एक बरगद की मौत
- 1 June, 2024
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- 1 June, 2024
एक बरगद की मौत
(ओड़िया कहानी)
बरगद का वह पेड़ पाटपुर का परिचय बन चुका था। दूर किसी गाँव का कोई व्यक्ति अपनी जानकारी के लिए अगर पूछता, ‘तुम्हारा घर किस दिशा में पड़ता है’ तो पाटपुर के लोग अक्सर उस बरगद का हवाला देते हुए ही बताया करते। कोई कहता, बरगद की दाहिने तरफ, तो कोई कहता, बाईं तरफ। कोई बताता, बरगद के पास खड़े हो कर सीधा देखो तो अपना घर दिखेगा। कोई ऐसे भी कह देता कि बरगद से नाक की सीध में आगे बढ़ने पर अपना घर आ जाएगा, किसी और से पूछने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
घंटेश्वर घाट और मंतेई नदी के बीचों-बीच बसा यह इकलौता गाँव, पाटपुर जैसे दूर से ही दिख जाता है, वैसे ही पाटपुर के खेत-खलिहान और हाट-मैदान की रेतीली पगडंडी के बीच पाँच किलोमीटर तक पसरे हुए धान के खेतों में सिर उठाए अकेला खड़ा वह बूढ़ा बरगद भी दूर से नजर आ जाता है।
बूढ़े बरगद के पास था छोटा-सा एक तालाब। चैत के महीने से आषाढ़ की बारिश की नई फुहार तक अमूमन वह सूखा पड़ा रहता। उस तालाब में कमल के ढेरों फूल खिला करते थे। पानी सूखते ही गाँव के लोग तालाब में इकट्ठा हो कर बाम मछली पकड़ा करते। वे मछलियाँ तालाब की तलहटी के कीचड़ में इस तरह दुबकी रहतीं कि उन्हें पकड़ने के लिए उनके साथ-साथ आपको भी कीचड़ में सनना पड़ेगा, अन्यथा उन मछलियों को पकड़ना संभव नहीं।
तालाब की बात अब रहने देते हैं। बरगद की उम्र की तुलना में यह तालाब बिल्कुल ही छोटा है। क्योंकि पाटपुर गाँव में अभी भी वे लोग मौजूद हैं जिन्होंने तालाब की खुदाई होते हुए अपनी आँखों से देखा था। लेकिन बूढ़ा बरगद तो मुद्दतों पुराना है। ‘पेड़ कितना पुराना है?’–किसी के पूछने पर गाँव के लोग कहते, ‘हम तो अपने बचपन से ही देख रहे हैं तथा हमारे पिता जी और दादा जी से सुना है कि उन लोगों ने भी अपने बचपन से देखा है।’
इस बरगद के पास से चार रास्ते अलग-अलग दिशाओं में मुड़ गए हैं। जिसे मंतेई घाट जाना हो, वह दाईं ओर मुड़ेगा, जो मंदिर की ओर जाना चाहता है वह बाईं ओर जाएगा। पूरब वाली सड़क गाँव की ओर तथा पश्चिम वाली घंटेश्वर बाजार को जाती है।
उन्नीस सौ सैंतालीस, पंद्रह अगस्त की सुबह इसी बरगद के ऊपर की शाखा में प्रधान-बस्ती के मुकुंद ने तिरंगा झंडा फहराया था। वह अब इस दुनिया में नहीं है। दिन भर राम-धुन और संकीर्तन का कार्यक्रम था। मानगोविंद दास ने समूचे गाँव के लोगों को मिठाई खिलाई थी। उन्हें दुनिया को अलविदा कहे हुए अरसा हो गया है।
सिद्धार्थ ने यह सब अपने दादा जी से सुना था। दादा जी की तब उम्र हो चुकी थी, फिर भी उनमें बेइन्तहा जोश था। झंडा फहराये जाने की बात सुना कर दादा जी पल भर के लिए चुप हो गए थे और फिर तुरंत ही रो पड़े थे।
सिद्धार्थ ने यह समझा कि देश की दुर्दशा की बात सोचकर शायद दादा जी को रोना आ गया होगा। पर दादा जी ने अपनी उस परेशानी का सबब कुछ और ही बताया था, ‘चार महीने भी नहीं हुए थे कि जाहिलों ने महात्मा गाँधी की गोली मार कर हत्या कर दी। भरोसा टूट गया है अब इस देश से। कहीं कोई बेटा अपने पिता को गोली मारता है!’
दादा जी अब आसमान में तारा बन चुके हैं।
कभी-कभार मौके-बेमौके वे याद आ जाते हैं, नहीं तो आसमान के तारों की तरह उनकी यादें भी हमसे दूर रहती हैं। इकहत्तर के भारत-पाकिस्तान युद्ध की बातें बताते हुए पिता जी भावुक हो जाया करते थे, ‘इसी बरगद के नीचे चबूतरे पर दधिवामन परिड़ा अपना ट्रांजिस्टर लेकर बैठ जाया करते थे। लोगबाग उनके चारों तरफ बैठ कर सुबह से शाम तक युद्ध की खबरें सुनते थे। बांग्लादेश में घमासान युद्ध चल रहा था। पाकिस्तानी सेना ने पूर्व-पाकिस्तान में आतंक मचा रखा था। गरीबों के घर फूँक दिए, बहू-बेटियों पर जुल्म किया, सड़क पर लोगों को कतार में खड़ा कर गोलियों से भून डाले। भारत ने उस युद्ध को न्याय के लिए लड़ा था। पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष, याहया खान पीछे हटने लगे थे। हमारे जनरल मानेकशॉ की सेना ने पाकिस्तानी सेना को एक के बाद एक मार गिराया था।’ पिता जी ने फिर कहा, ‘हमलोग युद्ध की खबरें सुनते हुए अपनी भूख-प्यास भूल जाते थे। सर्दियों का महीना था, चादर-कंबल ओढ़कर देर शाम तक रेडियो पर हम विजय केतन मंगराज का युद्ध-बुलेटिन सुना करते थे। युद्ध से कुछेक दिन पहले हमारे राज्य में आँधी-तूफान ने तबाही मचा रखी थी। लेकिन उस भयंकर तूफान के कहर से बरगद के पेड़ की एक भी टहनी नहीं टूटी।’
सिद्धार्थ इन बातों को सुन कर मन-ही-मन हँसता था। तब वह तीसरी जमात में था। न युद्ध और न ही तूफान, कुछ भी तो उसे याद नहीं है।
लेकिन क्या बरगद से जुड़ी बस इतनी ही यादें बची हैं!
सिद्धार्थ ने स्वयं देखा है, आए दिन वहाँ बरगद के पास किसी-न-किसी उत्सव का आयोजन हुआ करता था। दोपहर में रसोई के लिए बाआजी पोखरी से पानी ले कर वापस घर जाते समय, बहुएँ साड़ी के पल्लू से सिर ढक कर बरगद को दंडवत किया करती थीं। दिन तमाम गाँव के लड़के वहाँ कबड्डी खेलते तथा शाम को बड़े-बूढ़े पक्के चबूतरे पर बैठ कर ताश खेलते थे। रज-संक्रांति हो या कुमार-पूर्णिमा या फिर अग्नि-उत्सव, सभी तीज-त्योहारों पर बरगद के नीचे का वह चबूतरा बदल जाया करता था युवतियों के मिलन-स्थल के रूप में।
यह वही बरगद है जिसके नीचे पहली बार सिद्धार्थ का बासन्ती के साथ अंतरंग परिचय हुआ था। उस दिन बासन्ती की छींटदार रंगीली छतरी लिए बारिश के रुकने का वह इंतजार कर रहा था। पाटपुर की नई ब्याहताएँ अपने-अपने पति को इसी बरगद के नीचे विदा कर बंधुआ मजदूरी के लिए बाहर भेजा करती थी। सुदूर देशों में जाने वाले अपने वर की मंगल कामना करते हुए इसी बरगद को दंडवत किया करती थी। विदा करते समय बरगद की नई कोमल पत्तियाँ भी नन्हे शिशु की हथेलियों की तरह झूम उठा करती थी। धीरे-धीरे ये कोमल हरे पत्ते गहरे हो जाया करते थे। गहरे लाल रंग के फलों से टहनियाँ लद जाया करती थी। बरगद की शाखाओं पर गिलहरियों का मजमा लग जाता था। छुट्टी के बाद स्कूल से वापस आते हुए बच्चों को लेने माँएँ और बहनें इंतजार करती थी इसी पेड़ के नीचे। भटके हुए गाय को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते थका-माँदा लक्ष्मण महाकुड़ इसी बरगद के नीचे सोया पड़ा रहता था, जब तक कि उसे ढूँढ़ती हुए उसकी पत्नी वहाँ नहीं आ जाती।
मंतेई नदी के उस पार से हवा बहती हुई घंटेश्वर से जब गुजरती थी तो बरगद को सहलाती हुई चली जाया करती। दिन में सूर्य तथा रात में चाँद अपनी ऊष्म तथा शीतल किरणों से बरगद को नहला दिया करते थे। कल्पवृक्ष तुल्य बरगद के तने पर बहुएँ लाल धागे बाँध कर परिक्रमा करती थी और मन्नतें माँगती थी। बरगद के नीचे पश्चिम की ओर मिट्टी के घोड़े पड़े थे, कुछ सहेजे तथा कुछ बिखरे हुए। गर्मियों में बरगद के सूखे पत्ते झड़कर नीचे जमीन पर फैल जाते थे। दोपहर में हवा चलने से पत्ते इधर-उधर उड़ते रहते थे। मिट्टी के वे घोड़े दूर से तब ऐसे दिखते थे मानो धूल-धूसरित हो कर युद्ध-भूमि पर घोड़े इधर-उधर दौड़ रहे हों।
बूढ़ा बरगद पाटपुर का अभिभावक है। मंतेई नदी के निर्जन किनारे पर बसे हुए इस अकेले गाँव का हौसला बुलंद करते हुए यह बरगद सिर उठाए खड़ा है, ढेरों तिक्त-मधुर स्मृतियों को सँजोये हुए। समय के साथ-साथ इसकी जड़ें तने से उगती और नीचे जमीन से जुड़ जाती। पुराने पत्ते झड़ जाया करते और नए पत्ते आ जाते। बूढ़े बरगद की परिधि का फैलाव बढ़ता जाता। लिहाजा सिद्धार्थ तथा उसके जैसे बच्चे, शिशु से किशोर, किशोर से युवक तथा युवक से प्रौढ़ हुए हैं। लेकिन बरगद यथावत बना रहा सभी की मंगल कामना करते हुए। मौन भाव से कहता, जाओ बढ़ते चलो, फूलो फलो! सुख-दुःख को झेलते हुए जिंदगी को भरपूर जीओ बिल्कुल मेरी तरह!!
बूढ़े बरगद के नीचे गाँव के हर फैसले हुआ करते थे। शहर से नेताओं के आने पर, पेड़ के नीचे शामियाने लग जात थे, सभा-समितियाँ होती थी। बरगद के नीचे बैठी सभा-समितियों का माहौल कभी-कभार बिगड़ जाया करता था। दो मुहल्लों में तकरार की नौबत तक आ जाया करती। चुनाव के समय ये झगड़े और भी बढ़ जाया करते। छींटाकशी बढ़ जाती।
सिद्धार्थ को पाटपुर से आए अरसा हो गया है। अब दूर रह कर ही सिद्धार्थ गाँव का हालचाल पता करता रहता है। वह अक्सर सोचा करता है, गाँव के उन दृश्यों को देख कर बरगद पर क्या गुजरती होगी, गनीमत है पेड़ बोल नहीं सकता।
सिद्धार्थ आजकल गाँव बहुत कम जाता है। एक वो दिन था जब गाँव से दूर दस-पंद्रह दिन भी रहना उसके लिए दूभर होता था, आज यह अंतराल बढ़ कर दस से पंद्रह साल हो चुका है। पिता जी गुजर गए हैं, माँ भी अब नहीं रही। गाँव में अब रह गया है तो सिर्फ एक पुराना मकान और थोड़े-बहुत खेत। इन सब को पिता जी ने अपने रहते स्कूल को दे देने को कहा था। अपनी लापरवाही के कारण सिद्धार्थ से जमीन के कागजात का हस्तांतरण नहीं हो पाया।
पहले काम का वास्ता देकर सिद्धार्थ गाहे-बगाहे अपने गाँव पाटपुर चले जाया करते थे। वापसी में लीलावती चावल, खेत की अरबी, ओल, मुठिसाग, गाय का घी, छेना, कच्चे केले, कचालू वगैरह वे गाँव से ले कर आते थे। लेकिन बरगद के पास वाले तालाब में महापात्र परिवार की नई बहू के डूब कर मर जाने के बाद से गाँव जाने की उनकी इच्छा जाती रही। ऐसा कैसे हो गया, गाँव के लोगों से पूछने पर उन्हें अलग-अलग उत्तर मिले। उन्हें तसल्ली नहीं हुई। किसी के दिल को जब तक उतनी ठेस न पहुँची हो तब तक कोई अपनी जिंदगी को यूँ ही बेवजह खत्म नहीं कर देता।
जिंदगी कितनी हसीन है, कितनी प्यारी है। अंधा, लँगड़ा, दुखियारा…कोई कितना ही दुखी क्यों न हो अपने जीवन को त्यागना नहीं चाहेगा। नई बहू, जिसके पैरों से अभी आलता के निशान भी नहीं सूखे थे कि उसने अपना कैसे जीवन त्याग दिया?
उस दिन बरगद पर सिद्धार्थ को अभिमान हो आया था। क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि बरगद की शाखा झुक कर तालाब से डूबती हुई बहू को निकाल कर बचा लेती। लेकिन बरगद क्या इनसान है? अगर वह इनसान होता तो अभिमानवश शायद अपने गाँव पाटपुर को छोड़ कर कब का कहीं और चला गया होता। ऐसी ताकत उसमें नहीं थी। तमाम दुविधाओं के बावजूद पाटपुर की आत्मीयता और स्नेह ने बूढ़े बरगद को वहाँ पकड़ रखा था। इनसान जितना बड़ा होता जाता है, उतना ही वह अपने परिवार से जुड़ता चला जाता है। जैसे कोई उसे पीछे से जकड़ रखा हो, अपने कोमल हाथों से। बरगद जितना पुराना हो चला है, उतनी ही गरमजोशी से पाटपुर की जमीन ने उसे पकड़ कर रखा है।
गर्मियों में धुँधला और धूसर दिखने वाले पाटपुर की सूरत बारिश की बौछार से बदल जाया करती। मोथा, दूब, लाजवंती तथा अन्य कई किस्म के घास जो मिट्टी में धँसी होती, अपने सिर उठा कर ऊपर लहलहाने लगती। हर तरफ हरियाली नजर आती। ढोर-डंगर पाटपुर के खेतों में चरते हुए झूमने लगते। फूस की झोपड़ियों के छप्पर पर कद्दू और तोरई की बेलें फैल जाती थी। गीले फूस के छप्पर से रिसते हुए रसोई का धुआँ निकल कर ऊपर आकाश से होते हुए बादलों में घुल-मिल जाया करते। घर के पिछवाड़े, बाड़ी में ककड़ी के मचान में फूल आ जाते। तारों की तरह आसमान में तोरई और कद्दू के फूल खुशी से झूमते-लहलहाते, मानो पाटपुर ने पीली साड़ी पहन रखी हो।
सावन का महीना आ जाता। दिन-रात बारिश की झड़ी लगी रहती। गड्ढे-तालाब पानी से लबालब भर जाते। अँधेरा होते ही मेढकों की टर्र-टर्र की रट…बरसाती कीट-पतंगों की चिचियाहट…बिजली की गड़गड़ाहट से गाँव का रास्ता धड़कने लगता। बीच-बीच में बादल गायब हो जाते। खेती-बाड़ी का काम रुक जाता। परेशान होकर गाँव वाले चन्द्रशेखर महादेव मंदिर से नंदी बैल को ले जाकर तालाब में डुबो देते। ऐसे में शिव जी को चाहे गुस्सा आए या चिढ़, पर बारिश अवश्य ही हो। चन्द्रशेखर महादेव इन्द्र की ओर कोप दृष्टि डालते हैं और फिर बारिश होती है। खेती का काम शुरू हो जाता फिर से।
धीरे-धीरे बरगद के चारों तरफ दिखने लगते हैं हरे-भरे धान के खेत जैसे कि हरे रंग की साड़ी बिछाई गई है। ऊँची डालियों पर बगुलों की महफिल जमने लगती है। रात के अँधेरे में मेड़ों को काट कर मछली पकड़ने के लिए बाँस के बने पिंजरे बिठा दिए जाते हैं। ढेरों झींगा मछलियाँ फँस जाया करती। बूढ़ा बरगद देखता रहता और हवा में झूमते हुए कहता, ‘खाओ पियो, मस्त रहो!’
मछुआरे आखिर कैसे पीछे रहते, मंतेई नदी से पकड़ लाते…खइंगा, भेटकी और हिलसा मछलियाँ। उधर गाँव के चबूतरे पर गणेश पूजा और खुदुरकुणि पूजा की तैयारी चल रही होती। दुतिबाहन-व्रत पर घांट-सब्जी की खुशबू से रसोई महकने लगती। अब आश्विन की प्रतीक्षा है। नदी के किनारे मीलों तक फैले काँस के सफेद फूल वर्षा ऋतु के समापन और शरद ऋतु के आगमन का संदेश देते हैं। बूढ़े बरगद के पास खेतों के मेड़, गाँव की पगडंडी, तालाब का किनारा काँस के फूलों से सज कर इतराया करते।
यहाँ पाटपुर का जीवन कितना कोमल और शांत-स्निग्ध है। सब कुछ इसी बूढ़े बरगद का आशीर्वाद है, सिद्धार्थ के पिता जी कहा करते थे।
कटक में पढ़ाई करते समय पूजा की छुट्टियों में सिद्धार्थ दो-तीन दिनों के लिए पाटपुर चला जाया करता था। घंटेश्वर के हाट-मैदान में यूँ ही बेमकसद वह घूमता फिरता। कटिंग चाय और मीठे पान के बीड़े से उसके बचपन की यादें ताजा हो जाती। फिर आ जाता कार्तिक का महीना, जब तालाबों में सुंदर कमलिनी खिलने लगती। चारों ओर साफ-स्वच्छ परिवेश! उनके बीच बूढ़ा बरगद ध्यान में लीन किसी संन्यासी की तरह गंभीर मुद्रा में दंडायमान रहता। खेतों में धान पकने लगते। झुंड के झुंड तोते आ जाते धान चुगने। धान चुग कर बरगद की टहनियों पर बैठ जाते। बरगद के सुर्ख लाल फलों को खाते। धान काटने के लिए आए किसान बरगद की छाँव में आश्रय ढूँढ़ते।
धान की कटाई अभी इधर चलती रहती कि उधर पौष चला जाता। आहिस्ता-आहिस्ता खेतों की हरियाली गुम हो जाती, सिर्फ धान के ठूँठ बच जाते। कहीं-कहीं खेत बदल जाते खलिहानों में। वहाँ धान की गठरियों का ढेर पहाड़ की आकृति ले लेता। गाँव में मानो लक्ष्मी आ जातीं। घर-घर में पकते मंडा और चकुली जैसे पकवान। सिद्धार्थ के घर पर बनते छुँची-पत्र और सरू-चकुली। भीनी-भीनी खुशबू से गाँव का वातावरण महक उठता। अगहन महीने के बृहस्तिवार को माणबसा पर्व मनाया जाता। पाटपुर गाँव माणबसा-गीत से मुखरित हो उठता।
बूढ़ा बरगद खुशी से झूमने लगता। शाखाओं की पत्तियाँ डोलने लगतीं अगहन की बयार से। वो बयार अतिथि बन कर गाँव की शोभा बढ़ाते, मकर संक्रांति की पतंगबाजी तक।
सिद्धार्थ की आँखों के सामने पाटपुर गाँव का दृश्य नाचने लगता…एक के बाद एक। अच्छा होता अगर वह इन्हीं स्मृतियों को लिए इस संसार से फना हो जाता, अपने दादा जी की तरह…अपने पिता जी की तरह। लेकिन ऐसा हुआ कहाँ? सब कुछ तो बर्बाद हो गया। बूढ़े बरगद के साथ पाटपुर के लोगों ने विश्वासघात किया। उसकी हरी-भरी शाखाएँ रक्त-रंजित हो गई, मासूमों के खून से।
बूढ़े बरगद ने इससे पहले भी खून-खराबा देखा था। किसान आंदोलन में लाठी की चोट से गंगाधर परिड़ा का सिर लहू-लुहान हो गया था, कम्युनिस्ट-काँग्रेस की लड़ाई में भी शांतनु सुआर जख्मी हो गए थे। दोल उत्सव पर दास-बस्ती और बेहेरा-बस्ती के बीच की आपसी झड़प में खून बहे थे। दिन के उजाले की ये घटनाएँ थी। लेकिन रात के अँधेरे में पाटपुर गाँव में जो कुछ हुआ वैसी घटना पहले कभी देखी नहीं थी।
अप्रैल का महीना। श्रीधर खाना खा कर सो रहा था। चिलचिलाती दुपहरी में बस-अड्डे के पास से पैदल आते हुए वह थक गया था। चार बजे उठ कर वह खोरधा जाएगा। कपड़े का व्यवसाय है उसका। खोरधा के व्यापारी से वह लुंगी और गमछा ला कर बेचता है।
पाटपुर में श्रीधर परिडा कपड़े का एक नामी-गिरामी व्यापारी है। सिर्फ उनका ही परिवार है जो कपड़े का व्यापार करता है। धीरे-धीरे और भी पाँच परिवार इस व्यवसाय से जुड़ गए हैं। चूँकि पाटपुर में लोगों की आबादी बढ़ गई है, लोगों की माँग भी इसलिए बढ़ गई है, ऐसे में व्यापारियों की संख्या में बढ़ोतरी होना स्वाभाविक है।
लेकिन श्रीधर इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता। वह कारण बताता है कि आजकल अधिकतर लोग लुंगी-गमछा पहनते ही नहीं हैं। अब जींस, बरमूडा, हाफ-पैंट और ट्रैक-पैंट का जमाना है। पुराने कुछ लोग जो आज के दौर के तथाकथित आधुनिक पहनावे से सरोकार नहीं रखते हैं, अभी भी लुंगी-गमछा पर ही टिके हुए हैं और जरूरत पड़ने पर बाजार में इसकी माँग करते हैं।
श्रीधर ठहरा पुराने खयालात का इनसान। ऐसा इसलिए नहीं कि वह साठ का हो गया है, दरअसल शुरू से वह ऐसा ही था।
सिद्धार्थ अक्सर श्रीधर के साथ मुलाकात करने का अवसर ढूँढ़ा करता। क्योंकि गाँव से जब भी वह आता ढेर सारी खबरें अपनी झोली में भर कर वह साथ लाता। लेकिन पता नहीं क्यों आज उसे ऐसा लगा कि जैसे श्रीधर से अगर उसकी मुलाकात नहीं हुई होती तो अच्छा होता। उससे मिलने के बाद से ही कनकलता की माँ बासन्ती की याद ताजा हो गई। बासन्ती अब नहीं रही, कब से मिट्टी में मिल चुकी है। उसकी बेटी कनक वहीं पाटपुर की बहू बन कर रह गई।
बचपन में बासन्ती सिद्धार्थ के साथ स्कूल में पढ़ती थी। गाने में अच्छी थी और चित्रकला में भी। बड़ी हो कर वह क्या बनना चाहेगी, पूछने पर कहती, फ्लोरेंस नाइटिंगेल की तरह सेविका बनूँगी, रोगियों की सेवा करूँगी।
पिछले साल माघ के महीने में पाटपुर चौक पर खुली थी शराब की पहली दुकान। गाँव वालों ने इसका तीव्र विरोध किया था, महीना भर आंदोलन भी चला। पुलिस ने आंदोलनकारियों को तितर-बितर कर दिया था। दारू की वह दुकान सरपंच के भाई का जो था। उसने दलील दी थी कि आजाद भारत में दूध की दुकान खोलना अगर किसी के अधिकार में है तो शराब की दुकान खोलना भी उसके हक में है।
दारू की दुकान के सामने पुलिस का पहरा लग गया। दारू की दुकान बूढ़े बरगद के पास ही पाटपुर चौक पर खुली थी। धीरे-धीरे भले लोगों की आवाजाही वहाँ कम हो गई। लेकिन शाम होते ही ग्राहकों की भीड़ बढ़ जाती।
सिद्धार्थ ने महसूस किया, गाँव के इस बदलाव से बूढ़े बरगद को अवश्य ही तकलीफ हुई होगी। दरअसल बरगद देखना चाहता था बच्चों की उछल-कूद, कुआँरी लड़कियों के ‘पुची’ खेल तथा ‘रज’ के अवसर पर झूले, पर इसके विपरीत उसने कैसे सहा होगा रात के अँधेरे में होने वाले उन अनैतिक कार्यों को!
मन मसोस कर सहा तो था उसने। लेकिन अंत में सब खत्म हो गया। पिछले अमावस्या के दिन तड़के, पाटपुर के लोगों ने वह सुना जो कभी सुना न था। जो कुछ देखा, कभी देखा न था। भोर होते न होते लोगों ने देखा बरगद की दो शाखाओं से लटकते हुए मृत प्रेमी जोड़ी को।
लड़की मालती थी, कनक की बेटी। लड़का मदन महाकुड़ का बेटा था, जो शराब के ठेके के विरुद्ध आंदोलन में सबसे आगे था।
‘लेकिन उनकी गलती क्या थी?’ सिद्धार्थ जानना चाह रहा था।
‘दोनों को आपस में प्यार हो गया था, लड़के के पिता को यह मंजूर नहीं था। लालची था। सरपंच के कान में खबर गई, तब तक लड़की गर्भवती हो चुकी थी। उसके बाद तो देख ही रहे हो क्या हुआ।’ श्रीधर ने कहना जारी रखा, ‘दोनों बच्चों को मार कर किसी ने रात के अँधेरे में पेड़ पर टाँग दिया। असलियत से सभी वाकिफ हैं लेकिन कोई भी अपना मुँह नहीं खोलता। दारू के ठेके के पैसे और उसके गुंडा-सरीखे लोगों की आग-उगलती आँखें पाटपुर को कंपायमान कर दिया। पुलिस तो पहले से ही सरपंच की जेब में थी।’
श्रीधर से और कुछ भी सुनने का धैर्य सिद्धार्थ में नहीं था। वैसे भी और बाकी ही क्या रह गया था सुनने को?
बस का समय हो चला था।
श्रीधर ने इजाजत ली, ‘मैं चलता हूँ, आजकल तबीयत ठीक नहीं रहती है। बेटे से दुकान सँभालने को कह दिया है। सँभल जाए तो उसका ही फायदा है। अब और कितने दिनों तक यूँ घसीटता फिरूँ?’
सिद्धार्थ ने अपने होंठों पर एक निरर्थक सी हँसी बिखेर दी और श्रीधर को विदा किया। उनकी आँखों के सामने एक हरे-भरे सुंदर पेड़ के तने और पत्तों पर खून के निशान का दृश्य नाच रहा था। उन्होंने यह कल्पना तक नहीं की थी कि पाटपुर में ऐसे घिनौने कुकृत्य की घटना भी कभी सुनने को मिलेगी।
गाँव से आकर वापस गए हुए पंद्रह दिन हो चुके थे श्रीधर को। बरामदे में बैठ कर सिद्धार्थ अखबार पढ़ रहे थे। अंदर के पन्ने पर छपे एक समाचार पर नजर जाते ही वे चौंक पड़े। मन व्याकुल हो उठा। मोबाइल से श्रीधर के साथ संपर्क साधना चाहा। श्रीधर का नंबर नहीं लगा।
अजय जेना जो कभी उनका छात्र हुआ करता था, घंटेश्वर थाने का सब-इंस्पेक्टर था। पिछली बार जब वे गाँव गए थे उसने अपनी तरफ से उन्हें अपना नंबर दिया था। उन्होंने उसे फोन लगाया। हो सकता है गाँव में आए उस तूफान की खबर से वह वाकिफ होगा।
अजय ने कहा, ‘बिना किसी पूर्व सूचना के गत बृहस्पतिवार शाम के समय अचानक कालवैशाखी ने अपना तांडव मचाया था पाटपुर में। सभी के मन में यह भय था कि भयंकर तूफान से मकानों के छप्पर उड़ जाएँगे। एहतियात के तौर पर लोगों ने गाय-बैलों के पगहों को खूँटे से खोल दिया था। लेकिन गनीमत है कि गाँव के मकानों को कोई नुकसान नहीं पहुँचा। जबकि पाटपुर के उस बूढ़े बरगद को उखाड़ फेंका था कालवैशाखी ने।’
‘बूढ़ा बरगद उखड़ गया?’ सिद्धार्थ को बिल्कुल यकीन नहीं हो रहा था।
‘जी सर, बरगद जड़ से उखड़ कर शराब की दुकान के ऊपर ऐसा ढहा कि दुकान के ऊपर का ऐस्बेस्टस टूट कर टुकड़ा-टुकड़ा हो गया।
दोनों बच्चों को मार कर बरगद की शाखाओं में लटका देने की खबर सिद्धार्थ ने जब से सुनी है तब से ही उन्हें अंदाजा हो गया था कि शायद उस बूढ़े बरगद की जरूरत वहाँ अब और नहीं रही। अगर वह बच भी गया होता तो शायद नई पीढ़ी के द्वारा उपेक्षित बूढ़े माँ-बाप की तरह बेचारे बरगद को भी कष्ट झेलना पड़ता। फिर भी कालवैशाखी के द्वारा उसे इस कदर उखाड़ दिया जाएगा, कतई इसकी उम्मीद नहीं थी। इकहत्तर से लेकर निन्यानवे तक जाने कितने विध्वंसक तूफान आए और चले गए, पर बरगद का बाल बाँका भी नहीं कर पाया कोई। वर्षों तक बर्दाश्त करने वाला दंभी बरगद ऐसे कैसे उखड़ गया?
असंभव! बूढ़े बरगद को आँधी-तूफान ने नहीं गिराया। शायद उसने खुद ही बचना नहीं चाहा होगा। बचता भी तो आखिर किसके लिए…? जाते-जाते भी तूफान के आघात को अपने सीने पर दृढ़ता से सहा और गाँव को टस-से-मस नहीं होने दिया, बचा लिया। मरते दम तक बरगद ने पाटपुर को बहुत कुछ सिखाया है।
‘पाटपुर क्या उस सबक से कोई सीख लेगा? पता नहीं!’ सिद्धार्थ ने मन-ही-मन सोचा।
हिंदी अनुवाद : प्रदीप कुमार राय