खबर

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नौकरी के सात साल हो गए मुझे इस तरह अप-डाउन करते हुए। सुबह पैसेंजर ट्रेन से जाना होता है और शाम को देर से घर लौटता हूँ। कभी-कभी रोजमर्रा की इस जिंदगी में किसी दिन ऐसी घटनाओं से गुजरना पड़ता है कि जिंदगी का यह सफर कुछ अजीब सा लगने लगता है।

आज सुबह जब स्टेशन पहुँचा कुछ ऐसे ही घटनाओं से गुजरना पड़ा। बाहर सीढ़ी के पास लोगों की भीड़ लगी हुई थी। वे लोग किसी की लाश को घेरकर खड़े हुए थे। पास गया, तो देखा वह तमड़ू की लाश है।

शहर में पिछले दो दिन से कड़ाके की ठंड पड़ रही है। कल रात वर्षा भी हुई है। तमड़ू की लाश को देखकर ऐसा लगा कि उसकी मौत ठंड से अकड़कर हुई है। नंगे पाँव, फटा हुआ शर्ट, घुटने से ऊपर तक उठी उसकी मटमैली बदबूदार लुँगी, सिर पर बिखरे घने बाल, चेहरे पर बढ़ी हुई अधपकी दाढ़ी, पिचके गाल और मोटे काले होंठ, जिस पर हमेशा अधबुझी-सी बीड़ी लटकती थी। आज वह होंठ खुला है। बाहर की ओर निकला हुआ बदरंग दाँतों पर, मक्खियाँ भिनभिना रही है। गढ्ढे में घँसी उसकी आँखें, कल तक उन आँखों में एक जादुई कमाल था कि लोग जितना उसके गिड़गिड़ाने से हमदर्दी नहीं जताते थे, कहीं उससे ज्यादा उसकी आँखों में झलकती बेचारगी से उसके कटोरे में पैसा उछाल देते थे। तमड़ू की उन आँखों में मैंने बेशुमार यातनाओं को झेलने का एक साहस देखा है। आज उसकी वो आँखें भी बंद है। लोग उसकी लाश पर पैसा उछाल रहे हैं! अनायास ही मेरा हाथ जेब में चला गया, एक सिक्का डाल दिया उसकी लाश पर।

तमड़ू की मौत पर किसी को आँसू बहाते नहीं देखा न ही किसी को चीखते चिल्लाते हुए, दहाड़ मारकर उसके सीने से लगकर रोते हुए भी नहीं। किसी ने उसकी अर्थी पर फूल मालाएँ नहीं चढ़ाई और न ही किसी ने उसके माथे पर चंदन का टीका लगाया और न अरगबत्ती जलायी। वैसा कुछ भी नहीं हुआ जो एक आम आदमी के मरने से होता है। शायद तमड़ू कभी आम आदमी न बन सका हो या फिर वह आदमी की तरह जिया ही न हो।

एक आदमी लाश के पास खड़े लोगों से कफन के लिए पैसे बटोर रहा है। वह आदमी तमड़ू के रिश्तेदारों में से नहीं है; न ही उसके सगा-संबंधी और न ही उसका शुभचिंतक है। यहाँ तक कि वह आदमी तमड़ू की मौत से दुःखी भी नहीं है। एक सस्ता सा कफन खरीदेगा और फिर बचे हुए पैसों से वह शाम को खूब शराब पियेगा। फिर इस तरह की लावारिस लाशों के क्रियाकर्म का ठेका म्यूनिसिपल्टी वालों ने ले रखा है। दो पहिये वाली लोहे की गाड़ी में भरकर शहर से दूर किसी वीरान जगह पर ले जाकर लाश को जमीन में दफन कर दिया जाएगा। शायद तमड़ू के साथ भी ऐसा ही होगा।

एकाएक एक युवक कंधे पर कैमरा लटकाये भीड़ को हटाते हुए अंदर की ओर घुस आया। चेहरे पर दाढ़ी, जींस, पैंट-शर्ट पहन रखा था। उसने अपनी पोजीशन के लिए जगह बनाई, और देखते ही देखते तमड़ू की दो-चार तस्वीरें खींच डाली। मुझे लगा वह निश्चय ही किसी बड़े अखबार का फोटाग्राफर होगा। अच्छे पैसे मिल जाते होंगे, इस धंधे से। मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ। मैंने युवक से झल्लाकर कहा–‘यह क्या मजाक है।’ उसने मेरी तरफ देखकर कहा–‘यह हमारे अखबार के लिए एक सनसनीखेज खबर होगी…।’

एक पल के लिए मैं आश्चर्यचकित रह गया। फिर सोचने लगा, क्या सचमुच तमड़ू की मौत किसी अखबार की सनसनीखेज खबर बन सकती है। कहीं ऐसा तो नहीं, भूखे-नंगे असहाय सड़क छाप तमड़ू को राजनीतिक मुद्दा बनाकर अखबार के मुख्य पृष्ठ पर, उसकी फोटो छापकर सरकार को सामने उछाला जा रहा है। बेचारा तमड़ू जीते जी किसी अखबार की सुखिर्यों में नहीं आया, अब उसे लोग मरने के बाद जानने पहचानने लगेंगे।

एकाएक ट्रेन की सीटी बजने की आवाज सुनकर मैं सीधे प्लेटफार्म की ओर भागा। जल्दी से सामने वाले डिब्बे में चढ़ गया। खिड़की के पास कोने वाली खाली सीट पर जाकर बैठ गया। आज न जाने क्यों मुझे चुप बैठने को मन कर रहा है। ट्रेन में सामान बेचने वालों, खोमचे वालों की तेज आवाज यात्रियों की चहल-पहल बच्चों की चीखने-चिल्लाने की आवाज मुझे चौकाती नहीं रही है। यह सारे चेहरे, शोर-शराबों के बीच यूँ ही सफर करने की आदत जो पड़ गई है। एकाएक फल्ली बेचने वाले उस बूढ़े आदमी को देखकर मुझे तमड़ू का चेहरा फिर से याद आ गया। तमड़ू के दोनों पाँव यदि ठीक होते तो शायद वो भी ऐसे ही ट्रेनों में फल्ली बेचता और अपना पेट पाल लेता। फिर उसे भीख माँगने की जरूरत ही नहीं पड़ती। थोड़े बहुत पैसों से वह इस तरह के धंधे शुरू कर सकता था। मगर उसकी अपंगता ने उसकी इस स्वतंत्रता को भी छीन लिया। कभी-कभी मुझे ऐसा क्यों लगता है कि इस दुनिया में तमड़ू जैसे अपंग लोगों की जरूरत ही क्या है। लेकिन दूसरे ही पल यह भी सोचकर चुप रह जाता हूँ कि इस दुनिया में तमड़ू जैसे अनेक ऐसे अपंग लोग हैं जो मिशाल बनकर दुनिया में जी रहे हैं। वे सब न केवल सामान्य इनसान की तरह जी रहे हैं बल्कि अपनी अपंगता को पीछे छोड़कर एक एक्स्ट्रा आर्डनरी इनसान की तरह स्वाभिमान और सम्मान का जीवन जी रहे हैं। मेरे ही एक साहित्यकार बंधु हैं जो कि बचपन से ही किसी बीमारी से उसके कमर के नीचे का भाग शून्य हो गया है। उसके दोनों पाँव अपंग हो गए। उसे ट्राईसाइकिल का सहारा लेना पड़ा। अब तो उसने जिंदगी के तीस-बत्तीस साल यूँ ही अपंगता के काट दिए। सिर्फ इतना ही नहीं मेरे ही राज्य के पूर्व मंत्री किसी हादसे के बाद उनके दोनों पैरों से अपंग हो गए। वह भी ट्राईसाइकिल पर ही अपने जीवन, के पंद्रह-बीस साल से काट रहे हैं।

अनेक ऐसे खिलाड़ी हुए हैं जो अपंग होने के बावजूद विश्व पटल पर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर कामयाबी के शिखर को चूम रहे हैं। इन तमाम् लोगों से तमड़ू बिल्कुल अलग है। उसकी अपंगता जीवन भर की लाचारी बनकर उसके भाग्य के साथ दीमक की तरह चिपक गया है। और उसकी उम्र को धीरे-धीरे चाट खा रही है।

उसे मैंने पहली बार कब और किस दिन देखा है यह तो मुझे याद नहीं है पर इतना जरूर है कि तमड़ू को इसी प्लेटफार्म पर पिछले तीन-चार सालों से हाथ पसारे लोगों से भीख माँगते हुए देख रहा हूँ।

उस दिन ट्रेन लेट थी। तमड़ू ओव्हर ब्रिज की सीढ़ी के नीचे दीवार से सटकर हाथ पसारे बैठा हुआ था। सुबह का वक्त था, प्लेटफार्म पर भीड़ अधिक थी। मैं पास ही खड़ा था। एकाएक उसकी करुणा भरी स्वर मेरे कानों तक पहुँची। मैंने उसकी तरफ देखा। उसके पास सामान के नाम पर केवल एक गठरी थी, जिसमें कुछ फटे पुराने मैले कपड़े और कुछ टेड़े-मेड़े एल्यूमीनियम के बर्तन थे, बिस्तर के नाम पर एक मोटी मैली चादर थी।

मैंने उसके पास जाकर पूछा–‘तुम्हारा नाम क्या है…।’

उसने आँखें मिचमिचाते हुए कहा–‘तमड़ू’

‘तुम अकेले हो, तुम्हारा कोई नहीं है, बीबी बच्चा?’

उसने सिर हिलाया–‘नहीं’

मैंने कहा–‘कोई नहीं है तुम्हारा, यह भीख क्यों माँगते हो, कोई काम क्यों नहीं ढूँढ़ लेते हो…।’

वह चुप रहा। शायद उसे इसी तरह की जिंदगी जीने की आदत सी पड़ गई है। वैसे भी, मैंने उसे गौर से देखा तो समझ में आया कि उसकी अपंगता ही उसका सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।

‘क्या तुम्हारे पाँव बचपन से ही ऐसे हैं। क्या तुम सीधे पाँव के बल खड़े नहीं हो सकते…।’–मैंने उसकी तरफ देखकर सहज होकर पूछा।

‘जी साब! होश सँभाला तो अपने को ऐसा ही पाया। ठीक से बैठ भी तो नहीं पाता हूँ, खड़े होना तो असंभव है…।’–उसने कहा।

उस दिन मैंने उससे बातें करके यह जाना कि तमड़ू अपने जीवन की आखरी साँस तक इसी प्लेटफार्म पर यूँ ही हाथ पसारे लोगों से भीख माँगता रहेगा। मैंने उसकी बेबसी, लाचारी को देखकर उसकी कटोरी में और लोगों की तरह एक रुपये का सिक्का डाल दिया। मुझे बाद में यह ‘अफसोस भी हुआ कि उस वक्त मेरे पर्स में पाँच रुपये के दो-दो सिक्के भी तो थे। लेकिन यह सोचकर चुप रहा कि आज न सही कल, उसकी कटोरी में पाँच के सिक्के जरूर उछाल फेकूँगा।

किसी दिन देर हो जाने की वजह से जब मैं तेज चलने लगता हूँ और मेरा ध्यान कभी-कभी हट जाता है, तभी एकाएक उसकी करुण पुकार मुझे अनायास ही रोक लेती है। और मैं उसकी कटोरी में पैसे उछाल देता था।

एक दिन शाम को मैंने प्लेटफार्म पर लोगों की भीड़ देखी, पास गया तो सारा माजरा समझ में आया। दरअसल स्टेशन के भीतर प्लेटफार्म को साफ-सुथरा एवं सुंदर बनाने की योजना चल रही थी जिसके तहत प्लेटफार्म पर अवैध ठेले, दुकान तथा तमड़ू जैसे लोग जिन्होंने बरसों से प्लेटफार्म पर बेजा कब्जा कर रखा है उन्हें प्लेटफार्म से बाहर खदेड़ा जा रहा है। मैंने सोचा भूख, लाचारी, अपंगता और असहायता से पीड़ित यह लोग आखिर कहाँ जाएँगे, क्या करेंगे। इन लोगों का भविष्य ही क्या है। फिर मन ही मन यह सोचकर हँस पड़ा, जिन लोगों का कोई वर्तमान ही नहीं है, उन लोगों के भविष्य के बारे में कौन सोचता है। दूसरे ही दिन तमड़ू को प्लेटफार्म के बाहर भीख माँगते देख मैंने पूछा–‘आज यहाँ बाहर कैसे बैठे हो…।’

वह रो पड़ा। फिर सिसकते हुए कहा–‘कल रात पुलिस वालों ने प्लेटफार्म से बाहर निकाल दिया है और कहा है कि फिर से प्लेटफार्म के भीतर भीख माँगते हुए दिखे तो वे हमें थाने में बंद कर देंगे…।’ यह कहकर तमड़ू फूट-फूट कर रोने लगा। सिर पर खुला आसमान चारों तरफ लोगों के भागमभाग के बीच तमड़ू दुबक कर बैठा हुआ था। उस दिन मुझे तमड़ू पहले से कुछ ज्यादा ही बूढ़ा दिखने लगा था। एकाएक लोगों के चहल-पहल से मेरी तंद्रा टूटी। खिड़की से बाहर देखा, तो ट्रेन प्लेटफार्म पर खड़ी थी। लोग उतरने लगे थे। मैं भी अपना झोला कंधे पर लटकाए उतरने लगा। आज का पूरा सफर तमड़ू के बारे में सोचते हुए कट गया। सुबह भी तमड़ू के बारे में ही सोचता रहा। दफ्तर का पूरा दिन काम की व्यस्तता के बीच तमड़ू का चेहरा बार-बार मेरी आँखों के सामने दिखने लगा था। प्लेटफार्म के बाहर निकलते समय एकाएक मेरे पाँव उसी जगह पर ठिठक गए, जहाँ पर सुबह तमड़ू की लाश पड़ी थी। उस जगह पर यात्रियों की भीड़ थी।

जिस जगह पर तमड़ू ने अपने जीवन की आखरी साँस ली थी उस जगह पर लोगों की भीड़ और पैरों की धूल ने उसकी मौत की तमाम निशानियाँ मिटा दी थी। अगर तमड़ू को प्लेटफार्म के बाहर खुले आसमान के नीचे निकाला नहीं जाता तो शायद वह कुछ दिन ऐसे ही और जी लेता।

सुबह जब अखबार हाथ में लिया तो देखा मुख्य पृष्ठ पर तमड़ू की फोटो छपी थी। तमड़ू सचमुच खबर बन चुका है। मुझे उस फोटोग्राफर पर जमकर गुस्सा आया। लेकिन दूसरे ही पल यह सोचकर स्वयं को शांत किया कि उसने अपने पेशे के साथ पूरा न्याय किया। भले ही लोग अखबार पर छपी तमड़ू के उस तस्वीर को कुछ ही दिनों में भूल जाएँगे लेकिन अखबार के रिकार्ड में तमड़ू की तस्वीर वर्षों-वर्षों तक सुरक्षित रहेगी।


Image : The Crowding City
Image Source : WikiArt
Artist : Robert Spencer
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