चमक

चमक

इनसान चाहे भी, तो वही नहीं बना रह पाता जो दरअसल वह होता है। कभी परिस्थितियाँ, कभी समय के दबाव और कभी खुद उसकी सनक उस पर चढ़ ही बैठती है। शहर आकर उसने शायद इसीलिए, अपने नाम के साथ गाँव का नाम भी जोड़ लिया था। सैलून के बाहर टँगा उसका बोर्ड हर किसी आने-जाने वाले को आकर्षित कर लेता–के.राम सुपौली हेयर कटिंग सैलून। बोर्ड पढ़नेवाले ज्यादातर लोग सोचते, हो न हो सुपौली कोई ऐसी कास्ट होगी जिसके बारे में उन्होंने पहले कभी सुना ही न हो। कोई-कोई तो जिज्ञासावश उससे पूछ भी लेता, तो वह बताता–‘अजी आप कैसी बात कर रहे हो! ये मेरी जात का नहीं, गाँव का नाम है। शहर आ के क्या अपना गाँव भुला दूँ?’

जिज्ञासु बात आगे बढ़ाता, ‘चलो, सुपौली तो तुम्हारे गाँव का नाम हो गया। और के. राम का क्या मतलब हुआ?’

‘बात ये है जी, कि गाँव में मेरा नाम था–ख्याली। ख्यालीराम। यहाँ आया तो मेरा जैसा नाम किसी का देखा न सुना। कोई-कोई तो मेरा नाम सुनकर ही हँसने लग पड़ता था। तब फिर मैंने अपने नाम का शॉर्ट फॉर्म बना लिया–के.राम। अब तो यही चल पड़ा है। असल नाम आपको अब मेरे सर्टिफिकेट में ही मिलेगा।’ दीवार पर लगे बड़े शीशे पर जिस किसी की नजर अपना चेहरा देखने को जाती, उसे बाईं ओर नजर आता एक ग्रेजुएट प्रमाण पत्र जिसे के.राम ने मढ़वा कर सैलून की पिछली दीवार पर टाँग दिया था। यह सन् 2010 में इग्नू से द्वितीय श्रेणी में पास करने की ऐसी सनद थी जो सुपौली में हर किसी के लिए बड़े सम्मान की खबर बन गई थी। इससे पूर्व गाँव में किसी ने सोचा भी नहीं था कि दिल्ली जाकर यह सम्मान भी हासिल किया जा सकता है!

ग्रेजुएट हो जाने के बाद के.राम उर्फ ख्यालीराम ने सरकारी नौकरी के लिए बहुत हाथ-पाँव मारे, पर उसे हर जगह हताशा ही हाथ लगी। जल्द ही वह समझ गया कि सिर्फ एप्लाई कर देने से नौकरी नहीं मिल जाती, उसके लिए अतिरिक्त वजन भी चाहिए होता है। वजन, जो इस उम्र में तो जुटा पाना उसके लिए कतई संभव नहीं है।

गाँव लौट कर फिर पहले की तरह जुट जाने का मन उसका कतई नहीं था। वह शहर में ही रह कर कुछ ऐसा करना चाहता था जिससे वह एक सीमित कमाई के दायरे से बाहर निकल सके। बहुत सोच-विचार करने के बाद उसने एक छोटी-सी दुकान किराये पर ले ली और उसमें अपना एक सैलून खोल बोर्ड टाँग लिया–के.राम सुपौली हेयर कटिंग सैलून।

शुरू-शुरू में उसे घबराहट जरूर हुई कि पता नहीं दुकान का किराया भी निकल पायेगा या नहीं, पर फिर धीरे-धीरे खुद-ब-खुद एक सिलसिला ही बनता चला गया। इतने लोग आने लगे कि उसे बाकायदा सबका नंबर लगाना पड़ता। अपनी बारी का इंतज़ार करने वालों के लिए उसने एक अखबार भी बँधवा लिया। भीड़ कम करने के लिए उसने बच्चों की हेयर कटिंग का बिलकुल अलग समय तय कर लिया। उस वक्त वह बड़ों के बाल तभी काटता जब बच्चे वहाँ मौजूद न होते। काम चल निकला, तो अच्छी-खासी आमदनी होने लगी। ऐसे में के.राम को बापू की बात अक्सर याद आने लगी–‘अपने हाथ का काम अपना ही होता है। कम से कम किसी दूसरे का मुँह तो नहीं देखना पड़ता!’

वैसे तो के.राम की व्यस्तता इतनी बढ़ गई थी कि अपने लिए वह वक्त ही न बचा पाता, लेकिन कभी कोई बहुत जरूरी काम पड़ ही जाता, तो वह सैलून बंद कर, नोटिस लगा निकल जाता। कभी-कभी खाली वक्त में के.राम की नजर अपने सर्टिफिकेट की तरफ चली जाती तो उसे लगता, और जो हो सो हो, लेकिन इस इलाके के लोग बाल बनाने वालों में उसे सबसे ज्यादा इज्जत की नजर से तो देखते ही हैं। शहर है तो क्या, यहाँ सारे के सारे लोग पढ़े-लिखे थोड़े ही हैं!

दुनिया में ऐसे बहुत कम लोग होंगे जो दूसरों के साथ बातचीत में खुद को ऊपर रख के न देखना चाहते हों। और अगर इस बीच कोई काम भी सध जाए, तो फिर कहने ही क्या! के.राम कटिंग कराने आने वाले के स्टैंडर्ड के हिसाब से ही बातें करता। वे भी खूब खुश रहते कि के.राम जैसा उन्हें और कोई मिल नहीं सकता। इसकी कई वज़ह थीं। एक तो के.राम का मिलना-जुलना हर तरह के इनसान से था, लिहाजा उसे हर तरह की जानकारियाँ रहतीं। दूसरे, आधार कार्ड, वोटर आईडी, पैन कार्ड, वैक्सीन, आँगनबाड़ी, सरकारी स्कूल, डिस्पेंसरी, राशन आदि से लेकर दुनिया-जहान तक की हर समस्या का हल उसके पास रहता। जाने कितनों के काम वह अपने संपर्कों से चुटकी बजाते ही करवा डालता।

के.राम को एक खुशी इस बात की भी थी कि गाँव में अब उसका छोड़ा काम-काज उसका चचेरा भाई देख रहा है। जब तक वह अपने पाँव शहर आने लायक मजबूत करेगा, तब तक कोई और गाँव में उसका काम सँभालने को उठ खड़ा होगा। गाँव तो गाँव है, फसल अच्छी हो गई तो सब खुश। फसल बिगड़ गई तो सब चौपट। इसलिए हर किसी को अपने अच्छे दिनों की तलाश में शहर आना ही होगा और शहर आना है, तो फिर थोड़ा पढ़ा-लिखा होना भी जरूरी है। के.राम जब कभी गाँव जाता, अपने घर और आसपास के बच्चों को यही समझाता। बच्चे उसकी बातें बड़े ध्यान से सुनते और उनके मन में उस जैसा ही बनने की इच्छा बलवती हो उठती। ऐसे में वह बच्चों से कहता–‘अरे, मुझे क्या देखते हो! देखना ही है तो कभी मेरे सैलून पर आकर मेरा सर्टिफिकेट देखो जिसमें मेरा नाम भी छपा हुआ है। बच्चे हसरत भरी निगाह से के.राम उर्फ ख्यालीराम को देखते और सोचते, कभी मुमकिन हुआ तो दिल्ली जाकर उसके सैलून में टँगा सर्टिफिकेट जरूर देखेंगे। वे सपने देखने लगते कि एक दिन उनके पास भी उस जैसा सर्टिफिकेट हो जाएगा। ठीक ही तो कहते हैं ख्याली भैया–पढ़ने से ज्ञान ही नहीं, इज्जत भी मिलती है। और इज्जत है, तो जिंदगी है!

इज्जत की जिंदगी के.राम को बैठे बिठाए, थोड़े ही मिल गई थी! उसने गाँव में बापू को कटिंग करता देख-देख कर ही काम सीख लिया था। वह समझ गया था कि काम में बरक्कत तभी आती है, जब इनसान खुद अपना काम करना शुरू कर देता है। जाने क्या हुआ उस रोज कि उसने न सिर्फ बापू का काम सँभाल लिया, वह नई-नई तरकीबें भी सोचने लगा। जब-जब कोई नई बात उसके दिमाग में जोर मारती, वह सोचता–‘पता नहीं लोग क्या कहेंगे!’ तभी भीतर से एक आवाज आती–‘जब तेरा मन कह रहा है, तो फिर कर डाल, सोच मत।’ बस, फिर वह अपना सोचा अमल में ले आता। वह इस बात से संतुष्ट था कि उसकी तरकीबें माँ के साथ-साथ बापू को भी पसंद आ रही हैं।

जिंदगी में इनसान खुद कुछ न कर पाए तो उसे इतना मलाल नहीं होता, जितनी खुशी उसे अपनी संतान की कामयाबी देखकर होती है। बेटे की तरकीब देखकर रतीराम सचमुच बहुत खुश था। खुद ख्याली भी खुश था कि उसके कारण गाँव की जिंदगी में एक बड़ा बदलाव आ सका। गाँव में अब हर कोई अपने वक्त और मेहनत की कीमत आँकने लगा है। लोहे, लकड़ी, चमड़े और मिट्टी का काम करने वाले ही नहीं, तमाम तरह की मजदूरी करने वाले भी छाती तान कर चलने लगे हैं। इन मेहनती लोगों ने जैसे ही ख्याली की सोच की राह पकड़ी, गाँव वाले जब तक कुछ समझ पाते, तब तक बहुत कुछ दबे पाँव बदल चुका था।

हर मौसम में वे सब दो-एक बार घर-घर जाकर अपना काम कर आते, लेकिन इसके अलावा कोई उन्हें बुलवाता तो वह अलग से अपना मेहनताना माँगने लगते। थोड़ी-सी ना-नुकर तो ज़रूर होती, पर फिर थक हार कर सब मान ही जाते। मेहनत करने वाले खुद हैरान थे कि आखिर यह सब उनके दिमाग में पहले ही क्यों न आ गया! ख्यालीराम ने रास्ता न दिखाया होता, तो वे तो जाने कब तब उसी पुरानी रवायत पर चले आते।

इधर वे सब अपनी इस उपलब्धि पर हैरानी भरी खुशी में डूब-उतर रहे थे और उधर उन्हें नई राह दिखाने वाला ख्यालीराम बन चुका चुका था–के.राम सुपौली। शहर आकर उसने एक नई ही चाल अपना ली थी। यह चाल उसने अपना जरूर ली थी, पर यह काम कुछ ही दिनों में थोड़े ही हो गया था! अब भी जब-जब उसे वक्त मिल पाता, वह गाँव के अपने इन दिनों को ज़रूर याद करता रहता। उसका गाँव था ही ऐसा। फसल-फसल पर मेहनतकशों को अनाज देकर गाँव वाले सोच बैठते थे कि जब-जब चाहो, जितने लोगों के लिए रतीराम जैसों को बुलवा लो। उसका बेटा ये देख के हैरान था कि बापू हर रोज़ किसी-न-किसी के बुलावे पर कभी दाढ़ी तो कभी बाल बनाने को निकल पड़ता। काफी देर बाद घर लौटता, तो खाली हाथ। ऐसे में माँ से उसकी बकझक हुए बगैर न रहती।

‘आज फिर ऐसे ही टिरका दिया तुम्हें!’ माँ पूछती। बापू का जवाब होता, ‘अरे अनाज तो फसल पै सब दे ही चुके हैं न!’

गाँव में किसी के घर बारात आए, कहीं मुंडन या अन्नप्राशन हो, गमी हो जाए या किसी और वज़ह से बुलौवा देने का कोई काम आ जाए, तब भले ही हाथ में कोई चार पैसे थमा दे तो थमा दे, वरना रतीराम यही सोचता रहता–ये जिंदगी भी कोई जिंदगी है राम जी!

पढ़ाई-लिखाई अगर हमें किसी काम को छोटा या बड़ा सिखाने लगे, तो वह बेढंगी तालीम है। न कोई काम छोटा होता है और न कभी उसे करने वाला।

एक दिन रतीराम चौधरी रामफेर के बुलाने पर औजार का बक्सा लेकर निकल ही रहा था कि उसका बेटा जिद पकड़ बैठा–‘बापू, अब से मैं भी तुम्हारे साथ जाया करूँगा। मैं भी देखूँगा, कैसे काटते हो तुम सब के बाल!’

‘अरे तुझे मेरा काम देखने से क्या मिलेगा! तू तो अपना सुकूल और पढ़ाई-लिखाई देख।’ रतीराम ने बेटे को जता दिया कि वह कतई नहीं चाहता कि उसका बेटा भी वही काम करे, जो वह और उसके बाप-दादा-पड़दादा करते चले आए थे। आखिर रखा ही क्या है इस काम में! पेट भर चून-चावल भी नसीब हो जाए, तो गनीमत समझो! अपनी इस सोच के फेर में पड़ा रतीराम यह समझ ही नहीं पाया कि ख्याली के दिमाग में उस वक्त कौन से घोड़े दौड़ रहे थे! घोड़े इतना पुरजोर दौड़ लगा रहे थे कि बेटा ज़िद ही पकड़ गया। बेटा जिद पकड़ गया, तो फिर बाप ने हार मान ली, ‘तो फिर ठीक है बेटा, चल। जैसी तेरी मरज़ी।’

उस दिन जो शुरुआत हुई, तो फिर जब-जब ख्याली को स्कूल से फुरसत होती, वह काम के वक्त बापू के साथ हो लेता।

बापू दाढ़ी बनाता, बाल काटता, नाखून काटता। कहीं-कहीं वह बगल के बाल भी काटता और मालिश भी करने लगता। उसके हाथ मशीन की नाईं चलते, वह पसीना-पसीना हो आता, पर क्या मजाल कि कभी उसके चेहरे पर जरा-सी शिकन भी नजर आ जाए! हर घर में तो नहीं, पर कहीं-कहीं रतीराम के साथ ख्याली को भी चाय-पानी मिल जाता। उसे अपने बापू के साथ आया देख, अक्सर लोगों के मुँह से यही निकलता, ‘अरे ख्याली, तू भी सीख ले न अपने बापू का हुनर! कम से कम उसके काम में तो हाथ बँटाएगा!’

उनके मुँह से भले निकलता हो, रतीराम हमेशा यही कहता–‘अजी आप उसे चार अक्षर पढ़ लेने दो अभी। काम करने को तो फिर सारी उमर पड़ी है…।’

ख्याली न बापू की बातों पर ध्यान देता और न बड़े लोगों की। वह तो बस ये देखता कि बापू के हाथ की कैंची लोगों के सिर के बालों पर कंघी के साथ-साथ कैसे नाच रही है! उस्तरा हाथ में आ जाए, तो बापू कैसे कलमें निखार के रख देता है। दाढ़ी सँवार देता है, मूछें सुधार देता है! और उसकी बातें, बाबा रे बाबा, जो सुनता उसके बतरस में खोकर रह जाता। जाने कितने तो किस्से याद थे बापू को गाँव के हर खानदान के! चौधरियों के कई घरों पर तो रतीराम के पहुँचते ही अजब सीन देखने को मिलता। उसकी आमद उसकी आवाज़ से ही जाहिर हो जाती थी, लिहाज़ा जिसे देखो, वही पोजिशन लेता नजर आ जाता, ताकि किस्सा जरा इत्मीनान से सुन सके। रतीराम कुछ कह पाता, इससे पहले ही कोई आवाज कहती, ‘हाँ भई रतीराम, आज क्या नया बताने वाला है हमारे खानदान के बारे में।

ये वे लोग थे जिन्हें रतीराम की कहन में बड़ा मजा आता था। ऐसा भी नहीं कि रतीराम मनगढ़ंत किस्से सुना जाता हो, उसे घर-घर की कई पीढ़ियों की पक्की खबर रहती थी! जो घटनाएँ उसकी आंखों देखी और कानों सुनी थीं, सो तो थीं ही, वह ऐसी भी कई घटनाएँ इसी तरह सुनाता जो उसके दादा-परदादा के वक्त में घटी हों। किस्सा कहने की यह कला उसने अपने दादा से सीखी थी। रात का खाने के बाद वह जब पोते के साथ खुले आसमान के नीचे बिछी खाट पर लेटते तो कोई न कोई किस्सा गाँव का जरूर छेड़ देते। खूब रस ले-ले कर रतीराम भी जब बाल बनवाने वालों को किस्से सुनाता तो यह भूल ही जाता कि घर से निकले हुए उसे कितनी देर हो चुकी है! यह तो उसे कभी याद ही न रहता कि ख्याली के पेट में जाने कब से चूहे कूद रहे होंगे। भूख पर उसकी तरह काबू रखना सीखने में तो अभी उसे वक्त लगेगा!

रतीराम तो खैर जो सोचता सो सोचता, लेकिन इस बीच ख्यालीराम को पिता की कई हरकतें बड़ी नागवार गुजरतीं। उसे बड़ा हीन भाव महसूस होता, जब वह यह देखता कि बापू बेबात ही दूसरों से दबता चला जा रहा है। दबता ही नहीं, कभी-कभी तो वह उनकी खुशामद भी करने लगता है। लेकिन कभी जब वक्त पड़ने पर वह किसी से अपने लिए कुछ करने को कहता है तो वे बड़ी बेहयायी से इनकार कर देते हैं। ऐसे में रतीराम भले ही खीसें निपोरकर रह जाता, पर ख्यालीराम को लगता कि वह अपने गुस्से पर अब और काबू नहीं रख पाएगा। उसे यह देखकर बड़ा अफसोस होता कि जिन लोगों के काम में बापू दिनभर खटता रहता है, उनके दिलों में उसके लिए आखिर कोई जगह क्यों नहीं है? क्या उसका बापू इनसानियत के नाते भी कोई हक नहीं रखता!

अपमान बर्दाश्त करने वाला कभी स्वाभिमानी नहीं बन सकता। सच तो यह है कि किसी का भी अपमान होते देखना बर्दाश्त करना एक बड़ी कमजोरी है। यही सोचकर एक रोज तो उसका गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुँचा जब उसने प्रधान के बेटे को बापू पर आँखें तरेरते हुए देखा। उस रोज जाने किस झोंक में रतीराम ने प्रधान के बेटे से हिम्मत करके कह ही दिया था कि इस बेर तुम्हारे यहाँ मेहमान कुछ ज्यादा ही आ रहे हैं। इतने ज्यादा लोगों की बाल और दाढ़ी बनवाई का तो उसे अलग से मेहनताना मिलना चाहिए! इतना सुनते ही प्रधान का बेटा उबल पड़ा, ‘तेरा मुँह अब कुछ ज्यादा ही खुलने लगा है रतीराम! क्या समझता है कि तू नहीं बनाएगा, तो और कोई ठौर नहीं हमारे लिए। अभी हरकारा भेज दूँ तो यहीं दरवज्जे पे हाज़िर हो जाएँगे दसियों बाल बनाने वाले, समझा!’

प्रधान के बेटे की बात बापू भले ही सिर झुका, सुनता रहा, पर ख्यालीराम का दिमाग भन्ना गया। चुभने वाली बात उसे यह भी लगी कि प्रधान के बेटे ने बापू की उमर का भी कोई ख्याल न रखा। यही वह लम्हा था, जब उसने सोच लिया था कि बापू को आज के बाद काम पे नहीं जाने देगा। अपना काम करते हैं, बेइज्जती क्यों सहें! बापू का काम अब वह खुद सँभाल लेगा। पढ़ाई भी साथ-साथ चलती रहेगी। आगे की परीक्षाएँ प्राइवेट दे लेगा। बस, वह यह सोचता रहा कि बापू से कब और कैसे अपनी यह बात कहे!

उस रोज बापू ने घर लौट कर नहा धोकर खाना खाया और खटिया पर लेट गया। ख्याली भी मूढ़ा सरका के उसी की खटिया के पास जा बैठा। बापू आसमान की तरफ जाने क्या ताके जा रहा था!

‘तुम हरदम ऊपर की तरफ देखते रहते हो बापू, इसीलिए तुम्हारी समझ में नीचे की बातें ना आतीं। जिसके जो आता है मन में, वह तुम्हारे मुँह पर बक जाता है और तुम सिर झुका, चुपचाप सुनते रहते हो। बापू, तुम मेहनत करते हो, बदले में वे लोग अपनी मर्जी से मेहनताना अदा करके सोचते हैं कि बड़ा भारी उपकार कर दिया तुम पर!’ रतीराम को लगा, बेटा जो कह रहा है, वह उसके कहीं ठिकाने पर आकर लगा है। उसने उठंग होकर एक बार बेटे के चेहरे की तरफ देखा और बाँह मोड़ अपनी आँखों पर ढाँप ली, फिर चुपचाप लेटा रहा। वह सोच रहा था–बेटे का जवान खून उबाल मार रहा है, थोड़ी देर में अपने आप ठंडा हो जाएगा। पर ख्याली तो इस बीच बहुत कुछ सोच-समझ चुका था, ‘देखो बापू, अब चलो बहुत काम कर लिया तुमने। अब कभी-कभार कोई न्यौता देना हो, तो भले चले जाना, लेकिन दाढ़ी और बाल बनाने को तो अब मैं तुम्हें जाने ना दूँगा। ये सब तुम मेरे जिम्मे छोड़ दो।’ यह सुनना था कि रतीराम उठकर बैठ गया। उसने इस बार भरपूर नजर बेटे पर डाली और फिर उसकी माँ को पुकारने लगा–‘अरी सुखवंती, जरा सुन तो, तेरा बेट्टा क्या कह रहा है!’

‘ठीक ही तो कै रहा। अब के मरने तलक हाड़ घिसते रहोगे दूसरों की चौखट पर जा-जा कर। ख्याली जब खुद कै रहा है तो करने दो उसे’–सुखवंती तो पहले से ही तैयार बैठी थी जैसे।

एक व्यक्ति समूची दुनिया भले ही न बदल सकता हो, लेकिन अपने इर्द-गिर्द की दुनिया को हर कोई प्रभावित कर सकता है। ख्याली ने बापू की जिम्मेदारी क्या सँभाली, गाँव का पूरा ढर्रा ही बदल दिया। वह जिसके घर जाता, पूरे मन से लग कर काम करता। पर आते वक्त बता आता–‘आपका दिन तय करके बता दूँगा, जिस रोज नंबर होगा, उस रोज घर के सारे मर्द और बच्चे एक साथ मिल जाएँ। नहीं तो अलग से बुलाने पर मेहनताना भी अलग से लगेगा। तब एक कटिंग का पूरा एक रुपैया देना पड़ेगा। गाँव में चालीस घर हैं, हर बखत मैं कटिंग ही करता रहा तो फिर अपनी पढ़ाई कब करूँगा?’

गाँव के सब लोग ख्याली के काम से बड़े खुश थे। एक तो वह बातें कम और काम की करता और बेवजह किसी की चिरौरी कभी न करता। अपने काम से काम रखना और काम पूरा होते ही चल देना ख्याली का ऐसा स्वभाव था कि छोटे-बड़े सब धीरे-धीरे उसके मिजाज से वाकिफ हो चले थे। कटिंग के नंबर वाली बात कई लोगों को पसंद नहीं भी आई, पर उन्होंने ख्याली की बातों को ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया। बल्कि कई लोग तो उसकी बातों की खिल्ली भी उड़ाने लगे–‘लो जी देखो तो, अब कटिंग का भी नंबर लगा करैगा अपने गाँव में!’

एक दिन ख्याली हरिहर पंडित के घर से बाल काटकर लौटा ही था कि उसकी माँ ने बताया, ‘मुखिया के यहाँ से आदमी आया था। कह रहा था–‘बच्चों के बाल बनाने हैं, शाम कू ख्याली को घर भेज दीजो।’

ख्यालीराम ने फौरन कॉपी खोल के देखी। मुखिया के घर का नंबर तो पिछले बुधवार को ही लग चुका था। वह खुद तीन मर्दों के बाल बनाकर आया था। माँ से उसने साफ कह दिया–‘बच्चे हों या बड़े, पैसे तो उन्हें अब अलग से देने ही पड़ेंगे।’ शाम को मुखिया के घर पहुँचकर, बाल काटने से पहले ही उसने अपना नया नियम सुना दिया।

बच्चे एक के बाद एक आते गए और वह बाल बनाता रहा। चार बच्चों के बाल कट गए, तो उसने अपना सामान सँभाला और बोला, ‘जाए अब ला दे बेटा मेरा आज का मेहनताना।’ भीतर बैठे मुखिया ने सुना, तो वह बाहर निकल आया, ‘अरे ले लीजो आज के चार मुट्ठी गेहूँ और जब फसल का टैम आ जाए! तेरे मेहनताने कू मना थोड़े कर रहे ख्याली!’

‘फसल का हिसाब तो तुम फसल के बखत करोगे ही। ये तो अलग से काम करने का नगद मेहनताना माँग रहा हूँ मुखिया जी।’ जवाब में मुखिया कुछ कहना चाहता ही था कि ऐन उसी वक्त प्रधान जी घर में प्रवेश करते दिखाई दिए। उन्हें दरवाजे पर देख मुखिया ने कुर्ते की जेब से शर्माशर्मी दो रुपये निकाले और ख्याली को थमा दिए।

‘नकद पइसा बाल कटाई के कब से देन लगे मुखिया?’ प्रधान ने हैरानी से पूछा। ‘अरे अब आपको क्या बताएँ प्रधान जी, जब से ख्याली ने रतीराम का काम सँभाला है, नए-नए रूल बनाने में लगा है। कहता है–नंबर वाले दिन के अलावा बुलवाआगे, तो नगद मेहनताना अलग से देना होगा!’

‘वक्त-वक्त की बात है जी। इन लोगों को अपनी वोट की कीमत क्या पता लगी, ये तो हमारे ही सर पै नाचन लगे।’

‘इसका अब कोई इलाज भी तो नहीं! और सौ बात की एक बात ये कि ख्याली अपने बाबू जैसा सीधा इनसान भी ना है। साफ़ कहता है कि बाहर से किसी और को बुला के बाल बनवाने की तो सोच भी मत लीजो, सारे बाल बनाने वालों में तय हो चुका है। कोई अपने इलाके से बाहर जा के बाल नहीं बनाने का। किसी ने चोरी-छिपे गलती कर भी दी, तो उसका भी इंतजाम है हमारे पास।’

‘फिर तो भइया, जैसा ख्याली कहै, करते रहो। तुम लोग भी तो यार मेरे इनसान को इनसान ना समझते। हाथ भर लग जाए एक बार कोई, पूरी तरह रगड़ के रख दो उसे। अरे अब वो जमाना ना रहा जमींदारी के रौबदाब वाला भाई।’

देखते-देखते खबर सारे गाँव में फैल गई। मुखिया जी के यहाँ से जब ख्यालीराम नगद मेहनताना वसूल लाया, तो फिर और भला किसकी मजाल थी कि उसे इनकार कर देता! जो-जो घर अपने नंबर पर बाल बनवा लेते, ठीक रहते। जो घर आगा-पीछा करता, उसे अलग से नगद भुगतान करना पड़ जाता। बढ़िया बात ख्याली राम के लिए यह थी कि मंगल के रोज वह किसी के घर न जाता और गुरुवार को बाल बनवाना गाँव वाले खुद ही पसंद न करते। ऐसे में सप्ताह में पूरे दो दिन उसे ऐसे मिल ही जाते जब वह जमकर अपनी पढ़ाई पूरी कर लेता। दूर शिक्षा का पेपर देकर वह इंटर पास कर गया था।

आसमान कितना भी ऊँचा क्यों न हो, उसे छू लेने की आकांक्षा किसी में भी पनप सकती है। ऐसे व्यक्ति को दूसरों की नजर में बस अपने प्रति सहज विश्वास चाहिए और कुछ नहीं। अपने बीच एक पढ़ा-लिखा आदमी पाकर गाँव वाले बड़े खुश थे। वह अक्सर उससे अपनी सरकारी चिट्ठियों के जवाब और फार्म भरवाने चले आते। ख्यालीराम काम तो सबका कर देता, पर यह एहसास कराना न भूलता कि वक्त और मेहनत की एक कीमत होती है, जो मिलनी ही चाहिए। ऐेसे में, जो भी उससे अपना काम कराने आता, कुछ न कुछ देकर ही जाता। इसका फायदा ये हुआ कि रतीराम के घर में अब पहले की तरह किसी चीज की कमी न रहती। जिन लोगों के पास नगद का इंतजाम न हो पाता, ख्यालीराम उन्हें दूध, दही, मक्खन, छाछ, घी और गुड़ जैसी चीजों में से जो उपलब्ध हो, वह पहुँचाने की छूट भी दे देता। इससे उसके घर की तो जैसा छटा ही बदल गई थी। बाहर से आया सामान कभी-कभी इतना ज्यादा हो जाता कि ख्याली की माँ पास-पड़ोस में भी दे आती। अब वह पूरी तरह से संतुष्ट थी। पर ख्याली तो पूरा ख्याली था। उसने अपने सपने और बड़े करने शुरू कर दिए। एक दिन शहर जाकर वह ग्रेज्युएशन का फार्म भर आया।

काम से जो समय बचता, अपनी पढ़ाई में लगा देता। दो-एक बार वह शहर जाकर परीक्षा भी दे आया। उसकी आगे की पढ़ाई गाँव वालों की समझ से बाहर की चीज थी। अक्सर उससे पूछते रहते, ‘अरे भाई, इंटर तो तू कर चुका। अब इसके आगे कौन-सी पढ़ाई कर रहा है?’

ख्याली मुस्करा देता–‘पढ़ाई का कोई अंत थोड़े है ताऊ!’

एक दिन जाने क्या हुआ कि ख्यालीराम ने माँ-बाप को चौंका दिया–‘बापू, अब मैं शहर जा रहा हूँ। रिजल्ट आने वाला है, सोचता हूँ, कोई नौकरी ढूँढ़ लूँ! रुपये-पैसों की फिकर मत करना। मैं शहर से भेजता रहूँगा। और हाँ, मेरा काम अब यहाँ चाची का बेटा मनोज सँभाल लेगा।’

जवाब तो किसी ने कुछ न दिया पर ख्याली ने गौर किया कि बापू और माँ उसे अलग ही चमक वाली आँखों से देख रहे हैं। इस चमक में बेटे के प्रति ऐसा यकीन भरा हुआ था जिसके आगे दुनिया की हर चीज की चमक फीकी थी।


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महेश दर्पण द्वारा भी