पुन: भारत में

पुन: भारत में

स्वामी के पास निमंत्रणों, प्रस्तावों और प्रार्थनाओं का ढेर लगता जाता था। स्वामी समझ रहे थे कि उन सारे निमंत्रणों को स्वीकार करना कठिन था। वे तो थके हुए थे ही किंतु उन्हें अपने यूरोपियन साथियों पर भी दया करनी होगी। वे तो इन यात्राओं के कष्ट से मर ही जाएँगे। उन्होंने प्रबंधकों से प्रार्थना की कि वे उनको शीघ्रातिशीघ्र मद्रास भेजने का प्रबंध करें…इसी बीच रामनाड के राजा भास्कर सेतुपति का निमंत्रण भी आ पहुँचा था। उन्होंने स्वामी को रामेश्वरम के दर्शन करने का निमंत्रण भेजा था।

मंगलवार 26 जनवरी को तीन बजे अपराह्न में स्वामी और उनके साथियों को ले कर स्टीमर पंबन रोड पहुँचा। ऋतु सुहावनर थी। पचास मीलों की स्टीमर की यात्रा सुखदायक थी। अब उन्हें रामेश्वरम् की यात्रा करनी थी। पर राजा के कर्मचारियों ने उन्हें सूचना दी कि राजा स्वयं उनकी अगवानी के लिए आ रहे हैं।

रामनाड का राजकीय स्टीमर पंबगन रोड पर स्वामी के स्टीमर के आने की प्रतीक्षा कर रहा था। रामनाड के राजा, भास्कर सेतुपति स्वामी की प्रतीक्षा में व्याकुल थे। उनके मन में पिछली सारी बातें उमड़-घुमड़ कर उनकी व्याकुलता बढ़ा रही थीं। आज उन्हें बार-बार लग रहा था कि स्वामी के अमरीका जाने से पहले जो व्यवहार उन्होंने स्वामी के साथ किया था, वह उचित नहीं था।…

भास्कर सेतुपति के सम्मुख वह दृश्य घूम गया, जब स्वामी उससे मिलने आए थे…वे उस समय मदुरै में थे, स्वामी ने उनसे मिलने की इच्छा प्रकट करते हुए, परिचयपत्र के रूप में ट्रावंकोर के युवराज का पत्र भेजा था।

‘ट्रावंकोर के युवराज को आप कैसे जानते हैं?’

‘तिरूवनतपुरम में उनके गुरु प्रो. सुंदरराम का अतिथि था।’

‘आप मुझ से क्यों मिलना चाहते हैं?’

‘युवराज ने कहा था कि आप भारत के राजाओं में अत्यंत मेधावी लोगों में से एक हैं।’

‘उससे क्या?’

‘मैं आपके साथ देश के लोगों के विषय में चर्चा करना चाहता हूँ।’

‘धर्म-चर्चा नहीं?’

‘नहीं।’

‘तो कहिए।’

स्वामी ने उन्हें निर्धन लोगों की शिक्षा, कृषि के विकास, भारत की समस्याओं और भारत की शक्ति के विषय में अपने विचार बताए। सेतुपति स्तंभित रह गए…ऐसा संन्यासी तो उन्होंने पहले कभी देखा नहीं था, ‘आज कह रहे हैं कि माँ ने आपको समाज के लिए तपस्या करने के लिए कहा है।’

‘जी।’

‘जी आप तपस्या करें।’ एक दरबारी ने कहा, ‘व्यर्थ ही सारे देश भ्रमण करने और राजसभाओं में वक्तव्य देने का क्या लाभ?’

‘मेरा तो विचार है कि सारा परिश्रम ही व्यर्थ का है।’ दूसरे सभासद ने कहा, ‘जिस अदृश्य को पाने का प्रयत्न सारे तपस्वी करते हैं, उस अदृश्य को देखना ही संभव नहीं है, पाना तो बहुत दूर की बात है पता नहीं, उसका कोई अस्तित्व भी है या नहीं…।’ उसने स्वामी की ओर देखा : लगा स्वामी सहसा ही साधारण नहीं रहे हैं। वे किसी अलौकिक प्रकाश से जाज्वल्यमान हो गए हैं। स्वामी उद्दीप्त स्वर में बोले, ‘मैंने उस अदृष्ट को देखा है।’

स्वामी का वह सात्विक रूप सब को अवाक कर गया। किसी को साहस ही नहीं हुआ कि कह सके कि उनके पास इसका क्या प्रमाण है।…’

सेतुपति अभिभूत हो उठे, ‘आप शिकागो की धर्म संसद में अवश्य जाएँ स्वामी जी। मुझे लगता है कि आपके उस सम्मेलन में सम्मिलित होने से भारतमाता का भाल अवश्य ऊँचा होगा। भारत के अध्यात्म की ओर पूरे संसार का ध्यान आकर्षित करने तथा भावी भारत के निर्माण का श्रीगणेश करने का यह स्वर्णिम अवसर है।’

‘मैं ऐसा ही समझता हूँ।’ स्वामी ने कहा, ‘किंतु उसके लिए काफी धन की आवश्यकता है।’

‘तो सेतुपति का धन कब और किसके काम आएगा?’ सेतुपति ने कहा, ‘मैं किसी बड़े राज्य का अधिपति नहीं हूँ। मेरा राज्य रामनाड जिले का आधा भाग है। उसमें रामेश्वरम और धनुषकोडि पड़ते हैं। राज्य की आय, भारत के बड़े-बड़े राज्यों के बराबर नहीं है, फिर भी तीन लाख वार्षिक से अधिक है।’

‘पर आप मेरे लिए इतना कुछ क्यों करना चाहेंगे?’

‘आप में मुझे भारत का भविष्य दिखाई पड़ रहा है।’ सेतुपति ने कहा, ‘मैं भगवान राम की ओर से रामनाड का रक्षक नियुक्त किए गए राजा का वंशज हूँ। यद्यपि मैं उनके बनाए गए सेतु की रक्षा के लिए कुछ भी नहीं कर रहा, किंतु सेतुपति की उपाधि तो धारण करता ही हूँ। मेरा दायित्व है कि मैं धर्मकार्य के लिए सागर लाँघने आए वानरों की भी सहायता करूँ।’

‘पर मैं वानर नहीं हूँ।’ स्वामी हँसे।

‘आप विद्वान और सुदर्शन संन्यासी हैं; किंतु आप हनुमान जी से कम नहीं हैं, जो सागर तरण का संकल्प किए बैठे हैं।…’ सेतुपति ने रुक कर उनकी ओर देखा, ‘आज के युग में अमरीका ही सोने की लंका है। आप सागर पार करें और उस धरती पर राक्षसी प्रवृत्तियों के घर जला आएँ। भारत का सम्मान, जो पश्चिम में बंदी है और अपमानित भी, उसे सुरक्षित लौटा लाएँ।…इसके लिए मैं आपको दस सहस्र रुपये देने को प्रस्तुत हूँ।’

‘पर अमरीका से पहले मैं रामेश्वरम जाना चाहता हूँ।’ स्वामी ने कहा।

‘अवश्य जाइए। वह तो अपना ही स्थान है।’ सेतुपति ने कहा, ‘खेद यही है कि कुछ कारणों से मैं आपके साथ नहीं चल सकता; किंतु जैसी सुविधाएँ आपको चाहिए…।’

‘नहीं मुझे कोई विशेष सुविधा नहीं चाहिए। प्रभु की सेवा में जाना है, वहाँ विशिष्ट नहीं, अकिंचन बन कर ही जाना चाहिए।’

‘और अमरीका?’

‘उपयुक्त समय पर आपको अपने निश्चय की सूचना दूँगा।’

स्वामी चले गए, तो जैसे सभासद सजीव हुए उनकी वाणी फूटी।

‘आपका दस सहस्र का प्रस्ताव ठुकरा कर चला गया।…’

‘इतना भी नहीं सोचा कि इससे दाता का कितना अपमान होता है।’

‘मुझे तो लगता है…।’ एक सभासद आधा वाक्य बोल कर रह गया।

‘क्या लगता है तुम्हें?’ सेतुपति ने पूछा।

‘आपने इतनी सरलता से दस सहस्र रुपयों का प्रस्ताव रख दिया’ सभासद बोला, ‘तो संन्यासी को लगा कि इसकी उपेक्षा करो, शायद महाराज राशि बढ़ा दें।’

‘मेरे मन में दूसरा विचार है।’ एक अन्य सभासद बोला, ‘संयासी पढ़ा लिखा है।…और फिर?’ …‘बंगाली है।’

‘अर्थात् चतुर है।’

‘चतुर तो है ही। बंगाल में राजनीति भी बहुत है।’ एक अन्य सभासद बोला, ‘अमरीका पहुँच कर उसने क्रांतिकारियों का समर्थन आरंभ कर दिया तो अँग्रेज सरकार ढूँढ़ेगी कि उसे अमरीका किसने भेजा है।’

‘अमेरिका न भी जाए…शायद वह हिंदू समाज में घुसपैठ करने का कोई मार्ग खोज रहा हो।’ वह सभासद बोला, ‘उसने दिखा दिया है कि वह कितना बड़ा त्यागी है। सेतुपति के दस सहस्र रुपयों को क्षण भर में ठुकरा कर चल दिया। माया को इस प्रकार ठुकराने वाले संन्यासी को हिंदू अपने सिर पर उठा लेंगे।’

‘पर उसकी चतुराई तो भगवान ही जानें।’

‘वहीं वह सेतुपति को किसी प्रकार की हानि पहुँचाने का तो प्रयत्न नहीं कर रहा है? हिंदू समाज में उनकी प्रतिज्ञा को धक्का लगाने का कोई षड्यंत्र।’

सेतुपति से और नहीं सुना गया। उनका मन खट्टा हो गया। उन्होंने इतना बड़ा प्रस्ताव रखा और संन्यासी उसे इप प्रकार ठुकरा कर चला गया। रामेश्वरम तो कभी भी जाया जा सकता है। वह कहीं भागा नहीं जा रहा। किंतु अमरीका इस प्रकार तो नहीं जाया जा सकता तो क्यों वह संन्यासी उनके प्रस्ताव को ठुकरा कर इस प्रकार चला गया, जैसे उसका कोई महत्त्व ही न हो।…संभव है, उसे अमरीका जाना ही न हो। वह वैसे ही उनके सामने अपने बड़े संकल्पों की डींग मार रहा हो।…पता नहीं कितना सच्चा है उसका संन्यास…और कितना पाखंड मात्र है।…

सेतुपति के मन में ये सारी बातें पकती रही थीं और फिर लगा कि वे उस संन्यासी को भूल ही गए हैं।…और एक दिन अकस्मात ही उस संन्यासी के शिष्यों का एक पत्र उन्हें मिला। उन्होंने लिखा था कि संन्यासी अमरीका जा रहे हैं और वे लोग उनके जाने के लिए पैसे का प्रबंध कर रहे हैं। उन्होंने यह भी लिखा था कि किसी समय सेतुपति ने उन्हें दस सहस्र रुपये देने का आश्वासन दिया था; और संन्यासी के शिष्य अब उससे भी अधिक की आशा लिए सेतुपति के द्वार पर आए हैं।…सेतुपति की समझ में कुछ नहीं आया। वे अपने द्वंद्वों और उलझनों के कारण झल्ला गए। उनको अपनी ही प्रतिक्रिया समझ में नहीं आई। उन्होंने तत्काल पत्र का उत्तर लिखवा दिया कि वे इस प्रयोजन के लिए एक पाई भी देने को तैयार नहीं हैं। उन्हें अब किसी भी संन्यासी का विश्वास नहीं है। विशेष रूप से बार-बार अपना निश्चय बदलने वाले इस स्वामी पर तो एकदम ही नहीं है।’

स्वामी के शिष्यों का पत्र आया कि स्वामी ने तो कभी निश्चय नहीं बदला है। सेतुपति से जो चर्चा हुई थी, उसमें तो उन्होंने यही कहा था कि उपयुक्त समय पर वे उन्हें बता देंगे। इसमें निश्चय बदलने जैसी तो कोई बात नहीं है।…

सेतुपति लिखित रूप में उन्हें कोई भी निश्चित उत्तर नहीं दे सके। उन्होंने इस सारे प्रसंग को भूल जाना ही अच्छा समझा।…आज सोचते हैं तो उनके मन में आता है कि उनके वचन को स्वामी ने सत्य ही माना होगा; और शिकागो जाने के लिए धन के लिए उन पर निर्भर रहे होंगे। जो व्यक्ति स्वयं अपने वचन का निर्वाह करता है और असत्य नहीं बोलता, वह दूसरे के वचन को भी सत्य मान कर ही चलता है; और दूसरे से अपेक्षा करता है कि वह अपने वचन का निर्वाह करेगा।…रघुकुल में वचन का कितना महत्त्व था और एक सेतुपति ही तो थे, जो राम के नाम राज्य कर रहे थे। अन्य प्रत्येक राज्य में राजनीति थी। एक रामनाड में ही तो धर्म था। उन्हें राम के रामेश्वरम की रक्षा करनी थी। राम के सेतु की रक्षा करनी थी। धर्म को प्रोत्साहित करना था। किंतु सेतुपति ने तो संन्यासी की सारी योजना ही ध्वस्त कर दी थी। क्या सोचा होगा, संन्यासी ने? उस योजनाविलासी मन ने, जो अपनी योजनाओं को ईश्वर का आदेश मान कर चलता था, क्या सोचा होगा? आज सेतुपति अपने मन का सत्य समझ रहे थे।…वस्तुतः वे डर गए थे। मन में भय समा गया था। भय किस बात का?…स्वामी बंगाली थे और बंगाली लोग क्रांतिकारी होते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि स्वामी अँग्रेजों की पकड़ से बचने के लिए ही देश छोड़ कर निकल भागना चाहते हों। स्वामी यदि सचमुच क्रांतिकारी होते और वे अँग्रेजों के विरुद्ध षड्यंत्र कर रहे होते तो वे अँग्रेजों के कारागार में होते और रामनाड का राज्य अँग्रेजों के पेट में चला जाता। भास्कर सेतुपति अपना राज्य नहीं खो सकते थे…वे जानते है कि भारत का इतिहास यही था। अपने राज्य, जागीर और संपत्ति को बचाए रखने के लिए लोगों ने विदेशियों और विधर्मियों की दासता स्वीकार की थी, धर्मांतरण किया था, अपने देवालय तोड़े थे, अपनी बहू-बेटियाँ उन विधर्मियों को सौंप दी थीं।…किंतु जब स्वामी विवेकानंद ने उनके धन की अपेक्षा को ठूकरा कर जनता और राजा अजितसिंह के धन से अमरीका की यात्रा की थी, और अपने देश के गौरव को स्थापित किया था, तब भास्कर सेतुपति की समझ में आया था कि रामनाड के राज्य से बड़ी उपलब्धि थी स्वामी की। जिस धन के लोभ में सेतुपति ने अपना वचन भंग कर स्वामी को धोखा दिया था, वह धन तो बहुत थोड़ा था। उसका महत्त्व ही क्या था? स्वामी विवेकानंद के पास उससे बहुत अधिक था।…और भास्कर सेतुपति का राज्य उनके पूर्वजों को भगवान राम से मिला था। उन्हें उस सेतु की रक्षा का दायित्व सौंपा गया था, जिसका निर्माण भारत के गौरव और सम्मान की रक्षा करने के लिए किया गया था। सेतुपति को अपने राज्य की नहीं, भारत के गौरव की भी रक्षा करनी थी। भगवान राम द्वारा दिया गया राज्य उनसे कौन छीन सकता था। बहुत नीचता की थी उन्होंने स्वामी की सहायता से मुँह मोड़ कर…।

आज स्वामी अपने देश लौट रहे थे। सेतुपति यदि अपनी भूल की कोई क्षतिपूर्ति कर सकते थे तो वह उन्हें कर लेनी चाहिए थी।…मंगलवार 26 जनवरी 1897…स्वामी का स्टीमर पंबन रोड पहुँच रहा था। सेतुपति उनका स्वागत करने स्वयं पंबन आए। उनके कर्मचारी उन्हें पल-पल का समाचार दे रहे थे।…जैसे ही स्टीमर तट पर लगा, सेतुपति ने कर्मचारियों को रामनाड की राजकीय नौका को उपयुक्त स्थान पर लगा देने का आदेश दिया, ताकि स्वामी तथा उनके साथी स्टीमर से उतरते ही सुविधा से उस नौका में पदार्पण कर सकें।

स्वामी को इस सारी व्यवस्था की कोई पूर्व सूचना नहीं थी। किंतु उनसे कहा गया तो वे उस राजकीय नौका में आ गए। उनके साथ स्वामी निरंजनानंद, श्रीमती और कप्तान सेवियर, गुडविन और सीलोन के हैरिसन थे। उनका स्टीमर तीन बजे पहुँचा था। कुछ स्थानीय भद्र पुरुष उनका स्वागत करने के लिए वाहिका के भीतर आए। उन्होंने सारे दल की तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति की और स्वामी से निवेदन किया कि वे पाँच तक वाहिका से बाहर न निकलें, क्योंकि रामनाड के राजा उनका स्वागत करने के लिए आ रहे हैं और वे पाँच बजे पहुँच जाएँगे। ठीक समय से राजा पहुँच गए। वे अत्यंत सुचारु रूप से अलंकृत नौका में आए थे जो इस अवसर के लिए विशेष रूप से तैयार की गई थी। वे वाहिका में आए और जिस समय भास्कर सेतुपति ने अपना और उनके पिता का नाम उच्चरित करते हुए सब से पहले उनको भूमि पर माथा टेक कर, साष्टांग प्रणाम किया, तब स्वामी की समझ में सारी स्थिति आ गई। यह उनके अपने देश में उनका पहला स्वागत था…।

‘उठिए महाराज। राजा को अपने कर्मचारियों के सम्मुख अपनी गरिमा की रक्षा करनी चाहिए।’ स्वामी ने कहा। ‘वही कर रहा हूँ महाराज।’ सेतुपति ने कहा, ‘पुराना ऋण है, उसको चुकता कर रहा हूँ।…और अपने देश की तो यह आदि परंपरा है कि राजा, संन्यासी के चरणों पर अपना मस्तक रख कर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करे।’

स्वामी अपने मन में डूब गए थे। उनका वह संशय…उनका देश उनका स्वागत किस रूप में करेगा…यह रूढ़िवादी देश क्या खुली बाँहों से उनका स्वागत करेगा अथवा उपेक्षापूर्वक अपना मुख मोड़ लेगा। यदि ऐसा हुआ तो वे भारत में कुछ दिनों तक विश्राम कर, चीन और जापान में व्याख्यान करते हुए, वापस अमरीका लौट जाएँगे…किंतु यहाँ तो धरती पर पैर रखने से पहले ही राजाओं के मुकुट उनको साष्टांग प्रणाम कर रहे हैं। नहीं, उनका देश इतना भी जड़ नहीं है।…उन्हें स्मरण हो आया, उन्होंने डेट्रायट में कहा था, ‘भारत को मेरी बात सुननी पड़ेगी। मैं भारत की जड़ों तक को हिला दूँगा। मैं उसकी राष्ट्रीय धमनियों में विद्युत की धाराएँ भर दूँगा। थोड़ी प्रतीक्षा करो और देखो कि भारत कैसे मेरा स्वागत करता है। वह भारत है, मेरा अपना भारत। वह उसका महत्त्व समझता है, जो कुछ मैंने यहाँ निःशुल्क लुटाया है। वह उसका मूल्य जानता है, उसकी प्रशंसा कर सकता है। मैंने अपना रक्त देवांत की आत्मा के रूप में व्यय किया है। भारत एक विजेता के रूप में मेरा अभिनंदन करेगा।…और यहाँ वही हो रहा था।…

रामनाड की राजसभा के सारे सभासदों ने बार-बारी अपने राजा के ही समान उन्हें साष्टांग दंडवत प्रणाम किया। पंबन की धरती पर पहले वहाँ के जन-सामान्य द्वारा उनका स्वागत का प्रबंध किया गया था। एक अस्थायी घाट बनाया गया था और एक बड़ा सा पंडाल खड़ा किया गया थ। तुमुल जयजयकार के मध्य राजा स्वामी को वाहिका से उतार कर लाए और पंडाल में सुंदर मंच पर बैठाया। राजा ने पहले स्वागत भाषण किया और फिर नागालिंगम पिल्लै को कहा कि वे जन सामान्य के प्रतिनिधि के रूप में प्रशस्तिपत्र पढ़ें।

उनके स्वागत का उत्तर देते हुए, स्वामी ने कहा कि भारत की आत्मा राजनीति, सैनिक बल, व्यापार अथवा औद्योगिक श्रेष्ठता में नहीं, मात्र धर्म में है।

स्वामी को राजकीय बग्घी में बैठाया गया। राजा और दरबारी पैदल चले। राजा की आज्ञा पर घोड़े खोल दिए गए। राजा ने जन सामान्य और विद्यार्थियों के साथ स्वयं घोड़ों के स्थान पर जुट गए। और नगर की सड़कों पर बग्घी खींचते रहे। वहाँ से वे राजा के बंगले पर आए, जहाँ स्वामी तथा उनके साथियों के ठहराने की व्यवस्था की गई थी।

स्वामी ने रामेश्वरम् के मंदिर में दर्शन किए। पाँच वर्ष पूर्व से अब की तुलना उनके मन में आई। तब वे थके हुए सामान्य यात्री थे और उनके पैरों में छाले पड़े हुए थे। उन्होंने रामेश्वरम् के दर्शन के साथ अपनी तीर्थ यात्रा संपूर्ण की थी…आज स्थिति बदली हुई थी।…जैसे ही स्वामी को लेकर राजकीय बग्घी मंदिर के समीप आई, मंदिर की शोभायात्रा उनके आगे हो ली। उसमें हाथी घोड़े और ऊँट सम्मिलित थे। मंदिर के प्रतीक चिह्न बाहर लाए गए। परंपरागत संगीत के साथ महात्माओं के समान उनका सम्मान किया गया। मंदिर की संपत्ति के रूप में जो हीरे और रत्न बहुत सँभाल कर रखे जाते थे, वे सब निकाल कर स्वामी और उनके साथियों को दिखाए गए। वे मंदिर के भीतर आए तो उन्हें मंदिर के वास्तु शिल्प का सौंदर्य दिखाया गया। विशेष रूप से एक सहस्र खंभों पर खड़ी दीर्घा दिखाई गई।

तब तक वहाँ अनेक लोग एकत्र हो गए थे। स्वामी से उन लोगों को उपदेश देने को कहा गया। स्वामी ने उस ऐतिहासिक मंदिर की पवित्र भूमि पर खड़े हो कर तीर्थ भूमि का महत्त्व समझाया। वहाँ की गई पूजा का महत्त्व बताया। अपने आतुर श्रोताओं को जैसे विद्युत से आविष्ट करते हुए उन्होंने कहा, शिव की पूजा केवल मूर्ति के रूप में मत करो। तुम्हारी चारों ओर जो दुखी और निर्धन और रोगी भाई-बहन हैं, वे सब शिव के ही रूप हैं। उनकी सेवा करो। एस. नागालिंगम पिल्लै ने उनके शब्दों को तमिल अनुवाद किया। रामनाड के राजा इतने अभिभूत थे कि अपना आप विस्मृत कर बैठे। उन्होंने अगले ही दिन सहस्रों निर्धनों को भोजन कराया और उन्हें वस्त्र दान किया। स्वामी के कहने मात्र से ही लोगों ने शिव की पूजा के रूप में निर्धनों की सेवा की।

राजा ने संकल्प किया कि पश्चिम से आने के बाद स्वामी ने जहाँ भारत भूमि में पहला चरण रखा था, वहाँ राजा चालीस फुट ऊँचे विजय स्तंभ का निर्माण करवाएँगे और उस पर एक आलेख लगवाएँगे, जिसमें लिखा होगा–‘सत्यमेव जयते।’ इस स्मारक का निर्माण रामनाड के राजा भाष्कर सेतुपति ने करवाया। यह वह सील है, जहाँ स्वामी विवेकानंद के दिव्य चरणों ने विदेशों से लौट कर पहली बार भारत की धरती का स्पर्श किया। उस विदेशी धरती पर पहली बार स्वामी ने वेदांत के धर्म का दिव्य आलोक फैलाया।’

वे लोग पंबन से रामनाड आए। बीच में थोड़ी देर उन्होंने बैलगाड़ी में भी यात्रा की, किंतु उसके पश्चात् एक सरोवर में प्रवेश कर रामनाड में सरोवर तट पर उनका अत्यंत नाटकीय ढंग से पुनः भव्य स्वागत हुआ। राजा ने स्वामी विवेकानंद को वहाँ के संभ्रांत समाज से परिचित कराया। राजा ने घोषणा की कि स्वामी के आगमन को स्मरणीय बनाने के लिए चंदा इकट्ठा कर मद्रास रिलीफ फंड में दिया गया है।

इस सारे कार्यक्रम के केंद्र में राजा भास्कर सेतुपति थे। तोपों की सलामी की प्रतीक्षा में खड़े सहस्रों लोगों को मालूम हुआ कि स्वामी आ गए हैं।

स्वामी विवेकानंद और उनके साथी राजकीय बग्घी में बैठे। उनके साथ अंगरक्षकों के नेता के रूप में राजा के भाई थे। भारतीय और विदेशी बैंड साथ चल रहे थे। ‘देखों हमारा जगत्-विजेता नायक आ रहा है।’ गीत की धुन बजाई जा रही थी। राजा स्वयं पैदल चल रहे थे। सड़क के दोनों ओर मशालें जल रही थीं और लोगों के द्वारा हवाइयाँ चलाई जा रही थीं। चारों ओर हर्ष और उल्लास का वातावरण था। जब वे गंतव्य के निकट आ गए तो राजा की प्रार्थना पर स्वामी बग्घी से उत्तर कर राजकीय शिविका में बैठे और वे पूरे तामझाम के साथ शंकर विला में पहुँचे। थोड़ा विश्राम करने के बाद स्वामी सभागार में उपस्थित हुए, जहाँ लोग उनको सुनने के लिए उपस्थित हुए थे। जय-जयकार के मध्य उनको मंच पर बैठाया गया। राजा ने सभा का उद्घाटन करते हुए, स्वामी के अलौकिक व्यक्तित्व की अपार प्रशंसा की। उनके भाई दिनकर सेतुपति ने स्वागतपत्र पढ़ा और उसे सोने की कामगार पेटिका में सुरक्षित कर पेटिका स्वामी को भेंट कर दी गई।

स्वामी ने कहा, लंबी काली रातें समाप्त हो गई लगती हैं। अंततः हृदय चीरने वाली कष्टदायक पीड़ाएँ अपनी मृत्यु को प्राप्त हो रही है। हमारा स्वर्णिम अतीत जाग रहा है; और वे स्वर हमारे पास आ रहे हैं। जहाँ तक हमारा इतिहास और हमारी परंपराएँ झाँक भी नहीं सकतीं, वहाँ से हमारी आशाओं के स्वर आ रहे हैं। हमारे पास स्वर आ रहे हैं। जैसे ज्ञान का हिमालय, प्रेम का हिमालय, कर्म का हिमालय हमें संबोधित कर रहा है। भारत, हमारी मातृभूमि हमें पुकार कर रही है। एक शांत किंतु दृढ़ स्वर प्रबल होता जा रहा है। वह दिग्दिगंत में फैल रहा है। देखो, सोने वाले जाग रहे हैं। महाराज और भद्रपुरुषो, आपलोग मेरा धन्यवाद स्वीकार करें! इस शुभ अवसर पर मैं रामनाड के महाराज को कृतज्ञ भाव से राजर्षि की उपाधि दे रहा हूँ। महाराज स्वयं भी जानते हैं और आज मैं भी स्पष्ट कर रहा हूँ कि महाराज और उनके राज्य का मार्ग अध्यात्म से हो कर ही जाता है। यदि अपने शासन के लिए उन्होंने आध्यात्मिक आधार ग्रहण नहीं किया तो अगले पंद्रह वर्षों में उनका राज्य खंड-खंड हो जाएगा। यह मेरा शाप नहीं है, मात्र एक चेतावनी है।

रविवार, जनवरी 31, 1897, मध्य रात्रि में स्वामी का दल उत्तर की ओर चल पड़ा। बग्घी से परमगुड्डी तक आए। वहाँ स्वागत की तैयारी थी। सहस्रों लोग स्वामी के पीछे जुलूस के रूप में चले। स्वामी ने उन्हें संबोधित करते हुए प्रबल शब्दों में पश्चिम के भौतिकवाद और भारत की आध्यात्मिकता का प्रतिपादन किया। उन्होंने भौतिकता की निंदा नहीं की; किंतु मर्यादित रूप से चेतावनी दी। ‘यदि आध्यात्मिक आधार नहीं होगा तो पश्चिम की भौतिकता अगले पचास वर्षों में ही धराशायी हो जाएगी।’ उस समय कौन जानता था कि अगले पचास वर्षों में दो विश्वयुद्ध हो जाएँगे।

मानमदुराई में वहाँ के स्थानीय लोगों और पड़ोसी शिवगंगा के लोगों ने स्वामी का स्वागत किया। हर हर महादेव के गगनभेदी नारों में उन्हें एक बड़े से पंडाल में ले जाया गया और उनके सम्मान में एक प्रशस्तिपत्र पढ़ा गया। उसमें कहा गया कि पश्चिम के चिंतन ने भारतीय धर्म और संस्कृति को धूमिल कर दिया है। स्वामी ने उत्तर में कहा कि इसमें भारतीय लोगों का भी दोष है। स्वामी ने हिंदुओं में प्रचलित छुआछूत का विरोध किया और उनके रसोई धर्म तथा पतीला देवता की भर्त्सना की।

तीन सप्ताह की कष्टकारक यात्राएँ, आहार आदि में अनियमितता, जिज्ञासुओं के साथ अविराम चर्चा, और बार-बार व्याख्यान देने के कारण, स्वामी का शरीर थक चुका था कि अंतिम कुछ स्थानों पर तो हर समय लोगों से मिलने-जुलने तथा व्याख्यान देने की भी उनमें शक्ति नहीं थी। तो भी भक्तों और श्रद्धालुओं की आतुरता देख कर वे उनके प्रति उदासीन नहीं रह पाते थे। मन अभी इतना ऊर्जावान था, कि वे इसे ईश्वर की ओर से सौंपा गया दायित्व मान कर पूरा करने के लिए उठ खड़े होते थे। कई बार तो लगा कि वे इतने थके हुए हैं कि सारा दिन लोगों से मिलना तथा भाषण करना उनके लिए संभव नहीं होगा। कार्यक्रम स्थगित करने की बात भी सोची गई।…किंतु स्वामी ने अपने शरीर की चिंता नहीं की और समय की माँग के अनुसार वे लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करते रहे। धर्म के विषय में लोगों की इतनी निष्ठा देख कर उनका मन प्रसन्न हो जाता था और वे भारत के लोगों से महान कार्यों की अपेक्षा करते थे।

दो फरवरी को स्वामी अपने दल के साथ, साढ़े दस बजे मदुरै पहुँचे। मदुरै प्राचीन ज्ञान, मंदिरों और राजघरानों का नगर है। यहाँ भी स्वामी को रामनाड के राजा के बंगले में ठहराया गया। उन्हें मखमल की पेटिका में मानपत्र भेंट किया गया। उत्तर में उन्होंने भारत में होने वाले धार्मिक पुनरुत्थान की चर्चा की। ‘एक ओर है अंधविश्वासों से भरा हुआ प्राचीन समाज और दूसरी ओर है जड़वाद–यूरोपीय भाव, नास्तिकता, तथाकथित सुधार जो पाश्चात्य जगत की उन्नति की जड़ तक फैला हुआ है। उन दोनों से ही सावधान रहना होगा। भारत को अपनी कट्टरवादिता और यूरोप के आत्माहीन भौतिकता के मध्य में से मार्ग निकालना होगा। सद्असद के आधार पर अपने मार्ग का अन्वेषण करना होगा। अपने विवेक की ज्योति में चलना होगा।’ स्वामी मदुरै में मीनाक्षी मंदिर देखने गए। उनका स्वागत असाधारण सम्मान के साथ किया गया। उन्होंने पुरोहितों से चर्चाएँ कीं। मंदिर की वास्तुकला की ओर उनका ध्यान दिलाया गया। मंदिर के मूल्यवान रत्न बाहर निकाले गए। स्वामी तथा उनके पाश्चात्य मित्रों को दिखाए गए।

अपराह्न में उन्होंने मंदिर के प्रांगण में हिंदू दर्शन संबंधी प्रश्नों के उत्तर दिए। उसके पश्चात् वे कॉलेज के प्रांगण की ओर आए। वहाँ दो सहस्र से अधिक लोग उनकी प्रतीक्षा में थे। स्वामी ने कहा कि ‘भारत एक संकल्प का नाम है और उसे सारे संसार में अध्यात्म का प्रचार-प्रसार करना है। हिंदुओं के लिए शताब्दियों के प्रशिक्षण से प्राप्त की हुई आध्यात्मिकता का त्याग उतना ही कठिन है, जितना पश्चिम के लिए अपनी दो शताब्दियों के विकास को त्यागना। यदि भारत को पूरी तरह से यूरोप के रंग में रंगा जाएगा तो एक राष्ट्र के रूप में भारत समाप्त हो जाएगा। हिंदू धर्म में शाश्वत तत्त्वों को पहचानो और आकस्मिक तत्त्वों को त्यागो। उससे भारत का संकल्प पूरा होगा।’

नगर से विदा होने के लिए, दो फरवरी की रात को स्वामी ने कुंकोणम के लिए गाड़ी पकड़ी। मार्ग में जहाँ कहीं भी गाड़ी रुकी, लोगों की भीड़ स्वामी के स्वागत के लिए उमड़ पड़ी। सर्वत्र ही उन्हें उठकर सहास्र दर्शनार्थियों की मनोकामना पूरी करनी पड़ी। छोटे-छोटे ग्रामों से प्रतिनिधि, पुष्पहार और अभिनंदनपत्र ले कर आए। स्वामी उनका तिरस्कार नहीं कर सकते थे। उन्होंने उनके उपहार स्वीकार किए। स्वामी को भी उनकी धर्मोद्दीपना को देखते हुए, संक्षेप में ही सही किंतु उन्हें उपदेश देना ही पड़ा।

ट्रेन प्रातः चार बजे तिरुचिरापल्ली पहुँची। एक हजार व्यक्ति स्वामी को अभिनंदनपत्र देने आए थे। ‘अभिनंदनपत्र में लिखा था, हमें आशा थी कि आप यहाँ पदार्पण कर के हमें कृतार्थ करेंगे। अस्तु, मद्रास के लोग शीघ्र ही आपको अपने मध्य पाएँगे, इस बात का हमें आनंद है।’ स्वामी ने खेद प्रकट किया कि उनके पास समय नहीं था अन्यथा वे उन लोगों के पास रुकते और कुछ समय व्यतीत करते।

तिरुचिरापल्ली के राष्ट्रीय उच्च विद्यालय के संचालक मंडल और छात्रों ने उन्हें अलग से अभिनंदनपत्र दिया। स्वामी तंजावुर और वहाँ कुंभकोणम आए।

कुंभकोणम में उनका व्याख्यान काफी लंबा और तथ्यपूर्ण था। उसमें पूर्वकथित बातों को एक प्रकार से संगुफित किया गया था। कुछ नई बातें भी जोड़ी गई थीं। उन्होंने कहा–‘हमारी मातृभूमि के राष्ट्रीय जीवन का मूल आधार है : धर्म। वह हमारे राष्ट्रीय जीवन का मेरुदंड है और उसी की नींव पर हमारे जीवन का प्रासाद खड़ा है…। इस देश के लिए अब यह कदापि संभव नहीं है कि वह अपने धर्ममय जीवन का विशिष्ट मार्ग त्याग कर राजनीति अथवा किसी और मार्ग को अपने राष्ट्रीय जीवन का आधार बनाए। मेरा विश्वास है कि वेदांत, केवल वेदांत ही, सार्वभौमिक धर्म हो सकता है। इस अद्वैतवाद को व्यावहारिक भी बनाना होगा। भारत की मूक जनता की उन्नति के लिए इस अद्वैतवाद का प्रचार आवश्यक है। इस अद्वैतवाद को व्यवहार में परिणत किए बिना हमारी मातृभूमि के पुनरुत्थान का कोई उपाय नहीं है। सब प्रकार के नीतिशास्त्रों और धर्मविज्ञान का एकमात्र तार्किक आधार यह एकत्व ही है। अद्वैतवाद के आलंबन से ही सबमें आत्मविश्वास लौट आएगा और ऐसी आत्मशक्ति के द्वारा ही देश तथा जनता की उन्नति होगी। विश्वास और विश्वास–यही उन्नति का एक मात्र उपाय है, इसलिए देवांत के एकात्म भाव का प्रचार आवश्यक है। भारत के इन दीन हीन लोगों को, इस पददलित जाति के लोगों को उनका वास्तविक रूप समझा देना परम आवश्यक है।

कुंकोणम की उस भीड़ में स्वामी को एक परिचित चेहरा दिखाई दिया। स्वामी को अधिक सोचना नहीं पड़ा। वे गोविंद चेट्टी को पहचान गए थे।

वे रुक गए। सारी जनता स्तब्ध : स्वामी रुक क्यों गए?

स्वामी ने गोविंद चेट्टी की ओर संकेत किया, ‘उसे बुलाओ।’

गोविंद चेट्टी ने उन्हें प्रणाम किया।

‘मुझे पहचानते हो?’

वह हँस पड़ा, ‘आप सहस्रों की भीड़ में मुझे पहचान गए तो मैं आपको नहीं पहचानूँगा।’

‘तो फिर मुझे बाद में मिलो, जब मेरे आस-पास भीड़ न हो।’

संध्या समय गोविंद चेट्टी आया। उसने स्वामी के चरणों पर सिर रख दिया।

स्वामी ने कहा, ‘मैं जानता हूँ कि तुम्हारे पास कुछ सिद्धियाँ हैं। तुम भी इस बात से परिचित हो।’

‘जी!’ उसने स्वीकृति में सिर हिलाया।

‘उससे तुम्हें धन भी मिलता है और सम्मान भी।…’

‘जी।’

‘किंतु क्या उससे तुम्हारा मन ईश्वर की ओर उन्मुख हुआ।’

‘नहीं।’ उसने उत्तर दिया।

‘तब तुम्हारी उपलब्धि क्या है?’ स्वामी ने कहा।

‘मैं नहीं जानता।’

स्वामी हँसे, ‘एक बार तुम ईश्वर का स्वाद पा जाओ, तो देखोगे कि ये सिद्धियाँ कुछ भी नहीं हैं। मेरे गुरु इन्हें वेश्या की विष्टा कहा करते थे।’

वह स्वामी के चेहरे की ओर देखता रहा।

‘उठो।’ स्वामी स्वयं भी उठ कर खड़े हो गए।

वह भी खड़ा हो गया। स्वामी ने उसे अपने आलिंगन में बाँध लिया।

गोविंद चेट्टी के मन में जैसे भूचाल आ गया। उसके भीतर का कोई प्रबल पर्वत पिघल कर बह गया। उसे लगा कि उसकी अति भौतिक शक्तियों का स्थान, ईश्वरीय प्रेम ने ले लिया है।

वह स्वामी के चरणों पर लोट गया, ‘मुझे अपनी शरण में ले लें स्वामी।’

स्वामी हँसे, ‘समय आएगा तो तुम संन्यासी हो जाओगे। ईश्वर के प्रेम में डूब जाओगे। मेरी शरण की आवश्यकता नहीं है तुम्हें। तुम पहले से ही ईश्वर की शरण में हो। उनका वरद हस्त, तुम्हारे सिर पर धरा है। जाओ, अपने ईश्वर को प्राप्त करो।’


Image: Bichitr Jahangir Preferring a Sufi Shaikh to Kings, from the St. Petersburg album Google Art Project
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