अँधेरा
- 1 February, 1952
शेयर करे close
शेयर करे close
शेयर करे close
- 1 February, 1952
अँधेरा
ब्रांच लाइन पर एक छोटा स्टेशन।
लाल कंकड़ बिछी हुई ज़मीन के साथ समतल प्लेटफ़ार्म, सो भी एक ही है। प्लेटफ़ार्म के बीच में पेंटिंग किया हुआ स्टेशन रूम है, बाकी हिस्से पर टीन का एक शेड है। उसी शेड के नीचे ईटों से घिरा हुआ पार्सल-रूम है, और उसी के बगल में एक कमरे के दरवाजे पर लिखा है ‘जनाना’।
स्टेशन के पीछे की ओर चाय-मिठाइयों का स्टॉल है, लाइसेंस-प्राप्त रेलवे के बेंडर का स्टॉल। स्टेशन की दीवार के साथ टीन डाला है और उसके बाद ही गुड्स ट्रेन का साइडिंग लाइन है। वहीं से लाल मिट्टी का ग्राम्य-पथ उत्तर की ओर चला गया है। यूनियन बोर्ड की मेहरबानी से सड़क के दोनों ओर नाली खुदी है। रस्सी की तरह सीधी तो नहीं है, हाँ साँप के दाग़ की तरह टेड़ी-मेढ़ी खुदी है, तो भी उतने से ही कुछ सभ्रांत-सा मालूम होता है, गाँव के बाबू की तरह। गाँव के लोग इसे स्टेशन रोड कहते हैं, यूनियन बोर्ड के खाते में भी यही नाम लिखा है। स्टेशन एरिया बहुत ही छोटा है। स्टेशन के हद के बाद ही रास्ते के दोनों ओर कुछ कोठियाँ हैं, उन्हीं में से एक में एक और चाय-मिठाई की दुकान है। दो में कोयला डीपो की गद्दी है। एक में स्टेशन के वेंडर का घर है। इनके बगल में ही एक अमीर महाशय का पक्का मकान है। बाकी वीरान पड़ा है। बड़ के बड़े-बड़े पेड़ों की छाया के नीचे स्वच्छ स्थान है। यहीं विभिन्न गाँवों से गाड़ियाँ आकर रुकती हैं। यहीं से कुछ दूरी पर बस्ती।
सुबह अप और डाउन दो ट्रेन हैं। यहीं पर क्रसिंग होती है, लोग कहते हैं ‘मीट’ करती हैं। दोनों ट्रेनें जा चुकी हैं। स्टेशन रोड में थोड़े-से आदमी हैं, अधिकांश स्थानीय लोग हैं। यात्रियों में एक नाचने-गाने वालों का दल है। दो युवतियाँ, एक बूढ़ी नौकरानी और तीन मरदों में एक हारमोनियम बजाने वाला, एक सारंगी वाला और एक डुग्गी-तबला वाला है। इनकी ट्रेन दिन के दो बजे है। युवतियों में एक जरा साँवली है, लंबी है, वहीं बैठकर बाल गूँथ रही है। दूसरी देखने में खूबसूरत है, वह एक बेंच पर पड़ी सो रही है। हारमोनियम वाला काफी फैशनपरस्त युवक है–मुँह में सिगरेट दबा कर प्लेटफार्म पर इधर से उधर टहल रहा है।
एक अंधा लड़का स्वयं ही बैठा झूम रहा है–कुत्सित चेहरा, आँखें सफेद, सामने के मसूड़े जरूरत से ज्यादा ऊँचे, चार दाँत बाहर निकले हुए। हाथ-पाँव विकल और कमजोर हैं। एक मोटे सूत का मैला, छोटा कपड़ा पहने हुए है। सिर के पीछे के हिस्से के बाल भद्दे, छटे कटे हुए हैं। हाथ में एक डुग्गी लिए हुए वह स्वयं ही डोल रहा है। बीच-बीच में हँस देता है, कभी-कभी होठ हिलते हैं, मालूम होता है मानो अपने से ही कुछ कह रहा है। कभी-कभी वह कुछ चंचल हो उठता है, कुछ सुनने की कोशिश कर रहा है! कभी जोर से साँस लेकर सूँघने की कोशिश करता है। थोड़े से डोली वाले स्टेशन स्टॉल के पास बैठ कर गप्प लड़ा रहे हैं, स्टॉल के चुल्हे से लकड़ी जलाकर बीड़ी पी रहे हैं।
* * *
प्लेटफार्म के दूर किनारे पर खड़े होकर हारमोनियम बजाने वाला युवक सीटी मार रहा था–अभी भी कोई पाँच घंटे और यहाँ काटने हैं। बिलकुल ही वैचित्र्यहीन जगह है, देखने के लिए कुछ भी नहीं। यहाँ तक कि उसके साथ की दो युवतियों को देखकर जलने वाले बाबुओं की भी यहाँ कमी है। चैत के अंतिम दिन हैं। सामने दूर तक खुले हुए शस्यहीन मैदान पर आकाश से जमीन तक एक हलके धुएँ की पपड़ी-सी पड़ी है। बीच-बीच में वह भी काँप-सी रही है।
स्टेशन के कमरे में कोयल है। कोयल बोल रही है।
हारमोनियम बजाने वाले को आश्चर्य हुआ। पपीहा है क्या?–पपीहा की आवाज क्रमश: बढ़ती ही जा रही है।
अच्छी मुसीबत है। कोई चिड़ियाखाना है? भेड़ भी बोल रहा है! ऐं! दिन ही में गीदड़ भी बोल रहा है! अदम्य कुतूहल से आकर्षित होकर हारमोनियम बजाने वाला युवक स्टेशन की ओर लौटता है।
डुग्गी बजा कर गाना कौन गा रहा है? वही अंधा लड़का होगा। गीत तो बहुत ही मीठा है! ले भैया, गला ही मीठा नहीं लौंडा दिलदार भी है। गीत सचमुच ही दिलदारों के लायक ही है।
“नैनों में कौंध लगी
तेरे काँच की चूड़ियों से
हाय मरूँ, बलिहारी जाऊँ
सह न सकूँ आँखों से
झिलमिल झलक नाचे
हाथों के हिलने से।”
इसी बीच में गाना काफी जम उठा है। लड़का उकड़ू बैठ कर डुग्गी बजा कर गाए जा रहा है। चेहरे पर मुस्कान है, ताल के साथ-साथ झूम रहा है। कुलियों का दल उसी ओर घूम कर बैठ गया है। हारमोनियम वाले की साथिनों में केश गूँथने वाली उस साँवली लड़की के हाथ भी रुक गए हैं। जो सो रही थी, सो उठ बैठी है। उसके निद्रालु बड़े-बड़े नैनों में कुतूहलभरी दृष्टि है। बुढ़िया नौकरानी आराम से तंबाखू पान चबा रही थी, उसका पान चबाना रुक-सा गया है।
“टुनक ठुनक चूड़ियाँ बजें–
मेरे प्राणों की सारंगी,
बजे तुम्हारे चूँड़ियों की छड़ से।”
गाने की गति तेज होने के साथ-साथ लड़के के झूमने की गति भी तेज हो गई है। कहीं पलट न जाए! तभी उधर नींद से जगी हुई लड़की बेंच पर उठ बैठी है। साँवली लड़की बाल गूथ रही थी, हल्के से मुस्कराकर कहती है–वारी जाऊँ!
लड़का तब मदहोश हो गया है–
“हाय–हाय, गर मैं चूड़ी होता
कंचन नहीं तो काँच ही की
रहता तुम्हारी कलाइयाँ घेरे–
(हाय हाय)
(मैं) मरूँ जा सागर में।”
थाप मार कर उसने गाना समाप्त किया।
श्रोता गण जोर-जोर वाहवाही देने लगे। प्रशंसा से तृप्त अंधे का चेहरा हँसी से खिल उठा। एक श्रोता ने एक जलती हुई बीड़ी बड़ी सावधानी से उसके हाथ में पकड़ा दी–ले, पी।
–बीड़ी
–हाँ, पी ले।
अंधा हँस कर बोला–अजी कौन सिगरेट पी रहे हैं, एक दो न हजूर।
लाला बोल उठा–बेटा मेरे, सिगरेट पीएँगे। अबे सिगरेट के दाम जानता है?
–मेरे गीतों के दाम नहीं हैं क्या?
–ले, पी, यह ले। हारमोनियम वाले ने एक सिगरेट निकाल कर उसे दिया।
सिगरेट लेकर उसने विनीत भाव से कहा–सलाम बाबू साब, एक दियासलाई जला दें।
सिगरेट पर पूरा दम लगा कर कश खींच–सिर, गरदन थरथराकर काँपे। धुएँ की कुंडली छोड़ कर, धूम्र युक्त गले से बोला–आह!
उसके भावों को देख कर सभी हँस पड़े। हारमोनियम वाला बाबू बोला–तू तो बड़ा अच्छा गाना गाता है, हूँ।
–जी हाँ, अच्छा ही गाता हूँ बाबू साब, सभी कहते हैं। जरा रुक कर मुस्कुराकर बोला–अच्छी तरह गाने से मोहित कर सकता हूँ। समझे!
इस बार युवतियाँ खिलखिला कर हँस पड़ीं। उस हसी की आवाज से अंधा चौंक उठा। सिगरेट हाथ से धरती पर गिर पड़ी। धरती पर उँगली से टटोलकर ढूँढ़ते हुए बोला–हँस रहे हैं, कौन? कौन हैं? इसके बाद ही मृदु स्वर से पुकार उठा–मलिंद!
मलिंद उन कुलियों में से एक है। वह बोला–क्या है?
–सुन, कहता हूँ। सिगरेट को हाथ के इशारे से ठीक जड़ की तरफ से उठा लिया।
–क्या है?
–इधर सरक आ, कान में कहूँगा।
–क्या है, बोल तो?
–लड़कियाँ हँस रही हैं, बड़े लोग हैं, क्यों
–हाँ। वर्धमान के।
–हूँ, ठीक समझ गया हूँ।
–कैसे समझा? मलिंद के चेहरे पर अविश्वास की हँसी थी।
–समझा! अंधा हँस कर बोला–चूड़ियों की आवाज से और…बहुत देर से मीठी खुशबू उड़ रही है। छोटे जात के होते, तो पसीने की बू आती। काँच की चूड़ियों से ऐसी मीठी आवाज नहीं निकलती। हाथ में सोने की चूड़ियाँ है न?
–हाँ।
चुपचाप सिगरेट पर कश खींचते-खींचते अंधा बार-बार जोर से साँस खींचता–वही मीठी सुगंध लेने के लिए। अचानक ही वह बोल उठा–तो देवी जी आप हँस रही हैं, जी आप ही से कह रहा हूँ।
साँवली लड़की जरा मुँहफट, चपल है। वह बालों के जूड़े में काँटे खोस रही थी। जरा गरदन घुमाकर, अंधे की ओर देख कर बोली–हमसे कह रहे हो?
–जी, आप लोग हँसीं काहे?
साँवली लड़की अबके जरा चुपके से मुस्कराकर बोली–हम नहीं हैं, दूसरे हैं।
दूसरे हैं–अंधे ने मृदु मुस्करा कर कहा–उहूँ।
–उहूँ क्यों, दूसरे ही तो हँसे।
छोकरा अबकी जरा हँसकर बोला–देवी जी, तूँती से बाँसुरी नहीं बजती, कनस्तर पर तबले के बोल नहीं चढ़ते।
–ओ मैया! लड़की ने आश्चर्यचकित खुले हुए आँखों से साथिन से नजर मिलाई।
सुंदरी लड़की के चेहरे पर मृदु मुस्कान की रेखा फूट पड़ी थी। लेकिन उस हँसी की भावना ही कुछ भिन्न थी। अबकी वह बोली–हमारे हँसने से तुम नाराज हो?
नाराज! अंधा हँस कर बोला–बाप रे बाप, आप लोगों पर नाराज हो सकता हूँ। आप हँसी काहे, इसी से पूछा। कुछ बुरा तो नहीं कहा?
–हरामजादा! लाला चिल्ला उठा। ओ सूअर, हँसे तेरा ‘मोहित’ सुनकर।
–काहे, मैं मोहित नहीं कर सकता?
–बहुत हुआ–अब चुप रह।
–काहे?
–किससे बातें कर रहा है, जानता है?
अंधा अब जरा संकुचित हो गया।
–ये कलकत्ते के गवैये हैं–मशीन का बाजा नहीं सुना हरामजादे। उस तरह के गवैये हैं, बड़ी-बड़ी बाई जी! बेटा पंछीराज उन्हें मोहित करने चले!
अपराधी की तरह इस बार वह बोला–तब तो कसूर हो गया, हाँ हो गया।
साँवली लड़की ने बाल गूँथना समाप्त करके तौलिया कंधे पर फेंका। सूटकेस खोल साबुन निकाल कर बोली–पास ही तालाब है, जरा नहा आऊँ।
अंधे ने हाथ से सिगरेट फेंक दिया। ऊपर की ओर मुँह करके अजीब ढंग से मुँह खोलकर हँसने लगा–नथने फूल-फूल कर उठ रहे थे। अत्यंत हास्यास्पद एवं कुत्सित मुखभंगिमा थी।
लाला बोला–देख, देख हरामजादे की शक्ल देख। हरामजादे पंछी!
अंधे का नाम है पंछी। पंछी ने हँस कर कहा–बहुत ही सुंदर खुशबू है सिंह जी, मन को बिलकुल मोहित कर दिया।
सुंदरी युवती ने कहा–अगर तुम वही मोहित करने वाला गीत सुनाओ तो तुम्हें वह साबुन दे जाएँगे।
सिर खुजलाकर पंछी बोला–गीत गाने से, दे जाएँगे?
–हाँ।
–लेकिन। थोड़ी देर चुप रह कर पंछी बोला–मुझसे स्पर्धा हो गई हुजूर, गीत भला आप लोगों के सामने गा सकता हूँ?
–क्यों नहीं, तुम तो बड़ा अच्छा गाते हो–बहुत ही मीठा गला है।
–भला लगा आपको? पंछी का चेहरा मौन हँसी से भर गया।
साँवली लड़की ने हारमोनियम वाले लड़के को कहा–मेरे साथ जरा घाट तक चलो।
पंछी बोला–एक बात कहूँ देवी जी?
स्निग्ध हँसी हँसकर सुंदरी लड़की बोली–कहो।
–नाराज तो नहीं होंगी, कसूर तो नहीं मानेंगी?
–नहीं, नहीं, कहो।
लेकिन पंछी चुप रहा। फिर अचानक ही बोल उठा–निताई, मलिंद! चले गए क्या? निताई?
–काहे, निताई को काहे? लाला दुकान का दरवाजा बंद करते हुए बोला–नाश्ता नहीं करेंगे लोग, घर नहीं जाना है?
हँसकर पंछी बोला–आप दुकान में ताला लगाते हो?
–हाँ, नाश्ता करेगा, तो चल, आ। मैं घर की ओर चला।
–उहूँ, मुझे आज भूख नहीं है।
* * *
साढ़े दस बज चुके हैं। चैत का महीना है, इसी बीच में चारों दिशाएँ धूलि-धूसरित गर्म हो उठी हैं। स्टेशन के टीन के शेड में गर्मी की तेजी से कराँ-कराँ शब्ध उठना शुरू हो गया है। लाइनों के जोड़ों पर भी आवाज उठ रही है।
सुंदर युवती एकाग्र दृष्टि से अंधे की ओर देख रही है। पंछी स्तब्ध बैठा है। कभी-कभी मुँह उठाता है, पर उसी क्षण फिर नीचा कर लेता है।
युवती ने कहा–तुमने कुछ कहा तो नहीं?
–जी!
–तुम कुछ कह रहे थे, क्या कहोगे?
–जी कह रहा था कि–! लज्जित अपराधी की तरह हँस कर पंछी ने गरदन झुका ली।
–कहो। कह कर लड़की इंतजार के झणों में अनमनी हो धूलि-धूसरित क्षितिज की ओर पलकहीन नयनों से देखती रहती है। इसी मौके में पंछी बीच-बीच में सिर उठाता है और फिर नीचा कर लेता है। अचानक ही वह बोल उठा–कह रहा था कि–?
ठीक इसी समय टीन के शेड पर बड़ी तेज आवाज हुई। लड़की चौंक उठी–बाप रे बाप, क्या है?
–जी वो–। बुद्धिमान की हँसी हँस कर पंछी बोला–धूप की गर्मी से टीन में आवाज उठी है।
–अच्छा, यह बात है? धूप की तेजी से टीन में आवाज होती है।
–जी हाँ, अब साँझ तक ऐसे ही आवाज होगी। यह आवाज टीन की गर्मी की नहीं; टीन पर कौआ बैठा है।
लड़की बाहर प्लेटफार्म पर जा खड़ी हुई। कुतूहल हुआ उसे–सचमुच कौआ ही था। वह विस्मित होकर पंछी के सामने आ खड़ी हुई। पंछी चंचल हो उठा। नथने कई बार फूल उठे, मृदु स्वर से विनयपूर्वक बोला–जी कह रहा था कि–।
लड़की दो उँगलियाँ उसके आँखों के सामने हिला रही थी।
पंछी के निष्कंलक आँखों के सामने से लड़की ने उँगली हटा ली, बोली–कहो, कहो न, मैं तो बार बार कह रही हूँ।
–आप अगर एक गीत गातीं। बात खत्म किए बिना ही, वह मौन हँसी से युक्त, खुले हुए मुँह से सिर खुजलाने लगा।
युवती हँसी–गीत सुनोगे?
धरती को हाथ से सहलाकर, पंछी लड़की के पैर की उँगली का किनारा स्पर्श करके बोला–आप लोगों के चरण ही कहाँ मिलेंगे? और गीत ही कैसे सुन पाऊँगा–तो भी–। कुछ क्षण नीरव रह कर दृष्टिहीन मुँह उठा कर बोला–इच्छा तो होती ही है–इनसान ही तो हूँ। गीत सुनने में मुझे बड़ा अच्छा लगता है।
लड़की ने कुछ सोचा, शायद करुणा पैदा हो गई हो अथवा कोई सूझ ही होगी। बोली–अच्छा। फिर चिंतित हो बोली–हारमोनियम तो बहुत सामान के नीचे दबा पड़ा है।
–हारमोनी?
–हाँ।
–हारमोनी रहने दो। आप ऐसे ही गाओ। आस्ते-आस्ते गाइए, धूप बहुत तेज चढ़ी है, खाली गले से ही आस्ते-आस्ते गाइए, बड़ा अच्छा लगेगा।
लड़की को यह कल्पना भा गई। अंधा ठीक कह रहा है। उसने मृदु स्वर में गाना शुरू किया–
“काले तेरे लिए कदम तले,
तकत रहूँ
पथ पै कबहूँ नदी किनारे,
तकत तकत क्षीण भई
मोरे कजरारे नैनों की जोड़ी।”
पंछी का सारा देह मानो निष्प्राण हो गया। मस्तिष्क की नसों में उस गीत की झंकार ने, वीणा के तार के झंकार की तरह, उसकी समस्त चेतना शक्ति को अवसन्न कर दिया।
* * *
गाना समाप्त हो गया। अंधे को गीत सुनाकर लड़की को बहुत ही संतोष हुआ। जरा मुस्कराकर बोली–क्यों, अच्छा लगा?
–जी–पंछी चौंक उठा। उसके निष्प्राण, अवसन्न शरीर में उसी मुहूर्त चेतना-प्रवाह बह गई।
–अच्छा लगा?
पंछी बोला–मेरा जीवन धन्य हो गया देवी जी।
इस बार लड़की हँस दी।
–हँस रही हैं–तो–। थोड़ी देर चुप रह कर पंछी बोला–तो भला ऐसा गीत इस जीवन में कहाँ सुन पाता। पंछी की बातों में वेदना का एक ऐसा सुर था कि लड़की और हँस न सकी, चुप हो गई। कोई बात भी ढूँढ़ न पाई।
पंछी बोला–आपको प्रणाम करूँ?
–प्रणाम! क्यों?
–बड़ी इच्छा हो रही है।
लड़की को लोभ हुआ। मुग्ध दृष्टि, असंख्य प्रशंसाएँ, प्रेम-गुंजन आदि बहुत मिलती हैं, लेकिन प्रणाम? कोई भी याद नहीं आता। अपने समाज के छोटे यद्यपि प्रणाम करते हैं, लेकिन इस प्रणाम का दाम उनसे अधिक महसूस हुआ। उसने मना नहीं किया, चुपचाप खड़ी रही।
पंछी ने उसके कदमों को हाथ से सहलाया और फिर लड़की के दोनों कदमों पर उसने अपना मुँह रख दिया,
लड़की को बड़ा अच्छा लगा।
लड़की ने अपने पैरों पर उष्ण श्वास अनुभव किया–पंछी के विकृत नैनों से अश्रु झर रहे हैं। वह पानी उसके पैरों पर लग रहा है, तो भी उसने कदमों को नहीं हटाया। धूलि-धूसरित क्षितिज की ओर अर्थहीन दृष्टि से ताकती हुई चुपचाप खड़ी थी। अचानक ही उसने प्रश्न किया–तुम्हारे घर में कौन-कौन हैं? माँ है? बाप है?–सुनते हो, उठो! उठो! बहुत प्रणाम हो चुका है, उठो!
–अबे ओ, अबे यह हो क्या रहा है? ऐ! हारमोनियम वाला और वह साँवली लड़की नहाकर लौट आए हैं। हारमोनियम वाले ने पंछी को धमकाया।
साँवली लड़की बोली–वारी जाऊँ!
सुंदरी युवती मृदुस्वर से फिर बोली–उठो! उठो!
अब पंछी उठा। उसकी ओर देखकर हारमोनियम वाला और साँवली लड़की एक साथ ही हँस उठे। पंछी की आँखों के पानी से भींग कर लड़की के पैरों का अलता अंधे के सारे मुँह में लगा है। गाल में नाक पर, माथे पर और होठों पर, सारे मुँह में लाल रंग लगा है।
युवती बोली–मुँह पोछ डालो। तुम्हारे सारे मुँह में लाल रंग लगा है।
–लाल रंग!
–हाँ, अलता लगा है।
–अलता!
–हाँ होठों पै, गाल, नाक, मुँह सब जगह; पोंछ डालो।
–रहने दो हजूर।
साँवली लड़की अपने साथिन से बोली–ले चल, उसके साथ नखरे करने की जरूरत नहीं। उधर देख आई हूँ चावल बन गए हैं। नहाना हो तो नहा आ, तालाब में बड़ा सुंदर पानी है।
–कितनी दूर है?
पंछी उठ खड़ा हुआ–जी, नजदीक ही है, पास ही है। चलिए मैं ले चलता हूँ, आइए।
–तुम!
–हाँ हाँ, अंधों को रास्ते घाट सब याद होते हैं, ठीक ले जाएगा। जाती क्यों नहीं। साँवली लड़की जरा हँसकर बोली–निश्चिंत होकर नहाना, यह घाट पर बैठा रहेगा।
बात सच ही थी। पंछी ठीक रास्ते-रास्ते जाता है। कभी-कभी पैर से मिट्टी को टटोल कर अनुभव कर लेता है। स्टेशन रोड के किनारे पहले बड़ के पेड़ के नीचे आकर बोला–यह बड़ तले आ पहुँते। आइए बाईं ओर।
जरा आगे बढ़ते ही ताल दिखाई दिया। काजल की तरह काला पानी।
लड़की बोली–तुम्हारा नाम क्या है?
–मेरा नाम? मेरा नाम है–यही पंछी कहते हैं।
–पंछी?
–जी, बचपन में, चिड़ियों की तरह चीं-चीं करके चिल्लाता था न। अंधा था तो माँ भी छोड़ रखती थी, और मैं जमीन पर पड़ा-पड़ा चिल्लाता रहता था।
–तुम्हारे माँ-बाप हैं?
–जी हाँ, मैं कभी-कभी घर पर जाता हूँ। मेरा बाप बड़ा अच्छा आदमी है, बाप का नाम–यहाँ–, अचानक उसने स्वयं ही बात काट दी। ऊपर की ओर मुँह उठा कर बोला–हो, हो, हंसों की बड़ी डार आई है मालूम होता है।
एक बड़ी डार! मटियाले रंग के जंगली हंसों की एक डार सचमुच ही मँडरा रही थी। उनके पंखों की आवाज आकाश में गूँज रही थी।
लड़की ने भी आकाश की ओर देखा।
पंछी बोला, उसने अपनी आधी कही हुई बात समाप्त की–उसके बाप को यहाँ सभी जानते हैं। नाम कीर्तीवास बाग्दी–।
* * *
बाप का नाम है, कीर्तीवास। अंधे, अपरिणित विकलांग लड़के की चीखों को सुनकर ही उसका नामकरण हुआ था–पंछी। अच्छे गौरवयुक्त नाम रखने की कभी आवश्यकता ही महसूस नहीं हुई।
वह घाट पर बैठा था, लड़की गले तक ठंडे पानी में अपने को डुबो कर उसकी कहानी सुन रही थी। पंछी बोला–मेरी एक दीदी है, दीदी मुझको बहुत प्यार करती थी। गोद में खिलाती थी। सो कोई आप ही के उम्र की होगी।
–मेरी तरह? लड़की जरा मुस्कराकर बोली–मेरी उम्र तुम कैसे समझे?
शर्मीली निगाहों से सिर खुजलाकर पंछी बोला–आप मुझसे थोड़ी ही बड़ी होंगी उससे ज्यादा नहीं। थोड़ी देर चुप रह कर फिर बोला–गले के स्वर से थोड़ा बहुत समझ लेता हूँ। आपका गला अभी बाँस की बाँसुरी की तरह है, मिलावट नहीं है–बाकी–।
पंछी रुक गया, आगे की बात कह न सका। उसने लड़की के कदमों पर मुँह रखा था, उसका कोमल मुलायम स्पर्श वह मानो तब भी अनुभव कर रहा था।
बात पलट कर बोला–यहाँ से मेरा घर कोई चार कोस होगा। साल भर पहले एक बार माँ ने मुझे खूब पीटा था। तो दीदी बोली–पंछी तू तो गीत गा ही सकता है अच्छे बाजारों में क्यों नहीं जाता। गीत गाइयो, और भीख माँगियो। बात मेरे दिल में चुभ गई। और एक दिन दीदी ही मेरा हाथ पकड़ कर यहाँ छोड़ गई–और तभी से–। मौन हँस कर वह चुप हो गया।
अचानक ही एक बार बोल उठा–आपके गीत का वह हिस्सा तो बहुत ही सुंदर है। वह है न–‘काले जब तेरी बाँसुरी बजे–।’ कहते कहते ठीक उसी सुर में उसने गान शुरू कर दिया–
घर बार सब भूल जाऊँ–दौड़ाहि जो आऊँ
मेरा तन ना धुलता, केश नहीं बँधते
और न जाने क्या क्या नहीं होते।
लड़की साबुन मल रही थी। आश्चर्य से उसके हाथ रुक गए। ठीक उसी सुर में पंछी निर्भूल गा रहा है।
–ओ हो नहाने में कितनी देर लगती है, उधर गाड़ी का समय हुआ आता है। हारमोनियम वाले ने ठीक इसी समय आकर आवाज दी। घाट से ही दिखाई दे रहा है, वह परेशान होकर बुलाने आया है।
* * *
सचमुच ही स्टेशन के टिकट बाँटने की घंटी बज उठी।
ट्रेन चली गई, नाचने-गाने वालों का वह दल भी चला गया। ट्रेन के पैसेंजरों को चाय, मिठाई, शरबत आदि बेचने से निबट कर दुकानदार सिंह जी ने आवाज दी–पंछी, पंछी।
पंछी का कोई उत्तर नहीं मिला–गया कहाँ?
लाला सचमुच उसको प्यार करता है। लाला की पत्नी भी उसे प्यार करती है। जिस दिन पंछी को कहीं भी रोटी नहीं मिलती, उस दिन लाला उसे बुलाकर खिलाता है। दो बजे के ट्रेन के बाद ही दुकानदार एक बार उसकी खबर लेता है। पंछी की कोई खबर नहीं मिली। शायद गाँव में गया हो, गोविंद जी के मंदिर में प्रसाद के लिए या चंडी-मंडप की ओर गया होगा। चंडी तले पर्वों में बलि दी जाती है–पंछी हिसाब रखता है कि कब अमावस है, कब चतुर्दशी, कब अष्टमी, कब संक्रांति! इन दिनों वह चंडी तले जरूर जाता है। इन्हीं दोनों में से एक जगह जरूर गया होगा। लाला अपनी दुकान के काम में लग गया। दो ट्रेन के बाद चार बजे एक गाड़ी और आएगी।
चार की ट्रेन आई और चली गई। लाला अब जरा चिंतित हो उठा। पंछी अब तक क्यों नहीं लौटा, वह गया कहाँ? कहीं उस गाने वाले दल के साथ गाड़ी में तो नहीं चढ़ बैठा?
सचमुच बात यही थी। पंछी चुपचाप ट्रेन में चढ़ बैठा था, बेंच के नीचे घुस कर पड़ा हुआ था। लेकिन जंक्शन स्टेशन पर उतर कर वह उनकी भीड़ में खो बैठा।
ब्रांच लाइन पर गार्ड, ड्राईवर, सभी पंछी को पहचानते हैं। वे बोले–अरे, तू यहाँ कैसे?
मुँह खोल हँस कर पंछी बोला–जी हाँ, यहीं आ गया–जी, सोचा कि चलो थोड़ा घूम-फिर आएँ। थोड़ी देर चुप रह कर जरा और जोर से हँस कर बोला–नई जगह देखने की भी तो इच्छा होती है!
गार्ड दत्त बाबू हँस कर बोले–ठीक है, अब देख लिया न–चलो लौट चलो।
लौटते हुए, पंछी को न जाने क्यों शर्म-सी महसूस हुई। वह बोला–जी नहीं, यहीं दो-चार दस दिन रहूँगा।
–यहीं रहेगा?
–जी हाँ, यहाँ का बाजार कैसा है जरा देखूँ तो सही। जवाब सुनकर दत्त बाबू हँस कर चल दिए। कुछ ही क्षण बाद पंछी को एक बात याद आई–गार्ड बाबू, गार्ड बाबू। गार्ड बाबू को वह कहना चाहता था कि वे यहाँ के स्टेशन मास्टर, जमादार, स्टॉल वाले को जरा उसके लिए कह देते।
गार्ड बाबू की कोई आहट नहीं मिली। गार्ड तब स्टेशन के भीतर पहुँच गया था। वह कुछ देर चुप रहा, फिर चलना शुरू किया और ठीक स्टॉल के सामने आ पहुँचा।
–अजी लाला जी क्या बना रहे हो? सिंगाड़ा, कचौरी?
लाला उसकी ओर देख कर बोला–जरा हट के बैठ।
पंछी जरा हट कर ही बैठा। इसके बाद उसने अपनी डुग्गी पर उँगली से चोट मारते हुए शुरू किया–‘ओ-काले तेरे लिए…।’
उसे गार्ड दत्त बाबू की जरूरत नहीं पड़ी। अपनी पहचान उसने स्वयं ही करवा ली। लाला, स्टेशन मास्टर, जमादार स्टेशन, जमीन पर बिछी हुई लाइन, सिगनल के तार, बाजार, रास्ते, घाट सब उससे परिचित हो गए। काली माई के मंदिर और गौरांग जी के अखाड़े के रास्ते उसे याद हो गए। जंक्शन की लाइनों की कतारें वह अनायास ही पार कर जाता है। पहले आकर थोड़ी देर रुकता है, किसी आदमी की आहट मिले तो पूछता है–कौन हैं हजूर, लाइन पर कोई गाड़ी है क्या?
जब कोई नहीं होता, तो वह कान लगा कर सुनता है कि किसी इंजन की आवाज सुनाई देती है या नहीं। फिर आगे बढ़कर लाइन पर आकर पैर रखता है। स्पर्श से ही समझ लेता है कि चलती हुई गाड़ी की तेजी की लहर उसमें प्रवाहित हो रही है या नहीं। पंछी कहता है कि जैसे डर लगने से सिहरन पैदा होती है, वैसी ही सिहरन लाइन में भी बहती है। संदेह होने पर वह लाइन छोड़ कर ओवर ब्रिज की ओर जाता है। एक किनारे के रेलिंग को पकड़ कर वह आसानी से पार चला जाता है। सीढ़ियों की संख्या उसे याद है।
डुग्गी के साथ आजकल उसने मटका भी रख छोड़ा है। उँगली से बजाकर, तसल्ली करके खरीदी है। मटका बजाकर गाने से ज्यादा लोग आते हैं।
कभी-कभी वह स्टेशन के कमरे के दरवाजे पर आ बैठता है। उसके बैठने का समय दोपहर के एक बजे से ढाई बजे तक है। इस समय स्टेशन के बाबू लोग बैठ कर गप्पें लड़ाते हैं, वह सुनता रहता है। जब कभी गप्पें रुकती हैं, तो वह कहता है–मास्टर बाबू।
–क्या है बे? आ गए!
–जी हजूर।
–क्या कहते हो?
–जी। पंछी सिर खुजलाता है।
–पूछता क्या है? वर्धमान कितनी दूर है? कितना किराया है?
–जी नहीं, कह रहा था कि…। हँसी की भंगिमा में वह अपने उठे हुए दाँतों को और खोल कर हँसता है, बाबुओं से कुछ और उत्साह की आशा करता है। उत्साह उसे मिलता भी है।
–हाँ, क्या कह रहे थे? वर्धमान कैसा शहर है? कितना बड़ा है?
–जी हाँ। वह विनयपूर्वक अपने दाँतों को और खोल देता है।
–वर्धमान जाएगा? किसी दिन गाड़ी में चढ़ा दूँ?
पंछी चुप हो जाता है। सम्मति जताने में उसे डर लगता है। गाड़ी-घोड़ा भीड़-भड्ड़का, गली-गुली–बहुत बड़ा शहर है-न जाने कहाँ–?
टेलीग्राफ की मशीन में आवाज होती है, उधर टेलीग्राफ की घंटी बोल उठती है–टिन, टिन! बाबू लोग काम पर लग जाते हैं। पंछी उठकर चला आता है। सोचते-सोचते प्लेटफार्म के किनारे पर आ खड़ा होता है। पास ही के टेलीग्राफ के पोस्ट पर हवा के प्रवाह से आवाज उठती है। उसके साथ लगा हुआ मील का प्लेट तेजी से काँपता है। पंछी धीरे-धीरे आकर टेलीग्राफ के पोस्ट पर कान लगा कर खड़ा हो जाता है। पोस्ट पर उँगली से बजा कर कहता है–टेरे टक्का टेरे टक्का, टक्का टक्का टर्। इसके बाद कहता है–हैलो! हैलो! देवी जी, वर्धमान की देवी जी! मैं पंछी हूँ। गाना गा रहा हूँ–
“ओ–तेरे लिए कदम तले
तकत रहूँ…”
* * *
दिन बीतते हैं। एक साल बीत गया है। पंछी जंक्शन में ही है। रुपया पैसा कुछ इकट्ठा हुआ है। लाला के पास कुछ हिस्सा रखता है। लाला जानता है कि वह हिस्सा अब उसी का है। लेकिन पंछी अपनी कमाई के हिस्से बाँटता है। कुछ अपने पास रखता है, बाकी हिस्सा जनाना वेटिंग रूम के पास लकड़ी से घिरी हुई छोटी-सी कोठरी में, जमीन के नीचे दबा कर रखता है। जंक्शन होने पर भी प्लेटफार्म पक्का नहीं है। जनाना वेटिंग रूम का फर्श भी कंकड़-मिट्टी का है। वहीं अपना बिस्तर रखता है। बिस्तर उसका एक टाट का टुकड़ा है। रात को वहीं टाट बिछा कर गोल होकर पड़ा रहता है।
वर्धमान की झख अब कम हो गई है “काले तेरे लिए…” यह गीत वह गाता है, लोग तारीफ करते हैं, पंछी विनयपूर्वक हँसता है, लेकिन उस चैत की दोपहरी में, उस गाँव के स्टेशन के प्लेटफार्म पर किसी के कोमल कदमों पर मुँह रख कर प्रमाम करने की बात याद नहीं आती। उस मीठी मदहोश करने वाली खुशबू की उसे याद नहीं आती। लेकिन ऐसा नहीं कि याद ही नहीं आती है, लेकिन अब दिल वैसा ‘बेचैन’ नहीं होता।
* * *
बहुत दिन हो गए। कितने ही दिनों बाद। एक दिन अचानक ही उसके सारे शरीर में सिहरन दौड़ गई, लाइन पर से ट्रेन के गुजरने से आवाज और स्पर्श से जैसी सिहरन पैदा होती है।
पंछी प्राय: दौड़ ही कर पास आ खड़ा हुआ। उसने अच्छी तरह महसूस किया जैसे देवी जी के साथ और बहुत-से आदमी हैं, एक छोटा लड़का भी साथ है।
गीत समाप्त होते ही वह हाथ जोड़ कर बोला–देवी जी!
–कौन है तू?
–जी, जिन देवी जी ने गाना गाया उन्हीं से कह रहा हूँ।
साथ ही हँसी का एक फव्वारा छूट गया। एक ने कहा–वारी जाऊँ! फिर गीत शुरू हुआ–“नैनों में कौंध लगी…।” पंछी का हृदय अबके उछल पड़ा। उसी का वही गीत! निताई कविराज से उसने सीखा था, देवी जी ने उससे सीखा था।
गाना समाप्त हुआ।
–मुझको पहचाना नहीं देवी जी, मैं पंछी–।
–अबे ओ, भाग यहाँ से!
भागने पर भी अबकी बार साथ नहीं छोड़ेगा। वह चौकन्ना हो कर बैठा रहा। गाड़ी का घंटा बजा। यात्रियों के दल ने अपना सामान इकट्ठा कर लिया। एक ने कहा–ग्रामोफोन अच्छी तरह बंद कर लेना। रिकार्डों को बक्से में बंद कर ले।
गाड़ी आई! चली गई! स्टेशन स्टाफ और स्टॉलवाले को आश्चर्य हुआ, पंछी नहीं है!
* * *
और बहुत समय के पश्चात। बहुत से वर्ष बीत गए हैं। पंछी के बालों में सफेदी की छाप लगी है। मुँह के कुछ दाँत भी गिर गए हैं, कान के सुनने की ताकत भी कुछ कम हुई है। लाइन पर पैर रख कर, दूर गाड़ी आ रही है या नहीं, अब बता नहीं सकता।
पंछी एक तीर्थक्षेत्र में पथ के किनारे बैठ कर भीख माँगता है। गीत अब पहले की तरह नहीं गाता। कहता है–अंधा हूँ बाबू, दया करो, अंधे को पैसा दे दो मैया। माँ लक्ष्मी, जननी।
मातायें जब गुजरती हैं, तो पंछी जरा ज्यादा व्याकुलता दिखाता है। जूते के शब्द नहीं होते। धोतियों की खस-खस आवाज आती है। पूजा के फलों की सुगंध उड़ती है। पंछी समझ जाता है कि माताएँ आ रही हैं।
जिस दिन भीख कम मिलती है उस दिन वह गीत गाता है।
उस दिन भी वह गा रहा था। “नैनों में कौंध लगी–” गाना आजकल उसे अच्छा नहीं लगता। भक्तिरस के गीत ही गाता है–“काले तेरे लिए…” गीत को वह अक्सर गाता है। उस दिन भी गा रहा था।
गीत के समाप्त होते ही एक आदमी हँसकर बोला–यह रिकार्ड में खूब गाया था तुमने, चारों ओर फैल गया–रास्ते, बाजार, सब जगह।
पंछी ने नारी के गले की मृदु हँसी की आवाज सुनी। लड़की बोली–लेकिन काले ने सुना कहाँ?
–बस यही तुम्हारा ढोंग है। अब तीर्थों में कोई काम नहीं, चलो लौट चलें।
–नहीं, उम्र बीत गई है। संसार अंधकार हो आया है–अब–।
असहिष्णु होकर पंछी बोला–कुछ दया होगी मैया–अंधा–।
उसके हाथ में कुछ गिरा।
मर्द ने कहा–अठन्नी है; अबे पैसा नहीं है।
–अठन्नी
–हाँ।
अठन्नी? खोटी तो नहीं है? हाथ से सहला कर, मिट्टी में बजा कर पंछी ने परख लिया। इसके बाद परम कृतज्ञ होकर, हाथ बढ़ा कर लड़की के पैरों को सहला कर उसने प्रणाम किया।
वे चले गए, पैरों की आवाज आई।
चिड़ियाँ चहचहा रही हैं। दिन शायद ढल रहा है। पंछी भी उठ खड़ा हुआ।
Image: Railway Carriages
Image Source: WikiArt
Artist: Vincent Van Gogh
Image in Public Domain