काठ की हाँडी

काठ की हाँडी

अपने ऑफिस में बैठा वह जल्दी-जल्दी फाइलें निबटा रहा था कि एक अधेड़ महिला ने प्रवेश किया। चपरासी उसे रोक रहा था। चपरासी की आवाज से उसका ध्यान भंग हुआ। उसने गर्दन उठा कर देखा तो चौंक पड़ा, ‘तुम! यहाँ कैसे?’
‘अब कहाँ जाऊँ? भाइयों की शादी हो गई, कुछ दिनों तो ठीक-ठाक चला पर एक-डेढ़ साल से भाभियाँ तंग करती हैं।’ रोते हुए उसकी पत्नी ने कहा।
‘तो तुम्हारे भाई उन्हें कुछ नहीं कहते?’
‘भाई वही करते हैं, जो भाभियाँ कहती हैं…।’
‘तो यहाँ क्यों आई हो? मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ?’
‘मैं अब आपके साथ रहना चाहती हूँ, मैंने देख लिया जवानी तो कट जाती है, परंतु बुढ़ापे में…।’
‘देखो! मैं वो सब भूल नहीं पाया, जब रेल-दुर्घटना में मेरे दोनों पैर कट गए थे और तुम बजाय मुझे सहयोग देने के, मुझे अस्पताल में देखने तक नहीं आई, और छोड़कर चली गई, कुछ दयालु मित्रों ने मुझे सँभाला न होता तो तुमने कभी सोचा मेरा क्या होता?’
‘मेरे पास कुछ कहने को नहीं है, सिवा इसके कि मुझे क्षमा कर दें और अब सेवा करने का मौका दें…मैं पश्चाताप करना चाहती हूँ।’
‘देखो! मैं अब तुम्हारे बारे में सोच भी नहीं सकता…मैं बहुत आराम से अपनी दिनचर्या बीता रहा हूँ…तुम्हें जहाँ जाना हो जाओ…।’
‘मैं कहाँ जाऊँ…मेरे लिए अब कोई जगह नहीं है।’
‘मैं दोनों पैरों से विकलांग था, तुम भी छोड़ कर चली गई, मैं दोस्तों के सहारे…तुम्हारे तो सारे अंग-प्रत्यंग ठीक हैं…मैं विकलांग होकर जीवन चला सकता हूँ, तो तुम पढ़ी-लिखी एवं सर्वांग होते हुए भी अपना जीवन क्यों नहीं चला सकती?’ इतना कह कर वह पुनः अपने कार्यों में व्यस्त हो गया।


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