अव्यक्त
- 1 June, 2024
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- 1 June, 2024
अव्यक्त
(असमिया कहानी)
इस बार वह घर छोड़कर चली गई थी। दिन भर कहाँ रही होगी, यह सोच-सोचकर निखिल बरुवा गर्म तेल में तलने के लिए डाली गई जीवित कवई मछली की तरह पूरी रात छटपटाते रहे। उसके तईं भी इस माया को छोड़ पाना इतना सहज नहीं था। वह भी अच्छी तरह जानती थी कि निखिल बरुवा किस समय क्या करते हैं। छोटे-से बागीचे में फलों के वृक्षों और फूलों की झाड़ों की जड़ों को साफ करते रहते हैं। कमरे के भीतर रेडियो पर बज रहे नए-पुराने गीतों की ताल पर उनके हाथ भी ताल मिलाते चलते हैं। फलदार वृक्षों की शाखाओं पर किसिम-किसिम के पक्षी आकर बैठते हैं। निखिल बरुवा हरदम उनके स्वर सुनने को उत्सुक रहते हैं। वे जहाँ-तहाँ जैसे उसी को देखते रहते हैं। अब उसे याद न करने के लिए अपने विमर्श मन को समझा-बुझाकर उसे दृढ़ करने की कोशिश कर ही रहे थे कि…छातीम के वृक्ष से उसने आवाज दी। उसी की आवाज है, या उनका वहम है? हाँ…उसी की आवाज तो है। चकोतरा फल को फुटबाल की तरह मारकर अपनी धुन में अकेले ही आगे बढ़ते हुए किसी चंचल लड़के की तरह वे कब छातीम वृक्ष के नजदीक पहुँच गए, उन्हें पता ही नहीं चल पाया। उसे पुन: खो देने के भय और धड़कते हृदय की अनंत आकांक्षा मिश्रित वाणी में उसे पुकारते हुए उन्होंने अपने हाथ धीरे से आगे बढ़ा दिए–‘कहाँ गई थीं, मुझे अकेला छोड़कर, आँ? मेरे दुलार में तुमने कहाँ त्रुटि देखी? आ, आ जा। तेरे प्रिय खाद्य इकट्ठा कर रखे हैं।’
अपनी स्वभावजन्य आवाज निकालते हुए वह निखिल बरुवा के हाथ पर आ बैठी। खाली पड़े घर की रौनक जैसे पुन: लौट आई। निखिल बरुवा उसे अपलक देखते रहे। अब से वे उस पर खुद नजर रखेंगे। नजर…? तत्काल बरुवा को अपनी पत्नी शिखा की याद हो आई।
(2)
शिखा को अपनी भावना-कल्पना में जगत में रहना पसंद था। स्वाधीन चाल-चलन, निखिल बरुवा के शब्दों में ‘लापरवाही से जीवन बिताना पसंद करने वाली’ शिखा को क्या उन्होंने कम प्यार दिया था? प्यार किया था मतलब? उसके अस्थिर स्वभाव की तीव्र घृणा करने पर भी बीच-बीच में उसके प्रति स्नेह की बाढ़ आकर उनके हृदय को अस्थिर कर देती है। शिखा ने बरुवा से क्या चाहा था, कौन जाने, लेकिन निखिल बरुवा ने ही अपने बंधन से शिखा को निकलने देना नहीं चाहा था। निखिल बरुवा यह जानते थे कि यदि वे शिखा के विचारों को शह देते रहे तो एक दिन शिखा के चले जाने की संभावना ही अधिक है। फिर भी वे शिखा को अपने प्रेम के बंधन में बाँधकर अपने पास रखना चाहते थे।
निखिल बरुवा का यह दृष्टिकोण शिखा से छिपा न रह सका था। उसने निखिल बरुवा पर आरोप लगाते हुए कहा था–‘नारी का मन न समझने वाला पुरुष।’ निखिल और शिखा के विचारों और सोच में जमीन आसमान का अंतर था। एक दिन शिखा ने ही उनके ‘अवश्यंभावी विच्छेद’ की खुलेआम यह घोषणा कर दी। शिखा की सोच के बरक्स निखिल का स्नेह तुच्छ हो जाता है। निखिल के नजदीक रहने पर उस पर शिखा के होने वाले अकारण गुस्से और असंतुष्ट आचरण के बावजूद निखिल उसी से संतुष्ट थे। समाज कहकर भी तो कुछ होता है…।
(3)
निखिल और शिखा की बेटी डेजी उसे तब लाई थी, जब उसकी उम्र कुछ टूँग पाने लायक भी नहीं हुई थी। डेजी ने प्यार से उसका नाम डायना रखा था। डेजी के हॉस्टल में पशु-पक्षियों का रखना मना था, नहीं तो वह उसे अपने साथ ही रखती। घर में डेजी की अनुपस्थिति धीरे-धीरे डायना ही पूरी करने लगी। भूख लगने पर अपनी स्वाभाविक आवाज में चिल्ला-चिल्लाकर निखिल बरुवा को याद दिलाती थी। जब निखिल बरुवा कपड़े पहनकर घर से बाहर जाने को होते तो वह भी उनके संग जाने की जिद करती। यदि किसी दिन बरुवा सुबह उठने में देर करते तो वह उनके ललाट पर एक मृदु चुंबन देकर उन्हें जगा देती। यदि किसी दिन उसके सामने उसकी पसंद का फल नहीं मिलता तो वह उड़कर फ्रिज़ के पास चली जाती और यह बता देती कि उसे क्या खाना पसंद है।
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थककर चूर होकर आए निखिल बरुवा के सामने चाय का कप बढ़ाने वाली, उनके पसंदीदा विविध व्यंजन बनाकर खाने की मेज पर सजाकर रखने वाली, उनकी शर्ट-पैंट इस्त्री कर तैयार रखनेवाली शिखा के मन के किस कोने में असंतुष्टि विराजमान थी, बरुवा समझ नहीं पाते। घर के बाहर उनके सामने आई बाधाओं, समस्याओं को शिखा के सामने कहकर अपने भरे हुए मन को हल्का करने की प्रवृत्ति बरुवा का अभ्यास बन गई थी। निखिल बरुवा को शिखा का संपूर्ण साहचर्य मिला था। बीच-बीच में शिखा का गुस्सैल और उग्र आचरण बरुवा को याद आता। शिखा का आचरण बारिश के मौसम जैसा ही था। गर्जन-तर्जन-वर्षण, पल भर के लिए बिजली की चमक। बरुवा को छोड़कर शिखा कहाँ जाएगी?
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निखिल बरुवा का साथ न छोड़ने वाली डायना कमरे के प्रत्येक असबाब से परिचित हो गई थी। दरवाजा और खिड़की खुली रहती थी, लेकिन डायना निखिल बरुवा का साथ नहीं छोड़ती। उसके रहने के लिए अलग से बनाए गए छोटे घर की अब जरूरत नहीं रही, निखिल बरुवा यह बात समझ गए हैं। शिखा भले ही न समझ पाई हो, डायना उनके स्नेह को बखूबी समझती है। बीच-बीच में निखिल बरुवा यह लक्ष्य करते हैं कि डायना के पास दो शालिक पक्षी आते हैं। उनके आते ही डायना एक तरफ हटकर अपने भोजन का हिस्सा उनके खाने के लिए छोड़ देती है। बीच-बीच में तुलसी के पौधे पर खेल रही मधुपान करने वाली चिड़ियाँ चहचहाती हैं। डायना दूर बैठी बनमुर्गियों और बगुलों को देखती रहती है। इसी बीच कालू कुत्ता आकर एक बार मुँह खोलता है, फिर उसे देखने के बाद दरवाजे के चौखट पर लेट जाता है। उसे देखते ही दोनों शालिक चिड़ियाँ भय के मारे फुर्र से उड़ जाती हैं। कभी-कभी गुटरगूँ, गुटरगूँ करते हुए वहाँ कुछ कबूतर भी आ जाते हैं। यदि डायना की थाल में चने और दाने बचे हों तो वे उन्हें खा लेते हैं, लेकिन थाली में फल-मूल देखते ही असंतुष्ट होकर चले जाते हैं। धीरे-धीरे उनके संग डायना की मैत्री हो गई है। वहाँ उनके आने की प्रतीक्षा करना उसे अच्छा लगता है। अगर कभी उनके आने में देर हो जाए तो वह खुली खिड़की पर बैठकर उन्हें पुकारती है और उनका उत्तर न मिलने पर उड़कर उनके पास पहुँच जाना चाहती है…। लेकिन…यह घर, यह आदमी उसके लिए अटूट बंधन बन गए हैं। कभी-कभी शालिक भी उसे अपने पास आने की पुकार लगाती हैं। एक दिन उनके उद्दात्त आह्वान को अनसुना न कर पाने के कारण वह उड़ गई थी। आँधी-पानी वाली सारी रात उसने एक वृक्ष की डाल पर बिताई। उस दिन उसे दुलार से रखनेवाले आदमी की याद आई। लेकिन…इतनी मुश्किल से अपने बंधन तोड़ आने के बाद वापस जाने की उसकी इच्छा नहीं हो रही थी। वह सोच रही थी कि उसकी असली जगह यही है। सब कुछ अनजाना-सा लगने पर भी उसका मन उन्मुक्त विचरण कर पाने के उल्लास से भर गया था। उसे दुलारने वाले आदमी की आवाज बीच-बीच में उसके कानों में गूँजती रही। पिछले दिन उसने सोचा था कि उसे थोड़ी देर से देख आऊँ। यही सोचकर वह फिर वहाँ गई थी। लेकिन निखिल बरुवा को देखते ही अनजाने में उसका जाना-पहचाना स्वर फूट पड़ा।
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लगभग छह माह के बाद शिखा आई थी। उन कई दिनों तक निखिल सबसे सुखी प्राणी लग रहे थे। लेकिन उसके ठीक विपरीत शिखा लगातार असंतुष्ट दिख रही थी। उसके प्रति उनकी सहानुभूति थी, उसके भले की कामना करते थे, लेकिन उसके चाल-चलन और सोचने का ढंग बिल्कुल सह नहीं पाते। किसी भी तरह सह नहीं पाते, और सबसे बड़ी बात यह कि उनके मुताबिक वे जो सोचें, जो करें, वही ठीक है। वे अपनी तरह रहेंगे, अपनी तरह करेंगे। उनके ऐसे मंतव्य पर शिखा अत्यधिक असंतुष्ट हो जाती थी।
(7)
हरे-भरे वृक्षों-लताओं पर फुदकने, अपनी पसंद के फल-फूल खाने का अलग ही मज़ा है। डायना ने उस दिन कुछ-कुछ महसूस किया था। अपनी जाति या दूसरी जाति के झुंड-के-झुंड उड़ते पक्षियों को देखकर निखिल बरुवा के घर में अपने मुक्त विचरण में भी उसे बंदिनी होने की बू आ रही थी। अपने मन से उड़कर मुक्त विचरण करने की एक अलग ही मादकता होती है। उस दिन अपनी जाति के रंग-बिरंगे तोतों के झुंड को आसमान में उड़ता देख उसके भीतर कहीं कोई मरोड़ उठी थी। एक तरफ उसे दुलार से रखने वाले आदमी का प्यार है, तो दूसरी तरह उसका स्वभावजात मुक्त मन है। ठीक है, उसे खूब दुलार मिलता है, फिर भी क्या इसके लिए वह अपना सारा जीवन मनुष्य के साथ कैसे बिताएगी? उसे भी एक साथी चाहिए। उसका भी शरीर कुछ चाहता है। फिर भी उस आदमी के प्यार को अनदेखा कर पाना भी उसके लिए बहुत कठिन हो पड़ा है। वहाँ से जाने के बाद से ही उसका मन कर रहा था कि चलकर एक बार देख तो आऊँ। लेकिन यहाँ वह देख रही है कि उस आदमी ने उसे जो नाम दिया था, उसी नाम से अनवरत उसे पुकार रहा है।
‘डा…य…ना…डायना…’
‘टें..टें…टें..आ..आ…आ…’
अब वह नहीं रह सकी। अपनी आवाज में पुकार उठी। उसका प्रिय आदमी भी आगे बढ़ आया। उसकी दोनों आँखों में स्नेह का आवेग भरा था। क्या करे, क्या न करे, सोचने का मौका नहीं मिल पाया उसे। वह उड़कर निखिल बरुवा के हाथ पर जा बैठी।
निखिल बरुवा ने अपने होंठ आगे कर दिए। फिर उसकी मुड़ी चोंच को अपने होंठों के बीच कुछ देर तक रखे रखा।
‘दे, दे, डायना, एक प्यारा चुंबन दे। मुझे छोड़कर कहाँ चली गई थीं?’
यह क्या? यह क्या? फिर वही बात। डायना को गुस्सा हो आया। यह आदमी उसके बारे में क्यों नहीं सोच रहा? क्यों नहीं सोचता कि उसका भी अपना एक दूसरा जीवन है। हाँ, वह उसे बहुत प्यार करता है, लेकिन…ऐसे रहने पर उसे क्या तकलीफ है, यह बात वह क्यों नहीं समझ पाता? कुछ देर तक उसकी चोंच निखिल बरुवा के होंठों के बीच रही। यदि वह कह पाती, तो कहती–‘तुम ठीक रहो।’ लेकिन मुँह खोलकर कुछ कह न सकी।
फुर्र…
स्वर्ग से च्युत मनुष्य की तरह निखिल बरुवा स्तंभित होकर उसे जाता हुआ देखते रहे। जब उनकी चेतना लौटी, उसे पुकारते हुए उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगे। थोड़ी देर बाद डायना उनकी आँखों से ओझल हो गई।
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इतने स्नेह के बंधन तोड़कर भी वह चली गई? यह दुनिया विश्वासघातकों से भरी है। डायना चली गई। शिखा भी नहीं रही। निखिल बरुवा क्या चाहते थे? सोच नहीं पाए या फिर दूसरों की चाहत के बारे जानते ही नहीं थे? वे जैसे रहते है, दूसरे भी वैसे ही रहें। यही थी न उनकी इच्छा? यह जीव, यह प्रकृति, कितने भिन्न रूप, मनुष्यों की कितनी भिन्न चिंताएँ और कितने भिन्न उनके मनोजगत! बड़ा कष्ट देती है यह माया। हालाँकि माया की अनुपस्थिति में जीवन अचल है। पश्चिम के सूर्य की सिंदूरी किरण रजनीगंधा के झोंट पर पड़ रही है। अमरूद के पेड़ पर बैठे पक्षी बरुवा की उपस्थिति की भनक पाते ही उड़ गए हैं। शिउली के फूल रात को खिलेंगे, लेकिन अपनी सुरभि अभी से ही बिखेर रहे हैं। चारों तरफ अलग तरह का सम्मोहन व्याप्त है। आश्विन का सूर्य देखते-देखते अचानक उनका मन हर्ष और विषाद मिश्रित अनुभूति से भर उठा। वे अपनी जिंदगी अकेले ही गुजारेंगे। वन के पक्षियों को देखेंगे, पौधे रोपेंगे, उन्हें बड़ा करेंगे। वहाँ शिखा और डायना का अस्तित्व नहीं होगा। और डेजी? शादी के बाद वह भी एक दिन चली जाएगी।
(9)
खाना बनाने की इच्छा नहीं हुई। दरवाजा खोलकर वे बाहर निकल आए। रास्ते पर इधर-उधर घूमनेवाला मोटा-तगड़ा कुत्ता, जिसका नाम उन्होंने ‘कालू’ रखा था, भौंकते कुत्तों के झुंड में खुद भी भौंक रहा था। बरुवा के दरवाजा खोलने की आहट पाते ही वह अपनी पूँछ हिलाता उनकी ओर बढ़ आया। फिर अपनी स्वभावगत आवाज निकालते हुए बरूवा के दोनों पाँवों में अपना सिर रगड़ने लगा। निखिल बरुवा बीच-बीच में ‘कालू’ को बुलाकर उसे माँस की हड्डी, बिस्कुट दिया करते थे। दिन में वह जहाँ भी रहे, रात को हरदम निखिल बरुवा के दरवाजे के सामने ही सोता था। वह निखिल बरुवा के कदमों की आहट पहचानता था। यदि निखिल बरुवा कहीं से आ रहे हों तो वह आधे रास्ते से उनका साथ ले लेगा। यह देखकर निखिल बरुवा के मन में उसके प्रति प्रेम उमड़ आता है। पशु भी मनुष्य की प्रकृति पहचानते हैं। आसपास इतने परिवार हैं, लेकिन वह और किसी के घर नहीं जाता। अचानक निखिल बरुवा का दबा हुआ क्षोभ उमड़ पड़ा। नहीं, अब और किसी को हृदय से नहीं लगा सकते। अत्यधिक क्षोभ से वे ‘कालू’ पर चिल्ला उठे–‘दुर, दुर। भाग, भाग। यहाँ क्यों आया है?’
निखिल बरुवा की कर्कश आवाज सुनकर कालू कुछ दूर चला गया। फिर उनके पास आकर उनके सामने सीधा लेटकर अपना सिर उनके पाँवों पर रख उनकी मनुहार करने लगा।
‘आ…आ…उ…उ…उ…’ कुत्ते की इस हरकत से निखिल बरुवा का मन पसीज गया। सोचने लगे–‘हरदम उसे अपनी जूठन ही देता हूँ। उसे घर के भीतर भी घुसने नहीं देता। दरवाजे के सामने सोने के कारण न जाने कितनी बार उसे दुरदुराया है। इतने लोगों के घर हैं, फिर भी वह मेरे पास ही क्यों आता है? समझ गया। जानता हूँ कि वह अपनी मृत्युपर्यंत मेरा साथ नहीं छोड़ेगा। क्योंकि वह अन्य प्राणियों से ज्यादा विश्वासी भृत्य है।’
उसे छूऊँ कि न छूऊँ यह सोचते हुए निखिल बरुवा ने कालू के सिर पर अपना हाथ रखा। अप्रत्याशित दुलार पाकर कालू ने बरुवा के दोनों पाँवों पर फिर से अपना सिर रख दिया। स्पष्ट चाँदनी में बरुवा ने देखा कि कालू की आँखों से आँसू बह रहे हैं। निखिल बरुवा ने बड़े कष्ट से अपने जिस अनुराग और पीड़ा को दफन करना चाहा था, वे पुन: लौटकर उनके हृदय में जमा होने लगे।
हिंदी अनुवाद : विजय कुमार यादव