घरौंदे

घरौंदे

उसका फोन आया और मैं एक अजीब तरह के पशोपेश में पड़ गया। वह मेरी दोस्त नहीं है, क्योंकि दोस्त बनाने की कला मुझे नहीं आती। फिर भी वह जो कुछ पूछती है, मुझे उसका जवाब देना पड़ता है। अमुमन बातचीत हमारे शहर को लेकर होती है, और अंत में वह जरूर कह देती है कि हमारा शहर विभिन्न संस्कृतियों का एक ऐसा गुलदस्ता है जिसमें भिन्न-भिन्न किस्म के फूल खिलते हैं। वह उसे छूना भर चाहती है, यहाँ की सुगंध को महसूस करना चाहती है।

मैं उसे आश्वस्त करता हूँ कि मेरा लहजा तंज का होता है–समय की प्रतीक्षा करो सोफिया, फिर एक दिन तुम ही कहोगी–‘यह क्या हो गया इस शहर को यहाँ भाँति-भाँति के जीव रहने लगे हैं।’ ‘कब तक–समय तेजी से बीत रहा है। जब सब कुछ बदल जाएग तब–’ उसने आज भी उतनी ही उत्सुकता से पूछा था।

‘नहीं, शहर की फिजां बदल भी जाएगी तो भी, गुलाब और गुलाब की रंगत बची रहेगी।’

बातों का सिलसिला बढ़ता रहा–यादों का कारवाँ चलता रहा और मेरे कदम इतनी सावधानी से आगे बढ़े, जैसे कदम रखने पर जमीन को चोट लग जाने का डर हो।

रामलीला मैदान में पहुँच गया मैं, उसे बता भी दिया।

वह मुझे देख नहीं सकती थी, फिर भी मैंने सेल्फी लिया और उसकी स्मृतियों में लौटने की पहल कर दी।

उसने भी ठीक वैसा किया–उसकी बातों से लगा वह बहुत खुश है, उसने समय के साथ सेल्फी लेना सीख लिया है। उसकी अँगुलियाँ भी वैसी ही थिरकी होंगी मोबाइल पर जैसी मेरी। मैं उसके चेहरे पर उड़ते हुए गुलाल की रंगत देखने को उत्सुक हुआ। दरअसल पिछली बातचीत चुटकी भर गुलाल उछालने की हुई थी, और मैंने मुट्ठी भरकर तबीयत से उछाल दिया था।…

चारों तरफ गुलाल ही गुलाल। उगते हुए सूरज को देखा यह सोचकर कि उसने भी गुलाल उछाला होगा तो निश्चित रूप से सूर्य के रथ पर आरूढ़ वह रामलीला मैदान तक अवश्य पहुँच जाएगा। परंतु, वह मेरा सपना भर रहा, उस तरह की रंगीन सुबह नहीं निकली। ना गुलाबी आसमान था और ना मैं मुट्ठी भर गुलाल उठाकर उससे सराबोर हो सका। पता नहीं क्यों मुझे ऐसा एहसास हुआ जो जितनी ऊँचाई पर होती है–सोने सी होती है–आम आदमी की पहुँच से दूर। और मेरी पहुँच से तो बहुत ही दूर। वे किरणें जो मुझे अंगारों से निकली प्रतीत हो रही हैं, जो जलाएँगी नहीं तो झुलसा जरूर देंगी।

मैंने फिर से उन किरणों को देखा धीरे-धीरे अपना रंग बदलने लगी। आग का गोला अब स्वर्ण-पिंड सा चमकदार, उससे निकलने वाली किरणें स्वर्णिम लगने लगीं–ये किरणें जितना भी सोना बरसाएँ, गरीबों का पेट और अमीरों की तिजोरी भरने से रहा। जीवन में हर कोई ऊँचाई की तरफ देखता है और अपना कदम बढ़ाने से पहले सोचता है–जैसा कि मैं सोच रहा हूँ–सूरज की तरह।

सूर्य को देखकर भले ही मुझे दिन होने का एहसास हो रहा था–क्षितिज के उस पार सोफिया भी ऐसा ही महसूस कर रही होगी या फिर सूर्य उगने पर उसने भी ऐसा ही सोचा होगा कि मैं चढ़ते सूर्य की स्वर्णिम किरणों को पकड़ लूँ और अपने आँचल में कैद कर लूँ।

यकायक मेरी हँसी फिसल गयी। मैंने चढ़ते हुए सूरज की तरफ देखा तो आँखों में पानी सरसरा आया। सुबह की गुलाबी ठंड मुझे ज्यादा महसूस होती थी। कान-नाक में मफलर बाँधकर और सिर पर टोपी पहन लेना मेरी आदत बन चुकी थी। आँख उठाकर समय का अनुमान लगाने को फिर से मैंने सूरज की तरफ देखा तो मेरी टोपी नीचे गिर गयी। टोपी का गिरना मुझे अच्छा नहीं लगा–यह संयोग ना मानकर मुझे घटना लगी और मैं शुभ-अशुभ का फलाफल का गणित बैठाने लगा–टोपी है सिर से गिर गयी भला इसमें कौन-सी नयी बात है या कौन–घटना घट गयी। उसी पल सोचने लगा–टोपी जो मेरे दादा-परदादा से विरासत में मिली है–उसे सूर्य हमेशा गिराने का उपक्रम ही नहीं करता, गिरा भी देता है जैसे कि आज गिर गयी। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। सूर्य तो जब भी ऊँचाई पर पहुँचता है उसमें विनम्रता का भाव आना चाहिए। टोपी सिर्फ सिर ढकने का कपड़ा नहीं होती, वह हर किसी की इज्जत होती है। किसी की इज्जत उछालना ठीक नहीं होता।

‘मैं टोपी उठाने को झुका था।’ यह भी मैंने सोफिया को बता दिया। वह बोली, ‘यह मैदान है। टोपियाँ मैदान में ही तो उछलती और गिरती हैं। यह कोई नई बात नहीं–वर्षों से इस मैदान में ऐसा सिलसिला चला आ रहा है। हमारे बाप-दादा कहते थे, जब-जब टोपियाँ उछलती और गिरती थीं ढोल-नक्करों की गूँज सुनाई पड़ती थी। शहनाई का बजना सभी को भाता है, परंतु रणभेरी बजने की प्रतीक्षा किसी को नहीं रहती, रणभेरियाँ हमेशा निर्मम और परंपराओं को ढोती और जीवन को विचलित करती रही हैं।

यह बात नहीं कि मैं पहली बार रामलीला मैदान में गया था, बल्कि बचपन में सोफिया के साथ इसी मैदान में खेला करता था। सलमा, नगमा, फातिमा, मनोज और अहमद सभी साथ होते थे। हँसना-खेलना और मौजमस्ती जैसे साथ-साथ इसी मैदान में सीखा था। वे सभी उम्दा लड़कियाँ थीं और मुझसे संजिदा व्यवहार करती थीं और मैं भी…तब आज की तरह घड़ियाँ नहीं होती थीं। हमलोग रेतघड़ियाँ बनाते थे। ठीक दोपहरी में जब परछाई पाँव तले होती थी तो, ठीक बारह बजने का अनुमान सही होता था। और फिर हम अपने-अपने घर को लौट आते थे। एक दिन सोफिया ने ही मुझसे पूछा था–‘कहाँ रहते हो भाई!’

मैंने उसकी तरफ देखे बगैर बताया –‘पहाड़गंज, छह नंबर गली, मुल्तानी ढांढा।’

‘यानी शीला सिनेमा के पीछे कहीं–।’

‘हाँ, वहीं–।’

‘हमलोग कुण्डेवालान–।’

बस इतना ही परिचय हुआ था या फिर कहूँ हमने एक-दूसरे की जिंदगी में इतना ही झाँका और आज तक हम अच्छे दोस्त बन गये। इससे अधिक एक-दूसरे के भीतर झाँकने की जरूरत ही नहीं पड़ी–मुझे याद है हमलोग अपनी-अपनी रेतघड़ियाँ और घरौंदे बनाते बहुत खुश होते थे–पहला घरौंदा बनाने पर तालियाँ बजा-बजाकर नाचते थे। मैदान के एक किनारे से दूसरे किनारे तक उछलते-कूदते थे–कहाँ गये वे दिन–आज मैदान में ना रेत थी और ना रेतघड़ियाँ और ना ही घरौंदे बनाने की जगह। दरअसल समय बदल चुका है। जिस दिन नगर निगम के कर्मचारियों ने मैदान को पाटने का काम शुरू किया था, उसी दिन यह खबर बिजली की तरह फैली थी। तब सोफिया ने पूछा था, ‘भाई क्या कभी रामलीला मैदान जाते हो–वहाँ जाकर देखा, कि वहाँ मेरा घरौंदा सुरक्षित है और तुम्हारा भी–’

‘तुम भी सोफिया! कितनी छोटी बात को मन से लगा रही हो–तुम्हारा विवाह हो चुका। तुम इस शहर को छोड़कर अलीगढ़ में पक्का मकान बनवा चुकी हो। बचपन में कभी घरौंदे बनाये थे–अब उनकी चिंता करने का क्या फायदा।’

‘…ठीक कह रहे हो भाई! शायद मैं भूल रही हूँ या फिर मुझे उस दिन को भूल जाना था कि अब 1947 से पहले के घरौंदे नहीं रहे–घरौंदों का नक्शा बदल गया है। मगर एक बात कहूँ भाई! जब हमलोग बच्चे थे, घरौंदा बनाना सीख रहे थे, तब तो वहाँ पुराने घरौंदे मौजूद थे, उन्हीं को देख-देखकर हमने घरौंदा बनाना सीखा था।’

‘ओह सोफिया, आज भी हमारे अपने-अपने घरौंदे हैं, ईंट, गारा और लोहे से बने हुए।’ इतना भर कह कर हम चुप्प हो गए थे। फिर ख्याल आया कि यह चुप्पी हमें तोड़नी चाहिए, सोफिया का शहर बदल गया तो क्या हुआ। इस शहर से रिश्ता तो नहीं बदला, रिश्तों में ही तो दुःख और सुख बँटते हैं। वैसे तो, टेलीफोन का बिल बढ़ रहा है–घर से कई सवाल उठ सकते हैं–बिजली-पानी के बिल अधिक क्यों आया। कौन चोरी-छुपे फोन करता है। हम दोनों ने एक जैसा ही सोचा होगा इसलिए उसने जो कुछ कहा उसे मैंने सुना और मैंने जो कहा उसने सुना कि अब उम्र की दराज पर हम में बढ़े बिल के लिए कोई बहाना ढूँढ़ने की ताकत भी तो नहीं रही।

‘ऐसा हमलोग अपनी बातों में ना कहें तो अच्छा है–दीवारें सुनती हों या नहीं, फोन की आवाजें तो सुनी ही जाती हैं भाई।’

हम दोनों की एक जैसी राय बनी और मैंने बात का रुख बदलने के लिए कहा, ‘मैं वहाँ चला भी जाऊँ तो अपने घरौंदे पहचानूँगा कैसे। हमने तो घरौंदे बनाए और छोड़ दिये। उन्हें ना कोई नाम दिया था और ना ही कोई निशानी ही छोड़ी थी।’ सोफिया इस संदेह का भी हल नहीं ढूँढ़ सकी। वह चुप्प हो गयी और मैं भी। फोन कट गया और उन्हीं घरौंदों को देखने को आतुर मेरी आँखें यहाँ तक ले आयीं। यह देखने की सोफिया की स्मृतियों में सँजोए घरौंदे कहाँ और किस हाल में होंगे। अब जब भी उसका फोन आएगा, उसे साफ-साफ कह दूँगा, तुम अपना घरौंदा देखना चाहती हो तो यहाँ लौट आओ बहन! मेरे लिए मुश्किल है पहचान पाना कि तुम्हारा कौन-सा है। घरौंदे पर ना तुमने कोई निशानी छोड़ी और ना मैंने–’

सोफिया मेरी इस पेशकश पर नहीं हँसेगी बल्कि आँख दिखाती हुई कहेगी–‘67 साल के हो चुके हो भाई! अब सठियाने लगे हो। हमारे बनाये घरौंदे से नगर-निगम को क्या लेना-देना। वो हमारे पुराने घरौंदे क्यों तोड़ेंगे। वे हमारे बनाए हुए हैं–हमारे हैं। घरौंदा बनाना हमारे बाप-दादा और परदादा ने सिखाया था। जरा याद करो भाई! उस दिन को जब घरौंदा बना लेने के बाद हमलोग गेंद खेलने लगे थे। तुमने गेंद जोर से फेंकी और वह लुढ़कती हुई दूर तक चली गयी। पूरे दिन ढूँढ़ते रहे–गेंद नहीं मिली। नयी गेंद ला नहीं सकते थे। निराश होकर हम घर को लौट गये। सुबह-सुबह तुम आये और मैं भी। शायद रातभर सो नहीं सके, ऐसा तुमने कहा था और मैंने भी। हम दोनों तेजी से रामलीला मैदान में दौड़े थे और तुमने ही कहा था–हमें ऐसे नहीं दौड़ना चाहिए। यहाँ झाड़ियाँ और पुराने घरौंदे हैं, उनमें साँप हो सकते हैं–विषैले साँप। तब हमने देखा–हमारे घरौंदे जस के तस हमारे लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे। उस समय बेहद खुशी तब हुई जब देखा मेरी गेंद जिसे तुमने फेंका था, वह तुम्हारे बनाए घरौंदे में थी। हमलोगों ने जरा यह भी नहीं सोचा था कि गेंद हमारे ही घरौंदे में छुपी हो सकती है। गेंद लुढ़कती, बलखाती जिस तरह तेजी से गयी उससे उन घरौंदों को टूट जाना था, परंतु वे घरौंदे आज की गगनचुंबी इमारतों से कहीं अधिक मजबूत बुनियाद पर बने थे–जिन्हें हमें अपनी खुशियाँ बाँटने के लिए ही तो बनाते थे। जाओ, आज भी वे घरौंदे वहीं मजबूती से खड़े होंगे।’

ज्यों-ज्यों सूरज चढ़ता गया। गुलाल की रंगत धुंधली हो चुकी थी। हाथ भर दिन चढ़ आया था और मैं स्मृतियों में बसे घरौंदे ढूँढ़ने लगा। 67 वर्ष में वे टूटे ही नहीं, हमारे सपने भी टूट चुके थे। कुछ ही दिन पहले जब चुनावों का बाजार गरम था–यहाँ बड़ा भारी भरकम मंच बनाया गया था। जाति-धर्म और सांप्रदायिकता के जहर को मारकर एक मजबूत राष्ट्र का निर्माण के मंत्र उच्चारित किए गये थे। परंतु जो घरौंदे पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनते रहे, उन्हें सँजोकर रखने की बात किसी जनप्रतिनिधि की जबान नहीं कह सकी थी। राम-रावण युद्ध और मेघनाद वध को सभी ने दोहराया था। मैं सोच में डूब गया और अपनी अल्पज्ञता पर स्वयं को कोसने लगा कि सचमुच जनप्रतिनिधि कुशाग्र बुद्धि के होते हैं। उन्हें सौ-दो सौ साल इतिहास को याद करने की क्या जरूरत। द्वापर-त्रेता युग की कहानियाँ उनकी जबान पर रची बसी हैं। असत्य पर सत्य की विजय का दिन याद है–उन कथाओं को आज याद करना यानी रामलीला मैदान का नया संस्कार करना जैसा है। बचपन भी कैसा विचित्र जीवन होता है। उसकी मधुर स्मृतियों को मैं मस्तिष्क से कभी का खारिज कर चुका था, आज वे स्मृतियाँ मस्तिष्क में खेलने लगी थीं। मैदान के एक कोने को छान मारा तो दूसरे छोर की ओर कदम बढ़ गए। एक अजीब तरह की मिली-जुली बास से उबकाई आने लगी। चुरैन और डी.डी.टी. पाउडर की गंध। ऐसा पहले नहीं था। मैदान की हरियाली को याद करने लगा। उन दिनों को याद करने लगा, जब गुलदावरी, गुलाब और अमलतास इस मैदान में खिलखिलाते थे। सुबह-शाम की सैर को आये लोगों से मैदान भरा रहता था। तब इंसानियत की गंध अवश्य महकती थी–जगह-जगह लिखा होता था–हरी घास पर चलना और फूल तोड़ना मना है।

बहरहाल पेशाब से बजबजाती जमीन को देखकर यह रामलीला मैदान अब सैरगाह नहीं रहा। पिछले वर्ष एक के बाद दूसरे आयोजन ने मैदान की रंगत ही बिगाड़ दी थी। यह मेरा सोचना था। आयोजनों को नाजायज ठहराना मन को गंवारा नहीं। दुनिया में अपनी बात कहने का सबसे नायाब तरीका था। लोकतांत्रिक देश में ऐसे मैदान से अपनी बात कहने की गुंजायश होती ही है। मंच से जो भी शब्द निकल रहे थे, वे गगनचुंबी इमारतों के बीच कई दिनों तक प्रतिध्वनित होते रहे। बेजान होते शहर में यह प्रतिध्वनि एक तरह से कानों में मधुर संगीत का रस घोलती रही। ऊँची-ऊँची इमारतों में रहने वाले लोगों के साथ-साथ इमारतें भी लंबी साँस लेने लगी थीं।

यकायक 16 दिसंबर की घटना ने ऊँची-ऊँची इमारतों में रहने वाले लोगों की साँस ही नहीं रोकी, यह रमणीय दिन सदा-सदा के लिए हमसे कलंकित हो गया। प्रतिध्वनि में झूमती इमारतों को मौन साधे रहने का शाप भी मिल गया। जनप्रतिनिधि यह भी भूल गये थे वे जब रामलीला मैदान के मंच से बोलते हैं, उस समय कितने लोगों के मन दुखी होकर भी टूटते हैं–

उन घटनाओं को याद करता हूँ तो लगता है शब्दों पर पंख लगाकर उड़ाना जितना सरल है–उन शब्दों को दिशा देना उतना ही कठिन। दिशा ज्ञान का अभाव भटकाता है और भ्रमित भी करता है। जीवन को मृत्यु संकट में डालने से कम पीड़ादायक नहीं होता’ क्योंकि एकतामूलक समाजों में खाने-पीने रहने और अपनी बात कहने की आजादी से लबरेज राष्ट्र की कल्पना दुनिया के किसी भी सभ्य समाज में एकदम अलग जीवन तो रचती ही है।

16 दिसंबर की घटना ने जीवन को रचा नहीं, नष्ट ही किया है। अचानक इस घटना की याद मुझे तीर की तरह लगी और मेरे हाथ-पाँव बिध गये थे। मैं लड़खड़ाता हुआ राजपथ से निकलने वाली 26 जनवरी की झाँकियों के उस पथ की ओर बढ़ने लगा जो अजमेरी गेट के चौराहे से होते हुए श्रद्धानंद मार्ग को छूते हुए चाँदनी चौक को जाता है। अजीब तरह की बेचैनी से मेरे कदम उस गली के नुक्कड़ पर ठहर गए–जो हिंदी के गाँधीवादी लेखक विष्णु प्रभाकर के आवास की तरफ जाता था। उसी क्षण सोचा वे अब यहाँ नहीं रहते, उनसे जुड़ी-स्मृतियाँ जरूर रहती होंगी।

मैं श्रद्धानंद मार्ग की तरफ बढ़ गया। बालकनियों में बीसियों कलाइयाँ खनकती, हवा में लहराते हाथ दीखे। मैं मन ही मन खुश हुआ। उन्हें गौर से देखा–कलाइयों में रंग-बिरंगी चूड़ियाँ खनक रही थी। उनकी चूड़ियाँ इनसान की बोली बोल रही थीं–उनके कंठों से रुदन और मुक्ति के लिए छटपटाहट का शोर सुनाई पड़ रहा था। वे उन दड़बों से मुक्त होकर खुले संसार में उड़ान भरना चाहती थीं। बार-बार हवा में लहराते हाथ जैसे हर किसी को बुला रहे थे और मन की कथा-व्यथा कहना चाहते थे।

मैं झल्लाया। नहीं, नहीं सुनाना चाहता मैं एक और कहानी। सुनते-सुनाते कान पक गये हैं। अपने जीवन के पैंसठ झाकियों की कहानियों को मैं नहीं समझ सका तुम्हारी कहानी सुनने का समय नहीं है मेरे पास। देख रही हो मुँह लटकाए भ्रमित सा इस तरफ को चला आया, जबकि मेरा रास्ता नयी दिल्ली स्टेशन से होकर पहाड़गंज थाने को जाता है…

नाम बदलने से चीजें नहीं, व्यापार का तरीका बदलता है। लाभ में बढ़ोत्तरी हो यही तो चाहता है हर कोई। जी.बी. रोड नाम था कभी, अब श्रद्धानंद मार्ग है। श्रद्धा और आनंद दोनों की प्राप्ति का मार्ग यही अर्थ हो सकता है। उनके प्रति श्रद्धा हो और भाव बदलने का उपक्रम होगा। बहरहाल अबकी बार चुनाव में जो भी प्रतिनिधि आएगा, उससे जरूर सवाल करूँगा–क्यों न इसका नाम बदलकर जुल्म और ज्यादतियाँ की सड़क रख दिया जाए…

‘नहीं, नहीं मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए। ऐसे विषयों पर सुझाव देने का मुझे कोई हक नहीं है–यह मेरी सोच से बहुत दूर की बात है।’ उसी क्षण लगा, क्यों नहीं सोचना चाहिए–कुप्रिन ने भी तो सोचा ही होगा तभी, ‘गाड़ी वालों का कटरा’ जैसी कृति रच डाली थी। तब तो मुझे यह कहने से कौन रोक सकेगा भला कि रामलीला मैदान का नाम बदलकर ‘धर्मक्षेत्र कुरूक्षेत्र’ रख दिया जाए इसका यही और सही वक्त भी है। जितनी देर मैं उस मैदान में खड़ा रहा, अपने पुराने घरौंदों को ढूँढ़ता रहा। विभिन्न शंखों की प्रतिध्वनि का कोलाहल ही मैं सुनता रहा। विभिन्न जाति-धर्म और संप्रदायों के लोगों के हृदय विदीर्ण करने वालों के शब्दों को सुनता रहा।

कदम श्रद्धानंद मार्ग की लालबत्ती पर रुक गये। मुझे उस तरफ जाना भी है या नहीं। अनिर्णय की स्थिति में मेरे कानों में मेरे ही शब्द मक्खियों की भाँति भिनभिनाने लगे। उन असंख्य ध्वनियों को मैं सुनने लगा जो हमारों हजार वर्ष धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र की धरती पर गूँजते थे–यहीं कहीं होगी द्रौपदी की चीख-पुकार, श्रीकृष्ण के पांचजन्य, अर्जुन का देवदत्त और अति मानवी भीम के पौण्ड्र शंख की ध्वनि–उसी क्षण मुझे कुरुवंश के वयोवृद्ध प्रतापी पितामह के शंखनाद की प्रतीक्षा होने लगी कि श्रद्धानंद मार्ग के हाल-हालात को देखकर दयावश उनका हृदय पसीजेगा और वह अपना शंख भी बजा देंगे। संभवतः उनके शंखनाद को मैं समझने का प्रयास करने में सफल हो जाऊँगा कि उसमें भले सहानुभूति, पीड़ा की गूँज नहीं होगी और ना ही हर वर्ष राम-रावण और मेघनाद के धनुष टंकार की गूँज होगी। पितामह स्वयं प्रकट होंगे और कहेंगे–बस करो यह सब अब राम-रावण और मेघनाद हर साल जन्म नहीं लेंगे और ना मृत्यु को प्राप्त होंगे। ना सीता को अग्निपरीक्षा देनी होगी और ना दामिनी का क्रूर मृत्यु से सामना होगा।…

एक के बाद एक बचपन की कुछ स्मृतियों, जिनको मैं कभी का अपने मन-मस्तिष्क से उड़ा चुका था–वे अब घटती प्रतीत होने लगी थीं। शुरू-शुरू में सोफिया की बातें मुझे हास्यास्पद लगती रहीं और मैं जी भर कर हँसता था। वह हँसी मेरी नाभि से निकलती थी। बत्तीस इंच की कमर पर टिकी नाभि पर 36 इंच का उछाल होता था। मैंने कभी सोफिया की बातों को गंभीरता से नहीं लिया था। बल्कि कह देता था–‘तुम भी कैसी-कैसी बातें लेकर फोन पर चिपक जाती हो शहद की मक्खी की तरह। छोड़ो ये सब बचपन की बातें। इस शहर के विषय में जैसा सुन और कह रही हो वैसा कुछ है नहीं।’

उसी क्षण, मैं इस शहर की जिंदगी को नापने लगा और मन ही मन खुश हुआ कि कोई तो है जो शहर को याद करता है। कोई क्यों सिर्फ सोफिया ही तो है और एक ‘मैं’ हूँ जो सोफिया को हर बार शहद भरी उँगली थमाकर भ्रमित करता रहा हूँ–कि सोफिया अँगुली चूसती–बहुत खुश होगी और संतोष की साँस लेकर दोहरा देगी–‘तो हमारा शहर वैसा ही है जैसा मैं छोड़ गयी थी।’

और मैं एक डरे सहमे जीव की भाँति उसे धीरे से कहूँगा–‘आमीन!’


Image: The Soul of the Rose
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Artist: John William Waterhouse
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हरिसुमन बिष्ट द्वारा भी