कितने-कितने

कितने-कितने

ठाढ़े मारता हरा-नीला समुद्र, किनारे पर चमकती हीरे-सी रेत, उसमें छुपा विशिष्ट खजाना। ढलता, उगता सूरज आसमान के साथ समुद्र को भी रंगारंग रंगों से पेंट कर देता है। सूरज तो शाम तक बूँद-बूँद पिघल सागर में खो जाता। लहरों के साथ हर रंग की शंख व सीपियाँ भी मुस्कुराती आँखें खोले व बंद किए सुस्ताती ही रहतीं।

तट पर खड़ी काली अलस्सुबह सूरज को अर्ध्य देती जगन को ताड़ के वृक्षों पर बंदर की भाँति चढ़ते-उतरते देख मुस्कुरा देती।

यहाँ तट पर बहुत शांति एवं सुरक्षा अनुभव तो होती ही है। ये तो सच है कि चाहे वे समुद्र का भारतीय तट हो या कराची का तट, दोनों एक से ही हैं। हाँ, कराची के तट पर ढेरों विदेशी सूर्य की रोशनी में करवटें लेते। यहाँ तो वे ही सब एकदम गुपचुप स्थान में झाड़ों में छुपी झोपड़ी में थके-लेटे अपने व अन्य बच्चों को रेत पर नंगे पाँव खेलते देखते रहते। बच्चे झूमते–

गोल-गोल रानी

इत्ता-इत्ता पानी

वो भी गुनगुनाने लगती, ‘पानी रे पानी, देवा रे देवा, खाना तो खाना, दे दे रे देवा।’

काली के दोनों बच्चे आज के और बच्चों से काफी तेज तर्रार हैं। छोटे-छोटे अपने हाथों को ऐसी तर्ज से मोड़ सागर में हाथ डालते हैं कि फिसलती छोटी व शार्क मछली पकड़ में आ जाती है।

काली ठोढ़ी के गुदन को हिला बुदबुदाती है, ‘जमाना बदला है तो बदले उसके बच्चे भी समझदार हैं। कई मछुआरों के बच्चों को पीछे छोड़ अपना काम सहेजते हैं। हमें ही मात देते हैं। अन्यथा पेट भर भोजन भी प्राप्त नहीं होता।’ काली के सामने अपनी जिंदगी की लड़ाई की लहरें सुनामी बन दौड़ने लगती हैं। कराची के तट पर कुछ कटीली झाड़ियों के पीछे बनी काली की झोपड़ी साफ-सुथरी थी। पाकिस्तान बनने के पूर्व ही वहाँ बेहद अपनापन बिखरा था। सब मछुआरे काली, जगन के विवाह उपरांत हँसते–देखो तो, देखो तुम्हारा झोपड़ा भी कैसे दुल्हन-सा घूँघट उठा झाँक रहा है।

अपनी भारतीय परंपरानुसार काली झोपड़े को साफ-सुथरा रख सामने स्वस्तिक की रंगोली डाल देती और कुछ ही दूर पर नंग-धडंग लेटे सैलानियों को ताककर हँस देती। वे कुछ न समझ कहते, ‘गो…गो…भागो-भागो। नो डिजीज। यू डर्टी चाइल्ड।’

बच्चे मुँह चिढ़ा भाग जाते।

काली झुरमुटों में छुपी अपनी छोटी मोटरवोट को किसी बहुमूल्य रत्न-सा सहेज बाहर निकाल साफ करती ताकि अपनी इस ट्रोलरस नाव से ‘होरस’ व बड़ी मछलियाँ पकड़े। लेकिन उलझनों व तनाव में वे जब उलझ अशांत होते, जब आदमी–पकड़ झींगों से सामना होने की आशंका उन्हें घेर लेती, तभी काली मर्द का अँगोछा पकड़ दबाव डालती, ‘नाहीं-नाहीं। अकेले मत जा। मैं भी औजार ले तेरे साथ चलूँगी। तू मछली पकड़ना, मैं झींगों को मारूँगी।’

जगन समझता है कि गरीब दयनीय वो मछुआरा यदि धर-पकड़ में ही व्यस्त रहा और वो खुले समुद्र में यदि रात-दिन की मेहनत से कई प्रकार की छोटी मछलियाँ नहीं पकड़ सका तो विदेशियों की पसंदगी पर खरा नहीं उतरेगा और तब विदेशी रुपये से भी महरूम होगा।

उसको ही नहीं, पूरे कराची को इस मत्स्य पालन क्रिया से बहुत लाभ होता है, तब भी सरकार से उन्हें कोई मदद नहीं मिलती। उसकी काली के पास तो केवल तीन साड़ियाँ हैं। अन्य कुछ तो अंग ढाकने को है ही नहीं। जैसे-तैसे बच्चों को वह स्वच्छ कपड़े पहनाकर पास के स्कूल में भेज देती।

कुछ दूरी पर ही इने-गिने मछुआरे यों ही रहते हैं। कुछ समय वहाँ काली बैठकर सारे शहर के समाचारों का पुलिंदा खुलते ही चौकन्नी हो सब सुनती।

उस दिन जगन का दोस्त रामा कह रहा था, ‘पीने का पानी भी तो नाप-जोखकर पीना पड़ता है। तू काली क्या करती है?’

‘क्या करूँगी? जमील साहब के यहाँ मछली देने जाती हूँ, तो बाहर लगे नल से एक ड्रम सुबह और एक ड्रम शाम को ढलाव से चढ़-उतरकर भरती हूँ। कुछ पानी भट्ठी में उबलने को रखती हूँ। जब तक पत्ती व झाड़ी मिलती है तो ठीक वरना काय का पानी? जून, जुलाई, अगस्त में तो सागर बाबा मोटे व तगड़े हो जाते हैं तो पानी गंदा होता है पर उबालने से काम आ जाता है।’

घर लौट साँझ बेला ही में छह-सात टिक्कड़ व मछली पका काली पूरे समय यही गुताड़ा लगाती कि इस समय सरकार लेवी के प्रतिबंध समुद्र में आगे बढ़ने से हटा लेगी तो जगन व पूरा परिवार जी-जान से मछली पकड़ने का प्रयत्न कर पर्याप्त कमाई करेंगे। हालाँकि पिछले वर्ष रात-दिन ही मछली पकड़ी और तब भी कीमत बहुत ही कम मिली। जगन के शरीर की चमड़ी सफेद पड़ गई, पैर-हाथ सफेद व नीले हो गए, तब भी दूसरे ही दिन से लीला व उसे सड़क तक पहुँचने में भारी मशक्कत करनी पड़ी। कभी-कभी काली परिवार से छुप रो लेती है। उसे भारी पीड़ा सताती है कि वे सब पन्नी व पत्तों से ढकी इन झोपड़ियों में जानवरों से दुबके कभी घावों पर पानी तो कभी धूप का ही सेंक ले जीते हैं। उनको इनसानी जरूरतों से लैस करने की सरकार को तो कोई चिंता न वहाँ थी, न यहाँ है।

ढहती रात में थकावट के कारण किन्हीं अनछुए क्षणों में वो जगने से जगन के सीने से जुड़ी यही सोचती, काश एक पक्की झुग्गी तो उनके पास रहती। लेकिन लम्हों की कल्पना, लम्हों में ही डूब जाती। खोह से जब मुस्कुराता सूरज निकलता तो काली व लीला जूड़ा बना लांग ठीक कर ढलाव पर मछलियों का वजन लादे चढ़ने लगतीं।

‘जमील भाई मछली लाई।’

मेम साहब तो कटे बाल झटकती दरवाजा खोलती। वो मछलियाँ सँवारती व लीला बर्तन-भाँडे सँभालती। जमील साहब के घर से निकल वो कोई अन्य काम नहीं कर पाती। बस सारी मछलियाँ बड़ी दुकानों में खपा लौट आती। ये बात तो सच है कि कराची तट पर होरस बड़ी मछली को छोटी नाव ट्रालर्स से गहरे समुद्र के आसपास जा पकड़ने में सुभीता था। मछुआरों को कोई अन्य कार्य करना आता भी तो नहीं।

सड़कों से जुड़ाव हेतु उन्हें कितना चलना पड़ता है। कोई परिवहन सुभीता दूर-दूर तक नहीं। रेत के गड्ढों में यदा-कदा फँसे बच्चों को अस्पताल की आवश्यकता होती है तो न वहाँ, न यहाँ कोई भी पास में डॉक्टर नहीं मिलता। कई बार सड़क यातायात नियमों को तोड़ वे शॉर्टकट से निकले हैं तो उन्हें पुलिस वालों के डंडे व गालियाँ खाकर अपनी मछलियाँ देकर जान बचानी पड़ी है। समुद्र तट पर रहने से कई बार पर्यावरण के बदलते ही वे सब बीमार हो जाते थे, लेकिन अस्पताल न जाने से यों ही तड़पते हुए भी मछलियाँ पकड़कर जीविका निभाना आवश्यक था।?

लीला चतुर व तेज है। वो छोटी-बड़ी मछलियाँ गिन बड़े हाट तक जा परवेज बाबा को सौंप तत्काल टूटे-फूटे मदरसे में घुस जे, ए, बे पढ़ने लगती। बस ऐसे ही एक लाल दिवस में जगन भागता हुआ आया, ‘जल्दी से कपड़े-भाँडे बाँधो, हमें यह तट छोड़ना पड़ेगा। भारत व पाकिस्तान में जंग छिड़ गई है। हिंदुओं को पकड़कर मारा जा रहा है।’ तत्काल जो हाथ आया उसे उठाकर वे सब व आसपास के मछुआरे अपनी अच्छी नावों पर सवार हो भागने लगे।

थके-माँदे उन सबने जब आँख खोली तो वे लोग एक बेहद ऊबड़-खाबड़ पन्नियों से भरे तट पर पहुँचे जहाँ ठेलों पर कुछ लोग पावभाजी खा रहे थे। उन्हें देख वे चीखे! ‘आगे-आगे जाना। यहाँ मछली नको-नको। आगे दो-तीन मील जाओ। वहाँ मछली वाले हैं।’

वे सब पुनः भागे। आगे जाकर उन्हें तट पर उनके से मछुआरे दिखे। वहाँ महिलाएँ गहरे चटक रंग की साड़ियाँ सुखाती गुनगुना रही थीं–

माई री माई, माछी पकड्या, फुलवा उगाइया, माला पहनइया।

उन सबने उन्हें बैठाया, पराँठे खिला बताया, ‘भइया, ये बंबई का किनारा है। भारत है भइया।’ कुछ खुशी से दमकते जगन ने कहा, ‘यहिला बस जाइल।’

‘क्यों नहीं, पर तुम्हें भारतीय नागरिकता का प्रमाण-पत्र लेना पड़ेगा। यहाँ कैसन?’

‘कुछ कोस दूर से आए हैं।’

‘मेरा परिवार तो यहाँ बहुत वर्षों से है, तो माला महाराष्ट्र प्रमाण-पत्र प्राप्त अहे। पर सच तो यह है कि ये करोड़पतियों की नगरी है। यहीं कहीं रहने की जगह तलाशो, दो-तीन फीट भी उधर अंदर गए तो पेड़ की छाँह भी नसीब न होगी।’

‘आई.टी.आई. के तहत भी तुम्हारे यहाँ हम मछुआरों को कोई मदद नहीं मिलेगी?’

‘भइया, यहाँ पकड़े गए और प्रमाण-पत्र न दिया तो सीधे जेल। खैर, जेल तो  जेल है लेकिन यदि पाकिस्तान के तट पर पहुँचते तो जेल में सड़ जाते। मियाद खत्म होने पर भी वहाँ मरते ही रहते।’

जगन परिवार को तो जैसे साँप सूँघ गया। इस बार वे प्रमाण-पत्र बनवाकर ही चैन से रहेंगे। ‘हऊ भइया, कुछ रास्ता बताना।’ जगन ने छुपा लिया कि वो कराची से ही आया है।

आकाश स्वच्छ व सागर यहाँ भी स्तब्ध था। जगन, काली व बच्चों ने रहने की जुगाड़ में इतनी मेहनत लगाई कि उनके आसपास रहने वाले भी खुश हो गए।

जगन वहाँ से सड़क पकड़ बड़ी मल्टी प्लस इमारतों में घुस मछली खपा देता। रात्रि के सौंदर्य में धमा-चौकड़ी करते चाँद सितारों के नीचे रहते उनमें से किसी का पोत दुर्घटनाग्रस्त हो गया। जगन के बदन में तो जैसे झटका लग गया, वो तुरंत दो-चार मछेरों के साथ वहाँ मदद को पहुँच गया। मशक्कत के बावजूद वो केवल दो ही को बचा पाए। आग जलाई, सेंका, दारू पिलाई। बस यहीं से जगन का भाग्य चेता। उन दो व्यापारियों ने सबको रुपये बाँटे पर जगन के जुड़े हाथों से पिघल उसे भारतीय नागरिकता प्रमाण-पत्र भी दिलवाने का वचन दिया व एक नई मॉडल की नाव भी दिलवा दी।

‘छान अहे, बंबई छान अहे।’ जगन हँसा। वे सब खुश हो वहाँ कभी-कभार युवा दंपत्ति व खिलवाड़ करते युवाओं को रोमांस करते देख हँसते व परिवार समुद्र में दूर तक नहीं जाता। उन्हें पता था कि हाहाकार करते समुद्र में कोई सरहदी विभाजन रेखा तो नहीं है जिसके माध्यम से वो जाने कि दूसरे देश के समुद्र में वे प्रवेश कर रहे हैं। ऐसी कोई बाड़ भी तो समुद्र में नहीं जिससे समझ आए कि वे किसी दूसरे समुद्र में प्रवेश कर रहे हैं। देशों के बीच आर्थिक लेन-देन हेतु भी कोई स्पष्ट विकल्प नहीं। हाँ, वहाँ सिंध नदी के मुख डेल्टा से 60 मील लंबे मुहाने पर तो है लेकिन विवादग्रस्त ही है।

जगन की नाव से अब वो समुद्र की स्थिति तो समझ सकता है और तुरंत नाव मोड़ लेता है। कई नाविक खो गए। लापता हैं। यह सुना तो है पर खबरें तो कान छूकर निकल जाती हैं। काली ने चेतावनी दी, ‘अभी दूर न जाना।’

‘अरे, फरवरी-मार्च में पानी कहाँ गिरेगा। देख बादलों की नजर में तारे झिलमिला रहे हैं और समुद्र लाइट भी तो है।’

जगन ‘हैया रे हैया’ करता नई मोटरवोट से रोटियाँ ले निकल गया। पर होनहार हुई कि वो न जाने कैसे पाकिस्तानी समुद्र में पहुँच गया। वो लौटता कि सुरक्षा गार्डों ने उस कलपते ‘रोते’ समझाते व्यक्ति को पकड़ जेल में डाल दिया। उसे जेल के पाँचवे तल में रखा जहाँ सड़ाँध, गंदगी व बदबू भरी थी। जगन दंग था। हैरतजंग इनसान को सड़े अनाज देख उबकाई आती। वो पानी माँगता तो सिपाही उसके मुँह में पेशाब कर देते और कहते, ‘बोल, अल्ला गिरहबान।’ जगन को रोज उन्हें शराब परोस उनका दुष्कर्म सहना पड़ता। एक दिन घावों पर चढ़ते चीटों व कीड़ों के कारण वो रोने लगा, ‘मुझे मार डालो।’ तो सचमुच उन्होंने उसे उठा समुद्र में फेंक दिया, ‘नामुराद निकम्मा फालतू।’

दो बरस बीते, काली के रूदन से भी सागर न पिघला, न जगन लौटा।

तब लीला ने माँ से छुप अपनी सहेलियों के साथ मिल उन दो व्यापारियों के सहयोग से हिम्मत जुटा प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति को प्रार्थना-पत्र भेजा कि वे उसे पाकिस्तान जा अपने पिता को खोजने दे या शासन उसे खोजे।

अविरल आँसू गिरते रहे। तूफान आकर गुजरते रहे पर उनके पत्र, प्रार्थना-पत्र कहाँ बंद हो गए पता नहीं। व्यापारी भालेराव ने काली व लीला को आश्वासन दे समझाया, अभी भी हमारे देश में न जाने कब तक कितने-कितने समय तक एक उस जैसे आम व्यक्ति को शासकीय सुरक्षा व न्याय मिलेगा। वह तो एक आम नेक पुत्री-सी नित्य हाथ जोड़ पिता की आत्मा हेतु न्याय पाने हेतु नित्य प्रार्थना करती है। उसे यह नहीं ज्ञात है कि उसे कितने-कितने समय बाद न्याय मिलेगा या फिर मिलेगा भी कि नहीं!


Image : Seascape
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Artist : Efim Volkov
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