स्वर्ग की सीढ़ी

स्वर्ग की सीढ़ी

‘ऊँ बुद्धि स्वास्थ्यं मन: स्वास्थ्यं
स्वास्थ्यमैंद्रियकम तथा।
ममास्तु देवदेवस्य वासुदेवस्य कीर्तनात॥’

भोर हो चुकी थी, मन ही मन ईश्वर का नाम लेती गोदावरी देवी बालकनी में बैठी स्वर्णिम समय का आनंद लेतीं निर्निमेष दृष्टि से सामने निहार रही थी। ठंडी हवा…कलरव करते पंछियों का मधुर स्वर…पत्ते रूपी पंख फड़फड़ा कर अपनी खुशी छलकाते पेड़-पौधों का गुंजन…उन्हें ऐसा लग रहा था मानो संपूर्ण प्रकृति धीरे-धीरे उनमें ही समाहित होती जाती जा रही है। मन में चिंतन था, उम्र के इस पड़ाव में आकर प्रकृति के इस नाद को सुन रही हूँ, बहुत पहले यह सब सुनने की कोशिश की होती तो…हे ईश्वर! मनुष्य अपनी नादानी में कितना बहुमूल्य समय और अद्भुत दृश्य अपने जीवन से खोता चला जाता है। कहाँ और क्यों व्यर्थ की बातों में फँसी हुई थी?

‘दादी माँ कहाँ हैं आप?’ उनकी पोती अवनि खुशी से उन्हें पुकारती हुई बाहर बालकनी में आ गई थी।

‘अरे बिटिया! क्या बात है आज इतनी खुशी कि छिपाए नहीं छिप रही है…!!’

‘बात ही ऐसी है दादी माँ! तुम भी सुनोगी तो खुशी से उछल पड़ोगी।’

‘अच्छा! जल्दी बता’ वह भी उत्सुक हो उठी थीं।

‘दादी माँ! धरा और सलिला ने प्रथम श्रेणी में मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली है। अभी नेट पर रिजल्ट देखकर आपको बता रही हूँ।’

‘क्या? वाह यह तो सच में बहुत अच्छी खबर है।’

‘हम उनका दाखिला इंटर कॉलेज में करवाएँगे…सब आपकी तपस्या और आशीष का फल है दादी माँ।’ अवनि उनसे लिपट गई थी।

उन्होंने मन-ही-मन सोचा, मेरी तपस्या और आशीष?? अवनि ने क्या कह दिया? यह तो मेरे घृणित कृत्य के प्रायश्चित के शुभारंभ का फल है…वो लगभग रो पड़ी थी।
‘अरे! आप रोइए मत दादी माँ!’ अवनि उनसे लिपट गई।

थोड़ा शांत होकर उन्होंने पूछा, ‘ज्योति, समीरा और व्योमा कैसी हैं?’

‘सब बहुत अच्छी हैं…आपसे मिलना चाहती हैं। आपको रविवार को वहाँ ले चलूँगी वह दोनों भी आपसे मिलकर धन्यवाद कहना चाहती हैं दादी माँ। अभी मेरी फोन पर उनसे बात हुई है। लीजिए आप भी बात कर लीजिए।’ कहकर अवनि ने फोन उन्हें थमा दिया।

‘हैलो अम्मा! आपके आशीर्वाद से मैंने और सलिला ने परीक्षा पास कर ली है…। मुझे खूब पढ़ना है…डॉक्टर बनना है…। और सलिला टीचर बनना चाहती हैं अवनि दीदी की तरह’, धरा खुशी से उछल पड़ी थी।

‘हाँ बिटिया! मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है–खूब पढ़ो, नाम करो, खुश रहो…’ गोदावरी देवी ने कहा। उनका मन खुशी से झूम उठा था पर वह अनचाहे ही गहन चिंतन के घेरे में अवश सी बँधती चली गई थी…। सात जन्मों में भी वह अपनी पोती अवनि का कर्ज कहाँ उतार पाएँगी। जिसको उन्होंने जी का जंजाल समझकर झटक दिया था आज वही उन्हें एक जंजाल से निकालने का प्रयास कर रही है। उन्हें जीवन का गूढ़ रहस्य समझा रही हैं कि अपनी भूल का सही और सटीक प्रायश्चित ही व्यक्ति को शांति प्रदान कर सकता है। साथ ही पीड़ित की सेवा भावना ही संसार में ईश्वर की सबसे बड़ी नेमत है।

उन्हें चाय देकर अवनि नहा-धोकर पूजा करने चली गई

‘ऊँ बुद्धि स्वास्थ्यं मन: स्वास्थ्यं स्वास्थ्यं…।
ममास्तु देवदेवस्य वासुदेवस्य कीर्तनात…॥

अवनि का स्वर घर को एक आध्यात्मिक आभा से भर रहा था। बचपन से ही वह इस विशिष्ट श्लोक का पाठ निरंतर करती आ रही थी। अपनी माँ द्वारा दिए गए इस मंत्र को वह रोज पूरी निष्ठा से पढ़ती थी। अवनि पाठ कर रही थी और सामने के कमरे में आराम कुर्सी पर लेटी गोदावरी देवी सोच रही थी…मैं भी तो इस श्लोक को बचपन से ही पढ़ती रही हूँ यहाँ तक कि परिवार के सभी सदस्यों को मैंने ही यह श्लोक पढ़ने की सीख दी थी। अवनि की माँ मनोरमा जब ब्याह कर आई थी तब उसको भी तो मैंने ही सिखाया…माँ से बेटी में संस्कार प्रवाहित हुए हैं…वह निरंतर सोच रही थीं…इस विशिष्ट श्लोक का अर्थ मैं जीवनभर समझ ही नहीं पाई…बस यंत्रवत पढ़ती रही थी, अब जाकर बुढ़ापे में मुझे इसका अर्थ ज्ञात हुआ है…उनका रोम-रोम सिहर उठा था…बुद्धि और मन का स्वास्थ्य कितना जरूरी है…सही बुद्धि और स्वच्छ मन ईश्वर की बहुत बड़ी अनुकंपा है। तभी तो अपनी अक्षम्य गलतियाँ मानो मन में बवंडर का सृजन कर प्रायश्चित हेतु विकल बनाने लगी थीं। पूरा जीवन व्यर्थ ही पूजा-पाठ, दान-पुण्य, व्रत-त्यौहार करती रही…। सब कुछ छोड़कर केवल एक गलती नहीं की होती तो आज मृत्यु के सन्निकट होने पर अपराध बोध से नहीं भर उठती…! कितनी सही उक्ति है–‘जाको राखे साइयाँ मार सके ना कोय…’ अन्यथा एक बार फिर हत्यारिन बनने से उन्हें कौन रोक सकता था?

‘बस हो गई पूजा दादी माँ आपकी दवाइयों का समय हो रहा है, तुरंत नाश्ता लगाती हूँ’ अवनि ने कहा तो वह अंतर्मन से वर्तमान में लौटीं। अवनि ने अपने पति और दोनों बच्चों गोलू और गुड़िया का नाश्ता टेबल पर लगाया और एक प्लेट में दादी के लिए नाश्ता निकालकर उनके कमरे में चली आई। दादी के पाँव छू कर आशीर्वाद लिया तो उनकी पलके भीग उठीं। आज अवनि 30 वर्ष की युवा स्त्री है, समर्पित पत्नी है, ममतामयी माँ और सुघड़ गृहणी है साथ ही सुशिक्षित विचारवान अध्यापिका और समाजसेवी भी है। ‘परियों का आँगन’ नामक अनाथ बच्चियों की मदद करने वाली एक संस्था की युवा सक्रिय सदस्या भी है।

‘दादी माँ नाश्ता कैसा बना है?’ मनुहार पूर्वक अवनि ने पूछा तो आत्मग्लानि से भरी गोदावरी देवी ने धीमे स्वर में कहा, ‘बहुत अच्छा बिटिया!’

सालों बीत जाने पर भी मन में गहरे तक धँसी आत्मग्लानि से वह अब तक उबर नहीं पाई थीं।

‘आराम से खा लीजिए। फिर दवा खा कर आराम कीजिए, हम दोनों कल की छुट्टी ले लेंगे और आपको ‘आँगन’ ले चलेंगे, बच्चियाँ आपको सामने पाकर खुशी से खिल उठेंगी।’ उत्साह से भरी अवनि कहती जा रही थी और उनके मन में आँधियाँ शोर मचा रही थीं। बार-बार जिसे वह बचपन से विभिन्न नामों से पुकारती आई थीं…माथे की गठरी…सीने का सिल…दहेज की पोटली और न जाने क्या-क्या…उसका नाम सही में सार्थक है, धीर-गंभीर…अपने नाम की तरह सार्थक अवनि! अर्थात पृथ्वी।

नाश्ता करके और दादी का खाना कैसरोल में टेबल पर रखकर अवनि और शाश्वत बच्चों के साथ घर से निकल गए तो गोदावरी देवी एक लंबी साँस लेकर बिस्तर पर लेट गई थीं। पता ही नहीं चला कब आठ साल हो गए अपनी एकमात्र पोती अवनि के घर आए हुए।

कहाँ से? यह प्रश्न उन्हें सिहरन से भर गया था। हे ईश्वर! कण-कण में तू ही विद्यमान है, जरूर पिछले जन्म में मोती दान किए होंगे जो अवनि जैसी पोती मिली। पर इस जन्म के विकट कर्मों ने ही तो मुझे नर्क भोगने पर विवश कर दिया था…वह थरथरा उठी थीं। यह कोई सामान्य थरथराहट नहीं थी, इस थरथराहट के पीछे एक विराट कथा थी…

जमींदार घराने की एकमात्र बहू…सैकड़ों एकड़ जमीन की मालकिन…और एक विशाल हवेली…जहाँ की वह महारानी थी और पति की मृत्यु के बाद…सब कुछ उनकी आज्ञा से ही चलता था…चार बेटों की माँ गोदावरी देवी की कथा…!

‘छोटी बहू नारियल और बताशा खाना मत भूलना…मखाना भी भून कर रखवा दिया गया है…समय पर खाना और चाय नहीं…दूध के साथ खाना। अपना ध्यान रखो तभी तो गोरा-चिट्टा लाल आँगन में खेलेगा।’ गोदावरी देवी ने अपनी बहू मनोरमा से कहा तो वह मुस्कुरा कर बोली, ‘जी अम्मा जी!’ पर मन में कुछ दरक-सा गया था। बिटिया भी तो हो सकती है ना, प्यारी-सी राजकुमारी जैसी…पर वह मौन रह गई थी। तीनों बड़ी जिठानियों के दो-दो बेटे थे और एक बड़ी विडंबना भी तो थी…जो भूतकाल में छुपी हुई थी। कई नन्हीं जानों को धरती पर आने से रोका गया था, कई नन्हीं किलकारियाँ हँसी से पहले ही दफन कर दी गई थीं। सब कुछ जानते समझते हुए मनोरमा बहुत उद्विग्न थी। पहली संतान है, बेटा-बेटी करना क्या अम्मा को शोभा देता है…? कल ही तो अम्मा आँगन में बैठी तेज स्वर में पूरी दुनिया को सुना रही थीं–‘छह पोते हैं मेरे…अब सातवाँ पोता होगा…सात-सात पोतों की दादी कहलाऊँगी…सारा धन घर में ही संचित रहेगा। बेटियाँ कहाँ ब्याहनी है? ना दान-दहेज देना है…अब कोई चिंता मन को भारी नहीं बनाएगी। रमेश के पिता की असमय मृत्यु के बाद मैं कितनी एकाकी रह गई थी–चार बेटे थे तभी तो चैन की साँस ली…बेटियाँ होती तो दहेज जुटा-जुटा कर सारी संपत्ति स्वाहा हो गई होती।अब जाकर सात पोतों की दादी कहलाऊँगी…!!’

पर मनोरमा भी तो बहुत कुछ चाहती थी ना, बेटा हो या बेटी उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था, आने वाले शिशु की प्रतीक्षा में हर्ष और उल्लास से भरी प्रतिक्षण वो भाव-विभोर रहती थी। क्योंकि वह जानती थी गर्भ में अम्मा जी का लाल नहीं उसकी मासूम गुड़िया पल रही है। बड़ी मुश्किल से नर्स और डॉक्टर को विश्वास में लेकर मनोरमा और उसके बड़े भाई ने जाँच रिपोर्ट बदलवा दी थी। अम्मा की खुशी का ठिकाना नहीं था सातवें पोते की भावी दादी आसमान में जो उड़ रही थीं।

मनोरमा का मन कभी-कभी कंपित हो उठता था, न जाने समय आने पर अम्मा जी क्या प्रतिक्रिया देंगी? पर कहीं ना कहीं मन में एक नन्हीं-सी आस भी थी की बेटियों और पोतियों के स्नेह सुख से रहित अम्मा जी कहीं इस नन्हीं-सी जान को अपने सीने में समेट लें। पर ऐसा हुआ नहीं, जिस रात उस नन्हीं बच्ची का रुदन सुनकर हर्षातिरेक से नाचती-गाती अम्मा जी ने उसे गोद में लिया उसी रात से उस घर में उस बच्ची के लिए जैसे निषेधाज्ञा लागू हो गई थी।

‘इतना बड़ा धोखा…?’ अम्मा जी चीख पड़ी थीं।

‘अम्मा जी! एक बार मेरी बात ध्यान से सुन लीजिए…यह मेरी पहली संतान है…मैं इसे कैसे…!’ मनोरमा बिलख पड़ी थी।

गोदावरी देवी ने आग्नेय दृष्टि से बेटे की ओर देखते हुए कहा था, ‘सारी गलती तेरी है…तेरी नाक के नीचे तेरी पत्नी मन का कर गई और तुझे पता भी नहीं चला?’

मनोरमा के पति रमेश ने सर झुका कर कहा, ‘इसने अपने भाई की मदद से रिपोर्ट बदलवा दी थी मैंने पता किया है माँ…अब मैं भी ऐसी झूठी पत्नी के साथ रहना नहीं चाहता।’

पति की बात सुनकर मनोरमा अवाक रह गई थी। सन्न खड़ी रह गई थी। रो पड़ी थी, ‘आपकी भी बेटी है, आप ऐसा कैसे कह सकते हैं?’

पर अम्मा जी के तुगलकी फरमान के आगे किसी की ना चलती थी, ना ही चली। ना चाहते हुए भी मनोरमा को अपने बड़े भाई के साथ मायके जाना ही पड़ा, जहाँ उसकी बूढ़ी बीमार माँ उसकी इस हालत से और टूट गई थी। बड़े भाई ने स्नेह से बहन को गले लगाते हुए कहा था, सब ठीक हो जाएगा मनोरमा तू चिंता मत कर मैं हूँ ना।

मायके में रहने पर विवश मनोरमा का मन आठ-आठ आँसू रोता था। क्या एक सही काम करना इतनी बड़ी गलती हो सकती है कि एक स्त्री परित्यक्ता का जीवन जीने पर विवश हो जाए? मनोरमा का व्यथित मन नन्हीं-सी बिटिया को देखकर सारे दुख भूल जाता। स्नेह से बिटिया का नाम रखा, अवनि। धरती की तरह सहनशील और प्यारी बच्ची धीरे-धीरे बड़ी होने लगी थी। सब कुछ बदल रहा था पर एक चीज थी जो अब भी परिवर्तनहीन थी…अम्मा जी का क्रोध।

‘मेरे जीते जी दोनों माँ-बेटी इस घर में कदम भी नहीं रख सकती…मुझसे झूठ…चालाकी?’ गोदावरी देवी बहू और पोती के नाम से भी चिढ़ने लगी थी। अवनि के पिता रमेश भी माँ के ही रंग में रंगे हुए थे पर माँ के लाख समझाने पर भी उन्होंने दूसरी शादी करने से मना कर दिया था, ‘नहीं माँ! अब जैसी भी है वही मेरी पत्नी है, मैं दूसरा विवाह नहीं कर सकता, मैं मनोरमा से प्रेम करता हूँ। ठीक है उसने झूठ बोला, मुझसे भी नहीं पूछा पर आज मुझे लगता है कि उसने कुछ गलत नहीं किया अपनी संतान की रक्षा हर माँ का फर्ज है…।’

‘तो…तो ठीक है तू भी जाकर उसी के पास रह!’ गोदावरी देवी ने दो टूक कह दिया था। पर बार-बार कहने से सच भी झूठ लगने लगता है। माँ के बार-बार कहने से रमेश को भी अपनी नन्हीं बेटी अपने सुखमय जीवन के मध्य कंकड़ की तरह लगने लगी थी। नन्हीं बच्ची पिता के प्यार को तरसती धीरे-धीरे बड़ी हो रही थी। मनोरमा कभी-कभी सोच के गहरे भँवर में उतर जाती–एक स्त्री ऐसा घृणित कृत्य कर सकती है? कई पोतों की दादी एक पोती का भी स्वागत न कर सके तो किस काम का ऐसा वैभव, ऐसा ऐश्वर्य? इस कठिन परिस्थिति में भी मनोरमा ने हिम्मत नहीं हारी–लगातार पति और सास को मनाने का प्रयास करती रही पर गोदावरी देवी ने मनोरमा के झूठ के लिए उसे कभी क्षमा नहीं किया। और रही सही कसर और आखिरी उम्मीद का अंतिम सिरा उस दिन टूट गया जब एक एक्सीडेंट में रमेश की असमय मृत्यु हो गई। इस बार भी गोदावरी ने सारा-का-सारा दोष मनोरमा की फूटी किस्मत पर मढ़ दिया। और धीरे-धीरे सब कुछ खत्म हो गया।

पर मनोरमा ने कमर कस ली थी, भले ही अम्मा जी बेटों को स्वर्ग की सीढ़ी मानती हों, मेरे लिए तो अच्छी शिक्षा और बेटी की रक्षा ही स्वर्ग की सीढ़ी है। अगर मैं पढ़ी-लिखी होती तो आज कहीं नौकरी करके अपनी बेटी और अपना अच्छी तरह पालन-पोषण कर लेती। माँ की मृत्यु और भाई के विवाह के पश्चात आई भाभी के कटु व्यवहार से आहत होकर दाने-दाने को मोहताज नहीं होना पड़ता। वह तो भला हो भाई का कि उसने भाभी से छिपाकर एक कारखाने में मनोरमा की नौकरी लगा दी थी। अब मनोरमा का केवल एक ही लक्ष्य था–अवनि को उच्च शिक्षित बनाना। वह अपने इस कार्य में जी जान से लग गई पर नन्हीं अवनि के छोटे-छोटे सवाल उसे परेशान करते रहते और वह बहुत ही सहज भाव से उसके उन सवालों का जवाब देती और उसके मन में सुंदर सकारात्मक विचार भरने का प्रयास करती रहती। दिन-रात मेहनत कर उसने अवनि को एम.ए., बी.एड. तक पढ़ाया और एक सरकारी स्कूल में शिक्षिका अवनि का विवाह उसी स्कूल के एक शिक्षक शाश्वत से करवा कर मानो मुक्ति की साँस ली। उसे लगा, सच्चा सुख और स्वर्ग की सीढ़ी अपनी बेटी को कामयाब बनाने में ही है, जिसमें वह सफल रही। और मानो उसकी साँसें इसी कार्य तक चल रही थीं। अवनि के विवाह के दूसरे ही वर्ष हृदयाघात से मनोरमा की मृत्यु हो गई। पर मृत्यु के समय उसके चेहरे पर एक शाश्वत चिरंतन शांति थी।
समय अपनी रफ्तार से चल रहा था। गोदावरी देवी की हवेली में भी कई घटनाएँ घट रही थीं…!

अवनि की पिता की मृत्यु के बाद अन्य तीन भाइयों में जायदाद को लेकर खूब लड़ाई-झगड़े हुए और गोदावरी देवी को बँटवारा करना ही पड़ा। सारी जमीन, आम के बगीचे और अन्य संपत्तियाँ बाँट दी गईं, यहाँ तक कि विशाल हवेली भी तीन हिस्सों में बँट गई। तीन चूल्हे जलने लगे…नेह बंध टूटने लगा…। गोदावरी देवी भी धीरे-धीरे कमजोर पड़ती जा रही थीं। समय बीतता रहा…पोते जवान हो चुके थे…उच्च शिक्षा पाकर देश-विदेश में बस चुके थे…बेटे और बहूएँ गाँव में नहीं अपने बच्चों के पास बाहर थे। विशाल हवेली अब भाँय-भाँय करने लगी थी। बारह कमरों वाली हवेली के अधिकांश कमरों पर ताला लटक रहा था, शेष बचे कमरों में से एक कमरे में गोदावरी देवी रहती थी और वर्षों से साथ निभा रही गोमती माँ रसोई के पास वाले कमरे में रहती थी। गोदावरी देवी को यह ज्ञात था कि उनके व्यवहार से आहत उनके सभी बच्चे उनसे दूर अलग दुनिया बसा चुके थे। और अब गोदावरी देवी का मन भय से दरकने लगा था। सुख-दुख की साथी बस एक ही थी, वर्षों से घर में काम करने वाली गोमती माँ।

‘गोमती माँ! दुनिया कितनी बनावटी और मतलबी होती जा रही है…देख रही है…जिन बेटे-पोतों पर नाज करती फूली नहीं समाती थी आज किसी को मुझसे मतलब नहीं…!’

‘मालकिन! मैं तो सोचती हूँ अगर गोमती नहीं होती तो मैं क्या करती, जाकर किसी कुएँ में धौंस दे देती…दो-दो बेटे जने पर क्या मिला?…गाली-गलौज…अपमान!!’

‘हम्म…हम्म!’

‘एक बात कहूँ मालकिन?’

‘नहीं…मुझे पता है तू फिर छोटी बहू की बात उठाएगी…!’

‘तो गलत क्या कहूँगी मालकिन…आपको नहीं लगता छोटी बहू और उस बच्ची के साथ अन्याय…??’

‘चुपकर…!’ वह भड़क गईं।

‘क्या अन्याय हुआ? रमेश की मौत के बाद बड़ा मुँह फाड़ कर अपना हिस्सा लेने अपने भाई के साथ नहीं आ गई थी…? ऊपर से उसका वह गुंडा भाई, वह तो समझ हमारी पहुँच ऊपर तक थी…नहीं तो!’

‘उनका हक था मालकिन, जो उन्हें नहीं मिला, वैसे भी छोटे बाबू की मृत्यु के बाद उनका कौन…?’

‘तू उसकी तरफदारी मत कर…मेरा नमक खाती है तो मेरा भला सोच…।’ गोदावरी देवी भन्नाकर बोली थी।

‘आपका भला सोच कर ही तो कह रही हूँ, अगर छोटी बहू को आपकी हालत पता होती तो…!’

‘तो क्या?’

‘वह आपका हाल-चाल पूछने जरूर आती।’

‘नहीं कभी नहीं…सारी बहूएँ एक जैसी है…अपने कानों से सुना है जब बड़ी बहू कह रही थी, अच्छा है जल्दी मुक्ति मिले यहाँ से। वर्षों से एक हिटलर के साये में जीते आए हैं…अब चैन की साँस ले सकेंगे…। सच है, मुझे भी लगने लगा है–मैंने सब का बहुत दिल दुखाया है। उन्हें कभी उनके मन का कहाँ करने दिया…? छोटी बहू जान लेगी तो मेरी दशा पर ठहाके लगाएगी…।’

अब गोदावरी देवी अपने बीते दिनों के किस्से सुनाते रहती और धीरे-धीरे कहीं-ना-कहीं उनका मन यह मानने लगा था कि मुझसे बहुत बड़ी गलती हो चुकी है। बढ़ती उम्र, कमजोर हो रहा शरीर अब डराने लगा था। सच ही तो है भूतकाल में किए गए अपने सही-गलत विचार और व्यवहार ही तो आदमी के वर्तमान को निर्देशित करते हैं।

अब गोदावरी देवी का अधिकांश समय पिछली बातों पर पछताते हुए ही बीतता था। गोमती समझाती रहती…मालकिन ईश्वर पर विश्वास रखो, शांत हो जाओ अगर अपने किए पर सच्चा पछतावा होता है तो ईश्वर जरूर मदद करते हैं…!

फिर एक और घटना घटी–

‘ओम नमो भगवते वासुदेवाय! दया कृपा क्षमा प्रभु!’ गोदावरी देवी की वो रात बीतती ही नहीं थी…पूरी रात छटपटाते हुए बीती, नींद ना आनी थी ना आई। सुबह से शाम तक वह बेचैन रही…सुबह बीता, दोपहर गई, शाम तक सभी बेटे बहूएँ और पोते घर आ चुके थे…काम था…इस विशाल हवेली को बेचना। सबके अपने-अपने तर्क थे की हवेली बेचकर हिस्से के जो रुपये मिलेंगे उससे बहुत से महत्त्वपूर्ण कार्य करने हैं…।

‘यह हवेली नहीं बिकेगी…कान खोल कर सुन लो सब…मेरे नाम है यह हवेली…सब कुछ तो बाँट दिया…जिसे बेच बेच कर तुमलोग शहर चले गए…अब मेरे जीते जी ना यह हवेली बिकेगी…, ना शेष बची जमीन…!’

‘हिटलर तो हिटलर ही रहेंगी चाहे जितनी भी उम्र हो जाए…इस उम्र में भी संपत्ति का इतना मोह?…मरेंगी तो साथ ले जाएँगी क्या? मँझली बहू की तेज आवाज उनके कानों में नश्तर-सी चुभी थी।

‘लगता तो ऐसा ही है।’ बाकी बहुओं ने भी कहा था।

‘हाँ! हूँ मैं हिटलर…पर यह घर नहीं बिकेगा’ कहते-कहते उनकी साँस फूलने लगी थी। वो जोर से चीख पड़ी थीं… ‘जाओ…चले जाओ सब यहाँ से…!’

गोमती माँ ने उन्हें सँभाला था, नहीं तो वह लड़खड़ा कर गिर पड़तीं।

‘तो ठीक है पड़ी रहो इस सुनसान हवेली में अकेले…अब तुम्हारे मरने पर ही आएँगे!’ बेटों ने कहा। ‘हम जा रहे हैं दादी! पर याद रखना बुलाओगी तब भी नहीं आएँगे…’ पोतों ने भी माँ-बाप के सुर-से-सुर मिला लिया था। ‘हमें विदेश जाकर पढ़ाई करनी है, अपना भविष्य सँवारना है और आप अब तक इस हवेली से चिपकी हैं। अरे हमारे साथ चल कर रहिए, क्या रखा है यहाँ…कब तक जिद पर अड़ी रहेंगी?…करोड़ों में बिकेगी हवेली…करोड़ों में।’

‘तो हमारा रिश्ता क्या केवल पैसों पर टिका है?’ वह विह्वल होती जा रही थीं…एक-एक साँस को तरसती…जिन पोतों के लिए…खैर…! जो बोया वही तो काटूँगी ना…? उनकी आँखों से प्रायश्चित के आँसू अनवरत बहते रहते थे।

दूसरे दिन से फिर हवेली साँय साँय करने लगी। पर इस बार सन्नाटे में भी कई ध्वनियाँ थीं…गोदावरी देवी अकेली नहीं थीं…हवेली में चार अजन्मी कन्याओं के आर्तनाद के साथ-साथ छोटी बहू का करुण रुदन भी तो गूँज रहा था, जो गोदावरी देवी स्पष्ट सुन रही थीं। कुछ दिन और बीते…भारी और असहज…बेकार से। एक दिन गोदावरी देवी ने गोमती माँ से कहा, ‘जानती है धर्म ग्रंथों में पढ़ती आई हूँ…। पाँच तत्त्व से बना यह शरीर एक दिन पंचतत्त्व में विलीन हो जाएगा…पर मैं ना तो अपने हाथों अपना यह लोक सँवार सकी और ऊपर से परलोक भी बिगाड़ लिया…। मिट्टी की बनी देह अग्नि संस्कार के साथ राख में बदल जाएगी…और हवा कुछ कणों को अपने साथ उड़ा ले जाएगी और फिर किसी नदी-नाले में मेरी अस्थियाँ बहा दी जाएँगी…।और…और…गोदावरी देवी का नामोनिशान खत्म…नहीं मैं ऐसे नहीं जा सकती…। मुझे अपनी भूल का प्रायश्चित करना है…कहते-कहते वह अचेत-सी हो गई थीं। गोमती माँ के हाथ-पाँव फूल गए थे। किसी तरह गाँव के डॉक्टर को बुलाया तो उसने कहा पक्षाघात है, मानसिक उद्वेलन के कारण इनकी यह दशा हुई है। गोमती सन्न रह गई थी। बेटों को खबर दी गई तो केवल बड़ा बेटा आया और दवा आदि का इंतजाम करके हजारों नसीहतें देकर वापस चला गया। उस वक्त गोदावरी देवी को ज्ञात हुआ–सेवा भी कितनी आवश्यक है, अपनों द्वारा की गई स्नेहिल सेवा। सेवा ही तो संबंध को अटूट बनाती है। वह बोल नहीं सकती थीं, शरीर निश्चेष्ट था पर आत्मा को जागृत थी…वो परमेश्वर से मन-ही-मन प्रार्थना करती रहतीं… ‘मुझे मृत्यु देने से पहले प्रायश्चित का एक मौका दे देते…केवल एक मौका…’। और उनकी आँखों से अनवरत आँसू बहते रहते, आँखों में…आत्मा में…केवल मनोरमा और त्यागी गई वह नन्हीं-सी बच्ची कौंधती रहती। और फिर एक दिन उनकी प्रार्थना स्वीकृत हो गई। कहते हैं ना, सच्चे दिल से की गई प्रार्थना और पश्चाताप की भावना को ईश्वर जरूर स्वीकार कर लेते हैं और एक अवसर देते हैं, किसी-न-किसी को माध्यम बनाकर। और माध्यम बनी गोमती माँ, जिससे अपनी मालकिन की ऐसी दुर्दशा देखी नहीं जा रही थी। जानती थी इसका कारण वे स्वयं हैं फिर भी उसने ठान लिया था कि छोटी बहू को समाचार भिजवा के रहेगी। उसी गाँव में छोटी बहू के मायके का रामाधार रहता था–उसके घर जाकर खबर ली तो पता चला–छोटी बहू अब इस दुनिया में नहीं रही और वह परित्यक्त नन्हीं बच्ची शहर के स्कूल में टीचर है। डरते-डरते गोमती माँ ने अवनि का नंबर मिलाया…, ‘हेलो!’

‘कौन?’

‘मैं गोमती माँ…अकबरपुर से…!’

‘अकबरपुर???’

फिर दोनों ओर शांति छा गई। कुछ देर ठहर कर अवनि ने कहा ‘माँ अब नहीं रही…बताइए मैं आपके लिए क्या कर सकती हूँ?’

फिर गोमती माँ से उसे जो समाचार प्राप्त हुआ उसे सुनकर वह गहरी सोच में पड़ गई पर उसे इस क्षण कुछ भी याद ना रहा…ना अपना दुख…ना अपना एकाकी बचपन…ना माँ की पीड़ा…ना पिता की मृत्यु…ना दादी का कठोर व्यवहार…याद रही केवल माँ की बात जो वो बचपन से उसे घुट्टी में पिलाती आई थी, ‘जीवन में जब भी कोई अपना या पराया मदद की गुहार लगाए तो एक क्षण की भी देरी मत करना बेटी! क्योंकि यही वह अवसर होता है जब हमें ईश्वर जाने-अनजाने में किए गए अपने पापों के प्रायश्चित का एक अवसर देते हैं।’

दूसरी सुबह ही उस विराट् सन्नाटे से भरी हवेली का सन्नाटा अवनि की एक दस्तक से भंग हो गया था।

गहरी दृष्टि से पूरी हवेली को देखती अवनि ने भीगी आँखों से पहली बार अपनी दादी को अपनी आँखों के सामने देखा। बिस्तर पर सिकुड़ी-सी हालत में पड़ी वह निश्चेष्ट-सी थी। लकवे का असर दाहिने तरफ ज्यादा था पर आँखें चैतन्य थी–अनवरत आँसू बहाती प्रायश्चित से छलकती आँखें, जिनमें दर्द, वेदना और सहायता की करुण पुकार के साथ-साथ प्रायश्चित की अदम्य इच्छा भी आँसुओं के साथ अनवरत बही जा रही थी।

अवनि उन्हें शहर ले आई। अच्छे-से-अच्छे डॉक्टर को दिखाया और उनका इलाज चलने लगा। अवनि की प्राणार्पण से की गई सेवा से गोदावरी देवी धीरे-धीरे अच्छी होने लगीं। सेहत में सुधार होने लगा और साल होते-होते वो छड़ी की मदद से चलने लगीं। वह सब कुछ कर लेती थीं पर एक काम वो आज भी नहीं कर पाती थीं…वह आज तक अवनि से आँख नहीं मिला पाती थीं। उसे देखते ही आत्मग्लानि से उनकी आँखें भर जातीं…पाप मुखर हो उठता…। कई बार उन्हें पूजा घर में ईश्वर के समक्ष गिड़गिड़ा कर प्रार्थना करते हुए अवनि ने सुना था–‘हे प्रभु! मेरे पाप क्षमा करो…मैं कितना भी पूजा पाठ करती हूँ…नाम स्मरण करती हूँ…मेरे मन से आत्मग्लानि जाती ही नहीं…मैं इस बच्ची की कर्जदार हूँ…कर्ज और चढ़ता जा रहा है…प्रायश्चित का कोई उपाय नजर नहीं आता। मैं क्या करूँ प्रभु…?’ वह फूट-फूट कर रोने लगतीं। कई बार अवनि ने उन्हें समझाने की कोशिश की पर वह सहज ही नहीं हो पा रही थीं।

एक दिन अवनि ने कहा, ‘दादी माँ अब आप बिल्कुल स्वस्थ हो गई हैं। हम सब आपसे कितना प्यार करते हैं, चाचा और भाइयों से भी आपकी बात करवाती रहती हूँ…फिर कौन-सा दुख है जो आपको खाए जा रहा है? वह समय बीत गया, वह फिर कभी लौट कर नहीं आएगा।’

‘हाँ जानती हूँ बिटिया, पर मेरे मन को शांति नहीं मिल रही। मैं ऐसा क्या करूँ, कौन-सा प्रायश्चित जो मुझे शांति मिले…, भले ही तूने मुझे क्षमा कर दिया, सारी दुनिया मुझे क्षमा कर दे…पर मेरा अंतर्मन मुझे क्षमा नहीं करता।’

‘मैं आपसे क्या कहूँ…फिर भी माँ की कही एक बात कहती हूँ…वह कहती थी, यदि कोई सच में प्रायश्चित करना चाहता है तो पूजा, पाठ, धर्म, उपवास किसी भी चीज से शांति नहीं मिलेगी…शांति तभी मिलेगी जब हम किए गए कार्य के विपरीत कर्म करें जैसे अगर झूठ मन में कील की तरह चुभे तो हमें सच की राह पकड़ लेनी चाहिए…।’

दादी की व्यथा देखकर अवनि ने मन ही मन कुछ निश्चय किया। दूसरी सुबह वो दादी को अपने साथ ‘परियों का आँगन’ नामक अनाथ बच्चियों की संस्था में ले गई थी, जहाँ वह स्कूल के बाद का समय दिया करती थी। अनाथ बच्चियों के लिए कार्य करने वाली इस संस्था की संचालिका अवनि की दोस्त थी। उसने दोनों का स्वागत करते हुए कहा, ‘मेरे लायक कोई काम हो तो बताइए।’

‘कोई नई बच्ची आई है क्या?’ अवनि ने पूछा।

‘हाँ! रेड लाइट एरिया से कल सात साल की बच्ची छुड़ाई गई थी…अपना ही सगा चाचा बेच गया था…पर क्यों?’

अवनि ने उस बच्ची को बुलाने के लिए कहा। जब वह बच्ची आई तो उसने स्नेह से उसका हाथ अपनी दादी के हाथ में देते हुए कहा, ‘दादी माँ! आज से यह बच्ची आपके आशीष तले पलेगी। इसके खाने-पीने, जरूरत का सामान और पढ़ाई का दायित्व आपका…।’

गोदावरी देवी ने हैरत से अवनि के चेहरे की ओर देखा फिर बच्ची के सुंदर सलोने मुखड़े को देखते हुए उसे गले से लगा लिया। लौटते समय अवनि ने महसूस किया कि दादी का चेहरा आज थोड़ा सहज है।

फिर तो गोदावरी देवी में जैसे जान आ गई। उन्होंने पाँच बच्चियों के पालन-पोषण और शिक्षा की जिम्मेदारी सहर्ष स्वीकार कर ली। उन्होंने अपनी हवेली और कुछ जमीनें बेच कर उसके पाँच हिस्से किए और बेटों को उनके हिस्से का रुपया थमा कर अपना और अवनि के हिस्से का रुपया बच्चियों के पालन-पोषण और शिक्षा में खर्च करने का बीड़ा उठा लिया। पहली बच्ची का नाम रखा, धरा…तो गोदावरी देवी को ऐसा लगा जैसे पंचमहाभूतों से बनी देह का एक हिस्सा सार्थक हो गया है। फिर सलिला, समीरा, ज्योति और व्योमा की पालनहार बनी गोदावरी देवी ने मानो वर्षों से मन में संचित पंचभूतों से बनी देह का कर्ज चुकाने के प्रायश्चित का शुभारंभ कर दिया था।

पाँच दिन की ज्योति जो एक नाले में पाई गई थी–अब पाँचवी कक्षा में पढ़ती थी। समीरा को अस्पताल में छोड़कर भागे माँ-बाप ने फिर उसकी कभी सुध नहीं ली थी और व्योमा तो ट्रेन में लावारिस मिली थी–एक पोटली में किसी जड़ वस्तु की तरह बँधी हुई। जो आज दूसरी कक्षा में पढ़ रही थी। धीरे-धीरे आठ वर्ष गुजर गए। अब गोदावरी देवी पाँच बच्चियों की माँ थी। नहीं पाँच नहीं…सात…एक अवनि और दूसरी उसकी बेटी भी तो थी ना जो गोदावरी देवी का मानो दूसरा प्राण थी…और जब बच्चियाँ उन्हें अम्मा कहकर बुलाती तो उनका रोम-रोम आनंद के अतिरेक से खिल उठता था। अवनि की बेटी के मुँह से निकले तीन शब्द…बड़ी…दादी…माँ! उनकी आत्मा पर मानो शीतल फुहार से प्रतीत होते थे। गोदावरी देवी समाज में हो रही कन्या भ्रूण हत्या के रोकथाम के लिए भी काम करने लगी थीं। भ्रूण हत्या के लिए काम कर रही कई संस्थाओं से जुड़कर और स्वतंत्र रूप से भी उन्होंने एक मुहिम चलाई थी जो सफलता से काम कर रही थी।

समाज में गोदावरी देवी और अवनि को लोग आदर की दृष्टि से देखने लगे थे। कई समारोह में उन्हें मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया जाने लगा था। कई सम्मान प्राप्त कर दोनों–दादी-पोती ने एक मिसाल कायम कर दी थी। अब उनका अधिकांश समय ‘परियों के आँगन’ की बच्चियों और अवनि की बेटी गुड़िया के साथ ही गुजरता था। उनके साथ बातें करती, उनका सुख-दुख सुनती-बाँटती, उनके साथ खेलती गोदावरी देवी का बचपन जैसे पुन: लौट आया था।

और आज की घटना ने तो जैसे उनमें एक नई ऊर्जा का संचार कर दिया था। धरा और सलिला ने मैट्रिक की परीक्षा पास करके उनके घावों पर मरहम जो लगा दिया था।

दूसरी सुबह जब वह अवनि के साथ ‘परियों का आँगन’ पहुँची तो देखा बड़े से हॉल में शहर के गणमान्य लोग उपस्थित थे। खुशियाँ मनाई जा रही थीं। धरा और सलिला ने दौड़कर जब उनके पाँव छुए तो उन्हें लगा जैसे यही स्वर्ग है। नन्हीं ज्योति और व्योमा दादी माँ की जान थी और समीरा का मासूम चेहरा दादी माँ के लिए ऊर्जा का स्रोत था। पाँचों बच्चियाँ दादी माँ से लिपट कर ममत्व की उष्मा को महसूस कर रही थी। और बच्चियों से घिरी अपनी दादी को देख कर अवनि अपनी माँ का स्मरण कर रही थी। काश! आज माँ होती तो देखती उनके दिए संस्कारों का सकारात्मक प्रभाव। धूमधाम से समारोह संपन्न हुआ। मुख्य अतिथि के रूप में दो शब्द कहने के लिए जब गोदावरी देवी उठीं तो तालियों की गड़गड़ाहट से उनका स्वागत किया गया। उन्होंने एक स्नेहसिक्त दृष्टि अवनि और हॉल में बैठी सभी बच्चियों पर डालते हुए कहना शुरू किया, ‘मैं क्या…समाज के अधिकांश लोग बेटे-पोतों को कुल का वंशज…नर्क से तारने वाला और स्वर्ग पहुँचाने वाला मानते हैं…कुछ पूजा-पाठ, धर्म-कर्म, व्रत-उपवास से मुक्ति की कल्पना करते हैं…सबको स्वर्ग चाहिए…एक समय मुझे भी चाहिए था…पर आज मैं आप सबके सामने कहती हूँ–ना तो बेटे-पोते स्वर्ग की सीढ़ियाँ हैं, ना पूजा-पाठ और व्रत-उपवास ही…केवल दया, क्षमा और सत्य से मंडित अपना अच्छा और सार्थक कर्म ही मानव जीवन की उपलब्धि है…यह मुझे सिखाया मेरी पोती अवनि ने…। आज यह कहते हुए मुझे गर्व की अनुभूति हो रही कि मेरी बहू मनोरमा ने एक सार्थक और सही कदम उठाकर सामाजिक विकृति का विरोध किया…आज खुलकर कहती हूँ, अगर उसने उस समय विरोध नहीं किया होता तो मैं ना जाने कब का इस अनमोल जीवन से विदा ले चुकी होती…मुझे मेरी स्वर्ग की सीढ़ी अब मिल गई है…। उन्होंने मुस्कुराते हुए अपनी उँगली अपनी पोती अवनि की तरफ करते हुए कहा, ‘यह रही मेरी स्वर्ग की सीढ़ी।’

जोरदार तालियों की गड़गड़ाहट से सारा हॉल गूँज उठा। गोदावरी देवी ने अवनि को गले से लगा लिया…, उनकी आँखें झरने का पर्याय बन चुकी थी। पर आज आँखों में वेदना, आत्मग्लानि और प्रायश्चित का दर्द नहीं था–आनंद, स्नेह और आत्म-संतोष की कौंध थी। उनकी स्नेहिल आँखें अपनी पोती अवनि की आँखों से मिलीं और उन्होंने जीते जी स्वर्गिक आनंद की अलौकिक अनुभूति से साक्षात्कार कर लिया।


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