जात न पूछो साधु की

जात न पूछो साधु की

चैत को पछाड़कर बैसाख चढ़ आया था। गरमी बढ़ने लगी थी। सोनवाँ ने आकाश की ओर देखा। सुबह से कलरव-कोलाहल मचानेवाले ज्यादातर पंछी अब दाने की खोज में दूर जा चुके थे। उसने सोचा–दुपहरिया होने से पहले ही बाबू के लिए गेहूँ पीस लूँ, नहीं तो सुरुज महाराज अपना मुँह ऐसा लाल-पीला करेंगे कि फिर पिसाई नहीं हो पाएगी। वह जाँत पर बैठ गई–‘सासु दिहली गहुँआ, ननद दिहली चंगेलिया। गोतनी बैरिनियाँ कहे, गावहु जाँतसरिया…।’

कोकिलकंठी सोनवाँ का कलेजा धक् से कर गया। ससुराल की बात सोचकर उसे अजब-सी घबराहट होने लगी–कैसी सास होंगी? ननद का व्यवहार कैसा होगा? गोतनी…गोतनी बैरिनियाँ…अरे बाप रे, दिनभर जाँते चलवाएगी क्या? अज्ञात भय के संसार ने उसके चारों ओर अपना जाल बिछा दिया। यहाँ वह कितनी खुश है! यह बात नहीं है कि वह यहाँ राज कर रही है, पर इज्जत-आजादी, मान-दुलार बहुत है। माई के जाने के बाद मजाल कि बाबू या किसी अन्य ने एक खर टकसाने के लिए भी कहा हो। यह तो उसकी अपनी मर्जी है, कुछ करे या ना करे। लेकिन बाबू का ख्याल तो रखना ही पड़ेगा, माई तो है नहीं। गुरुशरण बैद ताँगा पर चढ़ते-चढ़ते चेता गए थे–‘जग्या बाबू, जाँते का आँटा खाइएगा।’ तो यह बात उसके लिए ब्रह्मा की लकीर हो गई है। रोज पाव भर गेहूँ पीसकर बाबू की रोटी का इन्तजाम कर देना उसका पहला धरम है।

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उसने दिमाग को झटका दिया और सोचा अँगना खाली है, दुआर पर भी कोई नहीं है, अभी ही पूरा गेहूँ पीसकर उठा लूँ, नहीं तो नटखट बबुआ आते ही तंग-तंग कर देगा–उठो-उठो, मील के आटे में क्या खराबी है? वह भी पिसा होता है और यह भी। बस तुम हाथ से पीसती हो और वह मशीन से पीसा जाता है। हाथ पकड़कर खींचने लगेगा, नहीं पीसने दूँगा, चलो उठो। मना करने पर चिकोटी काट-काटकर परेशान करेगा, उठना ही पड़ेगा, पिसाई अधूरी रह जाएगी।

उसने एक बार फिर जाँते की किल्ली पकड़ ली–‘रामा चले नाहिं छोट-छोट हथवा रे ना। बड़-बड़ दँतवा के बड़ लगे जँतवा रे…घर्र-घर्र-घर्र-घर्र…’ सोनवाँ जब थकती है तो क्षणभर के लिए उसकी मधुर आवाज बंद हो जाती है, पर जाँते की धुन बजती रहती है–घर्र-घर्र-घर्र-घर्र…।

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‘दिदिया दिदिया, अरे हो का है दिदिया, फिर बैठ गई जाँत पर! उठ-उठ फोटो उतारनेवाले को लाया हूँ’–बबुआ बोल रहा था–‘जल्दी से कपड़े ठीक करके आ, तेरा फोटो निकलवाऊँगा।’ वह असमंजस में पड़ गई। बबुआ तो चनिरका की बेटी गुलपातो की विदाई देखने गया था। ये फोटो उतारने की बात कहाँ से आ गई! समझ रही हूँ, अब ये लोग मेरा ब्याह करना चाहते हैं; फोटो भेजेंगे लड़केवालों के पास। सोनवाँ सिहर गई, लेकिन बबुआ की जिद के आने कुछ कह न सकी। कपड़े झाड़कर अँगना में अंगूर के लत्तर के सामने खड़ी हो गई। पल्लू की सिकुड़न ठीक ही कर रही थी कि बबुआ ने झट से अपनी घड़ी उतारकर उसे पहना दी जो भउजी ने पिछली बार उसे दी थी।

‘देखिए तो फोटोबाबू, हमारी दिदिया डाक्टरनी लगती है न?’–सोनवाँ भाई के प्रेम से गद्गद् होकर हँस पड़ी, तभी फोटोग्राफर ने दो-तीन फोटो खींच लिए।

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गुलपातो का ब्याह क्या हुआ, बाबू तो जैसे बावले हो गए। रोज-रोज पंडित-पुराहित से टीपन मँगवाना, उन्हें मिलवाना और फिर उन घरों की प्राथमिक जानकारी के लिए सगे-संबंधियों के यहाँ दौड़ लगाना, यही काम रह गया था उनका। पसंद आने पर लड़के वालों के यहाँ जाकर हाथ जोड़ना और फिर मुँह लटकाकर घर लौटना।

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‘हुँह’…बाबू के होंठ फड़क रहे थे। सोनवाँ को देखकर उन्होंने निगाहें नीची कर ली थीं। उसने सुना था, जब वह लोटे में जल देकर दुआर की चौखट से उतर रही थी–‘एकौनावाले अपने को समझते क्या हैं? सोनवाँ सोना है, सोना, जिस घर में जाएगी, भक् से अँजोर कर देगी।’ पिता के स्नेह से तृप्त सोनवाँ ने आँगन में आकर इधर-उधर देखा। माई की मचिया कोने में खड़ी थी, उसने जैसे ही उसे उठाया कि नेउर महाराज पीछे से दुम घसीटते ओसारे में रखी लकड़ियों की ओर भागे। घर में नेउर का आना अच्छा है, उसने सोचा और झट से मचिये पर बैठ गई–कैसे-कैसे लोग हैं भाई, बाबू को परेशान कर रहे हैं। जरूर दहेज के लोभी होंगे-ना, जाने क्या-क्या माँग रहे होंगे। कहाँ से देंगे बाबू? क्यों जिद पर अड़े हैं वे? मुझे नहीं करनी है शादी। मेरी शादी माने घर की बर्बादी। उसकी आँखें भर गईं। ‘कौन देखभाल करेगा इस घर का, बाबू आपका और बबुआ का? मैंने तो किसी तरह सब सँभाल लिया। पर मेरे बाद? नई नवेली शहरी भउजी तो देहात में आकर रहने से रही। रह गए बबुआ तो वह तो अभी शादी के जोग भी नहीं कि बहुरिया ले आए और गिरहस्थी पटरी पर रह जाय। क्या कहूँ, कैसे बोलूँ’–वह झुँझला गई। उसने आकाश की ओर देखा। सूरज किसी बेईमान चौकीदार की तरह मद्धिम रोशनी का टॉर्च जलाता पश्चिम की ओर सरक रहा था।

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‘ए दादा, अभी तक गढ़ी से तरकारी नहीं तोड़ी।’–वह हड़बड़ाकर उठ गई। साँझ के बाद गढ़ी में कौन जाए? साँप, बिच्छू, गोजर सबका डर हो जाता है। उसने एक मउनी उठायी, छुरी हाथ में ली और चोख धार से आश्वस्त होकर गढ़ी की ओर चली।

लेकिन घर से बाहर निकलते आज उसमें वह अल्हड़पन, वह अलमस्ती नहीं यी, सकपका रही थी, बाबू मेरे चलते परेशान हैं, मुझे देखकर उनकी चिंता और बढ़ जाएगी। फिर भी काम तो करना ही होगा; पेट की आग भला चिंता-फिकिर से कब बुझती है। वह सायबान को पारकर गढ़ी की ओर बढ़ गई। बाबू चौकी पर उदास लेटे थे, कनखी से बेटी को देखा तो करवट बदल ली।

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अभी सूरज की लाली फूट ही रही थी, चिड़ियों का कलरव शुरू ही हुआ था कि सुबह-ही-सुबह एक मनहूस खबर आ गई। नानी का इंतकाल हो गया। माई के मरने के बाद बाबू की आँखों में आँसू आज तक किसी ने न देखा था। कठकरेज हो गए थे बाबू। लेकिन आज नानी के मरने का समाचार मिलते उनकी आँखें लोर से डबडब हो गईं। हों भी क्यों नऽ। नानी माई, जैसे ही तो थी। गोरा लंबा शरीर, आँखें बड़ी-बड़ी, सिंदूर भरी माँग, लंबी चोख नाक, हँसती तो जैसे फूल झड़ते। नानी के चेहरे में माई की छवि देखकर शायद बाबू के मन में उसकी याद ताजा हो जाती थी।

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‘सोना बेटी, झोले में एक धोती, कुर्ता और गमछा रख दो। आते-आते साँझ हो जाएगी, ठहरूँगा नहीं वहाँ।’–बाबू ने सिर झुका लिया और चौकी पर बैठ गए। उन्हें अपनी शादी की बातें याद हो आईं। मड़वा में आते ही–सास का आगे बढ़‌कर अगराते हुए मुझे परीछना, गाल सेंकते समय पीछे मुड़-मुड़कर उनका लजाकर हँसना, कोहबर-घर में चोरिका देना–असली गिन्नी–वह भी पाँच-पाँच। फिर विदाई के समय बेटी को कलेजे से लगाकर उनका छाती फाड़-फाड़कर रोना। क्या-क्या नहीं याद है बाबू को। हो भी क्यों नऽ? माई के चले जाने के बाद भी नानी ने उनकी इज्जत में कोई कमी नहीं की। हर शादी-ब्याह, छट्ठी-मूड़न में मामा को भेजकर हमें बुलवातीं। सबके कपड़े पहले से ही सिले रहते। नानी के लाड़-प्यार के आगे डाँटने की तो बात ही क्या, मजाल की कोई टेढ़ी आँख से ताक भी दे। उनके चले जाने से अब वहाँ इन बच्चों को कौन पूछेगा, शायद यही सब सोचकर बाबू रो रहे होंगे। 

झोला पकड़ाते हुए सोनवाँ की सिसकी निकल ही गई–‘नानी!! हम भी चलेंगे बाबू…।’ 

अचानक बाबू का चेहरा कठोर हो गया–‘कोई नहीं जाएगा। दिनभर की ही तो बात है, मैं रुकूँगा थोड़े ही, दोनों भाई-बहन ठीक से रहना। भुनेसरी की माई को बोल दिया है, तुमलोगों का ध्यान रखेंगी।’ उनकी कड़‌क आवाज से तो सोनवाँ की घिग्घी बँध गई। बाबू ने जैसे लक्ष्मण-रेखा ही खींच दी थी।

घर से निकलकर वे भुनेसरी के दरवाजे पर रुके और आवाज दी। दुआर से गायों का गोबर अभी उठाया नहीं गया था, मक्खियाँ भिन-भिन कर रही थीं। मारे बदबू के वहाँ ठहरना मुश्किल था। गमछे से देह झाड़कर बाबू ने भुनेसरी की माई से कहा–‘भउजी, तनी लइकन के देखत रहब। साँझ ले आइये जाइब।’

‘जाईं न बाबू, सोझे तऽ राउर घर लउकता। हम एहिजे बइठ के छँइटी बीनब, रउवा चिंता जन करीं।’–उन्होंने बाबू को आश्वस्त किया।

बाबू के जाने के बाद बबुआ पर और गहरी उदासी छा गई। सोनवाँ ने दिल कड़ाकर कहा–‘जो होना था सो तो हो गया। इसी महीने की छब्बीस तारीख से तुम्हारा इम्तिहान है। चलो हाथ-मुँह धो लो, कुछ खिला दूँ तुझे, फिर पढ़ने बैठ जाओ दुलरुआ। लेकिन बबुआ के कान में तो जैसे ढेला पड़ा था। माई को तो उसने देखा भी नहीं था, पर सब कहते थे माई नानी जैसी ही थी।

उसने बबुआ को झिंझोड़ा, फिर भी काठ! जब कान उमेठे, तब जाकर उसका ध्यान टूटा–आँखों में आँसू थे, ‘दिदिया! नानी, ॐ…हूँ…हूँ…हूँ।’

सोनवाँ अचानक बड़ी हो गई थी। उसने बबुआ को गोद में लेकर बहुत दुलारा-पुचकारा, समझाया, पर उसके आँसू रुकने का नाम ही न लेते थे। बबुआ आज ऐसे नहीं फुसल पाएगा, उसने सोचा और उठने का प्रयास किया तो उसके शरीर में भी एक अजीब-सी निर्जीवता लगी। फिर भी बोझिल कदमों से अंदर आकर उसने कोठरी का पल्ला जोर से धकेल दिया। एक अज्ञात भय से उसका कलेजा जोर-जोर से धड़क रहा था। उसने अपनी संदूकची निकाली और उसमें से दस रुपये का नोट लेकर मोड़ने-चोड़ने लगी। मन मसोस रहा था–दस रुपये निकल जाएँगे, लेकिन शोकमग्न भाई को मनाना, इधर से उसका ध्यान भटकाना भी जरूरी था। उसने बबुआ के पास बैठते हुए उसकी कमीज खींची और दाहिने हाथ से रुपये उसकी जेब में डाल दिए।

‘भुनेसरी भइया के साथ इदरिस मियाँ की दुकान पर चले जाओ। मेरे बबुआ को लखनउआ पतंग पसंद है नऽ, जाओ, ले आओ और आज हमलोग पतंग उड़ाएँगे।’ लेकिन बबुआ और जोर-जोर से रोने लगा–‘नानी, तुम भी माई के पास चली गई…।’

कुछ भी बात न बनते देखकर सोनवाँ ने सोचा–मोहना हलवाई की दुकान से बालुशाही मँगवा लूँ तो शायद बबुआ मान जाए। वैसे भी बहियारा की बालुशाही मशहूर है, खूसट-से-खूसट आदमी का भी मूड बना देती है। ऐसा विचार कर वह जैसे ही उठी, उसने सायबान की बाहरी थूनी के पास एक हिलती-डुलती दुर्बल आकृति देखी। मारे भय के वह काँप उठी। कौन! कौन आया है? कहीं नानी ही भूत बनकर तो नहीं आ गईं हमें देखने। वह चीखने ही वाली थी कि उस आकृति ने काँपती आवाज में पुकारा–‘सोना बबी, चीन्हत नइखू? हम तेतरी चमाइन।’ सोनवाँ की जान में जान आई–‘अरे चाची, आवऽ–आवऽ। बड़ी दिन पऽ आइल बाड़ू! खैरियत बा नू?’

भुनेसरी की माँ ने इधर गौर से ताका। वे तेतरी को पहचान गई थीं।

‘खैरियत का पूछत बाड़ू बेटी! गइल जवानी फिर ना अइहें, केतनो खइबऽ घीउ मलीदा…’ कहते-कहते उनके दोनों पैर बुरी तरह काँपने लगे। ऐसा लगा, मारे कमजोरी के वे गिर जाएँगी। चाची माई से 10-12 वर्ष ही बड़ी थीं, पर अभाव, पारिवारिक कलह और इन दोनों से उपजी असुरक्षा की भावना ने उन्हें असमय लाचार वृद्धा बना दिया था। सोनवाँ झट से एक पीढ़ा ले आई और सहारा देकर चाची को उस पर बिठाया।

कुछ क्षण पहले तक जड़ बने बबुआ की सवालिया आँखें मुझे घूरने लगीं। गाँव की गंदी हवा ने अब तक उसके मन में जात-पाँत, ऊँच-नीच का जहर भर दिया था। यह उसी का असर था कि चमाइन जाति की महिला को पीढ़ा मिलने पर उन्हें बहुत नागवार गुजरा था।

‘चाची, तनी पानी पी लऽ ना। कुछ खइबू, मँगवा दीं? आज हमार नानी, मू गइल चाची, बाबू ओहिजे गइल बाड़न।’

सोनवाँ के सब्र का बाँध टूट गया, वह फूट-फूटकर रो पड़ी। तेतरी चमाइन का कलेजा उमड़ आया। काँपते हाथों से उसने सोना के आँसू पोंछ दिए। सोनवाँ के दिमाग में बाबू से सुनी पिछली बातें चलचित्र की भाँति घूमने लगीं–हम सब के जन्म के समय माई के पास सउरी घर में यही तो थीं। बबुआ को जन्म देकर ही माई कृतार्थ हो गई, चल बसी माई!! जाते-जाते चाची से निहोरा कर गई–‘बबुआ के देखते रहिहऽ, चमाइन…।’

इन्होंने भी माई की बात पूरी की। जब तक बबुआ छोटे थे, रोज सुबह-शाम उसे तेल लगा जाती थीं चाची। बाबू चाहते तो टोले की दूसरी औरतों से भी यह काम करवा लेते, लेकिन माई के मुँह से निकला अंतिम वाक्य–‘बबुआ के देखते रहिहऽ चमाइन…।’ उनकी छाती पर गाढ़े अक्षरों में छप गया था। उन्होंने कभी मना नहीं किया, बल्कि हमेशा इन्हें इज्जत दी।

आज चाची बूढ़ी, लाचार और निरीह हो गई हैं। हाथ, पैर, आँख, कान–सब जवाब दे रहे हैं। ‘दादा हो, कहीं ये भी नानी की राह न ले लें’–सोनवाँ जल्दी से उठी। कोठरी में जाकर देखा, बड़‌की मामी की दी हुई साड़ी! अहा! कितनी सुंदर! लेकिन आज यह साड़ी वह चाची को ही देगी। पता नहीं, फिर इनसे भेंट होगी भी कि नहीं। एक जमाना था कि बच्चे के जन्म के समय इस गाँव में ही नहीं, बल्कि पूरे जवार में इनकी पूछ होती थी। बेटे के जन्म पर तो साड़ी क्या, लोग इन्हें पायल-बिछिया भी पहनाते थे। उसने निश्चय कर लिया। झट से साड़ी निकाली और चाची को ओढ़ा दी। भीतर से चिढ़ रहे बबुआ से सोनवाँ ने कसकर कहा–‘उठो, प्रणाम करो चाची को। बड़‌का भैया, मेरे और तुम्हारे जन्म के समय चाची ही आई थीं। और तुम, बाबू चाची न होतीं तो माई के साथ पेट में ही सिधार जाते!’–कहते-कहते उसने अपने भाई को छाती से चिपका लिया। दोनों ओर से गंगा-जमुना बहने लगीं, जिनके निर्मल प्रवाह में सांसारिक मलिनता की घास-भूँसी भला कहाँ टिक पाती!

झेंपते हुए बबुआ उठा और उसने आदर के साथ चाची के चरण छुए। वह इतना छोटा भी न था, पर भावना की आँधी में वह चाची का पल्लू खींच उनकी गोद में घुसने लगा। चाची की घुच्ची आँखों से मारे खुशी के आँसुओं की धार निकल पड़ी। उन्होंने बबुआ के जीवन दिया था, माँ थीं वह, माँ! चाची ने हहाकर बबुआ को अपनी गोद में वैसे ही चिपका लिया, जैसे बहुत दिन से खोया हुआ कोई बहुमूल्य रत्न अचानक किसी पोटली में मिल गया हो। उन्हें उसके जन्म के समय का वह हृदयविदारक दृश्य याद हो आया था। ‘हे आदित बाबा, हे पहाड़ी बाबा, जइसे आज ले लइका के बचवनी, तसहीं आगहूँ नजर रखब; सिहाए के रोजी होए, छोहाए के ना।’–चाची के झुर्रीदार चेहरे पर टँकी आँखें बंद थीं, लेकिन उनका पगुराता पोपला मुँह बबुआ को कोर में छिपाए लगातार असीसता जा रहा था।


Image: sage-1897
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Artist : Nicholas Roerich
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