कवि सम्मेलन

कवि सम्मेलन

हाट की रौनक और चहल-पहल देखकर नीलकमल की आँखें चौंधिया गईं। भाँति-भाँति की बहुरंगी दुकानों की भरमार, भोंपुओं की कानफाड़ू कर्कश आवाजें और एक-दूसरे से टकराकर गड्ड-मड्ड होता वर्णसंकर संगीत। नर-नारियों की रेलमपेल और धक्का-मुक्की। वाकई कितना इतिहास-भूगोल बदल गया है अपने गाँव का! नीलकमल भौचक-सा मुँह बाये इधर-उधर निहारता चला जा रहा था। ‘कवि जी, कब आए आप?’ पीछे से किसी की शहदीली आवाज ने उसका पीछा किया।

अगर अपने महानगर में किसी ने उसे यह संबोधन दिया होता तो वह उसे गाली समझकर बुरा मान जाता। मगर इस सुदूर देहात में खुद के प्रति उसे किसी की आत्मीयता का बोध हुआ और उसकी जिज्ञासु निगाहें पलट कर पीछे जा मुड़ीं, ‘अरे रमाशंकर जी, आप?’

नीलकमल ने हाथ मिलाना चाहा, पर उन्होंने तो अँकवार में भरकर गले से ही लगा लिया। लगा था, भरत-राम का बरसों बिछोह के बाद मिलन हो रहा हो।

रमाशंकर और नीलकमल इसी गाँव में मिडिल स्कूल तक साथ-साथ पढ़े थे। दोनों की दाँतकाटी रोटी थी तब। मिडिल के बाद दोनों बिछुड़े तो दिशाएँ बदल गईं। नीलकमल ने दूसरे गाँव के कॉलेज में दाखिला लिया, जबकि रमाशंकर जी ने शहर की ओर रुख किया। नीलकमल ऊँची शिक्षा हासिल कर महानगर में सरकारी महकमे का मुलाजिम बना, जबकि रमाशंकर गाँव लौटकर जिले में व्यवसाय व राजनीति में एक साथ ही नाम-यश अर्जित कर शोहरत की बुलंदियों पर जा पहुँचे। आज जब नीलकमल बिटिया की शादी के मद्देनजर वर की तलाश में भूलता-भटकता महानगर से गाँव पहुँचा तो बालसखा से एकाएक उसकी मुलाकात हो जाएगी, उसने सपने में भी नहीं सोचा था।

इस बीच नीलकमल कवि के रूप में स्थापित हो चुका था और उनकी कविताएँ महानगर के कवियों में चर्चा के केंद्र में हुआ करती थीं। अपने अछूते बिंब, प्रतीक व रचनात्मक प्रतिबद्धता के लिये प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उस पर टिप्पणियाँ की जाने लगी थीं। कुल मिलाकर, जीवन, रचना और विचार के प्रति उसकी ईमानदार पहल को गंभीरता से लिया जाने लगा था। मगर यहाँ गँवई लोगों के लिये तो वह महज एक सरकारी मुलाजिम-भर था। ऐसे माहौल में रमाशंकर जी द्वारा ‘कवि’ का संबोधन उसे प्रीतिकर ही लगा था। सिर्फ इतना ही नहीं, उन्होंने तो व्यावसायिक पत्रिकाओं में छपी उसकी दो-तीन कविताओं का भी उल्लेख किया था। फिर तो नीलकमल को व्यवसाय-राजनीति के साथ ही साहित्य से भी रमाशंकर जी के गहरे जुड़ाव का अहसास हुआ और उसने मन-ही-मन महसूस किया कि प्रतिभा की विलक्षणता का विकास वाकई चहुँमुखी हुआ करता है।

हाल-चाल और कुशल-क्षेम के बाद रमाशंकर जी ने शुभ सूचना दी–‘नीलकमल जी, आपको पता है? मैंने इस पिछड़े इलाके में ‘साहित्यकार मंच’ की स्थापना कर रखी है और उसी के तत्वावधान में एक अखिल भारतीय स्तर का कवि-सम्मेलन-मुशायरा का आयोजन करने जा रहा हूँ।’

इस निपट देहात में कवि-सम्मेलन-मुशायरा! वह भी अखिल भारतीय स्तर का! नीलकमल को हँसी आ गई। मगर उसने मुस्कान को होंठों पर मोती-सा बिखेरते हुए तुरंत उत्तर दिया, ‘वाह! ‘साहित्यकार मंच’ की ओर से गंगा-जमुनी आयोजन! बधाई…बधाई भाई! मगर कहीं कोई सरकारी कार्यक्रम तो नहीं है न?’

‘नहीं बंधुवर, कैसी बातें करते हैं आप! कर बहियाँ बल आपनो, छाड़ि विरानी आस। अपना हाथ जगन्नाथ, समझे!’ रमाशंकर जी ने सच्चाई का खुलासा करने के बाद फिर कहा, ‘मैंने तो कार्यक्रम की योजना बनाते वक्त ही तय किया था कि आमंत्रित कवियों में आपका नाम सर्वोपरि होगा। हम सबका अहोभाग्य कि आप ऐन मौके पर खुद ही महानगर से गाँव आ पधारे। जाकी रही भावना जैसी…एक हफ्ते के बाद ही तो कार्यक्रम है। आपको उसमें शरीक होना ही होगा।’

‘मगर मैं तो गोष्ठियों का कवि हूँ। सम्मेलन में तो बड़े-बड़े दिग्गज कवि आते हैं। मेरा वहाँ क्या काम!’ नीलकमल ने टालने की गरज से सच्ची बात भी कह दी, ‘और मैंने तो बस चार दिनों की ही छुट्टी ले रखी है। इसी में एक-दो जगह बिटिया के रिश्ते की बाबत इधर-उधर जाना भी है। इस दफा माफ कर दें। फिर कभी…’

‘कैसी बातें करते हैं, नीलकमल जी! आपको मेरी दोस्ती की कसम, आप कम-से-कम तीन दिन की छुट्टी और बढ़ा लें। आने-जाने का मार्ग-व्यय और पत्रम्-पुष्पम् भी तो यथासंभव देंगे ही हम,’ रमाशंकर जी ने जैसे चिरौरी की।

‘खैर, जब आप कह रहे हैं तो…’ नीलकमल ने आश्वासन दिया।

‘और सुनिये!’ रमाशंकर जी ने पुनः अनुरोध किया, ‘इस अवसर पर एक स्मारिका भी छपेगी। एक कविता कल ही मुझे अवश्य दे दें। बड़ी कृपा होगी।’

कवि-सम्मेलन मुशायरा! स्मारिका! अखिल भारतीय स्तर के कवियों-शायरों का जमघट। आखिर कहाँ से आएगा इतना धन? बार-बार नीलकमल के दिमाग में यह सवाल हथौड़े-सा बज उठता था। मगर अगले दिन जब उसने कविता थमायी तो रमाशंकर जी ने खुद ही बतियाने के मूड में कहा था, ‘भाई जी, लोग कहते हैं कि कई लाख चंदे की उगाही हुई है, मगर मैं कहता हूँ, और कोई क्यों नहीं उगाह लेता चंदा? लोग मुझे देखकर चंदा देते हैं, न कि इस आयोजन और इसकी गरिमा को देखकर।’

नीलकमल आश्वस्त हो गया। सचमुच इतना बड़ा आयोजन सबके बूते की बात नहीं है। महानगरों में भी इतने बड़े पैमाने पर कहाँ होते हैं आयोजन? साहित्य-संस्कृति के नाम पर लोग फूटी कौड़ी भी नहीं देना चाहते। रमाशंकर जी की महानता असंदिग्ध लगने लगी थी।

गाँव-गाँव में जाकर ध्वनि-विस्तारक प्रचारित करने लगे। कवियों-शायरों में नीलकमल का नाम भी उछाला जाने लगा। गाँव के आम लोगों को हैरत होती–आखिर क्या होता है कवि-सम्मेलन मुशायरा? नीलकमल भी कवि है? गाना-बजाना करता है क्या वह भी? भोले-भाले गँवई मन से प्रश्न फूटकर गेंद-से उछल-कूद मचाने लगते थे। नीलकमल को मन-ही-मन खुशी भी होती थी–चलो, इसी बहाने गाँव-जवारवालों को, मेरे टीचरों को मेरी प्रतिभा के विषय में जानकारी तो हासिल हो जाएगी। उसने छुट्टी बढ़ाने की गरज से अपने अधिकारियों को फोन से बता कर, फिर शहर में जाकर फैक्स भिजवाकर अपनी बीमारी की अर्जी पठा दी। इस मद में सौ रुपये से अधिक ही खर्च हो गए। छुट्टी की तनख्वाह के रोज तीन-चार सौ रुपये का नुकसान अलग से।

बिटिया के रिश्ते की बात गौण हो गई थी। नीलकमल गाहे-बगाहे रमाशंकर जी के पास जा पहुँचता और कवि-सम्मेलन की तैयारी की ताजा खबरों से वाकिफ होता। जब हाट में उसका नाम माइक पर बोला जाता तो उसे दिली सुकून मिलता था। अगले दिन पंफलेट पर भी उसका नाम छप गया था।

एक रोज पूर्व रमाशंकर जी ने नीलकमल से कहा, ‘भाई, कल आप शाम के छह बजे ही यहाँ आ जाएँ। हमलोग तो व्यवस्था सँभालने में ही उलझे रहेंगे। आप रहेंगे तो कवि-शायरों को उचित सम्मान मिलेगा। नाश्ता, भोजन, रात्रि-विश्राम आदि का माकूल इंतजाम तो रहेगा ही। बस, आप देर नहीं करेंगे, प्लीज!’

…और नीलकमल सचमुच छह बजे ही वहाँ हाजिर हो गया था। स्वेटर, मफलर, चादर और ताम-झाम के साथ। उसने चाची को अपने लिये खाना बनाने की मनाही कर अगले दिन सुबह में ही घर लौटने की हिदायत दी थी।

विशाल पंडाल में लोगों की आवाजाही शुरू हो गई थी। मंच की भव्यता और जगह-जगह सर्किट टी.वी. सेट की व्यवस्था देखते ही बनती थी। भीड़ बढ़ती जा रही थी। क्षेत्र के विधायक, भूतपूर्व मंत्री, अभूतपूर्व नेतागण, कई गाँवों के प्रधान, सरपंच, ब्लॉक प्रमुख, दारोगा आदि मौजूद थे। आहिस्ता-आहिस्ता सारे कवि-शायर की भी अच्छी-खासी तादाद। मगर नीलकमल ने इनमें से किसी की भी रचना किसी अच्छी पत्रिका में कभी नहीं पढ़ी थी। उसका नाम सुनकर आमंत्रित कवि अचरज से भरकर देखते, ठीक वैसे ही, जैसे खेत में खड़े बिजूके को नीलगाय भड़ककर देखा करती है। फिर भी गाँव और दोस्ती के नाते वह कवियों-शायरों की आवभगत और सेवा-टहल में लगा रहा।

अंततः वह घड़ी आ ही गई, जिसकी सबको बेताब प्रतीक्षा थी। सूँड़ ने संचालन का दायित्व सँभाला और माइक को यों थाम लिया मानो हाथी ने विषधर साँप को ईख समझ कर सूँड़ के गिर्द लपेट लिया हो। संचालक ने पहले राजनीतिज्ञों की प्रशस्ति में उनकी चरण-धूलि को सूँड़ से उठाकर अपने मस्तक पर लगाया, फिर अश्लील फिकरे कसते हुए आशिकाने अंदाज में बेहयाई पर उतरकर अपनी पोती जैसे उम्र की एक नवोदित कवयित्री को यह कहते हुए पेश किया, ‘अब इन्हें, इनकी खूबसूरती और कविता को आप भोगिए।’ कवयित्री ने भी बगैर किसी एतराज के कवितारहित गायकी का कमाल दिखाना शुरू कर दिया। तरह-तरह के नाज-नखरे और चुहलबाजी! श्रोता भी अश्लील हरकतों पर उतर आए।

एक हास्य-कवि की बारी आते ही उन्होंने चौकी (मंच) के चौकीदारों, दरी के दरबानों, जमीन पर बैठे जमींदारों और चेयर पर पसरे चेयरमैनों को सलामी दागी तथा बही-खाते के आकार के सौ गजी कागज का पुलिंदा मंच पर फैलाते हुए दोनों कंधों से लटके झोलों को टटोलने का अभिनय किया, फिर कविता के नाम पर चुटकुलेबाजी शुरू कर दी। एक शायरा ने अपनी देहयष्टि का नख-शिख बयान करते हुए श्रोताओं का ध्यान अपनी लचकती कमर की ओर चुंबक की नाईं खींचने में कामयाबी हासिल की। पर्त-दर-पर्त उनका अनावृत्त होना दर्शकों को मादक उत्तेजनाओं से भरने लगा। ‘वाह-वाह’ और कवि का जोर की फरमाइशें होने लगी। नीलकमल को लगा मानो द्रौपदी खुद अपने एक-एक वस्त्र बेहिचक उतार कर निर्वसना होने पर उतारू हो गई हो और कौरवों-पांडवों में युधिष्ठिर जैसा नीलकमल भी वहीं बैठा हो।

एक कवि को संचालक ने प्रस्तुत करने का नायाब तरीका अपनाते हुए कहा, ‘मैंने इनके बाप को भी अपने संचालन में पढ़वाया है, इन्हें तो पढ़वा ही रहे, इनके बेटे को भी पढ़वाया है। इनकी तीन पीढ़ियाँ मेरे संचालन के काव्य-पाठ कर चुकी हैं।’ जब एक शायर की बारी आई तो उन्होंने कहा, ‘मैंने सूँड़ जी का नाम पहले ही सुन रखा था, पर दर्शन का सौभाग्य नहीं मिला था। मैं तो समझता था कि वाकई इनकी कोई सूँड़ होगी…।’

‘मैं एकांत में आपको अपनी सूँड़ दिखाऊँगा,’ संचालक का जवाब था।

नीलकमल का माथा शर्म से झुक गया। कई कवियों, शायरों और श्रोताओं के मुँह से शराब की पसरती दुर्गंध असह्य हो रही थी। कविताएँ नारी-देह के इर्द-गिर्द केंचुए-सी रेंग रही थीं। भोंडे हास्य और लतीफों ने हँसाने की बजाय सिरदर्द पैदा कर दिया था। बड़े घरानों के बिगड़ैल श्रोता सुरा-सुंदरी के नायाब नशे में झूम रहे थे।

तभी नीलकमल की बारी आई। उसने एक हल्के मुक्तक से शुरुआत की। ‘हास्य और चुटकुले सुनकर वे कहते, हम कवि हैं,/तुकबंदी को सस्वर गाकर वे कहते, हम कवि हैं,/अगर मर्म को जरा न छूती, वह कविता क्या कविता!/दिल संवेदनशून्य बनाकर वे कहते, हम कवि हैं!’ फिर कवि ‘करुणेश’ की पंक्ति दोहरा दी उसने–‘मसखरों ने मंच लूटा है,/गीत वाले हाथ मलते हैं।’

उसने कविता में ही कविता की परिभाषा दी और उसके मानवीय पक्षों को उजागर किया। मंच पर सन्नाटा छा गया। तालियाँ बजाने वाले हाथ एकाएक थम गए। संचालन पर तीखा प्रहार। विदूषकों की दखलअंदाजी पर करारा व्यंग्य। कविता के नाम पर मसखरी की तीखी आलोचना। विचार पर बाजार के हमले के विरुद्ध आक्रामक अभियान छेड़ने की काव्यात्मक पहलकदमी।

नीलकमल काव्य-पाठ कर जब बैठ गया तो कई बौद्धिकों के पुरजे संचालक के हाथ में आ पहुँचे। नीलकमल को फिर सुनवाने की आरजू-मिन्नतें। नीलकमल ने दो-तीन पुरजों पर अपना नाम पढ़ा भी। पर संचालक ने आग्नेय दृष्टि से उसे देखते हुए सभी पुरजों को यों मसल दिया जैसे किसी हाथी ने हरी-भरी फसलों को भारी-भरकम देह से रौंद डाला हो। नीलकमल मन मसोसकर रह गया। रमाशंकर जी की भृकुटी तन गई, मगर किस पर? नीलकमल समझ नहीं पाया।

एक-एक कर कवियों को भोजन करने के लिये लिवा जाने का क्रम शुरू हुआ। लगभग सभी कवि-शायर बारी-बारी से खा-पीकर लौट आए। पर नीलकमल को किसी ने नहीं पूछा।

कवि-सम्मेलन की समाप्ति पर रमाशंकर जी ने धन्यवाद ज्ञापित किया। लगभग सभी कवि-शायर का नाम ले-लेकर आभार प्रदर्शन। फिर कुछ बनारसी कवियों के अग्रिम मार्ग-व्यय लेकर न आने पर शिकायतें। मगर नीलकमल का किसी भी रूप में नाम लेना उन्हें शायद याद न रहा हो।

एक-एक कर सभी कवियों, शायरों का पारिश्रमिक व मार्ग-व्यय के लिफाफे थमाये जाने लगे। कुछ कवियों ने हुज्जत भी कर दी–तीन हजार नहीं, पाँच हजार…सात हजार नहीं, दस हजार…। रमाशंकर जी ने मनचाही रकम उन्हें पुनः थमायी। सबको लिफाफे थमाने के बाद कवियों-शायरों को अलग-अलग कमरों में ठहराने के लिये ले जाया जाने लगा। भोर के दो बज रहे थे। नीलकमल ने रमाशंकर जी का ध्यान खींचा, ‘भाई रमाशंकर जी, अब क्या आदेश है?’

उन्होंने छुटते ही कहा, ‘भाई, आपको मैं कुछ दे नहीं पा रहा हूँ। कवियों की तादाद कुछ ज्यादा हो गई और कई को कुछ ज्यादा रकम देनी पड़ गई, इसलिए…। खैर, आप तो गाँव-जवार के हैं… अच्छा, चलिये! नमस्कार!’

नीलकमल को तो जैसे काठ मार गया। सबके सामने ऐसी तौहीन उसका और कविता का चीरहरण करने वाले ये तथाकथित कवि दुःशासन! टुटपुँजियों को भारी-भरकम मेहनताना और उसे ठेंगा!

अचानक नीलकमल का कवि जाग उठा और उसने लपककर रमाशंकर के कुरते का कॉलर पकड़ लिया, ‘हरामजादो! तुम सभी भड़ुओं और रंडियों ने कविता को रंडीबाजी समझ रखा है क्या? यह साहित्यिक मंच है या रंडीपाड़ा? तुम जैसे सेठों-राजनीतिबाजों ने कविता को भी अय्याशी और बिजनेस बना रखा है। ‘साहित्यकार मंच’ का नाम देकर तुम सबने वेश्याओं, भड़ुओं से गवाने-नचाने और जिस्मफरोशी कराने का ठेका ले रखा है? लानत है! थूकता हूँ मैं तुम्हारे इस टुच्चे मंच पर और इन तथाकथित कवियों की मानसिकता पर…आक्थू!’ और उसने सचमुच ही रमाशंकर जी के मुँह पर पिच्च से थूक दिया।

फिर तो नीलकमल को पता भी न चला कि कब दारोगा ने उसे धर दबोचा और कब थाने में ले जाकर हवालात में बंद कर दिया। उसे तब होश आया, जब दारोगा के साथ रमाशंकर जी की इस बाबत खुसुर-फुसुर चल रही थी कि किन-किन दफाओं के अंतर्गत उसे चालान किया जाना चाहिए!


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