छलना
- 1 October, 1949
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- 1 October, 1949
छलना
छलना अभी बालिका है–बालिका। मृगछौना-सी चंचल, कुसुम-सी कोमल। हँसती तो उसके जुही की कली की तरह छोटे-छोटे दाँत चमक उठते और खिसियाती तो बस, लाल टमाटर। उसके भावों से जान पड़ता कि उसकी छाती में कलाकार की आत्मा किसी सुषुप्त अवस्था में वर्तमान है और मस्तिष्क में सौंदर्य की अधखिली कल्पना।
जब मैं अपने घर के बाहर सजला सरसी के तट पर बैठा सुदूर क्षितिज में विलीन होते हुए सूर्य के लाल चक्के को देख रहा था तो वह मेरे कंधे पर झुककर बड़े गंभीर स्वर में बोली–“अमर बाबू, जी चाहता है कि मैं आपकी कल्पना की दुनिया की झाँकी लूँ। इस मिट्टी की दुनिया में तो सिर्फ गंदगी ही गंदगी मिलती है। शहर में भीड़-भाड़, गाँव में कीच-काच, बड़ों में एक-दूसरे से नोक-झोंक, माँ की पड़ोसवालों से खींच-तान; और तो और, मेरे स्कूल में भी वही चखचुख चलती। कहीं एक पेंसिल के लिए मार-पीट, तो कहीं बित्तेभर ‘सीट’ के लिए काँव-कीच! मुझे ये बातें जरा भी नहीं भातीं।”
मैं मुस्कुरा रहा था कि यह उम्र और यह बात! फिर हँसी दबाते हुए पूछ बैठा–“तो और बताओ, यहाँ क्या-क्या देखा?”
“कहीं भी सुंदरता नहीं देख सकी, तरसकर रह गई महज एक घूँट के लिए, मगर सौंदर्य का सिंधु दूर ही लहराता रहा।”
मैं घबराता–इस कोई तेरह-चौदह की ही उम्र में वह इतना क्यों सोच लेती है, कैसे समझ लेती है! फिर कह देता–“वाह री मेरी लाड़ली! तू तो सयानों को भी चूना लगाएगी! खैर, इन पचड़ों में दिमाग न खपाओ–अभी पढ़ो और खेलो, बड़ा होना तो दुनिया की नब्ज पर उँगली रखना।”
बात उसकी आँखों में बस जाती। कुछ भी हो, आखिर बालिका ही तो है!
× × ×
और आज जमाने बाद उससे मेला में सेमल पेड़ के नीचे अचानक भेंट हो गई। मैंने तो उसे बिलकुल नहीं पहचाना। वही बेसाख्ती टोक बैठी–“क्यों, आपका नाम अमर बाबू है न?”
“हाँ, तो फिर?”
“तो फिर यही कि आप क्या मुझे बिलकुल नहीं पहचानते?”–उसने जरा वैसी आँखें नचाते हुए कहा।
“अरे, छलना! अजी तुम? कहो, यहाँ कैसे आई?”
“चली आई सैर करने! और, बस आज ही भर हूँ भी। कल लौट जाऊँगी। एक मित्र के यहाँ ठहर गई हूँ। और आप?”
“मैं भी सैर करने ही आया हूँ। ‘सेसिल’ होटल में ठहरा हूँ। अभी रहूँगा।”
“वाह, तो फिर क्या कहने! आज शनिश्चर है, रात में ‘सेसिल’ होटल के ‘डांस-हॉल’ में मिलूँगी। इस वक्त इजाजत दीजिए।”
वह अपने मित्र के साथ बड़ी तेजी से निकल गई। मैं क्षणभर चकित खड़ा रहा। बालिका और नवयौवना में इतना अंतर! इतना जल्द!!
शिमले का ‘सेसिल’ होटल अपनी आन-बान, शान-शौकत के लिए काफी मशहूर है। यहाँ शनिश्चर की रात का इंतजार विलायती वायुमंडल में पले हुए नर-नारी बड़ी उत्सुकता और बेचैनी से करते हैं। बस, दो दिन पहले से ‘डांस-पार्टनर’ का चुनाव जारी हो जाता। ‘डिनर-जैकेट’ और ‘टीशू’ और ‘जार्जेट’ की साड़ियों के शिकन ठीक किए जाते, ब्लाउज और जूतियों का मेल खूब तौल-तौल कर बैठाया जाता और जाने क्या-क्या न होता!
और वह रात भी बड़ी हसीन रात होती। हसीनों का जमघट, नवेलियों की खिलखिल, शराब और विलायती सेंटों के मिश्रित भार से दबी हवा तमाम नाचती फिरती और हृदय का उन्माद मस्ती बनकर आँखों में मँड़राने लगता।
उस रात छलना के इंतजार में मैं फाटक पर बहुत देर से बुत की तरह खड़ा था कि अचानक उसके रिक्शे पर नजर पड़ी। रिक्शा रुक गया और ‘टीशू’ की कीमती साड़ी तथा जुगनू-से जगमगाते हल्के आभूषणों में छलना किन्नर-कुमारी की तरह उतरी और बड़े विनम्र ढंग से मुझे ‘नमस्ते’ किया। उत्तर में मैं हाथ जोड़ने ही को था कि हाथ बढ़ाकर उसने हाथ मिला लिया। उसके साथ उसका ‘पार्टनर’ भी था। हम अंदर जाने लगे तो रिक्शेवाले ने आवाज लगाई–“बाबू जी, कबतक खड़ा रहूँगा यहाँ?”
मेरे रोकने पर भी अपने पर्स से एक रुपया निकालकर छलना ने उसके सामने फेंक दिया।
“मेम साहब, भला यह क्या? कम-से-कम आठ आने तो और दीजिए। एक रुपये में कौन इतनी दूर पैर मारेगा? और देखिए, घोड़े की रफ्तार पर रिक्शा उड़ाता लाया हूँ।”
“ओ, नो! बहुत है! भागो यहाँ से!”
“मेम साहब, हम चार आदमी हैं, बाल-बच्चों का हिसाब अलग है। इसी रिक्शे की कमाई पर जिंदगी घसीटनी है। भगवान भला करे आपका। आपके लिए आठ गंडे ज्यादा नहीं और मैं इतने में ही ऐंठ जाऊँगा। और बख्शीश तो आप देंगी ही।”
“नॉनसेंस! चल हट। आठ आने भी चाहिए और बख्शीश भी! चोरी और सीनाजोरी–दोनों!”
“तो फिर मजूरी ही मिल जाए, मेम साहब!”
“हटता है कि नहीं! तभी से टर्र-टर्र कर रहा है।”–उसके पार्टनर ने भी गरजकर कहा, और, हम तीनों अंदर चले आए।
होटल के दरबान ने रिक्शेवाले को बाहर ही रोक लिया। रिक्शेवालों का अंदर आना मना है!
हम ‘डांस-हॉल’ में आकर अपनी सीट पर जम गए। हॉल में काफी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। रंग-बिरंग के लिबास, तरह-तरह की सूरतें–बुढ़ापे पर जवानी की पॉलिश, विलायती बोतल में हिंदुस्तानी अंगूरी, मोहक दृश्य और शैल-मालाओं की आनंददायिनी वायु!
मैंने छलना से कुछ शरमाते-शरमाते पूछा–“तुम्हारी तो काया ही पलट गई है। आखिर तुम क्या थी और आज क्या हो गई! पहचान में नहीं आती! तुम्हारी आँखों को घेरे काली-काली रेखाएँ भी बहुत स्पष्ट हो गई हैं तब से…”
“मैं कहूँ? बदल गई हैं आपकी आँखें। मैं तो जैसी थी, वैसी ही हूँ।”
“तुम तो सौंदर्य की उपासिका थी। कहो, सौंदर्य मिला तुम्हें?”–इस बार मैंने जरा गंभीर होकर पूछा।
“दुनिया की खाक छान गई मगर जिसे सौंदर्य कहते हैं, उसे सचमुच देख न सकी। यूरोप और अमेरिका की भी जमीन और आसमान देख चुकी हूँ, मगर…”
“तुम भी छलना, यह क्या कह रही हो?”
“सही बता रहा हूँ अमर बाबू! उसकी खोज में तो अपनी दुनिया बदल दी मैंने।..आइंदा…”
स्टेज पर बैंड बजने लगा। नाच शुरू हो गया। छलना अपने मित्र के साथ झूम-झूमकर नाचने लगी। वह मुस्कुराती भी थी, शरमाती भी। मानो वह उस दुनिया में रम गई हो। आनंदविभोर हो रसास्वादन कर रही थी, जग की रीति और जग की पीड़ा वह जैसे भूल-सी गई थी।
दो बजे रात में जाकर तो कहीं जमघट उखड़ा। छलना थक गई थी। जल्द घर लौटने को परेशान थी। एक संभ्रांत दोस्त की ‘कार’ पर उसे पहुँचाने का इंतजाम कर उसके साथ मैं भी बाहर आया। ऊपर देखो–आसमानी किले पर बादल घेरे डाल रहे हैं। नीचे टीप-टाप भी शुरू है और थोड़ी ही दूर पर पेड़ के नीचे एक ठिठुरा हुआ आदमी खड़ा है। उसकी नजर जो हमारी ओर मुड़ी तो वह एक साँस में दौड़ा चला आया और बड़ी आजिजी से बोला–“मेमसाहब, तभी से इंतजार में खड़ा हूँ। सिर्फ आठ आने की तो बात है!”
पलीते में जैसे बत्ती छू गई। छलना तड़प उठी–“कानी चित्ती भी न दूँगी। मैं भी एक ही हूँ। इस बदमाशी की भी कोई हद है! एक मील के बीच डेढ़ रुपये!”
वह मचलकर मोटर में बैठ गई।
मैं सोच रहा था–आज जोश में जाने ढाई रुपये के कितने ‘पेग’ उड़ गए होंगे–कुछ पेट में गए और कुछ फर्श पर–लेकिन इसके लिए एक अठन्नी भी जेब से निकालना पहाड़ हो गया।
गाड़ी खुलने-खुलने हुई तो मैंने भी मुस्कुराते हुए कह दिया–“तू भी छली गई छलना! संसार की किसी छलना ने तुझे भी छल लिया। अब संसार में कभी सौंदर्य तुम न देख सकोगी।”
गाड़ी निकल गई थी, मैं हँस रहा था, रिक्शावाला भी रात्रि की अँधियारी में खो गया।