स्वयंसिद्धा

स्वयंसिद्धा

जनवादी, समाजवादी, क्रांतिकारी कार्यकर्ता, तीन स्थानीय विद्यालयों के संस्थापक, महिला एवं बालोद्धार गैरसरकारी संस्था के अध्यक्ष – यानी कुल मिलाकर एक बहुआयामी सामाजिक व्यक्तित्व (नाम- सम्मान सिंह) सम्मान सिंह के घनिष्ठ मित्र ज्ञानेश्वर द्विवेदी, जो शहर के प्रख्यात डिग्री कॉलेज में समाजशास्त्र के विभागाध्यक्ष थे और खासे जाने-माने प्रतिष्ठित साहित्यकार।

सोशल एक्टिविस्ट संयोगिता आज एक बार फिर सुलग उठी। उसकी परिचिता, नवनियुक्त प्रवक्ता नन्दिनी तथाकथित जनवादी, लोकप्रिय व्यक्तित्व सम्मान सिंह और उनके हमराज़,  हमनशीं ज्ञानेश्वर द्विवेदी की हवस का शिकार बन गहरे अवसाद में डूबी थी। प्रतिरोध करने पर नौकरी जाने से अधिक, सामाजिक छवि पर हमेशा के लिए आँच आने का भय उसका दम घोट रहा था। अपने रुतबे का इस्तेमाल करते हुए, मि. सिंह ने नन्दिनी को आवश्यक कार्य के छद्म जाल में फँसाकर जिस तरह छिन्न-भिन्न किया था, वह उस घटना को दिलोदिमाग से मिटा देने के लिए मौत को गले लगाना चाहती थी। इस योजना के पीछे मास्टर माइंड था – ज्ञानेश्वर द्विवेदी। बमुश्किल संयोगिता ने नन्दिनी को सम्भाला। इससे पहले एक बार संघर्षरत युवती को लेखन के क्षेत्र में पाँव जमाने को आतुर देख इन दोनों शातिरों ने मिलकर उसे कामक्रीड़ा का खिलौना बनाया था। इस ‘दुर्घटना’ के बाद वह अनुभवहीन युवती अपने असली लक्ष्य से भटककर इन दो जनवादी महानुभावों द्वारा देहभोग के दलदल में ऐसी घँसती गई कि चाह कर भी कभी उबर न पाई।

सम्मान सिंह और ज्ञानेश्वर द्विवेदी के कथित जनवादी परोपकारी रूप के पीछे छिपा कामलोलुप भेड़िया शिकार दबोचने के लिए हर पल मुँह बाए तैयार रहता था। उनका यह असली रूप उनके ख़ासमख़ास लोगों तक ही उजागर था, वरना शेष पर वे अपनी ऊँची छवि की धाक जमाए आदर और सराहना के पात्र बने रहते थे। तीन वर्ष पूर्व केरल के गरीब घर की किशोरी कुंजमणि दिल्ली के नामी अस्पताल में नौकरी पाने के लिए सम्मान सिंह के पशु की ऐसी बलि चढ़ी कि तब से अब तक बलि चढ़ते-चढ़ते बेचारी चरमरा गई है, लेकिन वह दानव आज भी अपने दोस्त द्विवेदी के साथ उस निरीह का शोषण करने से बाज नहीं आता। ये तो मात्र कुछ उजागर किस्सों का ही हवाला है, दबे छिपे किस्सों की तो शायद गणना ही न की जा सके। जब 2005 में वन्दना नाम की कॉलेज छात्रा ने फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी, तो सम्मान सिंह और ज्ञानेश्वर द्विवेदी का नाम इस हादसे को लेकर बहुत उछला, किंतु कहा जाता है कि बाद में पुलिस ने इनसे बहुत मोटी रकम डकार कर मामला ऐसा रफ़ा-दफ़ा किया कि आज तक उसकी मौत का सही कारण पता नहीं चल पाया। प्रखर और संवेदनशील संयोगिता किसी के भी साथ होने वाले ऐसे शोषण और अन्याय का विस्तृत ब्यौरा अपने दिलोदिमाग में ख़ामोशी से दर्ज़ करती जा रही थी और उस सही वक्त की तलाश में थी कि कब इन अन्यायियों को निरीह लोगों के शोषण का दण्ड दे। उसका सोचना था कि सम्मान सिंह और ज्ञानेश्वर द्विवेदी का पाप-कुम्भ जब गले तक भर जाएगा तो वह उसे फोड़कर चकनाचूर कर देने का नेक काम करते देर नहीं करेगी और उसे व उसके उतने ही नीच साथी ज्ञानेश्वर द्विवेदी को ऐसा सबक सिखायेगी कि वे दोनों औरत की रुह से भी काँपेंगे। संयोगिता ने सोचा कि ऐसी शातिर छलिया जोड़ी को छल से ही दबोचा जाना न्यायोचित है। इन दोनों को वह पलायन का कोई मौका नहीं देना चाहती थी।

दिन भर के काम से थकी, संयोगिता एक कप काॅफी पीने के लिए कनाॅटप्लेस के प्रसिद्ध काॅफीहाउस में एक कोने की टेबल पर शांत-सी जगह देखकर बैठ गई। काॅफी की प्रतीक्षा करती बैठी थी कि तभी सम्मान सिंह अपने दल-बल सहित आकर, कुछ दूरी पर कुर्सियों पर जम गए। अब तक संयोगिता की काॅफी आ गई थी। पलक झपकते ही सम्मान सिंह की टेबल पर भी काॅफी और स्नैक्स आ गए। उन सबकी काॅफी और स्नैक्स पर ‘सेक्स’ की दबे स्वर में चर्चा होने लगी। उनलोगों का दबा स्वर भी इतना ऊँचा था कि संयोगिता तक उनकी बातें स्पष्ट पहुँच रहीं थीं। वह जंगली झुंड औपचारिकतावश बीच-बीच में राजनीति और सामाजिक मुद्दों को भी घसीट रहा था, पर घूम फिर कर अपने चहेते विषय पर उतर आता था। कभी कोड मिश्रित भाषा में तो कभी बकबक की मदहोशी में खुल्लमखुल्ला वे सब चटखारे ले लेकर नारी चर्चा करने में लगे पड़े थे। संयोगिता उनकी गिरी हुई सोच, उनकी बुद्धि की कंगाली से छटपटा रही थी। स्त्री और पुरुष के सहज पाक रिश्ते को सम्मान सिंह और ज्ञानेश्वर द्विवेदी अपने चाटुकारों के साथ मिलकर जिस तरह कीचड़ से मथ रहे थे, उसे सुनकर संयोगिता आगबबूला हो रही थी। उसे लगा कि ये मनुष्य हैं या पशु! क्या ईश्वर मनुष्य के रूप में ऐसे निकृष्ट जीव भी बना सकता है? उसे वे पशु जाति में भी निपट ‘जंगली जानवर’ नज़र आए, जिनके समाज में न रिश्ते होते हैं, न बंधन, न सोच, न विवेक, बस सारे कार्य देह के स्तर पर होते हैं। जब वे जठराग्नि और कामाग्नि से आंदोलित होते हैं तो सीधे सामने वाले को अपना निवाला बनाते हैं। संयोगिता को लगा ऐसे ही कुछ पशु काॅफी हाउस में धरना दिए बैठे हैं जो नग्न वार्तालाप से अपनी चिरज्वलन्त और अतृप्त कामक्षुधा को बहला रहे हैं। संयोगिता ने अपनी काॅफी कड़वाहट के साथ गटकी और वहाँ से तीर की तरह उठ सीधे बाहर आ गई। सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में संयोगिता की पहचान अभी धीरे-धीरे बन रही थी। निश्चित रूप से उस क्षेत्र की वह आने वाले समय की एक अद्भुत साहसी सैनिक थी। वह अक्सर यह सोचकर हैरान होती कि समाज का चिन्तनशील, संवेदनशील वर्ग ऐसे नकली जनवादी लोगों की कुत्सित गतिविधियों से वाकिफ़ होकर भी, उनके खिलाफ और पीड़ितों के पक्ष में कोई दमदार कदम क्यों नहीं उठाता? क्यों ऐसे वाकयों को नज़रअंदाज़ करके बैठा रहता है? समाज के लोग सम्मान सिंह और ज्ञानेश्वर द्विवेदी जैसे गुनहगारों का क्या सोचकर लिहाज करते चले जाते हैं और वे बेशर्म एक के बाद एक गुनाहों का ढेर लगाते जाते हैं। संयोगिता का आक्रोश मात्र खेद या गुनहगारों की आलोचना तक ही सिमट कर नहीं रह जाना चाहता था, अपितु वह पूरे दमखम से उन दानवों को ऐसी धूल चटा देना चाहती थी कि भविष्य में वे जनवादी मुलम्मे को चढ़ाकर, ऐय्याशी करना भूल जाए।

‘क्या मैं अंदर जा सकती हूँ’- संयोगिता ने सम्मान सिंह के विशाल कार्यालय परिसर में बने पंचसितारा शैली में सजे-धजे ऑफ़िस के विजिटर रूम में बड़ी कूटनीति के साथ धड़ल्ले से प्रवेश किया। विजिटर रूम में अटैच्ड, अपने ग्लेज्ड कमरे में सम्मान सिंह ने अतिथि कक्ष में आने-जाने वाले अतिथियों पर, खास तौर से महिला अतिथियों पर सरसरी नजर डालते रहने के लिए खास प्रबंध किया हुआ था। यदि कोई उन्हें भा गई तो क्रम भंग करके वे इंटरकाॅम से सेक्रेटरी को आदेश देकर, अपने कमरे में पहले बुला कर, उस युवती पर जैसे विशिष्ट अनुकम्पा करते। वह अबोध युवती कृतज्ञता से भरी, सिर झुकाए उनके सामने ऐसे आती जैसे किसी देवता के मंदिर में आई हो। संयोगिता के साथ भी उन्होंने यही किया। मुश्किल से वह पाँच मिनट ही विजटर रूम में बैठी थी कि तभी अंदर से, उसके लिए बुलावा आ गया। छरहरी देहयष्टि वाली संयोगिता आत्मविश्वास के ऊपर भोलेपन का मुखौटा चढ़ाए, सम्मान सिंह के भव्य कक्ष में पहुँची। सम्मान सिंह उसे अपने प्रेम छलकाते नेत्रों से निगलते हुए, औपचारिक शालीनता का छींटा देते हुए बोले- 

‘आइए, आइए, बैठिए, आपका शुभ नाम?’

‘जी, संयोगिता’

‘कहिए मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?’

‘सर, आप ऐसा कहकर मुझे शर्मिन्दा मत कीजिए प्लीज। मैं तो बस एक छोटी-सी मदद की आशा से आपके पास आई हूँ।’

‘अरे, नहीं, नहीं छोटी क्यों भरपूर मदद लीजिए, हम तो हैं ही समाज सेवा के लिए। वैसे आप करती क्या है – समाज-सेविका, शिक्षिका, लेखिका या… (मन-ही-मन में – मृग मरीचिका)’ – सम्मान सिंह चाटुकार की भाँति बोले।

‘जी मैं स्वैच्छिक कार्यकर्ता हूँ’ – संयोगिता ने लजाने का नाटक करते हुए कहा – ‘हाल ही में जब मैं अनाथाश्रम में, बच्चों के मनोवैज्ञानिक अध्ययन के लिए गई तो, मैंने उनका जीवन रोजमर्रा की छोटी-छोटी सुविधाओं से रहित पाया। उस तंग हालत में उन्हें यूँ जीते देख मेरा दिल भर आया। मैंने आपकी अनेक बार अनेक लोगों से बड़ी प्रशंसा सुनी थी कि आप जरूरतमंदों के मसीहा हैं, सो मैं उन बच्चों के लिए आशा सँजोए आप के पास आई हूँ कि यदि आप कुछ आर्थिक सहायता कर दें तो वे बच्चे बेहतर जीवन जी सकते हैं।’

संयोगिता के मीठे स्वर से इस तरह अपनी प्रशंसा सुनकर सम्मान सिंह बड़े गदगद हुए। ऐसी संस्थाओं को लाख दो लाख रुपये देना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। उनका मन तो बल्लियों उछल रहा था कि इस दान-राशि से इस ‘कोमलांगी’ को उपकृत करके, आने वाले समय में इसको शिकार बनाने का मौका जरूर हाथ लगेगा। उनकी मन ही मन अपनी अलग ही प्लानिंग चल रही थी। सम्मान महाशय ने बिना किसी देरी के इंटरकाॅम पर अपनी सेक्रेटरी को अंदर आने का आदेश दिया। सेक्रेटरी के अंदर आने पर वे संयोगिता से बोले- ‘क्यों मैडम, पचास हजार, अस्सी हजार या एक लाख – कितने का चेक दूँ।’

‘सर, जो आप आसानी से दे सके; पचास से भी काम चल जायेगा, मैं सोचती हूँ’ – संयोगिता संकोच से बोली।

‘एक लाख से कम भी क्या देना’, सम्मान सिंह ने संयोगिता को अपनी दानवीरता में लपेटने की मंशा से सेक्रेटरी को एक लाख का चेक देने का आदेश दिया और दो कप काॅफी भेजने के लिए भी कहा। पैनी बुद्धिवाली संयोगिता मन ही मन सम्मान सिंह पर मुस्कुराती अपने अगले पैतरे के लिए तैयार हो चुकी थी। काॅफी के कारण वह उस हीन व्यक्ति के साथ अब और अधिक देर वहाँ बैठकर अपना समय नहीं गंवाना चाहती थी, सो उसने ज्यों ही उठना चाहा, सम्मान सिंह लगभग उसे जैसे पकड़कर कर बैठाने को आतुर-सा बोला- ‘अरे, आप कहाँ चली मैडम, सेक्रेटरी चेक यहीं लाकर देगी। काॅफी भी आती होगी।’

‘नहीं सर, आपके और भी मिलने वाले बाहर इंतजार करते बैठे हैं, काॅफी फिर कभी सही, आपने इतनी बड़ी राशि दी, इतना ही बहुत है और चेक के लिए मैं विजिटर रूम में प्रतीक्षा कर लूँगी।’

‘अरे,रे,रे,रे ये आप क्या कह रही हैं, विजिटर रूम में क्यों, आप यहीं प्रतीक्षा करेंगी। बस चेक आता ही होगा और काॅफी भी। देखिए जरूरतमंदों की तन, मन, धन से मदद करना हमारा फर्ज है। भविष्य में भी कभी भी किसी तरह की मदद की आवश्यकता हो तो आप बेझिझक मेरे पास आइए।’

इतने में काॅफी आ गई। न चाहते हुए भी संयोगिता को रुकना पड़ा। काॅफी पीते हुए सम्मान सिंह संयोगिता के बारे में व्यक्तिगत जानकारी हासिल करता रहा। संयोगिता ने भी जानबूझकर सम्मान सिंह को ऐसी जानकारी दी कि उसे वह एक निरीह, अकेली और अपने कार्यक्षेत्र में आगे बढ़ने की इच्छुक नजर आई। कुछ ही क्षणों में चेक भी आ गया। सम्मान सिंह ने अपने हस्ताक्षर करके बड़े ही विनम्र अंदाज में संयोगिता को चेक थमाया। संयोगिता झटपट उठ खड़ी हुई। उसे जाने के लिए उतावला हुआ देख, सम्मान सिंह हड़बड़ाया-सा बोला- ‘हाँ, अपना फोन नम्बर और पता सेक्रेटरी को नोट करा दीजिएगा और संपर्क में रहिएगा। और यह भी याद रखिएगा कि आपका और मेरा कार्यक्षेत्र लगभग एक-सा ही है। हम एक-दूसरों की सेवा करते हुए बहुत आगे निकल सकते हैं।’ 

‘जी, जी, क्यों नहीं, आपने सही फरमाया। मैं जल्द ही आपसे मिलूँगी। अच्छा, सर बहुत-बहुत धन्यवाद’… और वह नमस्कार करती वहाँ से तुरंत निकल गई।

बाहर सम्मान सिंह की वफादारी से ड्यूटी बजाने वाली सेक्रेटरी ने तेजी से जाती संयोगिता को ‘एक्सक्यूज मी’ कह कर रोका और उसका फोन नम्बर और  पता डायरी में नोट किया तथा रजिस्टर में चेक प्राप्ति के हस्ताक्षर भी लिए। संयोगिता तो अपना मोबाइल नंबर देने को तैयार ही थी जिससे आगे की योजना कामयाब हो सके।

दो दिन बाद संयोगिता के मोबाइल पर एक अपरिचित नम्बर से काॅल आई। संयोगिता ने ‘हैलो’ कहा तो उधर से पुरुष स्वर लहराया- ‘संयोगिता जी, मैं सम्मान सिंह बोल रहा हूँ, कैसी हैं आप?’

‘जी मैं ठीक हूँ’ – उसे मन में कोसती संयोगिता ने छोटा-सा जवाब थमाया।

‘यह मेरा व्यक्तिगत मोबाइल नम्बर है, आप सेव कर लीजिएगा। ऐसा है कि शनिवार को मैंने शहर के समाजसेवी कार्यकर्ताओं व कुछ परिचित मित्रों को रात्रि भोज पर बुलाया है, आप भी उसमें सादर निमंत्रित हैं।’ सम्मान सिंह रस घोलते से बोले।

‘सर, मैं इस पार्टी में क्या करूँगी। मैं किसी को जानती भी नहीं’ – संयोगिता ने नाटकीयता से कहा।

‘अरे संयोगिता जी, इसलिए तो आपका आना और भी जरूरी है। इस पार्टी में सबसे आपका परिचय हो जाएगा। देखिए आपको आना ही है।’

‘जी, अच्छा आ जाऊँगी’ – अपनी अगली चाल के लिए तैयार संयोगिता ने सम्मान सिंह को आश्वस्त करते हुए कहा।

संयोगिता की योजना कामयाबी की ओर बढ़ रही थी। वह अदम्य जोश से भरी थी, किंतु पूरे होश के साथ…। नारी उद्धार के नाम पर नारी का जंगली जानवर की तरह शोषण करने वाले तथाकथित जनवादी, उन दो प्रतिष्ठित मर्दों का घिनौना रूप वह शीघ्र ही सनके सामने लाना चाहती थी। आत्मा और देह के स्तर पर अवसाद और वितृष्णा का बोझ ढोती नारियों की ओर से संयोगिता उन दोनों के मुँह पर हमेशा के लिए एक ऐसा करारा तमाचा जड़ने को कटिबद्ध थी, जो हमेशा उन्हें काली करतूतों की याद दिला कर, सम्मान सिंह और ज्ञानेश्वर द्विवेदी को इतना भयविद्ध कर दे कि भविष्य में, वे नारियों का शोषण करना भूल जाएँ। साथ ही प्रतिरोध न कर सकने वाली स्त्रियाँ कम से कम आत्मरक्षा की तो हिम्मत जुटा पाए।

इन चार दिनों में संयोगिता ने बेहत समझदारी और चतुरता से सम्मान सिंह और ज्ञानेश्वर द्विवेदी के ‘भांडाफोड़ अभियान’ की पूरी तैयारी कर ली थी। इंतजार की घड़ी बीती और शनिवार का दिन भी आ पहुँचा। 8 बजे तक संयोगिता सम्मान सिंह के आलीशान बंगले के खूबसूरत लाॅन में आयोजित पार्टी में पहुँच गई। संयोगिता ने देखा की महाशय ने लंबी चैड़ी पार्टी न रखकर सिर्फ 20-25 लोगों की छोटी-सी डिनर पार्टी रखी थी। अब तो वह अच्छी तरह समझ गई थी कि यह डिनर मात्र उसे चंगुल में फंसाने का एक बहाना थी। सो वह भी तैयार थी अपने वार के लिए। आज उसे देखना था कि कौन बाजी मारता है! पार्टी बड़े ढंग से शुरू और खत्म हुई। सम्मान सिंह ने सबसे संयोगिता का परिचय करवाया।

दस बजे तक वह भी सबसे औपचारिक बातें करती अपने को व्यस्त रखती वहाँ बनी रही। जैसे-जैसे समय आगे खिसकने लगा उसने अपने घर वापिस जाने की आतुरता दिखाई, तो सम्मान सिंह और साथ-साथ ज्ञानेश्वर द्विवेदी भी निहायत ही जहजीबदार लहजे में उससे कुछ देर और रुकने का निवेदन करने लगे। उसने एक दो बार तो अपनी विवशता जताई, लेकिन बाद में उन पर एहसान करती रुकने को तैयार हो गई। सम्मान सिंह ने उसे यह कहकर और निश्चित किया कि उनका ड्राइवर उसे घर तक छोड़ कर आएगा। संयोगिता उनके एक-एक दाँव-पेंच को भाँपती हुई, आज्ञाकारी की तरह सिर हिलाती उनकी हाँ में हाँ मिलाती रही। कुछ ही देर में एक-एक करके सारे मेहमान चले गए। बस वे दो महान जनवादी आत्माएँ और संयोगिता – वहाँ रह गए। सम्मान सिंह ने अपने खानसामा से तीन कप काॅफी लाने को कहा। काॅफी किसे पीनी थी। काॅफी आने पर खानसामा को छुट्टी दे दी गई। यह तो आगे की गतिविधियों की भूमिका थी, संयोगिता अच्छी तरह जानती थी। सम्मन सिंह सोफे में धंसा समाज-सेवा की परियोजना की दिखावटी चर्चा करने लगा और ज्ञानेश्वर द्विवेदी पास बैठा एक पत्रिका के पन्ने पलटता रहा। धीरे-धीरे आगे सरकने लगे। संयोगिता ने लाॅन से अंदर आते हुए अपने नियत सहायकों को फोन कर दिए थे कि वे दलबल सहित बंगले के आस-पास तैयार रहें। इतने में ज्ञानेश्वर उठकर अंदर गया और चुपचाप शराब के दो पेग चढ़ाकर आया, क्योंकि जब वह ड्राइंगरूम में वापिस आया तो सोफे पर बैठते समय शराब की तीखी गंध की लहर संयोगिता तक पहुँच गई थी। इसके बाद सम्मान महाशय अंदर गए और सोमरस पान करके आए। पर वे साथ में मुँह में इलायची चबाते आए। दोनों को बद्दुआ देती संयोगिता मन ही मन कह रही थी कि देखते हैं कि कौन किसको मात देता है। अभी पता चल जाएगा। दोनों फिर से बेसिर पैर की समाजसेवा की बातें करने लगे। इतने में दोनों पर शराब का सुरूर चढ़ने लगा था। सम्मान सिंह संयोगिता से मुखातिब हो बोला- ‘संयोगिता जी, क्या मैं आपको ‘तुम’ कह सकता हूँ?’

‘क्यों नहीं सर, आप इतने बड़े हैं…’ संयोगिता ने उसे मूर्ख बनाते हुए कहा।

यह संयोगिता के निकट आने की छूट का पहला संकेत था। 

सम्मान सिंह और ज्ञानेश्वर द्विवेदी सोमरस के मद से बहके-बहके, कतरा-कतरा खुलते जा रहे थे। उनके अंदर विलोड़ित वासना की तरंगों ने अब उछल-उछल कर पछाड़ खानी शुरू कर दी थी। संयोगिता सतर्क थी। इस शह और मात की जंग में एकाएक उभरी स्थिति में कहीं-कहीं वह भी छोटी-मोटी मात खाने को मानसिक रूप से तैयार थी। किंतु अंततः वह उन दोनों को प्रतिशोध की आग से भरे अपने वार के आगे पूरी तरह पराजित देखना चाहती थी। तभी सम्मान सिंह होंठों पर एक कुटिल मुस्कान और आँखों में काम के शोले लिए संयोगिता के पास आया और पलक झपकते ही उसकी कमर में हाथ डालकर, उसे अपनी बाँहों में भर लिया। संयोगिता कसमसाई और अपने को उसकी जकड़ से छुड़ाती बोली- ‘अरे, आप ये क्या कर रहे हैं… छोड़िए मुझे…’

‘कुछ नहीं थोड़ा तुम्हें दुलार रहा हूँ, तुम हो ही इतनी प्यारी…’

‘सर, प्लीज, दूर हटिए मुझसे… आप तो मुझसे सोशल प्रोजेक्ट डिस्कस कर रहे थे। ये आप को एकाएक क्या हो गया? छोड़िए मुझे… मुझे घर जाना है।’

‘चली जाना, चली जाना, पर जरा हमें कृतार्थ तो कर दो डियर…’ – सम्मान सिंह, ज्ञानेश्वर की तरफ अर्थपूर्ण नजरों से देखता और भद्देपन से ठहाका लगाता बोला। संयोगिता की कलाई पर कामभाव से अभिभूत सम्मान सिंह की हाथ-तोड़ पकड़ ने संयोगिता के काँच के नाजुक कड़े को इतनी जोर से चटकाया कि वह तड़ाक से दो टुकड़ों में खिल गया और उसने अपने टूटे नुकीले कोनों से उसकी कलाई पर एक अर्द्धगोलाकार रक्तरंजित लकीर खींच दी। संयोगिता ने दर्द को जब्त करते हुए पूरा जोर लगाकर, सम्मान सिंह की पकड़ से ज्योंहि अपना हाथ छुड़ाया तो उस वहशी ने उसकी बाँह लगभग भींचते हुए पकड़ ली। इस पकड़-धकड़ में इस बार संयोगिता के ब्लाउज की बाँह पर लगी लेस उधड़ कर लटक गई।

‘चलो डार्लिंग, बैडरूम में चलो, अच्छे बच्चे जिद नहीं करते, बड़ों का कहना मानते हैं… ऐ, ज्ञान किधर गया तू…’

तभी एकाएक उठकर अंदर गया ज्ञानेश्वर बैडरूम से बोला- ‘बड़े भाई, मैं यहाँ शुभ काम की शुरुआत के लिए तैयार हूँ आप ‘उर्वशी’ को बस अंदर ले आइए।’

सम्मान सिंह संयोगिता के साथ लपट-झपट करता बैडरूम में घुसा तो संयोगिता ने ऊपर से नीचे तक निर्वस्त्र खड़े ज्ञानेश्वर को देख कर लज्जा से मुँह मोड़ लिया। उत्तेजना से बौराये सम्मान सिंह ने भी खींच-खींचकर अपना चीरहरण शुरू कर दिया। इससे पहले की उन दोनों में से कोई संयोगिता पर झपट्टा मारता और उसका चीरहरण शुरू करता, प्रत्युत्पन्नमति संयोगिता ‘न्याय अभियान’ के प्रति सचेत होती, स्वयं को अपने ‘मिशन’ पर साधती, बहाने से वाॅशरूम में चली गई और वहाँ से अब तक बंगले के बाहर पहुँच चुके प्रतिनिधि अखबारों और टी.वी. चैनलों के रिपोर्टर्स को मोबाइल से तुरंत ड्राॅइंगरूम और वहाँ से बिना किसी देरी के बैडरूम में धावा बोलने का संकेत दिया। बाहर तैयार चार-पाँच विभिन्न एन.जी.ओ. के कार्यकर्ताओं सहित रिपोर्टर्स की भीड़ टी.वी. कैमरों सहित धड़धड़ाती हुई अंदर आ गई। उन सबके आने का शोर सुनते ही वाॅशरूम से संयोगिता भी शेरनी बनी उन सबके बीच तमाचे जड़ दिए और वहाँ उपस्थिति भीड़ को उसने, अपने साथ हुई जोर जबरदस्ती और उन दोनों की बदनीयती का प्रमाण देते हुए अपनी कटी हुई कलाई और ब्लाउज की बाँह की उधड़ी लेस दिखाई। वह रोष से भरी भीड़ से मुखातिब होकर बोली कि अगर वह अपनी सुरक्षा के प्रति सतर्क न होती और हिम्मत से काम न लेती तो, आज उसके साथ भी वैसी ही अनहोनी घटती, जैसी अन्य कई औरतों के साथ घट चुकी थी। दोनों उस भीड़ को देखकर वैसे ही हतबुद्धि से खड़े थे, उस पर संयोगिता के तमाचों से और भी सकपका गए। दोनों मर्दों की ‘बेचारी’ सूरत देखने लायक थी। संयोगिता की आँखों के सामने इन दोनों की हवस की शिकार बनी औरतों का दर्द और नन्दिता का अवसाद से भरा चेहरा घूम गया। इन छिछोरों का काॅफी हाउस वाला घटिया वार्तालाप उसके कानों में गूँजने लगा। क्रोध से तमतमाई दुर्गा रूप धारण किए वह बोली- ‘चालबाजो, सोशल प्रोजेक्ट के बहाने मुझे पार्टी में बुलाकर अपनी हवस का शिकार बनाना चाहते थे? उस दिन काॅफी हाउस में बैठे क्या कह रहे थे कि औरत भोगने के लिए होती है। वासना शांत करने का खूबसूरत यंत्र होती है। और ये हजरत- ज्ञानेश्वर द्विवेदी छात्रों को आदर्श का पाठ पढ़ाते हैं, समाजशास्त्र पढ़ाकर समाज के मार्गदर्शक बनते हैं और खुद ये क्या गुल खिला रहे हैं? इनका कहना है कि ‘स्त्रियाँ मर्दों को चूस डालती हैं। हर जवान और सुंदर लड़की चाहती है कि उसके साथ रेप किया जाए।’

संयोगिता ने ज्ञानेश्वर द्विवेदी को ताड़ना देते हुए कहा- ‘तू नारी मुक्ति का पक्षधर बनता है और घोषणा करता है कि नारी की मुक्ति की यात्रा देह से शुरू होती है। जब वह उन्मुक्त होकर अपनी देह का उपयोग करती है, बस तभी से उसकी मुक्ति यात्रा रफ्तार पकड़ लेती है। और सम्मान सिंह, तूने उसके जननी रूप की खिल्ली उड़ाई- उसके उदात्त जननी रूप को बाजारू बना दिया। उसे सामूहिक सम्भोग की वस्तु करार कर दिया तूने? तू माँ के ममत्व, बहन के स्नेह, बेटी की मासूमियत, सबको घोल कर पी गया, नीच पापी…। तुम दोनों ने मिलकर उस पर ‘भोग्या’ का ठप्पा लगा दिया। नाम सम्मान सिंह और काम- स्त्री को हर तरह से हर रूप में अपमानित करना…। दिन के उजाले में जलसों, सामाजिक समारोहों में नारी उद्धार की, नारी मुक्ति की बड़ी-बड़ी बातें बनाना और रात के अँधेरे में उसी नारी की इज्जत से खेलना। सम्मान सिंह और ज्ञानेश्वर ऐसे हो रहे थे कि काटो तो खून नहीं। दोनों कुंद बुद्धि से आँखें नीची किए जड़वत् खड़े थे। आज तक ऐसी मात उन्होंने कभी नहीं खाई थी। तभी भीड़ में से एक महिला संस्थान की सदस्या तैश खाई आगे आकर उन दोनों पे चिल्लाई- ‘तुम दोनों नारी मुक्ति के दिन-रात डंके पीटते थे। इस प्रोफेसर जनाब ने नारी मुक्ति पर बड़े-बड़े लेख और कहानियाँ लिखकर नाम भी कमाया, पर अब ये नारी शक्ति का भी जायजा ले लें। संयोगिता जी आपने आज इन दो जानवरों के असली चेहरों से हमें वाकिफ कराके बहुत बड़ा धर्म का काम किया है।’

वह पुन: ज्ञानेश्वर द्विवेदी की तरफ पलटी और चीखती-सी बोली- ‘नीच, तेरी दृष्टि नारी की देह तक ही अटक के रह गई। तेरी कुत्सित सोच औरत को 24 घंटे, 365 दिन मात्रा कामांगना के रूप में ही देख पाई, इसके लिए वो दोषी नहीं बल्कि तेरा मैला मन जिम्मेदार है। लम्पट! तू काम-वासना, नारी देह और भोग के अलावा कुछ और न सोच पाता है और न देख पाता है।’

फिर उसने सम्मान सिंह को घूरते हुए कहा- ‘और तुझे सीता, सावित्री, पार्वती, दुर्गा के रूप में नारी का सौम्य, कर्तव्यनिष्ठ, समर्पित, कलुषनाशक खरा रूप कभी याद नहीं आया, बस, जहन में उसका भोग्या रूप ही अठखेलियाँ करता रहा…’ तभी संयोगिता गरजती बोली- ‘क्योंकि इन दोनों का ‘मायोपिक विजन’ उसके आगे कुछ देख ही नहीं पाता। ये उन शूकरों की भाँति हैं, जो पल छिन घटिया सोच के घूरे में घुसे रहते हैं। अबोध, कमजोर, विवश, कमउम्र स्त्रियों को समाज के ऐसे ही ठेकेदार काॅलगर्ल, बारगर्ल वेश्या, हर तरह के मार्ग का पाथेय बनाकर उनके जीवन के साथ खिलवाड़ करते हंैं, और इतना ही नहीं, उनसे अपना उल्लू सीधा करके, उन्हें तरह-तरह से बदनाम करने से भी बाज नहीं आते। कमजोर और परिस्थिति की शिकार औरतें, तुम जैसों का निवाला बन के रह जाती है- चाहते हुए भी न बदला ले पाती है, और न किसी तरह का विद्रोह कर पाती हैं। उनकी उस विवश चुप्पी के पीछे तुम पापियों के लिए ऐसी बद्दुआएँ सुलगती रहती हैं, जिनके कारण बदला लेने के लिए हम जैसी दबंग महिलाएँ तुम्हारे सामने आकर खड़ी हो जाती हैं। आज हम सब तुम्हें शारीरिक और सामाजिक रूप से अनावृत कर, तुम्हारे घृणित व कुत्सित अंतर को चाक करके सबके सामने दिखाने जा रहे हैं जिससे समाज तुम्हारी हीन हरकतों के लिए तुम दोनों को कड़ी से कड़ी सजा दे और तुम्हारी जैसी सोच वाले, नारी से जुड़े हर पवित्र रिश्ते की बलि चढ़ाकर, उसे निगलने की लालसा रखने वाले और लोग भी तुम दोनों का यह हश्र देखकर चेत जाए और पहले से ही तौबा कर लें।’

कवरेज करता एक टी.वी. रिपोर्टर कैमरा घुमाता व रिकार्डिंग करता बोला- ‘एक बड़ी पुरानी, बार-बार दोहराई जाने वाली कहावत है कि ‘भगवान के घर में देर है, अँधेर नहीं’, सो आज बहादुर और सजग संयोगिता जी ने एक बार फिर यह कहावत सही सिद्ध कर दिखाई है।’

संयोगिता फिर भड़की- ‘अरे तुम्हारी नजर सिर्फ कचरा खोजने में माहिर है, उसमें सिर्फ और सिर्फ कचरा ही क्यों समाता है? तुम्हारी आँखें अच्छाई देखने और सोचने की क्षमता से रहित क्यों है। क्या अच्छाई की चैंध वे झेल नहीं पाती? तुम दोनों अपने मनोमस्तिष्क का इलाज करवाओ, तुम रुग्ण हो। काले दिल, काली सोच, काले भाव, काले विचार, काली कारतूतों वाले दरिन्दों अब खामोश क्यों हो, आओ, काली माँ के इस रूप को भी गले लगाओ, जब तुम्हें हर तरह की कलौंस से इतना प्यार है तो डर क्यों रहे हो, क्यों इतने भयग्रस्त हो अब? तुम दोनों के पसीने क्यों छूट रहे हैं। ये अबला नाम की ‘बला’ अब तुम दोनों से झेली नहीं जा रही? अब तक नारी को बहुत भोगा, अब तुम दोनों नारी का दिया दण्ड भोगो। तुम जैसे विकट पापियों को तो नरक भी जगह देता घबराएगा। अच्छा हो कि तुम्हें किसी भी लोक में जगह न मिले। तुम सदियों तक त्रिशंकु की तरह अधर में लटके रहो, अधर में भटकते इधर से उधर रेंगते रहो। ये सृष्टि, ये प्रकृति तुम जैसे लम्पटों को समय आने पर इसी तरह दण्डित करती है।’ उत्तेजित भीड़ ने खासतौर से शहर के सक्रिय महिला संगठनों की महिलाओं ने बदले की आगे से भभकते हुए सम्मान सिंह और ज्ञानेश्वर द्विवेदी को, जूतों और चप्पलों से इस आक्रामक ढंग से पीटा कि उनके सिर, चेहरे, पीठ, कमर, हाथ-पैर, यानी अंग-प्रत्यंग पर जमकर जूते चप्पल छप गए। फिर उन्हें पीटते-पीटते ड्राइंगरूम में खदेड़ दिया। हालाँकि उनमें से किसी के भी मन में उन दोनों को शारीरिक ताड़ना देने का कोई विचार नहीं था, लेकिन उस रात्रि बेला में, सम्मान सिंह और ज्ञानेश्वर की ताजी घिनौनी और लम्पट हरकत ने भीड़ के मन में ‘क्रोध’ को जाग्रत करने के लिए ‘आलम्बन विभाव’ का कार्य किया तथा उनके गिड़गिड़ाने, हाथ जोड़-जोड़ कर माफी माँगने, सबसे मुँह छुपाने जैसी हरकतों ने तथा वहाँ के जोशीले वातावरण ने ‘उद्दीपन विभाव’ का कार्य किया और इस तरह जब भीड़ के मन में, खासतौर से महिलाओं के मन में जब ‘रौद्र रस’ का उद्रेक हुआ तो फिर उस रस के तालमेल में तरह-तरह के अंग संचालन- जूपा, चप्पल प्रहार, अपशब्दों की बौछार- ये ‘अनुभाव’ तो उछल कर बाहर आते ही। वे तो रौद्र रस के उद्रेक की अपरिहार्य प्रतिक्रिया थी। कुछ क्षण पूर्व संयोगिता के साथ जो उन दोनों ने उसे अपनी हवस का शिकार बनाने के लिए छेड़खानी की थी और जो ‘रसीले सम्वाद अपने मुखारविन्द से’ बोले थे, जो संयोगिता ने प्रमाण स्वरूप सबको मोबाइल का रिकाॅर्डर आॅन करके सुना दिए थे- वे सब ‘संचारी भाव’ का काम कर रहे थे। उस खूबसूरत ड्राइंगरूम में ‘शृंगार के संयोग रस’ के अधूरे उद्रेक को छिन्न-भिन्न करता जो एकाएक ‘रौद्र रस’ का जो विस्फोट हुआ था- उससे वह सजीला ड्राइंगरूम भयानक ‘मैदाने जंग’ में बदल गया था। 

मीडिया फोटोग्राफर्स ने हर कोण से, उन दोनों के हर हाव-भाव के भरपूर फोटो कैमरे में कैद किए। पत्रकार, एन.जी.ओ. कार्यकर्ताओं और टी.वी. रिपोर्टर्स सम्मान सिंह और ज्ञानेश्वर द्विवेदी की शान में छंटे-छंटे कसीदे पढ़ रहे थे। उस आधी रात में उस शानदार बंगले में जलजला आया हुआ था। सम्मान सिंह और ज्ञानेश्वर द्विवेदी जो अब तक कई बार संयोगिता व अन्य सब लोगों के सामने हाथ जोड़-जोड़कर दया की भीख माँग चुके थे, अब जड़ प्राय: से, सिर झुकाए दोनों हाथों से माथा पकड़े बैठे थे। लगता था नारी शक्ति के आगे वे दोनों गूँगे हो गए थे, उनके सारे शब्द चुक गए थे। अब तक भीड़ में से कुछ सचेत लोग पुलिस को भी फोन कर चुके  सो उस इलाके के थाना इंचार्ज वहाँ पहुँच चुके थे। वे व्यंग्य और तिरस्कार से सम्मान सिंह और समाज में उतने ही इज्जतदार, बल्कि उनसे अधिक सुशिक्षित ज्ञानेश्वर द्विवेदी को देख रहे थे। उन्होंने अपना फर्ज निबाहते हुए, सबसे पहले उन गुनाहगारों को अपनी बाहरी नग्नता को ढकने के लिए कपड़े पहनने का आदेश दिया। फिर वह वहाँ उपस्थिति उत्तेजित भीड़ से बोले- ‘देखिए आप लोगों ने अपना कर्तव्य निबाह लिया, अब मुझे अपनी कार्यवाही करने दीजिए और इसके लिए मुझे मैडम के बयान दर्ज करने होंगे, जो इनकी आज की एक-एक हरकत की चश्मदीद गवाह हैं।’

तभी संयोगिता आगे आकर बोली-’चश्मदीद गवाह तो हूँ ही, इन दोनों का एक-एक संवाद भी मेरे इस मोबाइल में कैद है, इंस्पैक्टर साहब।’

थाना इंचार्ज संयोगिता को उसकी हिम्मत और समझदारी के कारण सराहना भरी नजरों से देखता, बड़े अदब से बोला- ‘बहुत खूब मैडम। आप निश्चित रहें, इनको इनके किए की सजा जरूर मिलेगी। थोड़ी देर के लिए आपको भी थाने चलना होगा रिपोर्ट लिखाने के लिए। कानून की मदद करने वाले की हम बड़ी कद्र करते हैं।’ यह कह कर थाना इंजार्च ने अपने कान्स्टेबल को इशारा किया और उसने तुरंत सम्मान सिंह वे उनके परम हितैषी मित्र ज्ञानेश्वर द्विवेदी के हाथों में हथकड़ी पहना दी। ये सब कार्यवाही होते-होते रात को 1 बज गया था। ज्ञानेश्वर द्विवेदी और सम्मान सिंह अब सरकारी मेहमान बन गए थे। अगले दिन सम्मान सिंह और ज्ञानेश्वर द्विवेदी अखबार की सुर्खियाँ बन चुके थे। सभी प्रमुख चैनलों पर कल रात उनके बैडरूम और ड्राइंगरूम में उमड़े जलजले का कवरेज बार-बार जोरदार कमेंटरी के साथ दिखाया जा रहा था। उनके सिर पर पाँव तक के सारे हाव-भाव को कैमरा बारीकी से टीवी स्क्रीन पर तैरता था। हर घर में उनकी काली करतूतों पर थू-थू हो रही थी। उनके साथ-साथ हर कोई टीवी पर संयोगिता की झलक पाने को उत्सुक था। संयोगिता रातोंरात सेलिब्रिटी सोशल एक्टिविस्ट बन गई थी। बहरहाल अगले दिन इतवार होने के कारण उनकी जमानत भी संभव नहीं थी, इसलिए दोनों महाशयों को जेल में ही समय काटना था। ज्ञानेश्वर द्विवेदी और सम्मान सिंह के परिचित उनकी जमानत न करवा पाने के कारण बिलबिला रहे थे। वे ‘सम्माननीय’ गुनाहगार शनिवार की रात से लेकर सोमवार की दोपहर तक सलाखों के पीछे अपमान के बड़े-बड़े घूंट पीते रहे।

इसके बाद वकील, कानून, अदालत जैसा कि सब जानते ही हैं, इनकी कार्यवाही, वकालत के स्याह को सफेद, सफेद को स्याह करने के दाँव-पेंच, इन सबकी एक लम्बी प्रक्रिया जन्म लेने वाली थी, लेकिन उन शातिर लम्पटों के खिलाफ ‘जनवादी न्याय’ तो हो ही गया था। अदालत का न्याय लम्बी चैड़ी प्रक्रिया का मोहताज होता है, पर जनता का न्याय तमाम सत्यों को समेटे हुए त्वरित और खरा होता है।

अपने दुर्धर्ष रूप में संयोगिता ने अन्याय और उत्पीड़न का शिकार बनने वाली अनेक नारियों का हौसला बन, नारी के ‘स्वयंसिद्धा’ रूप को सिद्ध कर दिखाया।


Image: Almond Blossom and Swallow (Wallpaper Design)
Image Source: WikiArt
Artist: Walter Crane
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दीप्ति गुप्ता द्वारा भी