अस्तित्व

अस्तित्व

आज सुबह से ही रोहित मेरे आगे-पीछे कर रहा है। सीधे मुँह बात भी न करने वाला पति जब अर्दली की तरह सेवा में लग जाए तो गर्व का अनुभव होना चाहिए, मगर मुझे घिन आ रही है उसके इस बर्ताव से।

‘पलटू सिंह मेम साब के लिए दूसरी चाय लाओ। यह चाय तो रखी-रखी ठंढी हो गई है।’

‘नहीं पलटू रहने दो। मैं ठंढी चाय ही पीती हूँ।’

ऐसा कहते हुए मैंने चाय की कप उठाकर अपने कब्जे में कर ली। कहीं मेरा काबिल आई.ए.एस. पति उसे जबरदस्ती किचेन में न भिजवा दे। रोज ग्यारह-बारह बजे रात तक कभी मीटिंग तो कभी किसी पार्टी या डिनर के बहाने घर न आने वाला मेरा पति आज चार बजे अपराह्न से ही घर पर है और कभी मुझे ठंडा तो कभी चाय ऑफर कर रहा है। गिरगिट भी शायद इतनी जल्दी व आसानी से रंग न बदलते हों, मगर रोहित! अभी दो दिन पहले की ही तो बात है। मेरा सिर दर्द से फटा जा रहा था और मैंने रोहित से रिक्वेस्ट की कि पलटू को चाय के लिए कह दें।

इस पर यह जवाब आया कि ‘दिनभर पड़े-पड़े भी तुम्हें सिरदर्द कैसे हो जाता है? एक दिन सुबह से शाम तक मेरे जैसा काम करना पड़े फिर पता चले। यहाँ तो सबकुछ बैठे बिठाए मिल रहा है तब यह हाल है।’

एक कप चाय के बहाने इतना कुछ सुना दिया! वह कप जो किसी भी मिलने-जुलने वाले या घर तक आने वाले को हम जबरदस्ती पिलाते हैं। क्या मेरा इतना भी अधिकार नहीं रोहित के घर पर कि एक अतिरिक्त चाय का कप मिल सके? बर्दाश्त करने की आदत हो चली है अतः खून का घूंट पीकर खुद किचेन तक जाकर चाय की विनती कर आई।

आज से ठीक चार वर्ष पहले पूरे अस्सी लाख रुपयों में कीमत तय हुई थी रोहित की। ये मेरी माँ की महत्वाकांक्षा थी कि उनकी बेटी अपने ससुराल में राज करे। पर माँ यह भूल गई कि पैसों से राज-पाट खरीदा नहीं जा सकता। इस प्रोजेक्ट को पूरा करने हेतु मेरे सीधे-साधे और ईमानदार पिता ने एक कोठी और माँ के कई गहने बेच दिए। फिर भी होनहार रोहित परिवारवालों ने शादी की तैयारी में कई कमियाँ निकाली। कोल्ड ड्रिंक हैं, बारातियों के स्वागत के लिए और आव-भगत के लिए वेटर कम हैं, आदि-आदि। हद तो तब हो गई जब दूल्हे के शादी के कपड़े को लेकर रोहित ने पूरे एक घंट हंगामा किया। हमारे यहाँ होने वाली शादियों में दूल्हा धोती-कुर्ता में फेरे लेता है। मगर लाट साहब रोहित जी को धोती-कुर्ता नहीं पहनना था। सारे बुजुर्ग समझा-समझा कर थक गए मगर रोहित ने उनकी बात नहीं मानी। अंततः सूट-बूट में ही फेरे हुए।

दूल्हे के ये नखड़े देखकर मम्मी जी सकपका गई। शादी के बाद जब विदाई का समय आया तब मुझे अकेले में ले जा कर बोली–‘बेटा मैंने तो तेरे भले के लिए इस शादी में एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। तू अपनी दीदी की हालत तो देख रही है। प्रेम विवाह किया है उसने मगर पति की ढंग की नौकरी नहीं है। कभी बच्चे के फीस के पैसे मुझसे माँगती है तो कभी डॉक्टर के इलाज के। तभी मैंने सोच लिया था कि तेरी ऐसी शादी करूँगी कि पैसे की कमी क्या होती है तू कभी जान भी नहीं पाएगी। फिर भी अगर कमी रह गई हो तो अपनी माँ को माफ कर देना बेटे।’ मेरे सामने दोनों हाथ जोड़ दिए थे माँ ने। गले मिलकर हम दोनों जीभर के रोई। माँ शायद इसलिए कि कमी रह गई उसके दूल्हे के नाप-तौल, जाँच-परख में; और मैं इसलिए कि माँ के जुड़े हाथ देखकर ठान लिया था मैंने कि उस दिन के बाद माँ के सामने कभी आँसू नहीं बहाऊँगी। तभी रोहित के जायज-नाजायज हर तरह के ताने यूँ अनसुना कर देती मानो पी-एच.डी. की डिग्री मैंने मेहनत से नहीं वरन कहीं से मोल ली हो! अपना गर्व, अपनी ईमान सब मुझे माँ के जुड़े हाथों के सामने छोटे लगते। मेरे लिए यह बात मायने रखती है कि मेरी माँ इस भ्रम में खुश रहे कि उसकी बेटी अपने घर में राज कर रही है।

रोहित की माया-नगरी में रहते-रहते धीरे-धीरे मुझे यह भी पता चला कि प्रतिभा अपनी जगह है और पैसा और रूतबा अपनी जगह। भारत में सभी कार्य संभव हैं साथ में पैसे और कुर्सी की ताकत हो तो। ऐसे ही अपने रुतबे को भुनाते हुए रोहित ने मुझे एक बड़े समाचार पत्र के अतिथि संपादक के पद पर आसीन कर दिया था। यह बात मुझे बड़े अरसे बाद पता चली थी। साक्षात्कार में मुझसे बड़े मुश्किल से सवाल पूछे गए थे, जिनका मैंने बड़ा सटीक जवाब दिया था। मैं इसी भ्रम में थी कि यह पद मुझे अपनी काबलियत के बूते मिली है। वो तो मेरे बड़बोले पति ने एक दिन ताने मारने के क्रम में यह जतला दिया कि मेरी योग्यता के बल पर तो अतिथि संपादक क्या इस सामाचार पत्र के दफ्तर में चपरासी भी न रखें मुझे! हालाँकि यह अतिशयोक्ति सुनकर मेरी हँसी निकल आई थी और मैंने कह ही दिया–‘रोहित, चपरासी के पद के लिए पी-एच.डी. का रिसर्च कुछ ज्यादा नहीं हो जाएगा? शायद इसीलिए मुझे चपरासी नहीं बनाएँगे।’

फिर शुरू हुई रोहित की समाचार-पत्र को लेकर टीका-टिप्पणी। एक दिन सुबह-सुबह अखबार हाथ में लिए बड़े गुस्से में मेरे पास आया।
‘यह क्या है नैन?’

सवाल के जवाब में सवाल पूछने की मेरी हिम्मत नहीं हुई अतः मैंने अपनी सुंदर आँखों को प्रश्नवाचक भाव से भरकर अपने अहंकारी और बदमिजाज पति की ओर देखा।

‘सत्ता पक्ष के खिलाफ क्या जहर उगला है तुम्हारे समाचार पत्र ने? कितने मुश्किलों का सामना कर हम देश चला रहे हैं और तुम लोग कुछ भी छापती हो?’

जाहिर है कि विपक्ष यानी मेरे पास किसी भी तरह की सफाई देने का अधिकार नहीं था। अभी जलती आग में घी डालने की मेरी इच्छा भी नहीं थी। अतः मैं मूक श्रोता की तरह उसके आरोपों को सुनती और झेलती रही।

‘एक नेता अगर किसी लड़की के साथ पार्टी में डांस फ्लोर पर दो मिनट डांस क्या कर ले तुम लोगों को कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक की समस्याएँ याद आ जाती हैं।’

रोहित ने नेता के पहले बदचलन और अय्याश शब्दों को एडिटिंग से उड़ा दिया था। अब मैं उसे क्या समझाती कि जिस सच को पूरी दुनिया देख और महसूस कर रही है उसे झूठ कह देने से कुछ भी नहीं बदलेगा, बल्कि हमारी विश्वनियता भी दाँव पर लग जाएगी।

खैर, जितने यतन और निरंतरता से रोहित मुझे ताने मारता उतनी ही तत्परता और सहजता से मैं उन्हें अनदेखा-अनसुना-सा कर निरस्त कर देती। न वो अपनी ड्यूटी में कोताही करता और न ही मैं। दोनों बिना थके, बिना हार माने युद्ध के सिपाही की तरह अपने-अपने मोर्चे पर डटे रहते।

फिर ऐसा क्या हो गया कि रोहित को मेरी मनुहार करनी पड़ रही है? दरअसल मुख्य संपादक को आंतरिक मतदान की प्रक्रिया से चुनना है। मुझे मिलाकर चार व्यक्ति वोट देने वाले हैं और उम्मीदवार हैं दो। जाहिर है कि एक उम्मीदवार रोहित के सत्ता पक्ष का समर्थक है। अब मेरा चालू पति किसी भी तरह मेरा वोट उसे दिलवाना चाहता है। मिस्टर दयानिया और मिस्टर प्रसाद का दो वोट उसे मिलेगा यह तय है। पर मिस्टर कौशिक उसे कभी वोट नहीं देंगे। अतः रोहित यह चाहता है कि मैं अपना कीमती वोट उसे देकर रोहित के सत्ता पक्ष की दावेदारी को मजबूत बनाऊँ। अगर दोनों को बराबर वोट मिले तो ज्यादा तजुर्बे वाले को यह जिम्मेदारी दी जाएगी और फिर रोहित का उम्मीदवार हार जाएगा। कल साढ़े ग्याहर बजे का वक्त है वोटिंग का।

रात का डिनर जब टेबल पर लगा तो गट्टे की सब्जी से लेकर मिस्सी रोटी और फलूदा कुल्फी सभी कुछ मेरी पसंद का था। जब रिश्तों में प्यार हो तो ये चीजें बड़ी अच्छी लगती होंगी, मगर हमारे मामले में तो यह सब एक अनचाहा और नापसंद पैबंद सा लगता है। रोहित भी कितना कमअक्ल है जो यह समझता है कि एक दिन का झूठा प्यार दिखाकर वह मुझसे वो काम करवा लेगा जो शायद मैं उसके प्यार के दम पर भी नहीं करती! पसंद का भोजन होने के बावजूद खाने में मुझे कोई स्वाद नहीं मिला। मौके की नजाकत तो यह कहती है कि रोहित की यह छोटी सी माँग मानकर उसे मैं अपना मुरीद बना लूँ, मगर सच तो यह है कि दिल और दिमाग की टक्कर में हम चाहते तो हैं कि दिमाग की जीत हो, पर उसे हारने से बचा नहीं पाते। दिल हमसे वह सब करवा ही लेती है जिसे हमारी तार्किकता गलत करार देती है।

अगले दिन भी सुबह की शुरुआत रोहित की चापलूसी चाय के साथ हुई। उसका बस चलता तो मुझे वोटिंग के लिए खुद ड्रॉप करने चलता, मगर कुछ जरूरी काम की वजह से उसे सुबह आठ बजे ही निकलना पड़ा। दस बजे तक तो चार फोन कर दिए उसने–नाश्ता कर लो, समय से निकल जाना आजकल ट्रैफिक का पता नही होता वगैरह वगैरह। अपनी बड़ी कार ड्राइवर के साथ मेरे लिए घर पर छोड़ गया। जब मैं बिना कार के घर से निकलने लगी तो ड्राइवर सामने आ खड़ा हुआ। उसे डर था कि साहब उस पर गुस्सा होंगे जब उन्हें पता चलेगा कि मैं कार से नहीं गई हूँ। मैंने उसे समझाया कि साहब से मैं बात कर लूँगी, तब जाकर वह माना। मेरा दम घुटता है घर के माहौल में, दरअसल रोहित से जुड़ी हर चीजे से। उसका घर, उसकी गाड़ी, उसका पैसा यहाँ तक कि घर के नौकर-चाकर भी उसके। थोड़ी देर आजाद हवा में साँसें लेना चाहती हूँ। फिर चाहे वह हवा गर्म और अशुद्ध ही क्यों ना हो। पैदल चलकर अपने राजसी बंगले का मेन गेट पार किया और बाहर सड़क तक आई। तीन-चार मिनटों के इंतजार में ही एक ऑटो वाला मिल गया। मई की झुलसती दुपहरी भी मैं इंज्वाए कर रही हूँ। गर्म हवा के थपेड़े भी ताजगी और सुकून दे रहे हैं क्योंकि इनमें कोई भींगोकर ताने नहीं मार रहा। अभी चार दिन पहले की तो बात है। छुट्टी का दिन था और रोहित भी घर में था। हम दोनों चुपचाप बैठे थे। पता नहीं मेरे क्या मन में आया कि माहौल को थोड़ा खुशनुमा बनाने के लिए मैंने रोहित से कहा–

‘कितना कूल लग रहा है ना ए.सी. की हवा में। वरना शादी से पहले तो कूलर की घर्र-घर्र से कानों में दर्द हो जाया करता था।’

मैंने ऐसा कहा और मुझे रोहित की व्यंग्यात्मक हंसी देखकर अंदाजा हो गया कि मैंने बहुत बड़ी गलती कर दी है ऐसा कहकर। ‘कंगालों के घर पर तो कूलर ही होगा! तुम्हारे तो पूरे खानदान में किसी ने ए.सी. देखा भी नहीं होगा! मेरी तो मति मारी गई थी कि तुमसे शादी के लिए मैंने हाँ कह दी।’

इसे कहते हैं पैर पर कुल्हाड़ी नहीं वरन् कुल्हाड़ी पर पैर मारना। अब जवाब में मुझे भी तो कुछ कहना था।

‘तुम्हारी मति मारी गई थी जो तुमने मुझसे शादी कर ली। तुम्हारी बहन की मति मारी गई थी कि उसने एक कंगाल स्कूल टीचर से शादी कर ली। ऐसा लगता है रोहित कि तुम्हारे पूरे खानदान की मति मारी जाती है जब भी समझदारी दिखाने की आवश्यकता होती है। ऐसी पढ़ाई लिखाई किस काम की जो समय पर काम ही ना आए।’

‘मैं चाहूँ तो अभी के अभी तुम्हें घर से बाहर निकाल सकता हूँ। बकवास करने की जरूरत नहीं है तुम्हें। अपनी बेकाबू जबान को लगाम दो।’

‘एक बार ठंढे दिमाग से सोच लेना पहले। क्योंकि पूरी दहेज की विडियो फूटेज और फोटोग्राफ्स हैं मेरे पास, वो भी बैंक के लॉकर में। अगर मैं यहाँ से बाहर गई तो तुम्हें जेल में जरूर भेज दूँगी। और केस केवल दहेज का नहीं बल्कि एब्यूस और वर्ल्ं क्रूएल्टी का भी चलेगा। और हाँ, एडल्टरी तो मैं भूल ही गई। मिसेज चोपड़ा को मैं कैसे भूल सकती हूँ।’

जले पर नमक छिड़कना शायद इसी को कहते हैं। अब इस कमेंट के बाद रोहित की बोलती बंद हो गई। बोलती बंद होने के कई कारण हैं। एक तो यह है कि रोहित को यह पता है या यूं कहूँ कि मैंने पता चलने दिया है कि मेरे पास दोनों की विडियों रिकार्डिंग है। पूरे बीस हजार रुपए देकर मैंने होटल के वेटर से यह विडियों बनवाया था। सबसे दिलचस्प और खतरनाक कारण यह है कि मिसेज चोपड़ा रोहित के बॉस की बीबी है।

जब मैं दफ्तर पहुँची तो मेरा ही इंतजार हो रहा था। अई.ए.एस. की बीबी देर से भी आए तो लोग–‘मैडम आ गई, आइए मैडम’ वगैरह ही कहते हैं। वरना तो ये अच्छी डाँट लगाते मुझे। पर ये विलासिताएँ मुझे नहीं भातीं। मैं तो वही व्यवहार चाहती हूँ जो लोग एक आम आदमी के साथ रखते हैं।

वोटिंग शुरू हुई और खत्म भी हुई। परिणाम, जैसा कि अनुमानित था–दो-दो वोट दोनों को, रोहित के सत्ता पक्ष की हार। मुझे सुकून इस बात का था कि सच की जीत हुई और साथ ही इस बात की भी कि रोहित को मैंने फिर नीचा दिखलाया। चाहे उसने ही मुझे यह पद दिलवाया हो, पर मुझे सच्चाई और ईमानदारी से काम करने से कोई नहीं रोक सकता। मैं अपनी अंतरात्मा के साथ गद्दारी नहीं कर सकती। वोटिंग हालाँकि गोपनीय प्रक्रिया थी, मगर यह किसी से छिपी नहीं रहती।

शाम में जब रोहित घर आया तो जैसा कि स्वाभाविक था, बड़ा उखड़ा-उखड़ा सा था। मैं अपने कमरे में उदास होने की एक्टिंग कर लेटी हुई थी। रोहित सीधे कमरे में आया।

‘यह क्या किया तुमने? इतना समझाता हूँ पर तुम्हारे मंदबुद्धि दिमाग को यह बात समझ क्यों नहीं आती?’

‘तुम क्या कह रहे हो?’

‘जैसे कि तुम्हें कुछ पता ही नहीं। तुमने वोट समीर मनचंदा को क्यों नहीं दिया?’

त्रिया चरित्र को जीवंत करने का वक्त आ गया। मैंने अपनी आँखों में आँसुओं का बवंडर आने दिया।

‘मुझे पता था तुम मुझी पर अविश्वास करोंगे। तुम्हें यह लगता है कि मैं तुम्हारे खिलाफ जा सकती हूँ? मैं खुद हैरान हूँ। यह जरूर आपके दमानिया या फिर प्रसाद का काम है। साले तुम्हारे सामने यस सर, यस सर कहते रहते हैं और पीछे?’

मैं सिसक-सिसक कर रोने लगी और रोहित ठगा सा अविश्वास के साथ मुझे देखता रहा। आँसुओं ने अपना काम कर दिया था।

‘अच्छा चुप हो जाओ। मैं बॉस को यह बता दूँ, उसने मेरी कितनी क्लास ली है तुम्हें पता भी है?’

रोहित ने तुरंत मि. चोपड़ा को फोन मिलाया। मैंने अपने आँसू पोछे और छत पर आ गई–इस बनावटी और घुटन भरी दुनिया से दूर। कहते हैं कि प्यार और जंग में सब जायज है। रोहित के खिलाफ इस जंग में अगर मैंने झूठ बोलकर ही सच को बचा लिया तो क्या बुरा किया? इतना खूबसूरत चाँद भी जब बेदाग नहीं है तो मैं तो इनसान हूँ, गलतियाँ तो हो ही जाती हैं।


Original Image: Portrait of Marushka Artist’s Wife
Image Source: WikiArt
Artist: Alphonse Mucha
Image in Public Domain
This is a Modified version of the Original Artwork