घोड़ों की टाप

घोड़ों की टाप

टाल की रेतीली ज़मीन पर छोटे शाह के घोड़ों की टापों के गहरे निशान पड़ रहे थे। छोटे शाह का मैनेजर ख़ुद हमलावर टुकड़ी का सरदार था।
उसने हाथों में दोनाली बंदूक़ थाम रखी थी।
टोली के इरादे किसी सूरत नेक नहीं थे। वो पूरी बस्ती को जला कर राख कर देने के मंसूबे के साथ टाल की ज़मीन पर उतरे थे।
पिछले दिनों, छोटे शाह की अचानक मौत से मैनेजर के हौसलों में ज़बरदस्त उछाल आ गई थी। वो ख़ुद को टाल की ज़मींदारी का असली वारिस मान बैठा था। उसके गुरूर और आदेशकारी रौब का असर बस्ती के बाहर भी फैला हुआ था। टाल के गाँवों में उसकी संगदिली को लेकर क़िस्से-कहानियों का दौर जारी था।
बस्ती में शायद ही किसी को आज मैनेजर की इस शातिराना मुहिम की भनक भी लगी हो। मैनेजर ने सारा मंसूबा पिछली रात छोटे शाह की शिकारगाह में बैठकर तैयार किया था।
दरअसल वो छोटे शाह की मौजूदगी में हवेली के दामाद सईद के हाथों अपनी तौहीन का बदला लेना चाहता था। काश्त के मामले में सईद की दख़लअंदाज़ी और मज़दूरों की हिमायत का वाक़या उसकी आँखों में घूमता रहता था। आज वो टाल की आबादी को उजाड़ कर हमेशा-हमेशा के लिए अपने दिल की आग बुझाने का फैसला करके इस मुहिम पर निकला था।
घोड़ों की टाप सुनकर टाल में दहशत छा गई थी। औरतें-बच्चे मिट्टी की दीवारों के पीछे जा छिपे थे। बुजुर्ग लोगों ने शिवालय के सेहन में पनाह ले ली थी। गाँव में किसी को हमलावरों से मोरचा लेने की हिम्मत कहाँ से आती!
पहले तो गाँव वालों ने समझा, अनाज-लुटेरों का कोई गिरोह अनाज की कोठियों पर हमला करने आया है। नज़दीक आने पर जब उनकी नज़र छोटे शाह के मैनेजर पर पड़ी, उनके हवास जाते रहे।
पिछले दिनों का सारा वाक़या एकबारगी उनकी आँखों में घूम गया।
गाँव में सूरज डूबने के आसार नज़र आ रहे थे।
मछुआरों की एक बड़ी टोली कश्तियों से उतर कर गाँव के टीले की तरफ बढ़ने को थी कि अचानक उन्हें गाँव में गोलियाँ चलने की आवाज़ सुनाई दी।
मछुआरों के क़दम थम गए। उनके दिल मौत के अंदेशों से भर गए।
तभी किसी छोटी कश्ती से एक नवजवान उतर कर उनके पास आन पहुँचा। शाम के धुँधलके में उन्होंने कश्ती से उतरने वाले नवजवान को पहचानने की कोशिश की।
शाह मंज़िल के दामाद सईद का चेहरा उनकी आँखों के सामने उभर आया।
चेहरा पहचानते ही मछुआरों की आँखें चमक उठीं।
उनमें एक ने आगे बढ़कर कहा–‘शायद ये अनाज की कोठियाँ लूटने आए हैं। कोठियों की हिफाज़त पर लगे मुलाज़िम दो दिनों से ग़ायब हैं। हम पहले भी डरे हुए थे। जाते वक़्त हमें ख़बर भी नहीं दी, वरना हम खुद कोठियों की हिफाज़त पर अपने लोगों को लगा देते।’
‘ये हमलावर दस्ते आज अनाज की कोठियाँ लूटने नहीं आए। ये पूरे गाँव को जलाकर राख करने आए हैं। अब इनका मुक़ाबला करने के सिवा कोई चारा नहीं। चारों तरफ गाँव में फैल जाओ, और एक साथ हमलावरों को घेर लो। अँधेरे में ये अच्छी तरह देख नहीं पाएँगे, कौन किधर से आ रहा है। जिसके हाथ में जो हथियार या सामान हो, फौरन लेकर टीले की तरफ बढ़ो। मैं भी तुम्हारे साथ आ रहा हूँ।’
सईद ने मछुआरों को भरोसा दिया। उनमें हिम्मत पैदा हुई, और हौसला भी।
नदी के मुहाने, रेतीली ज़मीन पर, वो चारों तरफ फैल-से गए।
तब तक मैनेजर की हमलावर टोली शिवालय के सामने, गाँव की कच्ची ज़मीन तक, पहुँच चुकी थी। कुछ कारिंदों के हाथों में लुकाठियाँ भी थीं।
उनके चेहरों पर नफरत की लकीरें तैर रही थीं।
शिवालय के सामने, फूस और मिट्टी की झोपड़ियों का लंबा सिलसिला था।
यहीं टाल के मज़दूरों की बड़ी जमाअत रहती थी।
मैनेजर का इशारा पाकर कारिंदे लुकाठी लिए झोपड़ियों की तरफ बढ़े ही थे कि शिवालय की पुश्त से मछुआरों का एक बड़ा झुंड नारे लगाता सामने आ गया। झुंड के हाथों में लाठियाँ थीं, और मछली के जाल थे। जाल उन्होंने तेज़ी से हवा में उछाल कर खींच लिया। मैनेजर समेत उसके सभी कारिंदे ज़मीन पर आ रहे। राइफलें उनके हाथों से गिर गईं। मछुआरों ने जाल कुछ इस तरह डाले थे कि सब-के-सब उसमें फँस गए। हाथ-पाँव मारने पर शिकंजा और भी कसता जा रहा था।
उनकी राइफलें अब मछुआरों के हाथों में थीं।
गाँव वालों ने जाल मे फँसे कारिंदों पर लाठियाँ चलानी शुरू कर दीं। कई तो बुरी तरह जख्मी हो गए। उनमें ख़ुद छोटे शाह के मैनेजर भी थे। उनके हाथों में काफी चोट आ गई थी।
हमलावरों को जख्मी हालत में जमीन पर गिरा देखकर किसी ने शिवालय की बत्तियाँ रौशन कर दीं।
मैनेजर ने कराहती आवाज के साथ मछुआरों की टोली पर नज़र दौड़ाई।
सामने सईद को देखकर उन पर दहशत तारी हो गई।
कहते हैं, इस वाक़ये के बाद छोटे शाह साहब के मैनेजर ने कभी टाल का रुख नहीं किया। मज़दूरों को अपने ज़ुल्मों-सितम का निशाना बनाने की उनकी सारी हिम्मत जवाब दे चुकी थी।
किसी हारे हुए पहलवान की तरह उन्होंने हवेली के आगे घुटने टेक दिए थे।
लेकिन सईद के प्रति उनकी दुश्मनी खत्म होने को नहीं आई। लंबी बीमारी के बाद, जब आख़िरी घड़ी आई, तो मैनेजर अपने बेटों को सईद से बदला लेने की नसीहत करता गया। सईद बस्ती की इन साज़िशों से बेखबर नहीं थे। किसी कदर सतर्क भी रहने लगे थे।
इधर, बस्ती के कुछ अपराधी बराबर उनकी टोह में रहने लगे। किसी सूरत वो बस्ती में सईद के बढ़ते असर पर रोक लगाना चाहते थे।
सईद की सियासी सक्रियता शबाब पर थी। जिस संगठन से उनके गहरे रिश्ते थे, हुकूमत ने उस पर पाबंदी लगा दी थी। कई बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था। कई और नवजवानों की तलाश जारी थी।
ज़ाहिर है, पुलिस रिकार्ड में सईद का नाम सबसे ऊपर था।
कहते हैं, यूनिवर्सिटी इम्तिहान के चंद रोज़ पहले बस्ती के ही कुछ अपराधी तत्वों ने सईद की भूमिगत गतिविधियों की पूरी तफसील सरकार को लिख भेजी। जगह-जगह, उनकी गिरफ्तारी के लिए छापे मारे जाने लगे।
घरवालों पर उन्हें हाज़िर करने की दबिश बनाई गई।
नतीजे के तौर पर, सईद को इम्तिहान छोड़ कर पलायन करना पड़ा।
यह पलायन आगे चलकर उनके देश छोड़ने की सूरत में ज़ाहिर हुआ।
छोटे शाह के नजदीकियों को तमाम हालात का इल्म था। वो मैनेजर की बेजा हरकतों से भी वाकिफ़ थे। पर शाह मंजिल की दीवारों पर उनकी गिरफ्त कमजोर हो चली थी। शाह मंजिल की तमाम बेगमें बस्ती के अपराधियों के हाथों बेबस हो गई थीं।
बस्ती में बिखराव के साये गहराने लगे थे। आए दिन ज़मीन-जायदाद पर ज़बरदस्ती कब्जा करने की वारदात होने लगी थीं।
कानून और अधिकार के सारे नियम किताबों में कैद होकर रह गए थे।
बस्ती आवारा रूहों का डेरा बन गई थी।
लेकिन टाल के मज़दूर आज भी अपने इस मददगार को नहीं भूले हैं।
वो खतरों से मुठभेड़ करने की उनकी आदत को भरे दिल से याद करते हैं!


Image name: A Moroccan Saddling a Horse
Image Source: WikiArt
Artist: Eugene Delacroix
This image is in public domain

जाबिर हुसेन द्वारा भी