देशभक्ति

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झील और पर्वतों से सुशोभित, इतिहास प्रसिद्ध शीयौं दुर्ग भी जेनेवा के समीप ही था। स्वामी ने अगले दिन शीयौं जाने की योजना बनाई तो कप्तान सेवियर को कुछ आश्चर्य हुआ, ‘उस दुर्ग के विषय में आप कैसे जानते हैं?’

‘लॉर्ड बायरन की कविता ‘प्रिज़नर ऑफ शीयौं’ ने उसे इतना विख्यात कर दिया है कि अँग्रेजी साहित्य पढ़ने वाले उसकी अवज्ञा नहीं कर सकते’ स्वामी ने कहा, ‘वैसे इतिहा सभी उसकी सूचना देता है।’

‘विचित्र बात है न, आप भारतीय हैं, फिर भी आपने जितना अँग्रेजी साहित्य पढ़ा है, मैंने अँग्रेज होते हुए भी वह सब नहीं पढ़ा।’ कप्तान ने कहा।

‘राष्ट्रीयता से क्या होता है। भारत में जन्म लेनेवाले सारे लोगों ने गीता पढ़ी है क्या? कालिदास और बाणभट्ट को पढ़ा है? नहीं न।’ स्वामी हँसे, ‘वैसे मैं यह भी कह सकता था कि आप सेना में थे और शायद सैनिक लोग साहित्य नहीं पढ़ते।…चलिए शीयौं का किला देख आएँ। उसे देख कर आपको अच्छा लगेगा। उसमें साहित्य और इतिहास दोनों हैं। आपको स्थानीय इतिहास और मानवीय भावनाओं दोनों का परिचय मिलेगा।’

‘और मिस मूलर?’

स्वामी के मस्तिष्क का कोई नटखट तंतु ‘शीयौं’ और ‘चिलियन वुमेन’ में कोई संबंध स्थापित करने का प्रयत्न कर रहा था। वैसे कोई संबंध हो या न हो, ध्वनि-साम्य तो था ही, वह भी तब जब शियौं को चिलौं पढ़ा जाए।…वे लोग चकित थे कि मिस मूलर को भी इस कार्यक्रम में कोई आपत्ति नहीं हुई।

वे लोग प्रातः ही शीयौं दुर्ग देखने के लिए उस दिशा में निकल गए।

दुर्ग की चढ़ाई चढ़ते हुए मार्ग-दर्शक ने कथा सुनानी आरंभ की, ‘फ्रांसुआ बोनिवा (Francois Bonivard) का काल 1496 से 1570 ई. है। वे एक स्विस राष्ट्रभक्त और इतिहासकार थे। वे Seigneur de Lunes, लुई बोनिवा (Louis Bonnivard) के पुत्र थे। उनका जन्म सीसेल (Seyssel) में सिवॉय के एक प्राचीन वंश में हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा 1510 में ट्यूरिन (Turin) में उनके चाचा ज्यां एमे द बोनिवा (Jean Aime de Bonivard) के द्वारा हुई और उन्हीं के उत्तराधिकारी के रूप में वे जेनेवा के निकट संत विक्टर के मठ के अध्यक्ष नियुक्त हुए। युवा बोनिवा ने सेवॉय के ड्यूक, तीसरे चार्ल्स के जेनेवा-विजय के प्रयत्न का विरोध किया। ड्यूक ने बोनिवा को बंदी बना कर ‘ग्रोली’ में 1519 से 1521 तक काराबद्ध रखा। बोनिवा उससे हतोत्साहित नहीं हुए; न ही उनकी राजनीतिक सक्रियता कम हुई। कारागार से मुक्त होते ही वे पुनः अपनी राष्ट्रीयता के कार्य में लग गए। 1530 ई. में ‘जूरा’ में उन्हें डाकुओं ने बंदी बना लिया और सेवॉय के ड्यूक के हाथों बेच दिया। ड्यूक ने उन्हें पुनः बंदी बना, शीयौं के दुर्ग में भूमिगत कोठरी में बंद कर दिया।…’

मार्ग-दर्शक के साथ चलते-चलते वे लोग दुर्ग के सुंदर परिवेश में से होते हुए, भूमिगत कोठरियों की ओर चले गए और मार्ग-दर्शक एक कोठरी के सम्मुख खड़ा हो गया…। स्वामी ने कोठरी में प्रवेश किया और जैसे अपने आप से बोले…‘Dungeons deep and old…blow the surface of the lake…’

मार्ग-दर्शक ने स्वामी की ओर देखा, ‘क्या कह रहे हैं आप?’

‘गाइड महोदय, आप यह भी जानते ही होंगे कि बोनिवा के जीवन की घटनाओं से प्रेरित होकर अँग्रेजी के प्रसिद्ध रोमान कवि लार्ड बॉयरन ने 1816 में अपनी प्रसिद्ध कविता ‘द प्रिज़नर ऑफ शीयौं’ लिखी थी।’

‘मैंने उसके विषय में सुना भर है; किंतु वह कविता मैंने स्वयं पढ़ी नहीं है।’ मार्ग-दर्शक कुछ संकुचित हो गया, ‘हमें पढ़ने-लिखने का समय कहाँ मिलता है। अपना पेट भरने के लिए दिन भर सैलानियों को कथा-कहानियाँ सुनाते रहते हैं।’

‘जब कभी समय मिले तो पढ़ लीजिएगा।’ स्वामी ने कहा, ‘शायद इसी कोठरी में इन्हीं प्रस्तर-स्तंभों से बाँध कर रखा गया था उस राष्ट्रभक्त बोनिवा (Francois Bonivard) को।’ ‘जी’ मार्ग-दर्शक कुछ भावुक होकर रुक गया, ‘उनके साथ उनके दो छोटे भाई भी थे। उन लोगों को छह वर्षों तक यहाँ शृंखलाबद्ध रखा गया था। यहीं बंधे-बंधे, उनके छोटे भाइयों की मृत्यु हो गई थी। यहीं उन्होंने अपने भाइयों को तड़प-तड़प कर मरते हुए देखा होगा…’

‘चलिए, बाहर चलें।…’ मिस मूलर का दम घुट रहा था। वे बाहर की ओर चल पड़ीं। श्रीमती सेवियर भी उनके पीछे ही चली आईं। स्वामी वहीं स्तब्ध से खड़े थे। … और कप्तान सेवियर समझ नहीं पा रहे थे कि वे स्वामी का साथ देने के लिए वहीं खड़े रहें अथवा अपनी पत्नी के पास बाहर चले जाएँ।

‘कैसी अँधेरी और भयंकर कोठरी है।’ श्रीमती सेवियर ने कहा।

‘पर स्वामी तो वहाँ ध्यान लगाए खड़े हैं।’ मिस मूलर ने रोष भरे स्वर में कहा, ‘जैसे कोई तीर्थ हो वह।’

‘यही तो अंतर है, हम में और स्वामी में।’ श्रीमती सेवियर ने कहा।

‘बड़े श्रद्धा भाव से कह रही हैं, जैसे यह भी कोई गुण हो।’ मिस मूलर बोलीं।

श्रीमती सेवियर ने कोई उत्तर नहीं दिया।… मन ही मन सोचती रह गई…यही वह महिला है, जिसने स्वामी को लंदन में आमंत्रित किया, उन्हें ठहराया। उनका खर्च सहन किया। उनके भाषणों की व्यवस्था की।…उन्हें स्वामी की प्रशंसिका, भक्त और शिष्या तक मान लिया गया और अब उन्हें स्वामी की कोई बात पसंद ही नहीं आती। प्रतिक्षण चिड़चिड़ाती ही दिखाई पड़ती हैं।…

मार्ग-दर्शक कोठरी से बाहर निकल आया था। उसके साथ ही स्वामी और कप्तान सेवियर भी थे। ‘आप वहाँ क्या कर रहे थे स्वामी?’ मिस मूलर झपट कर पड़ी, यद्यपि उनका स्वर दबा हुआ ही था।

‘एक तपस्वी की तपस्या-भूमि को प्रणाम कर रहा था।’ स्वामी बोले, ‘वह शृंखलाबद्ध रहा। अपने भाइयों की मृत्यु देखी; किंतु न अपना सिर झुकने दिया, न अपने राष्ट्र का।’

‘वहाँ ध्यान के लिए बहुत उपयुक्त स्थान था। वहाँ तो खड़े-खड़े ही व्यक्ति समाधि में चला जाता है।’ स्वामी मार्ग-दर्शक की ओर मुड़े, ‘उसके बाद क्या हुआ गाइड महोदय।’

‘बर्नवासियों (Bernese) की सेना ने 1539 ई. में ‘वो’ (Vaud) जीत लिया तो उन्होंने बोनिवा को मुक्त कर दिया।’ मार्ग-दर्शक ने बताया, ‘आप तो जानते ही होंगे कि तब तक उनका मठ नष्ट हो चुका था।…’

‘आपने यह अनुमान कैसे लगाया कि मैं तो जानता ही होऊँगा?’ स्वामी ने पूछा। ‘अभी तक तो मैंने यही देखा है कि आपको सबके विषय में सब कुछ ज्ञात है।’वह बोला।

‘फिर भी आप बताएँ, ताकि मेरे भी ज्ञान की पुष्टि हो और आपके भी।’

‘मठ नष्ट हो चुका था; किंतु जेनेवा नगर परिषद् की ओर से उन्हें आजीविका के लिए पेंशन प्रदान की गई; और 1537 ई. में उन्हें जेनेवा नगर की नगर-समिति की स्थायी सदस्यता से अलंकृत किया गया।’ मार्ग-दर्शक रुका, ‘उन्होंने चार असफल विवाह किए। परिणामतः वे ऋण में आकंठ डूब गए थे।…’

‘यही होना था। लोग एक विवाह का ही ऋण नहीं चुका पाते।’ स्वामी बोले, ‘किंतु उन्होंने ऐसा क्यों किया? एक राष्ट्रभक्त स्त्री-भक्ति में निमज्जित क्यों हो गया?’

‘यह तो वे ही जानें’ मार्ग-दर्शक बोला, ‘किंतु मुझे लगता है कि अपने पिछले जीवन में जो सुख उन्हें नहीं मिला था और जो कष्ट उन्होंने सहे थे, वे अपने जीवन के बचे हुए समय में उसकी क्षतिपूर्ति कर लेना चाहते होंगे।…’

‘अच्छा और वह इतिहासकार का काम…’

‘1542 ई. में प्रशासन की ओर से उन्हें जेनेवा नगर का इतिहास लिखने का काम सौंपा गया।’ मार्ग-दर्शक ने बताया, ‘उन्होंने आरंभ से 1530 तक का इतिहास लिखा…और तब उनकी मृत्यु हो गई। उनकी पांडुलिपि को 1551 ई. में जॉन केल्विन के पास संशोधन के लिए भेजा गया। किंतु दो सौ अस्सी वर्षों तक, अर्थात 1831 ई. तक उसका प्रकाशन नहीं हुआ।’

‘क्यों?’ स्वामी चकित थे।

तत्कालीन इतिहासकारेां द्वारा उसे बहुत स्तरीय इतिहास नहीं माना गया।’

‘क्यों? यह दृष्टिभेद भी तो हो सकता है। विचारधाराओं का अंतर भी हो सकता है। व्यक्तिगत राग-द्वेष भी हो सकता है।…’

‘कहा गया कि बोनिवा का लेखन पूर्वाग्रहग्रस्त था; और लेखक की दृष्टि समीक्षात्मक और विश्लेषणात्मक नहीं थी। अंतिम दिनों में आंत्वान फ़ोमौं (Antoine Froment) ने भी पांडुलिपि तैयार करने में उनकी कुछ सहायता की थी। संभव है कि उसने पांडुलिपि को विकृत कर डाला हो। आखिर इतिहास है क्या? कथा-कहानी ही तो है। उसे कोई भी अपनी इच्छानुसार किसी भी ओर मोड़ सकता है।…’

वे लोग दुर्ग के बाहर तक आ चुके थे।

‘1551 ई. में बानिवॉ ने अपना विशाल पुस्तकालय जेनेवा के जन-सामान्य के नाम कर दिया। अपनी वसीयत (संकल्प) में भी उन्होंने अपना सब कुछ जेनेवा नगर के नाम ही छोड़ा।’

‘उनका देहांत कब हुआ?’

‘नगर के मृत्यु संबंधी आलेखों में अपूर्णता होने के कारण उनकी मृत्यु की ठीक-ठीक तिथि ज्ञात नहीं है।’ मार्ग-दर्शक ने बताया।

(अप्रकाशित उपन्यास प्रत्यावर्तनका एक अंश)


Image :Lake Nemi, Seen through Trees
Image Source : WikiArt
Artist : Camille Corot
Image in Public Domain

स्वामी विवेकानंद और उनके साथी राजकीय बग्घी में बैठे। उनके साथ अंगरक्षकों के नेता के रूप में राजा के भाई थे। भारतीय और विदेशी बैंड साथ चल रहे थे। ‘देखों हमारा जगत्-विजेता नायक आ रहा है।’ गीत की धुन बजाई जा रही थी। राजा स्वयं पैदल चल रहे थे। सड़क के दोनों ओर मशालें जल रही थीं और लोगों के द्वारा हवाइयाँ चलाई जा रही थीं। चारों ओर हर्ष और उल्लास का वातावरण था। जब वे गंतव्य के निकट आ गए तो राजा की प्रार्थना पर स्वामी बग्घी से उत्तर कर राजकीय शिविका में बैठे और वे पूरे तामझाम के साथ शंकर विला में पहुँचे। थोड़ा विश्राम करने के बाद स्वामी सभागार में उपस्थित हुए, जहाँ लोग उनको सुनने के लिए उपस्थित हुए थे।