मंच

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इधर लेखक की उद्विग्नता बढ़ती जा रही थी। कई रोज यूँ ही गुजर गए और वह कुछ लिख नहीं पा रहा था। जब भी लिखने बैठता राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक समस्याएँ उसे दबोचने लगतीं। वह चाहता भी था कुछ ऐसा ही लिखना, जिसमें तीनों समस्याएँ आ जाएँ। मगर कहानी का प्लाॅट? इस पर मगजमारी करते-करते परेशान ही हो गया था… नहीं मिल पा रहा था कोई फड़कता हुआ प्लाॅट।

वह सोचने लगा था- ‘शायद ऐसा ही उधेड़बुन आया होगा आचार्य शिवपूजन सहायजी के सामने, जब वे भी मेरी तरह कहानी लिखने बैठे होंगे और कहानी का प्लाॅट ढूँढ़ते-ढूँढ़ते एक खूबसूरत सी कहानी गढ़ ली थी। परंतु, मुझे तो न कोई प्लांट मिल रहा है और न उसी बहाने कोई अच्छी कहानी बन रही है। फिर क्या करूँ? क्या ऐसे ही आकाश के तारे गिनता रहूँ या फिर किसी आकाश परी को धरती पर उतार किसी कहानी में उलझा लूँ?’ लेखक की परेशानी और उलझन बढ़ती जा रही थी।

ऐसी बात नहीं कि लेखक के जेहन में कोई प्लाॅट नहीं आ रहा था। प्लाॅट तो आते थे और लेखक उन पर गंभीरता से विचार भी करता था, परंतु कसौटी पर खरा नहीं उतरने से कहानी का रूप देने में दिक्कत हो रही थी। कई पात्र आँखों के सामने चलचित्र की भाँति आते थे और उतनी ही गति से चले भी जाते थे। टिक नहीं पाते थे। आखिर टिकते भी कैसे? उन पात्रों के पास ऐसा कुछ खास नहीं था, जिस पर कुछ लिखा जा सके। तभी एक पात्र लेखक के सामने आया और बार-बार आने लगा। लेखक जब भी चाहे कि दूसरे के लिए भी स्थान मिलना चाहिए, परंतु जिस प्रकार सिटिंग एम.एल.ए.-एम.पी. के लिए एक बार जीत जाने पर मरने तक के लिए वह क्षेत्र आरक्षित हो जाता है, उसी प्रकार वह पात्र अपना स्थान छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ।

लेखक की हालत वही हो गई थी कि एक युवक संन्यासी दीक्षा ग्रहण कर समाधि लगाने चला, तो राह में एक युवती से आँखें चार हो गयीं। युवती से उसने नजर तो हटा ली, मगर मन नहीं हटा सका और समाधि के समय आँख मुँदते ही देवी-देवताओं की तरह वह युवती बार-बार उसके सामने आने लगी। उसकी समाधि तो नहीं लग सकी, परंतु उस युवती को जानने-समझने की व्याधि जरूर लग गयी। लेखक भी अन्य पात्रों का इंतजार छोड़कर बार-बार आ रहे पात्र को जानने-समझने के लिए तैयार हो गया। जीर्ण-शीर्ण-कृषकाय फटी लुंगी और गंजी पहने तथा कंधे पर गमछा रखे करीब चालीस वर्षों का वह पात्र लेखक के सामने खड़ा था।

‘तुम्हारा नाम?’

‘जोरन… जोरन मिस्त्री सरकार।’

लेखक ने दिमाग पर जोर देकर कहा- ‘लगता है यह नाम सुना हुआ है।’

‘जरूर सुने हैं सरकार। मैं तो आप ही के गाँव का एक अदना मिस्त्री था, जो लोगों के घरों की दीवारों को जोड़कर एक-एक पैसा जोड़ता था और अपने परिवार का पालन करता था।’

‘मिस्त्री था!… क्या मतलब?… क्या अब तुम नहीं हो?’

‘नहीं सरकार… अब मैं कहाँ रहा? अब तो मैं मर चुका हूँ… कुछ भी बाकी नहीं रहा।’

‘मर गये हो? लेकिन तुम तो मेरे सामने खड़े हो और बोल भी रहे हो?… यह सब क्या है?’

तब तक किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी। लेखक की चेतना वापस लौटी और वह दरवाजा खोलने चला गया। लेखक के ही गाँव का पढ़ा-लिखा युवक था, जो सामाजिक कार्यकर्ता भी था। उसका नाम था- अर्जुन। उसके साथ अंदर आते ही लेखक इधर-उधर देखे बिना सीधे टेबुल के सामने रखी कुर्सी पर बैठ गया। टेबुल पर कुछ कागज, कलम और करीने से सजायी पुस्तकें थीं। लेखक ने कलम अपने हाथ में ली और फिर उसने कहा- ‘हाँ तो, जोरन किसलिए आए हो?’

लेखक की इस हरकत पर अर्जुन अवाक् रह गया। क्या हो गया है प्रसाद चाचा को? भला यहाँ कौन है, जिससे पूछ रहे हैं? आखिर अर्जुन ने पूछ ही दिया- ‘प्रसाद चाचा, यहाँ कहाँ कोई है, जिससे पूछ रहे हैं?’

‘अरे! अभी-अभी तो जोरन आया था और बोल रहा था कि वह मर गया है।’

‘आप भी अजीब हैं प्रसाद चाचा। जोरन तो साल भर पहले मर चुका है… और भला मरा हुआ आदमी सामने आता है? वह आपका भ्रम था।’

तब लेखक को याद आया कि वह तो खुद ही कहानी के पात्रों को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते पहुँच गया था जोरन के पास। अर्जुन से कहा- ‘हाँ… जोरन तो मर चुका है, लेकिन उसकी छाया बार-बार मेरे सामने क्यों आ जाती है?… अर्जुन, मैं जोरन की पूरी कहानी जानना चाहता हूँ। क्या तुम जानते हो?’

‘मैं क्या नहीं जानता, चाचा?… और शायद जोरन की छाया भी इसीलिए आपके सामने बार-बार आकर आपको परेशान कर रही है।’

‘हाँ, उसकी याद तो आती है, मगर वह क्यों आ जाता है मेरे जेहन में?’

‘अपनी कहानी बताने… जानते हैं चाचा, वह राजा-महाराजा होता अथवा बहुत बड़ा नेता होता, तो उसकी कहानी लोगों को कंठस्थ होती… उसके जन्म दिन और पुण्यतिथि पर उसकी चर्चा होती। लेकिन वह मर गया है… फिर भी कोई कानों-कान जानता है कि वह कैसे मर गया? कोई नहीं जानता… और न कोई जानने की फिक्र ही करेगा। क्योंकि, उसकी अहमियत ही क्या है, समाज के लिए?’

‘ऐसी बात क्यों कर रहे हो? मैं तो उसकी कहानी आज जानकर ही दम लूँगा।’

‘मैं आपके पास आ गया, तब न? अन्यथा, आप जब भी गाँव जाते होंगे, गाँव के बाहर बने मंच पर एक स्त्री अपने हाथों में खिलौने लेकर कभी रोती… तो कभी हँसती… तो कभी खिलौनों को पुचकारती मिल जाती होगी। लोग समझते हैं कि इसका पति इसे छोड़कर चला गया, इसलिए पागल हो गई है। फिर पागल की बात कौन सुनता? ठीक वैसे ही जैसे अपना जनप्रतिनिधि चुने जाने के बाद समस्याओं के लिए आवाज उठाने से जनता पागल घोषित हो जाती है। आप भी तो उस ओर से होकर गुजरते रहते हैं, कभी आपने जानने की जहमत उठायी कि मंच पर खड़ी औरत के रोने-गाने में क्या रहस्य है?’

‘नहीं… और तुम ठीक ही कहते हो… लोग कहते हैं कि वह पगली है।’

‘बस, यही तो मार खा गये आप, वरना आपको बहुत पहले एक कहानी मिल गई होती और अबतक उसकी कहानी लोगों तक पहुँच गई होती, तो शायद मंत्री की शह पर गजाधर जैसे दुर्दान्त राजनीतिज्ञ भेड़िये से समाज को त्राण मिल गया होता।’

‘कौन गजाधर? वही जो मंत्रीजी का खास-म-खास आदमी है और बहुत पहले गाँव के बाहर एक मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए उसने बवाल मचाया था?’

‘हाँ…हाँ… वही गजाधर। जानते हैं चाचा, उस मंदिर से उसे कुछ लेना-देना नहीं था और आज भी उसे कुछ लेना-देना नहीं है। उसने तो रफीक के साथ मिलकर ऐसी चाल चली कि आज तक गाँव उसमें उलझा हुआ है और आपसी सौहार्द समाप्त हो गया है। लेकिन गजाधर और रफीक में आपने सुना कि दोनों के बीच कभी गाली-गलौज या मारपीट हुई? कभी नहीं और आप सुनेंगे भी नहीं। क्योंकि दोनों ने मिलकर ही तो यह येाजना बनायी थी।’

‘मगर, दोनों के मिलने से मंदिर-निर्माण का क्या प्रयोजन?’

‘यही तो… जहाँ माँ काली का मंदिर है, वहीं पर मुसलमानों की भी जमीन है और मंदिर का निर्माण भी ऐसा है कि गौर से देखने पर मंदिर और मस्जिद दोनों लगता है। ऐसी बात भी है। सुना है कि कभी एक मुसलमान लड़की माँ काली की पूजा करती थी। रोज सुबह और शाम मंदिर की सफाई भी वही करती थी। एक दिन रात्रि में सफाई करते समय उसे साँप ने डस लिया। वह लड़की उस मंदिर में मर गई थी। हिंदू और मुस्लिम दोनों संप्रदाय के लोगों ने मिलकर काली मंदिर में ही उसका मजार भी बना दिया था। जो भी हिंदू पूजा करने जाते, मजार पर उस लड़की की भी पूजा करते।’

‘ठीक है, फिर बवाल कैसा?’

‘बवाल…? गजाधर भी धीरे-धीरे पूजा करने लगा था और काली-भक्त के रूप में जाना जाने लगा था। एक दिन उसने अफवाह उड़ायी कि माँ काली ने उसे दर्शन दिया है। और कहा कि मजार रहने से उनको कठिनाई हो रही है। इसके पूर्व उसने रफीक से भी बातें कर ली थी कि हिंदू और मुसलमान को अलग-अलग भड़काकर अपने स्वार्थ की पूत्र्ति की जाय। फिर क्या था? गजाधर ने हिन्दुओं को बटोरा और मंदिर से मजार हटाने के लिए एकजुट होने का नारा दिया और उधर रफीक ने मुसलमानों को एकजुट किया। फिर खड़ा हो गया टंटा। काली माई की जय… तो, या अली की गूंज होने लगी। मंदिर के नाम पर गजाधर ने घर-घर भेजकर ईंट का पूजन कराया और रफीक ने मजार के नाम पर घर-घर चादर घुमवाई। फिर दोनों ने लाखों रुपये बटोर लिये। जब रुपये आ गए तो उनके लिए मंदिर और मजार कोई मकसद नहीं रहा। मकसद है सिर्फ हिंदू और मुसलमान के बीच तनाव पैदा करते रहना और ऐसी राह ढूँढ़ना कि कभी आपस में हिंदू और मुस्लिम एक न हो सकें। इसके पहले सभी कितना मिलजुल कर आपस में रहते थे… न कोई झगड़ा… न कोई फसाद… साथ-साथ मिलकर पूजा करना… और साथ-साथ मिलकर मजार पर चादर चढ़ाना। अब तो मामला अदालत में है और मंदिर में ताला लटक गया हैं। जब भी कोई पैसों का हिसाब मांगने के लिए सोचता, तो दोनों गजाधर और रफीक- मंदिर बनेगा तो मजार हटेगा तथा मंदिर से मजार नहीं हटेगा की आवाज बुलंद करने लगते। दोनों ने अब तो पैसों के बल पर बेरोजगारों की फौज अपने-अपने पक्ष में कर ली है। मजा लूट रहे हैं गजाधर और रफीक, मारे जा रहे हैं हिंदू और मुसलमान।’

‘तो फिर इसमें जोरन कहाँ आता है?’

‘इसमें वह… वह क्यों आए? मगर उसकी कहानी में गजाधर नाम का पात्र है। हुआ यह कि गजाधर की चलती देखकर राजनेताओं ने उसे अपने पक्ष में कर लिया, ताकि वोट मिलता रहे। मंदिर और मजार की आंच से आस-पड़ोस भी प्रभावित हो गया है और गजाधर तथा रफीक का अपने-अपने संप्रदाय के लोगों पर प्रभाव भी तो है? राजनीतिज्ञ तो वोट की राजनीति करते हैं… चरित्र से क्या सरोकार?

गजाधर मंत्रीजी का खास-म-खास आदमी बन गया। कोई कार्यक्रम हो… चुनाव हो… सभा हो… सब गजाधर ही इंतजाम करता। उसे मंत्रीजी से तो पैसे मिलते ही हैं, लोगों से भी वसूलता रहता है। इसी में एक दिन निर्वाचन की सन्निकटता देखते हुए मंत्रीजी का पत्र गजाधर के पास आया। उसके बाद तो गजाधर के पैरों में बिजली प्रवाहित होने लगी थी। क्योंकि तीन दिनों बाद ही मंत्रीजी का भाषण होना था, जिसका सारा प्रबंध उसे ही करना था। यह अलग बात है कि पाँच वर्ष व्यतीत होने के पूर्व मंत्रीजी को एक बार भी समय नहीं मिल सका था कि वे अपने क्षेत्र की जनता से रू-ब-रू हो सकें। जनता अपने नेता के दर्शन की अभिलाषी ही रह गयी। हालाँकि इन पाँच वर्षों में नेताजी के आगमन के कार्यक्रम अनेक बार बने और रद्द हुए। गजाधर द्वारा प्रचार किया गया कि जब से नेताजी मंत्री हुए हैं, संपूर्ण राष्ट्र की समस्याओं से जूझ रहे हैं और इस पर भोली-भाली जनता बाग-बाग हो जाती अपने नेता की व्यस्तता सुनकर। फिर नहीं आने की शिकायत भी नहीं रह जाती।

पत्र पाते ही गजाधर की व्यस्तता बढ़ गई थी। घर-घर घूमकर वह नेताजी का पत्र दिखा आया। नेताजी की चिट्ठी से जनता और आॅफिसर पर उसकी दबंगता बढ़ जाती थी। लोग न चाहकर भी उसे प्रतिष्ठा देने के लिए तत्पर दिख पड़ते। पत्र के एक दिन बाद ही तैयारी के लिए नेताजी की ओर से उसके पास पचास हजार रुपये की एक गड्डी आ गई थी। फिर भी अपनी दबंगता का भरपूर प्रयोग कर उसने लोगों से चंदा वसूल किया। कुछ इस चन्दा-वसूली के खिलाफ बोलना भी चाहते थे, मगर बिल्ली के गले में घंटी बांधने की जहमत कौन उठाए? हिम्मत किसमें थी?

पिछले चुनाव में एक होनहार युवक राकेश ने कितना विरोध किया था… क्या नहीं कहा था उसने? उतनी हिम्मत तो आज तक किसी ने नहीं की। नेताजी की सभा में खड़ा होकर उसने बखिया उधेड़ दी थी। असफलताओं की चर्चा कर उसने नेताजी को खूब लताड़ा था। नेताजी ने तो हाथ जोड़ लिये थे। अपनी गर्दन की माला उसके गले में डालकर उसको अपने सीने से लगा लिया था और भरी सभा में ऐसे होनहार युवक की तारीफ के पुल बांध दिये थे। ठीक वैसे ही जैसे माला पहनाकर खस्सी को बलि के पहले दुलराया जाता है।

चुनाव के एक माह बीतते-बीतते उसे उसके परिवार के छः सदस्यों सहित सदा के लिए चुप कर दिया गया था। हत्या के बाद नेताजी का दौरा हुआ था। उनके द्वारा विधि-व्यवस्था पर भरपूर प्रहार किया गया था। स्थानीय प्रशासन को तो उन्होंने पानी ही पिला दिया था। उसके घर को ‘स्मृति-भवन’ बनाने का उन्होंने आश्वासन दिया था। लोगों द्वारा नेताजी की जय-जयकार भी की गई थी। उसके बाद तो किसी ने आज तक चूँ करने का साहस नहीं किया। ‘स्मृति-भवन’ के शिलान्यास का पत्थर आज भी अपने मूत्र्त रूप के लिए टकटकी लगाए खड़ा है, परंतु किसकी शामत आई है जो पूछे नेताजी से?’

कहानी को आगे बढ़ाते हुए अर्जुन ने कहा- ‘कलक्टर साहब भाषण-स्थल का मुआयना करने आए। मंच का निर्माण शीघ्रातिशीघ्र करने के लिए जोरन को बुलाया गया और उन्होंने कहा, आज ही मंच तैयार हो जाना चाहिए, क्योंकि अचानक मंत्रीजी के कार्यक्रम में परिवर्तन हो गया है। उनका भाषण आज ही आठ बजे रात्रि से होगा। और जोरन ने उनका आदेश स्वीकार कर लिया।

भूगर्भवेत्ता आए और दो सौ गज की परिधि के अंतर्गत जमीन के अंदर छुपाकर रखे जाने वाले संभावित विस्फोटक पदार्थों की जाँच हुई। परिधि की चारों ओर बाँस-बल्ले से उसे घेर दिया गया। बीच में मंच बनना तय हुआ। परिधि से मंच तक जूते-चप्पल फेंककर भी लोग आश्वस्त हो गए, तभी मंच के लिए स्थल का चयन हो सका। मंच-निर्माण की सामग्रियाँ जुटायीं गयीं। मंच-स्थल के इर्द-गिर्द पुलिस का पहरा अनुमंडलाधिकारी के नेतृत्व में लगा दिया गया।

जोरन एक मजदूर था, जो राजमिस्त्री का भी काम करता था। उसका अपना एक घर और परिवार भी था, देश के उन करोड़ों मजदूरों की तरह ही जिनके पास होती है एक झोपड़ी, एक पत्नी, टूटे-फूटे बत्र्तन, धूल-धूसरित जमीन, कहीं-कहीं नीम, पीपल आदि के पौधे, न स्कूल और न पीने का पानी… अभाव का साम्राज्य, रोते-बिलखते-घूमते-खेलते मैले-कुचैले नग्न बच्चे। जोरन को मात्र एक ही लड़का था, जिसकी उम्र चार वर्षों की थी। वह अपने तीन सदस्यीय परिवार का भरण-पोषण किसी तरह कर रहा था। परिवार नियोजन का अर्थ शायद वह समझ गया था, इसीलिए गरीबी की सूखी दूब भी उसके जीवन की हरियाली के लिए काफी थी।

उसका बच्चा उससे काफी लगाव रखता था। आखिर रखता क्यों नहीं? जब उसकी पत्नी चैका-बत्र्तन कर रही होती थी, तो जोरन ही तो उसे कभी कंधे पर बिठाकर… तो कभी घोड़ा बनकर पीठ पर बिठाकर घुमाता फिरता था। जब वह कहीं काम करने निकल जाता, तो वहाँ भी अपनी माँ से जिद्द कर बच्चा अपने बापू के पास पहुँच ही जाता था। और माँ भी दोपहर का खाना लेकर जाती ही थी, तो वह भी साथ हो लेता था। जोरन भी कहाँ रह पाता था अपने लाड़ले के बिना। काम कहीं भी करता, मन तो उसका अपने भविष्य पर ही लगा रहता था। जब भी वह काम से लौटता, पहले मुन्ना को ही गोद में लेकर खेलाने लगता। पत्नी बोलती- ‘हाथ-गोड़ भी धोएंगे या बबुआ को ही खेलाते रहेंगे?’ वह झट बोल उठता- ‘का कहती हो?… बबुआ बिना तो मन बेचैन ही रहता है दिनभर। बस इसी फिराक में रहता हूँ कि कब काम से छूटूँ कि बबुआ को कलेजे से लगा लूँ?’

उस दिन मंच-निर्माण के समय भी उसका मुन्ना उसके पास पहुँच गया था। क्यों नहीं पहुँचता? कहीं दूर थोड़े ही जाना था। बस, घर के पास में ही तो मंच बन रहा था। अपनी माँ के बिना भी अकेले ही वह उसके पास ठुमकते-ठुमकते आ गया था। पुलिस की जमघट में जोरन बच्चे को पास रखना नहीं चाहता था। लेकिन करता क्या? मुन्ना आ गया था, तो जाता ही नहीं। जिद्द करने लगता… रोने लगता। और रोने लगता तो परेशानी हो जाती… फिर उसे चुप कराओ… पुचकारो… मनाओ… न जाने क्या-क्या? तब तक मंच-निर्माण में देरे होने लगती तो एक और आफत। उसने अपने बच्चे को उठाया और हृदय से लगाया ही था कि गजाधर की कर्कश आवाज ने उसके कानों को चीरते हुए हृदय को विदीर्ण कर दिया- ‘जोरना! …अरे जोरना! …मंच दो घंटे में बनकर तैयार नहीं हुआ… तो समझ लो… पीठ की चमड़ी उधेड़ कर रख दूँगा। कलक्टर साहेब शाम तक मुआयना करने वाले हैं। …बच्चा खेलाता है… काम करने आता है तो… सारा खानदान उठा लाता है।’

उसकी आवाज से काँप गया था जोरना। उसके हाथ जोड़कर कहा था- ‘ना मालिक, देर नाहीं होगी। जरा बचवा आ गया, इसीलिए गोदिया में उठा लिया। बहुत हमको पियार करता है ना मालिक… बस अभी इसको सुला देते हैं।’

‘ठीक है… ठीक है… बहस मत करो… काम करो। तुमलोग इतने कामचोर हो कि कभी सुत्र्ती खाने में… तो कभी बच्चा खेलाने में घंटों बिता देते हो। शाम को पैसा ऐसे मांगेगा, जैसे बाप कमाकर रख गया है। इधर मेरी जान निकल रही है और तुम बेहुदा बच्चा के साथ…। जल्दी सुलाओ, नहीं तो उठाकर फेंक दूंगा… हरामी की औलाद को।’ जोरन सब कुछ सह सकता था, मगर हरामी शब्द सुनते ही उसका चेहरा लाल हो गया। उसने सोचा- गजाधर के मुँह पर जाकर जोर का तमाचा मारूं। हरामी तो खुद है और मेरे बच्चा को हरामी बोलता है। मैं गरीब हूँ तो क्या हुआ… अपना जमीर तो नहीं न बेच दिया हूँ। मगर संभावित झंझट की कल्पना कर चुप हो जाना ही बेहतर समझा। अपने बच्चे को उसने किसी तरह पुचकार कर मंच के बीच में ही दीवार की छांव में सुला दिया। फिर वह जुट गया मंच बनाने में। मंच बनाते-बनाते संध्या हो आई। धीरे-धीरे तम का साया धरती के अलसाए जिस्म पर पसरने लगा। अँधेरा गहराने लगा था। आँखें सामने की वस्तुएँ देखने में अक्षम होने लगीं थीं। अँधेरे में अपना साया तक साथ छोड़ देता है।’

अर्जुन जोरन की आपबीती को बताये जा रहा था और लेखक प्रसाद उसे अपनी लेखनी से कोरे कागज पर गोदने लगा था। उसने आगे कहा…

‘जहाँ मंच बन रहा था, वहाँ रोशनी की व्यवस्था नहीं की गई थी। शाम तक मंच का निर्माण हो जाना था। लेकिन निर्माण-कार्य में देर हो रही थी। इधर गजाधर तो बेचैन हो गया था और प्रकाश की व्यवस्था की जगह जोरन और मजदूरों को कोसने लगा था… अनाप-सनाप बकने लगा था।

जोरन तो अंधकार में ही भयाक्रांत होकर कार्य किये जा रहा था। उसे कहाँ हिम्मत थी कि वह गजाधर से प्रकाश के लिए बोले। इधर किसी ने कलक्टर साहब के आने की सूचना दी। अब तो गजाधर और भी आपे से बाहर हो गया। गनीमत यह थी कि नेताजी का भाषण अब आठ की जगह नौ बजे होना था। लेकिन समय तो अपने हिसाब से भागा जा रहा था। नौ बजने में भी कितनी देर थी? बीतते समय के साथ गजाधर का पारा भी सातवें आसमान पर चढ़ने लगा था।

अभाव से ग्रस्त मानव सारी प्रताड़नाओं को झेलने का आदी हो जाता है। उसे गर्मी का ताप, सर्दी की ठंढ और बारिश की बौछार की परवाह नहीं होती, क्योंकि जठराग्नि का प्रकोप इतना प्रबल होता है कि और कुछ सोचने की फुर्सत ही नहीं होती। उस दिन जोरन भी इसी हाल में था। किसी तरह मंच बनकर तैयार हो ही गया। मंच तैयार होने पर ही चैन की साँस ले सका जोरन। उसने मन-ही-मन कहा- जान बची लाखो पाये। गजाधर जैसे कुत्ते से तो पिण्ड छूटा। अब ऐसे बेहुदों के यहाँ काम करने नहीं जाऊँगा, भले ही भूखों मरना पड़े। तब तक रोशनी भी जगमगा उठी। चतुर्दिक दिन के उजाले जैसा वातावरण हो गया। अंधकार, जो क्षण भर पूर्व अपना साम्राज्य फैलाकर सम्राट बना था, अब दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा था। लोगों की आवाजाही शुरू हो गई थी। भीड़ जुटने लगी थी। लाउडस्पीकर के शोर ने वातावरण की नीरवता को कर्कश कोलाहल में बदल दिया था। लोगों की उत्सुकता हृदय से निकलकर कंठ तक आकर जिन्दाबाद के नारों में प्रस्फुटित होने लगी थी।

हाथ जोड़े लोगों का अभिवादन करते हुए मंच पर नेताजी का आगमन हुआ और लोगों ने तालियों की गड़गड़ाहट से स्वागत किया। भाषण प्रारंभ हो गया।

मंच बनाने के बाद दिन भर का थका-मांदा जोरन अपने घर चला गया। उसे भाषण तक प्रतीक्षा करने की शक्ति नहीं रह गई थी। वह घर आकर सामान पटककर खाट पर ऐसे पड़ गया, जैसे बहुत बड़ा पहाड़ उसके सर से उतर गया हो। उसने अपनी पत्नी को आवाज दी। पत्नी आवाज सुनते ही लोटे में पानी लिए आयी। पति के पैर धोकर आँचल से पोछते हुए पूछा- ‘बचवा सो गया है का? लऊक नहीं रहा है?’

जोरन के शरीर में बिजली का करंट छू गया। सारी थकावट दूर हो गयी। उसके तो होश ही उड़ गए। वह घर से बेतहाशा दौड़ा-दौड़ा मंच की ओर भागने लगा- ‘मेरे बचवा को निकालने दो सरकार…।’ कहते हुए जोरन रोता-चिल्लाता मंच की ओर लपकने लगा। बीच में ही पुलिस ने उसे रोक दिया। लाख गिड़गिड़ाने के बाद भी जब पुलिस ने उसे नहीं जाने दिया, तो वह उबल उठा। पुलिस को धक्का देकर चिल्लाते हुए आगे बढ़ने लगा- ‘हमरे बचवा को… निकालने दो… मैं आपलोगों          के… पाँव पड़ता हूँ…।’ रोते-कलपते जोरन की जोर-आजमाईशी भी पुलिस के साथ होने लगी। वह चाहता था, एक बार पहाड़ को भी अपनी टक्कर से चूर-चूर कर मंच तक पहुँच जाना और मंच में बंद हो गए मुन्ना को बाहर निकाल लाना। परंतु, पुलिस की जमघट से जोरन जूझ ही रहा था कि गजाधर की कर्कश आवाज गूंज उठी- ‘मारो स्साले को। पागल कहीं का। मंत्रीजी की सभा को डिस्टर्ब करता है! लगता है, विपक्ष वालों ने इसे पैसा देकर भेजा है। …मारो …मारो स्साले को।’

इतना कहना था कि पुलिस के डंडों का प्रहार दनादन उसके सर पर होने लगा। खून से लहूलुहान चित्त पड़े जोरन की पुतलियाँ उलट गयीं। उसके हाथ मंच की ओर तब भी बढ़े थे, मानो अपने लाड़ले को बुला रहा था। नेता के भाषण और जनता की तालियों की गड़गड़ाहट में गुम हो गई थी, जोरन की चीख-चित्कार। भाषण के दौरान ही पुलिस की गाड़ी आई और जोरन की लाश उठाकर ठिकाने लगाने चली गयी।

बेसहारा जोरन की पत्नी अपने पति और बच्चों की खोज में पागल हो आज भी बच्चे के खिलौने लिए मंच के पास दिन-रात पड़ी रहती है। वह कभी हँसती है… कभी रोती है… कभी मंच पर चढ़कर भाषण देती है… ठीक नेताओं की तरह हाथ भांज-भांज कर। लेकिन मंच के पास से होकर गुजरने वाला कोई भी उसकी बात नहीं सुनता। किसमें कुब्बत है मंच को तोड़कर उसके बेटे की लाश निकालने की और मंत्री तथा गजाधर के कान पकड़कर मंच में दफन मासूमियत पर दहशत के गुजरे हुए दौर को आईना दिखाने की?’


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हृषीकेश पाठक द्वारा भी