सौदा

सौदा

सिंधु बॉर्डर से किसान आंदोलन को संबोधित कर जब घर आई तो पूसी काफी सुस्त और खिन्न लगी। जान पड़ता था, मेरी अनुपस्थिति में न तो किसी ने उसको ठीक से खिलाया-पिलाया था, न नहलाया-धुलाया ही। रात तो थकान से देह टूट रही थी, सीधे बिस्तर पर लुढ़क गई, पर सुबह उठते ही पहले पूसी को ही स्नान कराने का निश्चय किया। हल्की गुनगुनी धूप में उसे स्नान कराऊँगी तो उसका चेहरा आनंद से खिल जाएगा, ऐसा सोचकर मैं उसे पूरबवाली बालकनी में ले आई। यह मेरी वाशिंग मशीन वाली जगह है, इसलिए जल और उसके निकास दोनों की यहाँ अच्छी व्यवस्था है।

मेरा यह नया मकान जहाँ बना है, ठीक उसके बाजू में खाली मैदान है जिसमें बीच-बीच में कुछ बूढ़े-बूढ़े छतनार दरख्त खड़े हैं। इसी मैदान के ठीक सामने समाज के हाशिये पर रहनेवाले लोगों की झलास के तनों से बुनी हुई सिरकियाँ (डेरा) हैं। ये वे लोग हैं जो अपनी परंपरागत घुमंतू जीवन-शैली को छोड़कर अब गृहस्थ बन गए हैं।

इन छोटी-छोटी सिरकियों या झोपड़ियों के पीछे ताड़ के पत्तों को घेरकर कुछ जगहें बना दी गई हैं, जहाँ शराबखोर आए दिन छिपकर शराब पीते हैं, नशे में आँय-बाँय बोलते हैं, कुछ बेसुध होकर वहीं गिर जाते हैं और कुछ डगमग करते झूमते-झामते गालियाँ बकते, मुक्के तानते, आँखें तरेरते अक्सर अपने-अपने गंतव्य की ओर बढ़ते नजर आ जाते हैं। ऐसे अवसरों पर कई बार साइकिलवालों, बाइकवालों, रिक्शावालों से तकरार की घटनाएँ भी सामने आने लगी हैं। अगर कहीं किसी के मुँह से निकल गया कि अबे, बावला हो गया है क्या, सूझता नहीं क्या? मेरी साइकिल टूटेगी तो क्या तेरी अम्मा देगी? बस अब बैठे-बिठाये देखिए तमाशा, शराबखोर ने देवघर के पंडों से भी आगे बढ़कर सात पीढ़ी याद न दिला दी तो फिर कहिए!

इन्हीं सिरकियों में से जो हमारे सामने की झोपड़ी थी, उससे कभी कभार शाम के झुटपुटे में किसी किशोरी के रोने-गिड़गिड़ाने की आवाज सुनकर मैं विचलित-सी हो जाती। जीवनभर मैंने सामाजिक कार्यकर्त्ता की हैसियत से काम किया था, किशोरी की भयकातर आवाज, उसकी बेबस रुलाई मुझे बेचैन करने लगी। इसी कारण मैं धीरे-धीरे किसी-न-किसी बहाने उसके घर पर नज़र रखने लगी। कभी जाले निकालने के बहाने, कभी फूलों में पानी देने के बहाने तो कभी कपड़े सुखाने के बहाने।

जब वह सिरकी खुली और खाली होती तो मैं उसके भीतर झाँकने का प्रयास करती। घर क्या था, जेल की कोठरी ही समझिए जिसमें एक पुरानी चटाई, आलमूनियम के दो-चार जले-पिचके बरतन और लकड़ियों से जलनेवाला मिट्टी का एक चूल्हा जिस पर या तो कोई बरतन चढ़ा होता या फिर चूल्हे की आँच बुझी हुई होती थी। तीसरे पहर एक बूढ़ी औरत इस झोपड़ी के सामने शराब की एक दुकान लगा देती थी जहाँ के कुछ खरीदार तो एकदम तय थे। शराब पीने के पहले ही आँखों में नशा लिये ये दो-तीन शोहदे हर हफ्ते उपस्थित हो जाते, उस बूढ़ी औरत से हँसी-ठिठोली करते, दारू लेते और फिर धीरे-धीरे ताड़ के पत्तों के पीछे चले जाते। बुढ़िया क्रूर आँखों से झोपड़ी के भीतर जाने क्या इशारा करती और चिड़िया की भयभीत बच्ची-सी वह किशोरी पिछवाड़े धकेल दी जाती। …शोहदां के लौट जाने के बाद बुढ़िया उस किशोरी को उठा लाती, दोनों धीमे-धीमे खूब झगड़तीं और फिर परास्त व पस्त होकर निरुपाय किशोरी चटाई पर बेसुध पड़ जाती।

मेरे मन में अजीब-सी कुढ़न, चिढ़, क्रोध–आखिर माजरा क्या है? कुछ-न-कुछ तो गलत है। हो-न-हो बुढ़िया बच्ची से देह-व्यापार करवा रही है। नहीं होने दूँगी यह सब। पुलिस, हाँ पुलिस को खबर करूँगी। मज़ाक है क्या, ऐसा जघन्य अपराध! बच्ची का सामूहिक बलात्कार! अच्छा, पुलिस को फोन करने से पहले बुढ़िया से उन शोहदों का अता-पता जानना भी जरूरी है। कहीं विधवा-अबला जानकर वे लोग उसे डरा-धमकाकर बच्ची का गलत इस्तेमाल तो नहीं कर रहे। नहीं, मैं न्याय दिलवाऊँगी, मैं बचाऊँगी उस फूल-सी बच्ची को।

इन्हीं ख्यालों में डूबी मैं आखिर एक दिन उस बुढ़िया की दुकान पर पहुँच ही गई। मुझे देखते ही बुढ़िया एकदम सकते में आ गई, एक बड़ा-सा प्रश्नचिह्न उसके चेहरे पर लटक गया, फिर भी अपनी असहजता को पूरी तरह घोंटकर उसने पूछा–‘बीबी जी आप? आप ही न मालकिन हैं इस मकान की?’–उसने मेरे घर की ओर चाहत व हसरत भरी नजरों से देखा और फिर कहने लगी–‘बहुत काम करती हैं आप। कई बार सोचा, आप जैसे बड़े लोग इस मलिन बस्ती में कैसे आ गए! पर एक बात तो सच है कि अब शहर में जमीन ही कहाँ है! जो है, बड़ी महँगी होती जा रही है। सुना है, कई बड़े हाकिमों ने भी इसी इलाके में जमीन ले ली है।’

मैंने इधर-उधर भटकाने की उसकी नीयत को बहुत पहले ही भाँप लिया था, इसलिए बिना किसी भूमिका के अपनी बात शुरू की–‘अच्छा ये बताओ, तुम नहीं जानती, शराब कितनी घटिया चीज है? क्यों बेचती हो इसे? कोई और धंधा कर लो।’ बुढ़िया ने बड़ी व्यंजक हँसी के साथ बात को उड़ाने की कोशिश की। तब मैंने उसे सीधे घाट पर उतारा–‘तुम्हें शरम नहीं आती, कोमल कली-सी इस बच्ची की देह को तुमने उन शोहदों का खिलौना बना दिया है। तुम्हें पता है, यह अपराध है, घोर अपराध, खबर कर दूँ तो अभी थानेदार परमेश्वर तुम्हें मोटे-मोटे रस्सों में कसकर ले जाएगा, महिला पुलिस मार-मारकर तुम्हारा थोबड़ा बिगाड़ेगी सो अलग। फिर कभी छूट भी न पाओगी। बोलो, जानती हो कितना बड़ा अपराध कर रही हो?’

बुढ़िया की अनुभवी आँखों में एक विचित्र ढिठाई झलक गई। बोली–‘और धंधे तो बीबी जी अपना दाम देंगे। इस धंधे में तो मुँहमाँगा मिल जाता है। पेट की आग जो न कराये। एक अनपढ़ गरीब बेवा की जिंदगी काटना कितना कठिन होता है, आप क्या जानें बीबी जी?…’

मेरा कलेजा धड़क गया। राम-राम, क्या बोल रही है ये? किसी अनहोनी की आशंका से मैं एकदम सिहर गई। फिर भी अपने मकसद को पाये बिना मुझे कब चैन पड़ा है? मैंने सीधे प्रश्न ठोंका–‘शराब बेचती हो, बेचो, लेकिन लड़की क्यों बेचती हो जी? क्यों भेजती हो उसे उन शोहदों के साथ? जानती हो, वे भूखे भेड़िये तुम्हारी लड़की के साथ क्या कर रहे हैं?’

बुढ़िया के पोपले मुँह पर टँकी बड़ी-बड़ी गोल आँखें सहसा गीली हो गईं, पर तुरंत ही उसने अपने आपको जब्त कर लिया और दोनों हाथों से अपनी साड़ी की कोर को मसलने लगी। उसके होंठों पर एक मजबूर किंतु क्रूर मुस्कान तैर गई। बोली–‘लेकिन…लेकिन तब दारू भी तो न बिकेगी न बीबी जी!’

अपने प्रति मेरे सहानुभूति के शब्द सुनकर वह भोली किशोरी भी बाहर निकल आई थी। बुढ़िया ने उसे देखा और जोर-जोर से रोने लगी। मेरा विद्रोही मन और बिफर पड़ा। ना, इस बच्ची को तो न्याय दिलाकर ही रहूँगी।

मैंने थाने में फोन लगाया और अपने मुहल्ले में चल रहे इस घिनौने धंधे की जानकारी दी। सामाजिक कार्यकर्त्ता के रूप में शहर में मेरी प्रतिष्ठा थी। पुलिस को आते देर न लगी। मैंने पुलिस को पूरी बात समझायी और उस बुढ़िया की मजबूरी का ध्यान रखते हुए कोई निर्णय लेने की हिदायत दी। सिपाहियों ने ताड़ के पत्तों वाली सारी जगहें तहस-नहस कर दीं और बच्ची समेत बुढ़िया को अपने साथ ले गए।

इधर कर्नाटक का चुनाव घोषित हो गया और मैं अपनी पार्टी की ओर से बंगलोर भेज दी गई। रात-दिन चुनाव-प्रचार, भाषण-रैली, चुनावी व्यवस्था की व्यस्तता–कई महीने बीत गए। मेरे मस्तिष्क से उस घटना की स्मृति भी धूमिल होने लगी। लेकिन इसी बीच खबर मिली कि पिता जी सख्त बीमार हो गए हैं। आनन-फानन में सब कुछ छोड़कर मैं पटना चली आई।

शाम को जब अस्पताल से लौटी तो देखा वही बच्ची हाथ में प्रसाद का डिब्बा और माला लिये मेरा इंतजार कर रही है। मेरी याद ताजा हो गई। मैंने पूछा–‘कैसी है तू?’ बच्ची ने पाँव छू लिये, बोली–‘आंटी, पुलिस अंकल तो बहुत अच्छे इनसान हैं। उन्होंने थाने के सामने हमारी चाय-पकौड़ी की एक दुकान खुलवा दी है। अब हम खुश हैं आंटी!’

उसने लपककर मेरे गले में माला डालने की कोशिश की। मैंने झट से माला उसके गले में डाल दी और कहा–‘जीत तो तेरी हुई है पगली।’


Image : Gypsy Boy by a Hut
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Artist : August von Pettenkofen
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