ब्लँकेट

ब्लँकेट

(मराठी कहानी)

सर्जा आज बहुत खुश था। कल से सब अच्छा हो रहा था। कल वह स्कूल गया, तो मैडम ने बताया कि उसके जर्मनीवाले पिता जी की चिट्ठी आई है। साथ में एक ग्रीटिंग भी है। दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएँ देनेवाला ग्रीटिंग। चिट्ठी में हमेशा की तरह लिखा हुआ था, खूब मन लगाकर पढ़ो। बड़ा आदमी बन जाओ। फिर आगे की पढ़ाई के लिए यहाँ जर्मनी आ जाओ।

दोपहर चार बजे मैडम रेमंड का सिपाही चिट्ठी लेकर आया। चिट्ठी पढ़ते ही मैडम काटकर का चेहरा खिल उठा। उन्होंने सबसे कहा, ‘कल सुबह ठीक नौ बजे आपलोग अपनी माँ, दादी, दीदी, मौसी या घर में जो भी बड़ी औरत हों, उन्हें साथ लेकर आइए। तुम्हारे जर्मनी में रहने वाले पेरेंट्स ने तुम्हारे लिए ब्लँकेट्स भेजे हैं। यहाँ तुमलोग को सर्दी लगती है ना, इसलिए…’

जब स्कूल की छुट्टी हो गई, तब पिछवाड़े से मैडम रेमंड के घर से दो आदमी ब्लँकेट्स के बड़े गट्ठर उठाकर प्रार्थना हॉल में रख रहे थे। वही ब्लँकेट्स कल बच्चों को मिलनेवाले थे। सर्जा बड़ी देर तक वहाँ ताकता रहा। मानो वह सभी ब्लँकेट्स आँखों में भरना चाहता था। गट्ठर कोने में रखकर दोनों आदमी चले गए, तब सर्जा ने उन्हें हाथ लगाकर देखा। कितने मुलायम, नरम और गरम भी थे ब्लँकेट्स! और रंग भी कितने सुहावने। आसमान की तरह नीला, घास की तरह हरा-हरा, स्कूल के पास खिले गुलमोहर की तरह लाल-लाल, सुबह की धूप की तरह सुनहरे-पीले। वह सोचने लगा, उसे कौन से रंग का ब्लँकेट मिलेगा? भगवान मुझे नीले रंग का ब्लँकेट दिलवा दो…नहीं तो…नहीं तो…सुनहरी…लाल और भी अच्छा होगा न?

स्कूल की छुट्टी हो गई। सामुदायिक प्रार्थना के लिए सारे बच्चे प्रार्थना-हॉल में पहुँचे। प्रार्थना के समय सर्जा ने मन ही मन कहा, ‘हे प्रभु यीशु, इस भूले-भटके बालक पर कृपा करो और जामुन के रंग का जामुनी ब्लँकेट मुझे दिलवा दो।’

कोई-सा भी मिलेगा, तो अच्छा ही है। मगर उसे घर में रखेंगे कहाँ? कहीं भी रख दिया, तो मिट्टी लगेगी ही। वह गंदा हो जाएगा। नहीं तो ऐसा करेंगे, माँ की फटी-पुरानी धोती में ब्लँकेट की तह बनाकर रखेंगे। किंतु धोती भी मैली ही होगी। उसका मैल ब्लँकेट को लग जाए, तो?

घर जाकर उसने माँ को बताया, ‘माँ कल स्कूल में ब्लँकेट बाँटे जा रहे हैं। तुम्हें ठीक नौ बजे स्कूल में बुलाया है। माँ, ब्लँकेट घर में इस्तेमाल करने के लिए दे रहे हैं। ब्लँकेट इतना बड़ा है माँ, मैं, पक्या, रंजी आराम से उसमें समा सकते हैं। माँ तू भी रंजी से सटकर सो जाना। उसका एक टुकड़ा काटकर दादी को भी दे देंगे। खूब बड़ा ब्लँकेट है। इतनी बड़ी तह होगी।’ उसने कमर तक हाथ फैलाकर अपनी माँ को समझाया, कि ब्लँकेट कितना बड़ा है। उसके पीछे पकड़कर उसकी एक फटी धोती धुलवाई। उसके लिए पचास पैसों की धुलाई पाउडर सामनेवाले गजमलसेठ की दुकान से लाकर दी। माँ इसके लिए आनाकानी न करे, इसलिए बीड़ियों के बंडल खुद हमीदभाई के पास पहुँचाए। पैसे माँ को दिए। उसके कहने पर चुपचाप तेल, बेसन, मिर्च सब ले के आया। सामनेवाले नल से पानी लाकर दरवाजे के पास रखा, पीपा भर दिया।

कल शाम सर्जा का बापू चार दिनों के बाद घर आया था। बच्चों के लिए जिलेबी लाया था। उसने सर्जा को हरखू के ठेले पर से पकौड़े लाने को कहा। सर्जा बोला, ‘हमारी मैडम कहती है, बाहर का पकौड़े जैसा खाना मत खाओ। उससे सेहत बिगड़ जाती है। खाँसी होती है। बुखार आता है।’

‘जब से स्कूल जा रहा है, हमें सिखा रहा है।’ उसका बापू उस पर बरस पड़ा। सर्जा चुपचाप नुक्कड़ के पास जाकर दस रुपये के पकौड़े ले आया। उसकी सोंधी महक ने उसे भी ललचाया। औरों की तरह वह भी उन पर टूट पड़ा। वह जान गया, कि उसके बापू को आज बड़ी कमाई हो गई है, क्योंकि वह आज हँस -हँसकर बातें कर रहा था। बापू ने खुशी से सर्जा की पीठ पर घूसा मारा। उसे दर्द हुआ, पर सब मजाक में चल रहा था। बापू हमेशा की तरह गालियाँ नहीं बक रहा था। उसने सर्जा की माँ, पक्या या रंजी को लातों से पीटा भी नहीं था। अहम बात यह थी, कि उसके घर आने पर हमेशा जो बदबू घर में कौंधी रहती, वह आज उसके  मुँह से नहीं आ रही थी। हमीद भाई के पास बीड़ियों के बंडल पहुँचाने के लिए वह सर्जा को ऑटो में बिठाकर ले गया। उसने सबको ऑटो में बिठाकर घुमाया भी। थोड़ी देर बाद जब ट्रेन आने का वक्त हो गया, तब वह चला गया। जाते समय उसने सर्जा की माँ को कुछ पैसे दिए। अपनी सीट पर बैठकर उसने ऑटो स्टार्ट की और बड़े रौब से नुक्कड़ पर घुमाकर नजरों से ओझल हो गया। सर्जा, पक्या, रंजी सब उसे देखते ही रह गए। सर्जा के मन में आया, इस खाकी ड्रेस में रिक्शा चलाते वक्त बापू कितना रौबिला दिखता है। जब कभी मूड में होगा, उसकी एक फोटो माँगनी चाहिए, जर्मनी में रहनेवाले दूसरे बापू के पास भिजवाने के लिए। उन लोगों के खत में हमेशा लिखा होता है, कि तुम्हारे माता, पिता, तुम्हारा घर, इन सबकी तस्वीर भेज दो…पर माँ को कुछ कहने का साहस ही नहीं होता।

सर्जा जिस स्कूल में पढ़ता था, वह स्कूल ‘करुणानिकेतन क्रेश’ संस्था द्वारा एक मिशनरी चर्च चलाता था। इस स्कूल को जर्मन मिशन से मदद मिलती थी। जर्मनी के अलग-अलग शहरों के कुछ परिवारों ने इस स्कूल के बच्चों को गोद लिया था। खुद को और एक बच्चा है, ऐसा समझकर उसके खाने-पीने, ओढ़ने-पहनने, किताबें-कॉपी सारा खर्चा वे लोग उठाते थे। हिंडेनबुर्ग के एक चर्च द्वारा विभिन्न परिवारों से यह मदद इकट्ठा की जाती थी और उस शहर से हजारों किलोमीटर दूर विदेश में बसे मिरज शहर के मिशन में भेजी जाती थी। जर्मनी के अभिभावक कभी-कभी अपने ही बच्चों को चिट्ठी लिखते थे। सर्जा को कल ही उसके जर्मन माता-पिता यानी मम्मी-डैडी की ओर से चिट्ठी आई थी। उसका एक अक्षर भी सर्जा पढ़ नहीं सकता था। उसे लगता था, मानो चिट्ठियों को स्याही में डुबोकर कागज पर छोड़ दिया है। फिर मैडम चिट्ठी पढ़कर उसे, चिट्ठी में क्या-क्या लिखा है, मराठी में समझा देती। एक तो मैडम की आवाज एकदम मीठी…बिल्कुल इमरती जैसी…ऊपर से उस चिट्ठी में सर्जा के बारे में इतना कुछ अच्छा-अच्छा लिखा होता, कि सर्जा को लगता मैडम आज कुछ भी न पढ़ाए। बार-बार यही चिट्ठी पढ़ती रहे।

चिट्ठी हमेशा की तरह ही थी। आशय भी वही…। ‘तुम खूब होशियार हो। तुम्हारी मैडम ने चिट्ठी में ऐसा ही लिखा है। खूब पढ़ो। बड़ा आदमी बनो। आगे की पढ़ाई के लिए जर्मनी आ जाओ। हम तुम्हें देखना चाहते हैं। एक बार तुम्हारा, तुम्हारे घर-परिवार का छायाचित्र भेज दो।’ इसी तरह और भी बहुत कुछ लिखा था। खूब अच्छी-अच्छी बातें…। इतना अच्छा तो उसके बारे में उसके घरवाले भी नहीं बोलते। कोई भी उसे होशियार नहीं कहता। किताबें लेकर वह पढ़ाई करने बैठता, तो बिड़ियाँ बाँधती माँ घासलेट लाने के लिए चिल्लाती। पानी भरने के लिए भेजती। हमीद भाई के पास बिड़ी बंडल पहुँचाने को कहती। गालियाँ देती। कहती, ‘पढ़ाई का नाटक बंद कर। जरा काम करने में मेरा हाथ बटा।’

बापू तो कभी घर में होता ही नहीं। होता है, तब शराब पीता रहता है। नशे में धुत होकर लातों से पीटता है। गालियाँ बकता है। बोलता है, ‘सामनेवाले होटल से भजियाँ-पकौड़े ले आ।’ भड़वे, साले, रंडुए से ही बात की शुरुआत होती है। दूसरी ओर उसके जर्मन डैडी और मम्मी…कितना अच्छा लिखते हैं। मैडम चिट्ठी पढ़ती है, तो सुनते वक्त लगता है, मुँह में चॉकलेट चुबल रही है। उनकी बातें सुनने में कितना मजा आएगा। सच! जर्मनीवाले मम्मी-डैडी अगर मेरे पास होते या मैं उनके पास होता, तो कितना मजा आता।

अभी-अभी दिवाली समाप्त हुई। उसके जर्मनीवाले तीन भाई-बहनों ने उसे दिवाली भेंटकार्ड भेजा था और साथ में बड़ी-बड़ी आँखों वाला ऊनी कुत्ता…सफेद-सा…सर्जा को लगता, उसके हाथ में वह गंदा हो जाएगा। वह उसे सम्हालकर रखता। हलका-सा स्पर्श करता। उसे हमेशा लगता कि कल आया हुआ यह भेंटकार्ड, ऊनी कुत्ता, क्रिसमस के वक्त या और भी कभी-कभी आए हुए खिलौने, रंगीन चिकने कागज पर आई चिट्ठियाँ, रंजी और पक्या को दिखाने के लिए घर ले जाऊँ, किंतु मैडम मना करती है। यहाँ की कोई भी चीज घर ले जाने को नहीं देती। कहती है, ‘यह सब तुम स्कूल में देखो। खिलौने से चाहे जितना समय खेलो। यहाँ की एक भी चीज घर नहीं ले जाने की। वह वादा करता है, उसमें से एक चीज भी वह खराब नहीं करेगा। जैसी है, वैसी ही वापस लाएगा। बस! सिर्फ एक बार अपने भाई-बहन को बताएगा, किंतु मैडम मानती ही नहीं। बस! इसी बात पर सर्जा को मैडम पर गुस्सा आता है।

सर्जा के जर्मनीवाले मम्मी-डैडी ने उसे बहुत सारे फोटो भेजे हैं। सुंदर-सुंदर मुलायम, लाल-लाल फूलों-फलों से लदे पेड़ों के, बर्फीले पर्वतों के, गहरे नीले तालाब में विहरनेवाले जहाजों के, और भी कई छायाचित्र…सर्जा उन्हें निहारता रहता। स्कूल के कंपाउंड के किनारे लगे हुए गुलमोहर के पेड़ जब लाल-लाल फूलों से भर जाते, तब उसके मन में विचार आते, यदि इसका फोटो जर्मनी के अपने भाई-बहनों को भेज सकता तो…उन्हें भी कितना मज़ा आता, किंतु ये बात तो उसके बस में नहीं थी। उसके मन में आता, क्या इतनी दूर जर्मनी में गुलमोहर के पेड़ होंगे? उन पर भी ऐसे फूल लदे होंगे? डेव्हिड ने आँगन में बॉल खेलते हुए खिंची हुए उसका एक फोटो भेजा था। उसमें घास के पीछे लाल-लाल फूलों से लदे हुए पेड़ दिखाई देते थे। वे शायद गुलमोहर के ही होंगे। एक दिन मैडम क्लास में सिखा रही थी। अचानक सर्जा की नजर खिड़की से बाहर गई। उसे फूलों से लदे हुए गुलमोहर के वृक्ष दिखाई दिए। अनजाने में वह उनका चित्र निकालने लगा। वह अपनी ही धुन में इतना मस्त था, कि मैडम कब पास आई, उसे पता भी नहीं चला। मैडम को अपने पास देखकर वह डर गया। मैडम ने तब सर्जा को चित्र का काम बंद करने को कहा, लेकिन उन्हें उसका चित्र इतना पसंद आया कि लंच टाईम में उन्होंने उसे मिलने को कहा। उसे ड्राइंग पेपर्स, कलर्स देकर खूब चित्र, मन में आते हुए चित्र निकालने को कहा। मैडम ने ये सारे चित्र जर्मनी के उसके मम्मी-डैडी को कब भेजे, उसने समझा ही नहीं। बहुत दिन के बाद मैडम ने बताया था, ‘जर्मनी से जो’ का पत्र आया है, और उसके चित्र घर के सारे लोगों को बहुत ही पसंद आए हैं। तब सर्जा बहुत शरमाया था। उसे लगा, चित्र अच्छे तो थे, लेकिन इतने अच्छे नहीं, जितनी वे लोग तारीफ कर रहे थे। अॅग्नेस, डेव्हिड, मार्था ये भाई-बहनों के भेजे हुए ग्रिटिंग्ज कितने आकर्षक हैं। उसके चित्र इतने सुंदर थोड़े ही हैं? वे लोग उसकी ज्यादा ही प्रशंसा कर रहे हैं।

वे उसे पत्र भेजते रहते। वह पढ़ तो नहीं सकता, पर उसके ऊपर हाथ फेरता रहता। कागज़ पर उँगली फेरता, फिर नाक के पास ले जाता, यह देखने के लिए, कि कहीं उसकी खुशबू उँगलियों को तो नहीं लगी! चिट्ठी के साथ उनलोग ने उनके घर के फोटो भी भेजे थे। कितना सुंदर था उनका घर!…राजमहल की तरह …या मॅडम जो परिकथाएँ सुनाती हैं, उसमें की परी के घर की तरह। हर एक के लिए अलग कमरा, बाग-बगीचा। डेव्हिड ने बगीचे की भी कितनी तस्वीरें भेजी थीं। फोटो देखकर उसने अंदाजा लगाया था, कि डेव्हिड उसी की उम्र का होगा, शायद थोड़ा सा बड़ा। अग्नेस और मार्था काफी बड़े दिखते थे। अग्नेस थोड़े ही दिनों में शादी करके दूसरे घर रहने को जानेवाला था। डेव्हिड ने उसके प्यारे जिम की तस्वीर भी भेजी थी। साथ में लिखा था, ‘मैं तुम्हारी तरफ से भी हर रोज जिम की पप्पी लेता हूँ। उसे तुम्हारी तरफ से भी पुचकारता हूँ। तुम्हारी तरफ से भी उसको लाड-प्यार करता हूँ।’ सर्जा जिम की तस्वीर देखता। तस्वीर में जिम की पीठ पर हाथ फेरता। तस्वीर में जिम की पप्पी लेता।

मार्था ने लिखा था, ‘तुम अपने परिवार की और अपनी तस्वीर भेज दो।’ सर्जा की आँखों के सामने अपना घर आ गया। गंदा…उसमें रहनेवाले लोग भी उतने ही गंदे। माँ चार-चार दिनों तक नहाती नहीं। दो-दो दिन कंघी नहीं करती। रंजी तो बिखरे बाल लेकर गाँवभर घूमती रहती। किसी के भी सामने हाथ फैलाती। किसी ने कुछ सिक्के हाथ पर डाले, तो चने, मुरमुरे खरीदकर खाती है। पक्या भी ऐसा ही है। एक दिन उसने किसी की थैली में हाथ डालकर दो केले चुरा लिए। उसने पक्या को डाँटा। कहा, ‘चोरी करना पाप है। प्रभु यीशु नाराज हो जाएँगे।’ तब माँ ने पक्या को कुछ नहीं कहा। सर्जा को ही डाँटा। बोली, ‘नालायक! रोज अच्छा खाने-पीने को मिलता है, इसलिए तुझे ये सब सूझ रहा है। कभी अपने भाई-बहन के लिए कुछ ले आते हो क्या?’

सच तो यह था, कि शुरू-शुरू में पक्या और रंजी की याद आने के कारण स्कूल में व नाश्ता और खाना भी नहीं खा सकता था। एक बार तो उसने पोहे अपनी कमीज की जेब में भी भर लिए थे…पक्या और रंजी को देने के लिए। जेब पीली हो गई। उस पर तेल के दाग लग गए। इसी से मैडम को पता चला, कि सर्जा ने पोहे चुराकर जेब में रखे हैं। मैडम ने तब उसे खूब डाँटा। कहा, ‘अगर चोरी की, तो प्रभु यीशु सजा देता है। भूखा रखता है।’ उन्होंने और भी बहुत कुछ सुनाया। उनमें से थोड़ी बातें सर्जा समझ सका। उसे इतना मालूम हुआ कि उससे बड़ी भूल हो गई है। अगर ये गलती उसने दुबारा की, तो उसे स्कूल से निकाला जाएगा। स्कूल छोड़ने के लिए वह तैयार नहीं था…कभी नहीं…उस दिन मैडम ने प्रभु यीशु की तस्वीर के सामने घुटने टिकाकर चोरी का कन्फेशन देने को कहा। सर्जा ने अपने दिल से अंतरंग की गहराई से प्रार्थना की…

‘प्रभु, तुम्हारा अंतःकरण विशाल है। बच्चों की भूल हुई।

तुम मुझे क्षमा करो। मैं भटक गया हूँ।

मुझे सही रास्ते पर ले जाओ। हमारे मन में उजियाला फैला दो।’

इस घटना के बाद सर्जा ने कभी ऐसा नहीं किया। उस दिन वह मैडम से पूछना चाहता था, ‘अगर चोरी की, झूठ बोला, तो प्रभु यीशु सजा देता है। भूखा रखता है। मगर चोरी नहीं की, तो पेटभर खाना क्यों नसीब नहीं होता?’ पर मैडम से उसने कुछ नहीं पूछा। उसे डर था, अगर मैडम गुस्सा हुई तो? उसे स्कूल छोड़ने को ही कहा तो? वह स्कूल, शिक्षा कुछ भी छोड़ना नहीं चाहता था, इसलिए चुप रहा।

बड़ी मुश्किल से सर्जा को इस स्कूल में प्रवेश मिला था। फैक्टरी में काम करनेवाले उसके यशवंत मामा ने उसे स्कूल में दाखिल करवाया था। माँ पहले तो ना कहती थी। कहती थी, ‘बीड़ियों का सामान लाना, बाँधी बीड़ियों को पहुँचाना, रंजी, पक्या का ख्याल रखना…कौन करेगा ये सब?’ इसके लिए माँ के पास खाली वक्त था ही कहाँ? दिनभर बीड़ियाँ बाँधती थी, तब कहीं रूखी-सूखी रोटी, दाल, चटनी नजर आती थी। मामा ने कहा, ‘खाना, चाय, दूध, नाश्ता सब स्कूल में मिलेगा। कोई फीस नहीं। किताबें, कॉपी सब वहाँ मिलेगी। हमें किसी भी चीज का खर्चा नहीं आएगा।’ तब जाकर कहीं राजी हो गई। सोच लिया होगा, ‘चलो, खानेवाला एक मुँह तो कम हो जाएगा।’ उसके हिस्से का थोड़ा-थोड़ा दूसरे बच्चों को और दे सकूँगी।’

शुरू-शुरू में स्कूल के नियम, बंधनों से वह बहुत ही तंग आया था। स्कूल में दाखिल होने के पहले, कहीं भी जाए, कैसे भी घूमे-फिरे कोई पूछनेवाला नहीं था। अब स्कूल में एक जगह बैठकर पढ़ाई करना जरूरी था। एक दो बार स्कूल छोड़ने के विचार भी उसके मन मे आए थे। किंतु धीरे-धीरे मैडम की बातें उसकी समझ में आने लगी। उनकी आवाज बहुत मीठी थी। वह समझाती भी बहुत अच्छी तरीके से थी। उसकी स्कूल में, साथ-साथ पढ़ाई में रुचि बढ़ गई। यहाँ मैडम जो पढ़ाती थी, उसे घर जाकर अपनी माँ, पक्या, रंजी को समझाने का वह प्रयास करता। शुरू में सर्जा की गंदी नाक, आँखें, बिखरे बाल देखकर मैडम उसे साफ करती। लगभग सभी बच्चे ऐसे ही गंदे थे। धीरे-धीरे सभी बच्चों में मैडम ने साफ-सुथरे रहने की आदत डाल दी। सर्जा को भी अपने गंदे रूप पर शर्म आने लगी। वह अपनी माँ से नहलाने के लिए जिद्द करने लगा। सार्वजनिक नल पर सबेरे-सबेरे बहुत भीड़ होती। पानी भरने के लिए हाय-तौबा मचती। माँ के पास हर रोज उसे नहलाने के लिए समय कहाँ? बीड़ियाँ कम बँधी गई तो? बाकी दो बच्चे, बूढ़ी सास को दिन में एक बार रोटी, सब्जी, चावल की माड़ इतना तो देना चाहिए न? वो गुस्से में कहती, ‘मेरे पास टाईम नहीं हैं। स्कूल जाना है, तो जा। नहीं तो छोड़ दे। फोकट की किचकिच…। नहाना है, तो नल के नीचे बैठ जा।’ वह नल के पास नहाने जाता, तो बाकी पड़ोसी झगड़ने लगते। उन्हें पानी भरना होता और घर का भरा हुआ पानी माँ नहाने के लिए नहीं लेने देती। माँ उस पर बरस पड़ती और बीड़ियाँ बाँधने बैठ जाती। बूढ़ी दादी कभी गुस्से से कभी शांति से रोटियाँ बनाने लगती। लकड़ी चूल्हे में डाल के फूँ-फूँ-फूँककर वह चूल्हा जलाती और वह छोटा सा कमरा पूरी तरह धुएँ से भर जाता। पक्या, रंजी गंदा मुँह लेकर कभी झगड़ते, तो कभी प्यार से बातें करते घर से बाहर जाते। उखड़ी हुई जमीन, पपड़ी निकली दीवारोंवाला घर, विरान, उसमें रहनेवाले लोग भी मैले-कुचैले, झगड़ालू…किसका फोटो भेजे? और कैसे? क्या सोचेंगे वे लोग? वहाँ का जिमी का घर भी कितना साफ-सुथरा होता है। बस! वर्दी पहन के ऑटो चलाते वक्त बापू बड़ा रोबिला दिखता है। एक बार उसे कहना चाहिए कि उसकी फोटो मैडम ने माँगी है। किंतु इतना करने को अवसर कहा मिलता है? वो घर में होता ही कहाँ है? कभी रात में आता, तो बड़बड़ाना शुरू कर देता। गालियाँ बकता। माँ से झगड़ता। माँ उससे किसी कोठीवाली का नाम लेकर गालियाँ देती। झगड़ती है। दोनों के झगड़े से नींद खुलती है। बाप चिल्लाता है, ‘बक-बक बंद कर।’ कभी लातें-घुसे जड़ा देता है। कभी-कभी बच्चे रोने लगते हैं, तो उनको भी थप्पड़ मिलती है।

कल बापू खुश था। कल उसे फोटो के बारे में कहना चाहिए था। पर रह गया। अब फिर जब बापू घर आएगा, तो पहले फोटो के बारे में ही बोलूँगा। सर्जा ने निश्चय किया।

आज सुबह से सर्जा बहुत उतावला हो रहा था। सोच रहा था, कब नौ बजेंगे और उसे ब्लँकेट मिलेगा। बड़े तड़के से वह अपनी माँ के पीछे पड़ा था। ‘माँ जल्दी चल! नहीं तो ब्लँकेट खत्म हो जाएँगे।’ स्कूल में सुबह नौ बजे बुलाया था, पर सर्जा आठ बजने के पहले से ही उसके पीछे पड़ा था। ‘माँ जल्दी चल…जल्दी चल!’ जल्दी चलने की इतनी रट लगाई थी उसने, कि माँ को कुछ सूझने ही नहीं देता। माँ कह रही थी, ‘हमीदभाई की दुकान से बिड़ी बाँधने का सामान ले आओ, फिर स्कूल चलेंगे।’ किंतु सर्जा ने एक न मानी। आखिर हारकर माँ ने पड़ोसन से कहा, ‘रेशमा…, जरा मेरे लिए भी बीड़ियों का सामान ले आना। मुझे सर्जा के स्कूल में जाना है।’ फिर सर्जा के साथ वह स्कूल में चली गई।

प्रार्थना हॉल में काफी भीड़ जमी हुई थी। हर कोई अपनी माँ, दीदी, दादी, चाची, मौसी, भाभी किसी न किसी को ले आया था। ब्लँकेट बाँटने के लिए मैडम रेमंड खुद आई थी। पहले आँखें बंदकर प्रभु यीशु की प्रार्थना की गई।

‘मेंढपाल हा प्रभु कधी ने हिरव्या कुरणी मला

कधी मनोरम जलाशयावर घेऊनी मज चालला’

प्रार्थना, उसका अर्थ, उससे संबंधित थोड़ी जानकारी दी गई। मैडम रेमंड का मराठी में बात करना, उनका उच्चारण सुनकर सर्जा और उसके दोस्तों को हमेशा हँसी आती, पर आज वे सारे गंभीर थे। अगर हँसी फूटी और पनिशमेंट मिली तो…इसके कारण ब्लँकेट मिला ही नहीं तो? सब का ध्यान ब्लँकेट के ढेर पर लगा था। मैडम रेमंड कह रही थी, ‘प्रभु, तुम्हारी कृपा, तुम्हारा प्रेम हम पढ़ानेवालों में भी आ जाए। अगर हमसे कोई भूल हो गई, तो हमें क्षमा करें। हमें आप अपनी शरण में ले लें।’ मैडम ने जो कहा, कुछ औरतें ही समझ पाईं। यह रोज का परिपाठ था। इसके बाद हर एक छात्र का नाम पुकारते हुए, उनके साथ आए हुए अभिभावक के हाथ में ब्लँकेट दिए गए। मैडम रेमंड ने कहा, ‘ब्लँकेट्स बच्चों के जर्मनी के पेरेंट्स ने भेजी है। आप उन्हें थैंक्यू का लेटर जरूर लिखना। आपलोग कार्ड्स यहाँ ले आओ। बच्चों की टीचर लिख देगी।’ सभी ने गर्दन हिलाकर ‘हाँ’ कहा और ब्लँकेट्स लेकर निकल पड़े।

सर्जा को गुलमोहर के फूलों के रंग का लाल ब्लँकेट मिला था। माँ जब घर से निकली, तब सर्जा ने बार-बार कहा, ‘माँ कल जो धोती धो कर रखी है ना, उसमें ये ब्लँकेट अच्छी तरह लपेट के रखो, नहीं तो गंदा हो जाएगा।’ सर्जा स्कूल छूटने के बाद स्कूल से घर जानेवाला था न! माँ ने ‘हाँ’ कहा और चल दी। उसकी नजरों के सामने तंबाकू का ढेर और तेंदू के पत्ते घूम रहे थे। ब्लँकेट से ठंड कम हो जाएगी, किंतु भूख? उसे मिटाने के लिए कुछ गीला-सूखा रोटी का टुकड़ा दो बच्चों की थाली में परोसना ही होगा न? और उसके लिए बीड़ियाँ बाँधनी होगी।

आज स्कूल में सर्जा का मन नहीं लग रहा था। कब घर जाऊँ और ब्लँकेट ओढ़कर बैठूँ, ऐसा हो रहा था। ब्लँकेट ओढ़ने के लिए वह बहुत उतावला था। डेव्हिड के कमरे में ऐसा ही ब्लँकेट उसने फोटो में देखा था। ज्योबाबा ने मेरे लिए वैसा ही ब्लँकेट भेजा है, सर्जा के मन में विचार आया।

पाँच बजे स्कूल की छुट्टी हो गई। सर्जा घर की ओर दौड़ पड़ा। उस वक्त ठंड तो इतनी नहीं थी, किंतु सर्जा ब्लँकेट ओढ़े बैठ गया। शाम हो चुकी थी। माँ ने सर्जा से हमीदभाई के पास बीड़ियों का बंडल पहुँचाने के लिए कहा, किंतु सर्जा, ब्लँकेट के बाहर आने का नाम ही नहीं ले रहा था। उसके साथ पक्या और रंजी भी ब्लँकेट में धुसे थे। आखिर माँ उन्हें गालियाँ देती-देती, खुद जाकर बीड़ियाँ पहुँचा के आई। सामनेवाली जोशी चाची ने थोड़ी सब्जी दी थी। घर आकर उसने रोटियाँ बनाई। टीन की थाली में रोटी सब्जी परोसकर एक थाली सास के सामने टिकाई और बच्चों को खाने के लिए पुकारा। पक्या और रंजी तो आ गए, पर सर्जा को आज भूख नहीं थी। उसका पेट ब्लँकेट में बैठने से ही भर गया था। ब्लँकेट की गरमी तो थी ही, साथ में उसे इस बात की भी खुशी थी, कि वह अपना कुछ पक्या और रंजी को दे रहा है।

कुछ समय यों ही बिता। दरवाजे पे ऑटो की आवाज आई। बापू आया था। शराब के नशे में धुत…बड़बड़ाता हुआ। ‘हरामजादी साली…अपने को क्या समझती है? बोलती है, आना है, तो साड़ी लेकर आ। आज कोई ग्राहक नहीं मिला। आज नहीं तो कल दे देता, किंतु नहीं…बाजारू औरत तुम्हें साड़ी की जरूरत ही क्या है? देखना तुझे भरी सभा में द्रौपदी बनाता हूँ।’ वह नशे में अनाप-शनाप बातें करता रहा। उस छोटी सी जगह में शराब की बदबू फैल गई। सर्जा ने ब्लँकेट सिर के ऊपर तक ओढ़ लिया।

‘जल्दी से खाना दो।’ वह अकारण ही रूक्मी पर, सर्जा की माँ पर बरस पड़ा। रूक्मी ने थाली में रोटी, सब्जी परोसकर थाली उसके सामने रख दी। तीन रोटियों पर हाथ मारते वह लड़खड़ाते पैरों से हाथ धोने चला गया। दरवाजे के सामने हाथ धोकर, कुल्ला करके गले से भद्दी आवाजें निकालकर, गाते-गाते वह अंदर आ गया। अंदर आते-आते, सर्जा के ब्लँकेट में उसका पाँव अटक गया और वह नीचे दरी पर गिर पड़ा। उसके दाँत होंठों में घुस गए। ‘साला, हरामी बीच में सोया है’, चिल्लाकर उसने सर्जा को लात मारी, तभी उसके पैरों को किसी मुलायम चीज़ का स्पर्श हुआ। ‘ब्लँकेट? किसने दिया?’ उसकी आँखें चमक उठी। साड़ी लेने के लिए आज पैसे नहीं थे, लेकिन ये ब्लँकेट नसीमा को दिया तो?…खुश हो जाएगी मेरी रानी! बाहर ठंड…अंदर नरम, गरम बिस्तर…ऊपर से यह नरम, गरम ब्लँकेट…उसके बीच में कसकर लिपटा हुआ नसीम का मुलायम, नरम, गरम बदन…कितना मजा आएगा।’ उसके मुँह से लार टपकने लगी।

बापू सर्जा के बदन से ब्लँकेट खिंचने लगा। ‘मुझे दारू के लिए पैसे चाहिए’, वह चिल्लाने लगा।

‘अब मुझे ही बेच डालो।’ अंदर से रूक्मी चिल्लाई।

तुम्हें बेचकर शराब की चार बूँदें भी नहीं आएगी! औरत है या लकड़ी?…ये ब्लँकेट ही बेच देता हूँ।’ सर्जा के ऊपर से वह ब्लँकेट खिंचने लगा।

‘यह ब्लँकेट मेरा है। मुझे स्कूल में मिला है। मेरे जर्मनीवाले डैडी ने मुझे उधर से भेजा है।’ अपनी पूरी शक्ति से सर्जा ने ब्लँकेट कसकर पकड़ लिया।

‘तुम्हें इससे क्या करना है? अब सर्दी भी नहीं है। मुझे पैसे चाहिए। मैं इसे बेचूँगा।’

‘मैं नहीं दूँगा।’ सर्जा के दाँत उसके होंठों में भींच गए थे। वह ब्लँकेट कसकर पकड़ के खड़ा रहा था।

‘बच्चे को कुछ देना तो दूर…उसकी ही चीज़ ले रहा है। बाप है, या हैवान…’ रूक्मी झगड़े पर उतर आई।’

‘तू चूप बैठ बे!’ बापू ने उसे जोर से चाँटा मारा, तो रूक्मी रोने लगी।

‘तू रो-धोकर तमाशा मत कर। मैं ये ब्लँकेट लेकर ही रहूँगा।’

‘उस रंडी को देने के वास्ते ही चाहिए होगा, और क्या?’

‘इससे तुझे क्या लेना-देना?’

‘मुझे नहीं तो दूसरे किससे है? बेटा मेरा है। ब्लँकेट उसका है। तू तो कुछ नहीं देता। दूसरे ने दिया, वह भी छीन रहा है। हरामी…’

सर्जा का बापू कहाँ सुननेवाला था? उसने सर्जा के हाथों से ब्लँकेट छीन लिया। सर्जा ने बापू की कलाई पर जोर से अपने दाँत गड़ाए। बापू ने उसे इतनी जोर से थप्पड़ मारी, कि सर्जा तिलमिलाया। उसका हाथ ब्लँकेट से छूट गया। मौका साधकर ब्लँकेट ले के बापू बाहर भागा। रक्मी ने आगे बढ़कर ब्लँकेट पकड़ लिया, किंतु बापू ने उसे इतनी जोर से ढकेल दिया, कि वह दिवार से सटकर गिर पड़ी। उसे चोट आई। गुंबा निकल आया। पिछली सीट पर ब्लँकेट रखकर बापू ने ऑटो स्टार्ट की।

‘मेरा ब्लँकेट…मेरा ब्लँकेट…’ सर्जा चिल्ला चिल्लाकर रोने लगा।

बापू की ऑटो दूर चली गई। सर्जा घर की दहलीज पर बैठकर रोने लगा। उसे ब्लँकेट भेजनेवाले ज्योबाबा की, फोटो में दिखाई देनेवाले उनके घर की, ब्लँकेट की याद आई। वह व्याकुल हो गया। दुःखी हो गया। उसे लगा, वह एकदम निराधार हो गया। नंग-धड़ंग…यतीम, अनाथ हो गया है। रो-रोकर वह थक गया। आखिर अपनी माँ की गोद में सो गया। रूक्मी ने अपनी फटी धोती का आँचल उसके बदन पर ओढ़ दिया।

(मराठी से अनुवाद : मानसी काणे)


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