हरे राम…
- 1 November, 1971
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- 1 November, 1971
हरे राम…
नई दिल्ली का कनाट सरकस और पेरिस का शाँजेलिजे अपनी रंगीनियों के लिए संसार-प्रसिद्ध हैं। नए फैशन की एक-से-एक कीमती चीजें और उनके फैशनपरस्त खरीददार वहाँ के हर कोने, हर गली में छाये रहते हैं। कुछ लोग वहाँ सिर्फ ‘विंडो शॉपिंग’ के खयाल से चक्कर लगाते रहते हैं और कुछ लोग उन हसीन चेहरों को देखने के लिए जो अपनी नित नई-नई साज-सजावट में कोई शानी नहीं रखते।
एक दिन मैं भी कनाट सरकस का चक्कर लगा रहा हूँ। साथ में बीवी और बाल-बच्चे भी हैं। कहाँ पटने की रात-दिन की सरकदनी और कहाँ नई दिल्ली की वह मदभरी रंगीन अँगड़ाई! सभी चकित हैं–मैं भी वहाँ के नाज-अंदाज देखकर चकित हूँ।
“जरा चलिए, ग्लैमर में कुछेक साड़ियाँ देख लूँ।”
मेरा माथा ठनका–‘मैं कहाँ-से-कहाँ रंगीनियों की तलाश में आज कनाट सरकस आ पहुँचा। अकेले आता तो एक बात भी थी–मगर भला बीवी बाल-बच्चों के साथ घूमने को यह भी कोई जगह है?’
“देखो, यह तमाशा यहाँ न खड़ा करो–दूर से शीशे के अंदर सभी चीजों को देखती चलो! जी तो मचलेगा ही–मगर करोगी क्या? अपने पर्स पर भी तो ध्यान रखो। ज्यादा जी ललच जाए तो इन रंगीन फव्वारों को देखकर जी बहला लो। यहाँ की चीजें इतनी महँगी होती हैं कि हम पार न पाएँगे। यही चीजें चाँदनी चौक की गलियों में आधे दाम पर मिल जाएँगी–।” मैंने पत्नी के प्रस्ताव को झटकारते हुए कहा।
“आप तो बराबर पैसे का ही दुखड़ा रोते रहते हैं। जरा यहाँ भी तो चैन लेने दीजिए। मैं साड़ी खरीदने थोड़े जा रही हूँ। कुछेक साड़ियों को देखकर आजकल के फैशन का अंदाज तो लग जाएगा। यहाँ जो ‘वेराइटी’ है वह कहीं और न मिलेगी।” और वह झट ग्लैमर में घुस जाती है। साथ-साथ बाल-गोपाल भी। मंजरी, रेश्मा, मीनी। और, मेरी उँगली पकड़े हुए समीर भी।
साड़ियाँ निकलती हैं–नाइलन और जार्जेट के दिन लद-से गए हैं, आजकल दक्खिन के सिल्क और टेंपिल साड़ियों का बोलबाला है। एक-से-एक बार्डर, एक-से-एक आँचल। आँखें नहीं थमतीं। कभी-कभी जयपुरी गोटा देखकर तो मन सचमुच ललच उठता। फैशन की दुनिया भी निराली होती है। वेराइटी और नवीनता इसकी जान है। विदेशों में फैशन के अनुसंधान में नित जाने कितने धन खर्च होते रहते हैं–कोई भी अनुमान लगाना कठिन है–और उसी की सफलता पर सारे बाजार की सफलता है।
“बीवी जी! यह शुद्ध जरी का काम है।”–इतना कहकर वह पूरी साड़ी खोल देता है। बल्बों की चकमक में साड़ी पर उगे सुनहले फूल खिल उठते हैं। आँखें चौंधिया जाती हैं। मैं हठात पूछता हूँ–“और कीमत?”
“सिर्फ एक हजार हजूर!”
‘बाप रे!’–मैं मन-ही-मन कहता हूँ।
“दोनों ओर उलटकर देख लीजिए, एक समान काम है। एक-एक तार सोने का है। खरा सोना!”
मैं पत्नी के कान में फुसफुसाता हूँ–“ज्यादा साड़ियाँ न निकलवाओ वरना दुकानदार भी क्या समझेगा?–इतनी साड़ियों के तह खोलवा दी मगर ली एक भी नहीं।”
पत्नी का मन मानता ही नहीं। मेरी एक नहीं सुनती। मैं आजिज हो दुकान के बाहर आ जाता हूँ। साथ-साथ उँगली पकड़े समीर भी। वह जिद कर बैठता है–लेमनचूस लूँगा, चॉकलेट भी। मैं उसको इधर-उधर घुमाता हूँ। मगर वह मानता ही नहीं–रुआँसा चेहरा बनाकर बिगड़ उठता है। मैं जानकीनाथ की दुकान में घुसकर उसके लिए चॉकलेट-लेमनचूस खरीदता हूँ। वह खिलौना देखकर ललक उठता है। मैं चेता देता हूँ–“बस, लेमनचूस लेकर निकल चलो नहीं तो यह भी नहीं मिलेगा।” मैंने डाँट भी बताई।
दुकान से बाहर आता हूँ। एक गाने की आवाज हठात सुनाई पड़ती है। नजर उधर ही जाती है। यहाँ यह गाने की कड़ी! मैं पास ही बैठे पानवाले से पूछता हूँ–“यह गाना कैसा? कौन गा रहा है?”
“शायद हरियाणा की नाच-मंडली है। ढोल बजाकर, नाच-गाकर भीख माँग रही होगी।”
मेरी उत्कंठा बढ़ती है। वहीं ठिठककर खड़ा हो जाता हूँ। पत्नी और बेटियाँ अभी भी ग्लैमर की साड़ियों में डूबी हुई हैं। अजब तमाशा है!
नाच-पार्टी को घेरे एक बड़ी भीड़ भी मंथरगति से इधर बढ़ती चली आ रही है। समीर घबराता है। मैं उसे पुचकारता हूँ–“भीड़ से घबराते क्यों हो–हम अलग ही से तमाशा देखेंगे।”
जब भीड़ पास आ गई तो मैं दीवाल से सटे खड़ा हो जाता हूँ। समीर को पानवाले के स्टूल पर खड़ा कर देता हूँ।
मगर यह क्या! यह तो कोई नाच-पार्टी नहीं। यह तो कीर्तन-मंडली है। ‘हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे’ की ध्वनि सारे वातावरण में गूँज उठती है। आगे-आगे गेरुआ वस्त्रधारी, वैष्णवी टीका लगाए और सर पर चौड़ी शिखा बाँधे एक नौजवान गा-गाकर मृदंग पर ताल दे रहा है। बीच में एक नवयौवना गेरुआ वस्त्र धारिणी साधुनी के रूप में माला जपती सुकोमल गले से गाती-गाती नाचने लगती है और उसके पीछे एक दूसरा नौजवान करताल लिए हुए सुर में सुर मिला रहा है।
वे और भी समीप आते हैं। मैं अचकचाकर देखता हूँ–अरे, ये तो तीनों विदेशी हैं!–उफ! ये किस तन्मयता से, दुनिया की सारी तोताचश्मी को बरदाश्त कर हरे राम का कीर्तन गाते चले आ रहे हैं! और बीच में खड़ी साधुनी अपनी सुध-बुध खोकर मृदंग के ताल पर आनंदविभोर हो कृष्ण की परमनिष्ठ गोपिका सदृश नाच रही है। उसकी आँखें मुँदी हुई हैं और सचमुच उसने किसी अदृश्य की खोज में इस दृश्य की दुनिया से आँखें फेर ली हैं। विदेश से आई हुई यह त्रिमूर्ति हमारे ही देश के अध्यात्म की आत्मा तक पहुँचकर तथा उसके उत्स को पीकर कैसे आत्मविभोर हो उठी है–यह सचमुच एक अभूतपूर्व घटना है।
फिर यह मृदंगवाला नौजवान भीड़ को संबोधित कर कहता है–“आप सभी गाएँ–हरे राम हरे राम…आप भी गाते चलें।” भीड़ भी कीर्तन करने लगती है–एक समाँ बँध जाता है। अंदर से दुकानों के सभी कर्मचारी भी बाहर निकल आते हैं–खरीदार भी सम्मिलित हो जाते हैं और ‘हरे राम-हरे कृष्ण’ के तुमुल गान से कनाट सरकस का वह भाग गूँज उठता है। फैशनपरस्त मर्द और औरतें उस दृश्य को बड़े कौतूहल–बड़ी परेशानी से घूर कर भाग जाते हैं। शायद उन्हें धक्का लगता है कि जहाँ से नित नए-नए फैशन, नए-नए नाज-अंदाज की मुद्राएँ ढलकर आती रहती हैं, वहीं से–हाय रे करम!–वही भूले हुए रामनाम की घिसी-पिटी रटन! उनके पैर-तले से तो मिट्टी सरक जाती रही।
मृदंग पर की थाप बंद होती है। भीड़ थिर हो जाती है। आगेवाला नौजवान बोल उठता है–“भाइयो! हम राम और कृष्ण के नाम की महिमा पर मुग्ध हो अमरीका से भागकर भारत चले आए हैं और इसी नाम के सुमिरन में हमें सच्ची शांति मिलती है। आप जिसे भूल रहे हैं–उसे हम फिर जगा रहे हैं। अमरीका की एक प्रसिद्ध अभिनेत्री ने शांति की तलाश में आत्महत्या कर ली। वहाँ के धनकुबेर धन कमाते-कमाते पागल हो जाते हैं–कहीं भी शांति नहीं मिलती। वहाँ के नौजवान और नवयौवनाएँ यांत्रिकी की सभ्यता से ऊबकर शांति की तलाश में विक्षिप्त हो रहे हैं। मगर अब निराधार को आधार मिल गया–वही तुम्हारा हरे राम–हरे कृष्ण! इसी की छत्र-छाया में आकर हम सब कुछ पा गए–वह चिर-प्रतीक्षित शांति, प्रेम और आस्था। मैं भी एक धनकुबेर का बेटा हूँ। मेरे पिता सब कुछ त्याग कर विदेशों में ‘राम-कृष्ण’ के मंदिरों की स्थापना कर रहे हैं। तुम्हें लाख सुंदर घर मिल जाए, बिजली मिल जाए, टेलिविजन भी मिल जाए, जीवन की सारी सुविधाएँ मिल जाएँ; मगर मेरी बात मानो–हम इन सारी सुख-सुविधाओं को भोग चुके हैं–कभी तुम्हें शांति नहीं मिलेगी। तुम यह सब पाकर भी मेरी ही तरह भटकते रहोगे, जबतक तुम्हें ‘राम-कृष्ण’ की छाँह न मिलेगी। इसलिए प्यारे भाइयो! प्रेम से बोलिए–हरे राम-हरे कृष्ण–और मेरे साथ हो जाइए और गाते चलिए वही–हरे राम…।”
वे आगे बढ़ते जाते हैं। मृदंग पर थाप-पर-थाप पड़ रही है–साधुनी की कोमल काकली सारे वायुमंडल को पवित्र करने लगी और एक बड़ी भीड़ गाती-झूमती उसके साथ जनपथ की ओर बढ़ चली।
मैं वहीं खड़ा हूँ। बिलकुल अभिभूत हूँ। बगल में खड़ी मेरी पत्नी और बच्चे भी कुछ देर को सब कुछ भूल गए हैं। मैं सोच रहा हूँ–क्या भारत में मीनी शर्ट, ड्रेन पाइप पतलून, कोकाकोला की तरह अब रामनाम की महिमा भी अमरीका से इंपोर्ट होकर ही आएगी? और, शायद तभी हम उसकी गरिमा को समझ भी पाएँगे! राम जाने!