क्रिमीलेयर
- 11 April, 2025
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- 11 April, 2025
क्रिमीलेयर
संसद में नया बिल पारित हुआ। कानून बना, कोर्ट ने फैसला सुनाया। ‘अगले’ पाँच साल किसी भी क्रिमीलेयर को सरकारी, गैर-सरकारी या अर्धसरकारी सेवा में नहीं लिया जाएगा। वे किसी भी जाति, किसी भी श्रेणी या, किसी भी धर्म के हों। इस व्यवस्था का सकारात्मक पक्ष यह होगा कि सन् उन्नीस सौ सैंतालिस से आज तक जिन्हें किसी भी प्रकार की सेवा का अवसर नहीं मिला है, वे किसी भी जाति से संबंध हों अथवा किसी भी धर्म से उनका वास्ता हो उन्हें सेवाओं में प्राथमिकता दी जाएगी। जिन्होंने एक बार सर्विस प्राप्त कर ली है, उनके बच्चों को तब तक नौकरी नहीं दी जाएगी, जब तक देश में ऐसा एक भी बच्चा बेरोज़गार रहेगा जिसका बाप सेवा में नहीं आया हो, तब तक क्रिमीलेयर को नौकरी नहीं दी जाएगी। ऐसा होगा तो देश में आर्थिक, बौद्धिक और सामाजिक विषमता कम हो जाएगी, तब कलह, हिंसा और आपसी विद्वेश की जड़ें सूख जाएँगी।
यह भेदभाव बिल्कुल संभव नहीं होगा कि एससी, एसटी क्रिमीलेयर को नौकरियों से बाहर किया जाए और ब्राह्मण, बनिया, राजपूत, कायस्थ क्रिमीलेयर को उनके अनधिकृत अवसर प्रदान कर दिए जाएँ।
सुधांशु ने ऐसा सब सपने में देखा। नींद खुली और होश में हुए तो कहने लगे–‘हे ईश्वर तेरा शुक्रिया कि जो सपने में देखा वैसा कुछ हक़ीक़त में नहीं है। बल्कि यथार्थ में तो मनोच्छित, मनोरम हवा बह चली है।’ वह परेशान कि स्वप्न में भी ऐसा निर्णय कैसे आया। जयरत्न पांडे नामक वकील ने यह क्यों कहा कि यदि एससी, एसटी पर क्रिमीलेयर लागू होगा तो जनरल पर भी होगा। क्योंकि नौकरी से रोकने के लिए क्रिमीलेयर आधार होगा तो वह एससी/एसटी ही क्यों जहाँ भी क्रिमीलेययर हो उसे नौकरी से रोक दो। क्रांतिकारी वकील जयरत्न पांडे की यह दलील चर्चा में थी। सुधांशु को अब एससी/एसटी के बजाय पांडे पर गुस्सा आ रहा था। यह उसका दस साल के करे-धरे पर पानी फेर रहा था। सुधांशु को एससी/एसटी से जातीय दुश्मनी थी। उसने कसम खा रखी थी कि एससी/एसटी को नौकरी में नहीं रहने दूँगा। इसके लिए उसने कानून पढ़ा, वर्णचेता संगठन से संपर्क किया। समान विचार के संपादक की तलाश की, अखबार के स्वजाति तत्वों से मिल कर एससी/एसटी के खिलाफ लेखन किया। संवैधानिक अधिकारों को अमल में आने से रोकने को औचित्यपूर्ण सिद्ध करने के उपक्रम शुरू किए।
परंतु घर में उसका विरोध हो रहा था। उसकी पत्नी प्रणीता को यह अन्यायपूर्ण लग रहा था। सुधांशु एससी/एसटी के अंतरविरोधों का लाभ उठाना चाह रहा था। वह जहाँ भी सुनता कि दलित कह रहे हैं कि उनके वर्ग के आरक्षण भोगी नेताओं और अफसरों ने समाज के लिए कुछ नहीं किया, बल्कि उन्होंने उच्चवर्ग की नकल की और उनकी नकल करने की कोशिश में समाज डूब गया। वंचितों को शिक्षा, रोज़गार जैसी जरूरी सुविधाएँ पाने योग्य नहीं बनने दिया।
सुधांशु इसका एक ही समाधान देता था कि एससी/एसटी में क्रिमीलेयर लागू करा दो उनको नौकरी नहीं मिलेंगी, उनकी जगह खाली होंगी तब बाकी का नंबर आएगा। दूसरी ओर वह शिक्षा के व्यवसायीकरण से खुश होता कि जब तालीम ही नहीं पाएगा तो देखें ससुरा कौन एससी/एसटी आगे आएगा। ऐसा कह कर सुधांशु एक तीर से दो निशाने लगाता। एक तो एससी/एसटी के खाली पदों में इज़ाफ़ा कराता, दूसरे वह एससी/एसटी का शुभचिंतक बन जाता। परंतु घर में अपनी पत्नी का समर्थन हासिल नहीं कर पाता। क्योंकि वह उसके दोगलेपन को पसंद नहीं करती थी। प्रणीता लगान फिल्म की उस गोरी मैम एलिजावेथ रुसेल की तरह अनफेयर का विरोध करती थी। उसे एससी/एसटी भुवन की तरह भोले और जेन्यूइन लगते थे। जिस प्रकार गोरा अफसर पाउल ब्लैक थोरने ने क्रिकेट में अप्रशिक्षित किसानों से गलत तरीके से शर्त जीतने की कोशिश की थी। प्रणीता को सुधांशु में पाउल ब्लैक थोरने से प्रवृत्तिगत समानता महसूस हो रही थी। वह कहती, ‘आप जैसे पढ़े-लिखे लोग भोले लोगों को ठग कर उन्हें अपने अघोषित गुलाम बना कर देश को कमजोर कर रहे हैं। वरन् क्या वजह है देश के सारे मलिन काम एससी/एसटी ही करते हैं। वे आज भी सम्मानित व्यवसाय नहीं कर सकते। उनकी आजादी और बराबरी का हक उन्हें मिलना चाहिए।’ ऐसी स्थिति में वह पत्नी से समर्थन कैसे ले और कैसे बताए कि उसने एक अप्रत्याशित सपना देखा है। प्रणीता तो मानवाधिकार कार्यकर्ता है। वह तो जातिभेद और अस्पृश्यता का अंत करना चाहती है। उसके क्रियाकलापों को भाँप कर कई बार तो सुधांशु डर गया था। प्रणीता ने कहा था कि ‘हम कुछ नया नहीं कर रहे सुधरे हुए देशों को न्याय का रास्ता अपनाना पड़ता है। बल्कि हम तो एक देश के रूप में आजाद हुए किसी वर्ण विशेष के रूप में नहीं।’ सुधांशु को प्रणीता की बातें समय के परे लगने लगी थीं। ‘ऐसी बातें आजादी मिलने से पहले करनी चाहिए या नेता लोग चुनाव से पहले ऐसे विचार रखते हैं।’ प्रणीता को यह फरेबी राजनीति पसंद नहीं थी। वे सोच के और सक्रियता के मामले में एकदम एक दूसरे से उलट हो गए थे। कहाँ सुधांशु एससी/एसटी को और तबाह करने के उद्देश्य से लिख-बोल रहा था और कहाँ प्रणीता उनके मानवाधिकारों के लिए काम कर रही थी। उसका एक वीडियो सुनकर सुधांशु की नींद उड़ गई थी। प्रणीता सुधांशु का नाम लिए बगैर कह रही थी कि ‘हमारे कुछ काबिल मित्र कहते हैं कि वे जर्मन में पढ़कर आए हैं, अमेरिका में पढ़ाकर आए हैं। मैं जानना चाहती हूँ कि अगर वे सामाजिक अन्याय के पक्षधर बनकर आए है तो क्या पढ़कर आए हैं और क्या पढ़ाकर आए हैं? अगर न्यायप्रिय पाठ कहीं से भी सीख नहीं पाए, तो क्या पढ़े और क्या पढ़ाए? अगर जर्मन की बात करें तो युद्ध में मारे गए यहूदियों के बच्चों को डेढ़ सौ साल बाद भी कंपनशेसन दिया जाता है और अश्वेतों की गुलामी को लेकर अमरीका-अफ्रीका की बात करें तो एक समय दासता का समर्थन करने वाला चर्च अपौलाइज करता है। दो सौ साल बाद भी क्षतिपूर्ति करने का समर्थन करता है। सभी संस्थाओं में विविधता के तहत कालों की भागीदारी से हर तरह के उत्पादन उछाल मार रहे हैं। मुल्क तरक्की कर रहे हैं। हमारे देश में तो आरक्षण भी नाम का ही रह गया है। सरकारी से ज्यादा गैर सरकारी संस्थाएँ चल रही हैं। जहाँ एससी/एसटी का नेतृत्व तो दूर भागीदारी तक नहीं है। अमरीका सा विकास चाहने वाले बताएँ क्या वहाँ जैसी समाज व्यवस्था भी लागू हो सकती है। क्या वर्ण वर्चस्व के उलट सर्वसमावेशी नई व्यवस्था आ गई सरकारों द्वारा संविधान की समतामूलक भावना समझी जा सकी है? समाजवाद की संकल्पना सामाजिक न्याय की प्रतिबद्धता, वंचितों के हक-हकूकों के साथ चार हज़ार सालों से चली आ रही अस्पृश्यता बहिष्कार अविद्या बेगार के रूप में होती आ रही क्षति की पूर्ति कराने की कोई योजना अमल में आ सकी है?’
यह सब देख-सुन कर सुधांशु ने पत्नी से कहा, ‘तुम्हारा मतलब एससी/एसटी को हमारे बराबर खड़ा करना है।’ तो वह बोली, ‘बिल्कुल करना है। संविधान की भावना भी यही है, प्रस्तावना में हम भारत के लोगों की संकल्पना भी यही है। मैं एक वचनबद्ध नागरिक की तरह वह करना पसंद करूँगी तो क्या गलत करूँगी?’ सुधांशु पाला बदल कर बोला, ‘कहो खूब कहने से मुझे आपत्ति नहीं, कहूँगा तो मैं भी उनके भले की बल्कि मैं तो कहता ही हूँ कि जो एससी मुख में मुर्दा मवेशी का मांस खा कर जिंदा रहते हैं। जो एसटी चूहा खाते हैं, उनको सुभोज्य खाने को मिले, बीमारी में इलाज मिले, बच्चों को बेहतर तालीम मिले। पर साथ ही मैं यह भी कहता हूँ कि इनमें जो क्रिमीलेयर हैं उनके बच्चों को नौकरियाँ देना बंद करें तो इन वंचितों को मिलें।’ प्रणीता ने स्थिति से अवगत कराने के उद्देश्य से कहा, ‘सेवाओं में आने के लिए शिक्षण-प्रशिक्षण चाहिए वह तो वंचितों के बच्चों को दिया नहीं जा रहा, बिना योग्यता के उन्हें क्रिमीलेयर से खाली होने वाले स्थान कैसे दिलाओगे? हाँ, तुम जरूर हड़प जाओगे उनके हिस्से के स्थान, जिस तरह आज तक हड़पते रहे हो। जबकि उनके आरक्षित स्थान तो पहले ही खाली पड़े हैं।’ प्रणीता ने उसकी अनीति का पर्दाफाश किया। तो वह क्रुद्ध हो कर बोला, ‘मै यह सब सहन नहीं कर सकूँगा। तुम्हारे लिए न्याय यही है कि तुम एक हिंदू पत्नी हो, पत्नी धर्म के अनुसार मेरा अनुसरण करो।’
प्रणीता परंपरागत महिला नहीं थी। वह सुधांशु से अपने संबंधों को लेकर काफ़ी असहज हो रही थी। वह भीतर-भीतर घुटन महसूस कर रही थी। एक दिन सुधांशु ने कहा, ‘देखो प्रणीता गृहस्थी की गाड़ी दो पहियों के तालमेल से चलती है। एक पहिया दूसरे के साथ नहीं चलेगा तो गाड़ी की धुरी टूट जाएगी। मेरा मतलब तुम मेरे साथ नहीं हो तो मैं तुम्हारे साथ कैसे रह सकता हूँ?’ इस पर प्रणीता बोली, ‘नहीं रह सकते तो मैं क्या कर सकती हूँ?’ सुधांशु तपाक से बोला, ‘तो तुम अलग रह सकती हो।’
‘ठीक है कर दो अलग मैं भी तुम्हारे साथ रहना नहीं चाहती हूँ। चलो म्यूचल अंडर स्टैंडिंग के आधार पर सैपरेशन ले लेते हैं।’ अनअपेक्षित जवाब सुन कर सुधांशु को धक्का लगा। वह सोचता था कि प्रणीता हर हाल में साथ रहने के लिए गिड़गिड़ाएगी। तब उसने सवाल किया, ‘तुम ऐसा कैसे सोच सकती हो?’ तो प्रणीता ने कहा, ‘मैं इतने इनह्यूमन और असभ्य व्यक्ति के साथ अब तक रही कैसे मुझे तो यही अफसोस है।’
‘तो मैं तुम्हें इनह्यूमन लगता हूँ? असभ्य हूँ मैं, क्या मैं तुम्हें प्यार नहीं करता? क्या मैंने तुम्हारे आने के बाद कौशल्या चौधरी से अपना रिलेशन ब्रेक नहीं कर लिया था? क्या मैंने तुम्हारे कहने पर पंद्रह लाख के बजाय ग्यारह लाख की गाड़ी दहेज में लेना स्वीकार नहीं कर लिया था?’ सुधांशु धारा प्रवाह अपनी सफाई पेश कर रहा था। प्रणीता ने देर तक सुनने के बाद कहा–‘मैं तुम्हें अपनी वजह से नहीं छोड़ रही।’
‘तो किसकी वजह से छोड़ रही हो?’
सुधांशु ने प्रश्न किया तो वह कहने लगी, ‘मुझे तुम्हारे दोगले विचार पसंद नहीं हैं। तुम्हारी कथनी और करनी में अंतर है, तुम्हारे अंदर पारदर्शिता नहीं है।’ प्रणीता एक साँस में बोलती चली गई। उसकी यह बोल्डनेस सुधांशु को गहरे तक चुभ गई। अपनी असह तिलमिलाहट को छिपाते हुए वह बोला, ‘तुम ऐसा कैसे सोच सकती हो मेरे बारे में? कभी कहती हो इनह्यूमन हूँ तो कभी कहती हो अनैतिक हूँ और कभी कहती हो दोगला हूँ। तुम्हें ऐसा कहते हुए बिल्कुल नहीं लगता कि मैं एक हाई क्वालिफाइड व्यक्ति हूँ और मैं जो भी सोचता-करता हूँ वह सब करता तो अपनी सोसाइटी के इंटरेस्ट में हूँ आखिर हमारे इंटरेस्ट तो कॉमन ही होने चाहिए।’
सुधांशु ने वर्ण स्वार्थ का संदर्भ देकर कहा था। इस पर प्रणीता ने कहा, ‘मुझे यही तो अफसोस है कि ऊँचा पढ़कर देश-विदेश में घूम-फिर कर आप मानो न्याय और नैतिकता को तिलाजंलि दे चुके हैं। आप आधुनिक सभ्यता के सकारात्मक मूल्यों को नहीं मानते हैं। आप अपने देश में बढ़ते आर्थिक असंतुलन सामाजिक विषमता और धार्मिक कट्टरता की वजह से देश में सामूहिक विकास के सत्यानाश करने वालों का साथ दे रहे हैं। तो आपको और किस विशेषण से विभूषित करूँ?’
प्रणीता के विचार सुन कर उसे धक्का लगा। वह एक बार को तो यह भी कह गया कि यही सोच कर हमारे व्यवस्थाकारों ने शूद्रों के साथ-साथ स्त्रियों को भी शिक्षा न देने का प्रावधान किया था। न पढ़ी होती और न गैर जातियों के हितों के लिए अड़ी होती। आखिर वह तिलमिला कर बोला–‘मैं समझ सकता हूँ, तुम्हारी हमदर्दी कहाँ है तुम किस न्याय और नैतिकता की बात कर रही हो, पर मैं तुम्हें साफ बता देना चाहता हूँ, मैं न तो समाज को टूटने दूँगा और न ऊँची जातियों का हक किसी को खाने दूँगा। इसके लिए रिश्ते-नाते कुछ भी कुर्बान करने पड़े मैं पीछे नहीं हटूँगा।’
सुधांशु ताब में आ गया था। उसका ऐलान सुनकर प्रणीता बोली–‘मैं कब कहती हूँ कि ऊँची जाति के हक किसी को खाने दो और कौन नीची जात–ऊँची जात के हक खा सकती है? वे तो अपने ही हक हासिल नहीं कर पा रहीं किसी और का क्या खाएँगी, कितनी पंचवर्षीय योजनाएँ गुजर गईं एससी/एसटी में भूमिवितरण का संकल्प आज भी पूरा नहीं हुआ। देश में सबसे ज्यादा आसहीन हैं तो यही हैं। मैं तो तुम्हारी उस अनीति की बात करना चाहती हूँ जिसके तहत तुमने कहा था कि एससी/एसटी में जिन्हें एक बार नौकरी मिल गई है, उन्हें दूसरी बार नहीं मिलने दूँगा। उन्हें क्रिमीलेयर की सूची में रखवा कर रहूँगा। जो भी हो जिसके पास कार आ गई हो, जिसने मकान बना लिया हो उसके बच्चों को क्रिमीलेयर में रखा जाए। उन्हें नौकरी न दी जाए।’
‘यह माँग खुद एससी/एसटी के वंचितों की ओर से उठवाना चाहता हूँ। मेरा संकल्प है कि मैं क्रिमीलेयर के खिलाफ एससी/एसटी में ही विद्रोह करा के रहूँगा। पॉलसी बनवाऊँगा, लागू कराऊँगा, जीजा जी बड़े वकील हैं। उनसे यह केस लड़वाऊँगा और जीतवाऊँगा, जो शिक्षा, स्वास्थ्य रोज़गार का निजीकरण कर एससी/एसटी में क्रिमीलेयर पैदा होने से रोकेगी ऐसी सरकार बनवाऊँगा।’
सुधांशु का इरादा सुनकर प्रणीता से रहा न गया तो वह जी कड़ा कर के बोली, ‘तुम्हारे जीजा जी के प्राइवेट अस्पताल में तो कभी किडनी कांड होता है, कभी इन्मैच्योर डिलेवरी कराने पर प्रसूताओं के बेमौत मरने का हादसा होता है। वे तो एससी या एसटी नहीं हैं!’
सुनते ही सुधांशु का माथा और गरम हो गया–वह बोला, ‘देखो प्रणीता! परसनल मत हो जाओ, यूँ तो तुम्हारे एक दूर के रिश्तेदार ने भी प्राइवेट यूनिवर्सिटी खोली है, अनट्रेंड, अनक्वालिफाइड टीचर्स रख कर जितने पैसे दो उतने मार्क्स लो की सौदेबाजी कर रखी है। पिछली साल एक बच्चे को कम अंक मिले थे तो शिकायत की गई थी। तब जवाब मिला था कि ‘डोनेशन कैंटेशन फी कितनी दी थी मात्र दो लाख? क्या होता है दो लाख में। जैसा गुड़ डालोगे वैसा ही मीठा होगा’ ऐसा कह कर भगा दिया था।’
‘और वह कहता रहा था कि उतने में ही जमीन का टुकड़ा बिक गया था। तो मैं इस लूट, इस गलाकाट व्यवसायिकता को लेकर खामोशी के खिलाफ अपने पिता जी से भी लड़ती हूँ। यह बढ़ती असमानता के खिलाफ लड़ना अँग्रेजों से लड़ने से भी ज्यादा मुश्किल है, बल्कि मुझे तुमसे उम्मीद थी कि तुम एससी/एसटी के अधिकार दिला कर देश को आत्मनिर्भर होने में मदद करो। अब आप उलटा कर रहे हैं और चाहते हैं कि मैं आपसे समझौता करती रहूँ? यह मुझसे नहीं होगा, यह मेरे जमीर को गवारा नहीं है।’ सुनकर सुधांशु कहने लगा, ‘देखो प्रणीता मैं जो कर रहा हूँ वह सब उनके लिए कर रहा हूँ जो बेचारे अभी तक आजादी की भनक तक नहीं पा सके हैं। अगर एससी/एसटी में क्रिमीलेयर लागू हो जाएगा तो उसका लाभ उन्हीं के वंचितों को मिल जाएगा। तुम्हें पता हो कि इनमें प्रभावशाली हो चुके हिस्से अपने निहित स्वार्थों की वजह से क्रिमीलेयर लागू होने का विरोध करते हैं। ताकि पूरे समुदाय को उपलब्ध सकारात्मक लाभों पर वे ही एकाधिकार जमाए रखें। ये मात्र पाँच फीसद हैं।’
सुधांशु ने कहा तो प्रणीता बोली–‘नौकरी पाने भर से एससी/एसटी में क्रिमीलेयर हो रहे हैं तो उनमें तो सौ में पाँच को नौकरी मिली है। हम जनरल वालों को तो सौ में पनचानवे क्रिमीलेयर हैं। बल्कि निजी क्षेत्रों की नौकरियों में तो शत-प्रतिशत हमीं हम हैं। जनरल के लोग सब सेवाओं में हैं। आर्थिक क्षेत्र में हैं, व्यवसाय में हैं…जो नहीं हैं उनके लिए तो हम अपनी हैसियत छोड़ने नहीं जा रहे, कि चलो भाई सत्तर साल हम क्रिमीलेयर रह लिए अब तुम रहो। मत छोड़ो एससी/एसटी के लिए, आप अपने जनरल के लिए नौकरी से बाहर होकर दिखाओ…एक उदाहरण पेश करो! शायद एससी/एसटी आपसे प्रेरित हो कर अनुकरण करने लगें। उन्हें तो आज तक अस्पृश्यता की महामारी ने भी नहीं छोड़ा है। कोई भरपाई की है उनके नुकसान की जनरल के क्रिमीलेयर ने।’
प्रणीता ने कायदे की बात की, पर सुधांशु की ढिठाई में कमी नहीं आई। वह बोला–‘देखो प्रणीता मैं उनके भले की बात कर रहा हूँ। आरक्षण पाकर उच्च पदों पर आसीन लोगों के बच्चों को फिर आरक्षण का लाभ देना और फिर उनकी अगली पीढ़ी द्वारा भी फायदा लेना। इस तरह अपने ही एससी/एसटी समुदाय के कमजोर तबकों के बच्चों को आगे नहीं आने देना, लाभ का एससी/एसटी के कुछ लोगों तक सीमित रह जाना सामाजिक न्याय की अवधारणा के विरुद्ध है और मैं ठहरा न्यायवादी, न्यायप्रिय।’ सुधांशु ने अपने मन का गुबार निकाल दिया था। इस पर प्रणीता ने कहा, ‘सपोज करो, आप उनके लिए नहीं अपने वर्णहित के लिए अपना उच्चपद छोड़ देते हो तो क्या आपके भाई भी प्रोफेसर बन जाएँगे, जज बन जाएँगे, वीसी बन जाएँगे? अगर वे तालीम नहीं पाएगे।’
‘वे कैसे बन जाएँगे! वे क्या पीएच.डी. किए हुए हैं, उनकी जैसी एजुकेशन होगी वैसा पद पाएँगे।’ सुधांशु बोले तो प्रणीता कहने लगी–‘जब आप अपने भाइयों को योग्यता के अभाव में उच्च पद नहीं दिला सकते तो यह कैसे संभव होगा कि शिक्षित एससी, एसटी को क्रिमीलेयर में निकाल दें और जिन्हें आपने शिक्षा दुलर्भ कर दी है उनसे उनके आरक्षित स्थान भरे जाएँ। पाँच पास वीसी, तीन पास न्यायधीश बनाओगे क्या? लाभ किसको मिलेगा? तुमको, हमको, हमारे बच्चों को, हमारी पूरी कौम को। एससी/एसटी में तालीम की कितनी कमी है? कभी जानने की कोशिश की है? उनके लिए खुले सस्ते सरकारी स्कूलों को बंद करा कर अपने व्यासायिक स्कूल किसने खोले हैं? एससी/एसटी ने या आपके क्रिमीलेयर ने? सरकारी अस्पताल किसने बंद कराए? एससी/एसटी ने या आपके जनरल ने ये फाइब स्टारनुमा अस्पताल और स्कूल किसके स्वामित्व में चल रहे हैं–एससी/एसटी के या आपके? जवाब दो सुधांशु चुप क्यों हो गए? लेकिन तुम कहते हो–सरकारी सेवाओं और शैक्षणिक संस्थाओं में एससी/एसटी आरक्षण-कोटा में क्रिमीलेयर लागू कर उन लोगों को नौकरी से निकाल बाहर करो जिन्होंने एक बार आरक्षण का लाभ ले लिया है।’
‘हाँ, कहता हूँ बल्कि ऐसा इम्पलीमेंटेशन करवा के रहूँगा। इससे तुम्हें क्या परेशानी है, तुम्हारा किसी एससी/एसटी से कोई सहानुभूति का रिश्ता है?’
‘रिश्ता है न्याय का, इनसानियत का, देशप्रेम का।’ प्रणीता ने आवाज ऊँची करते हुए कहा। इस पर सुधांशु राय ने सीधा आक्षेप लगाया कि ‘तुमने इसलिए तलाक का प्रस्ताव रखा है क्योंकि जरूर तुम्हारा टाँका किसी एससी/एसटी क्रिमीलेयर से भिड़ गया है। ये एससी/एसटी हमारे घर में पहले भी सेंध लगा चुके हैं…।’ वह अगला वाक्य कहते-कहते रुक गया था।
इतना सुन कर तो प्रणीता भीतर तक हिल गई। ऐसा आरोप, चरित्र पर संदेह इसकी तो कभी कल्पना भी नहीं की थी उसने। पर उसने अपने आपको सँभाला और साहस के साथ बोली, ‘तुमको ऐसा लगता है तो ऐसा ही समझो। मैं तुम जैसे जिन्न की क्रूरता के साथ नहीं रह सकती। मैं जानती हूँ हजारों साल से एससी/एसटी अन्याय सह रहे हैं, शोषित-पीड़ित रह रहे हैं। अब एक ओर तो उनकी जमीनें छीन ली, उन्हें व्यावसायहीन कर दिया, शिक्षा उनके लिए दुलर्भ कर दी, सरकारी जमीनों पर एनजीओ संस्थाएँ खड़ी कर लीं और एससी/एसटी के स्वामित्व में कोई संस्था नहीं बनी। तो संविधान में संकलित समानता कैसे आएगी? संस्थाओं में उनका निर्धारित प्रतिनिधितत्व नहीं तो उनके हक-हकूक उन्हें कौन दिलाएगा?’ सुनकर सुधांशु बोला, ‘मेरी समझ में नहीं आता तुम किसकी तरफदारी कर रही हो…खाती हमारा हो गाती एससी/एसटी का हो। तो तुम मानवाधिकार सेवा छोड़ कर उनकी नेता बन जाओ। मौका है जाओ बीएसपी ज्वाइन कर लो। मायावती के साथ खड़ी हो जाओ।’
सुन कर वह कहने लगी, ‘मैं क्यों मायावती के साथ खड़ी होऊँ? वे कौन सी गाँव-गाँव में हुई सरकारी स्कूलों की हत्याएँ रोक पाईं क्या? उन्हीं के समय में लखनऊ से लेकर गाजियाबाद तक विकसित की गई आवास विकास कॉलोनियों में कहीं कोई सरकारी स्कूल खोला मायावती ने? वे कब एससी/एसटी को वीसी बनाती हैं, उनके हिस्से के साहित्यिक सम्मान किसे दिला पाती हैं? वे हिंदी अध्यापक स्नातक में लगी संस्कृत की अनिवार्यता नहीं हटवा पाती हैं। जबकि हिंदी अध्यापक के लिए स्नातक में संस्कृत की शर्त किसी राज्य में नहीं है। मायावती के राज में हिंदी अध्यापक की नौकरी किसी एससी/एसटी को क्यों नहीं मिलती है?’ प्रणीता ने मुद्दों की बात की तो सुधांशु अगला पाशा फेंकते हुए बोला, ‘तो फिर काँग्रेस ज्वाइन कर लो?’
तो प्रणीता कहने लगी, ‘साठ साल काँग्रेस के भरोसे ही तो रहीं ये अनुसूचित जातियाँ और शायद भविष्य में भी इन्हें रहना पड़ जाए, पर आरक्षण तो पूरा नहीं किया…उलटे निजी क्षेत्र में इनके स्थान शिफ्ट कर दिए, वहाँ एससी/एसटी की भागीदारी का कोई उपक्रम नहीं। लेकिन आप मुझे राजनीति में क्यों घसीट रहे हैं? मैं तो तुम्हारी उस कूटनीति से परेशान हूँ जिसमें तुम एससी/एसटी का अहित करके देश की सामाजिक शक्तियों को कमजोर कर रहे हो। इसका नतीजा जानते हो, थोड़ा बहुत इतिहास बोध है आपको?’
सुधांशु तिलमिला कर बोला–‘सब है, तुम्हें बताने की जरूरत नहीं है, बल्कि मैं ही तुम्हें बताना चाहूँगा कि नीची जातियों के प्रति तुम्हारी अतिरिक्त सिम्पैथी का कारण क्या है, मैं सब जानता हूँ।’
‘क्या जानते हैं आप, बताइए जरा?’
‘रहने दो, मेरा मुँह मत खुलवाओ।’
‘क्यों ऐसी क्या बात है जो मुझे नीचा दिखा दोगे तुम?’
‘तो सुनो तुम्हें पता होगा, तुम्हारे पिता के हलवाहे ओमा खटिक से तुम्हारी माँ के…।’
‘खबरदार! माँ के चरित्र पर लांछन लगाया तो। तुम्हारी वीकनेस मैं समझ सकती हूँ, जब तुम संवाद में शिकस्त पाते हो तो लांछन पर उतर आते हो। पर अब इल्जाम लगाने पर आए हो तो बंद क्यों हो गए?’ प्रणीता ने कुद्ध स्वर में कहा तो वह धूर्ततापूर्ण स्वर में कहने लगा–‘मुझसे क्यों कहलवाना चाहती हो। अपने घर, अपनी बस्ती से पूछो?’
‘देखो सुधांशु तुम लिमिट क्रॉस कर रहे हो। देखो न्याय वंचित, कमजोर लोगों से सिम्पैथी मेरे खून में है, मेरे पिता स्वतंत्रता सेनानी थे वे चाहते थे कि आजादी एससी/एसटी तक भी पहुँचे। अस्पृश्यता का अंत हो और संस्थाओं में ससम्मान साधिकार भागीदारी मिले। मेरी सिम्पैथी विशुद्ध देश भक्त नागरिक की सिम्पैथी है। मैंने पूना-पैक्ट, गोलमेज सम्मेलन की बहसें पढ़ी हैं। आजादी में इन्हें अब सरकारी सेवाओं, शैक्षिक संस्थाओं, व्यवसायों, कला, मीडिया, कृषि, उद्योग, सिनेमा इत्यादि ज्यूडिशियरी सब क्षेत्रों में प्रतिनिधि मिलेगा तभी तो इन्हें भी आजादी मिल सकेगी।’
‘मतलब तो तुम बाज नहीं आओगी, तरफादारी एससी/एसटी की ही करोगी। तुम तो यह भी नहीं देखती कि तुम सवर्ण हो, तुम्हारा वर्ण इंटरैस्ट हमारे साथ ही होना चाहिए। ये लोग जनरल में कम्पीट करें, मैरिट में आगे आएँ। मुझे कोई ऐतराज नहीं होगा।’
‘तो आप यह बात जान लें कि एससी/एसटी में क्रिमीलेयर नहीं है। किसी को अवसर से वंचित नहीं रखा जा सकता। जब मैरिट को आधार बना कर एससी/एसटी को नौकरियों के लिए सामान्य में आवेदन करने का अधिकार मिला तो गुजरात सहित कई राज्यों और कई सेवाओं में आवेदन में जाति/श्रेणी बताना अनिवार्य किया गया और अपनी ही जाति/श्रेणी में आवेदन करने के लिए बाध्य किया गया। जबकि ओपन पोस्ट किसी जाति विशेष के लिए नहीं होती हैं। वे मैरिट के लिए होती हैं। मैरिट में एससी/एसटी भी आते हैं।’
‘तो तुम क्या चाहती हो, क्या क्रिमीलेयर को नौकरी मिलनी चाहिए और सत्तर साल से जिनकी एक पीढ़ी को भी अवसर नहीं मिला उसे आगे भी नहीं मिलना चाहिए?’ सुधांशु ने साल किया। इस पर प्रणीता बोली, ‘मैंने ऐसा तो नहीं कहा, मैं तो भेदभाव का विरोध कर रही हूँ। यदि सामान्य नियम बनाया जाए कि क्रिमीलेयर मात्र को नौकरी नहीं दी जाएगी, तो यह नियम उन सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों पर भी लागू होगा जिनकी पीढ़ियाँ क्रिमी–समंदर में गोते लगा रही हैं। चार हज़ार साल से एससी/एसटी का हिस्सा खा रही हैं। आजादी के लाभ उठा रही हैं। कुलपति, जज, प्रोफेसर, निजी संस्थाओं के मैनेजर, टीवी चैनलों और नेशनल डेलीज मालिकान, सब से तो वंचित हैं–एससी/एसटी। आप जनरल के क्रिमीलेयर को सेवाओं से बाहर कर उनसे खाली होने वाली जगहों को एससी/एसटी को मत दो सामान्य के वंचितों को दो। क्या आप संपन्न सवर्ण के सुविधाभोगी लोग अपने ही विपन्न जनों के बेरोज़गारों का हिस्सा नहीं खा रहे? क्या उनके हिस्से के सभी उच्च पद भर दिए गए हैं। वे निर्धारित से अधिक ले बैठे हैं?’ सुधांशु की बोलतीबंद थी। वह तर्कसंगत दलीलें सुन कर गंभीर हो गया था। आज के अखबार में खबर थी कि ‘एफरमेटिव एक्शन के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय में चर्चा हो रही है, निजी क्षेत्र में आरक्षण दिया जाए या सरकारी क्षेत्र का बचा-कुचा भी समाप्त कर दिया जाए? उधर सुधांशु बच्चों की तरह रट लगा रहे हैं कि जो आरक्षण पाने की पात्रता रखते हैं, बच्चों को पढ़ाने में थोड़े समर्थ हैं उन्हें क्रिमीलेयर बना कर विकास की दौड़ से बाहर कर दिया जाए।’
प्रणीता आँकड़ों का विश्लेषण कर निष्कर्ष निकालती है कि ‘उच्च सेवाओं में एससी/एसटी का प्रतिनिधित्व एक फीसद से भी कम हो पा रहा है। सुधांशु का फार्मूला लागू हुआ तो वह जल्दी ही शून्य पर पहुँच जाएगा। एससी/एसटी की पहुँच से बाहर किया गया हर स्थान सुधांशु किसे दिलाएगा? असल बात यह है कि जिस दिन से प्रतिनिधित्व देना तय हुआ उसी दिन से कुछ पात्रता शर्तें कड़ी करके कुछ एससी/एसटी बच्चों को रोज़गारपरक क्वालिटी एजुकेशन और शिक्षण-प्रशिक्षण से दूर कर के उनके हिस्से की जगहें खाली रखी गईं। सुधांशु के वर्णमित्र कब्जा कर रहते रहे। अब पराया हक खाने की आदत हो गई है। इन्हें एससी/एसटी का खून मुँह लग गया। यथास्थिति स्वाभाविक लगने लगीं। ऊपर से कहता है कि मैं तो एससी/एसटी में जो गरीब हैं, उनकी गरीबी हटाने का सुझाव दे रहा हूँ। पर आरक्षण तो प्रतिनिधित्व का साधन है, गरीबी उन्मूलन का कार्यक्रम नहीं।’ प्रणीता ने अपने शोध अध्ययन के आधार पर जवाब दिए थे और बताया था कि ‘घोषित आरक्षण से अघोषित आरक्षण कहीं ज्यादा हैं। मंदिर में, मीडिया में, साहित्य में सिनेमा में किसका वर्चस्व है किसका आरक्षण है?’
प्रणीता ने सुधांशु से कहा कि तुम मुझे खूब सोच-समझकर बताओ कि बैंकलॉग-वैकेंसीज का नहीं भरा जाना सामान्य बात क्यों है? क्रिमीलेयर पद तो माननीय जजों के हैं। विदेश सचिवों और केंद्रीय सचिवों में एससी/एसटी कितने है? संपादकों, प्रोफेसरों और वीसी में कितने दलित हैं? प्रणीता ने एक बार फिर आँकड़ों का आधार दोहराया। क्योंकि ‘आरक्षण नीति : प्रतिनिधित्व प्रक्रिया’ विषय पर उसने लघु शोध कार्य किया था। जबकि सुधांशु ने तो ‘भारतीय दलित साहित्य और अफ्रीकन अश्वेत साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन’ किया और इसी आधार पर विदेशी वि.वि. में भी कुछ दिन काम किया था। इसी कारण प्रणीता ने पूछा था कि ‘क्या आप नहीं जानते कि वहाँ आरक्षण नहीं है, फिर भी डायवर्सिटी के तहत हर संस्था में शिक्षा, मीडिया, कला, सिनेमा, उद्योग हर जगह अश्वेतों का जनसंख्या प्रतिशत के मुताबिक प्रतिनिधित्व अनिवार्य होता है। विशेष रूप से निजी क्षेत्र सर्विस डायवर्सिटी में ज्यादा रुचि लेता है। वह रंग, नस्ल की विविधता का अवसर देकर ग्रीन कार्ड हासिल करता है तब सरकारी अनुदान और रियायतें पाता है। जबकि हमारे देश में अधिकांश संस्थाएँ एससी/एसटी को कोई जगह नहीं दे रही हैं। निजी क्षेत्रों का रवैया तो पूरे बहिष्कार का ही है।’
तब भी सुधांशु को लगता कि पाँच फीसद एससी/एसटी का वर्चस्व कायम है। यह सरासर बौद्धिक बेईमानी है। जबकि माननीय कोर्ट कह चुकी है कि एससी/एसटी में क्रिमीलेयर है ही नहीं पर सुधांशु को दिखाई दे रहे हैं तो इन तथाकथित क्रिमीलेयर को आरक्षण देकर भी आरक्षित स्थान खाली पड़े हैं। इन्हें बाहर करने के बाद जो आर्थिक-बौद्धिक रूप से असमर्थ हैं, जिनके लिए सरकारी स्कूल बंद है और प्राइवेट की फीस नहीं दे सकते वे बिना शिक्षा, बिना सबलीकरण के पात्रता तो प्राप्त नहीं कर सकते। सुधांशु का मिशन फेल होता जा रहा था और प्रणीता अपने निष्कर्ष निकालती जा रही थी। उसके अनुसार जिन पनचानवे फीसद को आरक्षण नहीं मिला और वैकेंसी खाली थीं और खाली हैं, उपयुक्त पात्र क्यों नहीं मिल पा रहे? पात्रता बढ़ते कौशल विकास (स्कैल) के लिए एससी/एसटी के लिए कोई कार्यक्रम चला है क्या? सुधांशु गरीबों की बात करता है पर आरक्षण तो रियायत देने या गरीबी उन्मूलन करने का साधन नहीं है। वह तो प्रतिनिधित्व का तरीका है। आरक्षण पाने के लिए पदोचित योग्यता प्रमाण पत्र चाहिए। बीपीएल कार्ड नहीं, अवसरों की समानता प्रतिनिधित्व की अनिवार्यता को नकारा गया है। सुधांशु का आरोप कि एससी की पाँच फीसद का उच्च पदों पर वर्चस्व कायम है। पनचानवे फीसद वर्चस्व किसका है वह जानता है। दिलचस्प है कि मैंने गैर-दलित होकर भी दलित साहित्य पर पीएच.डी की है। इसलिए वे इसके अधिकारी विद्वान हैं। आप ऐसे समय में आरक्षण का विरोध कर रहे हैं। क्रिमीलेयर आरोपित कर रहे जब निजी क्षेत्र में अस्सी फिसदी आरक्षण समाप्त कर दिए प्राइवेट में आरक्षण की माँग हो रही है।
‘प्रणीता तुम क्या जानना चाहती हो?’ सुधांशु ने सवाल किया था। तो वह कहने लगी, ‘यह कि हजारों सालों से विद्या से वंचित, बस्तियों से दूर, सदियाँ शोक-संताप में डूबे गुजर गईं, अज्ञानता के अँधेरों में रखा तुम्हारे पुरखों ने, अँग्रेज आए तब ये लोग थोड़ा-बहुत पढ़-लिख पाए। आजादी के लिए इन्होंने बेनाम शहादतें दीं। क्या इनकी बेगारों, सेवाओं का प्रतिफल मिला है इन्हें?’ सुधांशु हतप्रभ था–‘इतना तो किसी दलित नेता ने भी भोगे हुए यथार्थ के बल पर ऐसा नहीं कहा!’
सुधांशु चाय के घूँट भरते हुए प्रणीता के सवालों पर सोच रहा था कि क्यों कर प्रणीता एक पत्नी के बजाय प्रतिद्वंद्वी बन कर खड़ी हो गई। उसने यह सवाल क्यों किया–‘आप एक बात बताइए आपको एससी/एसटी से खास कर तथाकथित क्रिमीलेयर से इतनी घृणा, इतना विद्वेष और इतनी क्रोध क्यों है? ऐसा क्या बिगाड़ा है आपका इन्होंने? आप अपनी तरक्की से खुश कम…एससी/एसटी को मिली थोड़ी भी राहत से दु:खी क्यों रहते हैं। आपको मेरी कसम आप आज मन की बात बताएँ।’
प्रणीता का अप्रत्याशित प्रश्न सुन कर सुधांशु की साँस अटक गई। वह ऊपर से अपने आपको सभ्य, लोकतांत्रिक और न्यायप्रिय भी दिखाना चाहता था। वह प्रश्न को टाल गया–‘नहीं मेरा कोई द्वेषभाव किसी के प्रति नहीं है हम सब भारत के लोग हैं। हमने आजादी के बाद के देश में मिल-जुलकर रहने का संकल्प लिया है।’
‘तो क्या दु:ख-सुख साझा करने का कोई उपक्रम किया है आपने?’
‘नहीं इतना भी नहीं, हम तो चाहते हैं जो कुछ परंपरा से होता चला आया है उसे होने दें।’
‘यह मेरे प्रश्न का जवाब नहीं है। मैं आपके उत्तर की प्रतीक्षा कर रही हूँ।’ प्रणीता ने कहा। सुधांशु अपने एससी/एसटी विरोधी मिशन में पूरी तरह लगे हुए थे। प्रणीता की प्रश्नाकुलता बरकरार थी। उन्हीं दिनों विश्वविद्यालय में दलित साहित्य की प्रमाणिकता पर सेमिनार था। विशेषज्ञ के रूप में पहुँचने वाले गैर-दलितों में सुधांशु का अधिकार पहला था। क्योंकि उन्होंने पीएच.डी शोध का विषय दलित साहित्य चुना था और मौका था अकादमिक अधिकारी विद्वान होने की हैसियत से कहें कि गैर दलित भी दलित साहित्यकार होते हैं, परंतु जब बात क्रिमीलेयर की आई तो उसमें गैर दलित नहीं एससी/एसटी ही क्रिमीलेयर होते हैं।
सुधांशु की स्थापना का वीडियो वाइरल हुआ तो प्रणीता ने पुनः अपना प्रश्न दोहरा दिया। सुन कर सुधांशु बेचैन हो उठा। कोर्ट में एक ब्राह्मण वकील आर रत्न पांडे ने जब यह कहा कि ‘क्रिमीलेयर एससी/एसटी पर लागू हो सकता है तो जनरल पर क्यों नहीं हो सकता? जहाँ एक-एक घर में पाँच-पाँच आइ.ए.एस, आइ.पी.एस. और इंजीनियर डॉक्टर, प्रोफेसर भरे पड़े हैं। ऊपर से उनके लिए कला, मीडिया, निजी क्षेत्र सभी के दरवाजे खुले पड़े हैं उनमें क्रिमीलेयर क्यों नहीं हो सकते?’
पांडे का ऐसा बयान अप्रत्याशित था दलितों के लिए भी और गैर दलितों के लिए भी। रक्षाबंधन पर घर आई सुधांशु की बहन आकांक्षा जब अपनी स्थिति बताने लगी तो सुधांशु उसे प्रणीता के सामने ले आया, ‘इन्हें सुनाओ।’
वह कहने लगी, ‘आज कल नौकरियों में हम जनरल को बहुत कम्पटीशन हो गया है। मेरे पति अच्छी जॉब के लिए मारे-मारे फिरते हैं।’
सुनकर प्रणीता ने पूछा, ‘क्यों ऐसा क्यों तुम्हारे पति किस कंपनी में काम करते हैं?’
‘यहीं नोएडा में कंप्यूटर सॉफ्टवेयर कंपनी है।’
‘उसमें एससी/एसटी कितने कर्मचारी हैं? मेरा मतलब उनकी भागीदारी का अनुपात क्या है?’ तो आकांक्षा बोली, ‘वह तो प्राइवेट कंपनी है, उसमें एससी/एसटी क्यों होंगे? वहाँ तो एक भी नहीं हैं। आकांक्षा ने जवाब दिया।
तो प्रणीता बोली–‘जब एक भी एससी/एसटी नहीं है तो उनसे आपका कम्पटीशन कैसे हो गया?’ प्रणीता ने सवाल किया तो आकांक्षा बोली, ‘उनके आने का डर तो है। वे आ न जाए इसलिए अभी प्राइवेट में जनरल को ज्यादा काम करना पड़ता है। वह भी कम वेतन पर।’ आकांक्षा के जवाब में मासूमियत भी थी और पूर्वाग्रह भी। सुन कर प्रणीता बोली, ‘क्या उनके आने के डर से डरी हो तुम?’
सुनकर आकांक्षा ने ‘हाँ’ में हामी भरी, ‘जी, भाभी जी उनके आने के डर से, हाँ आप फिल्मों में ही देख लो, अखबारों में, टी.वी. चैनलों में देख लो जनरल के लोग कितनी मेहनत करते हैं। विद इन जनरल क्या कोई कम कम्पटिशन है? अगर नहीं करेंगे तो यहाँ भी आरक्षित क्षेत्रों जैसी स्थिति हो जाएगी।’ आकांक्षा अपनी वर्णचेतना का पक्ष ले रही थी।
प्रणीता ने प्रश्न किया, ‘अगर एससी/एसटी की भागीदारी होगी तो क्या स्थिति खराब ही हो जाएगी? वे बाहर हैं तो भीतर सब कुछ ठीक-ठाक है और इस पर भी तुम्हारे भैया को क्रिमीलेयर नामक बुखार है। क्या यह आप बहन-भाई के डीएनए का कमाल? अब जनरल आपस में कम्पीटशन नहीं कर पाते या नौकरियाँ नहीं होने के कारण बेरोज़गार रह जाते हैं तो दोष एससी/एसटी को देते हैं।’
प्रणीता न्याय की बात कर रही थी। वह चाहती थी कि कमजोर वर्गों को सेवा के मौके मिलें तो हमारा देश भी रूस, अमरीका, चीन, जापान की तरह आत्मनिर्भर बने, तरक्की करे।
सुधांशु ने आज एक दलित विरोधी संपादक की मार्फत एक तथ्यहीन बेहद सतही लेख में अपना क्रिमीलेयर फार्मूला वर्ण शक्तियों तक पहुँचाया। वह जब पत्नी के पास आया तो ऐसे चौड़ा हो रहा था मानो देश विरोधी युद्ध फतह कर आया हो। परंतु प्रणीता का प्रश्न तो अभी भी अनुत्तरित था। उसने याद दिलाया तो उसी पर शक करने लगा कि ‘तुम्हें अछूत और जंगली जातियों से ऐसी हमदर्दी क्यों हैं? अब एससी/एसटी में क्रिमीलेयर हैं तो हैं।’
सुधांशु ने अपना अड़ियल मत दोहराया। इस पर प्रणीता बोली, ‘प्रोफेसर साब आपकी तो पूरी की पूरी कौम क्रिमीओशन बनी हुई हैं। वहाँ एक-दो लेयर देख कर ही आपका सब्र टूट रहा है। आप तो बगैर घोषित आरक्षण के ही सारे अवसरों पर कब्जा किए बैठे हैं? क्या यह तथ्य-सत्य कोर्ट को, संसद को और दुनिया भर के न्यायप्रिय बुद्धिजीवियों को दिख नहीं रहा है?’
प्रणीता को सुनकर सुधांशु थोड़ा गंभीर हुआ, परंतु अगले दिन फिर वही राग और आग में घी डालने के लिए आकांक्षा जो आ गई। सुधांशु उससे कहने लगा, ‘ये एससी/एसटी तो कब्जे में ही नहीं आ रहे हैं। आजादी के बाद भी ये पिंजड़े तोड़ने लगे हैं। इनके सरकारी स्कूल हमने बावरी मस्जिद की तरह ध्वस्त कर दिए, प्राइवेट एजुकेशन इनकी पहुँच से कोसों दूर पहुँचा दी। प्राइवेट के सारे ऑनर अपने क्रिमीलेयर को बना दिए। संविधान में इनके कल्याण की हर बात की ऐसी-तैसी कर दी, सार्वजनिक शिक्षा सस्ती करने को कहा संविधान निर्माताओं ने हमने उतनी ही महँगी कर दी। फिर भी ये सरवाइव कर रहे हैं?’
‘भैया यह कमाल हुआ कैसे? एससी/एसटी को न्याय देने वाली संस्थाएँ समाप्त करने को सब का समर्थन कैसे मिला?’ आकांक्षा ने प्रश्न किया तो बताने लगा, ‘कास्ट इंटरेस्ट हम हर पंथी रहे–दक्षिण पंथी, वामपंथी, काँग्रेस, सपा, बसपा, भाजपा सबने राजकीय शिक्षा संस्थाओं के ध्वस्तीकरण में मौन स्वीकृति दी, तो इसलिए कि हम रहें। एससी/एसटी की तालीम गई तो समझो सब गया, आरक्षण गया, सम्मान गया, घर गया, हेल्थ गई। इस पर भी ये अपने आपको गुलाम अनुभव न करें तो…!’
‘तो क्या?’ आकांक्षा ने प्रश्न किया। यह कि ‘इसके बाबजूद एक-दो ऐसा निकल ही आता है जो जनरल को बीट कर टॉप कर जाता है, कभी आइएएस में, कभी मेडिकल में।’
सुधांशु का स्वर प्रणीता के कानों में गया तो वह समझ गई कि जिस तरह एक कुत्ता अपनी गली में दूसरे कुत्ते को बर्दाश्त नहीं करता, उसी तरह वर्ण क्रिमीलेयर दलित क्रिमीलेयर से खार खाता है। उसको हमेशा डर बना रहता है कि कोई निर्वर्ण संप्रदाय का दलित आदिवासी उसके जैसा क्रिमीलेयर न बन जाए।
महीनों बीत गए प्रणीता के जहन में एक प्रश्न खलबली मचा रहा था। सुधांशु के व्यवहार में कोई अंतर नहीं आ रहा था। जवाब तो मिला, उसने खुद ही नफरत की वजह ढूँढ़नी चाही। ‘क्या एससी/एसटी देश के मूल निवासी हैं और बाहर से आने वाले लोग उन्हें दबा कर, सता कर अपना वर्चस्व कायम रखना चाहते हैं?…नहीं, यह कारण नहीं हो सकता। तो क्या हो सकता है?’ वह अपने आपसे सवाल-जवाब कर रही थी। एक दिन जब घर का कबाड़ बिक रहा था उसमें से एक छोटी सी डायरी निकल कर गिर पड़ी। प्रणीता ने उठाकर यूँ ही पन्ने उलट दिए। सुधांशु की हैंडराइटिंग देख कर उसकी नजर टिक गई और वह अक्षर-दर-अक्षर पढ़ने लगी, ‘बड़ी दी और छोटी बुआ मैं तुम्हें नहीं भूलूँगा। मैं उन दोनों की पीढ़िया तबाह कर दूँगा।’
‘सुधांशु ने यह किसके लिए लिखा है? वे दोनों कौन हैं और ये दोनों कौन हैं।’ यह प्रश्न प्रणीता को परेशान करने लगा था। उसने डायरी उठाई और सँभाल कर रख दी और प्रश्न का जवाब खोजने की युक्ति सोचने लगी। ‘उत्तर किसके पास होगा–सास के पास, ननद के पास होगा या ससुर के पास अथवा खुद सुधांशु के पास।’
प्रणीता की थोड़ी बहुत मित्रता ननद आकांक्षा के साथ थी, उसने उसका मन टटोला, पहले तो वह उसका साथ नहीं देगी पर जब विश्वास में लिया और संडे के अखबार उठा कर छत पर आकांक्षा को साथ लेकर जा बैठी। जनवरी की धूप सेंकती उसने कहा–‘आकांक्षा मैं तुमसे एक बात पूछना चाहती हूँ, वायदा करो कि सच बताओगी–हाँ, मैं वायदा करती हूँ कि तुम्हारी कोई भी इन्फॉरमेशन बिना तुम्हारी परमीशन के किसी और के साथ साझा नहीं करूँगी।’
‘ऐसी क्या बात है आप पूछिए तो मैं सब सच ही बताऊँगी, क्या जानना चाहती हैं?’
‘यही कि वे दोनों कौन थीं, उनके साथ क्या हुआ था और वे दोनों कौन थे जिन्होंने ऐसा कुछ किया, जिससे तुम्हारे भाई की मैंटलिटी एंटी एससी/एसटी बनी।’
प्रणीता ने एक साँस में सारी जिज्ञासा ज़ाहिर कर दी। पूरे वाकयात से वाकिफ़ आकांक्षा को प्रश्न समझते देर नहीं लगी और वह बताने लगी। पर वह घर का पक्ष लेकर कहने लगी–‘यह मेरे घर का मामला है। मैं अपने पिता और अपने भाई को प्रभावित करने वाली कोई बात नहीं कहूँगी।’
इस पर प्रणीता ने कहा–‘हम सब स्त्रियाँ हैं, हमें स्त्रियों की चिंता करनी चाहिए। फिर वे दोनों से तुम्हारा कोई तो रिश्ता होगा?’ तो वह कहने लगी, ‘हमारी छोटी बुआ और बड़ी दीदी अँग्रेजी की एक ही क्लास में पढ़ती थीं। सुधांशु भैया को बहुत प्यार करती थीं। बुआ बाल विधवा थीं और दीदी फिजिकल चैलेंज्ड। इत्फाक यह था कि एक एससी और दूसरा एसटी लड़के भी उसी क्लास में पढ़ते थे। बुआ की दोस्ती एससी से हो गई और दीदी की एसटी से। दोनों ने वायदा किया कि नौकरी मिलते ही शादी कर लेंगे।’
आकांक्षा द्वारा उद्घाटित रहस्य प्रणीता के गले नहीं उतर रहा था। उसे यह कहानी जैसा लगा। तब उसने सवाल किया कि ‘आखिर ऐसा आकर्षण क्या था उन एससी/एसटी में जो बुआ-भतीजी दोनों कोटे वालों के साथ चली गईं।’
इस पर आकांक्षा बोली–‘पिता जी प्रचारक थे और भैया अखबार में लिखते थे। जब भी किसी एक एससी/एसटी को नौकरी मिलती बाहर, तो बाहर घर तक में आकर कहते अब तो सारी नौकरियाँ आरक्षितों को ही मिल रही हैं। अब क्रिमीलेयर हो रहे हैं, सारे सुख अब उन्हीं को मिलेंगे। ऊँची जातियों के बेरोज़गार तो अब चप्पल चटकाते घूमेंगे। देश में अब केवल एससी/एसटी का ही भविष्य उज्जवल है। बुआ और दीदी को लगा वे यही कह रहे हैं। इसलिए उन्होंने मन बना लिया था कि जो भी हो शादी तो एससी/एसटी से हो। ऊपर से उनकी शारीरिक स्थिति ऐसी थी जिसमें उन्हें ऊँची जाति में कोई अपना नहीं रहा था। सो संयोग ऐसा बना कि प्रधानमंत्री राजीव गाँधी द्वारा चलाए गए एससी/एसटी स्पेशल ड्राइव में रिजर्व पोस्ट पर दोनों को अच्छी नौकरियाँ मिल गई। बुआ दीदी ने घर में बात की तो पिता जी ने कहा–जान चली जाए परंतु हमारी बहन-बेटी एससी/एसटी के घर में नहीं जा सकतीं। परंतु वे डरी नहीं और चुपचाप कोर्ट मैरिज कर के चली गईं, तो पिता जी ने ठेके के हत्यारों को सुपारी देकर उनके पीछे लगा दिया और उन दोनों एससी/एसटी पर केस लगा दिया। भैया बुआ और दीदी दोनों के लाडले थे। बुआ-दीदी के बाद भैया ने कसम खाई कि कानून पढ़ूँगा, प्रोफेसर बनूँगा, अखबार में लिखूँगा और जान की बाजी लगाकर एससी/एसटी को नौकरी नहीं करने दूँगा। हरेक को क्रीमीलेयर करार दे कर नौकरियों से बाहर करा कर ही दम लूँगा। तब से आज तक रात-दिन एससी/एसटी के बिना…चिंतन में लगे रहते हैं। इतना अपने विकास के लिए कुछ करते तो कहाँ-से-कहाँ पहुँचते।’
प्रणीता को यह जानकर झटका लगा। वह कहने लगी–‘यह तो निजी मामला था, सुधांशु को कुल एससी/एसटी मात्र से इतनी दुश्मनी क्यों?’ सुधांशु का चरित्र विचित्र लगने लगा था। परंतु उसकी क्रिमीलेयर क्रियेशन की समस्या समझ आ गई थी।
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Artist: Henri Rousseau
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