बीच उड़ान के

बीच उड़ान के

मय का प्रवाह अपनी गति से चलता रहता है। सुख में समय को पंख उग आते हैं और समय तेज गति से उड़ता रहता है। हर बात लगती है कल ही की तो बात है। कितनी जल्दी नया साल आ गया। बच्चे कितनी जल्दी बड़े हो जाते हैं। पिता इतनी जल्दी कैसे इतने बूढ़े हो गए। जवानी में ही कान के पास बालों ने सफेदी ओढ़ ली…पता ही नहीं चला, जब पहला बाल सफेद था तो आईने के सामने छोटी कैंची से एकाध बाल को काटकर अलग कर पूर्ववत होने की कोशिश करते रहते, फिर बाल काले करने और न गिरने देने के लिए तरह-तरह के जतन करने में लग जाते। दूसरी ओर किसी कारण से संघर्ष या दु:ख के दिन थोप दिए जाते हैं, तब काटे नहीं कटता समय…ये दिन बहुत भारी हो जाते हैं। शरीर का दु:ख या आर्थिक विवंचना भीतर-ही-भीतर तन-मन को खोखला करती चली जाती है और समय कठोर सूदखोर की तरह किसी तरह की मोहलत नहीं देता…तब घड़ी के काँटे ज्यों ठहर गए हों और कैलेंडर के पन्ने फड़फड़ाकर अपनी जगह पर अड़ गए हों। तब समय बुरा घोषित हो जाता है। जीवन को ग्रहण लग जाता है। व्यक्ति के पल भरे दूभर हो, समय कभी रुकता नहीं…उसकी गति तेज या धीमी नहीं पड़ती…समय अपनी गति से चलता रहता है।

देखते-देखते सागर और नेहा के विवाह की बारहवीं वर्षगाँठ आ गई और दस साल की प्रगति और सात साल के बेटे ने परिवार को बढ़ा दिया। सागर को अपना फ्लैट मिल गया था। उसकी मेहनत ने उसे पंख दिए और उसने खूब उड़ान भरी। पर उसने हमेशा ध्यान रखा कि उसके पैर जमीन पर बने रहें। वह अब भी हर दो महीने में पिता से मिलने गाँव जाता रहा है। वह चाहता तो है कि पहले की तरह हर महीने जाए, पर कई बार यह संभव नहीं हो पाता। सागर मन से चाहता है कि माता-पिता उसके साथ पुणे आकर रहें। पर वे गाँव का घर और खेत छोड़कर नहीं आना चाहते। सागर की बार-बार की कोशिश बेकार हो जाती। वह कभी-कभार कुछ रुपये भी माँ को दे आता। पर अब उसे घर भी देखना है। बच्चों की पढ़ाई की फीस, फ्लैट की किस्त और शहर का खर्चा…फिर भी वह ध्यान रखता है। उसे लगने लगा कि यदि कार ले ले तो पत्नी और दोनों बच्चों को भी वह गाँव ले जा सकेगा। बाइक पर सबको लाना संभव नहीं होता इसलिए अकेला ही जाता है। तीज-त्योहार के अवसरों पर बस से सब के साथ गाँव जाता है। नेहा ने कभी ना-नुकुर नहीं की, लेकिन दूसरे दिन बच्चों को स्कूल जाने में परेशानी होती…इस बार जब वह घर आया था तो माँ ने कहा–‘सागर मैं बताना नहीं चाह रही थी, पर पिछले कुछ दिन से तुम्हारे बाबा की तबीयत ठीक नहीं है!’

‘क्या हुआ?’ सागर ने बेचैनी से पूछा।

‘वही पुरानी तकलीफ…खून की उल्टी हुई एक दिन। तबसे खाना एकदम कम हो गया। दिन भर खाट पर सोये रहते हैं…बहुत कमजोर हो गए हैं..।’ माँ ने विवश होकर कहा। 

‘तुमने पहले क्यों नहीं बताया? मोबाइल दे रखा है न…।’ 

‘पिछले महीने से नहीं लग रहा है…।’ माँ ने उदास होकर कहा।

तब सागर के ध्यान में आया कि पिछले महीने से मोबाइल का बिल नहीं भर पाया..। ‘कोई बात नहीं…आज तो देर हो गई, कल उन्हें सूरजपुर ले जाऊँगा…छुट्टी भी ले लूँगा…चिंता मत करो।’ सागर ने माँ को दिलासा दी।

दूसरे कमरे में पिता यह सुन रहे थे। उनके पास गया और सहारा देता बोला, ‘मोबाइल नहीं लग रहा था तो मेरे सरपंच मित्र से कहकर संदेश भिजवाना था। इस तरह बीमारी को ढोना अच्छी बात नहीं। मुझे अच्छा नहीं लगा, आप मुझे तुरंत बताते रहें तो अच्छा लगेगा।’ पिता का हाथ अपने हाथ में लेता सागर बोला।

‘बेटा तुम्हारी दौड़-धूप देखकर मुझे चिंता होती है। तुम फिक्र न करो, सब ठीक होगा…।’ बेटे को आश्वस्त करते पिता ने कहा।

‘नहीं कल सुबह ही सूरजपुर जाएँगे…।’ सागर ने घोषणा की तरह कह दिया।

दूसरे दिन फिर वही जाँच-पड़ताल और वही निष्कर्ष–टी बी! वही दवाइयाँ!!

सूरजपुर में सिद्धार्थ का साथ। रुक जाने का आग्रह। चाहकर भी सागर के लिए संभव नहीं हुआ। परिवार के हाल-समाचार का आदान-प्रदान और पिता को लेकर सागर गाँव निकल पड़ा। लौटते समय सिद्धार्थ के शब्द दिलासा देते रहे… ‘बाबा आप मुझे भी बता सकते हैं, मैं तुरंत आ जाऊँगा। सागर की तुलना में आपके मैं अधिक नजदीक हूँ।’ सागर को यह सहारा अच्छा लगा। पिता भी मुस्कुराए और सिद्धार्थ की आत्मीयता के लिए उनके चेहरे पर आभारनुमा आशीर्वाद झलक रहा था।

लौटते समय सागर चिंतित था। दूसरी बार इस बीमारी ने सिर उठाया है। यह खतरनाक भी हो सकता है। वह अपने ही उधेड़बुन में बाइक चला रहा था। गाँव की सड़कों ने गति को रोक रखा था। घर पहुँचते ही उसने कहा कि ‘मुझे आज ही जाना होगा। आज की छुट्टी के लिए मैं कहा था। कल काम पर होना ही होगा…।’

‘रात को कहाँ जाएगा बेटा…घर पहुँचने तक हमें नींद नहीं आएगी…।’ पिता ने रोक लेना चाहा। अपनी चिंता भी नहीं छिपाई, ‘आजकल रात को इन सड़कों पर दुर्घटनाएँ बहुत होती हैं और रास्ते सुरक्षित भी नहीं। लूटपाट होती रहती है। लोगों के पास काम-धंधे नहीं हैं, तो ये लोग गिरोह में घूमते हैं, और इक्के-दुक्के आदमियों को देखकर झपट पड़ते हैं। मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं…बेटा मुझे तो रात में जाना जोखिम लगता है…कल भोर में चले जाना। ऑफिस टाइम में पहुँच जाओगे…।’

माँ ने भी रोकना चाहा। पर सागर रात में ही पुणे के लिए रवाना हो गया!

डॉक्टर की हिदायत बार-बार कानों में गूँज रही थी–सागर के, ‘बीच में दवाइयाँ रोक दी गई…यह ठीक नहीं हुआ। इस बीमारी में दवाइयों की निरंतरता बहुत आवश्यक है।… बीच-बीच में चेक-अप और दवाइयों में परिवर्तन की ज़रूरत होती है। अब ध्यान रखिएगा…।’

सागर बेहद चिंतित हुआ। वह पुणे आने के बाद बहुत तीव्रता से अनुभव करता रहा कि कभी-कभार उससे कोताही हुई है। व्यक्ति पर जब परिवार की जिम्मेदारी बढ़ जाती है, तब बहुत सी बातें छूट जाती हैं। खासकर जब बच्चे पढ़ने-लिखने की उम्र में होते हैं। वैसे सारा ध्यान तो नेहा भी रखती रही है। सागर को तो यह भी मालूम नहीं कि प्रगति और अमोल की पढ़ाई कैसी चल रही है। नेहा ही बताती कि अब स्पर्धा बहुत है। अमोल को ट्यूशन की जरूरत है। उसे और दूसरे क्लास भी लगाने चाहिए…आसपास के बच्चे अबाकस की क्लास में जाते हैं। अमोल को इसमें डालना चाहिए। सागर सोचता रहा अब तुलना केवल घर के सामानों की ही नहीं, अब बच्चों के बीच भी स्पर्धा जाग गई हैं। उसे याद आया कि एक दिन अमोल ने पूछा था, ‘पापा हम बहुत गरीब हैं?’

‘क्यों…क्या चाहिए तुम्हें…।’ सागर ने चिंतित होकर पूछा था।

‘सामने के सभी के घर में फ्रिज है…हमारे घर नहीं है!’ अमोल ने बिना हिचकिचाहट के कह दिया। सागर ने नेहा को देखा। प्रगति ने कहा, ‘अमोल चुप हो जा, कुछ भी कह देता है।’

‘कोई बात नहीं बेटा…जल्दी ले आएँगे…।’ कहकर सागर ने अमोल को फुसला दिया। पर उसके मन में यह बात भीतर तक उतर गई थी। अभी तक उसका ध्यान भी नहीं गया था। नेहा ने भी सारी स्थितियाँ देखते हुए यह विषय नहीं छेड़ा। सागर अपनी सारी आर्थिक हालत नेहा के सामने रखता रहा है। इसलिए वह जानती है। फ्लैट, मोटरसाइकिल, बीमा की किश्तें आँखों के सामने होती। घर-गृहस्थी को जुटाने में बहुत सारे बचत जाती रही। फ्लैट बुक करते समय बहुत सारी बचत गई। बस इसी जोड़-घटाव में उसके महीने का बजट सिमट जाता है। बच्चे बड़े हो रहे हैं। उनकी पसंद के कपड़े, स्कूल की फीस, किताबें-कॉपियाँ…कितने के खर्चों के मुँह हैं। किसके-किसके मुँह बंद करें। कभी-कभार ही होटल गए तो, यह खर्च उसे बहुत फालतू लगता। बच्चे जब स्कूल जाते हैं, आसपास के बच्चों के साथ खेलते हैं, तब नई-नई फरमाइशें घर तक पहुँचती हैं। नेहा बच्चों को समझा देती है। प्रगति का सहयोग और समझ उसे मदद करती पर अमोल अभी छोटा है!

सागर आज ऑफिस से घर के लिए चलते समय सड़क किनारे के एक इलेक्ट्रॉनिक शोरूम में रुक गया। उसने फ्रिज के कई आकार देखे। पूछताछ में मालूम हुआ कि जिरो इंटरेस्ट पर किश्तों में फ्रिज भी मिलेगा। उसने मीडियम आकार का एक फ्रिज सोच लिया, पर सोचा कि नेहा की पसंद से खरीदा जाए। यही बात लेकर वह घर गया। दोनों ने सलाह की और फ्रिज तय कर लिया। तमाम कागज़ात पर उसने दस्तखत कर दिए। यह ‘गिफ्ट’ अमोल की अनुपस्थिति में घर पहुँचे यह व्यवस्था कर वे घर के लिए चल पड़े।

जिस दिन सागर का लंच-बॉक्स नहीं होता उस दिन अनादि और सागर होटल ‘वैशाली’ में लंच लेते हैं। आज अनादि होटल की टेबल पर बैठते ही बोल पड़ा, ‘क्या बात है, आजकल तुम चिंता में लगते हो?’

‘ऐसी कोई बात नहीं है…।’ सागर मेनू कार्ड देखता बोला।

‘मेनू कार्ड क्या देखते हो? यहाँ आने पर लंच के समय जब उत्तप्पा ही खाना है…।’ अनादि ग़ौर से निहारते बोला। इतने में वेटर आ गया। उसकी ओर देख कर सागर ने कहा, ‘दो उत्तप्पा…।’ और अनादि की ओर देखकर फीकी हँसी हँस दिया।

‘कोई बात तो है, सागर जी…।’

‘मेरी छोड़ो तुम अपनी सुनाओ…शादी कब कर रहे हो?’ सागर ने विषय बदलना चाहा। 

‘अभी कोई इरादा नहीं है। कुछ जिम्मेदारियाँ हैं, उन्हें निपटाकर देखूँगा…तुम्हें बताने में हर्ज नहीं, छोटी बहन की शादी होनी है। साथ ही, सोचता हूँ, सारी ज़रूरतें पहले पूरी कर लूँ…।’ कहते-कहते रुक गया।

‘अब तो इस महानगर में तुम्हारा अपना फ्लैट है, अच्छी नौकरी है और क्या चाहिए?’ सागर उसके मन की थाह लेना चाहता था।

‘कुछ पारिवारिक समस्याएँ हैं, तुम्हें बताऊँगा कभी…।’ अनादि कहीं खो गया…। 

‘कहीं पत्रकार शेफाली के चक्कर में तो नहीं…कई बार पूछने का मन था…तुमको उससे बातें करता देखता हूँ तो लगता है…क्या कुछ पक रहा है!’ सागर ने जरिया दे दिया बात आगे बढ़ाने का।

‘बिलकुल नहीं, उससे तो कतई नहीं। अरे तुमने तो देखा ही है वह कभी भी सीढ़ियों पर सिगरेट पीती मिल जाती है और तो और वह अक्सर होटलों में ड्रिंक्स लेती मिल जाएगी…वह बहुत स्वच्छंद किस्म की लड़की है। अपने माँ-बाप के कहने में ही नहीं रहती। पता नहीं किसके-किसके साथ घूमती है। बस उसकी अँग्रेजी अच्छी है और पत्रकारिता की अच्छी समझ है। इसलिए संपादक की चहेती है, और कुछ खास नहीं है उसमें…!’ अनादि ने थोड़े में सब कुछ बता दिया। फिर भी सागर को लगा कि अनादि ने कुछ बचा लिया–बताने में। खैर फिर कभी जरूर पता लग जाएगा।

‘लेकिन तुमने अपने बारे में नहीं बताया…किस चिंता में हो सागर…। गाँव में सब ठीक है। पिता जी की तबीयत ठीक है…?’ अनादि ने आत्मीयता से पूछा।

इस बार सागर बात नहीं टाल पाया। सारी स्थिति बताया ही कि वह बार-बार क्यों गाँव जाता है। पिता जी की बीमारी, घर के हालात सब बयान कर दिया। घर-गृहस्थी की खींच-तान भी रख दी…।

‘तुमने फ्लैट पहले खरीद लिया वह अच्छा हुआ। आज लेते तो आधे से अधिक सैलरी फ्लैट के किश्त में निकल जाती। और चिंता क्या करते हो, इस साल तुम्हारा इंक्रीमेंट अच्छा-खासा होगा। थोड़ी कसर तो निकल जाएगी…।’ अनादि दिलासा देता बोला। 

‘मुझे चिंता पिता जी की तबीयत की है…।’

‘उन्हें यहाँ ले आओ…यहाँ अच्छे डॉक्टर हैं। अच्छा इलाज हो सकेगा…।’ अनादि ने सुझाव दिया।

‘कई बार कोशिश कर चुका हूँ। दो दिन तो रह लेते हैं, फिर गाँव जाने की रट लगाते हैं।’ 

‘तुम्हारी बात सही है…ऐसे में तुम्हें बार-बार गाँव जाना होगा।’ अनादि यहाँ सहमत हो गया।

काफ़ी देर तक उनकी अपनी व्यक्तिगत और घरेलू बातें होती रहीं और दोनों अपनी-अपनी बातें भीतर ढोकर ऑफिस जाने लगे।

सीढ़ियों पर शेफाली सिगरेट का कश लेते हुए अनादि को निहार रही थी।

अनादि रुका नहीं। सागर और अनादि ऑफिस की ओर बढ़ गए।

शाम को जब सागर घर आया तो देखा कि अमोल टीवी के सामने बैठा फ्रिज से आइस क्यूब कटोरी में रखकर चूस रहा है। पिता को देखते ही तपाक् से उठकर लिपट गया। बेटे को खुश देखकर सागर को संतोष हुआ।

सागर अनमना ही रहता है आजकल। वैसे तो सब कुछ सामान्य और व्यवस्थित है। पर उसे ऐसा आभास होता है कि जब कभी पूरी तरह सामान्य लगता है, तब उसके पंखों में कुछ हिस्सा टूटने का खटका होता है। इतने में नेहा पानी का ग्लास और चाय लेकर आती है तो मन कुछ हल्का हो जाता है और अनायास ही मुस्कान की एक लकीर सागर के चेहरे पर खिंच जाती है।

‘न्यू सिटाडेल’ पत्रिका एक विशिष्ट वर्ग में बहुत लोकप्रिय हुई। दरअसल यह पत्रिका अँग्रेजी में होने के कारण इसकी प्रसारण-व्याप्ति पूरे देश में हो गई। उसका आर्थिक पक्ष बहुत मजबूत हो गया था। कॉर्पोरेट जगत के बड़े विज्ञापन उसे मिलने लगे थे। प्रिंटिंग की गुणवत्ता इतनी खूबसूरत थी कि कोई सारी पत्रिका पढ़ता भी नहीं था, पर खरीदता ज़रूर था। विज्ञापन सारे रंगीन होते। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ विज्ञापनों पर खूब खर्च करती। दूसरी पत्रिकाओं की तुलना में इसका बाजार हिस्सा बहुत अधिक होता। समाज के सभी वर्गों को इसने बाँध लिया था। राजनीति की चटपटी खबरें इसमें न होतीं, पर ऐसा इंटरव्यू आयोजित किया जाता, जिसकी चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर होती और मीडिया उसे अपने केंद्र में रखकर चर्चा करता। ऑटोमोबाइल की दुनिया की गतिविधियाँ, नए उत्पादन, उस पर टिप्पणियाँ, उसके ब्यौरे पाठकों को कार चुनने में मदद करते, इसलिए कार-कंपनियाँ विज्ञापनों के लिए इस पत्रिका पर मेहरबान होती। यही स्थिति फिल्मी-दुनिया की होती। फिल्मी हस्तियाँ कवर पेज पर आने के लिए मनचाहा खर्च करने को तैयार रहतीं…विज्ञापनों के माध्यम से वे प्रवेश करते और प्रमुखता से स्थान प्राप्त करते। पत्रिका उत्कृष्ट रूप में फिल्म को प्रचारित करने में मदद करती। लेख तो सधे हुए होते ही पर फोटो के ब्लोअप इतने सुंदर होते कि युवा-वर्ग उसे काटकर अपनी दीवारों पर चिपकाते। यही स्थिति खेल-जगत की होती। स्वास्थ्य के साथ कोई छोटी कहानी भी हर अंक में होती। इन सारी बातों का प्रचार खूब किया जाता। इसमें रिपोर्टर्स की भागीदारी तो होती ही पर सागर द्वारा दी गई प्रस्तुति और अनादि के फोटो से पत्रिका के निखार में चार चाँद लग जाते। संपादक सागर और अनादि को पत्रिका के श्रेष्ठ होने का श्रेय देता। हर अंक में संपादक नये आयोजन के साथ सहयोगियों से विचार-विमर्श करता।

पत्रिका ने अपनी विशिष्ट छवि बना ली थी। इससे विज्ञापन के दर बढ़ गए और प्रमुख पृष्ठों पर विज्ञापनों की भीड़ होने लगी। प्रबंधन, संपादक और सभी रिपोर्टर्स, फोटोग्राफर, डिज़ायनर सबके काम से खुश था। इस दीवाली पर अच्छा-खासा बोनस घोषित किया गया। बोनस की रकम सबकी अलग-अलग होती और एक-दूसरे को मालूम न होती। अनादि और सागर को भी एक-दूसरे के बोनस की जानकारी न होती और न ही वे इस तरह जानने में कोई रुचि रखते।

बैंक अपने कारोबार का प्रसार करने के लिए ऐसी संस्थाओं पर नज़र रखते, जहाँ वेतन और बोनस में अच्छी बढ़ोत्तरी होती है। वे सागर के ऑफिस भी आए और फ्लैट या वाहन के लोन की जानकारी देने लगे। ब्याज की शर्तें, किश्तें आदि कितने आसान हैं, यह समझाते। पहले बैंकों के चक्कर लगाने होते, अब बैंक ग्राहक तक पहुँचने लगे। उनका संबंध-संपर्क बिल्डरों और कार कंपनियों से भी रहता है। अनादि के मन में बहुत दिनों से एक कार दौड़ रही थी। अब वेतन में बढ़ोत्तरी और बोनस भी मिला तो भीतर की इच्छा की गति बढ़ गई। ऑफिस में कई लोगों ने रुचि दिखाई। अनादि ने सागर को अपने साथ जोड़ लिया। उसने समझा दिया कि बढ़े वेतन में किश्त आसानी से निकल जाएगी। इन दोनों के साथ और पत्रकारों ने भी अपनी रुचि दिखाई। बैंक को अच्छा-खासा बिजनेस मिला और युवा-मनों को तेज रफ्तार की गाड़ियाँ!

सागर खूब ऊँचा उड़ना चाहता है। पंखों को उसने सँवारा भी बहुत है। पर वह जब भी ऊँचा उड़ना चाहता है, उसे उसकी अपनी हालत ज़मीन छोड़ने न देती। पिता की सेहत, बच्चों का भविष्य और तमाम किश्तें! फिर भी वह सोचता हर बात का संतुलन होना चाहिए। यदि आर्थिक सुविधा कभी भरपूर हो भी गई तो कार चलाने की उम्र न बचे और हर बार बढ़ते पेट्रोल की कीमत कार में बैठने से रोके…बस उम्र के साथ हर चीज़ को समेटते हुए जीना ही सही होगा। उसने मन बना लिया था। फिर यह भी समझा लिया था अपने आपको कि अब एक साथ चारों कहीं जा नहीं पाते। कार होगी तो आसानी हो जाएगी। जब पहली बार नेहा, प्रगति और अमोल को लेकर माँ-पिता जी से मिलने गाँव जाना होगा तो माँ-पिता जी कितने खुश होंगे। गाँव के लोगों के मन में सागर के लिए मान कितना बढ़ जाएगा। रिश्तेदारों में कितनी चर्चा होगी। सिद्धार्थ को कितना अच्छा लगेगा…तरह-तरह के खयालों ने उसे रात को सोने नहीं दिया!

अनादि के शब्दों ने कम प्रभावित नहीं किया था, इस उम्र में नहीं तब किस उम्र में खरीदेंगे कार, कब चलाएँगे…! जीवन में ‘स्पीड’ की भी एक उम्र होती है। सागर को लगा अनादि उड़ान की बात कर रहा है। कार तो पंख के रूप में है। …अब नहीं तो कब…? मन बन गया। अनादि ने एक और बात जोड़ दी…, ‘तुम बाहर का भी कुछ काम लेते रहना। इतने सुंदर डिज़ाइन होते हैं तुम्हारे…कॉर्पोरेट तुमसे बनवाएँगे…मैं तो फोटोग्राफी करता हूँ उनके लिए समय निकालकर, छुट्टी के दिन…तुम भी कर सकते हो…मैं तुमको इंट्रोड्यूस कर दूँगा…ऑफिस का काम सँभालकर करें तो किसी को एतराज नहीं होगा…।’

बात सागर के मन में बैठ गई। वैसे अनादि शान-शौकत से जल्दी प्रभावित हो जाता है, पर सब स्थितियों को समझकर। सागर को उसकी बात अच्छी लगती है, अब नहीं तो कब…। और अनादि की यह सलाह भी व्यवहारिक होती कि कॉर्पोरेट से और दूसरे क्लाइंट से मिलते समय हमारा स्टेट्स मायने रखता है। कार एक सामाजिक स्टेट्स बन गई है। आज आसानी से मिल रही है तो हम क्यों न लें…एक बार ले ली तो धीरे-धीरे किश्तों की आदत हो जाती है…बस मन को पंख लग गए, मन उड़ने लगा…!

सागर पहली बार कार से गाँव आया। गाँव के बच्चे पीछे-पीछे दौड़ने लगे। बड़े-बूढ़े सोचने लगे कार किसके घर आई होगी। कोई बड़ा आदमी गाँव में आया है… मधुकर के मित्रों ने जब सागर को कार में देखा तो उनका कुतूहल बढ़ गया! घर के सामने कार खड़ी की। पिता घर के बाहर खाट पर आराम कर रहे थे। उन्हें लगा कोई गलती से यहाँ आ गया। जब सागर कार से नीचे उतरा तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ। वे आश्चर्य से बहू और बच्चों को निहारने लगे। उनके भीतर कई तरह के भावों का उथल-पुथल था। चेहरे पर खुशी आती और जाती रही। उन्होंने सागर की माँ को आवाज दी। कार के साथ सबको देखकर सुखद आश्चर्य से वह अभिभूत हो गई। उसने बच्चों को चूम लिया और कहा–‘यहीं रुको…।’ वह भीतर गई और आरती का थाल सजाकर बाहर आई। सागर को तिलक लगाया और कार की पूजा की। सागर और बच्चों को यह सब बहुत अच्छा लगा।

सागर के कार लेने की खबर पूरे गाँव में ‘ब्रेकिंग न्यूज’ की तरह फैल गई। गाँव का पुराना सरपंच मित्र और नया सरपंच मिलने आए। अब तक जो उपेक्षित नज़र से देखते ऐसे बड़ी खेती-बाड़ीवाले लोग भी मिलने आए। पिता को आश्चर्य हुआ जो लोग राह चलते उनकी ओर नमस्ते करने पर भी ठीक से न देखते वे सागर से मिलने आए। सागर को भी लोगों में यह परिवर्तन कुछ अजीब लगा, पर वह समझ गया, यह कार की लीला है। कितना भी कहें कि धन-संपत्ति की हैसियत कुछ नहीं है, पर सागर को लगा–‘है’! भले ही वह लोन पर हो!

माँ अपने काम में लग गई। बर्तन लेकर दूध लाने जाने लगी। सागर ने बाहर से कुछ भी लाने से मना कर दिया। खाना बनाने की भी जरूरत नहीं है। हम पुणे से ही पार्सल बनवाकर लाए हैं। सबने साथ में खाना खाया। अलग तरह का खाना। रोज से अलग। माँ-पिता एक दूसरे को देख-देख खा रहे थे और सागर को निहार रहे थे। सागर अपने बच्चों के खाने पर ध्यान दे रहा था।

सागर ने वापसी के बारे में अभी तक कुछ नहीं कहा था और पिता रुकने के लिए कहने में संकोच कर रहे थे। सागर पिता के चेहरे को बार-बार पढ़ने की कोशिश करता…वे कुछ सोच में खोये होते…नजरें मिलते ही मुस्कुरा देते…क्या चल रहा है पिता के मन में…पूछा तो जवाब मिला ‘कुछ नहीं’!

भोजन के बाद सागर ने कहा कि ‘मैं सिद्धार्थ से मिलकर पुणे लौट जाऊँगा।’

‘रात को रुक जाते बेटा…।’ धीमे स्वर में पिता ने कहा।

‘नहीं कल सुबह बच्चों की स्कूल भी है और मेरा ऑफिस भी।’

‘पर रात हो जाएगी न काफी…’ पिता हिचकिचाते बोले।

‘नहीं सड़कें ठीक हैं…आराम से पहुँच जाएँगे…।’

सागर के यह कहने पर पिता ने कुछ नहीं कहा और न ही माँ ने कोई आग्रह किया। सागर को लगा यह कार कहीं तो बीच में नहीं आ गई…वरना पिता कितना आग्रह करते थे रुकने के लिए और कई बार तो उनका मन रखने के लिए वह रुक भी जाता था। अब वे इतना संकोच और औपचारिकता क्यों कर रहे हैं। कार तो कहीं बीच में नहीं आ गई! फिर बोला, ‘चलिए, आपको घुमा लाता हूँ, कार में। आप बैठेंगे तो मुझे बहुत खुशी होगी।’

पिता ने माँ की ओर देखा। सागर ने दरवाजा खोला। पिता सामने की सीट पर और माँ को पिछली सीट पर बैठाया। माँ के लिए तो यह एक चमत्कार ही था, पिता भी पहली बार कार में बैठ रहे थे। क्या कहें उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था। नई कार की गंध भीतर घूम रही थी। भीतर की सजावट उन्हें स्वर्गिक लगी। सागर ने संगीत शुरू कर दिया था और पिता की ओर नज़र घुमाई। वे चुंधयायी आँखों से अपने वर्तमान को भीतर तक महसूस कर रहे थे। फिर बोले, ‘घर पर बच्चे अकेले हैं। अब लौट चलें…।’ पर तब तक गाँव की कच्ची सड़क पार कर मुख्य सड़क पर कार आ चुकी थी। माँ नि:शब्द-सी सागर की उड़ान देखती-महसूस करती रही।

सागर उतावला हो रहा था, माँ-पिता साथ हैं। कार में बैठे हैं। उसकी उड़ान के साक्षी हैं। उसने एक्सलेटर दबाया और कार हवा से बातें करने लगी। बाहर की आवाज बंद करने के लिए उसने शीशे चढ़ा दिए और एसी शुरू कर दी। कार के भीतर रंगीन उपकरणों को, संगीत को और उसकी रफ्तार को देखकर पिता चमत्कृत थे। रफ्तार देखकर भीतर एक डर भी था। उनके घुटने आपस में सिमट गए थे और मन-ही-मन वे प्रार्थना भी कर रहे थे–शायद। सागर ने यह समझ लिया और रफ्तार धीमी कर अगले चौराहे से कार गाँव की ओर मोड़ दी। पिता ने राहत की साँस ली।

घर से विदा होते समय माँ-पिता की आँखें भर आईं। सागर ने देखा की बहू ने तो माँ-पिता के पैर छुए, पर बच्चे तो जल्दी ही कार में बैठ गए थे। सागर को लगा कि बच्चों का मन यहाँ नहीं रमा। पर वे दादा-दादी के पैर छूना कैसे भूल गए। उसने खिड़की से झाँककर उन्हें याद दिलाई। वे नीचे उतरे दादा-दादी के पैर छूने लगे तो दादा ने कहा, ‘रहने दो बेटे…भगवान तुम लोगों को सुखी रखे…।’ सागर के इशारे पर दोनों ने दादा के आशीर्वाद लिए। सागर ने भी चरणस्पर्श कर पिता को देखा। उनकी आँखें डबडबा आई थीं। भर्रायी आवाज में वे बोले, ‘बेटा कुछ धीरे चलाना…ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे…।’ कहकर उन्होंने सागर का माथा चूम लिया।

विदा में हाथ लहराते समय सागर ने अनुभव किया कि पिता की आँखों में भरपूर ऊहापोह और उथल-पुथल है। पिता की आँखें डबडबा आने के कारण सागर की जाती हुई कार धूमिल हो गई थी। फिर भी वे लगातार देखे जा रहे थे!

कालांतर में चाहकर भी सागर पहले की तरह घर–पिता से मिलने न आ पाता। कभी-कभी दवाइयाँ पहुँचाने के लिए सिद्धार्थ की मदद लेता। सिद्धार्थ के सूरजपुर से सागर का गाँव बस से आधे घंटे का रास्ता था। सिद्धार्थ का कारोबार बहुत बढ़ गया है। पर उसके मन में सागर के प्रति वही भावना है। वह अपना आदमी भेजकर दवाइयों की व्यवस्था कर देता।

गाँव में पिता अपने दोनों बेटों से छिटक गए थे। यह घुटन उनके भीतर थी। खेती से अब वे ज्यादा कुछ नहीं निकाल पा रहे थे। मधुकर तो संपर्क भी नहीं रखता और सागर व्यस्त है, यह बात उन्हें सालती रहती। सागर फोन पर बात कर लेता, लेकिन प्रत्यक्ष आने की बात पहले की तरह नहीं थी। जीवन में नये आयाम जुड़ गए थे। बच्चों को समय देना, पत्रिका में अपनी जगह बनाए रखना, छुट्टी के दिन कॉर्पोरेट और निजी ग्राहकों से संपर्क करना और अब पुणे जैसे महानगर की भागमभाग की ज़िंदगी में समय तो पंख लगाकर उड़ जाता है। ये सारी दलीलें वह अपनी ओर से गाँव न जा पाने के लिए खुद को देता रहता। पर एकांत में वह यह महसूस करने लगा था कि वह अब कुछ विमुख तो नहीं हो रहा। कहीं वह यह तो नहीं सोच रहा कि छोटे भाई मधुकर को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। कभी वह यह तो महसूस नहीं कर रहा कि दवाइयाँ तो समय पर पहुँच रही हैं। क्या वह स्वयं से यह नहीं कह रहा कि पिता जी की तबीयत अब बिलकुल ठीक है…सागर ऐसा कभी नहीं था…पिता को लेकर वह अत्यंत संवेदनशील था। उसने कभी, किसी तरह की चिंता नहीं की। कई बार संपादक की नाराजगी झेलकर भी वह गया…फिर आजकल ऐसा क्यों सोच रहा है कि आने-जाने में जितना पेट्रोल लगता है, उतने में तो पिता जी की महीनेभर की दवाइयाँ आ जाएँगी। कब से वह यह व्यावहारिक गणित का पहाड़ा याद करने लगा…बस इस हफ्ते की पहली छुट्टी में वह पिता से मिलने जरूर जाएगा। कई बार उसका यह विचार साकार होता और कई बार तात्कालिक स्थितियाँ कुछ और ही करवातीं।

सागर इसी उधेड़बुन में होता। फिर भी वह कोशिश करता कि दो महीने में एक बार किसी तरह वह पिता से मिलने पहुँच सके। वैसे, पिता हर महीने इंतजार करते। पर सागर की व्यस्तता को वे समझ लेते। सागर जब तीन महीने में भी आ जाता तो वे खुश ही होते। पर अब वे अपनी बीमारी के बारे में किसी से चर्चा न करते, पत्नी से भी नहीं। पता नहीं जीवन के संबंध में अकेले में चुपचाप वे क्या सोचते रहते हैं। शरीर कमज़ोर हो गया है, खेत पर जाने की हिम्मत नहीं है, उम्मीद जैसे शब्द अब उत्साहित नहीं करते, अक्सर मौन ही रहते हैं। पर सागर के आने पर उनकी आँखों में एक चमक जाग जाती है। उसके जाते समय उनकी आँखें बुझ-सी जाती हैं। सागर के पुणे लौटते समय वे नज़रें नहीं मिला पाते। न ही अब पूछते हैं कि अब फिर कब आओगे।

सागर अपने भीतर चल रहे उधेड़बुन को जानने लगा है और पिता के भीतर चल रही हलचल को समझता है!