स्वाभिमान की रोटी
- 1 December, 2015
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- 1 December, 2015
स्वाभिमान की रोटी
नगर में एक समाज-सेवी सेठ हैं–ईश्वरचंद सेठ! इन्होंने एक बड़ा-सा प्रतिष्ठान चला रखा है। पहले छोटा-मोटा व्यापार था। उस समय महज एक आदमी वहाँ काम करता था। आज कई लोग जुड़ गए हैं। लेकिन सबसे पुराना विश्वासी मुरलीधर ही है। वह सेठ जी का सभी काम बड़ी तत्परता पूर्वक करता है। फिर भी, उसे गालियाँ सुननी पड़ती है। एक समय था जब सेठ जी ग्राहकों के लिए तरसते थे। उस समय भी एक वफादार व्यक्ति की तरह मुरलीधर ही उनके साथ रहता। ग्राहकों को जुटाने का हर संभव प्रयास करता।
सेठ जी बड़े समाज-सेवी माने जाते हैं। चाहते हैं कि समाज के लिए कुछ अच्छा काम किया जाय। इसीलिए उन्होंने एक संस्था भी चला रखी है। इसी संस्था के बैनर तले जाड़े में कंबल बाँटे जाते हैं। गर्मियों में चना के साथ राहगीरों को शरबत-पानी पिलाया जाता है। एक छोटा-मोटा स्कूल चलता है। सेठ जी एक वृद्धाश्रम खोलना चाहते हैं। रोगियों के लिए अस्पताल और बच्चों के लिए एक विद्यालय की भी स्थापना इनकी सोच में है। किंतु, इनकी कोई भी योजना मूर्त रूप नहीं धारण कर पाती। कारण, इनको किसी पर विश्वास नहीं है। संस्था को अपना पारिवारिक संगठन बना लिया है। इसीलिए पूरी संस्था व्यक्तिवादी बन गई है। एक व्यक्ति पर निर्भर। साथ ही, यशःलिप्सा इतनी अधिक है कि वे अपने छींक तक को अखबारों में छपाना चाहते हैं। जब भी अवसर मिलता, अपनी उदारता का बखान रस घोल-घोल कर करते। अपनी प्रशंसा आप ही करने में उन्हें बड़ा आनंद मिलता है। सुननेवाले ऊब जाते, फिर भी आत्मप्रशंसा करने में उन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं होती। उनके घर पर अक्सरहाँ मीटिंग-संगोष्ठी का आयोजन हुआ करता है। सभा का संचालन स्वयं करते और प्रायः वैसे ही लोगों से भाषण कराने में दिलचस्पी दिखाते, जो उनकी बड़ाई दिल खोलकर कर सके। उन्हें गरीबों का मसीहा कहे, धरती का भगवान बताये।
मुरलीधर उनके हर काम को बड़ी खूबी के साथ निपटाया करता। सभा हो या न हो, एक विज्ञप्ति टाइप करा कर अखबारों के दफ्तर तक पहुँचाने का काम वही करता। सेठ जी चाहते भी यही थे कि अखबारों में हर रोज उनका नाम छपे। साथ ही, जिस अखबार में उनका नाम छपता, उसकी दस-पंद्रह प्रतियाँ खरीदकर बाँट देते। मुरलीधर अब तो बूढ़ा हो चला था, फिर भी इन सारे कामों को अच्छी तरह अंजाम देता था। साग-सब्जी लाने, बच्चों को स्कूल-कॉलेज पहुँचाने आदि घर-बाहर के जितने काम थे, मुरलीधर ही करता। फिर भी, ऊपर से तुर्रा यह कि यदि सेठ जी किसी कारण बिदक गए, तो डाट-डपट, गाली-गलौज भी मुरलीधर को ही सहना पड़ता। अगर पीने का पानी माँगा, चाय माँगी, फिर उनके सामने चीजें रख दी गई, किंतु वो पीना भूल गए, तो इसके लिए भी मुरलीधर जिम्मेवार ठहराया जाता। घर के लोग कहीं शादी-ब्याह में गए और लौटने में देर हो गई, तो मुरलीधर पर आफत समझिए! गालियों की बेशुमार बौछार उसे झेलनी पड़ती। सेठ जी कोई लिहाज नहीं करते कि सबसे पुराना आदमी है, उम्रदराज है–वे अटूट गाली बकने लगते और कई पुश्तों तक अपना संबंध जोड़ लेते। सुननेवाला चकरा जाता। किंतु, मुरलीधर धरती की तरह सहनशील, सब कुछ सहता रहता। सेठ जी कभी-कभार आदेश देते–सभी को सीधे मेरे पास मत आने दो। कहने को तो कह देते, किंतु खिड़की से झाँक कर उधर से गुजरने वाले लोगों को खुद ही बुला लेते।
सेठ जी का व्यापार इन दिनों खूब चल पड़ा था। कम-से-कम पचास-साठ हजार रुपये की आय प्रतिदिन हो रही थी; जिससे घर के हर रोज का खर्च, साथ ही कर्मचारियों का पारिश्रमिक आदि लगभग सात-आठ हजार में निपटाकर शेष हजारों की गड्डी सीधे अपनी तिजोरी में डाल देते। घर में चार-पाँच गाड़ियाँ खड़ी कर दी। गाय-बकरी, यहाँ तक कि एक खूबसूरत घोड़ा भी दरवाजे की शोभा बढ़ाने लगा। फिर भी देखिए, सेठ जी शरीर पर फटा-चिटा कपड़ा पहने दिखाई देंगे। और, सबों को खुलेआम बतायेंगे कि मेरे प्रतिष्ठान में जितनी भीड़ रहती है, पूरे राज्य के किसी प्रतिष्ठान में जाइए, ऐसी भीड़ नहीं मिलेगी। मेरी आय भी अच्छी है–काफी पैसा आ रहा है। फिर भी अपने उदार स्वभाव के कारण सब कुछ खैरात कर देता हूँ। मेरी रसोई में एक किलो चावल दाल भी नहीं मिलेगा। फटा-चिटा गंजी-कमीज पहननी पड़ती है।
सेठ जी हर रोज संध्या समय पाई-पाई का हिसाब हरेक कर्मचारी से लेते और यदि एक पैसा का भी इधर-उधर हुआ, तो फिर इनका वाक्-वाण, गालियों की बौछार चलने लगती। साथ ही, जो कोई भी आता तो उससे इतना कहना नहीं भूलते कि मैं पैसा छूता भी नहीं जो भी ये लोग दे दिये, बिना गिने रख देता हूँ। अपने लिए न कुछ बचता है और न कुछ बचाता हूँ। इन बातों को सेठ जी इस खूबी के साथ कहते कि सुननेवाले को हाँ-में-हाँ मिलाने के अलावा कोई उपाय ही नहीं रहता। मुरलीधर भी हाँ-में-हाँ मिलाना जानता था, किंतु उसकी नसीब में सेठ जी की गाली ही बदी थी। प्रतिदिन कारण-अकारण उसको गाली सुननी पड़ती। प्रतिष्ठान में भीड़ भरी रहती और सबों के सामने प्रतिष्ठान का सबसे पुराना उम्रदराज मुरलीधर पर गालियों की पिचकारी चलती रहती। सुननेवाले सुनते और दाँतों तले उँगली दबाकर रह जाते। लेकिन उनकी मुद्राओं से यह प्रकट हो जाता कि उन्हें बड़ी जिज्ञासा है–आखिर, ऐसी विवशता क्यों। क्यों हर रोज गालियों की मार सहनी पड़े? और फिर इन प्रश्नों का उत्तर वे स्वयं खोज लेते! घर-गृहस्थी की तिमारदारी ने उसे कुंठित कर दिया।
मुरलीधर घर में मौन रहना अच्छा समझता था। पत्नी जब कभी कुछ पूछ भी देती, तो वह अपने सेठ जी की शिकायत कभी जुबान पर नहीं लाता। सबसे यही कहता–सेठ जी मुझे बहुत मानते हैं। हर काम में मेरी सलाह लेते हैं। घर के किसी व्यक्ति को कहीं जाना होता, तो मुझे ही साथ कर देते हैं। बच्चों को स्कूल कॉलेज तक मैं ही ले जाता हूँ। कहने को तो वह हरदम सेठ जी की प्रशंसा में मीठी-मीठी बातें ही कहता, किंतु उसका मन हमेशा रोता रहता। उसका स्वाभिमान उसे कोसता रहता। फिर भी, उसकी बहादुरी देखिए, प्रतिदिन गाली-गलौज की धूल झाड़कर, भीतर से टूटा हुआ मुरलीधर किसी रण-क्षेत्र के सफल योद्धा अथवा अखाड़े का मँजा हुआ पहलवान की तरह अपनी गृहस्थी चलाये जा रहा था, चल रहा था।
मुरलीधर के घर के पास ही एक रामधन रहते हैं। किसी सरकारी दफ्तर में कर्मचारी हैं। छोटा-सा परिवार है खुशहाल है। मुरलीधर के साथ इनकी खूब पटती है। दोनों परिवारों में भी अच्छे रिश्ते हैं। दोनों की पत्नियाँ प्रतिदिन एक-दूसरे से मिलती। दोनों में दिल की बातें होतीं।
हर रोज की तरह, एक दिन सिर पर गाली की पोटली लिए जब मुरलीधर लौटा, तो उसकी पत्नी ने बताया कि कुछ दिन पहले रामधन जी ने नौकरी छोड़ दी है। वे दफ्तर के साहब की डाट-फटकार और गाली-गलौज सहन नहीं कर सके। उनका स्वाभिमान यह बर्दाश्त नहीं कर सका। फिर भी परिवार बड़ा प्रसन्न है। सब खुशहाल है। पति-पत्नी ने एक नया धंधा शुरू कर दिया है। पत्नी घर पर कुछ सामान बनाती हैं–अचार, पापड़, आदि, जिसे रामधन जी बाजार में बाहर बेच आते हैं। घर अच्छी तरह चल रहा है। सब बड़े आनंद से हैं।
मुरलीधर ने अपनी पत्नी से पूछा–अच्छा, यह बताओ कि रामधन ने नौकरी छोड़कर अच्छा किया या बुरा? पत्नी बोली–बहुत अच्छा किया। स्वाभिमान बेचकर रोटी खाना कायरों का काम है। गाली खाते रहने से तो मर जाना कहीं अच्छा है।
मुरलीधर ने फिर प्रश्न किया–उसकी पत्नी क्या कहती है?
पत्नी–वह क्या कहेगी! वह तो रामधन जी से भी ज्यादा खुश है। गर्व से कहती है, मेरा स्वामी स्वाभिमानी है।
सुनकर मुरलीधर को थोड़ा ढाढ़स बँधा। उसने हल्के-से पूछा–अगर मेरे साथ यह स्थिति हुई, तो हमारी गृहस्थी चलेगी? इस पर पत्नी का उत्तर था–खूब चलेगी। कोई भी महिला एक कायर की पत्नी कहलाने के बजाय, मर जाना अच्छा समझती है।
रात ढल चुकी थी। मुरलीधर ने आज निश्चिंतता की एक गहरी साँस ली और सो गया।
दूसरे दिन, हर रोज की तरह, मुरलीधर अपने काम पर चला गया। प्रतिष्ठान में भीड़ भरी थी। सेठ जी ने मुरलीधर को बुलाया। कुछ काम सौपा। फिर अचानक उन्हें एक दिन पहले की कोई बात याद आई। उन्होंने मुरलीधर से पूछा–मैंने कल तुमको गिरधारी सेठ के पास भेजा था, कुछ पूछने के लिए! पूछ आए?
मुरलीधर–कल नहीं जा सका, आज जाऊँगा। इतना सुनना था कि सेठ जी आग बबूला हो गए। और गाली बकते हुए कहा–…मरा रहे थे। क्यों नहीं गए। और फिर गालियों की बेतहाशा बौछार चलने लगी। अब मुरलीधर का स्वाभिमान जाग उठा। उसने तेवर दिखाते हुए कहा–गाली मत बकिए। सेठ और भी गाली बकते हुए बोला–इस तरह आँख दिखाकर मुझसे बात मत करो। फिर, कई पुश्तों के साथ गालीनुमा रिश्ता जोड़ते हुए, गरज उठा–हम से ही तुम्हारा, सारा परिवार चल रहा है। मैं सबों का बोटी-बोटी खा जाऊँगा। सबको सड़क पर नंगे नचवा दूँगा।
मुरलीधर कुछ देर चुप रहा। किंतु सेठ जी सबों के सामने गाली बकते ही जा रहे थे। अब मुरलीधर के धैर्य का बाँध टूट गया। उसने न आव देखा, न ताव! अपना जूता निकाला और सेठ जी पर ताबड़-तोड़ प्रहार करने लगा। सेठ जी घबरा कर कुर्सी से नीचे गिर गए। मुरलीधर यह कहते हुए वहाँ से निकल गया–अब फिर कभी दरवाजे पर नहीं आऊँगा।…
मुरलीधर घर लौटा। पत्नी को सारी बात बता दी। फिर, पहले से ही प्रतिदिन जो घटना घटती थी, उसका उल्लेख करते हुए कहा–जानती हो रानी, आज मेरी जेब में एक पैसा भी नहीं है…।
पत्नी ने मुस्कुराते हुए कहा–मैं तो हूँ…।
और फिर, दोनों हँसते हुए एक-दूसरे के साथ आलिंगन-बद्ध हो गए।
Image : The soup of the poor
Image Source : WikiArt
Artist : Albrecht Anker
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