हेकड़ी

हेकड़ी

मोबाइल पर दीदी के अधीर और व्याकुल स्वर सुनकर मुझे उसके पास जाना जरूरी हो गया। निपट अकेली और असहाय सी हो गई दीदी मुझे देखते ही फफककर रो पड़ी। मैं समझ सकता था उसका दुख। एक विधवा औरत का अभी-अभी जवान हुआ इकलौता बेटा भी उसकी त्याग-तपस्या और चरित्र में खोट निकालने पर उतर आए तो अवसाद की विकट प्रतीति अस्वाभाविक नहीं है। ब्रजेश मुझे औपचारिक प्रणाम का ढोंग करके कट लिया धीरे से। जाति और वर्ग-संघर्ष के लिए कुख्यात अपने सूबे के ग्रामीण युवकों का भविष्य मैंने उसके चेहरे पर साफ पढ़ लिया।

माहौल में व्याप्त तनाव की टोह लेने के खयाल से मैं दालान चला गया। हवा में तिक्तता घुली हुई थी…भय की परछाइयाँ चोंचमार कौए की तरह इधर-उधर उड़ रही थी। मैं गैर सूबे के एक बड़े नगर भिलाई स्टील प्लांट से जब भी छुट्टी लेकर अपने सूबे में आया, मुझे महसूस हुआ कि गाँव पहले से ज्यादा उजाड़, डरावना और अपरिचित हो गया है। दालान पर मेरे आने की भनक पाकर गाँव के बड़े-बड़ुवे माने जाने वाले कुछ आत्ममुग्ध लोग जुट आए।

प्रणाम-पाति व कुशल-क्षेम के बाद दीदी के पट्टीदार के देवर लगनेवाले सौदा सिंह ने कहा, ‘बड़ा निमन हुआ कि आप आ गए लोकनाथ बाबू! ममलवा को आप काबू में कर लीजिएगा तो ई गाम बर्बाद होने से बच जागा।’

पड़ोसी जनक राय ने हामी भरते हुए कहा, ‘हम सजातीय हैं, कुटुम हैं, आपसे झूठ नैं बोलेंगे। सच मानिए–ससुर चिरइया हमरे बुतरुअन को जान-बूझकर फँसा दिहिस है। आपकी जो बहिन हैं, इस मुसहर पर अँखिया मून के विश्वास करती है, बाकिर हम सबन के तनिको नैं सुनती है। चिरइया के साथ कोतवलिया गई और दरोगवा को माल-पानी देकर पटा लिहिन। दरोगवा भी साला हरिजन है, बिना जाँचे-परखे पाँचों लइकन को ले जाके हजतवा में ठूँस दिहिस।’

अब मैंने हमलावर लहजे में पूछ लिया, ‘तो क्या यह सही नहीं है कि आप सबके घरों से काफी मात्रा में बम-बारूद और पिस्तौलें बरामद हुई हैं? आपके ये लड़के ही खलिहान-लूट में शामिल थे?’

‘देखिए लोकनाथ बाबू, समइया को देखते हुए अपन इज्जतवा बचावे के खातिर थोड़का समनमा तो रखहे पड़ता है…ई कौनो गुनाह नैं है। आजकल राड़न-सोलकन्हन के कितना मन बढ़ गया है, ई तो आप पढ़ते ही होंगे अखबरवा में और देखवे करते होंगे टीबिया पर। रजधानी में हरेक जाति वालन बारी-बारी से महासम्मेलन करवा रहा है। भूरा बाल (भू से भूमिहार, रा से राजपूत, बा से ब्राह्मण, ल से लाला) साफ करो का नारा तो आप जरूरे सुने होंगे। लइकन सब लूट में शामिल रहता तो खुदई आपकी बहिन का बेटा बरजेसवा ऊ सबन का बचाव नैं करता।’ जनक राय ने एक थेथर सियासी पार्टी-प्रवक्ता की तरह विस्तार से अपना पक्ष प्रस्तुत किया।

इनके आक्रामक और सिर्फ गरजने-चमकने वाले बादलों जैसा रंग-ढंग देखकर मुझे कोई ताज्जुब नहीं हुआ। जानता था कि ये लोग अपने चश्मे से पूरी दुनिया को बौने देखने के आदी हैं। खूबसूरत वहम गढ़ लेते हैं और उसे सार्वभौम सत्य मानने लगते हैं।

‘तो आपलोग को इस कांड में किनके हाथ नजर आते हैं।’ मैंने उनकी नब्ज पकड़ने की कोशिश की। ‘पक्का मानिए कि चिरइया का ही किया-धरा है ई सब। अपने गोतिया-नइया से ऊ करवाइस है कांड।’ सौदा सिंह ने शतरंज के घोड़े की तरह एक ही चाल में अढ़ाई घर की दौड़ लगा दी।

‘तो अब आपलोग का क्या इरादा है?’ मैंने उनके माथे में एक झनझनाहट सी भर दी।

‘हमरे लइकवन अगर बरी नहीं हुए तो एगो बड़का खून-खराबा होगा ई गाम में लोक बाबू। चिरइया और उसके अदमियन को हमलोगन भी नहीं बखसेंगे।’ जनक राय ने गुस्से में तमतमाते हुए माथे से पसीना पोछकर कहा। ‘मतलब आपलोग ने ठान लिया है कि इस गाँव को भी बेलछी या लक्ष्मणपुर बाथे बनाकर ही दम लेंगे?’

‘अउर का उपाय है बाबू साहब? आपैहि बताइए कि ई सबन ढेरुअन-मँगरुअन और लूलहन-गूँगन के ई मजाल कि एक तो हमनी के खेतन में काम करे से मनाही कर दें…ऊपर से हमें ललकारें…अँखिया दिखावें…हमनी से लड़े-भिड़े के वास्ते असला अउर औजार जमा करें। मतलब इनके सामने हम सटक सीताराम होकर रह जाएँ…धिक्कार है ऐसन जिनगी पर।’ सौदा सिंह की आँखें उत्तेजना से लाल हो उठीं और लगा कि वह तेज बुखार से तपने लगा है।

‘अगर आपकी बहिनिया संझौती देवी ई मरदूद चिरइया को अपने जाल-माल की देखरेख करे वाली चाकरी से हटा दें तो आज भी हमनी में एतना दम है लोकनाथ बाबू कि रोज हम थूकके ई सबन से चटवावें। बहिन को समझाइए कि ऊ अपनई गोड़ पर कुल्हाड़िया चलाना बंद करें। उनकर बेटा बरजेस तक उनको चेता-समझा रहा है। तबो उन पर कौनो असर नहीं हो रहा है…आप कहेंगे तो शायत आपकी बतिया मान लेगी।’ जनक राय का चेहरा वीर और शांत रस का विचित्र घालमेल वाला चित्र दिखा रहा था। मैं मन ही मन इन्हें कोसते हुए वहाँ से चल पड़ा। अब इन नादान जनक रायों को, जो अपने पुरखों की खोखली हेकड़ी को खुद से चिपकाये हैं, मैं क्या समझाता कि यह मेरा ही कहा है जिसे दीदी नहीं टाल रही है। हालाँकि दीदी को विचलित करने और बरगलाने के इनके टुच्चे अभियान निरंतर जारी रहे आए हैं।

लंबी बीमारी से लड़ते-हारते हुए जीजा जी अंततः जब चल बसे तो इन गोतिया-दियाद के सौदा सिंहों ने मंसूबा बनाया कि संझौती देवी को अपने काबू में करके जैसे चाहेंगे हाकेंगे और लूटेंगे-खसोटेंगे।

इसी सौदा सिंह ने बुरी नीयत से एक दिन दीदी का हाथ पकड़ लिया था, ‘भैया मर गए पर तुम्हरी जवानी की गदराई लत्तर का सहारा देने के लिए हम हाजिर हैं भौजी।’

दीदी ने उसके मुँह पर खींचकर एक चाँटा रसीद कर दिया था। अपमान से धुधुआकर सौदा सिंह जबर्दस्ती करने पर उतारू हो गया था। दीदी चीख पड़ी थी। बंगले से लगे गोहाल में ही था चिरई माँझी। वह भागकर आ गया और सौदा सिंह को गर्दन से पकड़कर देहरी से बाहर ठेल दिया। दाँत पीसकर निडरता से चेता दिया, ‘आज तो तुमको छोड़ दिया सौदा सिंह। दोबारा अगर मलकिनिया को ताका तो क़सम परसा बाबा की, तुम्हरा खून पी जाएँगे। इनको बेबस और अकेली मत समझना।’

चिरई की लंबी-चौड़ी, हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ देह-दशा से सभी धौंस खाते थे। सौदा सिंह भी दुम दबाकर भाग लिया था।

जीजा जी अपने समय से ही एक गाय चिरई के लिए मुकर्रर किए रहते थे। उनका मानना था कि समय जिस तरह करवट ले रहा है उसमें जन-मजूरों से काम दबाव डालकर या भय दिखाकर नहीं लिया जा सकता, बल्कि बराबरी, भाईचारे और वाजिब पारिश्रमिक के सहारे ही इन्हें खुश रखा जा सकता है। अब यह नहीं चलेगा कि आप इन्हें भूखे व मोहताज रखकर अनाज से अपना घर भरते रहें।

उनकी यह तरकीब एकदम कामयाब रही। जब सारा काम इन्हीं से निकालना है…जब अपनी गुजर-बसर और भरण-पोषण भी इन्हीं की मेहनत पर टिकी है तो इन्हें बेहतर पारिश्रमिक देने में उज्र ही क्यों होना चाहिए।

दीदी से उन्होंने बीमार होने के बाद कहा था, ‘चिरई माँझी को ही तुम अपने जीवन-यापन का एकमात्र सहारा बनाकर रखना। इसमें धरती की बाँझ कोख से भी अनाज काढ़ लेने की तासीर है। मजूर नहीं रहेगा तो खेत रहकर भी क्या होगा? इसे इसका हिस्सा देना, दिहाड़ी नहीं। सौ मन गल्ला होता है तो आठवाँ-दसवाँ हिस्सा भी इन्हें दे देने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। देखना, फिर यह सबसे बढ़कर तुम्हारा सगा और विश्वासपात्र बनकर रहेगा।’

दीदी इस नुस्खे पर हमेशा कायम रही। गोतिया-दियाद और टोलेवाले लाख कुढ़ते-चिढ़ते और विरोध करते रहे। खाना-पीना, सोना-बैठना आदि सभी हक बराबरी में उसे मिलना जारी रहा। गाँव के प्रायः जन-मजूरों ने अपना रुख शहर की तरफ मोड़ लिया। आधी रोटी-आधी लंगोटी पर कोई टिक भी कब तक सकता था। सिर्फ एक चिरई माँझी ही था जो जरा-सा टस से मस नहीं हुआ।

सबका आरोप था कि संझौती देवी के कारण ही यहाँ के जन-मजूरों का मिजाज आसमान चढ़ बैठा है और ये लोग अपने को मालिक का पहुना समझने लगे हैं।

चोट खाये और ठिसुआये सौदा सिंह ने तो कई जगहों पर यह तोहमत सरेआम उछाल दी कि संझौती देवी ने चिरइया को ‘रखैल’ बनाकर रखा हुआ है। उसका जो एक बेटा है वह भी उसी का जना है। मरद तो बीमार ही रहा सब दिन। वह कहाँ सक्षम था।

ब्रजेश उस समय चार-पाँच साल का ही रहा होगा। दीदी के लिए धीरे-धीरे पूरे मोहल्ले की आँखों में संशय और गलत धारणा के बीज बो दिए गए थे। लोगों की खुसुर-फुसुर और तंज-छींटे उसके कानों में उतरते थे और गर्म सलाखों की चुभन देने लगते थे। दीदी ने उन दिनों भी मुझे बुलाया था। उसकी मासूम आँखों में जो गंगाजल जैसी पवित्रता डबडबा आई थी उसे किसी सफाई की जरूरत नहीं थी। उसके बोले बिना भी मैंने उसका आंतरिक हाहाकार सुन लिया था। चिरई माँझी की हालत दीदी से भी कहीं गमगीन थी। मैंने पहली बार देखा कि एक चट्टानी व्यक्तित्व के भीतर भावना और करुणा का अतल सागर छिपा हुआ है।

वह मेरे सामने लगभग सिसक पड़ा था, ‘बाउ साहब! अब हम ई घर में रहके मलकिनिया को बेसी जलील-बदनाम नैं करेले चाहते हैं। बरदास नैं हो रहा हमसे इनकर दुख। हमरे हियाँ रहे से जो मनमानी नैं कर पा रहा, ओकर छाती पर करैत फन मारके बैठा है।’

मैंने चिरई के दोनों सख्त, मेहनतकश और निष्पाप हाथों को अपनी छाती में भर लिया। बहुत अच्छा लगा मुझे वह गर्माहट भरा स्पर्श। मैं आज भी उस स्पर्श में समाहित सरलता और भोलेपन को महसूस कर रहा था।

मैंने अपनी आँखों के कटोरों में लबालब श्रद्धा भरकर उसे निहारा था, ‘चिरई भाई, इस तरह इल्जाम लगाने के पीछे यही तो मकसद है कि तुम इस घर से अलग हो जाओ। तुम्हारा इस घर से अलग होना क्या दीदी को बहुत अकेला, निहत्था और खेती-गृहस्थी से लाचारहाल नहीं बना देगा? कभी-कभी मुकाबले के लिए चुप रह जाना और कोई जवाब न देना कारगर अस्त्र होता है। जीजा जी ने तुम्हारे बारे में दीदी को जो सबक दी थी, उसे तो तुम भी जानते हो चिरई भाई। फिर ऐरे-गैरे क्या कहते हैं, उसकी परवाह क्यों?’

चिरई की मौन सहमति के बाद मैं दीदी की ओर मुखातिब हुआ था, ‘दीदी, तुम जिस धातु की बनी हो उसका स्वभाव रिसना और दरकना नहीं है। मैं जानता हूँ–कोई भी कीचड़ तुम्हारे आँचल को दागदार नहीं बना सकता। तुम्हें इस चुनौती से जूझना है कि चिरई इस घर में बंधुआ मजदूर की तरह नहीं बल्कि एक अंशधारक (शेयर होल्डर) की तरह–जैसे काम कर रहा था, वैसे ही करते रहे। तुम्हें अपने ब्रजेश को बड़ा करना है दीदी। वह बड़ा हो जाए फिर खुद ही वह सबसे निपट लेगा। तुम्हें जवाब देने की…अधीर होने की जरूरत नहीं पड़ेगी।’

×××

आज पंद्रह साल बाद फिर दीदी की दृढ़ता में दरार झाँकने लगी थी। गाँववालों को तो सहना सीख लिया था उसने, लेकिन अपने बेटे का विरोध वह कैसे झेले? धान से ठसाठस अँटे पड़े खलिहान को लुटेरों ने लूट लिया। लुटेरों के नाम बताकर चिरई ने उनकी गिरफ्तारी करवा दी तो यह इसलिए एक बड़ा और असहनीय गुनाह हो गया कि लुटेरे उसके सहपाठी-दोस्त और उसी की जाति के थे? उसके दोस्त और उसकी जाति के थे, इसलिए वे उसके लुटेरे नहीं हो सकते और चिरई एक दुर्बल जाति का था इसलिए इसका कहा सच नहीं हो सकता…ऐसा ही अभिप्राय था ब्रजेश का!

शायद उसमें यह गाँठ कहीं पड़ी हुई थी कि लोग उसकी माँ को चिरई के साथ गलत संबंध का वास्ता दे देते थे। उसके भीतर इस बात की ग्लानि का एक घोंसला बन गया था कि लोग दबे स्वर में उसे चिरई का बेटा बता देते थे। बचपन के झगड़ों में तो कुछ उदंड लड़के उसे पस्त करने के लिए अक्सर ब्रह्मास्त्र की तरह इस उलाहना का सहारा ले लेते।

ब्रजेश ने दीदी से साफ-साफ कह दिया, ‘हम एक मुसहर और घर के नौकर के कहने पर अपनी बिरादरीवालों को फँसाकर अच्छा नहीं कर रहे हैं। तुम चिरई माँझी को झेल सकती हो…हम अब इसे नहीं झेल सकते। इसे अब खेती के काम से भगाना ही होगा।’

चिरई के पास जो एकमात्र जमापूँजी थी–ईमानदारी और निष्ठा की, ब्रजेश अपने वक्तव्य और आचरण से सीधा उसी पर प्रहार कर रहा था।

चिरई ने उन पाँचों नकाबपोशों को साफ-साफ पहचान लिया था, जिन्होंने खलिहान में उसके हाथ-पैर बाँध डाले थे और मुँह में कपड़ा ठूँस दिया था। पाँच के अलावा दर्जनों लोग थे जो बोरों में भर-भरकर धान ढोते रहे थे सारी रात। गाँव में कायदे की मुकम्मल खेती चिरई की वजह से सिर्फ दीदी की ही हो रही थी। संपन्नता की दृष्टि से गाँव में उसका तीसरा-चौथा स्थान था। इस वर्ष करीब-करीब तीन सौ मन धान होने का अनुमान था। जिनमें लगभग सौ मन लूट लिए गए। दो दिन से डेंगौनी चल रही थी। मुसहरी के दर्जनों औरत-मर्द को चिरई न भिड़ा लिया था।

गाँव में खलिहान लूट का यह पहला मामला था। आशंका होती तो वह शाम को बिन ओसाये धान ढुलवा लेता या फिर मुसहरी के कुछ लोगों को पहरेदारी के लिए बुला लेता। मजाल नहीं कि उसका कहा कोई टाल दे, चूँकि आड़े वक्त में वह दीदी से सबकी मदद करवा दिया करता था।

माघ के जाड़े की रात थी। निस्तब्धता कुछ ज्यादा घनी थी। लुटेरों की बन आई। धान की जबर्दस्त पैदावार देख वे जले-भुने तो थे ही। श्रेय चूँकि चिरई को जाना था, इसलिए उनका उबाल और भी भभक उठा था।

चिरई क्या करे? जब उसकी इंद्रियों से उन लुटेरों की पहचान हो गई तो नाम न खोलना क्या गद्दारी नहीं होती? यों वह भरसक प्रयत्न करता था कि अवांछित लफड़ों से बचकर रहे। वह अपनी हैसियत को देखते हुए लकड़ी की बनी दो ठेपी हमेशा अपनी जेब में रखे रहता था। जहाँ उसे कोई गाली-गलौज सुनने को मिलती, वह ठेपी कान में डाल लेता। उसका कहना था कि इस कान को अगर हम कंट्रोल कर लें तो कई बेमतलब झंझट से हम बच सकते हैं। मजाक में एक बार उसने मुझसे पूछा था, ‘क्या ऐसा नहीं हो सकता बाउ साहब कि नाक-कान, आँख-मुँह के लिए एक-एक बोटाम (बटन) बना होता कहीं देह में, जिसे मन चाहे कभी भी दबाकर बंद किया जा सकता!’

मुझे फौरन चिरई माँझी से मिलने की तलब महसूस होने लगी। वह इधर तीन-चार दिनों से दिखाई नहीं पड़ रहा था। एक दर्जन जानवरों को दीदी ही जैसे-तैसे सानी-पानी दे रही थी। मैं उसके घर उससे मिलने चला गया।

मुझे देखते ही उसकी आँखें भर आईं। वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। आज से पंद्रह साल पहले की मुलाकात मुझे याद हो आई।

उसकी आवाज आँसू की लकीरों की तरह बह उठी, ‘आइए बाउ साहेब! अब तो आप नैं कहिएगा ने कि हमको ऊ घर में लौट चलना चाहिए।’

मैंने आज पुनः चिरई के गठे-पके और अनुभव से मंजे हाथों को अपनी छाती से लगा लिया। सच, उसके स्पर्श में सरलता, सच्चाई, भोलेपन और कर्मठता की सोंधी खुशबू आज भी मौजूद थी।

‘चिरई भाई, बेशक मैं आज भी दोहराऊँगा कि तुम्हारा उस घर से जुड़े रहना पहले से भी ज्यादा जरूरी हो गया है।’ अपने लहजे में मैंने सगेपन की अधिकतम चाशनी मिला ली।

‘तो का सौदा सिंह, जनक राय और बरजेस के जोर-जबरदस्ती करे पर हम अपना ई बयान वापस ले लें लोक बाबू कि हम जे कुछ बयान दिए सब झूठ था? इसके पाछे कारण सिरिफ जाति-पाति वाला दुराव बता दें?’

‘नहीं चिरई, तुम्हें अपने बयान पर डटे रहना है, इसलिए तो दीदी के घर लौटना है। इस मुकदमे को लड़ने और जीतने की जरूरत तुमसे कहीं ज्यादा दीदी को है, भाई।’

‘बरजेस के रहते? आपको याद है…आपने कहा था मालकिन भौजी से कि बरजेसवा को तुम्हें बड़ा करना है दीदी। वह बड़ा हो जाए फिर खुदहि सबसे निपट लेगा। तुम्हें तब जवाब देवे के जरूरत नैं पड़ेगा। बरजेस अब बड़ा हो गया है बाउ साहेब। परमीन लोगन से निपटे के बजाय ऊ हमसे और अपनी माई से निपटना शुरू कर दहिस है।’

‘ब्रजेशवा बड़ा नहीं हुआ है चिरई भाई। जिस तरह की तालीम और परिवेश उसे मिल रहा है उसमें बच्चे बड़े नहीं बौने और नालायक हो रहे हैं। शाम को घर आना, एक साथ चाय पियेंगे। मैं चलता हूँ।’ मैंने उसके दोनों कपोलों को थपथपा दिया। उसके कायल होने की सकारात्मक मुद्रा ने मुझे विभोर कर दिया।

घर आकर मैंने ब्रजेश से खुलकर बातचीत करनी चाही। लेकिन मेरे घर आते ही वह अपने एक खास कमरे में ताला जड़कर निकल पड़ा। दीदी की छाती पर वह एक पहाड़ जैसा बोझ बन गया था। वह सिर्फ चिरई को ही नहीं दीदी को भी उल्टी-सीधी और जली-कटी सुना डालने में बेलिहाज हो गया था। चिरई का पक्ष लेने पर तो वह बेजब्त होकर यहाँ तक कह गया था कि ‘मुझे शर्म आती है कि मेरा जन्म तुम्हारी कोख से हुआ। धिक्कार है मेरे इस जीवन पर।’

मैंने दीदी से बहुत पहले कहा था कि तुम इसे पढ़ने के लिए मेरे साथ भिलाई भेज दो। वहीं किसी अच्छे कॉलेज में इसका नामांकन करा दूँगा। लेकिन इकलौते को अपनी आँख के सामने रखने-देखने का मोह वह छोड़ नहीं पाई।

मुझे इसका इल्म था कि यहाँ के जागरूक अभिभावक पढ़ने के लिए अपने बच्चों का इस सूबे से पलायन करवा रहे हैं। ‘अपने सूबे से इतनी नफरत क्यों?’ पूछने पर एक साथी ने तारीखवार हवाला देकर बताया था कि दो साल के इंटर सत्र में मात्र तीन माह कक्षा लगी है और यह सत्र पाँच साल में पूरा हुआ है। तीन माह आरक्षण-विरोधियों के और तीन माह आरक्षण-समर्थकों के हंगामे के कारण कॉलेज बंद रहे। दो माह शिक्षकों की हड़ताल चली। किसी गुंडे छात्र को किसी गुंडे ने गोली मार दी, कॉलेज हफ्तों के लिए बंद। इस तरह की घटनाओं पर कोई ब्रेक नहीं है। परीक्षा जब चलने लगती है तो उसे कई बार बायकाट के शिकार होने होते हैं और तिथियाँ बढ़ती चली जाती हैं। एक परीक्षा के खत्म होने में कई महीने लग जाते हैं। फिर रिजल्ट आने में दस-बारह महीने गुजर जाते हैं।

जहाँ शैक्षणिक वातावरण में इतनी अराजकता और हिंसा व्याप्त होगी वहाँ के छात्र ब्रजेश की तरह अशिष्ट, क्षुद्र तथा अपने दोस्तों की तरह लुटेरे-मवाली नहीं होंगे तो क्या होंगे? मैं ब्रजेश को अब भी एक अच्छी तालीम की ओर मोड़ना चाहता था जिससे उसे एक माँ की गौरव-गरिमा और त्याग के मूल्यांकन करने की दृष्टि मिल सके…जिससे अच्छे-बुरे और अपने-पराये में फर्क करने की वह तमीज सीख सके।

उसका बंद कमरा मेरी आँखों में खटकने लगा था। घर में ऐसा कौन गैर है जिससे बचने के लिए वह अपने कमरे में ताला जकड़ डालता है। दीदी ने बताया कि पिछले कुछ अर्से से वह ऐसा कर रहा है। उसे तक कमरे में आने से मना कर देता है। जब घर में रहता है तो अक्सर कमरे में कुछ लंपट किस्म के लड़के आकर हाहा-हीही शुरू कर देते हैं।

मैंने तय किया कि उसके मनोविज्ञान को ठीक-ठीक समझने के लिए कमरा खोलकर देखना एक अच्छा माध्यम हो सकता है।

ताला तोड़ डाला गया। कमरे में घुसते ही अल्कोहल और धूम्रपान की तीखी गंध ठहरी हुई मिली। सिगरेट के टोटे बिछे पड़े थे। कोने में काठ की एक आलमारी और तीन संदूक रखे हुए थे। कोर्स की किताबें धूल से अँटी पड़ी यत्र-तत्र बिखरी हुई थीं। दीवारों पर हथियारों से लैस बंबइया फिल्मों की खूँखार मुद्रावाली खलनायकों की तस्वीरें लगी हुई थीं। पलंग के नीचे कुछ देशी-विदेशी शराब की बोतलें लुढ़की हुई थीं।

आलमारी के ताले भी हमने तोड़ डाले। हैरानी से आँखें फटी रह गईं–तीन देशी पिस्तौलें रखी थीं। उनकी गोलियाँ और गेंद जैसी गोल चार-पाँच गोले रखे हुए थे, जो निश्चय ही बम रहे होंगे। आलमारी के दूसरे खाने में चरस-अफीम की कई पुड़िये रखी हुई थीं। बर्बादी की ये सारी सामग्रियाँ सूबे की तालीम की कलई खोल रही थीं।

हम दोनों भौचक एक दूसरे के चेहरे पढ़ने लगे थे। समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा कौन दुश्मन था जिसके ध्वंस के लिए ये जखीरे जमा किए गए हैं…क्या चिरई माँझी तथा उसकी हरिजन-बस्ती के लिए या अपनी जन्म-दात्री माँ के लिए या फिर कहीं लूट-खसोट की वारदात को अंजाम देने के लिए?


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Artist : Hippolyte Petitjean
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जयनंदन द्वारा भी