ढूँढ़ो ढूँढ़ो रे साजना!
- 1 August, 2024
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- 1 August, 2024
ढूँढ़ो ढूँढ़ो रे साजना!
आज उमा बहुत उदास है। पति के जाने के बाद दो ही सहारे थे ज़िंदगी का सूनापन काटने के–कॉलेज की नौकरी और नेहा। नेहा अब बारहवीं पास करके मुम्बई चली गई। अब तो उसके कॉलेज का एक सेमेस्टर भी खत्म होने को है। लगभग रोज़ फोन पर बात होती थी, इम्तिहान की वजह से आजकल व्यस्त है। दो दिन से उसकी आवाज़ नहीं सुनी, शायद इसीलिए अजीब सा खालीपन कचोट रहा है। शुक्र है, लेक्चरर की नौकरी है वरना तो यह तन्हाई जान ले लेती।
अभी-अभी कॉलेज से लौटी। अपने कमरे में जाने की बजाय ड्राइंग रूम में ही सोफे पर पसर गई है। काँच के स्लाइडिंग डोर के पार आसमान भी धूसर दिख रहा है, न धूप है न बादल। इस गुम से मौसम में उमा भी जाने क्यों गुम हो जाती है धूसर खयालों में, मन भटकने लगता है एक भूल-भुलैया में…ऊहापोह की गुंजल में, जीना बेमानी सा लगता है। आज फिर प्रशांत की कमी शिद्दत से महसूस हो रही है। लंबी साँस खींचकर वो उठी। एक प्याला कॉफी हाथ में थामे नेहा के कमरे का रुख किया। तस्वीर में मुस्कुराती बेटी कह उठी–‘चिलममा! नो डिप्रेशन प्लीज़!!’
उमा हौले से मुस्कुरा दी। ऐसे में नेहा का कमरा ही उसकी सुकून गाह है। उसके मुंबई जाने के बाद भी कमरा जस का तस है। करीने से सजी किताबों, रैक, अलमारी और बड़े से गुलाबी टेडी बेयर में उसकी छुअन और एहसास ताज़ा गुलाब की तरह महकते रहते हैं। जब भी उदास होती है उमा इस कमरे में चली आती है।
उसने नेहा की टेबल की दराज़ खींची और भीतर रखी गुलाबी फाइल निकाल ली। नेहा की यादों का खज़ाना खुल गया। उसकी अनगढ़ हैंडराइटिंग में लिखा पहला कार्ड–हैप्पी बर्थ डे ममा…हैप्पी न्यू ईयर…हैप्पी मदर्स डे…आई लव यू…थैंक यू जैसे दर्ज़नों कार्ड थे। एक सॉरी कार्ड भी था जिसमें आँसू बहाती बच्ची का चेहरा अंकित था, नीचे लिखी तारीख ने दस बरस की नेहा की वो शरारत याद दिला दी। हर संदेश और छोटी-छोटी इबारतें अतीत की खट्टी-मीठी यादों की शक्ल अख्तियार करने लगीं। पिछले छह माह में रंग-बिरंगे अक्षरों में नेहा के भेजे कितने ही सजीले संदेश और चिट्ठियाँ इस उदास शाम में उसकी उँगली थामे बैठी थीं। मानो नेहा ही उसके सुकून का सबब बनी उसके पास आ बैठी हो।
नेहा न होती तो ज़िंदगी बेआब मोती-सी होती, वही तो है उसकी मरुभूमि में बहता एक ठंडा चश्मा। यूँ क्या कमी है जिंदगी में! गाड़ी, बंगला, दो-दो सहायक, ऊँची नौकरी, सुख-सुविधा सब है पर प्रशांत जब से गए सब मिट्टी लगने लगा। नेहा पाँच बरस की थी, जब-जब आँखें बरसतीं अपने नन्हें हाथों से गले में बाँहें डालकर पूछती–‘मम्मा क्या हुआ?’
‘कुछ नहीं बेटा।’ उसके चेहरे पर कागज के फूलों सी मुस्कान फैल जाती।
जैसे-जैसे नेहा बड़ी होती गई, उसके हँसने-रोने-मचलने, कभी रूठने, कभी गलबहियाँ डालने की हरकतों से उसकी मुस्कान में रंग भरने लगे, जीवन में खुशबू लौट आई। पर आज बेतरह नेहा की कमी खल रही है। रात बिस्तर पर भी नेहा साथ चली आई। बंद पलकों में उसके खिलखिलाते चेहरे की घुसपैठ भली लग रही थी। अचानक खिलखिलाहट सिकुड़ने लगी, नेहा की छवि में माँ का अक्स उभर आया।
उसकी माँ…उसने भी तो उस जैसा जीवन काटा है। वह बारह साल की थी और भाई दस का जब अचानक कार दुर्घटना में पापा चले गए। रुपये-पैसे की कमी न थी पर माँ ठहरी घरेलू महिला। उस जैसी पढ़ी-लिखी होती तो बच्चों को अपनी निगाह से दूर न करना पड़ता। पाँच-सात साल दोनों भाई-बहन को दूर शहर मामा के यहाँ रहना पड़ा। बीच-बीच में माँ उनसे मिलने आती, वे दोनों अपने कस्बाई घर में कम ही जा पाते। स्कूली पढ़ाई के बाद कॉलेज के हॉस्टल चले गए, फ़ासला बढ़ा तो माँ से दूरी की उम्र भी बढ़ गई। साल में दो-तीन बार ही मुलाक़ात हो पाती। तब न हाथ में मोबाइल था, न आवागमन की त्वरित सुविधा। आज सोचती है माँ ने कैसे काटा होगा जंगल-सा जीवन और भायँ-भायँ करता एकाकीपन। देर तक वह माँ के चेहरे को ताकती रही, जिस पर वक्त ने उम्र की पगडंडियों का जाल बुन दिया है। ये झुर्रियाँ उसके संघर्ष और एकाकीपन का दस्तावेज़ हैं। दिनभर से बेचैन उमा को फिर मानो माँ की याद ने ही थपथपा कर सुला दिया।
अब यह टेलीपैथी थी या कुछ और, रात इतनी शिद्दत से उसने माँ को याद किया कि हरकारा बनी सुबह विदेश से भाई का संदेश ले अाई। माँ भारत आ रही है। दस दिन उसके साथ ही रहेंगी। आहा, कैसा खुश-गवार संदेश! पूरे पाँच बरस बाद वो माँ से मिलेगी।
राधा को कहना होगा मेरे कॉलेज जाने पर माँ का पूरा ख्याल रखे। वो भी क्लासेज़ एडजस्ट कर के कॉलेज से जल्दी आ जाया करेगी। दस दिन में भोग लेना चाहती है माँ के साहचर्य का सुख। बेटी का कर्तव्य भी निभाना है, माँ के हिस्से का बकाया सुख देकर। जीवन की ढलती साँझ में न जाने फिर कब आना हो, कदाचित ममता का यह मौसम उसके आँगन फिर उतरे ना उतरे…अशुभ सोच आते ही दाँतों से जीभ को काट लिया।
एयरपोर्ट के अराइवल गेट पर नज़र गड़ाए उमा व्यग्रता से माँ की प्रतीक्षा कर रही है। माँ को आता देख पुलकित हो गई…लेकिन इन पाँच बरसों में माँ कितना झड़ गई हैं। पचहत्तर तक पहुँचते-पहुँचते जवानी का वो उजला रंग ताँबई हो गया है, चकर-घिन्नी की तरह घूमते पाँवों का चक्का जाम हो चला है। एयरपोर्ट से बाहर निकली तो उमा की ज़िद के बावजूद व्हीलचेयर लेने से इनकार कर दिया।
‘अरे, अभी इतनी बूढ़ी थोड़े हुई हूँ, देख! चल सकती हूँ।’ उमा को गले लगा कर माँ हँस पड़ी। उनकी धीमी चाल उल्लास की बैसाखी थामे बेटी के साथ कदमताल करने की कोशिश कर रही थी।
माँ का उत्साह देख उमा भी गदगद थी। वह कुछ न बोली। गाड़ी में ज़रूरत भर बातचीत हुई। माँ खिड़की के पार पाँच वर्षों में बदल गए शहर के फ्लाईओवर, मॉल देख-देखकर निहाल हुई जा रही थी–‘अरी उमा, तेरा शहर तो विदेश जैसा होता जा रहा है, बताओ, मेट्रो भी आ गई…अब क्या ज़रूरत है घुमक्कड़ी के लिए विदेश जाने की! अपना देश क्या बुरा है…पिछली बार आई तो इस चौक पर कितना ट्रैफिक जाम होता है, अब देखो कैसे सर्र से गाड़ी निकल गई।’ माँ लगातार स्वगत में ही बोले जा रही है।
विदेश में रहकर माँ कितनी वाचाल हो गई है, पर उमा वैसी-की-वैसी, घर पहुँचने तक श्रोता की भूमिका में ही बैठी रही। शाम घिर आई थी।
‘माँ का सामान नेहा के कमरे में रख दो।’ उसने सहायक को आदेश दिया।
‘हाँ, यह ठीक है! मेरी नातिन पास नहीं, तो उसकी तस्वीर से ही बतियाती रहूँगी।’ नेहा की तस्वीर पर निगाह पड़ते ही नानी चहक उठी। माँ की मुस्कान और बातें उमा को आह्लादित कर रही थीं।
रात का खाना दोनों माँ-बेटी ने साथ ही खाया। माँ को सुलाकर वह भी अपने कमरे में चली गई। कैसे इन दस दिनों में माँ को ज्यादा-से-ज्यादा सुख और आराम दूँ–सोचते उमा कितनी ही ख्याली योजनाएँ बनाने लगी। माँ की चटोरी ज़बान से वह बखूबी वाकिफ़ है। विदेश में तो उसके शौक पूरे नहीं होते होंगे। यहाँ उसे सब तरह के स्ट्रीट फूड खिलाऊँगी–मटके वाली कुल्फी, शुक्ला की चाट, टिक्की और टुंडे कबाब…लालबाग के पानी के बताशे खाएगी तो मुँह में स्वाद का ऐसा चटखारा फूटेगा कि तबियत खुश हो जाएगी। यदि माँ चलना न चाहे तो आर्डर करके घर में ही मँगा लूँगी। सोचकर ही उमा का मन कुलाँचे मारने लगा। खुश-खुश सी सोने की कोशिश में लग गई। अगली सुबह क्या देखती है माँ चाय का प्याला थामे उसे जगाने आई है।
‘अरे माँ! तुम…’
‘पी ले उमा! रोज़ तो खुद ही बनाती है। तूने कहा न, राधा तो नौ बजे आएगी।’ माँ की आवाज़ से शहद झर रहा था।
उमा प्याला रख कर कमरे से बाहर जाती माँ को देखती रही। दोपहर कॉलेज से लौटी तो टेबल सजी थी। माँ आतुरता से खाना परोसने लगी।
‘राधा कहाँ है?’ इधर-उधर खोजी निगाहें दौड़ाते उसने पूछा।
‘उसे मैंने भेज दिया, मैं हूँ न! कुछ दिन तो अपने हाथ से तुझे खिला दूँ।’ माँ के मनुहार भरे लफ्ज़ों ने उमा को भिगो गया।
‘माँ, तुम भी आओ न।’
‘हाँ-हाँ, मैंने लगाई है न दो थाली!’ माँ भी बगल की कुर्सी पर बैठ गईं। पर कितना अल्पाहार माँ का, चिड़िया की तरह चुगकर उठ गई।
उमा वाश बेसिन से हाथ धोकर हटी तो माँ तौलिया लिए खड़ी थी। उमा को बारह बरस तक माँ के साथ गुज़ारा अपना बचपन याद आ गया। पर अब इस उम्र में माँ इतनी तकलीफ उठाए, ठीक नहीं लगता लेकिन वो क्या करे माँ सुनती भी तो नहीं।
वह भी माँ पर प्यार लुटाना चाहती थी, माँ के लिए रोज़ नए-नए व्यंजन और केसर-पिस्ता वाली कुल्फी खिलाना चाहती थी पर माँ ने सिरे से सब नकार दिया।
‘कहाँ उमा, अब ना खाने का शौक रहा ना वो चटोरापन! हर वक्त कोलेस्ट्रॉल की चिंता! अब तो शुगर और ब्लड प्रेशर की मशीन ही साथी बन चुकी हैं। विदेश में हर तरह की चाट-पकौड़ी मिलती है, पर मेरी तो वहाँ भी दाल-रोटी खिचड़ी में ही बसर है…।’ बेसन के हलवे में पलटा चलाती माँ बोली।
गैस कम कर झाड़न से हाथ पोंछकर डाइनिंग टेबल पर आ बैठी, संवाद पूरा करते फिर बोली–‘ठीक ही तो है, अपने देश में रहते छप्पन भोग खा लिए। अब इस उम्र में क्या जीभ का गुलाम होना, हाँ! तुझे जी भर खिला दूँ यही दिल चाहता है…क्या ही अच्छा होता जो नेहा भी होती, मन तृप्त हो जाता।’ माँ के संवाद ने उमा को बहुत पीछे छूटे लड़कपन के आँगन में ला खड़ा कर दिया, कमरे में सब्ज़न मीतिर आई।
यही सिलसिला चल रहा है हफ्ते भर से। उमा नतमस्तक है माँ के लाड़ और वात्सल्य के आगे। रात सोने गई, मन को टटोला…वो चाहता है माँ के सीने से लग जाय, चरणों में लोट जाय, बिलकुल वैसे ही जैसे नेहा उसके गले से लिपट जाती है। माँ के गाल चूमकर कहे ‘थैंक यू माँ’ ठीक वैसे ही जैसे नेहा उसके गालों को चूम-चूमकर कहती है। पर हाय, कैसे कहे…उसे तो लाज आती है, उसे आदत भी तो नहीं। वक्त ने उनके बीच एक ऐसा पुल बिछा दिया था, जिसके परले छोर पर खड़ी माँ तक बेटी की गलबहियाँ न पहुँच सकीं। माँ से लाड़ लड़ाने के मौके ही नहीं मिले, जब मिले तो एहसास गूँगे और शब्द पंगु हो गए। ज़िंदगी भर तो कहा नहीं, अब क्या आज के ज़माने की नक़ल करूँ? कैसा छिछोरापन होगा…पर मैं कितनी रोमांचित होती हूँ नेहा के आई लव यू पर…थैंक यू पर…आहा, उस रोमांच उस पुलक पर सारे जहाँ के सुख कुर्बान…क्या माँ को यह सुख नहीं मिलना चाहिए!
…और फिर कब पलकें नींद से बोझिल हुईं उमा न जान सकी।
अगले दिन कॉलेज से लौटी, खाना खाया। सारा काम खत्म कर रात को अपने कमरे में सोने आई। बिस्तर पर लेटी कि ठकमकाते माँ आ पहुँची। एक डिब्बा सामने रखा और बोली–‘कल तो मैं लौट जाऊँगी, देख तेरे लिए क्या लाई हूँ।’
ढक्कन खोला तो अवाक्…ढेर सारे छिले हुए चिलगोज़े, किलो-डेढ़ किलो से कम नहीं रहे होंगे…बचपन से उसके फ़ेवरिट थे चिलगोज़े पर वो छीलने से बहुत चिढ़ती। लगता है बीसियों साल बाद किसी ने छील कर दिए हैं।
‘माँ! ये कब छीले?’
‘जब तू कॉलेज जाती थी।’ नेह बरसाती पलकों ने बिछावन भिगो दिया।
माँ के प्रति उसका मन विह्वल प्रेम से भर गया। डिब्बा देकर लौटती माँ के पीछे गई और बिना आँख मिलाए पीछे से ही माँ के गले में बाँहें डालकर बोली–‘थैंक यू माँ।’
‘अरे पगली…।’ कहते हुए माँ मुड़ी पर उमा प्रेम की इस अभूतपूर्व अभिव्यक्ति से लाल हुए मुख को छिपाकर बाथरूम में घुस गई।
सुबह इतवार था। वो कुछ देर से उठी। बाहर आई तो देखा माँ अपने प्रवास के आखिरी दिन रसोई में चावल की कचौड़ियाँ बना रही है। खुशबू के बवंडर उठ रहे थे…साथ ही उसके कानों ने माँ की थरथराती आवाज़ में आज चालीस-पैंतालीस साल बाद वही पसंदीदा गीत सुना जो अक्सर अपनी लरज़ती आवाज़ में वो पापा की फरमाइश पर सुनाती थीं। उमा के थैंक्यू का जादू सर चढ़कर बोल रहा था। वो रसोई के बाहर ही ठिठक गई और सुनती रही–‘ढूँढ़ो ढूँढ़ो रे साजना, ढूँढ़ो रे साजना, मोरे कान का बाला…।’
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Image Source: WikiArt
Artist : edward john poynter
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