेख भी लिखे हैं पर उनसे मैं संतुष्ट नहीं हूँ। मैं अपने को आलोचक नहीं मानता। भावुक आलोचक नहीं हो सकता। हाँ, अपने उपन्यास ‘ढलती रात’ से मैं असंतुष्ट नहीं हूँ। मैं यह दावा कभी नहीं करता कि मैं पूर्ण हूँ पर मुझे अपने हृदय और मस्तिष्क के विकास में विश्वास है। मेरी धारणा यह है कि 50 वर्ष तक तो लेखक का प्रयोग काल है। उसके बाद ही उसमें ‘मेच्योरिटी’ (परिपक्वता) आती है। मेरी कला में भी 50 के बाद ‘मेच्योरिटी’ आएगी।”

“कहानी की वर्तमान स्थिति और कहानी लेखकों के संबंध में आपका क्या विचार है?”

“आजकल कहानियाँ बहुत अधिक लिखी जा रही हैं पर उनमें अधिकांश बड़ी निम्नकोटि की होती हैं। बात यह है कि अधिक कहानी लिखना कहानी का अहित ही करना है। अधिक कहानी लिखने का परिणाम यह है कि सस्ती कहानी-पत्रिकाएँ इतनी बिकती हैं जितना हिंदी का कोई पत्र नहीं बिकता। इन पत्रों की अधिकांश कहानियाँ रद्दी होती हैं। अन्य भाषा वाले इन्हीं पत्रों द्वारा हिंदी कहानी के स्टैंडर्ड की जाँच करते हैं। परिणाम यह होता है कि वे हिंदी कहानी के विषय में गलत धारणा बनाते हैं।”

अब मैंने उनसे एकांकी नाटक के संबंध में प्रश्न करने चाहे। कारण, एकांकी नाटककारों में विष्णु जी का नाम गौरव के साथ लिया जाता है। इस संबंध में मैंने उनसे पूछा–“कहानी से आप एकांकी के क्षेत्र में कैसे आ गए?”

उन्होंने कहा–“इसकी बड़ी अद्भुत कहानी है। मेरी शादी मई सन् 38 में हुई थी। उसमें सर्व श्री जैनेंद्र, यशपाल जैन, प्रभाकर माचवे, नेमीचंद्र जैन आदि सम्मिलित हुए थे। वहाँ बातचीत के सिलसिले में श्री प्रभाकर माचवे ने कहा–‘तुम्हारी कहानियों में संवाद अधिक और अच्छे होते हैं। यदि तुम नाटक लिखो तो बड़े सफल हो।’ उसी मास ‘हंस’ का ‘एकांकी नाटक-अंक’ निकला। उससे प्रभावित होकर मैंने 39 में ‘हत्या के बाद’ एकांकी लिखा। वह ‘विशाल भारत’ को भेजा पर वहाँ से लौट आया। बाद में वह ‘हंस’ में छपा। ‘साहित्य संदेश’ ने उसे उस मास का सबसे अच्छा एकांकी ठहराया। तब मुझे यह भी ज्ञान हुआ कि यदि किसी पत्र से कोई रचना लौट आए तो इससे लेखक को हताश होकर रचना को निम्न कोटि का न ठहराना चाहिए। दूसरा एकांकी ‘माँ बाप’ था! वह कोर्स में आ गया। वह सबसे पहले ‘वीणा’ के ‘एकांकी नाटक-अंक’ में छपा था। गंभीरता से एकांकी लिखना मैंने 48 से शुरू किया। जब रेडियो के संपर्क में आया तब अपने लिखे नाटकों को अभिनीत देख कर मैंने अपनी कला को माँजा। उससे मुझे यह भी अनुभव हुआ कि जब तक बर्नार्ड शा की भाँति स्वयं रंगमंच बना कर नाटक न लिखे जाएँगे, हिंदी नाटक और रंगमंच की उन्नति नहीं होगी। पृथ्वीराज कपूर ने इस विषय में एक आदर्श उपस्थित किया है।”

“अच्छे एकांकी में आपकी दृष्टि से क्या गुण होने चाहिए?”

“नाट्यकला सबसे अधिक सामाजिक कला है। वह श्रव्य नहीं दृश्य काव्य है। इसलिए सबसे पहले उसे अभिनय के योग्य होना चाहिए और उसकी कथावस्तु ऐसी होनी चाहिए जो जनमन का मनोरंजन तो करे ही उसे उदास भी बनाए। हाँ एकांकी में संकलन त्रय का होना नितांत आवश्यक है। उसमें दूसरी बार पर्दा न उठाना पड़े। यह ध्यान रखना चाहिए। इस दृष्टि से रामकुमार वर्मा, उदयशंकर भट्ट, उपेंद्रनाथ अश्क, जगदीशचंद्र माथुर आदि ने कुछ अच्छे नाटक लिखे हैं। गणेशप्रसाद द्विदेदी के एकांकी भी कला की दृष्टि से उत्तम हैं। गीतिनाट्य की देन के लिए भट्ट जी का महत्त्व स्वीकार करना पड़ेगा। इधर कविवर पंत के नाटक भी आकाशवाणी से प्रसारित हुए हैं। भट्ट जी के मेघदूत, एकला चलो रे आदि रेडियो-रूपक भी सफल हुए हैं। अश्क के नाटक पूर्ण होते हैं और वे परिश्रम भी करते हैं। उन्हें और जगदीशचंद्र को मैं विशेष पसंद करता हूँ।”

“क्या साहित्य सृजन से कभी आपका जी भी ऊबा है? यदि हाँ तो उसके कारण क्या रहे हैं?” मैंने उनसे प्रश्न किया।

उन्होंने कहा–“साहित्य से ऊबने का प्रश्न ही नहीं उठा। उसके पक्ष में मैंने पंद्रह वर्ष की सरकारी नौकरी छोड़ी है। हाँ कभी-कभी ऐसा लगता है कि मेरे साहित्य का सही मूल्यांकन नहीं हुआ है। तन मन को पीड़ा होती है, मैं मानता हूँ यह निश्चित रूप से मेरी दुर्बलता है, पर इस दुर्बलता ने आगे बढ़ते जाने की उमंग को कभी कम नहीं किया। मैं भावमयी प्रतिभा का व्यक्ति हूँ। इसलिए मन की चीज लिखने से तो संतोष होता है परंतु रेडियो के लिए बार-बार आर्डर की चीज लिखने से जी को दुख होता है।”

“क्या आपकी दृष्टि में साहित्योपजीवी होकर जिया जा सकता है?” मैंने अगला प्रश्न किया।

उन्होंने उत्तर दिया–“6 वर्ष से मैं साहित्य के सहारे जी रहा हूँ। मेरा विचार है कि यदि संपादक और प्रकाशक ईमानदारी बरतें, तो काम चल सकता है। पर जमे हुए लेखक का, नए का नहीं।

दो साल तो मुझे बड़ा संकट रहा। तीन साल से जीने के लिए आवश्यक जितना मिल जाता है। रेडियो से मुझे बड़ी सहायता मिली है। कल क्या होगा इसकी विशेष चिंता नहीं है। आज तो गाड़ी चल रही है। हाँ, नए लेखकों को दस बार सोचकर इस गली में कदम रखना चाहिए। कहीं भी कटौती और छटनी क्यों न हो उसका सबसे पहला प्रभाकन इसी गली पर पड़ता है।”

मेरा अंतिम प्रश्न था–“आपका जीवन और साहित्य के प्रति क्या दृष्टिकोण है?”

इस प्रश्न का संक्षिप्त-सा उत्तर देते हुए उन्होंने कहा–“वाद के रूप में मैं कोई वस्तु नहीं मानता। हाँ, गाँधी जी की अहिंसा में मेरा विश्वास अवश्य है। मेरा कम्युनिज्म से मतभेद केवल उसकी घृणा और हिंसा के कारण है। मुझे हिंसा और घृणा में तनिक भी विश्वास नहीं। इसी तरह पूँजीवाद में भी मुझे विश्वास नहीं है। गलत या ठीक मैं मूलत: मानवतावादी हूँ। मैं यथार्थ से कभी अलग नहीं होता पर घटित में सुंदर और शुभ लेने की ही मेरी आदत है। यदि अशुभ लेता भी हूँ तो शुभ की पुष्टि के लिए ही लेता हूँ। एक वर्गहीन अहिंसक समाज में मेरा दृढ़ विश्वास है। जीवन और साहित्य, यदि उन्हें अलग मानें, तो दोनों क्षेत्रों में मेरा यही लक्ष्य है।”

यहाँ बातचीत समाप्त हो गई और हम लोगों ने साथ-साथ भोजन किया। विष्णु जी भोजन में भी बड़े सात्विक और मिताहारी हैं। यदि मैंने उन्हें गलत नहीं समझा, तो वे गाँधीवाद के मूलतत्त्वों को अपने जीवन और साहित्य में उतारने वाले एकनिष्ठ तरुण साहित्यकार हैं, जिनमें आत्मविश्वास और परिश्रम दोनों ही तत्त्व पूर्णतया समाविष्ट हैं। मानवता में उनकी अगाध श्रद्धा देखकर मुझे यह कहते हुए संकोच नहीं है कि यह कलाकार हिंदी को गौरवांवित करने में कुछ उठा न रखेगा।


Image: Hibiscus and Sparrow
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Artist: Katsushika Hokusai
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