1857 : एक प्रेम कथा

1857 : एक प्रेम कथा

हल्ला हो गया कि प्रताप की दुल्हन भाग गई।
पिरभू नाई ने दलाली की है। वह गँगिया बेड़नी को रज्जो यानी कि प्रताप की दुल्हन से मिलाने लाया था।
प्रताप की माँ जार-जार रोती है। बेटा फौज में है, बहू बेड़िनी के संग चली गई, अकेली बूढ़ी…सब कुछ तबाह हो गया।
‘काकी, तुमने गँगिया बेड़िनी अपने घर देखी थी या कि रज्जो ही उससे मिलने सूरे की कोठरी में गई? मिलन-भेंट कहाँ हुआ?’ काकी के जेठ के बेटे रामदास ने पूछा था। काकी कुछ भी बताने की जगह रोने लगी।
कुछ बच्चों और एकाध किशोर बालक ने जो बयान किया, उसको रामदास ने घर के संरक्षक की तरह अपने विचार से समझा।
उफ् गँगिया बेड़िनी ने घर में प्रवेश करके जब रज्जो से आदर-सम्मान पाया, रज्जो को गले लगा लिया। बहू बेड़िनी के सीने से लगी हिलक-हिलक कर रो रही थी, जैसे उसे अपने संकट में गँगिया का सहारा मिला हो। ऊपर से सूरे ने अपना मत जड़ दिया–‘गँगिया, रज्जो यहाँ से फागों के बहाने छुटकारा पा सकती है।
रज्जों ने ऐसे देखा, ज्यों पूछ रही हो, गँगिया जिज्जी, तुम भी ऐसा मान रही हो कि हमें अपने संग बिठाकर निजी बातें कर रही हो, सो मीठी लग रही हो? रज्जो के प्रेम ने जो रंग यहाँ दिखाया है, उससे सारे संबंध क्षत-विक्षत हैं। क्या बेड़िनी पता लगाकर आई है कि रज्जो की घरेलू दशा क्या है?
गँगिया ने अपने विचार उजागर किए–‘हम समझ रहे हैं, तुम्हारा कलेजा दरका हुआ है। भीतर ही भीतर लहूलुहान हो। होगी नहीं, चौतरफा जंग लड़ रही हो। पर रज्जो, जंग कहाँ नहीं है? आदमी की जिंदगी ही जंग है। देख रही हो फिरंग, जो आदमी को मार-मारकर खून पी रहे हैं। राजा लोग अपनों को कुचल रहे हैं। मुसाहिब लोग, जो कलाकारेां की जान के दुश्मन हैं। बस एक हम जनी मानसें हैं, जिनको कहीं गँगिया बेड़िनी, बातचीत के मामले में चतुर, जो कुछ रज्जों से कह रही थी, सुना किसी और को रही थी।
काकी जब रो-धोकर हल्की हो गई तो उन्होंने रामदास को अपनी तरह से सारी बातें बताई: ‘बेड़िनी का मन यहाँ तो हर्गिज नहीं था लला! हमें तो ऐसा लगा कि उसके दिल में कोई गुम चोट है, जो यहाँ किसी बात का दुख गई। यह बेड़िनी कहाँ से आई, कहाँ जाएगी, इतना पता रज्जो ने भी हमें नहीं बताया।’
उसने एक फाग कही थी :

‘आउत भागवान के दौरें कौन बसत न मोरें
भौत विसाल गाल मौं भरकें, जी में मदन हिलोरें’

गँगिया, चालाक बेड़िनी, पूरी फाग नहीं कहीं। बोलीं–‘आगे फाग बड़ी रसीली है, पर यह फाग रस की गली से खूनी रस्ते की ओर मुड़ गई। अब इन फागों का समय कहाँ है रज्जो रानी? जगह-जगह खूनी फागें खेली जा रही हैं। अब देवर-भौजाई, जीजा-साली नहीं दीख रहे हमें, बागी सिपाही लाल लंग में भींगे पड़े हैं।’ बहू ने बात का रूख मोड़ दिया था, बोली–‘गँगिया, तुम इतने गहनों का क्या करोगी? जगह-जगह नाचती हो, सोना रूपया बटोरती हो। गले में लड़लड़ी तिदाना और जौमाल।’
गँगिया हँसने लगी थी, पर नजरें उदास-सी…‘बोली-बखत बताएगा कि हम जेवर का क्या करेंगे। भगवान ने चाहा तो तुम भी देखोगी। अच्छा चलो, ईसुरी म्हराज की बनाई कोई फाग सुना दो, हमारे संग लिखउआ मोड़ा आया है, दर्ज कर लेगा।’
रज्जो ने तुरंत सास की ओर देखा था।
गँगिया बेड़िनी ने पहले तो अचंभे से देखा, फिर आधे घूँघट में बैठी रज्जों की ओर अपनी व्यंग्य-भरी बोली छोड़ दी–‘ए, तुम तो रानी, पटरानी और सेठानियों की तरह डर रही हो। हमने तमाम राजकुल देखे हैं, वहाँ लूटी, उठाई, चुराई और जीती गई औरतें होती हैं, वे अपने मर्दों और बड़ी-बूढ़ियों से थर-थर काँपती हैं। डर का कारण होता है। रेशमी-उन्ना कपड़ा और सोने के गहनों के संग आराम! खाने के लिए मुफ्ती मलाई। तुम तो ऐसी नहीं हो। नहीं हो न?’
बेड़िनी की आँखों में क्या था, रज्जों ने अपनी नजरें मिला दीं?
वह कह रही थी–‘किसान और हो, दिलेर औरत मजबूत हो। तभी न इलाके में अपना नाम कर दिया। प्रेम ही तो है कि हौसले से खड़ी हो। आगे भी हिम्मत कर सकती हो।’
रज्जो, अपने प्रेम-प्रसंग के लिए कुख्यात। ईसुरी के लिए मीरा का रूप। अपने बस बेड़िनी से इतना पूछा था–‘आज ही तो नहीं जा रही तुम?’
गँगिया ने आगे बढ़कर उसका हाथ थाम लिया और रज्जो की हथेली को अपनी हथेलियों के बीच तोलने लगी, जैसे रज्जो की ताकत आँक रही हो। फिर बोली–‘जाना तो आज ही होगा।’
–‘इतेक छोटी-सी मिलन-भेंट?’
–‘भेंट तो भेंट होती है रज्जो, हमें जो मिलना था, मिल गया। कोई सौगात दे दो अपनी निशानी। ईसुरी महराज ने तो जिंदगी ही दाँव पर लगा दी तुम्हारे लानें। तुम अपना कुछ भी नहीं छोड़ पाई।’
यह बात सिर्फ पिरभू जानता है कि उस रोज रज्जो की क्या दशा थी। सौगात, जिंदगी और दाँव…रज्जो भौजी ऊपर से शान्त थी, मगर एक अज्ञान दहशत ने उसे अपनी चपेट में ले लिया। गँगिया क्या कहना चाहती है? क्या छोड़ने की कह रही है? उस समय तो रज्जो आशंका की मारी गँगिया के पास से दूर हो गई। अपने घर का दरवाजा अच्छी तरह भेड़ लिया और किवाड़ों पर बेड़ा लगा दिया। सोचा, अब कोई यहाँ नहीं आ सकता। गँगिया सौगात माँगने आएगी, वह दरवाजा नहीं खोलेगी। यह घर, जिसमें ईसुरी फगवारे के जाने के बाद उसे घुटन होती थी, यह घर उसे पति का दिया कैदखाना लगता था, आज कवच-सा प्रतीत होता है। भले कोई घर की दीवारें ढहा दे, प्रताप सिंह नामक पति का आँगन बचा रहेगा, जो उसे हर मुसीबत से बचा लेगा।
रज्जो बेसुध-सी…मगर घर जाग रहा था। गँगिया, बेड़िनी की जाति, बाहरी दुनिया में घूमती है। उसे घर की कद्र क्या?, वह क्यों नहीं समझ पाई कि रज्जो में उड़ जाने वाली आदत होती तो फगवारे ईसुरी के ही साथ चली जाती।
‘तुम तो अपना कुछ भी नहीं छोड़ पाईं’ ‘गँगिया की आवाज कानों के पर्दों से टकराती है और प्रियतम ईसुरी की आवाज में बदल जाती है।
बड़ी कशमकश है। रज्जो गँगिया के साथ माधोपुरा से भाग गई। यह खबर सुनी तो ईसुरी नामक प्रेमी को विश्वास नहीं हुआ। उसका मत रहा है कि जिंदगी में उम्र के अनुसार आदमी अपना लक्ष्य तय करता है। रज्जो के गृहस्थ के दिन थे, उसे वानप्रस्थ धर्म ने कैसे उकसा दिया? जब वे रज्जो से मिले थे तो उसकी उम्र निखालिस प्रेम करने की थी, जो कि उसने किया।
भाग जाना! घर से भाग जाना…ऐसा तो उन्होंने प्रेम के उस शिखर पर भी नहीं सोचा था, जब वे मिलने के लिए रात-रात भर रोया करते थे। वे बुलाते थे, रज्जो सुनती नहीं थी। अब ऐसा क्या हुआ? ईसुरी की अनुराग-भरी आँखों में ऐसा आहत भाव उभरा कि एकदम चुप्पी-सी साधे देर तक बैठे रहे। उनके मित्र धीरे पंडा भी व्याकुल हो गए। वे जानते थे, ईसुरी ने रज्जो से ब्याह नहीं किया, गर मन से मन का वरण तो हुआ है।
रज्जो कहाँ भागी? आजकल राजाओं, रजवाड़ों और जागीरदारों की अजीब हालत है। अँग्रेज बहादुर ह्यूरोज अभी झाँसी में नहीं घुस पाया। रसद, हथियार और घोड़ों की बग्गी सरदार रोके हुए हैं। जब माल मिले तो फिरंग बहादुर आगे बढ़ें। झाँसी पर कब्जा किए बिना अँग्रेजी की फतह नहीं हो सकती। छुरी की ताकत है झाँसी राज्य में और खिचवा की डोर है लक्ष्मीबाई और उसके सहयोगी, साथियों के हाथ में। जद्दोजहद जैसी रस्साकशी। लोककवि ईसुरी, जो आबदी बेगम की जमींदारी में छिपे पड़े थे, सुन रहे थे–अपनी प्रेमिका रज्जो के और बाहर मचे घमासान के बारे में।
एक अजूबा सामने आया, वह था देशपत दीवान के रूप में। यह व्यक्ति अँग्रेजों की फौज का दीवान बगावत कर बैठा, मगर उस बागी से रज्जो का क्या वास्ता? यह बात तो सभी जान रहे हैं कि झाँसी की रानी ने औरतों की सेना बना ली है। तीर-तलवार चलाने का प्रशिक्षण देकर अच्छी-खासी जनानी फौज खड़ी कर ली है। मगर रज्जो फौज में! ईसुरी सन्न रह गए थे। उनके हिसाब से यह उनकी कमनीय कला पर प्रहार था। रज्जो आखिर वहाँ क्या करने गई है? वह तो डरपोक इतनी थी कि पत्ते खड़कें, भाखें साँय-साँय करें तो उनसे लिपट जाती थी। अँधेरे में चलती, गिरकर घुटने फोड़ लेती। और आज खबर आ रही है कि ऐसी औरतें छोर-अछोर रास्तों पर कहीं भी पहुँच जाती हैं। चलना रज्जो के लिए नशा जैसा है, वह चट्टान जैसी पहाड़ी पर चढ़ी चली जा रही थी। नंगे पाँव थी, लहूलुहान पंजे और घायल एड़ियाँ, चेहरे दर्द से बेजार…
उफ! लेककवि की भावनाएँ, जो रज्जो के भोभा शृंगार के लिए थी, क्या प्रेयसी उनकी भावनाओं को ऐसे ही मटियामेट करती चलेगी? शायद नहीं, वह कवि की खोज में ही मारी-मारी फिर रही है। लोकवि ईसुरी ने अपना मत दावे के साथ प्रकट किया। पिरभू था कि बिना पूछे ही आगे बताने लगा-महाराज, आगे वे दोनों जनी झिनझिनी गाँव की तरफ चली गई। कहती थीं, उनकी जरूरत देशपत दीवान को है।
देशपत! अरे नहीं। वह तो औरत जात की परछाई से भी नफरत करता है। अपने दल के सिपाहियों को बरसों घर नहीं जाने देता कि कहीं उनकी औरतों उन्हें भरमाकर मकसद से न भटका दें। सही है उसकी धारणा, रज्जो को ही देख लो, उसका आदमी फौज में गया और हमें यहाँ गुप्त निवास में रहना पड़ा, वह घर से भाग ली। वह भी बेड़िनी के संग।
रज्जो चली गई, ईसुरी का जीवन थम गया। उन्हें क्या पता कि रज्जो कहाँ आ गई? प्रेमी की खोज में मीरा-सी दिवानी होकर निकली थी, बियाबान में भटक रही है। पेड़ों की सघन दीवारों के बीच पहाड़ी आँगन खुले हुए हैं। सन्नाटा ऐसा कि छोटी खाँसी या छींक चौंकाने की हद तक गूँजे।
रात का अँधेरा और आग कल लपटों-भरा कुंड। चारों ओर बैठ आदमी बुतों की तरह लग रहे हैं। आदमियों के चेहरे और हथियार नाचती लुई लपटों की रोशनी में चमक जाते हैं। रज्जो ने अनायास ही यह बात सोच ली कि हो न हो, ईसुरी यहीं हों गँगिया। उनकी फागों की मुरीद, फगवारे को यहाँ छिपाकर रख रही हो, क्योंकि धौर्रा के मुसाहिब जूँ की नजर हर कहीं है। मुसाहिब ईसुरी की फागों का बैरी, ईसुरी को उचक्का और बदमाश मानता है, क्योंकि उसकी बेटी फागों की दीवानी होकर बाप के घर बगावत कर बैठी। गँगिया ने कहा भी था, गाते-गाते आदमी लड़ने लगता है। आल्हा का जन्म गीत-संगीत से निकलकर जंग में जा मिला। सब कुछ सोचा मगर वहाँ बैठे लोगों की दाढ़ी-मुछों की बेतरतीबी ही डराने लगी। निश्चित गँगिया उसे उड़ाकर लाई है। सास ने कहा था, बेड़िनी को कोई बेड़िनी जैसी ही चाहिए, आगे इसकी उम्र ढलने वाली है।
अभिवादन। बड़ी-बड़ी मूँछो वाला पगड़ीदार आदम में खास बात है। वह सबको एक-एक करके गौर से देख रहा है, जैसे गिनती कर रहा हो। इतने लोग और चुप्पी बेहिसाब। गँगिया ने क्या सोचकर कहा था कि घर से निकली औरत पिंजड़े की मैना जैसी होती है, लौट तो नहीं पड़ेगी रज्जो रानी? कैसे बताती घर का सुख फगवारा अपने साथ ले गया। मीरा से राजमहल जिसने छुड़ाया, उसी ने मुझसे घर छीन लिया। एक आशा आँचल की गाँठ में बँधी है कि कहीं न कहीं वह मिलेगा।
गँगिया दस कदम चलकर झुरमुट में गई। रोटियों की पोटली लेकर वापस आई। चार-चार रोटी और चटनी बाँटने लगी। आधी रात के समय रोटी! रज्जो अपने हाथ पर धरी रोटी देखती रह गई।
‘अरे इतनी ढेर रोटियाँ, आज कहाँ से आईं?’ पगड़ी वाले ने पूछा।
‘किसान आए थे बसारी गाँव से। रोटियों के अलावा आटा और दाल भी दे गए हैं। कद्दू और आलू भी। नौन-मिर्च धना सब।’ गँगिया न बताया।
‘किसानों के घर इतना सब है, सब है?’ काली मूछों वालों ने पूछा।
‘वे कह रहे थे, लूटकर लाए हैं।’
‘वाह! पर आजकल कौन लुटेरा नहीं है? जरूर अँग्रेजी फौज की रसद जा रही होगी। बेचारा ह्यूरोज कब तक सागर स्टेट में पड़ा रहेगा?’
‘दद्दा डाकुओं का डर फिरंगियों को बहुत है। देख लो, रसद को पचासियों सिपाही रखाते हुए जाते हैं। गोरे ज्यादा खाते नहीं, गाड़कर धर देते हैं कि देसी लोगों को खाने को न मिले, वे कमजोर होते-होते मर जाएँ हैं।’
‘पर हम मरेंगे नहीं।’ दद्दा यानी देशपत दीवान ने कहा।

‘हम बैलगाड़ियों से ही फिरंगियों के रास्ते रोक देंगे। गाँव के किसान बन्दूक छीनने में माहिर हो गए हैं। हथियार ऐसे ही जमा होंगे। हथियारों की जरूरत है।’
रज्जो ने ऐसी बातें सुनी तो लगा, कहीं अपने पति प्रताप के आसपास आ गई है। हथियारों की बातें सिपाही के सिवा और कौन करेगा? ईसुरी के पास तो फागों के सिवा कुछ नहीं। उसने यकायक लंबा घूँघट खींच लिया। घूँघट ने झिझक और भय कम कर दिया।
लोग खाना खाकर चार-चार की टोली में रवाना हो गए। अब केवल देशपत, गँगिया और वह खुद थी। गँगिया के वार्तालाप से स्थिति का अंदाजा लगाने लगी।
‘दद्दा, हम माधोपुरा तक नहीं, महोवा के आसपास हमीरपुर की सीमा तक हो आए हैं। अपने कुंझल शाह का कहीं अता-पता नहीं। आप कहो तो आगे जावें? वैसे उधर हम कितने दिनों तक राई नाच का पड़ाव डाले रहे।’
देशपत ने सब सुना, चिंता में पड़ गए।

और रज्जो के लिए हर बार फरेब की गाँठ खुलती। फागें, राई नाथ, गीत-संगीत सब धोखा थे? ईसुरी महाराज का तो यहाँ कोई नाम तक नहीं ले रहा। कौन है कुंझल शाह? क्यों खोज रही है उसे बेड़िनी? देशपत क्यों लड़ रहा है अँग्रेजो से? इतनी बड़ी फौज, जैसा कि प्रताप बताता था, से ये लोग लड़ सकते हैं, जो अभी लुटी हुई रोटियाँ और चटनी खाकर गए हैं?
देशपत ने गँगिया से पूछा, ‘साजिंदों को किसी ने पहचाना तो नहीं?’
रज्जो फिर चौंकी! क्या साजिंदे, साजिंदे नहीं थे?

रज्जो की दुनिया बदलने लगी या फगवारे ने देशपत दीवान का रूप धर लिया? गँगिया कहती है–इस आदमी के मुरीद हो गए हम। लोग तो इन्हें जंगली कहते हैं घने जंगलों में जो रहते हैं। यों तो देशपत दद्दा फिरंगियों की फौज में थे, पर नाराज हो गए। नाराजी की बात ही थी फिरंगियों ने इनके गाँव से लगान वसूली की मुनादी करा दी। इन्होंने अरजी लगाई कि साहब बहादुर, मैं आपकी फौज में हूँ, मेरे गाँव पर सख्ती न बरती जाए। पर सरकार कहाँ माने? इसके बाद दद्दा ने कहा–जो झिनझिनी गाँव से लगान वसूल करने आएगा, वह जिंदा नहीं जा पाएगा।
जब उनकी कोई बात नहीं सुनी गई तो दद्दा ने लगान-वसूली के लिए आए सात आदमियों को बन्दूक से भून दिया। और खुद फरार हो गए। दद्दा को जिंदा पकड़ने के लिए दस हजार रुपया का ईनाम धरा गया। रज्जो, हम तो अपने रागरंग के लिए रोते हैं, यह आदमी इनसाफ के लिए मरता है, अपनों के प्रेम में जूझ रहा है।
रज्जो ने ऐसे देखा जैसे उसका वजूद इस पहाड़ की छाया में अदृश्य होनेवाला है। गहरी साँस लेकर खुद को सामान्य कर रही थी गँगिया की बातें सुन सके, क्योंकि आपने गाँव के खूनी हमले एक-एक करके याद आने लगे।
‘अपन यहाँ क्या करेंगे जिज्जी?’ हकलाती हुई आवाज में उसने कहा।

‘जो करेंगे, सो सामने आ जाएगा। यह दद्दा की नई रणनीति है। हम काना और मुंदरा की तरह काम करेंगे। लक्ष्मीबाई की सखियों सरीखें देशपत की सखी बनेंगे।’
रज्जो नए विद्यार्थी-सी और गँगिया का आह्वान जारी–‘यह तुम्हारी जिंदगी का वह मोड़ है, जो बड़ा फैसला करेगी।’ ऐसी बातें करके वह ईसुरी के बारे में पूछताछ करना भुला देती। आगे कहती जाती–‘तुम्हें यहाँ न लाती तो गाँव में अपनी प्रीति पर रोती-रोती तुम बासी हो जाती, सड़ जातीं। फिर तुम्हें ईसुरी भी न पूछते।’ और देशपत ने ऐलान किया–‘बिटया, पहले घूँघट त्यागो।’ के साथ जो बातें हुई, वे थीं–मर्दन सिंह बनापुर के राजा अब अपने रंगमहल में पतुरिया नहीं नचाते, अब वहाँ गोला-बारूद ढलते हैं। झाँसी की रानी अब अफगान और पठान घुड़सवारेां का खुद नेतृत्व करेगी। ऐसी बातें सुनकर रज्जो सोचती, क्या मुझे ऐसा संसार मिल सकता है?
और धीरे-धीरे वह उन बातों को अपने माहौल से जोड़ने लगी। जब सुना कि ह्यूरोज ने सेंट्रल इंडिया फील्ड फोर्स सँभाल ली है। यह फोर्स नर्मदा और यमुना के बीच क्रांतिकारियों को मार गिराने और कंपनीराज की बहाली के लिए है। मर्दन सिंह की सेना हार चुकी है।
मर्दन सिंह! यह व्यक्ति रज्जो के लिए कोई राजा नहीं था। वह तो अपने मोहल्ले की लल्लू की बहू से संबंधित था। इसलिए वह बुरी तरह चौंक पड़ी और मुँह से निकला, ‘इतना बहादुर आदमी कैसे हार सकता है?’
‘बिटिया, बहादुर ही हारते और जीतते हैं और बराबर लड़ते रहते हैं। तुम भी तो लड़-लड़कर ही अपनी जिंदगी आबाद किए हो।’
फिर वहीं हुआ कि सागर वाला रास्ता खुल गया। खतरा बढ़ गया है। मगर गौर करने लायक बात यह थी कि अकेले देशपत में गजब का हौसला है। ह्यूरोज की फौजें सारे बुंदेलखंड में फैलने लगीं, मीलों लंबी फौजें! देशपत अब अपने हर सिपाही को ललकार रहे हैं।
नन्हें दीवान, कुंझल शाह, विराग सिंह जैसे जवान अपनी-अपनी दिशओं में गए होंगे। गँगिया और रज्जो तैयार हो गई। अपने दल की सक्रिय सिपाही…
‘जोगिनी जात्रा’ देशपत ने यही नाम दिया था उनके रण आह्वान को। जोगिनों के बाने में निकलीं दो स्त्रियाँ, कंधों पर मोटे कपड़ों की झोलियाँ और गँगिया के गल में मोटी डोरी के सहारे झुलती नगड़िया। रज्जो ने खड़तालें ले लीं हाथों में और उसके पास थे अपने।
प्रेमी लोककवि ईसुरी की फागों के तीर-तरकश। ये हथियार कारगर होंगे, उसने देशपत को भरोसा दिया।

टोली दो जनियों की। फागें गाती हुई घुमती। जैसा देखती, देशपत को इत्तला देती। बागियों के लिए खतरा बढ़ता, द्विअर्थी फागें लगतीं, जैसे :

‘गुइयाँ बचके जइये पानें
गली बॅदी तोय लानें
राज कुराज परौ बेराजी, कीखों देंय उराने
गोर गैल-घाट बॅट गऔ है, बच-बच कें ई जानें’

(साथियों, बचकर निकलना, रास्ता बंद कर दिया गया है! राज ऐसा कुराज हो गया तो किससे शिकायत और गुहार करें? गलियों में बंदिशें हैं, घाट-घाट पहरे लगे हैं, अब तो मौका देखकर ही निकलना।)
क्रांतिकारी इस बोली को समझने लगे थे। रज्जो और गँगिया के संकेतों का इन्तजार करते थे। इशारा मिला, तभी गोरिल्ला युद्ध के लिए तैयार होते। अपनी इस कर्त्तव्य-साधना के चलते गँगिया बेड़िनी के साथ-साथ रज्जो कहाँ-कहाँ से नहीं गुजर गई। छतरपुर, फाटा और गुरइया की पहाड़ियाँ, महोबा महुसानियों से लेकर फागें बावन चौकिया महल को छूने लगतीं। धूल-धूसरित दीवारों के बीच उजली झंकारें सुर और ताल का गजब संयोग कि रज्जो ने संगीत साधा था। वह रानी कमलापति की समाधि पर बैठकर अलख जगाने लगी, क्योंकि छतरपुर के पास से अँग्रेजों की सेना की अफकड़ी निकलने वाली थी, जिसकी सूचना देशपत का निजी सचिव विराग सिंग भी नहीं ले पाया था।

रज्जो जान गई थी कि वह खुद कहाँ है? धुवैला महल के आसपास, वीर बुंदेले छत्रसाल, जिन्होंने मुगलों के खिलाफ दो सौ बावन लड़ाइयाँ लड़ी थीं। वहीं छत्रसाल बुंदेला देशपत दीवान की श्रद्धा का पात्र है। रज्जो के भीतर मानो विजयी भामशीर की झनझनाहट भर गई।

यह संस्कृति का अभियान…अपनी तरह की रणभेरी…यहीं से रज्जो का प्रेम देशप्रेम का रूप ले गया। उसके लिए शृंगार की फागें बागियों को ललकारने के काम आने लगीं, जिनकी गूँज आजादी बेगम के तहखाने में छिपे ईसुरी कवि तक पहुँची।

रज्जो बेड़िनी के रूप! ईसुरी तड़प उठे थे। देशपत ने एक स्त्री का शील बिगाड़ दिया।
धीरे पंडा समझाते-प्रेम में ही तो रज्जो ने सारे बंधन तोड़ डाले हैं। यह वही रज्जो है, जो लिहाज-संकोचवश प्रेमानंद की कोठरी तक न आती थी। रज्जो की नई भंगिमाएँ…अपनी अंदरूनी धुन को घनी करती चली जा रही है।
नेठम ही बागी हो गई! ईसुरी कराहे।
रज्जो में बागीपन पहले से ही रहा होगा, नहीं तो सिपाही की ब्याहता होकर तुम्हारे प्रेम में क्यों पड़ती?
धीरे पंडा, रज्जो ऐसा कुछ कर जाएगी, हमने सपने में भी न सोचा था। वह तो ऐसा कर गई जैसा करने की हमारी हिम्मत न पड़ी।
अब सोचो ईसुरी, प्रेम उसने किया था कि तुमने?

धीरे, दोनों ने, पर अपनी-अपनी प्रीति की अपनी-अपनी दिशा…हम यहाँ रह गए, वह युद्धभूमि तक निकल गई। अब हमारे पास उसके लिया क्या है? वह बिछुड़ गई, फागें नाता तोड़ गई। इन दिनों जब उसकी चर्चा हमारे आस-पास रहती है तो कभी फाग भी सूझ ही जाती है। एक इच्छा यही है कि कोई हमारा यह संदेश रज्जो को दे दे :

‘तुमसे मिलन कौन विधि होने
पर के एक बिछौनें
बतन बातन कड़े जात हैं, जे दिन ऐसे नौंनें
प्रानन के घर परी तलफना, नैनन के घर रोनें
फिर पाई न पाई ईसुर, मानुस की जै जौनें।’

धीरे पंडा ने फाग सुनी, रज्जो के लिए रची फाग। पर अब क्या कहते धीरे पंडा कि चर्चा ने कौन-सा मोड़ ले लिया है। झाँसी की रानी की युद्धभूमि से कालपी की ओर आने के बाद रज्जो ने लड़ते-लड़ते वीरगति पाई है।
नहीं, अपने जाने नहीं बताएँगे धीरे पंडा। ईसुरी जीवित रह पाएँगे, उन्हें उम्मीद नहीं…!


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Artist : Josef Capek
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