घूँघट के पट खोल…
- 1 September, 1951
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- 1 September, 1951
घूँघट के पट खोल…
ट्रेन अग्नि उद्गीरण करती हुई बढ़ती चली जाती। पहाड़-पर्वतों के बीच से, नदी-नालों के हृदय पर से ट्रेन बढ़ती चली जाती। वृक्ष शाखाएँ कभी झुककर उसे स्पर्श करतीं, कभी वह वृक्ष पल्लवों को आलिंगनबद्ध करना चाहती। ट्रेन की गति सुनकर वन्य मृगों का झुंड कभी अपने उद्दाम, उच्छवसित क्रिया को भूलकर घने वृक्षों की आड़ में उद्ग्रीव दृष्टि से खड़ा हो जाता और दूसरे पल लंफ प्रदान कर वन-गहन में अदृश्य होता। ट्रेन की खुली खिड़की से कितने ही यात्री उस दृश्य को देखते और क्षणिक-दृष्ट उस चित्र को अपने मन के चित्रपट पर अंकित भी शायद कर लेते।
परंतु उस दिन की ट्रेन-यात्रा में आराम से बेंचों पर बैठकर खुली खिड़की से प्राकृतिक दृश्यों का उपभोग करने का अवसर यात्रियों को नहीं मिल पाया था। भीड़, सो भी भयानक भीड़। एक से दूसरे सटे हुए यात्री खड़े थे। ऊपर के बर्थ की जंजीर पकड़े कितने ही लटक रहे थे। सूटेड-बूटेड युवक ने अपनी नव वधू को उस भीड़ में अनुसंधान करते हुए कहा–“यह तो रेल कंपनी का अत्याचार है। ऐसी भयानक भीड़, न कोई व्यवस्था है न कुछ।” उत्तर में कोई न बोला–“रेलवे वालों का क्या दोष भाई साहब। पूर्ण कुंभ की स्नान यात्रा! आदमी अपनी जान पर खेलकर प्रयाग पहुँच रहे हैं। क्या आप नहीं जानते?”
‘‘जी नहीं, मैं इन स्नान-वान से कोई मतलब नहीं रखता।”
विस्मय से कितनों ही ने कहा–“आप कहाँ के रहने वाले हैं भाई साहब?”
“शिमला में रहता हूँ।”
तब प्रश्नों की झड़ी-सी लग गई–“कहाँ से आए, क्यों आए? घर कहाँ है? आपका नाम क्या है? आदि।”
“मेरा नाम इंद्र प्रकाश अग्रवाल है। शिमला रहता हूँ। आज दो दिन पहले शादी हुई है, पत्नी को विदा कराकर लिए जाता हूँ। प्रयाग में गाड़ी बदलती है, कुछ घंटे वहाँ ठहरूँगा।” एक श्वास से इंद्र ने उत्तर दिया, फिर मुँह फेर लिया।
छोटे से स्टेशन पर गाड़ी रुकी और डब्बे के यात्रियों के निषेध की परवाह न कर पुन: जनता उस कंपार्टमेंट में भर गई।
“हाय राम, यह तो एक बरात पहुँच गई।” वृद्ध दबता हुआ कह उठा।
मौर बाँधे वर अपनी दीर्घ अवगुंठनवती नवपरिणीता पत्नी को आराम से बैठाने की चेष्टा में उसी वृद्ध को ढकेलने लगा, और तब उस चलंत ट्रेन में छोटा-मोटा युद्ध-सा होने लगा। कुछ यात्री तमाशा देखते। कुछ दोनों दलों को समझा कर शांत करने की चेष्टा करते।
एक ने नवागंतुक से पूछा–“आपकी शादी अभी हुई जान पड़ती है।”
मुसकराकर वह बोला–“जी हाँ, श्रीमती को विदा कराकर लिए जा रहा हूँ।”
लेकिन नई दुलहिन के साथ ऐसी भीड़ में आपको नहीं चढ़ना था।”
“क्या करता महाशय, काम ही ऐसा आन पड़ा।”
किसी रसिक ने रसिकता की–“अजी, इस भीड़ से पहले अपनी श्रीमती जी को तो बचा लो, फिर काम की सोचना। कौन से स्टेशन पर उतरना है?”
“इलाहाबाद जी, अरे मेरा सूटकेस?”–व्यक्ति व्यस्त हो उठा। अपने सामानों को देखना चाहने लगा, किंतु उस भीड़ में पता चलना असंभव था। पीछे के यात्री से बोला–“भाई। जरा देखना, रामेश्वर अग्रवाल लिखा कोई सूटकेस है?”
गाड़ी चलती चली जाती; खड़े-खड़े ट्रेन-यात्रियों के पैर पत्थर से भारी होते, रामेश्वर सूटकेस के लिए अधीर होता। ऊपर के बर्थ से बिस्तर का बंडल किसी के मस्तक पर गिरता और तब ट्रेन के अंदर और भी अव्यवस्था होती। नारीगण अपने वस्त्रों को समेटकर पुरुषों के स्पर्श से बचने के व्यर्थ प्रयास में व्यस्त, किंतु ट्रेन अपनी उद्दाम गति से चलती चली जाती। एंजिन का धूम गोलाकार-सा निकलता हुआ एक तरफ चला जाता। ट्रेन एक-सी चलती।
ट्रेन की गति धीमी हो चली और तब वन गहन से उद्दाम नृत्य करती हुई झटिका रगंकेलि को निकल पड़ी। प्रयाग के स्टेशन पर ट्रेन खड़ी भी न हो पाई थी जबकि यात्रियों में मल्लयुद्ध का अभिनय प्रारंभ हुआ। प्रत्येक पहले उतरना चाहता!
स्टेशन के प्लेटफार्म के उस भीषण भीड़ तथा विरामहीन कलरव को सुनकर इंद्र विस्मित हुआ, सिहरा। अपने जीवन में उसने शायद ही ऐसा दृश्य देखा हो, और अपनी वधू को खोजने में व्याकुल, उन्मत्त-सा चहुँ ओर देखने लगा।
[2]
पर्वत, कंदराओं, उपत्यका, लतागुल्मों से शोभित चित्र की भाँति शिमला का शांत वातावरण; पहाड़ के ऊपर सुंदर, सुदृश्य बँगला-पाश्चात्य रीति से सज्जित मनोरम गृह, दास-दासी पूर्ण।
दीर्घ अवगुंठन में अपने सौंदर्य को आवरित किए हुए मंजुला जब पहुँची, तब भोर के प्रकाश में नाना प्रकार के पार्वत्य पक्षी अपने विचित्र स्वर-झंकार से प्रभात की वंदना कर रहे थे। इंद्र पत्नी को पहुँचा कर बाहर के कमरे में लेटे-लेटे सो रहा। दो रात्रि का जगा हुआ वह–तन-बदन की सुध जाती रही।
घूँघट की आड़ से मंजुला अपने घर-द्वार दासी-चाकर को जब पहचानना चाह रही थी तब पहुँचीं श्रीमती सक्सेना। वधू के दीर्घ घूँघट के प्रति परिहास, वितृष्णा से देखा। क्षिप्रता से अवगुंठन पीछे हटाकर बोली–“देखिए मिसेज अग्रवाल, यह सब कुप्रथा, कुरीति यहाँ पर करने की जरूरत नहीं; मि. अग्रवाल हाई सोसाइटी के रहने वाले हैं और उनकी पत्नी आप! छि:, यह कुसंस्कार छोड़िए।” तब मंजुला के मोटे भारी कंकण आदि स्वर्ण अलंकारों को देख-देखकर हँसी से लोटने लगी। विस्मय से मंजुला ने श्रीमती सकसेना को देखा और देखती ही रह गई।
“आज के जमाने में ऐसा लंबा घूँघट? यों एक-एक सेर वजन के गहने। गजब कर दिया। आप कहाँ तक पढ़ी हैं?” तब तक पहुँच गई पड़ोस की सुंदरी, शिक्षिता कमला। मंजु को देखा, देर तक देखा, कहा–“ऐसी सुंदरी को इंद्र बाबू ने कहाँ से खोज निकाला?” उसने मंजु के कंधे पर हाथ रखा–“थकी हो बहन, चलो नहाकर आराम करो। हम तुम्हें तुम्हारी घर-गृहस्थी दिखावेंगी।” फिर जरा सलज्ज हँसी से बोली–“तुम मुझसे बहुत छोटी हो। आप क्या कहें। कुछ सोच तो नहीं रही हो?”
“नहीं जीजी, आप मुझे तुम ही कहा करें।”
“क्या नाम है तुम्हारा है?”
“मंजुला।”
मंजुला ने घूँघट निकालना चाहा। वे दोनों हँसी। श्रीमती सकसेना ने कहा–“अरी बहन, यह तो डेढ़ हाथ की घूँघट निकाले हुए थीं, जरा गहने तो देखो।” धीरे बोली मंजु–“परंतु मेरे पिता के घर और ससुर के घर घूँघट की प्रथा है न।”
“ऐसा। आश्चर्य, मिस्टर अग्रवाल जैसे शिक्षित व्यक्ति और घूँघट!”
“यदि उन्हें पसंद न होता, तो वे मुझे जरूर रोकते।” मंजुला के कहने पर दोनों ने एक दूसरे के प्रति भेद भरी दृष्टि से देखा।
श्रीमती सकसेना ने पूछा–“आप कहाँ तक पढ़ी हैं?”
“यों ही थोड़ा-सा। हमारे घर लड़कियों के पढ़ने की रीति नहीं है।” कमला ने बड़ी बहन की तरह कहा–“कोई बात नहीं, यहाँ पढ़ लेना। और धीरे-धीरे यहाँ की रीति-नियमों से अभ्यस्त हो जाना। यहाँ घूँघट की जरूरत नहीं है, समझी मंजुला?”
“जी।”
चपरासी इंद्र के फाइलों का बंडल लेकर पहुँचा। मंजु ने क्षणिक दृष्टि उठा कर देखा और घूँघट खींच लिया। चपरासी चला गया।
कहने लगी मंजुला–मृदु गुंजन-सा वह स्वर–“आपलोगों ने घूँघट हटा दिया। वे जाने कैसे निर्लज्ज समझे होंगे।”
“कौन मंजु?”
लज्जित नेत्रों को धरती पर गड़ाकर वह बोली–“वे जीजी। अभी मुझे खुले सिर देख गए न।”
श्रीमती सकसेना खिलखिला पड़ीं। कमला ने अत्यंत विस्मय मिश्रित करुणा से नववधू को देखा; बोली–“अभी जो कोट-पेंट पहने आया था वह इंद्र बाबू नहीं हैं। उनका अरदली था। क्या तुमने अब तक इंद्र बाबू को नहीं देखा?”
“नहीं जीजी।”
कमला बोली श्रीमती सक्सेना से–“हँसने की बात नहीं है बहन! दुख की और सोचने की बात है। आज जबकि हमारे हाथों नवराष्ट्र निर्माण करने का दायित्वपूर्ण एवं महत्त्वपूर्ण भार आ चुका है, तब ऐसे दिन भी हमारा समाज कई कुप्रथाओं एवं कुसंस्कारों से जोंक की भाँति चिपका हुआ है। क्या यह कम खेद की बात है? खैर, चलो मंजु तुम्हें तुम्हारी गृहस्थी दिखलावें।”
[3]
मंजुला जिस ओर भी दृष्टि उठाती संतोष, तृप्ति से उसका जी भर उठता। उसके कुमारीत्व के कल्पना-राज्य में ऐसे सौष्ठव युक्त, सुख-शांति पूर्ण वातावरण और मनोरमता की उड़ान कभी नहीं हो पाई थी। शिवरात्रि उपवासिनी कुमारी के शिवमंदिर में रात्रि जागरण की विनिद्र रजनी में भी इंद्रकुमार की तरह शिक्षित पति पाने की भावना नहीं आई थी।
गृह कार्य में व्यस्त मंजुला आड़ से पति को देखती और कार्य बिसर कर वह देखती रह जाती और उसके रोम-रोम में हर्ष का शंखनाद ध्वनित हो उठता।
रात्रि का प्रथम प्रहर। भीनी चाकलेट रंग की साड़ी पहने मंजुला दर्पण के सामने खड़ी थी, सतृष्ण नेत्रों से अपनी आकृति देख-देख कर खुशी से मतवाली हो रही थी। जुड़ी हुई भौंहों के बीच सिंदूर की बिंदी लगाई, मृग-से नयनों में काजल की बारीक लकीर खींची, तब सुहाग रात्रि की सुहागिनी मंजुला पति प्रेम के प्रथम मिलन को आँचल में समेट, सहेज कर रखने को चल दी।
द्वार खोलकर कमला उसे अंदर पहुँचा आई। इंद्र भी शायद नववधू की प्रतीक्षा में अधीर हो रहा हो। उठकर अंदर से द्वार रुद्ध किया। फिर अवगुंठनवती मंजुला का हाथ पकड़ कर सोफा पर बैठाया। स्वयं सामने बैठा।
“आज भी तुम मुँह ढाँके रहोगी पद्मा?”
पद्मा?
और अवगुंठन के अंदर वधू की विस्मित दृष्टि ने आविष्कार किया–पति उसका नाम तक नहीं जानता।
“जीवन के इस चिर-स्मरणीय दिन में घूँघट की आड़ हटाओ पद्मा।”
“मेरा नाम पद्मा नहीं, मंजुला है।” वीणा-सी स्वर झंकार ने इंद्र के हृदय में मदिरा पूर्ण प्याला उड़ेल दिया हो तो विस्मय नहीं। किंतु उसके नेत्रों का विस्मय कहीं उससे भी अधिक था–“मंजुला? लेकिन तुम्हारे घर से जो विवाह का निमंत्रण पत्र छपा था उसमें पद्मा नाम था”, और कहते-कहते उसने वधू का अवगुंठन खोल दिया। रूप-समुद्र के शुभ्रफेन-सा वह रूप, जिस रूप को देखकर आँखों की पलकें आँखों ही में अटक-सी जाती हैं। लगा इंद्र को कलाकार की साधना का श्रेष्ट उत्कर्ष वह देख रहा है। तन्मय-सा एक समय इंद्र कह उठा–“तुम ऐसी” परंतु दूसरे पल उसके नेत्रों की तृष्णा के स्थान पर विस्मय साकार हुआ।
पति का सहसा भाव-परिवर्तन वधू को अद्भुत लगा। मन उसका आश्चर्य और कौतुक से परिपूर्ण हुआ–“तुम्हारा साँवला रंग गोरा कैसे हो गया?” इंद्र ने पत्नी की ओर अपने बढ़े हुए बाँहों को खींच कर प्रश्न किया।
उस विचित्र प्रश्न का उत्तर तब मंजु नहीं दे पाई थी। इंद्र उठकर खड़ा हो गया–“आज से पहले क्या तुमने मुझे देखा नहीं था?”
“नहीं, और आपने?”
“विवाह के समय तुम्हारे हाथ-पैरों पर मेरी नजर गई थी।” जरा रुक कर अनमना-सा इंद्र ने पूछा–“तुम्हारे यहाँ शादी के वक्त लड़की के बदन पर किसी प्रकार रंग या रोगन–यों कुछ लगाने की प्रथा है क्या? याने काली कोई वस्तु?”
मंजुला को हँसी आ गई–“नहीं तो।”
उसने संदिग्ध दृष्टि पत्नी के गौर वर्ण मुख पर स्थिर कर कहा–“तुम्हारे हाथ-पैर पर मेरी नजर पड़ी थी; शपथ पूर्वक कह सकता हूँ, काले थे।”
वधू ने कौतुक से पूछा–“क्या जादू-मंत्र के प्रभाव से गोरे हो गए?”
“तुम्हारा जन्म स्थान कौन शहर है पद्मा?”
“आप भी कैसे भूलते हैं, अजी ब्याह करने आप दिल्ली नहीं गए थे? मेरा नाम पद्मा नहीं, मंजुला है।”
“दिल्ली गया था?” इंद्र का मुख विवर्ण हो गया। कहा–“रात हो रही है, सो रहो मंजुला।”–इंद्र तुरंत निकल गया।
सो मंजु? वह अपनी लांछित वासर-सज्जा लिए विमूढ़-सी वासर-गृह में रात जाग कर बैठी रही। नारीत्व के अपमान की वेदना से उसका जी चुरमुराकर निष्प्राण-सा हो रहा। अपने जीवन के एक ऐसे महत्तर दिवस में वह रह गई स्थविर-सी, वाकहीन, शब्दहीन, मूढ़।
[4]
मंजुला संतरे का रस लेकर कमरे में पहुँची। पलंग पर पड़ा इंद्र कराह रहा था। मंजुला ने आँख उठाकर देखा वह ज्वर से पीड़ित व्यक्ति, जिसे कि एक दिन वेदमंत्र की पावनता में लोक नेत्रों के सामने उसने पति कहकर स्वीकार किया था और कदाचित् उसका मन-प्राण भी उस युवक पर न्यौछावर होकर लुट चुका हो, ऐसा उसका अपना पति–उसे ही स्पर्श करने का अधिकार उससे छीन लिया गया है। उस पर रहस्य यह कि उसी शायित व्यक्ति ने उसे घर-गृहस्थी, बक्स आदि की चाभी तक उसे ही सौंप दी है।
मंजु खड़ी रही। जाने कितने ही विचार उसके मन में चलने-फिरने लगे। अद्भुत वे विचार, कल्पना से बाहर वे बातें। वह शायित व्यक्ति, उसका स्वामी–जिस पुरुष को सिमंतिनी भार्या ने सर्वांत:रण से अपना लिया है, और अपने निजत्व को भी शायद अबाध गति से उसके अनजान में ही उसे सौंप दिया है। किंतु अदृष्ट का यह कैसा अट्टहास? स्पर्श करने का भी उसे अधिकार नहीं?
सोच रही खड़ी मंजु। तब चाँदनी रात की रुपहली छाया में संसार पड़ा सो रह था। चाँदनी लोट रही थी उन्मुक्त द्वार एवं वातायण पथ से उसके गृह में। एकाकी मंजुला, चाँद की छाया में बैठी देख रही उस चित्र को। इंद्र का फोटो गोद में रखकर शायद समाहित हो रही हो वह उसी फोटो में।
“मंजु-मंजुला।” सुरीला आदर पूर्ण वह स्वर। पुकारा था इंद्र ने! चौंक कर मंजु ने देखा, बैठा था इंद्र उसके निकट, अति सन्निकट, शायद उसका तप्त श्वास भी मंजु के कपोल को छू रहा हो। एक हाथ उसके कंधे पर आकर गिरा और विस्मय! तुरंत इंद्र उससे दूर हट गया, मानो प्रेत देख रहा हो, विस्फारित वे आँखें। मंजु को आज भी स्मरण है वह मुखाकृति, जीवन के अंत तक स्मरण रहती आवेगी।
“मंजुला, मंजु! क्या मित्र के नाते तुम मुझे नहीं स्वीकार कर सकतीं?” आर्त, आर्द्र वह स्वर। और मंजुला ने दाँतों तले ओठ दबाकर उत्तर में कहा था–“जरूर! आज से आप मेरे मित्र हुए। केवल मित्र ही।” उसके बाद मंजुला ने कुछ नहीं सोचा था और न सोचने की प्रवृत्ति ही हुई थी।
अरे, यह क्या से क्या सोचने लग गई है मंजुला? उसने अपने को संयत किया फिर दृढ़ पद से इंद्र के सिरहाने पहुँची। शरीर का उत्ताप होगा, ज्वर नहीं था। वह निस्संकोच सिरहाने बैठी, पूछा–“सिर में दर्द ज्यादा है?”
“हाँ।”
उसने बाम लेकर इंद्र के ललाट पर लगाना शुरू कर दिया।
“जररूत नहीं है मित्र, क्यों कष्ट कर रही हो?”
“आप बीमार हैं, चुप पड़े रहिए। डरिए मत, मैं कभी भी पत्नीत्व का अधिकार नहीं माँगूगी। और बीमारी में मित्र, मित्र की सेवा कर सकती है।”
देखा इंद्र ने उस असंभव गंभीर मुख को। देखा उसने उस अंगारे-सी जलती हुई आँखों को, सुना उसने आहत उस स्वर को। तब इंद्र उठकर बैठ गया। कह बैठा–“वास्तविक सत्य असुंदर ही तो हुआ करता है न मंजु।”
“तो?” मंजुला क्रमश: विस्मित हो रही थी।
“और उसे सहन करना भी कभी असंभव हो जाता है। मानती हो न इस बात को?”
“नहीं। असंभव कह कर संसार में कुछ नहीं है।”
अविश्वास से मस्तक-आंदोलन करता इंद्र ने कहा–“मेरे विचार से ऐसा नहीं है। तुम सह सकोगी या नहीं; इस पर–!!
अधीरता से मंजुला ने कहा “कहो।”
“कहूँ?”
“जरूर।”
“सह लोगी।”
”हाँ, हाँ, हाँ!”
“एक समूचा अभिनय ही तो है। हम दोनों का वर-वधू के रूप में परिवर्तन एक ही दिन हुआ मंजु। मेरी पत्नी पद्मा पहुँच गई तुम्हारे पति रामेश्वर के पास और तुम मेरे पास। रामेश्वर को पत्नी बदलने का हाल प्रयाग पहुँच कर ही ज्ञात हुआ और मुझे संदेह हुआ था तुम्हारे नाम आदि से! और मंजुला, शायद आज शाम तक पद्मा को लेकर रामेश्वर यहाँ पहुँच जावेंगे! हाँ, तुम्हें लेने को आ रहे हैं न। लो उनका पत्र पढ़ो।”
किंतु मंजुला को पत्र पढ़ने की चेष्टा करते न देखकर इंद्र मन-ही-मन शंकित हुआ। “मंज”–पुकारा उसने “मंजु”–दर्द भरी वह पुकार। उस रक्तहीन मुख को देखकर इंद्र सिहर उठा।
[5]
चाँद की छाया धरती पर, धरती की छाया चाँद पर। सो रही थी धरती। जाग रहा था चाँद। अट्टालिका से लगा उद्यान। उस चाँद की छाया में पुष्पित चमेली के नीचे बैठा था रामेश्वर, निकट बैठी अश्रुमुखी नारी। शांत किंतु परिष्कृत और संयत वह कंठ स्वर। कह रही थी मंजुला–“मुझे क्षमा करो स्वामी, मन मेरा अशुचि हो चुका है। मैं अब आपकी सेवा के योग्य नहीं हूँ।”
“और शरीर?”
“वह पावन है। किंतु सतीत्व तो मन की विभूति है न?”
“समझा।” उसी धीरता से रामेश्वर ने कहा–“घटनाचक्र से मन यदि अशुचि हो गया हो, तो उस मन का दोष ही क्या है? और यह दुराव क्यों मंजु? तुम्हारा स्थान मेरे बगल में है, पैर के निकट नहीं। आओ मंजुला, मुझसे सट कर बैठो।”
और वही पल है जबकि पद्मा ने अपने पति इंद्र की तस्कर-वृत्ति पकड़ ली। अर्द्धरात्रि में मंजुला का फोटो देखते-देखते इंद्र जब ध्यानस्थ-सा हो रहा था, तब सिंहनी-सी पद्मा कह उठी–“अगर तुम मंजुला पर प्रेम लुटा चुके थे, तो मुझे लाने की जरूरत क्या थी?”
उदास हँसकर इंद्र ने कहा–“देवता आदि को साक्षी मानकर विवाह का मंत्र तो तुम्हारे ही साथ पढ़ चुका था पद्मा।”
किंतु मेरी जिंदगी तो बर्बाद हो ही गई न। इसलिए दोषी कौन है? इस लुटे हुए प्रेम को लेकर मैं क्या करूँगी?”
“नहीं पद्मा इसलिए न तो मैं दोषी हूँ, न विधाता! दोषी है हमारी घूँघट की प्रथा। और लुटा हुआ प्रेम? लुटकर ही तो वह सार्थक हुआ करता है न, उसका महत्त्व बढ़ जाता है।”
Image: Train smoke
Image Source: Wikimedia Commons
Artist: Edvard Munch
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