एक रुका हुआ फैसला

एक रुका हुआ फैसला

रात के साढ़े नौ बजे थे मगर घना कोहरा नीचे उतर आया था। अपने बैग वगैरह सँभालते हुए बस से उतरे तो कँपकँपी छूट गई। क्रिसमस की रात थी मगर बस स्टैंड बहुत बुझा-सा लग रहा था, पीली कमजोर रौशनी और परत दर परत लिपटे हुए गिनती के मुसाफिर। गनीमत थी कि हमारे स्वागत के लिए अपने बेहद स्मार्ट और सुदर्शन पुत्र के साथ स्वयं शेखावत जी वहाँ मौजूद थे।–‘दिसंबर के आखिरी सप्ताह में यहाँ ऐसा ही मौसम रहता है। यह लास्ट बस है, दस बजे के बाद धुंध इतनी हो जाती है कि ड्राइवर गाड़ी किनारे खड़ी करके ढाबों में पनाह लेते हैं आइये अपनी जीप बाहर खड़ी है।’ उन दोनों ने मना करते करते भी हमारा कुल सामान अपने हाथों में ले लिया। जेनरेटर की धड़धड़ाहट से एहसास हुआ कि बिजली गई हुई है। अँधेरी, सुनसान, धुंध में लिपटी हुई गलियों से गुजरती जीप से जो थोड़ा बहुत नगर दर्शन हुआ उससे दिल कुछ बैठ सा गया। अच्छा शहर है! रात होते ही सो जाते हैं यहाँ के लोग?

उनका घर रौशनी से जगमगा रहा था। दोनों मंजिलों पर खूबसूरत शेड्स में लाइटें जल रही थीं। पावर कट से बेपरवाह। छोटे से फूलों भरे बगीचे से गुजर कर मुख्य प्रवेश-द्वार पर पहुँचे तो एक शालीन और भव्य व्यक्तित्व वाली गौरवर्ण महिला ने हाथ जोड़ कर हमारा स्वागत किया। शेखावत जी ने परिचय कराया’ आप हैं कला जी, मेरी सहधर्मिणी, या कहिये बैटरहॉफ। हम सब इन्हीं के निर्देशन में काम करते हैं।’ और कला जी खिलखिला दीं, हम मंत्रमुग्ध होकर देखते रह गए, उनकी मोहक हँसी से चारों ओर जैसे फूल बिखर गए, ‘अरे नई, बैटरहॉफ तो यही हैं। हम सबके कमांडर इन चीफ। आइये, पधारिये आपके चरण रज से यह घर तो पवित्र हो जाएगा।…पधारिये, आपको रास्ते में कोई तकलीफ तो नहीं हुई? यहाँ विराजिए! मैं बस दो मिनट में आपके लिए गर्मागर्म काफी लेकर आती हूँ।’ ‘हमें अपने सुरुचिपूर्ण ढंग से सुसज्जित ड्राइंगरूप में बिठाकर वे भीतर चली गईं।…श्रीमती शेखावत सचमुच बहुत सुंदर थीं। उनके व्यक्तित्व में वह था जिसे कहते हैं–चुंबकीय आकर्षण। उनके शालीन व्यवहार और मधुर वाणी को सुन कर एक बार को हमारी जैसे बोलती ही बंद हो गई। यकायक मन खुशी से भर उठा। निस्संदेह वह बहुत ही संभ्रांत और दर्शनीय परिवार था। शेखावत, उनका छोटा बेटा अनुपम, गृहस्वामिनी कला जी…इनसे जुड़ना कौन नहीं चाहेगा?

मैंने रोहित के चेहरे पर इस यात्रा में पहली बार चमक और उत्सुकता देखी। वह अनुपम से धीरे-धीरे कुछ बतिया रहा था। मेरी पत्नी ने अर्थपूर्ण दृष्टि से मेरी ओर देखा। शायद उनके मन में भी वही विचार उठ रहा था। हम दोनों रोहित को बड़ी मुश्किल से इस मुहिम में साथ ला पाए थे। इससे पहले के तीन अभियानों की विफलता से उपजी खीज अब संभवतः उदासीनता में तब्दील हो चुकी थी। मेंटल पीस पर रखे एक फोटो फ्रेम में लगी तस्वीर को दिखाते हुए शेखावत जी ने कहा, ‘आप है मेजर आदित्य सिंह, हमारे बड़े साहबजादे। आजकल लद्दाख में पोस्टेड हैं। वहाँ से बराबर आपके आगमन की प्रोग्रेस मॉनीटर कर रहे हैं। ये तो चाहते थे कि कलानिधि के लिए कोई आर्मी ऑफिसर ही देखा जाए। लेकिन जब से कुँवर साहब के बारे में सुना है बहुत उत्साह में है। इनका प्रोफाइल हम सबको देखते ही जँच गया था। एकदम जैसा हम स्वीटी के लिए चाहते थे।’

बढ़िया काफी पिला कर कला जी ने हमें गेस्ट रूम पहुँचा दिया, ‘आपलोग दूर से बस में बैठकर आए हैं। थोड़ा फ्रेश हो लीजिये। फिर अपन बैठकर फुरसत से बातें करते हैं।’ शरीर को ढीला छोड़ते हुए हमने देखा कि हमारा सामान करीने से एक साइड टेबुल पर लगा दिया गया था। कमर सीधी करते हुए देखा कि बहुत नफासत से सजाया गया था मेहमानों का कमरा। घनघोर जाड़े की उस रात में बड़ा कोजी सा लगा, सेंटर टेबुल पर जलते हीटर की वजह से। चूँकि हम तीन थे इसलिए एक अतिरिक्त बेड़ लगाया गया था। बस के लंबे सफर में अपने ऊपर जमी गर्दो गुबार को धो पोंछ कर और कपड़े बदल कर बैठक में लौटे तो चाय का सरंजाम लगाया जा चुका था। शेखावत जी, कला जी और अनुपम हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। यह कुछ अजीब सा लगा, परंपरा के अनुसार तो वहाँ कलानिधि को भी होना चाहिए था। आखिरकार उसी को देखने के लिए तो आए थे हमलोग। कलाजी चाय बनाने लगीं तो मेरी पत्नी ने पूछ ही लिया, ‘कतानिधि कहाँ हैं मिसेज शेखावत?’

जवाब उनके पति ने दिया, ‘जी बात ये है कि कल से स्वीटी को कुछ हरारत थी। हमने कुछ ध्यान नहीं दिया, एक गोली क्रोसीन खिला दी। आज सुबह से बुखार तेज हो गया तो डॉक्टर को दिखाया गया, वाइरल है। आप चाय लीजिए। वह तैयार होकर आ रही है। एक दिन में ही वीकनेस इतनी हो गई है बिस्तर से उठा ही नहीं जा रहा।’

–‘अरे तो उसे वहीं रहने दीजिये, परेशान करने की कोई जरूरत नहीं है, हमलोग वहीं जाकर मिल लेंगे!’

–‘नहीं, ऐसी कोई सीरियस कंडीशन नहीं है। शेखावत साहब तो मामूली बुखार में भी परेशान हो जाते हैं। वो तैयार हो गई हो तो मैं उसे लेकर आती हूँ।’ कहते कहते ही वे उठ कर चली गईं। अचानक हुए इस घटनाक्रम से हमारी भावभूमि में परिवर्तन हुआ। उत्सुकता का आंशिक शमन हुआ और सहानुभूति की लहर सी उठी। बेचारी लड़की!…माहौल को गंभीर होते हुए अनुभव करके शेखावत जैसे अपने में लौटते हुए बोले, ‘देखिये अपने बच्चे की तारीफ खुद नहीं करनी चाहिए मगर हमारी यह बेटी असाधारण प्रतिभा की धनी है। प्राइमरी से लेकर पी.जी. तक हमेशा मेरिट में आई है। डिबेट और एस्से कंपीटीशन में इतने प्राइज लाई है कि उसका कमरा भरा हुआ है। बैडमिंटन में स्टेट चैंपियन रही है। जिस कॉलेज में पढ़ी है उसी में पढ़ाने के लिए वे लोग घर से बुलाकर ले गए। लेकिन इसे धुन है पी.सी.एस. निकालने की। आजकल उसी की तैयारी में जुटी है। अब कहाँ तक बताएँ–बचपन से ही पेंटिंग का शौक रहा है, शास्त्रीय संगीत बड़ी लगन से सीखा है। कत्थक की प्रवीण नृत्यांगना है। अभी पिछले महीने कॉलेज में राज्यपाल आए थे तो इसके डांस का कार्यक्रम रखा गया।’… वे कहते-कहते रुक गए क्योंकि कला जी अपनी दुलरुआ बिटिया को लेकर आ पहुँची थीं।

उनके आते ही हम सीधे होकर बैठ गए। माँ-बेटी की यह जोड़ी उस कमरे में फैली एल.ई.डी. की रौशनी में खिलते हुए रंगों की एक अनोखी पेंटिंग की तरह लग रही थी। केसरिया रंग की ऊनी शाल से सिर और चेहरे का काफी हिस्सा ढंके और नजरें झुकाए थी कलानिधि। उनके कंधे पर माँ का हाथ था। उधर आसमानी शाल में लिपटा कला जी का सुंदर मुखड़ा नजरों को बरबस अपनी ओर खींच रहा था। बेटी माँ से लंबी थी मगर माँ की छटा और प्रभामंडल के चलते उसकी उपस्थिति ठीक से दर्ज नहीं हो पा रही थी। कला जी ने उसके कंधे से हाथ हटाकर हमारी ओर इशारा करते हुए कहा–‘बेटा तोमर अंकल और आंटी को प्रणाम करो!…और ये हैं रोहित कुँवर जिनके आजकल जात भर में चर्चे हैं।’ कलानिधि जैसे सोते से जागी और उसने अपने चेहरे से शाल को कुछ पीछे सरकाते हुए अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से हमें देखा, हाथ जोड़कर बारी-बारी से प्रणाम कहा और फिर अचानक रोहित की ओर मुस्कुराते हुए ‘हेलो’ कहा। वे दोनों बैठ गईं तो कुछ देर तक एक अयाचित और नागवार सन्नाटा छाया रहा, मेरी पत्नी और रोहित मानो सब कुछ भूल कर उसे देख रहे थे। गौर से देखना मैं भी चाहता था मगर स्थिति के अटपटेपन को देखते हुए मुझे ही मोर्चा सँभालना पड़ा–‘कलानिधि जी, अभी हमलोग आपकी असाधारण प्रतिभा और उपलब्धियों की चर्चा कर रहे थे। मैं समझता हूँ कि मि. और मिसेज शेखावत भाग्यशाली हैं कि आप जैसी बेटी को जन्म दिया। हमें पूरा विश्वास है कि आप अपने परिवार का नाम रौशन करेंगी। मुझे और मेरी पत्नी को आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई।’

मेरी पत्नी ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘रीयली, शी इस एक्सेप्शनली टैलेंटेड। आपलोग सचमुच भागयशाली हैं।’

कला जी ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘थैंक यू मिसेज तोमर! हमारे परिवार का ही क्यों, जिस परिवार में जाएगी उसका भी नाम रौशन करेगी। हमारे यहाँ तो यह और कुछ दिनों की मेहमान है।…आपलोग स्वीटी से जो कुछ पूछता चाहें, प्लीज पूछें!’

पत्नी ने हँस कर कहा, ‘अरे बाबा, हममें इतनी काबिलियत भी तो हो कि इनसे कुछ पूछ सकें। जितना सुन लिया हमारे लिए तो वही काफी है। मुझे तो पूरा भरोसा है कि पी.सी.एस. क्या ये तो सिविल सर्विस में भी आराम से निकल जाएँगी।…ये है हमारा बेटा रोहित। इसने बी.एच.यू. से बी.टेक. और सिम्बियोसिस से एम.बी.ए. किया है। फिलहाल टी.सी.एस. में सिस्टम एनेलिस्ट है। बाकी बातें आपलोग सीधे इससे ही पूछ लें।’

कला जी ने बड़े प्यार भरे स्वर में कहा, ‘स्वीटी, क्यों न तुम और अनुपम रोहित को अपनी स्टडी में ले जाओ। वहाँ तुम लोग ठीक से एक-दूसरे को जान पाओगे।’

रोहित उन दोनों के साथ बड़ी देर बाद लौट कर आया। तब तक हमलोग दुनिया-जहान की बातें करते रहे। शेखावत दंपति हमारे मनोभाव भांपने का प्रयास करते नजर आए मगर हम उस संदर्भ में निरपेक्ष बने रहे। पत्नी का तो कह नहीं सकता मगर मेरे मन में बड़ी हलचल मची हुई थी। बार-बार दृष्टि कला जी के सुंदर मुखड़े पर जाकर टिक जाती थी। मन में एक हौल-सा उठता था–हाय रे, पूरा परिवार जैसे सांचे में ढल कर पैदा हुआ है सिवाय इस जहीन और हरफनमौला लड़की के। बेचारी को विरासत में लंबा कद और सुनहरा रंग तो मिला लेकिन नाक-नक्श की मोहक रेखाएँ नहीं। रही-सही कसर चेचक के हल्के मगर दृष्टव्य निशानों ने पूरी कर दी। उफ्फ! इस लड़की के साथ विधाता ने कैसा अन्याय किया है! अपनी कूँची के चंद स्ट्रोक और मार दिए होते तो सोने पर सुहागा हो जाता। प्रतिभा जैसे उसमें कूट-कूट कर भरी थी, मुखाकृति की चंद असंतुलित रेखाओं के बावजूद एक दुर्लभ किस्म की तेजस्विता झलकती थी।…क्या हम उसे स्वीकार करने का हौसला दिखा पाएँगे? मैं अपने आप से पूछ रहा था और शायद मन ही मन शर्मिंदा हो रहा था। रोहित और उसकी माँ मुझसे ज्यादा व्यावहारिक हैं, सोच समझ कर कोई ठीक फैसला लेंगे ऐसा मुझे विश्वास था। यही एकमात्र राहत थी मेरे लिए।

खाने की मेज पर सौजन्य, शिष्टाचार, टेबुल मैनर्स का प्रदर्शन दोनों परिवारों की ओर से जम कर हुआ। सबने अपने-अपने पत्ते सीने से सटा कर छुपाए हुए तो थे मगर कोई राज किसी से नहीं छुपा था–बेडरूम में दरवाजा बंद करके हम तीनों आपस में फुसफुसाते रहे। रोहित के दिलो दिमाग में विकट द्वंद्व चल रहा था। अंत में उसने सोने से पहले यही कहा, ‘मम्मी, मैं अपना डिसीजन सुबह बताऊँगा। गिव मी दैट मच टाइम!’ उसके बाद सब आँखें मूँदे पड़े रहे मगर देर तक नींद नहीं आई।

कृपया रोहित की जगह खुद को रख कर सोंचे कि आप क्या फैसला लेते।


Image :Night Landscape
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Artist :Arkhip Kuindzhi
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राजेन्द्र राव द्वारा भी