घर और घोंसला
- 1 April, 1951
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- 1 April, 1951
घर और घोंसला
“…मैं जब तीर निकाल रहा था तो पंछी का विशाल सुंदर पंख मेरे सिर पर आ लगा। छाया के अंचल तले विश्वास ने साँस खींची।
और मुझे लगा पंछी का दम टूट गया है।…”
जिस दिन पंछी ने मेरे कमरे की ऊपरी कार्निस पर बैठकर अपना घोंसला बनाया, वह दिन मुझे खूब याद है।
पंछी अपने नीड़ में अकेला था।
मैं भी अपने भरे-पूरे घर में अकेला ही था। पंछी ने न जाने क्या सोचकर अपने नीड़-निर्माण के लिए मेरा घर चुना। मुझे भी न जाने क्यों अच्छा लगा कि किसी ने मेरे घर में अपना घोंसला बनाया।
… …
पंछी और मैं दोनों एक साथ रहने लगे।
सुबह जब मैं नाश्ता कर रहा होता तो पंछी अपने घोंसले से उतरता और धीरे-धीरे फुदक कर मेरे पास आता।
पंछी और मैं दोनों एक साथ भोजन करने लगे। खाना खाकर जब मैं अपने दफ्तर जाने लगता तो पंछी कंधे पर आ बैठता।
मैं उसके हलके-हलके अंगों को प्यार से निहारता। वह भी एक स्नेह भरी निगाह डालकर फुर्र से उड़ जाता अपने जीविकोपार्जन के लिए। और मैं भी चल देता अपनी रोटी कमाने के लिए। संध्या समय जब मैं शयन-कक्ष में प्रवेश करता तो पंछी अपनी ‘चुहचुहाहट’ से मुझे आश्वस्त कर देता कि ‘मैं आ गया हूँ।’
… …
अपने-अपने जीवन पथ पर पंछी और मैं–दोनों साथ-साथ बढ़ने लगे।
मैं कहता तुम मुझे सुबह का गीत गाकर जगा दिया करो भाई और वह मुझे जगा देता।
मैं कहता तुम्हारे बड़े-बड़े पंख बड़े सुंदर हैं–मुझे भी उड़ना सिखा दो न? तब वह नर्तन की मुद्रा में चल-फिर करता।
मैं कहता तुम्हारे लोचन बड़े रसीले हैं तो पंछी अपनी आँखों से करुणा भरी रस की दो बूँदें छलका देता।
… …
पंछी के और मेरे दोनों के संबंध साथ-साथ ही घनिष्ट होने लगे–
जैसे दृष्टि सौंदर्य को पहचानती है, जैसे कान स्वर का आरोह-अवरोह जानते हैं, जैसे साँस साँस की गति समझती है, जैसे हृदय आदान-प्रदान का रहस्य बूझता है।
मैं कहता पंछी तुम धूल में लोटकर आ रहे हो? तुम्हारे शरीर की सुगंध बड़ी मादक है–
मुझे लगता, पंछी भी अपने भावों में कुछ ऐसा ही कहता कि मिट्टी में पले हुए साथी, तुम अपनी सुगंध क्यों भूलते हो?
पंछी और मैं दोनों पृथ्वी-पुत्र कहकर संबोधित किए जाने लगे।
… …
उस दिन की साँझ रंग-रंगीली-सी। पंछी लौटकर आया तो लगा उसका मन फूला-फूला-सा। और जो मैं दफ्तर से आया सो एकदम थका, हारा, बोझीला।
मैंने कहा–रंगीले, अपने विशाल और मनहर पंख फैला दो, मैं उनकी छाया में सिर छुपाकर तनिक विश्राम करूँ–
कौन जाने पंछी को लगा हो कि पंख तले जगह देने पर उसके सौंदर्य, शक्ति और शील का रहस्य खुल जाएगा
कौन जाने मेरी वाणी ही इतनी करुणार्द्र न थी कि जो स्नेह जगा पाती।
पंछी ने अपने पंख न खोले, न खोले, न खोले।
उस दिन से पंखों की गहरी छाया खोजता भटक रहा हूँ।
… …
दूसरे दिन मेरी छुट्टी थी। पंछी भरी दुपहरी में लौट आया। घबराया-सा, हाँफता हुआ, चीखता हुआ। सौंदर्य-लोभी किसी बहेलिए ने उसे तीर मार दिया था। घाव के रक्त के छींटों ने पंखों को भी बुरी तरह रंग दिया था।
मैंने कहा–छबीले, मेरे पास आओ, मैं तुम्हारा तीर निकाल दूँ, आँसुओं से घाव धो दूँ। हाथों से शीतल लेप कर दूँ। हृदय में समेटकर तुम्हें हलका कर दूँ।
मेरे मानस के उस पंछी में जाने कौन बोला कि जिसे पंख तले की छाया का अधिकार नहीं वह शरीर की पावनता कैसे छू सकता है?
मैंने कहा–दर्दीले, तो तुम कहीं और जाकर अधिक विश्वास की खोज करो–पर जल्दी करो–तीर गहरा जो लगा है।
उस दिन से पंछी अधिक विश्वास की खोज में भटक रहा है।
… …
एक युग बीत गया।
घर गिर गया।
घोंसला उजड़ गया।
मुझे गहरी छाया न मिली।
उसे अधिक विश्वास न मिला।
मेरी थकान न मिटी।
पंछी का तीर नहीं निकला।
और तब से हम दोनों ही भटक रहे हैं।
… …
एक युग और बीत गया।
ममता के धागे ने मुझे घर की ओर खींचा।
खंडहर के ढूह पर बैठे लोग चर्चा कर रहे थे।
एक ने कहा–इस घर में रहने वाला गहरी छाया की खोज में दीवाना-सा मारा-मारा फिरता है।
दूसरा बोला–जिस दिन से तीर लगा उस दिन से इस घोंसले का पंछी यहाँ नहीं देखा गया।
और अचानक मैंने देखा मेरा पंछी पंख फड़फड़ाता हुआ आसमान से नीचे उतर रहा है।
… …
मैंने पंछी को पहचाना।
पंछी ने मुझे पहचाना।
उसने कहा–आओ साथी, मैंने पंख फैला दिए हैं। मैंने कहा–हठीले पंछी, मैं पहले तुम्हारा तीर तो निकाल दूँ।
मैं जब तीर निकाल रहा था तो पंछी का विशाल सुंदर पंख मेरे सिर पर आ लगा। छाया के अंचल तले विश्वास ने साँस खींची।
और मुझे लगा पंछी का दम टूट गया है। फिर मुझे होश नहीं रहा कि बाद में क्या हुआ। कहानी का क्रिया-कर्म दूसरों ने किया।
Image Source: Wikimedia Commons
Artist: Ustad Mansur
Image in Public Domain